Tuesday 27 October 2015

RSS की पहली शाखा में सिर्फ 5 लोग हुए थे शामिल, आज यह बन गया दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन

डाॅ. अरूण जैन
       देश में हिंदू राष्ट्रवाद की पताका फहरा रहे राष्ट्रीय स्वयं सेवक की स्थापना के 90 साल पूरे हो रहे हैं. देश में कई मुद्दों पर अपनी राय बेबाकी से रखने वाले इस संगठन के नेताओं का नाता हमेशा से विवादों से जुड़ा रहा है. इस संगठन पर महात्मा गांधी की हत्या की साजिश रचने का भी आरोप लगा था. वहीं भारत-चीन युद्ध में सैनिकों की मदद करने पर देश के पहले प्रधानमंत्री ने गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल होने का भी न्यौता दिया था. लेकिन आरएसएस से जुड़ी कुछ और बातें हैं जिनको कई नहीं जानता है - 1- डॉक्टर केशवराव बलिराम हेडगेवार ने 27 सितंबर 1925 को संघ की स्थापना की थी. उस दिन विजयादशमी का त्योहार था. तिथि के हिसाब से इस संगठन की स्थापना के 90 साल पूरे हो जाएंगे. इसका मुख्यालय नागपुर में है. 2- संघ की पहली शाखा में सिर्फ 5 लोग शामिल हुए थे. जिसमें सभी बच्चे थे. उस समय में लोगों ने हेडगेवार का मजाक उड़ाया था कि बच्चों को लेकर क्रांति करने आए हैं. लेकिन अब संघ विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी और हिंदू संगठन है. 3- संघ की ओर से देश की लगभग हर गली-मुहल्ले में शाखाएं लगाई जाती हैं. जिसमें एक मुख्यशिक्षक होता है. शाखा में व्यायाम,खेलकूद के साथ बौद्धिक कार्यक्रम होता है. संघ के स्वयंसेवकों के लिए देश सेवा के लिए प्रेरित किया जाता है. 4- शाखा में भगवा रंग का झंडा फहराया जाता है. जो हिंदू धार्मिक मान्यताओं से जुड़ा है. संघ का उद्धेश्य देश को हिंदू राष्ट्र बनाना है. इस विचारधारा को लेकर ही संघ पर सांप्रदायिकता का आरोप लगता है. 5- संघ की प्रार्थना नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे...शाखा और हर बड़े कार्यक्रम में गायी जाती है. स्वयंसेवकों की ड्रेस सफेद शर्ट, काली टोपी और लाठी है. 6- संघ में प्रचारक होता है जो देश और संगठन की सेवा करता है. उसकी सेवाओं और अनुभव के हिसाब से उसे प्रमोशन भी मिलता रहा है. इनका काम संघ का विस्तार करना भी होता है. संघ का प्रचारक बनने के लिए ओटीसी यानी एक खास तरह की ट्रेनिंग करनी होती है. 7- संघ का सबसे बड़ा अधिकारी सरसंघचालक होता है जिस पद पर अभी मोहन भागवत हैं. इसके अलावा सरकार्यवाह यानी जनरल सेक्रेटी होते हैं. सर कार्यवाह की मदद के लिए सह सरकार्यवाह होते हैं. 8- संघ के कई अनुषांगिक संगठन जैसे सेवा भारती, एबीवीपी, मजदूर संघ, वीएचपी देश में सक्रिय हैं. इसके अलावा कई एनजीओ भी हैं जो वनवासी क्षेत्रों में काम कर रहे हैं. 9- संघ के दूसरे सरसंघचालक सदाशिवराव गोलवलकर की किताब बंच ऑफ थॉट विवादों में रही है. लेकिन इसको मानने वाले भी देश में करोड़ो की संख्या में है. 10- बीजेपी के सभी बड़े नेता जैसे अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, नरेंद्र मोदी संघ में प्रचारक रह चुके हैं. कहा जाता है कि बीजेपी की असली ऊर्जा संघ के स्वयंसेवक ही हैं. 11- आपातकाल में जयप्रकाश नारायण ने भी संघ की ताकत को समझा था और इसे अपने आंदोलन के साथ जोड़ लिया था. 12 संघ का दावा है कि आजादी के पहले उसके एक शिविर में महात्मा गांधी भी पहुंचे थे जो दलितों और उंची जाति के लोगों को एक साथ भोजन करता देख दंग रह गए थे. 13- हालांकि संघ की स्थापना से लेकर अब तक इस सगंठन का नाम विवादों से भी जुड़ा रहा है. हाल ही में दादरी कांड पर संगठन के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर में इस घटना को सही बताया गया था. हालांकि बाद में संघ की ओर इस पर सफाई भी दी गई थी. 14- 1990-92 में अयोध्या मे गिराई गई बाबरी मस्जिद मामले में संघ पर ही आरोप लगा था. हालांकि संघ इस आरोप को सिरे से खारिज करता रहा है. 15- आरएसएस के चौथे प्रचारक राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भैया की आत्मकथा में दावा किया गया है कि उत्तरप्रदेश में गौहत्या पर प्रतिबंध 1955 में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और तत्कालीन सीएम गोविंद वल्लभ पंत ने रज्जू भैया के कहने पर ही लगाया गया था.

पहली बार सिंहस्थ-16 में शामिल होंगे देश-विदेश से 10 हजार से ज्यादा किन्नर


डाॅ. अरूण जैन
मध्यप्रदेश की धार्मिक नगरी उज्जैन में अगले वर्ष अप्रैल माह में होने वाले सिंहस्थ-2016 कुंभ में किन्नर समुदाय भी शामिल होंगे और यहां किन्नरों का एक अलग अखाडा भी होगा। उज्जैन के प्रसिद्ध अध्यामिक गुरू रिषी अजयदास ने बताया, ''अगले वर्ष 22 अप्रैल से 21 मई तक होने वाले सिंहस्थ-2016 में देश और विदेश से करीब दस हजार किन्नरों के शामिल होने की आशा है।ÓÓउन्होंने बताया, ''हमारे आश्रम में 13 अक्तूबर से किन्नरों का अलग अखाडा शुरू कर दिया है। इसके उद्घाटन कार्यक्रम में करीब 17 राज्यों के किन्नर शामिल हुए थे।ÓÓ आध्यात्मिक गुरू ने बताया, ''बैंकाक के किन्नरों से भी हमारी चर्चा हुई है, वे भी सिंहस्थ में आने के लिये बेहद उत्सुक हैं।ÓÓ  रिषी अजयदास ने कहा, ''मैं पिछले सात साल से किन्नरों के उत्थान के लिये काम कर रहा हूं। हमने इस वर्ग में शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य मामलों में जागरूकता लाने की कोशिश की है।ÓÓ उन्होंने कहा कि दुनिया में किन्नरों की तादाद लगभग 1.25 करोड़ है और विश्व भर में मेरे कई शिष्य फैले हुए हैं। अब तक सिंहस्थ में पंरम्परागत तौर पर 13 अखाड़े शामिल होते हैं। कुछ श्रद्धालुओं को लगता है कि रूढि़वादी संतो द्वारा कुंभ में किन्नरों के भाग लेने का विरोध किया जायेगा। 

रूस पड़ रहा है अमेरिका पर भारी


अरूण जैन
इस्लामिक स्टेट के मुकाबले पिछले कई महीनों में जो काम अमेरिका नहीं कर पाया वो रूसी सेना ने कुछ ही हफ्तों में कर दिखाया। रूस सीरिया में जबरदस्त हवाई हमले कर रहा है। रूस के इस आक्रमक रुख ने पश्चिमी देशों के सैन्य विशेषज्ञों को सकते में डाल दिया है। इस लड़ाई को गौर से देख रहे पर्यवेक्षकों का मानना है कि सीरिया में पुतिन की सैन्य रणनीति के सामने ओबामा का संशयभरे फैसले कही नहीं टिक पा रहे हैं। अमेरिका का रुख इस लड़ाई के माध्यम से असद सरकार को हटाना मात्र है, आईएस को रोकना महज बहाना दिख रहा है। इस्लामिक स्टेट के कहर से मासूस लोगों को बचाने के नाम पर अमेरिका ने सीरियाई विद्रोहियों को प्रशिक्षण और हथियार देने के अलावा ज्यादा कुछ नहीं किया। दरअसल अफगानिस्तान और इराक में उलझे अमेरिकी नेतृत्व का मानना था कि मध्य-पूर्व में एक और मोर्चा खोलने से कोई फायदा नहीं होने वाला लेकिन सऊदी अरब में आईएस की आमद के साथ ही इस मामले पर अमेरीका पर सऊदी सरकार ने दबाव बनाना शुरू कर दिया था। नतीजतन अमेरिका ने अधूरे मन से आईएस के खिलाफ हवाई कार्यवाही आरंभ की। रूस इस मुद्दे पर शुरू से ही असद सरकार का हिमायती रहा है। असद के विरोधियों को सीआईए द्वारा प्रशिक्षण और हथियारों की मदद के बाद असद सरकार समर्थित फौजों को विद्रोहियों और इस्लामिक स्टेट से दो मोर्चों पर लडऩा पड़ रहा है। लेकिन रूस ने देर आया पर दुरुस्त आए की तर्ज पर पूरी ताकत से आईएस पर हमला बोल दिया है। अमेरिका का आरोप है कि रूस आईएस के बहाने सीरियाई विद्रोहियों को भी निशाना बना रहा है लेकिन रूस इस ओर कोई ध्यान दिए बिना सीरिया में अपना काम जारी रखे हुए है।  रूस से हवाई हमले के अलावा अब सीरिया में मिलिट्री ऑपरेशन में सबसे घातक हथियारों को भी शामिल किया है। रूसी सेना का मोबाइल मल्टिपल रॉकेट लॉन्चर (टीओएस-1ए) थर्मोबैरिक जो एक साथ कई निशानों को तबाह करने की ताकत रखता है सीरिया में तैनात है। टीओएस-1ए सिस्टम से एक बार में 24 से 30 बैरल मल्टिपल रॉकेट लॉन्च किए जा सकते हैं।यह टी-72 टैंक चैसिस पर लगाया जाता है। अपनी ताकत और तेजी से यह मिसाइल सिस्टम अमेरिका के मिसाइल तंत्र से अधिक परिष्कृत और खतरनाक है। सूत्रों के अनुसार इसे आईएस के प्रमुख सीरियाई शहरों पर हमले की आशंका के चलते तैनात किया गया है।  इसके अलावा रूस ने आईएसआईएस के 40 ठिकानों पर हवाई हमले किए थे जिन्होंने इस खतरनाक आतंकी संगठन की कमर तोड़ दी है। पश्चिमी खुफिया तंत्र और सैन्य रणनीतिकार भी रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की इस आक्रमक कार्यवाही से प्रभावित है और मानते हैं कि इस कार्यवाही से रूस की फीकी पड़ चुकी फौजी प्रतिष्ठा को पाने में बेहद मदद मिलेगी। पुतिन ने इस ऑपरेशन में कई कड़े कदम उठाए हैं जैसे सुखोई स्ह्व-34 स्ट्राइक फाइटर जो पहली बार किसी लड़ाई में शामिल हुआ है। इसके अलावा रूसी नौसेना ने 1500 किमी. की दूरी से सीरिया में आईएस के ठिकानों पर क्रूज मिसाइल से हमला कर नाटो को सख्त संदेश दे दिया है। रूसी सेना के दमखम को देखकर सैन्य विशेषज्ञ मान रहे हैं कि कई क्षेत्रों में रूस की टेक्नोलॉजी कई मायनों में अमेरिका से बेहतर है।  जहां एक ओर अमेरिका सीरिया में रूस के बढ़ते दखल से परेशान है वहीं ईरान ने असद सरकार के समर्थन में अपने सैकड़ों सैनिकों को उत्तरी और मध्य सीरिया में तैनात कर दिया है। ईरान के उच्च प्रशिक्षित कंमाडों विद्रोहियों खिलाफ असद समर्थित सेना को ग्राउंड कवर देंगे। सऊदी अरब के एक सैन्य विशेषज्ञ के अनुसार पिछले 4 सालों में पहली बार ईरान ने सीरियाई गृहयुद्ध में अपनी उपस्थिति दर्ज की है। हालांकि, न्यूज एजेंसी एपी के अनुसार ईरानी सैनिक रूसी हवाई हमले के कुछ दिन बाद ही सीरिया पहुंच गए थे।  दरअसल रूस और ईरान दोनों ही इस क्षेत्र में इस्लामिक स्टेट का प्रभाव बढऩे से रोकना चाहते हैं क्योंकि अमेरिका के बनिस्बत दोनों ही देशों की सीमाएं और हित सीरिया से जुड़े हैं और यदि इस्लामिक स्टेट को रोका नहीं गया तो उनका अगला निशाना शिया बहुल ईरान और रूस का मुस्लिम बहुल क्षेत्र होगा जो मध्यपूर्व के अलावा एशिया में भी अशांति ला सकता है। 
सिंहस्थ स्नान का पुण्य लाभ शिप्रा नदी में नहाने से है, रामघाट पर नही
अरूण जैन
सिंहस्थ के समय शासन, प्रशासन और पुलिस से समक्ष सबसे बड़ी समस्या है कि हर व्यक्ति रामघाट पर ही स्नान करना चाहता है। अभी तक किसी ने भी इस बात को ठीक से प्रचारित नही किया  कि सिंहस्थ का पुण्य लाभ शिप्रा नदी में स्नान करने से ही मिलेगा, केवल रामघाट पर नही। नदी के किसी भी घाट पर स्नान करने से पुण्य लाभ प्राप्त होगा! प्रशासन, पुलिस समस्त प्रचार साधनों में इसे भली प्रकार प्रचारित करे तो भीड़ नियंत्रण स्वतः आसान हो जाएगा। 
अभी तक के हुए सभी सिंहस्थ और कुंभ महापर्वो पर एक नजर डाले तो एक बात बहुत स्पष्ट है कि इस महापर्व स्नान का पुण्य लाभ उन निश्चित तिथियों अथवा ग्रह युति में गंगा, गोदावरी अथवा शिप्रा नदी में स्नान करने से प्राप्त होगा। पुराणों में भी इन नदियों में स्नान करने का उल्लेख है, किसी घाट विशेष का कहीं भी जिक्र नही है।
यह ठीक है कि साधु जमातें और अखाड़े शाही निकाल कर संयुक्त रूप से रामघाट पर आते है और वहां स्नान करते हैं। यहां भी रामघाट और सामने का दत्त अखाड़ा घाट जमातों के लिए तय किया हुवा है। पर इसका यह अर्थ भी नही है कि शिप्रा नदी में विस्तार से फैले अन्य घाटों पर स्नान करने से धर्मालुओं को महापर्व का पुण्यलाभ नही मिलेगा, देखा जाए तो शिप्रा नदी का पाट शनि मंदिर, त्रिवेणी से लेकर नृसिंह घाट, रामघाट, रेतीघाट, गढ़कालिका से होकर कालियादेह महल तक फैला हुवा है। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि ग्रहों की युति उस समय उज्जैन पर निर्मित होती है, किसी घाट विशेष पर नही। शासन ने समस्त प्रचार कार्य भोपाल में केन्द्रित कर रखा है। वहां बैठे प्रशासनिक अधिकारियों को इस बात को विस्तार और व्यापकता से प्रत्येक विज्ञापन, वेबसाइट, समाचारों में स्थायी रूप से प्रचारित करना चाहिए कि प्रशासन द्वारा शिप्रा नदी पर जो विस्तारित घाट बनाए गए है, धर्मालु वहीं पर नदी स्नान का पुण्यलाभ लें। इसमें कोई दो राय नही कि महापर्व के दौरान प्रशासन को भीड़ नियंत्रण में इस प्रचार से बेहद मदद मिलेगी।

Thursday 15 October 2015

अगर हार्ट अटैक आया तो नीला क्यों पड़ गया था शास्त्री जी का शरीर!


डॉ. अरूण जैन
1965 का युद्ध खत्म होने के बाद 10 जनवरी 1966 को पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने पाकिस्तान के सैन्य शासक जनरल अयूब के साथ तत्कालीन सोवियत रूस के ताशकंद में शांति समझौता किया था। समझौते के बाद भी शास्त्री जी अपने कमरे में बेचैनी से टहलते हुए देखे गए थे। शास्त्री जी के साथ गए भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने भी महसूस किया था कि शास्त्री जी परेशान हैं। इस प्रतिनिधिमंडल में वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर भी थे, जो उस वक्त शास्त्री जी के सूचना अधिकारी थे। कुलदीप नैय्यर उन चंद पहले लोगों में थे जिन्होंने शास्त्री जी की मौत के फौरन बाद उनके पार्थिव शरीर को देखा था। शास्त्री जी के सूचना अधिकारी कुलदीप नैय्यर बताते हैं कि उस रात मैं सो रहा था। तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया। एक कोई रूसी महिला थी। उसने कहा कि योर पीएम एज डाइंग, तो मैं जल्दी से पहुंचा। वहां कोसीगन थे। उन्होंने देखकर ऐसे हाथ हिलाया कि नो मोर। मैं कमरे में आया तो मैंने देखा कि वहां इतना बड़ा कमरा था। बड़े कमरे में बेड पर एक छोटा सा आदमी था। हमने नेशनल फ्लैग ओढ़ाया और फूल चढ़ा दिया। लाल बहादुर शास्त्री का देहांत 10 और 11 जनवरी 1966 की दरमियानी रात को करीब डेढ़ बजे हुआ था। आधी रात से करीब दो घंटे बाद एक विदेशी मुल्क में देश के प्रधानमंत्री की मौत से भारतीय प्रतिनिधि मंडल में मौजूद सभी लोग सन्नाटे में आ गए थे। जिस प्रधानमंत्री ने चंद घंटे पहले पड़ोसी मुल्क के साथ मशहूर ताशकंद समझौता किया था, उसकी अचानक मौत से पूरा देश सकते में आ गया। बाद में जो बातें सामने आईं, उसके मुताबिक आधी रात के बाद शास्त्री जी खुद चलकर अपने सेक्रेटरी जगन्नाथ के कमरे तक पहुंचे थे, क्योंकि उनके कमरे में न घंटी थी-ना टेलीफोन। शास्त्री जी ने दरवाजा खटखटा कर अपने सेक्रेटरी को उठाया। वो छटपटा रहे थे। उन्होंने डॉक्टर बुलाने को कहा। सेक्रेटरी ने उन्हें पानी पिलाया और बिस्तर पर लेटा दिया। ताशकंद से 20 किलोमीटर दूर बने गेस्ट हाउस में ठहराए गए शास्त्री जी को वक्त पर डॉक्टरी मदद नहीं मिली और वो फिर कभी नहीं उठे। सच ये भी है कि जिस रात शास्त्री जी की मौत हुई, उस रात खाना उनके घरेलू नौकर रामनाथ ने नहीं बनाया था। उस रात खाना सोवियत संघ में भारत के राजदूत टीएन कौल के रसोइए जान मोहम्मद ने बनाया था। शास्त्री जी ने आलू पालक और सब्जी खाई थी। फिर वो सोने चले गए थे। मौत के बाद उनका शरीर नीला पड़ गया था। लिहाजा सवाल ये भी है कि क्या शास्त्री जी को खाने में या किसी और तरीके से जहर दे दिया गया था। शास्त्री जी के पुत्र अनिल शास्त्री का कहना है कि उनकी मृत्यु प्राकृतिक नहीं थी। उनका चेहरा नीला पड़ गया था। यहां वहां चकत्ते पड़ गए थे। शास्त्री जी की मौत का सच फौरन सामने आ जाता, अगर उनका पोस्टमार्टम कराया गया होता। लेकिन ये ताज्जुब की बात है कि एक प्रधानमंत्री की रहस्यमय हालात में मौत हो गई और उनका पोस्टमार्टम नहीं कराया गया।

Wednesday 14 October 2015

बेरोजगारी की डराती तस्वीर


अरूण जैन
भारत को वैश्विक आर्थिक महाशक्ति बना देने का सपना दिखाने वालों की नींद अब टूटनी चाहिए। जिस युवा जनसंख्या के बूते इक्कीसवीं शताब्दी के भारतीय युवाओं की शताब्दी होने का दंभ भरा जा रहा है, उसे उत्तर प्रदेश में खड़ी शिक्षित बेरोजगारों की फौज ने आईना दिखा दिया है, जहां विधानसभा सचिवालय में चपरासी के महज तीन सौ अड़सठ पदों के लिए तेईस लाख आवेदन प्राप्त हुए हैं। औसतन एक पद के लिए छह हजार अर्जियां! इस सच्चाई को अगर नजरअंदाज किया गया तो अराजकता के हालात बनने में देर नहीं लगेगी। किसी भी विकासशील देश के लिए यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि उसकी युवा पीढ़ी उच्चशिक्षित होने के बावजूद आत्मनिर्भरता के लिए चपरासी जैसी सबसे छोटी नौकरी के लिए लालायित है। इक्कीस करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में चपरासी के लिए जो तेईस लाख अर्जियां आई हैं, उनमें चाही गई न्यूनतम शैक्षिक योग्यता पांचवीं पास तो केवल 53,426 उम्मीदवार हैं, लेकिन छठी से बारहवीं पास उम्मीदवारों की संख्या बीस लाख के ऊपर है। इनमें 7.5 लाख इंटर पास हैं। इनके अलावा 1.52 लाख उच्चशिक्षित हैं। इनमें विज्ञान, वाणिज्य और कला से उत्तीर्ण स्नातक और स्नातकोत्तर तो हैं ही, इंजीनियर और एमबीए भी हैं। साथ ही दो सौ पचपन अभ्यर्थी पीएचडी हैं। शिक्षा की यह सर्वोच्च उपाधि इस बात का प्रतीक मानी जाती है कि जिस विषय में छात्र ने पीएचडी की है, उस विषय का वह विशेषज्ञ है। यह उपाधि महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में भर्ती किए जाने वाले सहायक प्राध्यापकों की वांछित योग्यता में जरूरी है। जाहिर है, सरकार के समक्ष यह संकट खड़ा हो गया है कि वह आवेदनों की छंटनी का आधार क्या बनाए और परीक्षा की ऐसी कौन-सी तरकीब अपनाए कि प्रक्रिया पूरी हो जाए? क्योंकि जिस बड़ी संख्या में आर्जियां आई हैं, उनके साक्षात्कार के लिए दस सदस्यीय दस समितियां बना भी दी जाएं तो परीक्षा निपटाने में चार साल से भी ज्यादा का समय बीत जाएगा। सरकारी नौकरियों में आर्थिक सुरक्षा की वजह से उनके प्रति युवाओं का आकर्षण लगातार बढ़ रहा है। दुनिया में आई आर्थिक मंदी के चलते भी इंजीनियरिंग और एमबीए के डिग्रीधारियों को संतोषजनक रोजगार नहीं मिल रहे हैं। भारत में औद्योगिक और प्रौद्योगिक क्षेत्रों में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। यही वजह है कि उत्तर प्रदेश में कुछ दिन पहले लेखपाल के चौदह सौ पदों के लिए सत्ताईस लाख युवाओं ने आवेदन किए थे। छत्तीसगढ़ में चपरासी के तीस पदों के लिए पचहत्तर हजार अर्जियां आई थीं। केरल में क्लर्क के साढ़े चार सौ पदों के लिए ढाई लाख आवेदन आए। कोटा में सफाईकर्मियों की भर्ती के लिए डिग्रीधारियों की फौज कतार में खड़ी हो गई थी। मध्यप्रदेश में भृत्य पदों की भरती के लिए आयोजित परीक्षा में भी उच्चशिक्षितों ने भागीदारी की थी। केंद्र सरकार की नौकरियों में भी कमोबेश यही स्थिति बन गई है। कर्मचारी चयन आयोग की 2013-14 की छह परीक्षाओं में भागीदारी करने वाले अभ्यर्थियों की संख्या एक करोड़ से ज्यादा थी। निजी कंपनियों में अनिश्चितता और कम पैकेज के चलते, सरकारी नौकरी की चाहत युवाओं में इस हद तक बढ़ गई है कि पिछले पांच साल में अभ्यर्थियों की संख्या में दस गुना वृद्धि हुई है। वर्ष 2008-09 में यह परीक्षा 10.27 लाख आवेदकों ने दी। वहीं 2011-12 में यह संख्या बढ़ कर 88.65 लाख हो गई और 2012-13 में यह आंकड़ा एक करोड़ की संख्या को पार कर गया। एनएसएसओ की रिपोर्ट बताती है कि अकेले उत्तर प्रदेश में एक करोड़ बत्तीस लाख बेरोजगारों की फौज आजीविका के लिए मुंह बाए खड़ी है। जाहिर है, हमारी शिक्षा पद्धति में खोट है और वह महज डिग्रीधारी निठल्लों की संख्या बढ़ाने का काम कर रही है। अगर वाकई शिक्षा गुणवत्तापूर्ण और रोजगारमूलक होती तो उच्चशिक्षित बेरोजगार एक चौथे दर्जे की नौकरी के लिए आवेदन नहीं करते। ऐसे हालात से बचने के लिए जरूरी है कि हम शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन कर इसे रोजगारमूलक और लोक-कल्याणकारी बनाएं। बेरोजगारों की इस फौज ने दो बातें एक साथ सुनिश्चित की हैं। एक तो हमारे शिक्षण संस्थान समर्थ युवा पैदा करने के बजाय, ऐसे बेरोजगारों की फौज खड़ी कर रहे हैं, जो योग्यता के अनुरूप नौकरी की लालसा पूरी नहीं होने की स्थिति में कोई भी नौकरी करने को तत्पर हैं। दूसरे, सरकारी स्तर की छोटी नौकरियां तत्काल भले ही पद और वेतनमान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण न हों, लेकिन उनके दीर्घकालिक लाभ हैं। उत्तरोत्तर वेतनमान और सुविधाओं में इजाफा होने के साथ आजीवन आर्थिक सुरक्षा है। स्वायत्त निकायों में तो चपरासियों को भी अधिकारी बनने के अवसर सुलभ हैं। इनमें कामचोर और झगड़ालू प्रवृत्ति के कर्मचारियों को भी सम्मानपूर्वक तनखा मिलती रहती है। अगर आप में थोड़े-बहुत नेतृत्व के गुण हैं तो कर्मचारी संगठनों की मार्फत नेतागिरी करने के बेहतर वैधानिक अधिकार भी उपलब्ध हैं। रिश्वतखोरी की गुंजाइश वाला पद है तो आपकी आमदनी में दूज के चांद की तरह श्रीवृद्धि होती रहती है। इसीलिए उज्जैन नगर निगम के एक चपरासी के पास से लोकायुक्त की पुलिस ने करोड़ों की संपत्ति बरामद की है। बर्खास्त कर्मचारियों की सेवाएं बीस-पचीस साल बाद भी समस्त स्वत्वों के साथ बहाल कर दी जाती हैं। लिहाजा, हैरत की बात नहीं कि आइटी क्षेत्र में गिरावट के बाद तकनीक में दक्ष युवा भी चपरासी और क्लर्क बनने को छटपटा रहे हैं। छठा वेतनमान लागू होने के बाद सरकारी नौकरियों के प्रति आकर्षण और भी बढ़ा है। इसके चलते साधारण शिक्षक को चालीस-पैंतालीस हजार और महाविद्यालय के प्राध्यापक को एक-सवा लाख वेतन मिल रहा है। सेवानिवृत्त प्राध्यापक को बैठे-ठाले साठ-सत्तर हजार रुपए तक पेंशन मिल रही है। ऐसी पौ-बारह सरकारी नौकरियों में ही संभव है। अगर इन कर्मचारियों को सातवां वेतनमान और दे दिया जाता है, तो बाकी लोगों से उनकी प्राप्तियों की खाई और भी चौड़ी हो जाएगी। इससे सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक विसंगतियां बढ़ेंगी। इसलिए क्या यह अच्छा नहीं होगा कि सरकार सातवें वेतनमान की सौगात देने से पहले समाज पर पडऩे वाले इसके दुष्प्रभावों की पड़ताल करे? आज चालीस प्रतिशत से भी ज्यादा खेती-किसानी से जुड़े लोग वैकल्पिक रोजगार मिलने की स्थिति में खेती छोडऩे को तैयार हैं। किसानी और लघु-कुटीर उद्योग से जुड़ा युवक, जब इस परिवेश से कट कर डिग्रीधारी हो जाता है तो अपनी आंचलिक भाषा के ज्ञान और स्थानीय रोजगार की समझ से भी अनभिज्ञ होता चला जाता है। लिहाजा, नौकरी नहीं मिलने पर पारंपरिक रोजगार और ग्रामीण समाज की संरचना के प्रति भी उदासीन हो जाता है। ये हालात युवाओं को कुंठित, एकांगी और बेगानों की तरह निठल्ले बना रहे हैं। अक्सर कहा जाता है कि शिक्षा व्यक्तित्व के विकास के साथ-साथ रोजगार का मार्ग भी खोलती है। लेकिन चपरासी की नौकरी के परिप्रेक्ष्य में डिग्रीधारी बेरोजगारों की जो तस्वीर पेश हुई है, उसने समस्त शिक्षा प्रणाली को कठघरे में ला खड़ा किया है। अच्छी और सुरक्षित नौकरी के जरिए खुशहाल जीवन का सपना देखने वाले युवा और उनके अभिभावक सशंकित हैं कि उनका सपना कहीं चकनाचूर न हो जाए। भारत की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और भौगोलिक परिस्थितियों और विशाल जनसमुदाय की मानसिकता के आधार पर अगर सार्थक शिक्षा के बारे में किसी ने सोचा था तो वे महात्मा गांधी थे। उनका कहना था, 'बुद्धि की सच्ची शिक्षा हाथ, पैर, कान, नाक आदि शरीर के अंगों के ठीक अभ्यास और शिक्षण से ही हो सकती है। यानी इंद्रियों के बुद्धिपरक उपयोग से बालक की बुद्धि के विकास का उत्तम मार्ग मिलता है। पर जब मस्तिष्क और शरीर का विकास साथ-साथ न हो और उसी प्रमाण में आत्मा की जगृति न होती रहे तो केवल बुद्धि के एकांगी विकास से कुछ लाभ नहीं होगा।Ó आज हम बुद्धि के इसी एकांगी विकास की गिरफ्त में आ गए हैं। सरकारी नौकरी पाने को आतुर इस सैलाब को रोकने के लिए जरूरी है कि इन नौकरियों के वेतनमान तो कम किए ही जाएं, अकर्मण्य सेवकों की नौकरी की गारंटी भी खत्म की जाए। अन्यथा ये हालात उत्पादक किसानों और नवोन्वेषी उद्यमियों को उदासीन बनाने का काम करेंगे। साथ ही शिक्षा के महत्त्व को श्रम और उत्पादन से जोड़ा जाए। ऐसा हम युवाओं को खेती-किसानी और लघु-कुटीर उद्योगों की ज्ञान-परंपराओं से जोड़ कर कर सकते हैं। यह इसलिए जरूरी है कि एक विश्वसनीय अध्ययन के मुताबिक सूचना तकनीक के क्षेत्र में तीस लाख लोगों को रोजगार मिला है, वहीं हथकरघा दो करोड़ से भी ज्यादा लोगों की रोजी-रोटी का जरिया है। इस एक उदाहरण से पता चलता है कि लघु उद्योग आजीविका के कितने बड़े साधन बने हुए हैं। प्रधानमंत्री मोदी के 'मेक इन इंडियाÓ और 'स्किल इंडियाÓ का अर्थ व्यापक ग्रामीण विकास में ही निहित है। क्योंकि मौजूदा शिक्षा रोजगार के विविध वैकल्पिक आधार उपलब्ध कराने में अक्षम साबित हो रही है। यह शिक्षा समाज को युगीन परिस्थितियों के अनुरूप ढाल कर सामाजिक परिवर्तनों की वाहक नहीं बन पा रही है। इस शिक्षा-व्यवस्था से क्या यही अपेक्षा है कि वह ऐसे सरकारी संस्थागत ढांचे खड़े करती चली जाए, जिसके राष्ट्र और समाज के लिए हित क्या हैं, यह तो स्पष्ट न हो, लेकिन नौकरी और ऊंचे वेतनमान की गारंटी हो? 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क्या नदियों को जोडऩा जरूरी है?


अरूण जैन
नदियों को जोडऩे की महत्त्वाकांक्षी योजना के अंतर्गत एक और कामयाबी मिली। कृष्णा और गोदावरी नदियों के मिलन के साथ ही आंध्र प्रदेश का दशकों पुराना सपना साकार हो गया है। माना जा रहा है कि इन दोनों नदियों के आपस में जुडऩे से तकरीबन साढ़े तीन लाख एकड़ के भूक्षेत्र को फायदा होगा और अन्य नदियों को भी आपस में जोडऩे की योजना को गति मिलेगी। दरअसल, भारत विविधताओं से परिपूर्ण राष्ट्र है और यहां सांस्कृतिक विविधता तो खूब है ही, भौगोलिक विविधता भी कम नहीं है। पूरे देश में नदियों का जाल है। लेकिन नदियों का स्वरूप अलग है। प्रथम प्रकार की नदियां हिमालय के ग्लेशियरों से निकलती हैं जिनमें वर्ष भर जल की आपूर्ति सुगमतापूर्वक होती है। ये नदियां अपने आसपास के क्षेत्रों को हरा-भरा रखती हैं और पेयजल, जल विद्युत आदि अनेक प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध कराती हैं। हालांकि इन नदियों में गर्मी के मौसम में पानी की कुछ कमी हो जाती है, पर इतनी अधिक कमी नहीं होती कि इनका पानी सूख जाए। बारिश के मौसम में इन नदियों के किनारे के शहर बहुत बड़ी विभीषिका झेलते हैं और यह विभीषिका बाढ़ की होती है। बाढ़ के कारण अपार धन-जन की हानि होती है। हालांकि सरकार राहत-कार्य द्वारा इस विभीषिका को कम करने का प्रयास करती है, पर नुकसान अनुमान से अधिक होता है। हिमालय से निकली नदियों में एक ही मौसम में बाढ़ आना इन विभीषिकाओं को और बढ़ा देता है और धन-जन की अपार हानि होती है। दूसरे प्रकार की नदियों में प्रायद्वीपीय नदियां आदि हैं जिनका उद्गम किसी पहाड़ी प्रदेश से होता है और ये मुख्य रूप से दक्षिण भारत में बहती हैं। इन नदियों में गर्मी के मौसम में पानी की बहुत कमी होती है और यही नदियां बरसात के समय विशाल स्वरूप ग्रहण करके अपने आसपास के क्षेत्रों को जलमग्न कर देती हैं तथा फसलों को बरबाद कर देती हैं। मिट्टी का क्षरण बहुत बड़े पैमाने पर होने के कारण भी क्षति अधिक होती है। प्रायद्वीपीय नदियों में कुछ में नौ परिवहन होता है, लेकिन सीमित मात्रा में। इस प्रकार, इन नदियों में पानी बहुत रहता है लेकिन उसका उपयोग ठीक ढंग से नहीं हो पाता है। बरसात के समय यह पानी फालतू बह कर समुद्र में चला जाता है और मनुष्य को दो तरफ से क्षति होती है। पहले तो धन, जन की हानि, और दूसरे प्रकार से जल की हानि। इसी के मद््देनजर भारत सरकार ने एक महत्त्वाकांक्षी परियोजना का शुभारंभ 13 अक्तूबर 2002 को किया था। अमृत क्रांति के रूप में भारत सरकार ने नदी संपर्क योजना का प्रस्ताव पारित किया जिसमें लगभग सैंतीस नदियों को जोडऩे की बात कही गई। यह केवल नदियों को जोडऩे या उन्हें आपस में मिला देने की परियोजना नहीं है। नदियों को नहरों के माध्यम से जोड़ा जाएगा और जगह-जगह पर बांध और जल संरक्षण के लिए जल भंडार बनाए जाएंगे। मानसून के दिनों में जरूरत से ज्यादा पानी को इसमें सुरक्षित कर लिया जाएगा और बाद में जिस राज्य को आवश्यकता होगी, उसे नहरों के जरिए उसी सुरक्षित पानी से आपूर्ति की जाएगी। यह देखा गया है कि मानसून के समय बाढ़ आ जाती है, लेकिन मानसून के बाद गंगा जैसी बड़ी नदी में भी पानी का स्तर काफी गिर जाता है। परियोजना के तहत बनाए जाने वाले बांध और स्टोरेज न सिर्फ बाढ़ के प्रकोप को कम करेंगे, बल्कि मानसून के बाद सूखे के दिनों में भी लोगों की जरूरत के मुताबिक पानी उपलब्ध कराएंगे। परियोजना के जरिए चौंतीस हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन होगा और साढ़े तीन करोड़ हेक्टेयर जमीन पर बेहतर सिंचाई सुविधा उपलब्ध होगी। साथ ही परियोजना द्वारा नहरों केविस्तार से कृषि की समस्या को भी सुलझाया जाएगा। नौपरिवहन के साथ-साथ पर्यटन की दृष्टि से भी इस योजना का भविष्य में लाभ उठाया जा सकता है। नदी जोड़ योजना की जोर-शोर से चर्चा भले वाजपेयी सरकार के समय हुई हो, इसका प्रस्ताव और पहले से बीच-बीच में आता रहा। वर्ष 1971-72 में तत्कालीन सिंचाई मंत्री केएल राव ने एक लंबी नहर के जरिए गंगा और कावेरी को जोडऩे का प्रस्ताव रखा था। वर्ष 1980 के दशक में राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी ने इंटरलिंकिंग ऑफ रीवर्स प्लान यानी नदी जोड़ योजना का खाका तैयार किया। पर हुआ कुछ नहीं। दरअसल, यह योजना हमेशा इतनी भारी लागत वाली और इतने विवादों को जन्म देने वाली रही कि प्रस्ताव कुछ समय की चर्चा के बाद ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता रहा। वाजपेयी सरकार ने इसे अपनी एक महत्त्वाकांक्षी योजना के रूप में पेश किया और इसका खाका बनाने के लिए सुरेश प्रभु की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया। लेकिन 2001 की कीमत पर भी कई लाख करोड़ रुपए की लागत बैठने, बड़े पैमाने पर विस्थापन और पर्यावरणीय तोड़-फोड़ के अंदेशों ने इस परियोजना को काफी विवादास्पद बना दिया और वाजपेयी सरकार ने इस पर चुप्पी साध ली। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में वाजपेयी सरकार की विदाई हो गई। उसके बाद आई यूपीए सरकार को लगा कि इस योजना की बात छेडऩा बर्र के छत्ते में हाथ डालना होगा। लिहाजा, वह इस पर खामोश रही। लेकिन कृष्णा और गोदावरी के जुडऩे से अब नए सिरे से यह योजना चर्चा का विषय बनी है। इससे पहले मध्यप्रदेश में नर्मदा और क्षिप्रा को जोड़ा गया था। पर्यावरणविद इस पूरी कवायद को पर्यावरण-हितैषी नहीं मानते। उनका कहना है कि नदियों का कुदरती स्वरूप बने रहने देना चाहिए, इससे छेड़छाड़ ठीक नहीं है, यह हमें बहुत महंगी पड़ेगी। पर इस योजना के पैरवीकार कहते हैं कि नदियों का बहुत सारा पानी समुद्र में बेकार चला जाता है। नदियों को जोड़ देने से सूखा और बाढ़, दोनों से स्थायी निजात मिलेगी और इनके कारण हर साल राहत के तौर पर खर्च होने वाली हजारों करोड़ रुपए की राशि बचेगी। दूसरी ओर, बिजली उत्पादन में भी काफी इजाफा होगा। हालांकि इस योजना को प्रारंभिक तौर पर देखने से यह बहुत ही विकासोन्मुख दिखती है, पर इससे उत्पन्न होने वाली हानियों को भी रेखांकित करना आवश्यक है। हमें हमेशा यह प्रयास करना चाहिए कि विकास के अनुपात में उसकी खातिर चुकाई जाने वाली कीमत को न्यूनतम किया जा सके। नदी जोड़ योजना में कई समस्याएं और जटिलताएं भी हैं। बहुत बड़े स्तर पर और बड़े क्षेत्र में नहरों का निर्माण होने से विस्थापन की समस्या विकराल रूप में उपस्थित होती है। भारत सरकार पूर्व की अनेक योजनाओं में विस्थापितों की समस्या को आज तक पूर्ण रूप से हल नहीं कर सकी, चाहे वह सरदार सरोवर बांध के निर्माण में हो या टिहरी के संदर्भ में। उचित मुआवजा न मिलने से विरोध के स्वर अब भी मुखर होते हैं। लिहाजा, परियोजना में प्रारंभ से ही विस्थापितों के पुर्नवास के लिए एक पारदर्शीनीति बनाई जाए जिसका कड़ाई से पालन हो। ब्रह्मपुत्र और दूसरी नदियों को आपस में जोडऩे की सरकार की विशालकाय योजना से भविष्य में पर्यावरणीय महाविपदा से इनकार नहीं किया जा सकता। किसी भी स्थान पर नहरों द्वारा पानी लाने के बारे में पर्यावरणाविद मानते हैं कि पर्यावरण पर इसके असर के बारे में पहले से अध्ययन जरूरी है। कुछ तरह की भूमि और मिट्टी को नहरों से लाभ हो सकता है तो कुछ अन्य तरह की भूमि व मिट्टी को बहुत नुकसान हो सकता है। कहीं भू-जल उपलब्धि बढ़ सकती है तो कहीं दलदलीकरण की समस्या भी विकट हो सकती है। पानी और दलदल में पलने वाले मच्छर और जीव नए इलाके में प्रवेश कर कई ऐसी बीमारियां फैला सकते हैं जिनसे वहां के लोग अनभिज्ञ रहे हों और जिनके लिए उनमें कोई प्रतिरोधक शक्ति भी नहीं है। अत: इस प्रकार से उत्पन्न समस्याओं को दूर करने के लिए अग्रिम अध्ययन के जरिए प्रयास करना चाहिए। हर क्षेत्र के विशेषज्ञों की राय इसमें बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। पर्यावरण प्रदूषण के कारण हिमालय से नदियों में पानी कम आने का एक दुष्परिणाम यह भी होगा कि ये समुद्र में जिस स्थान पर मिलती हैं वहां का पर्यावरणीय संतुलन बुरी तरह बिगड़ जाएगा। इस परियोजना से एक खतरा कृषि की जैव विविधता के लिए भी है। यह परियोजना जैव विविधता को खत्म करेगी और गैर-टिकाऊ जल उपयोगिता को बढ़ावा देगी। पानी के गैर-टिकाऊ इस्तेमाल में ऐसी खेती सबसे बड़ा कारक है, जो पानी की बर्बादी करती है। असली अमृत क्रांति तो तब होगी, जब जैव विविधता का संरक्षण किया जाएगा, पानी बचाने के तरीके लागू किए जाएंगे, जैविक कृषि को अपनाया जाएगा और जल-स्रोतों में नई जान फूंकी जाएगी। नदी जोड़ के छद्म विज्ञान की जगह अपनी जल प्रणालियों के साथ सामंजस्य से जीने का विज्ञान लागू होना चाहिए। दूर-दूर की नदियों को जोड़ देने भर से पानी का गलत इस्तेमाल, टिकाऊ इस्तेमाल में नहीं बदल जाएगा, बल्कि इससे पानी के दुरुपयोग की आशंका और भी बढ़ जाएगी। फिलहाल सरकार नई ऊर्जा और दृढ़ निश्चय के साथ इस महत्त्वाकांक्षी योजना को शुरू करने पर आमादा है। सरकार को चाहिए कि लाभ और हानि के सभी पहलुओं की गहन पड़ताल कर अपनी योजना के केंद्र में मानवीय पक्ष को रखे।

गांधी जी का सपना और आज के गांव


अरूण जैन
महात्मा गांधी ने ऐसी हिंसक पंचायती राज व्यवस्था की कल्पना नहीं की थी जैसी कि आज उत्तर भारत के कई राज्यों में दिखाई दे रही है। हमने ग्रामसभाओं को जिस तरह की राजनीति का अखाड़ा बना दिया है उससे ग्रामीण समाज की समरसता और एकता नष्ट हो गई है। उत्तर प्रदेश के नब्बे फीसद गांवों में पिछले चुनाव के बाद से दुश्मनी बढ़ी है। अब फिर चुनाव होने हैं और संभावित उम्मीदवारों की हत्याओं का सिलसिला शुरू हो गया है। ग्रामसभाओं के पास पहुंच रही विभिन्न योजनाओं की धनराशि और उसकी बंदरबांट ने सत्ता और पैसे की प्रतिद्वंद्विता को बढ़ाया है। महात्मा गांधी ने देश की आजादी के बाद जिस तरह के गांव और गांव पंचायत की कल्पना की थी उसका निर्माण हम आज तक नहीं कर सके हैं। उनकी कल्पना थी कि हर गांव पूर्ण प्रजातंत्र होगा, जो अपनी अहम जरूरतों के लिए पड़ोसी पर भी निर्भर नहीं रहेगा। पर महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता घोषित करने वाला देश आज उनकी नीतियों और कार्यक्रमों से बहुत दूर जा चुका है। सरकार ने पंचायती राज कानून तो लागू किया, पर गांधीजी की कल्पना के अनुसार ग्राम पंचायतों को स्वावलंबी बनाने की खातिर कुछ नहीं किया। गांधीजी ने ग्रामसभा से लोकसभा तक के लोकतांत्रिक ढांचे की कल्पना की थी और कहा था कि 'आजादी नीचे से शुरू होनी चाहिए। हर एक गांव के लोगों की हुकूमत या पंचायत का राज होगा। उनके पास पूरी सत्ता और ताकत होगी। इसका मतलब यह है कि हर एक गांव को अपने पांव पर खड़ा होना होगा। अपनी जरूरतें खुद पूरी कर लेनी होंगी ताकि वह अपना कारोबार खुद चला सके। सच्चे प्रजातंत्र में नीचे से नीचे और ऊंचे से ऊंचे आदमी को समान अवसर मिलने चाहिए। इसलिए सच्ची लोकशाही केंद्र में बैठे हुए दस-बीस आदमी नहीं चला सकते, वह तो नीचे से हरेक गांव के लोगों द्वारा चलाई जानी चाहिए।Ó इस दृष्टि से बापू ग्राम पंचायतों के विकास के लिए बहुत उत्सुक थे। उन्होंने कई बार यह बात कही थी कि 'भारत अपने चंद शहरों में नहीं बल्कि सात लाख गांवों में बसा हुआ है।Ó इसमें संदेह नहीं कि प्राचीन काल से ही भारत में प्रशासन की धुरी गांव रहे हैं। गांव ही सामाजिक जीवन के केंद्रबिंदु और देश की अर्थव्यवस्था की प्रधान इकाई थे। राष्ट्रीय संस्कृति, समृद्धि और प्रशासन का भव्य भवन इन्हीं पर खड़ा था, इनसे संबल प्राप्त होता था। दुनिया के किसी भी देश में भारत जितनी धार्मिक और राजनीतिक क्रांतियां नहीं हुई हैं। फिर भी उसकी ग्राम समितियों के कार्यों पर कोई आंच नहीं आई। वे पूरे देश में सदैव स्थानीय हित के कार्यों में लगी रहीं। यहां यूनानी, अफगान, मंगोल, पुर्तगाली, डच, अंग्रेज, फ्रांसीसी आदि आकर शासक बने, पर गांवों के धार्मिक और व्यापारिक संगठनों का काम यथावत चलता रहा। इस बारे में 1830 में अंग्रेज गवर्नर जनरल सर चार्ल्स मेटकाफ ने जो ब्योरा अपने देश को भेजा था उसमें लिखा है कि ''भारत के ग्राम समुदाय एक प्रकार के छोटे-छोटे गणराज्य हैं, जो अपने लिए आवश्यक सभी सामग्री की व्यवस्था कर लेते हैं तथा किसी प्रकार के बाहरी संपर्क से मुक्त हैं। लगता है कि इनके अधिकारों और प्रबंधों पर कभी कोई प्रभाव नहीं पड़ता। एक के बाद एक राजवंश आता है, क्रांतियों का क्रम चलता रहता है। मगर ग्राम समुदाय उसी ढर्रे पर चलता जाता है। मेरे विचार से ग्राम समुदायों के इस संघ ने, जिसमें प्रत्येक (समुदाय) एक छोटे-मोटे राज्य के ही रूप में है, अन्य किसी बात की अपेक्षा अनेक क्रांतियों के बावजूद भारतीय जन समाज को कायम रखने और जनजीवन को विशृंखल होने से बचाने में बड़ा भारी काम किया। साथ ही यह जनता को सुखी बनाए रखने और उसे स्वतंत्र स्थिति का उपभोग कराने का बड़ा भारी साधन है। इसलिए मेरी इच्छा है कि गांवों की इस व्यवस्था में कभी उलटफेर न किया जाय। मैं उस प्रवृत्ति की बात सुन कर ही दहल जाता हूं जो इनकी व्यवस्था भंग करने की सलाह देती है।ÓÓ मेटकाफ के इस खौफ के बावजूद ब्रिटिश सरकार स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता के इन केंद्रों को विनष्ट करने की निर्धारित नीति पर बराबर चलती रही। भारत का पाला पहली बार ऐसे आक्रामक से पड़ा, जिसने यह काम कर दिखाया, जो बहुत पहले किसी ने नहीं किया था। इन ग्राम-गणतंत्रों को विनष्ट कर ब्रिटिश साम्राज्यशाही ने इस प्राचीन देश को सबसे अधिक क्षति पहुंचाई। 1830 को बीते केवल 175 वर्ष हुए, मगर उस गौरवपूर्ण अतीत की धुंधली रेखा भी आज न केवल निरक्षर ग्रामीणोंं, बल्कि सुशिक्षित नर-नारियों के मानस पटल पर भी नहीं रह गई है। हमारी अद्भुत शिक्षा प्रणाली का यह भी एक कमाल है। इस युग में भी क्यों गांधीजी का आग्रह बराबर गांवों के लिए रहता है और क्यों वे 'आत्मनिर्भरÓ स्वशासित ग्राम-गणतंत्रों की वकालत करते नहीं थकते थे। गांधीजी का यह आग्रह इसलिए था कि वे जानते थे कि किसी समय गांवों की क्या हालत थी। वे चाहते थे कि गांवों के सजीव, प्रत्यक्ष लोकतंत्र के आधार पर ही उनकी कल्पना का भारतीय लोकतंत्र कायम हो। दूसरी बात यह है कि गांधीजी प्रत्येक बात पर अहिंसा की दृष्टि से विचार करते थे। उन्होंने यह अनुभव किया था कि जिस राष्ट्रीय निर्माण की उन्होंने कल्पना कर रखी है, उसका आधार गांवों का स्वशासित, आत्मनिर्भर, सहयोगात्मक, सामुदायिक जीवन बहुत अच्छी तरह प्रस्तुत करता है। पर ऐसे प्रयत्न का महत्त्वपूर्ण परिणाम तो नैतिक है। जब आदमी अपनी ही कुशलता और सतत प्रयत्न से कोई आर्थिक दृष्टि से मूल्यवान वस्तु बना सकता है, तो उसे स्वाभिमान, आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता, साहस, आशा, स्वतंत्र सूझ-बूझ और शक्ति प्राप्त होती है। उसके बाद वह अधिक कठिन काम, ऐसा काम जिसमें दूसरों के साथ मिलकर करना पड़े, करने के लिए भी तत्पर हो जाता है। अगर उसके साथ दूसरे भी ऐसा ही करते हैं तो उन सबमें सामूहिक साहस और सामूहिक आशा का संचार होता है। यह कोरा सिद्धांत नहीं है क्योंकि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारत के किसान गांधीजी के कार्यक्रम की प्रेरणा और पथ-प्रदर्शन से अपने ही सादे औजार से ऐसी चीजें बनाते रहे और साथ-साथ अपने चरित्र और नैतिक बल का निर्माण भी करते रहे। इस दौरान खादी की आश्चर्यजनक प्रगति हुई। असहयोग आंदोलन के दिनों में वही जिले अत्याचार का अहिंसक मुकाबला करने में सबसे अधिक साहसी, दृढ़ और सफल रहे, जहां हाथ-कताई, हाथ-बुनाई और ग्रामोत्थान के दूसरे काम कुछ वर्षों से चल रहे थे। हमारे गांव शहरों की सारी जरूरतें पूरी करते थे। देश की गरीबी तब शुरू हुई जब हमारे शहर, कस्बे विदेशी कंपनियों के माल के बाजार बन गए और उपभोग की वस्तुओं को गांवों में भेज कर उनका शोषण करने लगे। अब यह बात साबित हो चुकी है कि कोई व्यक्ति या देश यदि उत्पादकनहीं, सिर्फ उपभोक्ता है तो उसका पतन निश्चित है। व्यक्ति पहले उत्पादकहो, फिर उपभोक्ता, तभी उसका अस्तित्व बचा रहेगा। तमाम सरकारी योजनाएं हमारे गांवों के परंपरागत उद्योग-धंधों को नहीं बचा सकीं जो कभी उनकी जीविका और अर्थव्यवस्था के आधार थे। शहरों की उपभोक्तावादी ऐसी संस्कृति का प्रचार-प्रसार हुआ जो गांवों के लोगों की बदहाली और बेरोजगारी की वजह बन गई है। उदाहरण के लिए, दातुन के बदले तरह-तरह के दंत मंजन, पेस्ट, टूथब्रश; गुड़ और राब की जगह मिल की सफेद चीनी; लकड़ी की सुतली या निवाड़ से बनी खाट या पलंग के बदले लोहे के पाइप या छड़ के पलंग; खपरैल की जगह टिन; सन, पटुए, मंजू आदि की रस्सियों की जगह तार और प्लास्टिक की डोरियां; देहाती चटाई के बदले चीनी और जापानी चटाइयां; गांवों में बांस या घास के बने हुए सूप, दौरे-दौरी, पिटारी आदि के स्थान पर टिन या प्लास्टिक के सूप, डब्बे आदि; पेड़ों के पत्तों से बनी पत्तल की जगह प्लास्टिक की पत्तलें; कुम्हार के घड़े, सुराही, कुल्हड़ की जगह प्लास्टिक के गिलास, थर्मस आदि; देहाती लुहार या कसेरे की बनाई जंजीर, कडिय़ों, हत्थे के बदले मशीन से बने तार या पत्तर की वैसी ही कमजोर मगर आकर्षक चीजें; देहात के सुनार के बनाए गहनों की जगह शहरों में मशीनों से तैयार हुए गहने; देहाती महिलाओं द्वारा गूंथे पंखे, कढ़े आसन, जाजिम, शॉल आदि; रीठा, शिकाकाई आदि प्राकृतिक वस्तुओं के बदले सुगंधित साबुन और शैम्पू; नरकट के बदले तरह-तरह के बाल और जेल पेन और उनके फलस्वरूप देहाती रोशनाई के बदले, रासायनिक रोशनाइयां; देहात के कागज की जगह मशीन के कागज; घरेलू ताजे काढ़े की और अर्कों के बदले तैयार दवाइयों की बोतलें आदि के कारण गांवों की अर्थव्यवस्था को भारी चोट पहुंची है और तमाम लोग बेकार हो गए हैं। गांवों में सूत कताई का काम भी लगभग बंद हो गया है, जो ग्रामीणों की आमदनी का अच्छा जरिया था। इसके अलावा तमाम तरह की मशीनों ने भी गांव वालों को बेरोजगार बनाया है। धान की कटाई-मड़ाई से लेकर आटा पीसने, धान कूटने और कोल्हू बैल से तेल पेरने का काम भी अब मशीनें कर रही हैं। इस तरह के तमाम कामों में लगे मजदूर-किसान अब बेरोजगार हो गए हैं। इससे गांव की पूरी अर्थव्यवस्था चरमरा गई है। इस तरह की तमाम उपभोग की वस्तुओं के लिए अब हम बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर आश्रित हो गए हैं, जिससे देश को भारी कीमत चुकानी पड़ रही है।

सोनिया गांधी की अध्यक्षता में क्षरण की ओर कांग्रेस 


अरूण जैन
यह घटना 1977 की है। नई दिल्ली के प्रगति मैदान के एक मंडप में विभिन्न राजनीतिक दलों ने अपने अस्तित्व खत्म कर जनता पार्टी का गठन किया था। चंद्रशेखर उस नवगठित जनता पार्टी के अध्यक्ष चुने गए थे। एक दिन पूर्व मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री पद की शपथ ले चुके थे। प्रधानमंत्री पद के दो और दावेदार थे, चौधरी चरण सिंह और जगजीवन राम। वरिष्ठता और चरण सिंह के खुले समर्थन के कारण जयप्रकाश नारायण ने भी मोरारजी देसाई का पक्ष लिया था। जगजीवन राम के समर्थक इससे कुपित थे। इस कुपित लोगों में चंदशेखर के अभिन्न मित्र रामधन भी थे जिन्होंने पार्टी से त्यागपत्र देने की धमकी सार्वजनिक तौर पर दे डाली थी। प्रगति मैदान से आकर अपने साऊथ एवेन्यु आवास पर बैठे थे। वे कुछ खिन्न थे। हम चार-पांच पत्रकार भी उनके साथ थे। इस बीच रामधन का फोन आया और दोनों के बीच काफी तल्ख संवाद हुए। वहां बैठे लोगों में खुसुर पुसुर चल रहा था कि चन्द्रशेखर के अत्यधिक नजदीकी और उनकी पत्रिका यंग इंडिया का सम्पादन कर रहे सिद्दीक अहमद सिद्दीक ने कहा− नेताजी (चन्द्रशेखर के लिए उनका यही संबोधन था) आप क्यों चिंतित हैं आप तो पार्टी के अध्यक्ष हो ही गए हैं और तब तक बने रहेंगे जब तक पार्टी निगम बोध घाट (श्मशान) न पहुंच जाये। खिन्न चन्द्रशेखर ने उन्हें बेहूदी बात करने पर झिड़की दी। सब चुप हो गए। लेकिन इतिहास गवाह है कि 1977 से लेकर 1988 तक कई बार बिखरित होने के बावजूद चंद्रशेखर जनता पार्टी का अस्तित्व रहने तक उसके अध्यक्ष बने रहे। इस बीच कौन कौन किन किन कारणों से जनता पार्टी छोड़ता गया उसकी कथा बहुत विस्तृत है। मेरा इरादा उसके विस्तार में जाने का नहीं है। लेकिन यह बताना शायद उचित होगा कि 1979 में चौधरी चरण सिंह का लोक दल और 1980 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृतव में जनसंघ-जनता पार्टी से अलग हुआ था। चन्द्रशेखर जनता पार्टी के प्रथम और अन्तिम क्षण तक अध्यक्ष बने रहे भले ही उसका क्षरण होता रहा। कुछ वर्षों तक सुब्रमण्म स्वामी ने अवश्य जनता पार्टी का नाम जीवित रखा। लेकिन वह बस नाम भर की पार्टी थी। अब वह भी नहीं रह गई है। मुझे जनता पार्टी के उदय से अन्त तक का इतिहास और सिद्दीकी की भविष्यवाणी का एकाएक स्मरण यह समाचार सुनकर आया कि कांग्रेस ने संगठनात्मक चुनाव टाल दिया है और सोनिया गांधी का अध्यक्षीय कार्यकाल एक वर्ष के लिए और बढ़ गया है। सोनिया गांधी 1997 में कांग्रेस अध्यक्ष चुनी गई थीं। इस प्रकार फिलहाल उनके कार्यकाल का 18वां वर्ष चल रहा है। उनकी अध्यक्षता मताधिकार की उम्र में आ गई है। देश की सबसे पुरानी और अधिकतम वर्षों तक सत्ता में रहने वाली इस पार्टी में कोई व्यक्ति इतने वर्षों तक अध्यक्ष पद पर नहीं रहा है। कांग्रेस के संस्थापक ह्यूम भी ग्यारह वर्ष तक अध्यक्ष रहे। सोनिया गांधी ने उनका रिकार्ड तो कबका तोड़ दिया था अब वे नया रिकार्ड भी बना चुकी हैं। इस अवधि में कांग्रेस में कोई टूट-फूट भी नहीं हुई सिवाय शरद पवार के−जो बाद में शरणागत हो गए। यहां तक कि नरसिंह राव के नेतृत्व के समय जो लोग तिवारी कांग्रेस के नाम से अलग खड़े हो गए थे वे सभी नारायणदत्त तिवारी, अर्जुन सिंह आदि फिर से पार्टी में लौट आये। ममता बनर्जी अवश्य अलग हुईं लेकिन साथ साथ खड़ी भी रहीं। जहां जनता पार्टी चन्द्रशेखर के ग्यारह वर्ष की अध्यक्षता में टूटती ही रही, कांग्रेस सोनिया गांधी के नेतृत्व में एक होती रही। फिर भी कांग्रेस की तकत घटती रही और 2014 के लोकसभा चुनाव में कुल 44 सीटें जीतकर उसने न्यूनतम होने का रिकार्ड बनाया है। इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री रहते हुए भी जिस रायबरेली से चुनाव हार गई थीं, सोनिया गांधी उस पर कब्जा बनाए रखने में सफल अवश्य रहीं लेकिन 1977 के घोर जनविरोध के बावजूद लोकसभा में कांग्रेस को डेढ़ सौ से अधिक सीटें मिली थीं और कांग्रेस का विभाजन हो जाने के बाद भी 1980 में इंदिरा गांधी फिर से सत्ता में आ गई थीं। सोनिया गांधी के नेतृत्व की एक ही उपलब्धि है, लोकसभा में सदस्यों की संख्या घटने के बावजूद मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दस वर्ष तक यूपीए सरकार पर नियंत्रण। इस नियंत्रण का परिणाम कांग्रेस के लिए कैसा रहा यह 2014 के लोकसभा और उसके बाद होने वाली विधानसभा चुनाव परिणामों से स्पष्ट है। सोनिया गांधी के 18 वर्ष के कार्यकाल में सत्ता भले एक दशक तक हाथ में रही हो कांग्रेस का प्रभाव सिमटता ही गया और सिमटता ही जा रहा है। केंद्र के समान ही अधिकांश राज्यों में भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस से सत्ता छीन ली है। पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और तामिलनाडू जैसे राज्यों में क्षेत्रीय दलों का प्रभुत्व है। देश के बड़े राज्यों की गिनती में कर्नाटका और असम में ही उसकी सरकार बची है। जिनके नीचे की धरती भी खिसक चुकी है। कुछ छोटे राज्यों जैसे- हिमाचल, उत्तराखंड और अरूणाचल में कांग्रेस की सरकार अवश्य है लेकिन वहां के लिए भी प्रश्न पूछा जाने लगा है कब तक? इस अवधि की एक और बड़ी उपलब्धि है स्कैंडल। यूपीए के दस वर्ष का कार्यकाल स्कैंडल के रूप में ही चर्चित है। तत्कालीन प्रधानमंत्री तक स्कैंडल के मामले में अदालती निगरानी के दौर से गुजर रहे हैं। सोनिया गांधी, उनके पुत्र राहुल गांधी और दामाद राबर्ट वाड्रा के खिलाफ भी मामला अदालत में पहुंच चुका है। लेकिन सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष पद पर आसीन हैं। दिल्ली के अंतिम मुगल बादशाह शाह आलम के संदर्भ में एक कहावत प्रचलित है। शाह आलम लाल किले से पालम। लेकिन वे कहलाते थे हिन्दु स्थान के शाहे−शाह। सोनिया गांधी की मान्यता कांग्रेस चाहे जो स्थापित करने में लगी रहे, उनका अस्तित्व कुछ शाह आलम के समान ही होता जा रहा है। कांग्रेस पिछले कई वर्षों से राहुल गांधी को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपने की अफवाहें फैलाती रही है। पिछले दिनों तो ऐसा आभास दिया जाने लगा था जैसे सोनिया गांधी, राहुल को सब कुछ सौंपकर संन्यास ले लेंगी। राहुल को कांग्रेसियों की मांग पर पहले पार्टी का महामंत्री बनाया गया उसके बाद और अधिक जिम्मेवारी की मुहिम चलवाकर उपाध्यक्ष बनाया गया। अब जबकि सोनिया गांधी का कार्यकाल एक वर्ष के लिए और बढ़ गया है जो आगे कब तक बढ़ता रहेगा कहना कठिन है तो यह कहा जा रहा है कि सोनिया गांधी के परिपक्व नेतृत्व में राहुल गांधी कांग्रेस को संगठनात्मक मजबूती प्रदान करेंगे। यह किसी से छिपा नहीं है कि कांग्रेस में वही होता है जो मां और बेटे चाहते हैं। बाकी सभी गौण हैं। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री होते हुए भी यदि गौण थे ऐसे में यदि कांग्रेस का मतलब सोनिया गांधी और राहुल गांधी समझा जाये तो गलत नहीं होगा। राहुल गांधी को और जिम्मेदारी सौंपने की चर्चाओं का दौर चलते रहने के बावजूद सोनिया गांधी का आवरण बनाये रखना शायद इसलिए आवश्यक हो गया है क्योंकि जब से राहुल गांधी ने चुनावी अभियान की कमान संभाली है तब से उसे पराजय का ही सामना करना पड़ रहा है। अब बिहार के चुनाव सिर पर हैं और 2016 में कई विधानसभाओं के भी चुनाव हैं जिनमें उत्तर प्रदेश भी शामिल है। जहां भी चुनाव प्रस्तावित हैं कांग्रेस की दयनीय स्थिति है। पंजाब में उसकी स्थिति अकाली दल की धूमिल छवि के कारण मजबूत अवश्य है लेकिन वहां के मजबूत कांग्रेस नेता कैप्टन अमरेन्द्र सिंह क्षेत्रीय दल बनाने की दिशा में बढ़ रहे हैं। कर्नाटका में खींचतान से हालात बिगड़ रहे हैं। मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात जहां भाजपा ने उसे ध्वस्त कर दिया है इतना वैमनस्य है कि सभी कांग्रेसी एक मंच पर आने के लिए भी तैयार नहीं होते। जहां तक देश के सबसे राज्य उत्तर प्रदेश का सवाल है तो सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने रायबरेली और अमेठी से बाहर एक भी कदम नहीं रखा है। उन्होंने इस प्रदेश के कांग्रेसियों के साथ एक बार भी सामूहिक समागम भी नहीं किया। इसलिए राहुल को बदनाम होने से बचाने की जुगत में सोनिया गांधी अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी अनिश्चित काल तक संभाले रह सकती हैं और सोनिया गांधी में ही अपना भविष्य देखने वाले कांग्रेसी एक के बाद एक एक किला ध्वस्त होते देखते रहने की विवशता की जकडऩ से बाहर निकलने की मानसिक विहीनता से ग्रस्त रह सकते हैं। सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर किसी ने व्यंग्य पूर्वक कहा था कि जिस संस्था की स्थापना एक विदेशी मूल के व्यक्ति ने किया है उसका विसर्जन भी विदेशी मूल के व्यक्ति द्वारा होना सुनिश्चित है। यह कथन वैसा ही हास परिहास के लिए हो सकता है जिस भावना से सिद्दीकी ने जनता पार्टी के संदर्भ में चंद्रशेखर से कहा था, लेकिन ज्यों ज्यों सोनिया गांधी के अध्यक्षीय कार्यकाल का विस्तार होता जा रहा है कांग्रेस सिमटती जा रही है। लालकिले से पालम तक की कहावत बार−बार सुनने को मिल रही है। तो क्या यह समझा जाये कि कांग्रेस के विसर्जन का समय निकट आता जा रहा है। कुछ पुराने कांग्रेसी व्यंग्यपूर्वक कहते सुने जाते हैं कि महात्मा गांधी की सच्ची अनुयायी सोनिया गांधी हैं। अन्य कांग्रेसियों ने कांग्रेस को विसर्जित करने की गांधी की सलाह नहीं मानी। सोनिया गांधी उस पर अमल कर रही हैं। जनता पार्टी के समान ही कांग्रेस का क्षरण हो रहा है लेकिन दोनों के क्षरण में एक बड़ा अंतर भी है। जहां जनता पार्टी का क्षरण निरंतर टूटन से हुआ है वहीं कांग्रेस पार्टी में सोनिया गांधी के नेतृत्व संभालने के बाद ममता बनर्जी का अपवाद छोड़कर एकजुटता बढ़ी है। उनके और राहुल गांधी के नेतृत्व पर कोई विवाद कांग्रेस में नहीं है। इस एकजुटता के बावजूद यदि कांग्रेस का क्षरण होता जा रहा है तो उसके लिए नेतृत्व को ही दोषी माना जा सकता है।

बिहार चुनाव- शख्सियतों के टकराव में स्थानीय मुद्दे गुम 

अरूण जैन
बिहार चुनाव दो शख्सियतों के टकराव में बदल गया है और यह बात तब उजागर होती है जब अक्सर मतदाता अपनी पसंद मोदी या नीतीश की शक्ल में पेश करते हैं। बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण का मतदान सिर पर है और ऐसे वक्त में शख्सियतों के इस टक्कर में उम्मीदवारों का चुनाव और चुनाव क्षेत्रों को पेश मुद्दे जैसी दीगर चीजें नेपथ्य में ही दिख रही हैं। जहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भाजपा नीत राजग की कमान संभाल रखी है, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मतदाताओं को यह यकीन दिलाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं कि बिहार के नेतृत्व के लिए उनसे बेहतर कोई नेता नहीं है। मुंगेर विधानसभा क्षेत्र में जब दूकानदार भूमिका प्रसाद से मुख्यमंत्री पद के लिए उसकी पसंद के बारे में पूछा गया तो उन्होंने ठेठ बिहारी लहजे में कहा, ''नीतीशे हैं (नीतीश ही हैं)।ÓÓ प्रसाद की दलील थी कि बिहार के मुख्यमंत्री पद के लिए नीतीश से अच्छा कोई नेता नहीं है। जब उससे मोदी के विकास के नारे के बारे में पूछा गया तो उसका जवाब था, ''मोदी जी बिहार नहीं ना चलाएंगे।ÓÓ एक साल पहले, 2014 में लोकसभा चुनाव में मोदी और नीतीश के टकराव में जदयू नेता को धक्का लगा था और उनकी पार्टी राज्य में तीसरे स्थान पर चली गई थी। अब, राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के साथ गठबंधन कर नीतीश विधानसभा चुनाव में नए तेवर के साथ आए हैं। उधर, भाजपा ने अपने राज्यस्तरीय नेताओं को उच्च स्तरीय चुनाव प्रचार से अलग रखा है और वोटों की दौड़ में भगवा पार्टी नीतीश-लालू महागठबंधन से राजग को आगे निकालने के लिए मोदी के अग्निबाणों पर भरोसा किए है। भाजपा प्रमुख अमित शाह एकमात्र पार्टी नेता हैं जिन्हें भगवा पार्टी के बड़े बड़े होर्डिंग में मोदी के साथ जगह मिल रही है। इन होर्डिंग में दोनों कमल पर वोट डाल कर बिहार को विकास की राह पर लाने का आह्वान कर रहे हैं। बिहार के विभिन्न हिस्सों में लोगों के एक हिस्से से बातचीत में यह दिखता है कि मोदी के प्रति बड़ा आकर्षण बना हुआ है, लेकिन नीतीश के पास लोगों के बीच साख है, खास तौर पर गरीबों के बीच। कालेज शिक्षक रमाकांत पाठक कहते हैं, ''मोदी जी जितनी बड़ी भीड़ आकर्षित कर रहे हैं, वैसी भीड़ लंबे अरसे से किसी राष्ट्रीय नेता ने आकर्षित नहीं की है। उनकी अपनी शैली है। लोग नीतीश जी के किए काम की भी तारीफ करते हैं।ÓÓ आधिकारिक उम्मीदवार के सवाल पर भाजपा नीत राजग खेमे में असंतोष है और यह कई जगहों पर, मसलन, चकई और भागलपुर में उनकी जीत की संभावना को प्रभावित कर सकता है। राजनीतिक सूत्रों का कहना है कि जहां किसी भी गठबंधन के पक्ष में कोई स्पष्ट लहर नहीं है, सिर्फ मोदी की अपील जैसे कारक उन्हें जीतने में मदद कर सकते हैं। यही कारण है कि मोदी सघन चुनाव प्रचार अभियान चला रहे हैं। उन्हें उम्मीद है कि अपनी तकरीबन दो दर्जन चुनावी रैलियों से वह चुनावी पासा पलट सकते हैं। नीतीश के चुनाव प्रचार को ले कर बहुत हो-हल्ला नहीं है, लेकिन वह अपने ही अंदाज में इस चुनाव को मुख्यमंत्री के रूप में अपने काम-काज पर जनमतसंग्रह में बदल रहे हैं। इस तरह, वह अपने सहयोगी लालू प्रसाद के जातीय मुद्दे से अलग हैं और राजद के 15 साल के शासन को ले कर कथित नकारात्मकता से भी खुद को अलग रखे हुए हैं। नीतीश अपनी रैलियों में नारा दे रहे हैं कि ''बिहार बिहारी चलाएगा बाहरी नहीं।ÓÓ इस तरह, वह जता रहे हैं कि अगर राजग जीता तो मोदी बिहार का शासन नहीं चलाएंगे, बल्कि कोई स्थानीय ही चलाएगा लेकिन उनसे अच्छा कोई बिहारी नेता नहीं है। पहले चरण के चुनाव में बिहार के 243 विधानसभा क्षेत्रों में से 49 में मतदान होगा। इस दौरान भागलपुर, मुंगेर, समस्तीपुर, बेगुसराय, खगडिय़ा, नवादा और जमुई में मतदान होगा।

जरा सी चिनगारी पर क्यों भभक उठता है सोशल मीडिया 


अरूण जैन
इंटरनेट और दूरसंचार माध्यमों पर सवार सोशल मीडिया ने आम आदमी के हाथ में गज़ब की ताकत थमा दी है। अपनी बात कहने के साथ-साथ दूसरों की राय को प्रभावित करने और समान ढंग से सोचने-समझने वाले लोगों का एक अदृश्य किंतु ताकतवर समूह पैदा करने की शक्ति भी उसके हाथ में आ गई है। एक तरफ वह जानकारियों और सूचनाओं को ग्रहण करता है तो दूसरी तरफ उन्हें प्रसारित भी करता है। यह मीडिया अनोखा है जिसमें अनगिनत लोग संदेश भेज रहे हैं और अनगिनत लोग उन्हें ग्रहण कर रहे हैं। जो ग्रहण कर रहे हैं वे भी संदेश भेज रहे हैं और जो भेज रहे हैं वे भी ग्रहण कर रहे हैं। कमाल का तालमेल और तारतम्य है दोनों के बीच लेकिन दोनों को ही इसका अहसास नहीं है कि वे किस तरह एक विश्वव्यापी संजाल की महत्वपूर्ण कड़ी हैं। सोशल मीडिया के जरिए आम आदमी के हाथ में आई इस असीमित शक्ति ने कई बदलाव किए हैं। उसने सरकारों, कंपनियों और समाजों के काम करने का ढंग बदल दिया है। संवाद करने के तरीके बदल दिए हैं। एक बेहद विशाल, विश्वव्यापी समूह पैदा कर दिया है जो अगर किसी लक्ष्य को लेकर एक साथ चल पड़े तो रास्ते में आने वाली हर दीवार को ध्वस्त करने में सक्षम है। यह बात मनोवैज्ञानिकों, विश्लेषकों और शोधकर्ताओं के बीच चर्चा का विषय है कि इंटरनेट से जुड़ी, असंबद्ध आबादी की सोच आखिर किस दिशा में बढ़ती है। क्या वह किसी भीड़ की तरह है जो मारो मारो का शोर होने पर आँख मूंदकर किसी को भी मारने पर तुल जाती है या वह किसी ऐसे समूह के समान है जिसका हर एक सदस्य भीड़ का हिस्सा होने के बावजूद अपने स्वतंत्र विवेक का प्रयोग करने में सक्षम है?संयोगवश, पिछले एक दशक के दौरान घटित हुई जनक्रांतियों, लोकतांत्रिक बदलावों, सुनियोजित दंगा-फसाद की वारदातों और मानहानिकारक घटनाओं ने दोनों ही परिभाषाओं की पुष्टि की है। इंटरनेट और दूरसंचार माध्यमों के जरिए एक-दूसरे से अदृश्य तरीके से जुड़ी लाखों-करोड़ों लोगों की भीड़ की दिशा सकारात्मक भी हो सकती है और नकारात्मक भी। जहाँ एक ओर वह मिस्र, ट्यूनीशिया और लीबिया जैसे देशों में सत्ता-परिवर्तन में परिणीत प्रत्यक्ष आंदोलनों का माध्यम बन सकती है वहीं दूसरी ओर वह भारत जैसे देशों में अन्ना हजारे और इंडिया अगेन्स्ट करप्शन जैसी मुहिमों को उभारकर अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता में बदलाव सुनिश्चित कर सकती है। दुखद तथ्य यह है कि यही अदृश्य, किंतु कनेक्टेड भीड़ यदि किसी निहित स्वार्थ, गलतफहमी या पूर्वाग्रह से प्रेरित हो तो समाज को बाँटने में भी देर नहीं लगाती। ऐसी स्थिति में वह अराजकता का माध्यम बन जाती है। सामाजिक हिंसा हमने हाल ही में उत्तर प्रदेश के दादरी इलाके के बिसाड़ा गाँव में सोशल मीडिया को अराजकता का जरिया बनते हुए देखा है। इस प्रक्रिया में व्हाट्सऐप, फ़ेसबुक और ट्विटर पर डाली गई सूचनाओं ने विध्वंसक भूमिका निभाई। दो साल पहले देश के कई हिस्सों में पूर्वोत्तर के निवासियों के विरुद्ध हिंसा भड़काने में और पिछले साल मुजफ्फरनगर के दंगों को हवा देने में जिस तरह असामाजिक तत्वों ने सोशल मीडिया का खुलेआम दुरुपयोग किया, वे भी इस बात का पर्याप्त प्रमाण पेश कर चुके हैं कि जिन तकनीकी सुविधाओं का विकास आम आदमी को सशक्त बनाने के लिए किया गया, उन्हें उसी आम आदमी के खिलाफ इस्तेमाल करना कितना आसान है। तकनीक के पास शक्ति तो अवश्य है, लेकिन उसके पास अपना विवेक नहीं होता। विवेक यदि है, या नहीं है तो उसके प्रयोक्ता के पास। मुजफ्फरनगर के दंगे इसलिए भड़के थे क्योंकि वहाँ पाकिस्तान में भीड़ द्वारा कुछ लोगों को मार डाले जाने के वीडियो को सोशल मीडिया के जरिए वितरित करते हुए उसे स्थानीय घटना के रूप में पेश किया गया। तकनीक का दुरुपयोग न किया जाता तो शायद छेड़छाड़ की एक छोटी सी घटना बड़े से दंगे में बदलकर दर्जनों बेकसूरों की मौतों का कारण न बनती। पिछले साल पूर्वोत्तरवासियों को जिन अफवाहों का शिकार होना पड़ा उनका भी जमीनी हकीकतों से कोई संबंध नहीं था लेकिन सोशल मीडिया पर प्रसारित होने के बाद उन्होंने एक किस्म के दावानल को जन्म दे दिया। सकारात्मक माध्यम क्यों बना नकारात्मक लेकिन सोशल मीडिया का विकास इस उद्देश्य के लिए तो नहीं हुआ था! वह तो हमारी साझा शक्ति का उद्घोष करने वाला औजार बनना था। वह तो हमारे बीच दूरियाँ खत्म करने का माध्यम बनना था। वह तो हमें विश्वग्राम का नागरिक बनाने के लिए आया था। ऐसा विश्वग्राम, जिसमें हर व्यक्ति के समान अधिकार हैं। जहाँ हर व्यक्ति का समान दर्जा है। जहाँ हर व्यक्ति के लिए सम्मान है। लेकिन हमारे सामाजिक जीवन की बुराइयों ने सोशल मीडिया को विध्वंस का हथियार बना लिया। नदी का पानी रोककर बांध बनाया जाता है ताकि उससे आसपास के खेतों में सिंचाई हो सके। लेकिन अगर कोई बाढ़ के समय आधी रात को उसी बांध की दीवारें ध्वस्त कर दे तो धरती पर सोना उपजाकर जीवनदान देने वाला वही बांध सैंकड़ों लोगों का जीवन लेने वाली विभीषिका में तब्दील हो सकता है। कटु अवश्य है, किंतु सत्य है कि सोशल मीडिया की अनियंत्रित प्रकृति उसे यदा-कदा अराजकता का माध्यम भी बना रही है। यह अराजकता दोनों तरह की है- व्यक्तिगत भी और सामूहिक भी। व्यक्तिगत अराजकता मासूम लोगों को नुकसान पहुँचाने वाले साइबर अपराधों के रूप में दिखाई देती है, जैसे साइबर बुलिंग, साइबर स्टॉकिंग, इंटरनेट ट्रॉलिंग, मानहानि, अश्लीलता, बाल-शोषण, पहचान की चोरी आदि के रूप में। सामूहिक अराजकता कभी दंगे भड़का देती है तो कभी किसी खास समुदाय के भीतर भय पैदा कर देती है। कभी वह जाने-अनजाने में आतंक की मदद कर बैठती है तो कभी किसी बेकसूर व्यक्ति को त्वरित और काल्पनिक मुकदमे में दोषी सिद्ध कर देती है। अलग-अलग स्थान पर बैठे लोगों को नियंत्रित या अनुशासित करना या उनका अ'छा आचरण सुनिश्चित करना भला कहाँ संभव और व्यावहारिक है! इसी अराजकता की वजह से दुनिया की अनेक सरकारें, व्यापारिक संस्थान और आम लोग आशंकित हैं। अपरिमित शक्ति से लैस यह माध्यम रेगिस्तान में मदमस्त भटकते ऊंट की तरह कब किस दिशा में बैठ जाए, कौन जाने!

शिप्रा नदी के पानी में तो नही नहलाएंगे, यह पक्का है ?


अरूण जैन
सभी जानते हैं, मानते हैं कि सिंहस्थ महापर्व हो अथवा वर्ष में आने वाले अन्य पर्व-महोत्सव, स्नान का पुण्य केवल शिप्रा नदी स्नान का है । पर त्रासदी यह है कि शिप्रा नदी का मूल स्त्रोत तो लगभग विलुप्त हो गया है। अब तो शिप्रा नदी क्षेत्र में कभी गंभीर नदी, कभी चंबल नदी, कभी साहिबखेडी़-उंडासा और कभी नर्मदा नदी के पानी से धर्मालुओं को स्नान करवा दिया जाता है । इस बार सिंहस्थ में भी नर्मदा, चंबल, गंभीर के मिले-जुले पानी से ही श्रद्धालुओं को पुण्य स्नान करवाया जाएगा । साथ ही 11 से 17 नालों का पानी भी नहाने को मिलेगा !
सिंहस्थ का दूसरा और बड़ा मुख्य मुदद्ा धर्मालुओं को शिप्रा नदी के शुद्ध जल से स्नान करवाने का है, जो लगभग खतम इसलिए हो गया है क्योंकि शिप्रा नदी की अपनी स्वयं की आवक और स्त्रोत, दोनो समाप्त प्रायः है । जिन्होने पिछला सिंहस्थ देखा है उन्हें अच्छी तरह याद होगा कि धर्मालु और शहरवासी गंभीर नदी के पानी में नहाए थे। 2004 से 2016 के मध्य इतना विकास और हो गया है कि शिप्रा नदी में मिलने के लिए चंबल और नर्मदा के स्त्रोत भी जोड़े जा चुके हैं । यह लाभ तो है ही कि नदी क्षेत्र में पानी की कमी नही आएगी। क्योंकि हर शाही स्नान से पहले और बाद में नदी का पानी बदलना पड़ता है । 
गंभीर त्रासदी है कि शिप्रा शुद्धिकरण के नाम पर पिछले लगभग 48 वर्षों में (जहां तक मेरी याददाश्त है) करोड़ों नहीं, अरबों रूपए खर्च किए जा चुके हैं । इसके बावजूद शहर के गंदे नाले, ओद्योगिक प्रदूषण आज तक शिप्रा नदी में जस के तस मिल रहे हैं। फिर यह अरबों रूपया कहां गया, यह पृथक जांच और बहस का विषय है।
आज भी आप नदी पर जाकर देखें तो शिप्रा नदी का पानी ठहरा हुवा है। उसमें बहाव नाम को भी नहीं है। हाल के कुछ वर्षों में नर्मदा नदी से इसे मिलाने के नाम पर करोड़ो रूपए खर्च कर दिये गए। पर नर्मदा का जल लाने पर अभी भी दो-तीन दिन की ‘मीडिया कमेन्ट्री’ चलती है तब कुछ पानी आ पाता है। गरजे यह एकदम पक्की बात है कि सिंहस्थ में शिप्रा नदी क्षेत्र में नर्मदा, गंभीर अथवा चंबल का पानी ही नहाने को मिल सकेगा। वैसे माननीय मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान तो नर्मदा का पानी सिंहस्थ के दौरान लगातार शिप्रा में बनाए रखने के निर्देश अधिकारियों को दे चुके हैं । अब यह धर्मालुओं का भाग्य कि उन्हें किस नदी का जल शिप्रा नदी में नहाने के लिए उपलब्ध होगा। और साहब! इससे अधिकारियों को क्या फर्क पड़ता है, मतलब तो नहलाने से है, सो नहला देंगे। हां, आचमन करना, न करना आपकी श्रद्धा है !

Wednesday 7 October 2015

लीक से हटकर बोलने में अव्वल हैं मुलायम सिंह


डॉ. अरूण जैन
समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव की छवि एक बेबाक नेता की है लेकिन यही बेबाकी अक्सर उनके लिये भारी पड़ जाती है। ऐसे तमाम मौके आये जब सपा प्रमुख लीक से अलग चलते−बोलते नजर आये। तमाम मुद्दों पर पार्टी लाइन भी वह ही तय करते हैं। मुलायम कब किसके दोस्त बन जायें और कब किसके दुश्मन कोई नहीं जानता। ऐसा तमाम मौकों पर हुआ है। कांग्रेस भाजपा की सरकारों को समय−समय पर मुश्किल घड़ी में नेताजी ने पार्टी लाइन से अलग जाकर समर्थन दिया है। मुलायम के बारे में आम धारणा यही है कि उन्हें दुश्मनी निभाना नहीं आती है। हां, दोस्ती निभाना खूब जानते हैं। अपने इसी स्वभाव के कारण मुलायम विवादों में भी घिरे रहते हैं लेकिन समाजवादी पार्टी के तमाम नेता सब कुछ जानते−समझते हुए भी मजबूरीवश ही सही मुंह खोलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। वह उलटे ही सवाल खड़ा करते हैं कि किसी भी सारगर्भित बात को दोटूक शब्दों में कह देने का कौशल और पराक्रम क्या नेता जी के अलावा किसी और के पास है। दो टूक बोलने में माहिर नेता जी ने पिछले दिनों लखनऊ में ई-रिक्शा वितरण कार्यक्रम में भी बलात्कार की व्याख्या करते हुए ऐसा ही कुछ बोल दिया जिसने अखिलेश सरकार का सिरदर्द बढ़ा दिया। जब मुलायम ने ईरिक्शा पर बोलना शुरू किया तो पहले तो उन्हे लोहिया जी की याद आ गई और कहा कि ई−रिक्शा से स्वरोजगार बढ़ावा मिलता है। डॉ. राम मनोहर लोहिया इस बात से हमेशा दु:खी रहते थे कि हिन्दुस्तान में आदमी ही आदमी को ढोता है। आगे बोले कि प्रदेश सरकार ने पढ़ाई, दवाई और सिंचाई मुफ्त करके गरीबों, किसानों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों, नौजवानों सभी के लिए बेहतरीन काम किया है। यही इकलौती सरकार है, जो कैंसर और किडनी जैसे गम्भीर रोगों के इलाज के लिए भी मदद देती है। कानून−व्यवस्था की बात पर बोले कि प्रदेश की आबादी को देखते हुए अपराध बहुत कम हो रहे हैं लेकिन इसके बाद वह बहक गये और सामूहिक बलात्कार पर अपने विचार प्रकट करने लगे। मुलायम का कहना था कि सामूहिक बलात्कार हो ही नहीं सकता है, रेप एक आदमी करता है बाकी चार तो फंसा दिये जाते हैं। बहरहाल, मुलायम के बयान के बाद भले ही यह बात सपा नेता सार्वजनिक मंच पर स्वीकार न करते हों लेकिन इसकी सुगबुगाहट पार्टी के भीतर सुनाई−दिखाई देने लगी है। महिलाओं को लेकर मुलायम का तंग नजरिया नई सोच के समाजवादियों को रास नहीं आता है। अंजाने में ही सही नेताजी अपने विवादित बयानों से विरोधी दलों को सपा के खिलाफ जहर उगलने का मौका दे देते हैं। सपा के कुछ नेताओं ने तो यहां तक कहना शुरू कर दिया है कि मुलायम के महिला विरोधी तमाम बयानों के कारण लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को महिला वोटरों से हाथ धोना पड़ गया था। यही हालात रहे तो विधानसभा चुनाव में भी महिला वोटर सपा को ठेंगा दिखा सकती हैं। लोकसभा चुनाव के समय महिला वोटरों की बेरूखी की वजह मुलायम का मुजफ्फनगर में दिया गया वह बयान था जिसमें उन्होंने मुम्बई गैंगरेप के आरोपियों के प्रति नरम रूख अपनाते हुए कहा था, बच्चों से गलतियां हो जाती हैं, इसका मतलब यह थोड़ी है कि उन्हें (गैंगरेप के आरापियों) फांसी पर लटका दिया जाये। उम्मीद थी कि इस विवादित बयान के बाद नेताजी को सबक मिल गया होगा लेकिन लखनऊ के मोहनलालगंज थाना क्षेत्र में कथित गैंगरेप और हत्या की घटना के बाद मुलायम का एक और विवादित बयान सामने आ गया, जिसमें वह इलेक्ट्रानिक मीडिया के सामने कहते दिखाई पड़े थे कि उत्तर प्रदेश में आबादी के हिसाब से दुराचार की वारदातें कम होती हैं। मुलायम के इस बयान ने भी विस्फोट का काम किया। महिला संगठन आग बबूला हो गये थे। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने डैमेज कंट्रोल के तहत महिला के दोनों बच्चों के नाम दस दस लाख रुपए की एफडी और इंटर तक की मुफ्त पढ़ाई की घोषणा तो की लेकिन इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ा। जानकार कहते हैं महिला ही नहीं चुनावी समर में अल्पसंख्यक वोटरों को अत्यधिक लुभाने के चक्कर में दिये गये नेताजी के कुछ विवादित बयानों के चलते ही हिन्दू वोटर, जिसमें बड़ी संख्या ऐसे यादवों की भी थी जो हमेशा से मुलायम का आंख मूंद कर समर्थन करते थे, उनसे दूर चले गये थे। मुलायम के स्वभाव में आये बदलाव से उन्हें करीब से जानने वाले भी हैरान हैं। अब वह (मुलायम) चुनावी समर में रणवीर की तरह खड़े नहीं दिखते, बल्कि याचक (अखिलेश को सीएम बना दिया मुझे भी पीएम बना दो) की भूमिका में नजर आते हैं। मुलायम की गंभीरता कहीं खो गई है। एक समय था, समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव कभी भी अपने विरोधियों के बारे में असंसदीय नहीं हुआ करते थे। भाषा का चयन वह काफी सोच समझ कर किया करते थे, राजनीतिक मतभेद को उन्होंने कभी व्यक्तिगत जीवन में हावी नहीं होने दिया, इसी वजह से सभी दलों में उनके शुभचिंतक मिल जाते थे। यहां तक की अपनी धुर विरोधी बसपा सुप्रीमो मायावती की मुंहफट बयानबाजी को भी नेताजी सहज पचा जाते थे लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में मुलायम ने सभी मर्यादाएं भुलाते हुए मायावती पर विवादित टिप्पणी यह कहकर कर दी, हम मायावती को क्या कहें, श्रीमती या कुंवारी बेटी या बहन। मुलायम के इस बयान के बाद बसपा ने मुलायम को काफी खरीखोटी सुनाई थी। खैर, समाजवादी पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता राजेन्द्र चौधरी यह मानने को तैयार नहीं हैं कि नेताजी ने कुछ गलत कहा था। उलटा वह आरोप लगाते हैं कि उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार और जनता के विरूद्ध इन दिनों सुनियोजित ढंग से दुष्प्रचार हो रहा है। प्रदेश में कानून व्यवस्था की स्थित किो लेकर तमाम तरह की भ्रामक बातें प्रचारित की जा रही हैं। बसपा अपनी सत्ता खोने के दिन से ही बौखलाई हुई है और उसका एक सूत्री कार्यक्रम समाजवादी सरकार को बदनाम करना और उसे बर्खास्त कराना रह गया है। कांग्रेस सब कुछ गंवाने के बाद और कोई रास्ता न सूझने पर भाजपा−बसपा के साथ ही सुरताल मिला रही है। उधर, उत्तर प्रदेश भाजपा के प्रवक्ता विजय पाठक कहते हैं कि मुलायम−आजम−शिवपाल और रामगोपाल यादव जैसे नेताओं की विवादित वाणी पर कोई लगाम नहीं लगा सकता है। भले अखिलेश यादव मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हों लेकिन आज भी सपा मतलब उक्त मु_ी भर नेता ही हैं। कोई हिन्दुओं को गाली देता है तो कोई महिलाओं का अपमान करता है। यहां तक की प्रधानमंत्री के पद की गरिमा तक का भी यह नेता सम्मान नहीं कर पाते हैं। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का उक्त नेताओं के बयानों पर असहमति जताना इस लिये मुश्किल हैं क्योंकि आजम को छोड़कर सबके पारिवारिक संबंध भी है। वर्ना कोई मुख्यमंत्री यह थोड़ी सुन सकता है कि वह चाटुकारों से घिरा हुआ है। मुख्यमंत्री अखिलेश के पास उक्त नेताओं के बयानों को मुस्कुरा कर टाल देने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। वह (अखिलेश) ऐसा कई बार कर भी चुके हैं। आजम खां का भारत माता को डायन कहने वाला बयान हो या फिर सपा सांसद नरेश अग्रवाल का मोदी को लेकर दिया गया बयान, एक चाय वाला पीएम नहीं बन सकता है, ने सपा को लोकसभा चुनाव में काफी नुकसान पहुंचाया था। 

हिंद महासागर में चीन की चौंकाने वाली गतिविधियाँ 


डॉ. अरूण जैन
हिंद महासागर में चीन की बढ़ती सक्रियता और वहां की कम्यूनिस्ट सरकार की यह धमकी कि भारत हिंद महासागर को अपना आंगन न समझे, हमारे लिए चिंता का कारण बनती जा रही है। क्योंकि चीन न सिर्फ हिंद महासागर में अपनी जल सेना का जमावड़ा बढ़ा रहा है, बल्कि भारत के चारों ओर अपनी सैन्य ठिकाने भी बनाता जा रहा है। चीन अपनी सैन्य ताकत और आर्थिक महाशक्ति होने के कारण आस-पास के सभी प्रमुख देशों में बंदरगाहों और जल क्षेत्रों पर कब्जा जमाता जा रहा है। चीन ने बांग्लादेश के चित्तगांव में, श्रीलंका के हमबनटोटा में, सेसेल्स में, पाकिस्तान के ग्वादर में, केन्या के लामू में और तंजानिया के बागामोयो में अपने ठिकाने स्थापित कर लिया है और वहां से वह भारत की पूरी नजर रखे हुए है। ये सारे बंदरगाह न सिर्फ चीन के व्यापारिक और आर्थिक हितों को संवर्धित और संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, बल्कि भविष्य में भारत और अमेरिका के लिए खतरा भी पैदा करने वाले हैं। चीन यह जानता है कि आने वाले समय में कच्चे तेल पर निर्भरता और बढऩे वाली है और इसलिए हिंद महासागर पर वह कब्जा करने की तैयारी कर रहा है ताकि वह कच्चे तेल के व्यापार पर अपना नियंत्रण रख सके और तेल के व्यापार का लीडर बन सके। एक तरफ चीन यह दावा करता है कि उसका हिंद महासागर में अभियान विशुद्ध रूप से व्यावसायिक है और वह किसी तरह के सैन्य ताकत बढ़ाने के अभियान में नहीं लगा है, वहीं दूसरी तरफ बंगाल की खाड़ी में उसने इलेक्ट्रानिक इंटेलिजेंस गैदरिंग फैसिलिटीज स्थापित कर वह भारत की वह गतिविधि पर नजर रख रहा है। यही नहीं चीन ने थाईलैंड के क्रा इस्थुमस में नहर बनाने में पूरा निवेश कर रहा है और कमबोडिया के साथ दक्षिण चीन महासागरमें सैन्य समझौता कर रहा है। ये सारी गतिविधियां बताती है कि चीन का उद्देश्य सिर्फ व्यापारिक मजबूती नहीं बल्कि सामरिक प्रभुत्व स्थापित करना ज्यादा है। पाकिस्तान के ग्वादर में डीप-सी पोर्ट बनाकर चीन एक तरह से अरब सागर में भारत की हर गतिविधि पर नजर रख रहा है। इसके अतिरिक्त चीन का हैनान द्वीप में नौसेना आधार कैंप भारत समेत अमेरिका के लिए भी खतरा बन सकता है। क्योंकि यहां से चीन कभी भी जहाजों का आना जाना रोक सकता है। चीन लाख कहे कि वह चीन से बाहर किसी तरह की सैन्य स्थापना नहीं करना चाहता पर चीन के ही जल सेना के रणनीतिकार शेन डिंगी खुलेआम कहते हैं कि चीन के लिए बाहर मिलिट्री बेस बनाना बहुत आवश्यक है। दरअसल चीन नहीं चाहता कि हिंद महासागर में वह अपने तेल आयात के लिए भारत या अमेरिका से सुरक्षा की कोई उम्मीद करे वह चाहता है कि हिंद महासागर में पेट्रोलिंग बोर्ट से लेकर युद्ध पोत तक बेधड़क ले जा सके। इसका मतलब यह हुआ कि हिंद महासागर में जहाजों की आवाजाही को लेकर किसी तरह का कोई विवाद खड़ा होता है तो चीन अपनी ताकत दिखाने से नहीं चूकना चाहता। एक तरह से चीन हिंदी महासागर में अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है, जो कि वह कई जगह कर भी चुका है। कोलंबो के बंदरगाह पर अपने युद्ध सबमेरिंस की तैनाती कर चीन पहले भी हमारी जल सेना के लिए चुनौती पेश कर चुका है। इस समय चीन के पास सबसे शक्तिशाली जल सेना है। एशिया में चीन ही वह देश है जिसके पास सबसे बड़ा जहाज है जिस पर परमाणु हथियारों से लैस युद्धक विमान हमेशा तैयार रहते है। हमारे लिए यह खतरे की घंटी से कम नहीं है कि चीन बंगाल की खाड़ी में लगातार न्यूक्लियर सबमेरिंस के साथ पेट्रोलिंग कर रहा है। यह भारत के परमाणु कार्यक्रम के लिए भी खतरा है। भारत इस खतरे के प्रति पूरी तरह सचेत है। अपनी सरकार बनते ही प्रधानमंत्री मोदी चीन के इस अभियान की गंभीरता को समझते हुए अमेरिका के साथ साझा रणनीति बनाने में जुट गए है। सितम्बर 2014 में अपनी अमेरिकी यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ हिंद महासागर में चीन की गतिविधियों के मद्देनजर सभी देशों के संयुक्त सैन्य पेट्रोलिंग व्यवस्था पर बातचीत की ताकि यहां व्यापारिक जहाजों की आवाजाही शांतिपूर्ण माहौल में होती रहे। यहीं नहीं जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा इस साल जनवरी में भारत आए तब भी इन मुद्दों पर गंभीर चिंतन किया गया और दोनों नेताओं ने फिर से यह दोहराया कि दक्षिणी चीन महासागर में समुद्री सुरक्षा के लिए जरूरी है कि सभी देश मिलकर एक व्यवस्थाएं बनाए ताकि मालवाहक जहाज बिना किसी फिक्र के आ जा सके और समुद्र के ऊपर के हवाई मार्ग भी पूरी तरह सुरक्षित रहे। दोनों नेताओं ने यह बयान भी जारी किया कि किसी भी देश को जल सीमा से संबंधित किसी भी विवाद के लिए सैन्य शक्ति के प्रयोग से बचना चाहिए। चीन ने भारत अमेरिका के इस साझा बयान पर कड़ी प्रतिक्रिया जाहिर की और कहा कि सिर्फ वे ही देश आपसी समझौते पर काम करें जिनके बीच विवाद हो। स्पष्ट है कि चीन नहीं चाहता कि अमेरिका इस मामले में भारत के साथ खड़ा हो। प्रधानमंत्री मोदी ने न सिर्फ अमेरिका के साथ बल्कि जापान के साथ भी इन मुद्दों को उठाया और कोशिश की कि चीन के मामले में भारत के साथ अमेरिका और जापान दोनों एक मंच पर खड़े हो। अगस्त 2014 में अपनी जापान यात्रा के दौरान मोदी जिन प्रमुख समझौतों पर दस्तखत किए उनमें से एक समझौता जापान द्वारा भारत को सबमेरिन से उड़ान भरने वाले युद्धक विमान खेप देने का भी था। विशेषज्ञ यह मानते हैं कि चीन की विस्तारवादी नीति को देखते हुए भारत का जापान से युद्धक विमान खरीदने का समझौता बहुत ही महत्वपूर्ण था। इससे एशिया के दो बड़े देशों के बीच शक्ति संतुलन कायम होगा। चीन की साम्राज्यवादी नीति की काट के लिए भारत ने कूटनीतिक प्रयास भी तेज कर दिए हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने 1990 में शुरू की गई लुक ईस्ट पॉलिसी का नाम बदलकर एक्ट ईस्ट पॉलिसी कर दिया है और उसी के अनुसार न सिर्फ दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के साथ बल्कि आस्ट्रेलिया के आगे के देशों के साथ भी संबंध सुधारने और समन्वय बढ़ाने की नीति को जोरदार ढंग से आगे बढ़ाया है। भारत कभी नहीं चाहता कि वह चीन के साथ सीधे तौर पर टकराए। इसलिए भारत की कोशिश है कि दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के साथ उसके व्यापारिक संबंध बहुत ही दृढ़ रहे ताकि चीन इसकी गर्मी महसूस कर सके। जब तक चीन के ऊपर क्षेत्रीय गठबंधन का दबाव नहीं बनेगा, तब तक वह भारत के साथ बराबरी के आधार पर बातचीत नहीं करेगा। चीन की बढ़ती सैन्य शक्ति और उसके बदलते रूख का भांप कर भारत ने क्षेत्रीय संतुलन अपने पक्ष में करने की रणनीति अपनायी है। मालदीव, मडागास्कर और म्यामार के साथ अपने व्यापारिक संबंधों को नये सिरे सुधारने के साथ ही भारत सिंगापोर, इंडोनेशिया, थाईलैंड, वियतनाम, ताइवान और फिलिपिंस के साथ भी अपने संबंध मजबूत किए हैं। जापान और आस्ट्रेलिया के साथ-साथ दक्षिण कोरिया को भी प्रधानमंत्री मोदी ने दौरे कर अपने पक्ष में खड़ा करने का प्रयास किया है। भारत को इसमें सफलता भी मिली है। 1993 में मलेशिया के साथ हुए हमारे सैन्य समझौते के बाद स्थितियां कुछ हद तक हमारे अनुकूल हुई हैं। मलेशिया में भारत का सैन्य मिशन काफी बड़ा है और 2008 के समझौते के बाद इसमें तेजी आई है। सिंगापोर पूरब में हमारा सबसे विश्वसनीय रक्षा साझेदार है। थाईलैंड भी हमारे साथ संयुक्त रूप से सैन्य अभ्यास में जुटा हुआ है।

सिहंस्थ क्षेत्र निर्माण ‘‘डेड लाइन’’-31 दिसम्बर


अरूण जैन
अब समय समाप्ति पर है । नासिक का कुंभ स्नान पूरा हो चुका है । साधु संतों के अग्रिम व्यवस्था दस्ते अगले माह से उज्जैन आना शुरू हो जाएंगे । प्रशासन और निर्माण विभागों के पास मात्र 31 दिसम्बर तक का समय है कि वे कम से कम सिंहस्थ क्षेत्र के सभी निर्माण एवं व्यवस्था कार्य पूरे कर लें । जनवरी 2016 से क्षेत्र संतों से भरना शुरू हो जाएगा यह पक्का तौर पर मान लें ।
त्रासदी है कि सभी सरकारी निर्माण विभागों ने स्वीकृतियाॅं मिलने के बावजूद कार्यादेश जारी करने में ‘सत्रह-अड़चने’ येन-केन-प्रकारेण खड़ी की । फलस्वरूप कार्यों की शुरूआत विलम्ब से हुई । अभी आप यदि लाल पुल, भूखी माता क्षेत्र, बड़नगर मार्ग, आगर रोड, मंगलनाथ, अंकपात आदि का घूमकर निरीक्षण करें तो कई क्षेत्रों में बुरी, उबड-खाबड़ स्थिति है । चिंतामन-जंतर मंतर मार्ग पर जो पुल दोनो रेल्वे क्राॅसिंग के उपर से बन रहा है, उसके पूरे होने के आसार सिंहस्थ मेला शुरू होने तक नजर नहीं आते । इस पुल के नीचे का मार्ग पैदल चलने लायक भी नही है । चिंतामन जाने वाला मार्ग भी अपने ढिलंगेपन के कारण दिसम्बर-जनवरी तक पूरा होता नजर नहीं आता । बड़नगर रोड पर भी चैड़ीकरण नहीं के बराबर हुवा है। रूद्रसागर क्षेत्र का अवलोकन करें तो कम से कम 30-40 प्रतिशत काम सड़कों का ही शेष है । घाटों का पुनरूद्धार भी पूरा नहीं हुवा है । बड़नगर रोड से गढ़कालिका-सिद्धवट और मंगलनाथ-अंकपात मार्ग पर भी सड़क कार्य मंथर गति से चल रहा है । शिप्रा नदी के पुलों के कार्य भी अपेक्षित गति से नहीं चल रहे हैं । मानकर चलिए बाबा लोग आने के बाद आपको ये काम नही करने देंगे। उनकी व्यवस्थाओं की मांग ही अधिकारियों को इतना हलकान कर देगी कि वो काम ही पूरे कर दें तो ठीक है, वरना ये चलते काम जनवरी के बाद पूरे करने का अवसर अधिकारियों-ठेकेदारो को मिलेगा इसमें संशय है । मेले के बाद तो पक्का मानकर चलिए कि जो अधूरा रहगया, वह रह ही गया । भले ही नष्ट हो जाए पर प्रशासन फिर ढंग से उनको पूरा नहीं करने वाला । इन अधूरे कामों का प्रभाव श्रद्धालुओं के आने-जाने पर पड़ेगा यह निश्चित है। तब क्या करेंगे। यह अभी से सोच लीजिए।