Monday 7 December 2015

मीडिया ट्रायल पर नीति बनाने का सही मौका 


डॉ. अरूण जैन
समाचार माध्यमों की साख, निष्पक्षता और उपादेयता सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी है कि उन्हें अभिव्यक्ति की पूरी आज़ादी मिले। वही आज़ादी जिसे सुरक्षित बनाए रखने के लिए अनगिनत हस्तियों ने जोशीली और भावुकतापूर्ण टिप्पणियाँ की हैं। महात्मा गांधी हों या नेल्सन मंडेला, नोम चोम्स्की हों या अल्बर्ट आइंस्टीन, अभिव्यक्ति की आज़ादी का अनगिनत कोणों से छिद्रान्वेषण करते हुए भी सबने यही कहा है कि इसमें निहित चुनौतियों के बावजूद हमें हर कीमत पर इसकी रक्षा करने की ज़रूरत है। वाल्तेयर का यह वाक्य तो जैसे शिलालेखों पर उत्कीर्ण कर दिया गया है कि भले ही मैं आपके विचारों से सहमत न होऊं लेकिन अपनी बात कहने के आपके अधिकार की जीवनपर्यन्त रक्षा करूँगा। प्रिंट मीडिया हो, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया या फिर सोशल मीडिया, अभिव्यक्ति की आज़ादी सब पर लागू होती है सभी समाचार माध्यमों ने स्वाधीनता के बाद इसका पूरा उपयोग भी किया है। लगभग 21 महीने के आपातकाल को छोड़कर। एकाध बार सरकारों ने ऐसे कानून बनाने की प्रक्रिया शुरू की जो किसी न किसी परोक्ष ढंग से अभिव्यक्ति की आज़ादी को प्रभावित कर सकते थे तो मीडिया ने एकजुटता के साथ उनका विरोध किया और इस विरोध में उसे जनता का भी पूरा समर्थन मिला। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय प्रस्तावित मानहानि कानून को इस श्रेणी में गिना जा सकता है, जब मीडिया के प्रबल विरोध ने केंद्र सरकार को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया। जब इंडियन एक्सप्रेस अखबार समूह इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की सरकारों की जनविरोधी नीतियों और नाकामियों को उजागर करने में लगा हुआ था तो इस समूह को केंद्र सरकार का कोपभाजन बनना पड़ा था। उस पर मुकदमों की बाढ़ लगा दी गई, सीबीआई के छापे पड़े और प्रताडऩा के जितने भी प्रशासनिक तौर-तरीके हो सकते हैं वे अपनाए गए। लेकिन तब ज्यादातर समाचार माध्यमों ने इंडियन एक्सप्रेस का साथ दिया और सरकारी प्रताडऩा का जमकर विरोध किया। कहने का तात्पर्य यह है कि सभी समाचार माध्यमों को इस बात का अहसास है कि उनके अस्तित्व के लिए अभिव्यक्ति का अधिकार कितना महत्वपूर्ण है। लेकिन दुर्भाग्य से, समय-समय पर ऐसे अवसर सामने आ जाते हैं जब पाठक और दर्शक यह सोचने पर विवश हो जाते हैं कि क्या उन्हें इस बात की भी अनुभूति है कि इस अधिकार की एक गरिमा भी है जिसकी रक्षा का दायित्व सरकार या प्रशासनिक तंत्र पर नहीं बल्कि मीडिया पर स्वयं है? अभिव्यक्ति के अधिकार को स्वच्छंदतापूर्वक इस्तेमाल करते समय क्या मीडिया इस बात का ध्यान रखता है कि कोई भी अधिकार दुरुपयोग करने के लिए नहीं होता और कोई भी आज़ादी तभी तक सही ठहराई जा सकती है जब तक कि वह दूसरों की आज़ादी तथा अधिकारों का हनन न करे। आज बहुत से समाचार माध्यम मीडिया की पहुँच, शक्ति और अभिव्यक्ति की आज़ादी का प्रयोग अपेक्षित उत्तरदायित्व के साथ नहीं कर पा रहे हैं। किसी भी सनसनीखेज ख़बर के सामने आने पर मीडिया ट्रायल या पत्रकारीय मुकदमों का जो सिलसिला चलता है, वह इसका ज्वलंत उदाहरण है। जब स्वयंभू अदालत बन जाए मीडिया मीडिया ट्रायल से तात्पर्य है किसी घटना के तुरंत बाद समाचार माध्यमों, विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया द्वारा संबंधित व्यक्तियों को सीधे अपराधियों की तरह पेश कर दिया जाना और उन पर विभिन्न कोणों से आरोपों की बौछार करते हुए उनका अपराध सिद्ध कर देने की बेताबी दिखाना। मीडिया ऐसी हर घटना पर कुछ इस अंदाज में दहाड़ते हुए शेर की तरह टूट पड़ता है जैसे उसे इसी घटना की तलाश थी। उसके बाद वह घटना की आधी-अधूरी तफ्तीश करते हुए उस पर विभिन्न कोणों से स्टूडियो में बहस करता है और फिर परिणाम भी सुना देता है। ज़रूरी नहीं कि सभी समाचार माध्यमों की सोच एक जैसी ही हो और सबके द्वारा सुनाए गए फैसले एक जैसे ही हों। वे परस्पर विपरीत भी हो सकते हैं और परस्पर भिन्न कोणों पर आधारित भी हो सकते हैं। मीडिया अपनी तफ्तीश को पर्याप्त और गहन सिद्ध करने के लिए संबंधित लोगों के जीवन के तमाम पहलू उजागर करने में लग जाता है भले ही इन पहलुओं का घटना से कोई संबंध हो या नहीं। यह कथन अतिशयोक्ति नहीं होगा कि आज मीडिया अपने आपको जन-अदालत समझने लगा है। अभियुक्तों को घेरने वाले दर्जनों कैमरामैन, उनके परिजनों से मिलने वाले अनगिनत पत्रकार, टेलीविजन कैमरों के सामने बैठकर गंभीर से गंभीर अपराध का चुटकियों में विश्लेषण कर डालने वाले तथाकथित विशेषज्ञ शायद ही कभी इस बात पर विचार करते हों कि वे न्यायपालिका के क्षेत्र में घुसपैठ कर रहे हैं। और यह कि उनके पास किसी घटना की जाँच का न तो पर्याप्त कौशल मौजूद है और न ही इस तरह चुटकियों में निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। इस बात की तो वे शायद ही कभी चिंता करते हों कि जिन लोगों को वे अपराधी सिद्ध करने पर तुले हैं यदि वे वास्तव में अपराधी नहीं है तो उन्हें इस तरह बदनाम करने का अधिकार मीडिया को कैसे मिल जाता है? न्यायपालिका पर दबाव एक प्रश्न यह उठता है कि जिस तरह का माहौल मीडिया बनाता है उसकी वजह से क्या जाँच एजेंसियों पर जाँच को एक खास दिशा में आगे बढ़ाने का दबाव नहीं पड़ता है और क्या इंसाफ की कुर्सी पर बैठे न्यायाधीश मीडिया द्वारा देश भर में बनाए गए इतने संवेदनशील तथा पक्षपातपूर्ण माहौल के बीच स्वतंत्र, निष्पक्ष और विवेकपूर्ण ढंग से मामले पर विचार कर सकते हैं? क्या वे किसी तरह के दबाव के शिकार नहीं होते हैं? यदि कोई फैसला मीडिया के दृष्टिकोण के विरुद्ध जाता है तो वह जाँच एजेंसियों और न्यायपालिका पर भी प्रत्यक्ष या परोक्ष टिप्पणी करने से नहीं चूकता। क्या मीडिया सर्वज्ञाता है और उसे किसी भी संस्था को निशाना बनाने एवं उसके कामकाज को प्रभावित करने का अधिकार प्राप्त है? अभिव्यक्ति की आज़ादी का अर्थ तो यह नहीं है। मीडिया ट्रायल एक किस्म का सुविधाजनक एक्टिविज़्म भी है जो टेलीविजन स्टूडियो के भीतर बैठकर हालात बदलने की उसकी आकांक्षा या कहिए कि महत्वाकांक्षा को भी प्रकट करता है। हालाँकि यह महत्वाकांक्षा अनेक मौकों पर सकारात्मक और सार्थक भी सिद्ध हुई है और मीडिया एक्टिविज़्म के उस पहलू पर किसी को ऐतराज भी नहीं है। मिसाल के तौर पर जेसिका लाल हत्याकांड को देखिए। अगर मीडिया ने इस मामले में लगातार दबाव न बनाए रखा होता और गवाहों का स्टिंग ऑपरेशन करके सही तथ्यों को सामने लाने में मदद न की होती तो शायद अपराधी कभी के छूट जाते। शिवानी नामक एक पत्रकार की हत्या का मामला भी इसी श्रेणी में आता है और राजीव कटारा हत्याकांड भी, जिसमें अभियुक्त समाज के शक्तिशाली या आपराधिक छवि वाले वर्ग से आते थे और उनके लिए हालात को प्रभावित कर साफ बच निकलना असंभव नहीं था। मीडिया के दबाव में जाँच एजेंसियों को इन मामलों की जाँच को गंभीरता से लेना पड़ा। अदालतों ने भी उन पर दबाव बनाया और बेहतर तथ्य सामने आ सके। प्रियदर्शिनी मट्टू हत्याकांड में भी मीडिया की भूमिका सार्थक रही। इसी तरह, मीडिया ने सलमान खान और संजय दत्त के मामलों को भी कभी हल्के से लेने की छूट जाँच एजेंसियों को नहीं दी और बड़ी हस्तियों की तमाम असुविधाओं और अप्रसन्नता के बावजूद न्यायपालिका ने उनके साथ वही सलूक किया जैसा कि किसी आम अपराधी के साथ किया जाता। बल्कि कहा तो यह भी जाता है कि उनके साथ कुछ अधिक ही कड़ाई बरती गई जिसके भीतर एक संदेश निहित था कि यदि ऐसा लोगों के साथ कठोरता बरती जाए तो वह समाज में भी एक संदेश भेजती है।

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