Wednesday 14 October 2015

जरा सी चिनगारी पर क्यों भभक उठता है सोशल मीडिया 


अरूण जैन
इंटरनेट और दूरसंचार माध्यमों पर सवार सोशल मीडिया ने आम आदमी के हाथ में गज़ब की ताकत थमा दी है। अपनी बात कहने के साथ-साथ दूसरों की राय को प्रभावित करने और समान ढंग से सोचने-समझने वाले लोगों का एक अदृश्य किंतु ताकतवर समूह पैदा करने की शक्ति भी उसके हाथ में आ गई है। एक तरफ वह जानकारियों और सूचनाओं को ग्रहण करता है तो दूसरी तरफ उन्हें प्रसारित भी करता है। यह मीडिया अनोखा है जिसमें अनगिनत लोग संदेश भेज रहे हैं और अनगिनत लोग उन्हें ग्रहण कर रहे हैं। जो ग्रहण कर रहे हैं वे भी संदेश भेज रहे हैं और जो भेज रहे हैं वे भी ग्रहण कर रहे हैं। कमाल का तालमेल और तारतम्य है दोनों के बीच लेकिन दोनों को ही इसका अहसास नहीं है कि वे किस तरह एक विश्वव्यापी संजाल की महत्वपूर्ण कड़ी हैं। सोशल मीडिया के जरिए आम आदमी के हाथ में आई इस असीमित शक्ति ने कई बदलाव किए हैं। उसने सरकारों, कंपनियों और समाजों के काम करने का ढंग बदल दिया है। संवाद करने के तरीके बदल दिए हैं। एक बेहद विशाल, विश्वव्यापी समूह पैदा कर दिया है जो अगर किसी लक्ष्य को लेकर एक साथ चल पड़े तो रास्ते में आने वाली हर दीवार को ध्वस्त करने में सक्षम है। यह बात मनोवैज्ञानिकों, विश्लेषकों और शोधकर्ताओं के बीच चर्चा का विषय है कि इंटरनेट से जुड़ी, असंबद्ध आबादी की सोच आखिर किस दिशा में बढ़ती है। क्या वह किसी भीड़ की तरह है जो मारो मारो का शोर होने पर आँख मूंदकर किसी को भी मारने पर तुल जाती है या वह किसी ऐसे समूह के समान है जिसका हर एक सदस्य भीड़ का हिस्सा होने के बावजूद अपने स्वतंत्र विवेक का प्रयोग करने में सक्षम है?संयोगवश, पिछले एक दशक के दौरान घटित हुई जनक्रांतियों, लोकतांत्रिक बदलावों, सुनियोजित दंगा-फसाद की वारदातों और मानहानिकारक घटनाओं ने दोनों ही परिभाषाओं की पुष्टि की है। इंटरनेट और दूरसंचार माध्यमों के जरिए एक-दूसरे से अदृश्य तरीके से जुड़ी लाखों-करोड़ों लोगों की भीड़ की दिशा सकारात्मक भी हो सकती है और नकारात्मक भी। जहाँ एक ओर वह मिस्र, ट्यूनीशिया और लीबिया जैसे देशों में सत्ता-परिवर्तन में परिणीत प्रत्यक्ष आंदोलनों का माध्यम बन सकती है वहीं दूसरी ओर वह भारत जैसे देशों में अन्ना हजारे और इंडिया अगेन्स्ट करप्शन जैसी मुहिमों को उभारकर अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता में बदलाव सुनिश्चित कर सकती है। दुखद तथ्य यह है कि यही अदृश्य, किंतु कनेक्टेड भीड़ यदि किसी निहित स्वार्थ, गलतफहमी या पूर्वाग्रह से प्रेरित हो तो समाज को बाँटने में भी देर नहीं लगाती। ऐसी स्थिति में वह अराजकता का माध्यम बन जाती है। सामाजिक हिंसा हमने हाल ही में उत्तर प्रदेश के दादरी इलाके के बिसाड़ा गाँव में सोशल मीडिया को अराजकता का जरिया बनते हुए देखा है। इस प्रक्रिया में व्हाट्सऐप, फ़ेसबुक और ट्विटर पर डाली गई सूचनाओं ने विध्वंसक भूमिका निभाई। दो साल पहले देश के कई हिस्सों में पूर्वोत्तर के निवासियों के विरुद्ध हिंसा भड़काने में और पिछले साल मुजफ्फरनगर के दंगों को हवा देने में जिस तरह असामाजिक तत्वों ने सोशल मीडिया का खुलेआम दुरुपयोग किया, वे भी इस बात का पर्याप्त प्रमाण पेश कर चुके हैं कि जिन तकनीकी सुविधाओं का विकास आम आदमी को सशक्त बनाने के लिए किया गया, उन्हें उसी आम आदमी के खिलाफ इस्तेमाल करना कितना आसान है। तकनीक के पास शक्ति तो अवश्य है, लेकिन उसके पास अपना विवेक नहीं होता। विवेक यदि है, या नहीं है तो उसके प्रयोक्ता के पास। मुजफ्फरनगर के दंगे इसलिए भड़के थे क्योंकि वहाँ पाकिस्तान में भीड़ द्वारा कुछ लोगों को मार डाले जाने के वीडियो को सोशल मीडिया के जरिए वितरित करते हुए उसे स्थानीय घटना के रूप में पेश किया गया। तकनीक का दुरुपयोग न किया जाता तो शायद छेड़छाड़ की एक छोटी सी घटना बड़े से दंगे में बदलकर दर्जनों बेकसूरों की मौतों का कारण न बनती। पिछले साल पूर्वोत्तरवासियों को जिन अफवाहों का शिकार होना पड़ा उनका भी जमीनी हकीकतों से कोई संबंध नहीं था लेकिन सोशल मीडिया पर प्रसारित होने के बाद उन्होंने एक किस्म के दावानल को जन्म दे दिया। सकारात्मक माध्यम क्यों बना नकारात्मक लेकिन सोशल मीडिया का विकास इस उद्देश्य के लिए तो नहीं हुआ था! वह तो हमारी साझा शक्ति का उद्घोष करने वाला औजार बनना था। वह तो हमारे बीच दूरियाँ खत्म करने का माध्यम बनना था। वह तो हमें विश्वग्राम का नागरिक बनाने के लिए आया था। ऐसा विश्वग्राम, जिसमें हर व्यक्ति के समान अधिकार हैं। जहाँ हर व्यक्ति का समान दर्जा है। जहाँ हर व्यक्ति के लिए सम्मान है। लेकिन हमारे सामाजिक जीवन की बुराइयों ने सोशल मीडिया को विध्वंस का हथियार बना लिया। नदी का पानी रोककर बांध बनाया जाता है ताकि उससे आसपास के खेतों में सिंचाई हो सके। लेकिन अगर कोई बाढ़ के समय आधी रात को उसी बांध की दीवारें ध्वस्त कर दे तो धरती पर सोना उपजाकर जीवनदान देने वाला वही बांध सैंकड़ों लोगों का जीवन लेने वाली विभीषिका में तब्दील हो सकता है। कटु अवश्य है, किंतु सत्य है कि सोशल मीडिया की अनियंत्रित प्रकृति उसे यदा-कदा अराजकता का माध्यम भी बना रही है। यह अराजकता दोनों तरह की है- व्यक्तिगत भी और सामूहिक भी। व्यक्तिगत अराजकता मासूम लोगों को नुकसान पहुँचाने वाले साइबर अपराधों के रूप में दिखाई देती है, जैसे साइबर बुलिंग, साइबर स्टॉकिंग, इंटरनेट ट्रॉलिंग, मानहानि, अश्लीलता, बाल-शोषण, पहचान की चोरी आदि के रूप में। सामूहिक अराजकता कभी दंगे भड़का देती है तो कभी किसी खास समुदाय के भीतर भय पैदा कर देती है। कभी वह जाने-अनजाने में आतंक की मदद कर बैठती है तो कभी किसी बेकसूर व्यक्ति को त्वरित और काल्पनिक मुकदमे में दोषी सिद्ध कर देती है। अलग-अलग स्थान पर बैठे लोगों को नियंत्रित या अनुशासित करना या उनका अ'छा आचरण सुनिश्चित करना भला कहाँ संभव और व्यावहारिक है! इसी अराजकता की वजह से दुनिया की अनेक सरकारें, व्यापारिक संस्थान और आम लोग आशंकित हैं। अपरिमित शक्ति से लैस यह माध्यम रेगिस्तान में मदमस्त भटकते ऊंट की तरह कब किस दिशा में बैठ जाए, कौन जाने!

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