Sunday 13 December 2015

मोदी विरोधी अभियान का नेता कौन- राहुल या लालू? 



डॉ. अरूण जैन
दिल्ली के बाद बिहार विधान सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की भारी पराजय से एक बात बहुत स्पष्ट हो गई है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के लिए आने वाले दिन अधिकतम कठिनाई भरे होंगे। संसद और संसद के बाहर असहिष्णुता का मुद्दा बनाकर भाजपा की लोकसभा चुनाव में अभूतपूर्व विजय के माहौल से मतदाताओं को निकालकर सारे देश में ऐसा माहौल बनाने का प्रयास होगा, जिसका सामना करने में भाजपा को अकेले जूझना पड़ेगा। लोकसभा चुनाव में जो उसके साथ रहे हैं उसमें शिवसेना ने तो बिहार चुनाव के पहले से ही ताल ठोंक रखी है और जो सहयोगी अल्पसंख्यक अर्थात् मुस्लिम मतदाताओं के विपरीत रूख से हतोत्साहित होकर साथ छोड़ सकते हैं उनमें तेलुगूदेशम पार्टी संभवत: सबसे आगे रहेगी। पंजाब में अकाली दल के लिए भाजपा का साथ छोडऩा संभव नहीं है, लेकिन जम्मू कश्मीर में पीडीपी कब तक कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस के आमंत्रण को ठुकराती रहेगी यह कह पाना कठिन है। भाजपा का बिहार में चुनाव जीत पाना संदिग्ध अवश्य था लेकिन वह दिल्ली के समान ध्वस्त होगी इसका अनुमान किसी ने नहीं लगाया। इस परिणाम के लिए भाजपा की वही रणनीति भी जिम्मेदार है जिसके कारण वह दिल्ली में हारी थी। दिल्ली में यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अरविन्द केजरीवाल की व्यक्तिगत आलोचना कर उन्हें अपने समकक्ष न खड़ा कर दिया होता तो शायद परिणाम का वैसा स्वरूप प्रगट नहीं हुआ होता जैसा हुआ है। उम्मीद यह थी कि बिहार में जिस विकास की आस जगाने के लिए भाजपा चुनाव मैदान में उतरी थी उसी पर कायम रहेगी तथा प्रधानमंत्री नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव की व्यक्तिगत आलोचना नहीं करेंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं। प्रधानमंत्री बिहार के इन दो धुरंधर राजनीतिक विरोधियों की संयुक्त शक्ति का अनुमान लगवाने में असफल रहे। बिहार में भाजपा वैसे ही अकेले दम पर विकल्प की स्थिति में कभी नहीं रही है, इसलिए वह मत प्रतिशत के आधार पर अपने लिए संतोष का दावा कर सकती है लेकिन जो नतीजा सीटों के रूप में सामने आता है समीक्षा का आधार वही बनता है। लोकसभा में पूर्ण बहुमत पाने के बावजूद उसका मत प्रतिशत चालीस तक नहीं पहुंच सका था। तो क्या यह संभव है कि आगामी आने वाले चुनावों में चाहे वह विधानसभा का हो या फिर 2019 में लोकसभा का जिस हिन्दी क्षेत्र में उसे भारी सफलता अन्य दलों के बिखराव से मिली थी, उसका संज्ञान लेकर जैसी एकजुटता बिहार में हुई है वह आगे बढ़ेगी। इसकी संभावना कम है। हिन्दीभाषी प्रदेशों में अगला आम चुनाव उत्तर प्रदेश में 2017 में होना है। उत्तर प्रदेश के दो प्रभावी दल समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी हैं। भाजपा लोकसभा चुनाव में भारी सफलता के बावजूद तीसरे स्थान और कांग्रेस चौथे स्थान पर है। यद्यपि एक बार 1993 में सपा−बसपा ने मिलकर चुनाव लड़ा था, लेकिन उसके बाद से वे एक−दूसरे का विकल्प भर बनकर रह गए हैं। कांग्रेस का अस्तित्व नाममात्र के लिए है। ऐसे में भाजपा को किसी महागठबंधन की चुनौती का सामना तो नहीं करना पड़ेगा लेकिन एक चुनौती स्थायित्व पा चुकी है। वह कारण जिसके फलस्वरूप 1990 में पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनाने के बाद से विधानसभा में प्रत्येक निर्वाचन में उसकी संख्या घटती जा रही है। जिस प्रकार सपा−बसपा सरकार रहते हुए हार के कारणों में जाने से परहेज करती हैं, शायद भाजपा भी निरंतर घटती जा रही विधायकों की संख्या के कारण का संज्ञान लेने में असफल रही है। बिहार में महागठबंधन का एजेंडा लालू प्रसाद यादव ने पटना की प्रथम जनसभा में जिसमें नीतीश कुमार और सोनिया गांधी दोनों मौजूद थे, बहुत स्पष्ट कर दिया था। चुनाव अगड़ों और पिछड़ों के बीच होगा। बिहार में पिछड़ा वर्ग वर्चस्व राजनीति का केंद्र बिन्दु रहा है। इसलिए आरक्षण नीति की समीक्षा के औचित्य की चाहे जितनी वांछनीयता हो, इस अभिव्यक्ति ने इस वर्ग में भाजपा के प्रति अनुकूलता को प्रतिकूलता में बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। लालू यादव और नीतीश कुमार ने बड़ी चालाकी से अनुसूचित वर्ग में भी इस आशंका की पैठ बढ़ाई। भाजपा सफाई देती रही लेकिन वह इस आशंका से मतदाताओं को उबार पाने में असफल रही। देशभर में जो भाजपा विरोधी हैं उन्होंने कुछ क्रियाओं पर भाजपा के छुटभैय्यों की प्रतिक्रिया को मुद्दा बनाकर जो माहौल पैदा किया उसने राष्ट्रपति को असहिष्णुता के माहौल से विचलित कर दिया। मुस्लिम मतदाता भाजपा के प्रति कभी अनुकूल नहीं रहा है। लेकिन वह जब बंट जाता है तो उसका लाभ भाजपा को मिल जाता है। लोकसभा चुनाव के समय समग्र रूप से भाजपा के खिलाफ एकजुट ना हो पाने का उसे मलाल रहा है। इसलिए गौमांस भक्षण और दादरी जैसी घटनाओं को मुद्दा बनाकर मुखरित विशिष्टता प्राप्त लोगों की अभिव्यक्ति ने उसे एकजुट होने की प्रेरणा दी। भाजपा और कुछ अन्य संगठनों के निचले पायदान के लोगों ने उस पर जो प्रतिक्रिया की वही भाजपा का एजेंडा है यह बात मुसलमानों को समझाने में महागठबंधन सफल रहा। इसीलिए जो मुस्लिम दल जोर आजमाइश के लिए उतरे थे, उनका मुलम्मा मुसलमानों पर नहीं चढ़ पाया। सजायाफ्ता लालू यादव को यादव वर्ग अपना नेता मानता है उनके राजनीतिक हाशिए पर चले जाने का उनको मलाल था, नीतीश कुमार के साथ आने पर उन्हें अपना वर्चस्व लौटाने का स्वर्णिम अवसर प्राप्त हो गया। यद्यपि भाजपा ने किसी भी राज्य विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित नहीं किया तथापि जहां पहले से मुख्यमंत्री मौजूद थे, यथा राजस्थान, मध्य प्रदेश या छत्तीसगढ़ के अलावा जहां उसे सफलता मिली। यथा गोवा, महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड वहां कांग्रेस या जिन दलों से उसे संघर्ष करना था, उनकी भी साख कांग्रेस के समान ही थी। लोकसभा चुनाव के मुकाबले मत प्रतिशत कम होने के बावजूद उसे सफलता मिली। इन सभी राज्यों में महाराष्ट्र एक ऐसा राज्य है जहां बड़े भाई की भूमिका निभा रहे शिवसेना को छोटे भाई की स्थिति असहनीय हो गई है, वह वहां कुछ विस्फोट कर दे तो आश्चर्य नहीं होगा। फिलहाल तो वह शल्य के समान मनोबल तोडऩे में लगी है। बिहार के चुनाव में भाजपा को परास्त करने की एकजुटता की स्थिति कैसी रहेगी, इस पर भावी राजनीति निर्भर रहेगी।

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