Thursday 24 September 2015

तेजी से हो रहा है RSS का प्रसार, 61 फीसदी बढ़ीं शाखाएं


डॉ. अरूण जैन
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देश के तमाम हिस्सों में तेजी से अपनी पैठ बढ़ा रहा है। पिछले पांच साल के दौरान इसकी सबसे छोटी इकाई यानी शाखाओं में 61 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।  एक आंकड़े के मुताबिक, 2015 में देशभर में हर दिन नियमित रूप से 51,335 शाखाएं लग रही हैं। आलोचकों की निगाह में संघ भले ही अतिवादी संगठन है, लेकिन वे यह भी मानते हैं कि जमीनी स्तर पर इसके संगठन का कोई तोड़ नहीं। हालांकि, शाखा से जुडऩे वाले स्वयंसेवकों की कोई आधिकारिक सदस्यता नहीं होती, लेकिन हर साल शाखाओं की संख्या के अध्ययन के आधार पर पाया गया है कि 2010-2011 से 2014-2015 के दौरान दैनिक शाखाओं में 29 फीसदी, साप्ताहिक शाखाओं में 61 फीसदी और मासिक शाखाओं में 40 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है।कुछ ऐसा ही रुझान मुंबई और ऐसे ही अन्य शहरों में भी देखने को मिला है। मुंबई में दैनिक शाखाओं में 34 फीसदी की वृद्धि हुई है तो साप्ताहिक शाखाओं की तादाद 70 फीसदी तक बढ़ गई है। नवी मुंबई में भी शाखाओं की संख्या पिछले पांच साल में दोगुनी हो गई है। देशभर में सबसे तेजी से शाखाओं की संख्या में बढ़ोतरी 2013-14 और 2014-15 के दौरान हुई है। कुछ जानाकारों का यह भी मानना है कि इसके पीछे लोकसभा चुनाव के पहले बने बीजेपी समर्थक माहौल और उसके बाद बीजेपी सरकार का सत्ता पर काबिज होना है। गौरतलब है कि बीजेपी संघ के 38 आनुसांगिक संगठनों में से ही एक है। हालांकि, कोंकण क्षेत्र में संघ के प्रवक्ता प्रमोद बापत की मानें तो संघ की शाखाओं में हुई बेतहाशा वृद्धि का केंद्र में बीजेपी की सरकार से कोई लेना-देना नहीं है। बापत के मुताबिक, संगठन दशकों तक कांग्रेस के राज में भी फलता-फूलता रहा है। उन्होंने यह भी बताया कि केरल में कभी बीजेपी सरकार नहीं रही है, लेकिन देश में सबसे ज्यादा करीब 4500 शाखाएं वहीं हैं। इसके अलावा, संघ की पकड़ पश्चिम बंगाल में भी काफी मजबूत है, जबकि यहां भी बीजेपी लंबे समय से हाशिये पर रही है। संघ की जमीनी पकड़ मजबूत है, तो सोशल मीडिया पर भी इस संगठन की विचारधारा के समर्थकों की कमी नहीं है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के फेसबुक पेज को करीब 15 लाख लोगों ने लाइक किया है वहीं ट्विटर पर भी संगठन के 1.5 लाख फॉलोअर्स हैं। बापत बताते हैं कि शाखा सिर्फ शहरों में ही सक्रिय रूप में नहीं है, देश की हर तहसील और करीब 55 हजार गावों में नियमित रूप से शाखा लगाई जा रही है। संगठन से जुड़े कुछ लोगों का मानना है कि आरएसएस ने वक्त के साथ खुद को हमेशा बदला है। अब शाखाएं बच्चों, युवाओं और प्रफेशनल्स की सुविधा के हिसाब से भी लगाई जा रही हैं ताकि किसी की पढ़ाई या नौकरी को प्रभावित किए बगैर उन्हें संघ से जोड़ा रखा जा सके।

देश की राजनीति पर असर डालेगा बिहार का चुनाव 


डॉ. अरूण जैन
बिहार में चुनावी शंखनाद हो चुका है। मुजफ्फरपुर के बाद गया में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पुराने अंदाज से ही जंगलराज के लिए जिम्मेदार लोगों से मुक्ति दिलाने के लिए अवाम से लोकसभा के ही समान सहयोग की अपील की है। गया की सभा में तीन चौथाई युवाओं की उपस्थिति से निश्चय ही भाजपा और उसके सहयोगी दलों के हौसले बुलंद हुए होंगे। जहां प्रधानमंत्री की सभाओं में भाजपा और उसके सभी सम्भावित सहयोगी उपस्थित रहे वहीं अभी तक नीतीश कुमार और लालू प्रसाद ने एक भी संयुक्त रैली को संबोधित नहीं किया है। दोनों अलग-अलग भाजपा और प्रधानमंत्री पर हमलावर हैं। उनके सेक्युलर मोर्चे का संयुक्त स्वरूप अभी तक अनिश्चित है। यद्यपि अस्तित्व की रक्षा के लिए भुजंग प्रसाद और चन्दन कुमार को एक साथ आने के लिए विवष किया है तथापि पुरानी गांठें पूरी तरह से खुल पाना कठिन मालूम पड़ रहा है। कांग्रेस जनता परिवार के इस गठबंधन को सेक्युलर गठबंधन बनाने के लिए पुरजोर प्रयास में लगी है और उसकी सफलता के लिए वह एक दर्जन सीटों पर चुनाव लडऩे के लिए सिमट जाने को तैयार है। उसके इस त्याग का नितीश और लालू में सामंजस्य बैठाने में कितना योगदान होगा यह सीटों के बंटवारे की स्थिति से साफ हो सकेगा। साम्प्रदायिकता के खिलाफ अलमबरदार की भूमिका निभाने का दावा करने वाले साम्यवादियों की सबसे असहाय स्थिति है। उन्होंने अलग से चुनाव लडऩे की घोषणा की है। लेकिन यह संभव है कि वे परोक्ष रूप से जनता परिवार के समर्थन में उतर आयें। जहां उनके उम्मीदवार नहीं रहेंगे, वहां तो वे खुलकर भी समर्थन कर सकते हैं। भले ही नरेंद्र मोदी को चुनाव के बाद परिवार के बिखराव की संभावना से बहुत लोग सहमत न हों, लेकिन सीटों के बंटवारे की स्थिति स्पष्ट न होने और चुनाव अभियान में एकजुट न दिखाई पडऩे के कारण उनके बीच समझदारी पर प्रश्नचिन्ह लगा हुआ है। सीटों के बंटवारे की स्थिति अभी राजग अर्थात भाजपा और उसके सहयोगी दलों की भी स्पष्ट नहीं है लेकिन वे सभी एक मंच पर तो साथ साथ दिखाई ही पड़ रहे हैं जो इस बात का संकेत है कि भाजपा का वर्चस्व होने के आकांक्षा से अधिक सीटों पर लडऩे के आग्रह के बावजूद बाकी के दलों में समझौते में अधिक कठिनाई नहीं आयेगी। जनता परिवार के मुखिया मुलायम सिंह यादव−जो इन दिनों अपने पुत्र अखिलेश की सरकार को नालायक होने का प्रमाणपत्र दे रहे हैं क्योंकि उनकी प्रधानमंत्री बनने की साध पूरी करने के लिए उत्तर प्रदेश की पार्टी पचास के स्थान पर पांच सीटें ही दे पायी। बिहार में इस बार किसी भी उम्मीदवार को मैदान में उतारने की मानसिकता में नहीं है। उनके खेमे के यादव किधर जायेंगे?बिहार विधानसभा का चुनाव महज नीतीश कुमार के अहंकार और नरेंद्र मोदी के प्रतिशोध के घर्षण तक ही सीमित नहीं रहने वाला है। भाजपा के लिए बिहार विजय उसके विजय अभियान के सामने आने वाली सभी रूकावटों को दरकिनार करने वाला साबित होगा और फिर चाहे उत्तर प्रदेश हो, कर्नाटक, हिमाचल, असम या उत्तराखंड और पूर्वोत्तर के राज्य में विजय हासिल करना महज औपचारिकता भर रह जायेगी। इसलिए भाजपा अपनी पूरी ताकत साधन और श्रम को झोंककर यह चुनाव जीतने का प्रयास करेगी। वहीं उसको सत्ता से बेदखल करने या उसकी साख न बनने देने के लिए जो कटिबद्ध हैं, उनके लिए भी यह चुनाव जीवन मरण का प्रश्न बन गया है। इसलिए जहां कांग्रेस नीतीश और लालू में सामंजस्य बैठाने के लिए हर प्रकार का त्याग करने के लिए तैयार है वहीं जातीयता के साथ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण बैठाने वालों ने चुनाव मैदान में न उतरने का फैसला भी कर लिया है। उनको हमवार करने की नियत से ही नीतीश कुमार ने धूल खा रही भागलपुर दंगे की रिपोर्ट को सार्वजनिक कर दिया है और लालू प्रसाद मंडल और कमंडल के बीच खाई चौड़ी करने में लग गए हैं। बिहार के स्वभाव और सम्पर्क की जो पृष्ठभूमि है उसका संज्ञान लेने पर दो आशंकाएं खड़ी हो जाती हैं। क्या यह चुनाव शब्द बाणों से ही लड़ा जायेगा या फिर खूनी संघर्ष भी हो सकता है। जातीयता और सांप्रदायिकता के ध्रुवीकरण का जैसा उपक्रम चल रहा है उसने निर्वाचन आयोग की चिंता अवश्य बढ़ा दी होगी। दूसरा बिहार का वाया मुम्बई खाड़ी के देशों से तार जुड़ा हुआ है। इसलिए इस निर्वाचन में देशी के साथ-साथ विदेशी धन प्रयोग की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। नीतीश सरकार से भाजपा के अलग होने के बाद ऐसे तत्वों की गतिविधियों में इजाफा हुआ है, जो भारत में तोड़−फोड़ को अंजाम देने के लिए बेचैन रहते हैं। पटना में लोकसभा चुनाव के समय नरेंद्र मोदी की सभा में विस्फोट करने वालों से मिली जो जानकारी सार्वजनिक हुई है उससे यह आशंका बलवती हुई है कि जम्मू कश्मीर के बाद पंजाब और बिहार आतंकी तत्वों के निशाने पर है। इसका कारण भी है विस्तृत सीमा रेखा के कारण घुसपैठ में आसानी होती है और चाहने वालों या बांग्लादेश देनों की सरकारें कमजोर हैं। नकली नोटों की सबसे ज्यादा आवक नेपाल के रास्ते ही हुई है। इसलिए बिहार का चुनाव महज सत्ता परिवर्तन का चुनाव नहीं रह गया है। उसका असर व्यवस्था पर भी पडऩे वाला है। बिहार का चुनाव महज एक राज्य की विधानसभा का चुनाव नहीं है, बल्कि भारत के भविष्य की दिशा निर्धारित करने वाला चुनाव है।

जो इंदिरा ने किया अब वही करने जा रहे हैं पीएम मोदी


डॉ. अरूण जैन
आखिरी बार जब किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) का सरकारी दौरा किया था तो उस समय न तो इंटरनेट का जमाना था और न ही मोबाइल फोन बना था। युवा अमिताभ बच्चन उस समय बॉलीवुड के बेताज बादशाह थे और भारत आर्थिक उदारीकरण से पहले वाली दुनिया में रह रहा था। आखिरी बार यूएई का दौरा करने वाली इंदिरा गांधी थीं जो वहां 34 साल पहले गई थीं। यूएई समृद्ध राष्ट्रों का एक संघ है और भारत के साथ इसके घनिष्ठ संबंध हैं। ये देश कुछ साल पहले तक भारत का सब से बड़ा व्यापारिक साझीदार था। अब चीन और अमेरिका के बाद ये तीसरे स्थान पर है।  यूएई के प्रधानमंत्री शेख मोहम्मद बिन राशिद अल मखदूम। भारत यूएई का अब भी बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर है। सियासी लिहाज से दोनों देश एक दूसरे के पुराने मित्र हैं। वहां भारत के 26 लाख लोग काम करते हैं और अपने देश को हर साल 12 अरब डॉलर की बड़ी रकम भेजते हैं।लेकिन इसके बावजूद इंदिरा गांधी के बाद कई प्रधानमंत्री आए और गए, मगर यूएई का दौरा नहीं किया। मनमोहन सिंह के 2013 में वहां जाने की पूरी तैयारी हो गई थी, लेकिन आख‌िरी लम्हे में ये दौरा स्थगित कर दिया गया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस कूटनीतिक अनदेखी को दूर कर रहे हैं। मोदी मध्य एशिया के देशों का दौरा पहले ही कर चुके हैं। ये उस क्षेत्र के अरब देश का उनका पहला सरकारी दौरा था। केवल एक लम्बी कूटनीतिक अनदेखी को दूर करना ही इस दौरे का अकेला मकसद नहीं था। कच्चे तेल और ऊर्जा के क्षेत्र में यूएई भारत का एक अहम पार्टनर है। भारत को गैस और तेल की जरूरत है और यूएई इसका एक बड़ा आपूर्तिकर्ता है और इससे भी बड़ा भागीदार बनने की क्षमता रखता है। यूएई की आर्थिक कामयाबी का मतलब ये है कि इसकी अर्थव्यवस्था 800 अरब डॉलर की है। निवेश के लिए इसे मार्केट चाहिए जो भारत के पास है। फिलहाल भारत में इसका निवेश केवल तीन अरब डॉलर का है।सुरक्षा के लिहाज से भी यूएई भारत के लिए अहमियत रखता है। भारत में हुए कुछ चरमपंथी हमलों की तारें दुबई से जुड़ती हैं। मुंबई में 2008 में हुए हमले के सिलसिले में जेल की सज़ा भुगत रहे डेविड हेडली हमले से पहले और बाद में कई बार दुबई में जाकर रहा था। इसी तरह से मुंबई में ही 2003 में हुए दोहरे बम विस्फोट में सजा काटने वाले मुहम्मद हनीफ़ ने धमाकों का प्लान दुबई में बनाया था। यूएई ने भारत को हमेशा सुरक्षा सहयोग दिया है। इसमें और मज़बूती लाने की जरूरत है । यूएई में रहने वाले प्रवासी भारतीय अमेरिका और यूरोप से कई मायने में अलग हैं। वहां काम करने वाले भारत के 26 लाख लोगों में अधिकतर मज़दूर तबके के हैं। वो भारत के नागरिक हैं और साल में एक दो बार अपने घरों को ज़रूर आते हैं। इनमें अधिक लोग केरल के हैं जहां बीजेपी अपनी जगह बनाना चाहती है। अमेरिका और यूरोप में प्रवासी भारतीयों ने उनका स्वागत सेलिब्रिटी अंदाज में किया था। संसद के मानसून सत्र में कांग्रेस और विपक्ष के जि़द्दी रवैए को सहने के बाद यूएई के प्रधानमंत्री मुहम्मद बिन राशिद अल-मख़दूम की मेहमान नवाज़ी का मोदी को बेसब्री से इंतजार होगा।

नेहरू की विरासत को त्यागने की यह बेताबी किसलिए? 


डॉ. अरूण जैन
नई दिल्ली में त्रिमूर्ति पर बने जवाहर लाल नेहरू म्यूजियम को आधुनिक बनाने के भारतीय जनता पार्टी सरकार के फैसले से लोग में डर की भावना दिखाई दे रही है। भाजपा के प्रवक्ता ने सफाई दी है कि वर्तमान म्यूजियम (संग्रहालय) राष्ट्रीय आंदोलन का सिर्फ नेहरू वाला पक्ष सामने लाता है, उसकी पूरी कहानी नहीं। विडंबना है कि आधुनिक बनाने की मांग उन लोगों ने की है जिन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन में जरा योगदान नहीं किया है। अगर उनकी कोई भूमिका थी भी तो यहीं कि उन्होंने ब्रिटिश शासकों की मदद की। संस्थानों के भगवाकरण के पीछे भाजपा के मन में क्या है। पार्टी ने इसी तरह का प्रयास उस समय किया था जब अटल बिहारी वाजपेयी सत्ता में थे। लेकिन उन्होंने इतिहास की दोबारा व्याख्या करने के इस प्रयास की मजबूती से विरोध किया था। वह आजादी हासिल करने में नेहरू के योगदान को मानते थे और उन्होंने इस का पूरा श्रेय नेहरू को दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अलग तरह के आदमी हैं। वह खुलकर उस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मार्गदर्शन लेते हैं जो राष्ट्रीय संघर्ष की आलोचना करता है क्योंकि उसने इसमें भाग नहीं लिया था। मोदी के शासन में नेहरू म्यूजियम को नया रूप देने का मतलब है इतिहास में पुराने पड़ गए विचारों को घुसाना। नेहरू ने आजादी के बाद राष्ट्र को गढऩे का काम किया और उसे एक वैज्ञानिक मिजाज दी। नेहरू का सबसे बड़ा योगदान सेकुलरिज्म का सोच है। बंटवारे के बाद जब पाकिस्तान ने इस्लामिक राज्य बनाने का निर्णय लिया, उन्होंने भारत को सेकुलर बनाया। शायद भाजपा इसी चीज को पसंद नहीं करती है और म्यूजियम का चरित्र बदलना चाहती है। क्यों नहीं, भाजपा एक अलग म्यूजियम बनाती है जहां वह इतिहास को उस रूप में रखे जिस तरह से वह इसे रखना चाहती है। मैं कुछ दिनों पहले पुणे गया था और यह देख कर बैचेन हुआ कि उस आगा खां पैलेस को एक पर्यावरण पार्क में बदल दिया गया है जहां ब्रिटिश शासकों ने आजादी के आंदोलन की प्रेरक हस्तियों, महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल और मौलाना अबुल कलाम आजाद को कैद में रखा था। मुझे पार्कों से कोई शिकायत नहीं है। लेकिन राष्ट्र के खून से पवित्र बन गए स्थानों को उसी रूप में बनाए रखना चाहिए जैसा वे थे ताकि नई पीढ़ी उसे अपने वास्तविक रूप में देख सके। कितनी भी ईमानदारी से सजावट हुई हो, यह असली भावना को बुझा देती है। इसके विपरीत, अमृतसर से जालियांवाला बाग को उसी रूप में सुरक्षित रखा गया है जैसा वह था। यह शहादत का माहौल मौजूद है और अभी भी कुएं का स्थान मुख्य बना हुआ है। इसे देखकर कोई भी यह कल्पना कर सकता है कि किस तरह ब्रिटिशों के नेतृत्व वाली फौज की ओर से की जा रही लगातार फायरिंग से बचने के लिए लोग कुएं में कूद गए होंगे। लोगों को इसलिए दंडित किया गया था कि एक ब्रिटिश महिला का अपमान हुआ था जिसे बाजार से गुजरते समय सिटकारी की आवाज सुनाई पड़ी थी। विरोध करने वाले लोग जालियांवाला बाग में ब्रिटिश शासन के खिलाफ सिर्फ जमा हुए थे। उनका संघर्ष के आजादी के लिए था। दुख की बात है कि सैंकड़ों लोगों की हत्या के बाद भी एक ब्रिटिश सैनिक ने अफसोस जाहिर किया था कि उनके पास और गोलियां नहीं थी। निश्चित तौर पर जालियांवाला बाग जैसे स्थान असली मंदिर है। वे हमें राष्ट्रीय संघर्ष के दर्द और उसकी आवाज और इस लड़ाई में सब कुछ न्योछावर करने वालों की याद दिलाते हैं। वे स्थान उन पवित्र ग्रंथों से कम महत्व की नहीं हैं जिनकी हम पूजा करते हैं। दुर्भाग्य से, मंदिर, मस्जिद, चर्च और गुरुद्वारों की संख्या बढ़ती जा रही है और उनकी सजावट भी भद्दी होती जा रही हैं। धर्म का पालन करने वालों को यह गलत विश्वास हो गया है कि संगमरमर या सोना पूजा करने वालों के लिए जगह को और भी प्यारा बना देता है। दुर्भाग्य से, जिन भवनों ने आजादी के लड़ाई में कोई भूमिका नहीं निभाई है, उन्हें महत्व का स्थान मिला हुआ है। उससे भी ज्यादा बुरा है अनेकतावादी संस्कृति की जगह सीमित सोच स्थापित करने का प्रयास। यह तो कोई सोच भी नहीं सकता कि कोई पार्टी या व्यक्ति महात्मा गांधी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे का स्मारक बनाने की मांग भी कर सकता है। हिंदुत्व की भावना फैलाने वाली भारतीय जनता पार्टी को उस भावना को समझना चाहिए जिसने मुसलमानों को गलत दिशा दिखाई थी। अगर यह मान भी लिया जाता है कि मुसलमान जानबूझ कर पाकिस्तान की मांग के समर्थन में जुट गए थे। तो उसके लिए भारतीय मुसलमान किस तरह जिम्मेदार हैं जो सत्तर बरस पहले हुआ है? जब हम उनलोगों को कोई दोष नहीं दे रहे हैं जिन्होंने ब्रिटिशों का समर्थन किया तो उन मुसलमानों को क्यों पकड़ें जिनके पूर्वजों ने पाकिस्तान बनाने में मदद की? एक औसत हिंदू ने भारत के बंटवारे के लिए मुसलमानों को माफ नहीं किया है। पाकिस्तान के साथ तनाव के समय कई हिंदू मुसलमानों पर संदेह करते। दूसरी तरह से भी, हिंदू मुसलमानों से दूरी बनाए रखत

माहौल बनाने में जुटे विपक्ष से निपटना होगा भाजपा को 


डॉ. अरूण जैन
भूमि अधिग्रहण संशोधन अध्यादेश को पुनर्जीवित नहीं करने का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का फैसला समयानुकूल कहा जा सकता है क्योंकि उनकी सरकार के बारे में जो अनेक भ्रम फैलाए जा रहे हैं, उनमें सबसे अधिक इस संशोधन विधेयक को लेकर रहा है। उनकी सरकार को किसान हित विरोधी और पूंजीपतियों का हित चिंतक बताया गया। आधारहीन होते हुए भी यह आरोप उनकी सरकार पर चिपक कर रह गया और सरकार की लोकप्रियता का ह्रास भी हुआ। इस संदर्भ में यदि तटस्थ भाव से देखा जाये तो यह मानना पड़ेगा कि यह संशोधन विधेयक ग्रामीण विकास की कुंजी है। मोदी सरकार ने एक भी निर्णय ऐसा नहीं किया जो देश के पूंजीपतियों के हित में कहा जा सकता है। लेकिन मेक इन इंडिया, स्मार्ट सिटी आदि के बारे में अतिशय आग्रह से यह भावना बढ़ी कि मोदी सरकार धनपतियों के लिए अवसर प्रदान कर रही है। भारत एशिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति होने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। चीन में आई मंदी के कारण विश्व भारत की ओर आशा भरी नजरों से देख रहा है। भारत आर्थिक शक्ति बिना उद्योगों के विस्तार के नहीं बन सकता। लेकिन मोदी सरकार के विरोध का जो माहौल बना है उसे बनाने वालों की प्राथमिकता यह साबित करना है कि मोदी असफल प्रधानमंत्री हैं। यह साबित करने के लिए उन्होंने सब प्रकार के अप्रचार का सहारा लिया। संसद का हंगामा उसी प्रयास का एक पक्ष है। पटना की जुटान और औरंगजेब के पक्ष में अभिव्यक्ति भी उसी मानसिकता का प्रतीक है। देश की राजनीति मोदी बनाम अन्य में सिमटती जा रही है। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्वकाल में पारित भूमि अधिग्रहण कानून से विकास कार्यों में बाधा पड़ेगी यह आशंका उस समय अधिकांश मुख्यमंत्रियों ने व्यक्ति की थी लेकिन सरकार बदलते ही वे भी बदल गए। देश में भाजपा विरोध का राजनीतिक माहौल बनाने के लिए उसके खिलाफ चार प्रचार किये जा रहे हैं- भाजपा अल्पसंख्यकों की हितचिंतक नहीं है, उसने काला धन लाकर पंद्रह लाख रूपया हर खातेदार के खाते में जमा करने का वादा भुलावा देने के लिए किया था, वह गरीब और किसान विरोधी है। उसने अपने एक साल से अधिक कार्यकाल में कोई वादा यहां तक कि भ्रष्टाचार खत्म करने, दो करोड़ लोगों को प्रतिवर्ष रोजगार देने आदि का वादा पूरा नहीं किया। सबका साथ सबका विकास की नीति और नीयत से विरत होने का यद्यपि आरोप लगाने वालों के पास कोई सबूत नहीं है तथापि कतिपय व्यक्तियों की प्रतिक्रियाओं और भारतीयत्व की विश्व में धाक बढ़ाने के लिए योग जैसे कार्यक्रम को अंतरराष्ट्रीय मान्यता दिलाने को साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से देखने वाले केवल भारत में ही मिलेंगे। एक ईसाई प्रवक्ता ने तो यहां तक कह डाला कि भाजपा मस्जिद और गिरजाघरों के बजाय चाहती है सब मंदिर में पूजा करें। दुनिया में ऐसा एक भी देश नहीं है जहां भारत के समान देशी−विदेशी अनगिनत पूजा पद्धतियों को नागरिक अधिकार माना गया है। भगवाकरण आदि प्रचार नयी नहीं है लेकिन सरकार को बिना सबूत के विरोध करने के लिए जिस प्रकार इसे मुद्दा बनाने के लिए पाकिस्तान का हस्तक तक लोग बाग बन रहे हैं, वह निश्चय ही चिंता का विषय है। हमारे देश में विदेशी आक्रमणकारी शासकों के नाम पर अनेक सड़कें थी महत्वपूर्ण स्थान पर उनके पुतले खड़े थे, वे सब क्यों हटाए गए और जब हटाए गए तो किसी ने विरोध नहीं किया लेकिन औरंगजेब के नाम पर जो सड़क थी उसे डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम का नाम देने पर हंगामा खड़ा किया जा रहा है। क्यों, क्योंकि यह भाजपा के शासनकाल में हो रहा है। दिल्ली की तमाम सड़कों के नाम कांग्रेस के शासनकाल में ही बदले गए। जो कनाट प्लेस या कनाट सर्कस के नाम से जाना जाता था उसे इंदिरा चौक और राजीव चौक कर देने पर किसी ने आपत्ति नहीं की। साम्प्रदायिक विद्वेष तो फैलाया जा रहा है, बिहार के चुनाव को लेकर जातीय उन्माद भी पैदा किया जा रहा है। नरेंद्र मोदी का रास्ता रोकने के लिए। लोकसभा चुनाव में प्रचार के समय नरेंद्र मोदी ने कहा था कि विदेशों और देश में इतना कालाधन है कि यदि वह मिल जाये तो प्रत्येक व्यक्ति के खाते में पंद्रह लाख रूपया आ सकता है। कालेधन की मात्रा का अरबों खरबों में जिक्र से ज्यादा इस कथन से समझ में आता है। मोदी विरोधियों ने इसे किसी खाते में एक रूपया भी नहीं आया कहकर मुद्दा बनाया जबकि सभी यह जानते हैं कि अदालतों से हुआ जुर्माना या छापेमारी से बरामद धन किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के खाते में नहीं जाता बल्कि वह सरकारी खजाने में जमा होता है। न तो मोदी ने लालच दिया और न आम लोग इतने बुद्धु हैं कि वे इसे समझते नहीं। लेकिन कहा गया पंद्रह लाख का प्रलाप जारी है। भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा है। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्वकाल में भ्रष्टाचार के खिलाफ जिसने मुहिम चलाई जनता उसके पीछे खड़ी हो गई। ऐसे अभियान किस कारण असफल हुए उसके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है। नरेंद्र मोदी ने भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए सिस्टम में बदलाव की बात कही थी। केवल कोयला खदानों की नीलामी का फैसला ही सिस्टम में बदलाव का प्रतीक नहीं है। राजीव गांधी ने एक रुपया दिल्ली से चलने पर सोलह पैसा लाभार्थी तक पहुंचने पर जो चिंता व्यक्त की थी, उसके सटीक उपाय भी नरेंद्र मोदी ने किया। लाभार्थी के खाते में सीधे धनराशि को भेजकर। जो मनरेगा भ्रष्टाचार को गांवों तक ले गया, अब उसमें घपला नहीं हो सकेगा। रसोई गैस की सब्सिडी खाताधारकों के खाते में भेजने के फैसले से न केवल गैस की किल्लत कम हुई है बल्कि कई हजार करोड़ रूपए की बचत भी हुई है। सरकार यूरिया अनुदान को भी पात्रों के खाते में सीधे भेजने पर अमल करने जा रही है। मोदी ने कहा था कि छापामारी से यह दाग मिटने वाला नहीं है ऐसा उपाय करना होगा जिससे यह रोग पनपे ही नहीं। इस सटीक उपाय का प्रभाव दिखायी पडऩे लगा है। मोदी सरकार पहली सरकार है जिसके किसी मंत्री पर भ्रष्टाचार या पद के दुरूपयोग का आरोप नहीं लगा। सुशासन के उनके वायदे के मुताबिक केंद्रीय सरकार के कार्यालयों में जो बदलाव आया है उसका विस्तार राज्यों में हुए बिना ग्राम स्तर पर सुशासन की अपेक्षा पूरी नहीं होगी। लेकिन यह काम राज्य सरकारों का है। जो ऐसा कदम उठाने के बजाय भ्रष्टाचारियों को बचाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचने लगी है।

क्या भारत में आ सकती है अनिवार्य मतदान की व्यवस्था 


डॉ. अरूण जैन
पिछले साल नवम्बर में गुजरात राज्य ने एक बिल पारित कर स्थानीय निकाय चुनावों में मतदान को अनिवार्य कर दिया। गुजरात ऐसा कानून बनाने वाला पहला भारतीय राज्य है। गुजरात विधानसभा ने यह बिल 2009 में ही पास कर दिया था, परंतु राज्य की तात्कालीन राज्यपाल कमला बेनीवाल ने इस बिल को दो बार वापस लौटा दिया था। केंद्र में मोदी सरकार के आगमन के उपरांत गुजरात में नवनियुक्त राज्यपाल ओपी कोहली ने अंतत: इस बिल को सहमति दी। इस वर्ष अक्टूबर माह में गुजरात में 315 स्थानीय निकायों के लिए चुनाव होने हैं। संभावना है कि चुनावों से पहले अनिवार्य मतदान के इस विवादास्प्द कानून को लागू करने के लिए राज्य सरकार अधिसूचना जारी कर देगी। पूर्व राज्यपाल की राय से इत्तेफाक रखते हुए बहुत से विशेषज्ञ इस बिल की संवैधानिक वैधता पर ही सवाल खड़ा कर रहे हैं। इनके अनुसार यह कानून भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 (जो नागरिकों को निजी स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है) का उल्लंघन करता है। दूसरी तरफ अनिवार्य मतदान बिल के समर्थक यह तर्क दे रहे हैं कि इसमें लोगों की निजी स्वतंत्रता को कोई खतरा नहीं है और उनके पास नोटा (उपरोक्त में से कोई नहीं) को वोट देकर सभी उम्मीदवारों को अस्वीकृत करने का अधिकार अब भी उपलब्ध है। गुजरात सरकार द्वारा गठित कपूर कमेटी ने मतदान न करने वाले लोगों पर लगाए जाने वाले जुर्माने अथवा सजा के निर्धारण के लिए आम जनता से सुझाव आमंत्रित किए थे। हालांकि हमें इस कानून के अंतर्गत होने वाली सजा के स्पष्ट प्रावधानों के लिए अभी और इंतजार करना होगा। सवाल उठता है कि क्या इस प्रकार का प्रावधान दुनिया में कहीं और भी मौजूद है? वर्तमान में दुनिया के लगभग 26 देशेां में किसी ने किसी प्रकार से अनिवार्य मतदान लागू है। इनमें अर्जेंटीना, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर व ब्राजील प्रमुख हैं। यद्यपि इन देशों के कानूनों के अनुसार वोट न देना एक दंडनीय अपराध है, फिर भी इसमें से अधिकांश देश इन दंड प्रावधानों को प्रभावी रूप से लागू नहीं कर पाए हैं। इनमें से कुछ देश, जैसे आस्ट्रेलिया व ब्राजील मतदान न करने के कुछ जायज कारणों को स्वीकार करते हैं- जैसे बीमार होना अथवा मतदन के दिन शहर में होने में असमर्थता। ब्राजील में अगर आप वोट नहीं डालते तो संभव है कि आपकों पासपोर्ट जारी नहीं किया जाए, वहीं बोलीविया में मतदान न करने पर आप तीन महीनों तक बैंक से अपना वेतन नहीं निकाल पाएंगे। बहुत से विशेषज्ञों के मुताबिक निकाय चुनावों में होने वाले कम मतदान के कारण गुजरात सरकार को यह कानून बनाने के लिए विवश होना पडा। ये लोग तर्क देते हैं कि वर्तमान में जहां लोग स्थानीय चुनावों में कोई खास रूचि नहीं दर्शाते हैं, वहीं यह अनिवार्य मतदान कानून लागू होने के बाद लोग अपने संवैधानिक अधिकार का प्रयोग करने के लिए जागरूक व प्रेरित होंगे। यहां रोचक तथ्य यह है कि कम मतदान वाले देशों की सूची में हम अकेले नाम नहीं है। अमेरिका में 2014 के मध्यावधि चुनावों में 72 सालों के इतिहास में सबसे कम वोटिंग हुई। पंजीकृत वोटरों में से मात्र 36.04 फीसद ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। 2010 के मध्यावधि चुनावों में यह आंकड़ा 41 फीसद था। जो लोग अनिवार्य मतदान का समर्थन करता हैं, उनका कहना है कि अपने मताधिकार का प्रयोग न करने वाले नागरिक सरकार व इसकी नीतियों का आलोचना करने का नैतिक अधिकार खो देते हैं, क्योंकि मूल रूप से सरकार गठन की प्रक्रिया में उनकी भागीदार थी ही नहीं। उधर, लिबरल विश्लेषक कहते हैं किएक नागरिक द्वारा वोट न डालने का निर्णय भी तो उसका नकारात्मक (नेगेटिव) वोट डालने का पहलू दर्शित करता है। जैसे कि लालकृष्ण आडवाणी ने एक बार कहा थ कि जो लोग बिना किसी वैध औचित्य के अपने इस, संविधान प्रदत्त मूल्यवान अधिकार (मताधिकार) का प्रयोग नहीं करते हैं, वे अनजाने में न चाहते हुए भी सभी उम्मीदवारों के खिलाफ एक प्रकार से नकारात्मक मतदान कर देते हैं। इस बात की पूरी-पूरी संभावना है कि गुजरात सरकार द्वारा गठित कपूर कमेटी इस कानून का उल्लंघन करने वालों के लिए नाममात्र के जुर्माने की सिफारिश करेगी। परंतु इस देश और संबंधित राज्य की विशाल जनसंख्या को देखते हुए इस जुर्माने की वसूली कोई आसान काम नहीं होगी। अंततोगत्वा आप जुर्माने की राशि से अधिक तो इसकी वसूली में खर्च कर देंगे। मनुष्य का स्वभाव नैसर्गिक रूप से उन सभी बातों का विरोध करता है जो अनिवार्य हैं, या उस पर थोपी जाती हैं। ब्राजील का उदाहरण लेते हैं- अनिवार्य मतदान वाले इस देश में लोगों ने 1959 में एक निकाय चुनाव में के सार्को नामक एक गैंडे को चुनाव जितवा दिया था। चुनावों में अच्छे उम्मीदवारों की कमी से क्षुब्ध लोगों ने विरोध का यह अनोखा तरीका चुना है। नकारात्मक प्रोत्साहन अथवा दंड की अपेक्षा, सकारात्मक प्रोत्साहन अधिक प्रभावी तरीका है। उदाहरण के लिए दिल्ली में हुए हालिया विधानसभा चुनावों में बहुत से रेस्त्राओं, जिम व सैलूनों ने मतदाता स्याही लगी हुई उंगली दिखाने वाले ग्राहकों के लिए छूट की घोषणा की थी। इस तरह के अभियानों से मतदान प्रतिशत पर क्या प्रभाव पड़ा है, इसका अध्ययन अभी बाकी है। फिर भी इसे एक सकारात्मक पहल तो कहा ही जा सकता है। हालिया वर्षों में देश में हुए चुनावों में मतदान प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है। यह वृद्धि देश में हो रही साक्षरता दर में वृद्धि को समानुपाती कही जा सकती है। इस बात को कोई नहीं नकारेगा कि मतदाता जागरूकता का मतदान प्रतिशत बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान है। लोगों को उनके वोट का महत्व समझाने के लिए चुनाव आयोग जगह-जगह बहुत से जागरूकता कार्यक्रम आयोजित कर रहा है। इस अभियान को और आगे बढ़ाते हुए सन् 2011 में सरकार ने 25 जनवरी को राष्ट्रीय मतदाता दिवस घोषित किया था। पिछले कुछ सालों में बहुत-सी नामी हस्तियों ने भी मतदाता जागरूकता का बीड़ा उठाया है। मतदान का निरंतर बढ़ता प्रतिशत इस बात का प्रमाण है कि उनकी मेहनत रंग भी ला रही है। अब देखना यह है कि गुजरात में लागू होने वाला अनिवार्य मतदान का यह कानून देश की बढ़ती राजनीतिक जागरूकता का प्रतीक बनता है अथवा सरकार व उसके अधिकारियों की गलफास बनता है।

आरक्षण पर नई बहस का वक्त


डॉ. अरूण जैन
गुजरात का खाता-पीता संपन्न पटेल समाज भी जातिगत आधार पर आरक्षण चाहता है। उसने अपनी ताकत भी दिखा दी है। हालांकि उनका आंदोलन बहुत सारे सवाल छोड़ गया है। इस आंदोलन पर केजरीवाल-नीतीश प्रेरित होने के आरोप भी लग रहे हैं। हार्दिक पटेल और केजरीवाल के फोटोग्राफ भी सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं। इन सवालों के जवाब देश को तलाशने होंगे। जो जातियां सामाजिक-आर्थिक रूप से संपन्न और समृद्ध हैं उन्हें भी आरक्षण की मलाई की चाहत है। आप भारत से बाहर कहीं भी चले जाइए आपको सबसे ज्यादा पटेल ही मिलते हैं। कुछ साल पहले तक न्यूयार्क शहर की टेलीफोन डायरेक्टरी में पटेल सरनेम के सबसे ज्यादा पन्ने थे। गुजरात में ये हीरे और तेल-घी के बड़े कारोबारी से लेकर दूसरे पेशों में भी सफल हैं। गुजरात में पटेल और उत्तर भारत में जाटों और गुर्जरों के आरक्षण के आंदोलन से अब सरकार को और संसद को दलगत राजनीति से ऊपर उठकर जातिगत आधारित आरक्षण नीति पर फिर से विचार करने के लिए बैठना होगा। इसमें कोई बुराई भी नहीं है। आखिर तमाम नीतियां वक्त के साथ बदलती रही हैं और स्वस्थ लोकतंत्र में ऐसा होना भी चाहिए। अब देश को यह विचार करने की जरूरत है कि आरक्षण किस-किस को मिले और उसका आधार क्या हो? लोकतंत्र की खूबसूरती भी यही है कि इसमें सबको अपनी बात रखने का अधिकार और आजादी है। लेकिन इसके बेजा इस्तेमाल की लोकतंत्र इजाजत तो नहीं देता। अब इस सवाल पर भी सरकार को सोचना होगा कि क्या किसी शख्स को आरक्षण का लाभ एक बार मिलना चाहिए या बार-बार और पीढ़ी-दर-पीढ़ी। क्या कालेजों में एडमिशन से लेकर नौकरी और फिर प्रमोशन तक में आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए? आरक्षण के बल पर जो सरकारी सेवाओं में पहुंच गए, विधानसभाओं और संसद की सदनों तक में आ गए, मंत्री और राज्यपाल तक बन गए, क्या उनके बच्चे भी आरक्षण के हकदार होने चाहिए?आरक्षण को खत्म हरगिज नहीं किया जा सकता। वंचितों और समाज के सबसे पिछड़े पायदान पर रहने वाले समाजों को तो आरक्षण की सख्त जरूरत है और उन्हें आरक्षण का लाभ देना भी होगा। देश उन पर कोई अहसान नहीं कर रहा। सभी लोकतांत्रिक देशों में समाज के दबे-कुचले वर्गों को मुख्यधारा में लाने के लिए विशेष प्रयास किए ही जाते हैं। विशेष योजनाएं चलाई जाती हैं। अमेरिका में अश्वेतों के लिए अफरमेटिव एक्शन चलता है। दक्षिण अफ्रीका की तो क्रिकेट टीम तक में भी अश्वेतों के लिए आरक्षण की नीति है। इसलिए आरक्षण को खारिज करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। पर प्रश्न यह उठता है कि आरक्षण किसको दिया जाए, आरक्षण का आधार क्या हो और आरक्षण एक पीढ़ी को दिया जाए या उसे एक पुश्तैनी हक बना दिया जाए। बड़ा सवाल यह है कि क्या मौजूदा जाति पर आधारित आरक्षण से दलितों और पिछड़ों को लाभ हुआ और हुआ तो कितना हुआ? बेशक नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण के चलते बहुत से दलित और पिछड़े समाज के लोगों को हम समाज के तमाम क्षेत्रों में अगली पंक्ति में कदमताल करते हुए तो देख ही रहे हैं। लेकिन आरक्षण के चलते सारे दलितों या अन्य पिछड़ी जातियों की जिंदगी कतई नहीं बदली। पिछड़े वर्ग और दलितों में भी गिनी-चुनी दबंग जातियां और पहले से ही खाते-पीते वर्ग आरक्षण की मलाई खा रहे हैं। बिहार में 133 ओबीसी जातियां हैं और 23 अनुसूचित जातियां हैं। उत्तर प्रदेश में 76 ओबीसी जातियां और 66 अनुसूचित जातियां हैं। इनमें जो जातियां असरदार हैं उनकी तादाद लाखों में हैं। जिनका असर कम है वे कुछ हजारों तक सीमित हैं। यह सबको पता है कि जिन जातियों से जुड़े लोगों की तादाद कम है उन्हें तो आरक्षण का लाभ वैसे भी नहीं मिल रहा। आरक्षण की रेवडिय़ां तो बड़ी और दबंग जातियों के हिस्से में ही जा रही हैं। नतीजा यह हो रहा है कि आरक्षण की नीति के बावजूद बहुत सी जातियों का सामाजिक-आर्थिक स्तर पर पिछड़ापन बरकरार है। अब कई स्तरों पर यह मांग भी उठ रही है कि आरक्षण का लाभ उन्हें ही मिले जो आर्थिक रूप से पिछड़े हैं। कायदे से इसमें बुराई ही क्या है? अगर आरक्षण का आधार आर्थिक-सामाजिक तय कर लिया जाए तो इसमें बुराई ही क्या है? कम से कम इस लिहाज से एक स्वस्थ बहस तो देश में शुरू हो ही जानी चाहिए। दुनिया तेजी से बदल रही है। अब समाज और सरकार को नौजवानों को आरक्षण जैसे मसलों से आगे सोचने के लिए प्रेरित करना चाहिए। देश में साक्षरता तेजी से बढ़ रही है। शिक्षित होने की प्यास और ख्वाहिश हर स्तर पर हर जाति-धर्म में देखी जा रही है। इसके चलते अब वक्त नौकरी करने का कम और उद्यमी बनने के लिए ज्यादा मुफीद नजर आ रहा है। वे नौजवान भी उद्यमी भी बन रहे हैं जिनके परिवार में कभी किसी ने बिजनेस नहीं किया। इसमें दलित और पिछड़ी जातियों से संबंध रखने वाले भी कम नहीं हैं। आज डॉ. अंबेडकर हमारे बीच होते तो उन्हें निश्चित रूप से इस बात का संतोष होता कि सैकड़ों-हजारों वर्षों से दबे-कुचले दलित अब छोटी-मोटी नौकरी करके ही खुश नहीं हैं। वे उद्यमी बन रहे हैं। वे रोजगार मांग नहीं रहे, बल्कि दे रहे हैं। आर्थिक उदारीकरण दलित उद्यमियों के लिए फायदेमंद रहा। उसके बाद दलित उद्यमियों को तमाम क्षेत्रों में अपने लिए जगह बनाने का मौका मिला। बेशक कोई भी समाज जो कठिन दौर से गुजरता है और संघर्ष करता है वह एक दिन तरक्की करता है। अब दलितों का समय आ गया है। दलित व्यापार में अपनी क्षमताओं से आगे बढ़ रहे हैं। कुल मिलाकर बात यह है कि अब देश के सभी शिक्षित नौजवानों को नौकरी और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण से आगे के बारे में सोचना होगा। यदि आरक्षण पर पुनर्विचार हो तो मुद्दा यह होना चाहिए कि जिन अति पिछड़ी और महादलित जातियों को अब तक आरक्षण का कुछ खास लाभ नहीं मिला उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को कैसे ऊपर उठाया जाए?

Wednesday 9 September 2015

जनभागीदारी की जरूरत


डॉ. अरूण जैन
गंगा मात्र एक नदी नहीं, बल्कि राष्ट्र की जीवनधारा है। भारतीय मानस की अतल गहराइयों में गंगा बहती है। सिर्फ एक नदी नहीं, बल्कि मां के रूप में निजी तथा सांस्कृतिक-सार्वजनिक जीवन को गंगा की धारा जीवंतता प्रदान करती है। गंगा के इसी महत्व को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान करते हुए शुरू की गई नमामि गंगे परियोजना पर हाल में अनेक सवाल खड़े किए गए हैं। निर्मल गंगा या एक प्रदूषण रहित नदी के रूप में गंगा के पुनर्जीवन से जुड़ी नमामि गंगे योजना मूर्तरूप लेने लगी है। लोकसभा में दी गई जानकारी के अनुसार नमामि गंगे में अद्यतन प्रगति गंगा की विमान-हवाई मैपिंग योजना है, जो सर्वथा अभिनव प्रयोग है। गंगा के प्राचीन स्वरूप की वापसी और भविष्य में गंगा जल प्रबंधन तथा विकास के लिए बहुआयामी प्रयास में संस्थागत और जन-सहभागिता पर विशेष बल दिया जाएगा। 16वीं लोकसभा के चुनाव बाद भावी प्रधानमंत्री ने अपने चुनाव क्षेत्र काशी में गंगा तट पर भावुक मन से कहा- मैं आया नहीं हूं, मुझे गंगा मां ने बुलाया है ...! प्रधानमंत्री मोदी की गंगा के प्रति यह भावपूर्ण आकुलता नमामि गंगे कार्यक्रम के जरिये सामने आई तो इस पर राजनीतिक कटाक्ष होने लगे। खुद भाजपा के कुछ लोगों ने राजनीतिक स्वार्थों के कारण सवाल उठाए -ऐसे तो गंगा पचास सालों में भी नहीं साफ होगी। गंगा प्रदूषण मुक्ति के इस कार्यक्रम पर ऐसे ही अनेक बेतुके सवाल उठे हैं। गंगा में जल परिवहन की योजना और तटीय नगरों के लोगों, ग्रामीण और नगरीय निकायों को जोडऩे जैसे मुद्दों पर संदेह व्यक्त किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि गंगा में जहाज चलाने और प्रस्तावित बांधों से इसकी प्राणवायु सूख जाएगी। ये विवाद वे ही उठा रहे हैं, जो गंगा को बांधने का फैसला कर चुके हैं। लंदन में टेम्स नदी की दुर्गति और फिर इसकी मुक्ति की कथा रोमांचित करती है, प्रेरक भी है। लंदन का सारा कचरा अपने में समाती टेम्स 19वीं सदी में दुनिया की सर्वाधिक प्रदूषित नदी बन गई। जैविक तौर पर इस नदी को मृत घोषित कर दिया गया। नदी तट पर भीषण दुर्गंध से लोग बिलबिला उठे। लोग टेम्स तट छोड़कर भागने को मजबूर हो गए। इस ऐतिहासिक नदी-त्रासदी ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। लंदन और पूरा देश एकजुट हो गया। खास बात यह है कि देश के युवा टेम्स को बचाने के युद्ध में कूद पड़े। टेम्स बचाओ जनांदोलन बन गया। लंदन में टेम्स के तट पर खड़ा मैं इस अभियान और जनांदोलन के जज्बे को नमन कर रहा था, क्योंकि आज की टेम्स का कलकल बहता, पारदर्शी जल मुझे गंगा की यादों के एक भंवर में छोड़ गया। प्रश्न था- क्या टेम्स की तरह गंगा सफाई का काम जनांदोलन बनेगा? प्रधानमंत्री मोदी और केंद्र सरकार की नमामि गंगे के लिए प्रतिबद्धता अगले पांच सालों के लिए 20 हजार करोड़ के बजट प्रावधानों से स्पष्ट है। परिलक्षित होता है कि नमामि गंगे की सफलता या कार्यान्वयन में धन की कोई कमी आड़े नहीं आएगी पर राजीव गांधी द्वारा 1986 में वाराणसी से प्रारंभ की गई 462 करोड़ लागत के गंगा ऐक्शन प्लान (गैप) के हश्र से सबक लेने की जरूरत है। इस योजना के प्रथम, द्वितीय और तृतीय चरण के क्रियान्वयन पर तीस सालों में डेढ़ हजार करोड़ से अधिक पैसा बहाया जा चुका है। परिणाम सार्थक नहीं। इसलिए इस खर्च पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। नमामि गंगे का एक पहलू अत्यंत उपयोगी और सार्थक है कि कार्ययोजना से गंगा तट पर रहने वाले लोगों को भी जोड़ा जाएगा। सामाजिक संस्थानों, शहरी निकायों और पंचायती राज संस्थाओं को जोड़कर राज्य स्तर पर स्टेट प्रोग्राम मैनेजमेंट ग्रुप, गंगा टास्क फोर्स और त्रिस्तरीय निगरानी तंत्र के विकास का संकल्प पिछली योजना के पूर्ण सफल न हो पाने के कारणों का हल ढूंढने का उपयोगी प्रयास है। भले ही देर से सही, जनमानस को नमामि गंगे से जोडऩा जरूरी है। देश के पांच राज्यों से होकर गुजरने वाली गंगा के तटवर्ती 58 संसदीय क्षेत्रों और पौने तीन सौ से अधिक विधानसभा क्षेत्रों के जन-प्रतिनिधियों और युवाशक्ति को नमामि गंगे से भावपूर्ण ढंग से जोडऩा इसलिए जरूरी है क्योंकि सिर्फ सरकारी नौकरशाही के बलबूते 10 साल में गंगा को पूर्ण प्रदूषण मुक्त करने का स्वप्न शायद ही पूरा हो सके। गंगा की सफाई का सवाल सिर्फ एक नदी की सफाई का छोटा सा सवाल नहीं है। यह तो संपूर्ण भारतीय जनमानस की आस्था के संरक्षण का प्रश्न है। विश्व स्वास्थ्य संगठन मानकों के अनुसार सुरक्षित घोषित प्रदूषण के स्तर से तीन हजार गुना अधिक दूषित गंगा के पानी को आचमन और पीने लायक बनाना एक बड़ी चुनौती है। प्रश्न बड़े हैं -गंगा को बचाने सरकार तो आगे आई है पर लोगों का आगे आना अभी शेष है। गंगा किनारे के 29 बड़े और 48 मध्यम श्रेणी के नगरों, लगभग एक हजार गांवों-कस्बों के युवा जब तक गंगा को बचाने हेतु नहीं कूदेंगे, तब तक योजना की सफलता के बारे में कुछ भी कहना उचित नहीं है। जन-जन को नमामि गंगे से जोडऩा कठिन है पर असंभव नहीं। गंगा मां है। हम गंगा को पूजते हैं। जन्म से मृत्यु तक गंगा हमारे जीवन से सीधे जुड़ी है। मैंने देखा है, गंगा पर बने पुलों से गुजरते हुए वाहनों और ट्रेनों से लोग गंगा में श्रद्धापूर्वक पैसा फेंकते हैं। काशी में किसी भी शुभ अवसर पर गंगा को आर-पार की माला चढ़ाते हैं। किसी नदी के प्रति पूरे विश्व में कहीं भी शायद ऐसा भावपूर्ण लगाव देखा जा सके। ऐसी जलधारा रूप गंगा माता को बचाने के लिए सरकार तो जागी ही है, अब गंगापुत्रों के जागने का यह उचित समय है। नमामि गंगे पर यह बहस या विवादों का नहीं, बल्कि सुझावों और समाधान का समय है। यह तो गंगा के सवाल पर अभूतपूर्व एकजुटता का समय है। समय है, यह सोचने का भी कि गंगा को हम सिर्फ सरकार पर या राजनीतिज्ञों के भरोसे नहीं छोड़ सकते।