Tuesday 16 April 2019

 शिक्षा के कारोबार का काला सच

डाॅ. अरूण जैन

पिछले दो-तीन दशकों में शिक्षा क्षेत्र सबसे फायदेमंद व्यवसायों में से एक के रूप में उभरा है। हर शहर में कुकुरमुत्ते की तरह पनपे कोचिंग संस्थान इसकी गवाही देते हैं। लेकिन मेडिकल, इंजीनियरिंग, एमबीए संस्थानों में पिछले दरवाजे से दाखिले का कारोबार कोचिंग कारोबार से भी बड़ा है। एक-एक सीट के लिए अमीर लोग करोड़ रुपये देने को तैयार रहते हैं, ताकि उनकी नाकारा संतानें ऐसे ही किसी संस्थान में दाखिल हो जाएं। इस काम में उनकी सहायता करते हैं दलाल, जिनकी पहुंच हर जगह है। वे हर जगह पैसे फेंक कर ऐसा करते हैं और खुद मोटा पैसा बनाते हैं। यह कोई छिपी हुई बात नहीं। ज्यादातर लोग इससे वाकिफ हैं। विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं के पेपर लीक होने की खबरें आम हैं। इस धंधे में लगे लोग पकड़ भी जाते हैं, लेकिन ये धंधा कभी मंदा नहीं होता। इमरान हाशमी की 'वाय चीट इंडियाÓ इसी विषय पर आधारित है। कहानी राकेश सिंह उर्फ रॉकी (इमरान हाशमी) एक घोटालेबाज है, जो पैसे लेकर गलत तरीके से अयोग्य छात्रों का दाखिला इंजीनियरिंग कॉलेजों में कराता है। इसके लिए वह जालसाजी करके उन छात्रों की जगह किसी मेधावी छात्र को परीक्षा में बिठा देता है, जो अपनी प्रतिभा की बदौलत वह परीक्षा पास कर लेते हैं और अयोग्य छात्र को एडमिशन मिल जाता है। राकेश के लोग देश के कई शहरों में फैले हैं। सत्येंद्र उर्फ सत्तू (स्निघदीप चटर्जी) एक मध्यवर्गीय परिवार का लड़का है, जिसने ऑल इंडिया इंजीनियरिंग परीक्षा में बहुत अच्छी रैंक हासिल की है। राकेश की नजर पर सत्तू पर जाती है। वह उसे उसकी मजबूरी का फायदा उठा कर, उसे लालच के जाल में फंसा कर दूसरों की जगह इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा देने को तैयार कर लेता है। सत्तू अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई करते हुए, कई छात्रों के लिए ऐसी परीक्षाओं में बैठता है। इस क्रम में राकेश का सत्तू के घर आना-जाना होता है और उसकी बहन नूपुर (श्रेया धन्वंतरी) राकेश से प्यार करने लगती है। सत्तू को अपनी पढ़ाई के साथ-साथ इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षाओं की भी तैयारी करनी पड़ती है, लिहाजा वह दिन-रात मेहनत करता है। इस पे्रशर से निपटने के लिए वह ड्रग्स की शरण में चला जाता है। एक दिन वह ड्रग्स के साथ पकड़ा जाता है और अपने इंजीनियरिंग कॉलेज से निकाल दिया जाता है। वह डिप्रेशन में आ जाता है। राकेश उसे कतर में नौकरी दिलवा देता है और सत्तू के चैप्टर को बंद कर नए 'सत्तूओंÓ की खोज में लग जाता है। इसी बीच राकेश के पीछे पुलिस लग जाती है और उसे जेल जाना पड़ता है, लेकिन वह तुरंत छुट जाता है, क्योंकि उसके सिर पर एक नेता का हाथ है। उसके बाद राकेश इंजीनियरिंग कॉलेजों में एडमिशन की बजाय एमबीए संस्थानों में एडमिशन दिलाने का धंधा शुरू करता है, क्योंकि उसमें कमाई और ज्यादा है। इस सिलसिले में वह मुंबई पहुंचता है, जहां उसकी मुलाकात काफी समय बाद नूपुर से होती है। दोनों के संबंध फिर से परवान चढऩे लगते हैं, लेकिन इस प्रेम कहानी का अंजाम आम प्रेम कहानियों जैसा नहीं होता... संवाद-गीत यह फिल्म एक समसामयिक मुद्दे को उठाती है। इसमें शिक्षा क्षेत्र में चल रहे धंधे के साथ-साथ मध्यवर्गीय मानसिकता भी सवाल खड़े किए गए हैं, जो वाजिब लगते हैं। यह आम आदमी की जिंदगी से जुड़ा विषय है। लेकिन विषय जितना बढिय़ा है, पटकथा उतनी बढिय़ा नहीं है, लिहाजा फिल्म वह प्रभाव पैदा नहीं कर पाती। राकेश की धंधेबाजी की कहानी के साथ-साथ उसकी निजी जिंदगी की कहानी भी समानांतर रूप से चलती रहती है। लेकिन उसे सही तरीके से बुना नहीं गया है, जिसकी वजह उसमें जगह-जगह छेद नजर आते हैं। इससे फिल्म की गति पर भी असर पड़ा है। विषय को मनोरंजक तरीके से पेश करने की कोशिश की गई है। फिल्म कहीं भी बोझिल नहीं होती। लेकिन सौमिक सेन की पटकथा व निर्देशन और थोड़ा सधा होता, तो यह अच्छी फिल्मों की श्रेणी में गिनी जाती। पहले हाफ में फिल्म ज्यादा बेहतर है। दूसरे हाफ में इसकी कसावट थोड़ी कम हो जाती है। एक बात निर्देशक ने अच्छे से दिखाई है कि प्रतियोगी परीक्षाओं में चीटिंग के जरिये दाखिला कराने के लिए दलाल कैसे-कैसे तरीके अपनाते हैं। फिल्म के संवाद कई जगह मजेदार हैं। गीत-संगीत कुछ खास नहीं है।  एक्टिंग इमरान हाशमी का अभिनय शानदार है। वह एक शातिर दलाल की भूमिका में बेहतरीन लगे हैं। अपने किरदार के कारोबारी और निजी जिंदगी के अलग-अलग शेड को उन्होंने सधे तरीके से उभारा है। अभिनय के लिहाज से यह उनकी बेहतरीन फिल्मों में से एक है। श्रेया धन्वंतरी ने भी बढिय़ा काम किया है, खासकर दूसरे हाफ में वह बहुत प्रभावित करती हैं। स्निघदीप चटर्जी भी जमे हैं। वह एक इंजीनियरिंग छात्र की तरह लगे हैं। उनमें थोड़ी-थोड़ी राहुल बोस की झलक मिलती है। राकेश के दोस्त बबलू के किरदार में मनुज शर्मा अपनी क्षमता के अनुसार काम नहीं कर सके हैं। हालांकि इसमें उनका कम, पटकथा का दोष ज्यादा है। बाकी कलाकार भी ठीक हैं।

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