Thursday 14 April 2016

गणतंत्र के हालात पर निर्ममता से नजर डाल लेना जरूरी 

डॉ. अरूण जैन
भारतीय गणतंत्र के 66 साल पूरे करने के साथ ही देश में नवउदारवादी सुधारों के भी 25 बरस पूरे हो गए हैं। इस मौके पर गणतंत्र के हालात पर जरा निर्ममता से नजर डाल लेना जरूरी है। 26 जनवरी, 1950 को जो गणतांत्रिक संविधान स्वीकार किया गया था, उसमें प्रतिष्ठापित मार्गदर्शक सिद्धांत शासन को यह निर्देश देते हैं कि एक ऐसी समाज व्यवस्था, जिसमें राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं में सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय समाया हो सुनिश्चित करके जनता के कल्याण को आगे बढ़ाएं। शासन इसका प्रयत्न करे कि आय की असमानताओं को कम से कम किया जाए...। इस संविधान के अपनाए जाने के बाद गुजरे साढ़े छह दशकों में शासन ने इन मार्गदर्शक सिद्धांतों को त्याग ही दिया है। नवउदारवादी व्यवस्था के अपनाए जाने के बाद से तो असमानताओं को न्यूनतम किए जाने की बजाय पोसा और बढ़ाया जा रहा है। सबसे धनी एक फीसदी भारतीयों के हाथों में इस समय देश की संपदा के 53 फीसदी हिस्से का स्वामित्व है। दूसरी ओर, दुनिया के तमाम गरीबों का पांचवां हिस्सा भारत में ही रहता है। साल 2015 में देश भर में किसानों की आत्महत्याओं में चौंकाने वाली तेजी आई है। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडि़शा व अन्य राज्यों में हजारों किसानों ने आत्महत्या की है। अकेले महाराष्ट्र में 3,228 किसानों की आत्महत्याएं दर्ज हुई हैं, जो वास्तविकता को कम करके दिखाने वाला आंकड़ा है। कृषि संकट के चलते ग्रामीण गरीबों की तादाद बढ़ती ही जा रही है। भारतीय गणतंत्र जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय और संघीय व्यवस्था के हमारे बुनियादी सिद्धांतों पर खड़ा है, हालांकि इनकी अपनी अंतर्निहित सीमाएं भी हैं। उदारीकरण और निजीकरण के बाद गुजरी चौथाई सदी में इन चारों का ही अवमूल्यन हुआ है और उनकी हालत खस्ता नजर आ रही है। आज सत्तातंत्र पर जिन ताकतों का कब्जा है, वे भारतीय राज्य की जितनी भी धर्मनिरपेक्ष अंतर्वस्तु थी, उसे कमजोर करने की कोशिशों में लगी हुई हैं। जनतंत्र का मूलाधार है, धर्म, लिंग या जाति के विभाजन से ऊपर उठकर सभी नागरिकों के अधिकारों की समानता। इसे सिर्फ धर्मनिरपेक्ष राज्य ही सुनिश्चित कर सकता है। हमारे संविधान की एक खासियत यह है कि इसमें सामाजिक भेदभाव और छुआछूत जैसी बुराइयों को दूर करने के लिए सकारात्मक कदमों का प्रावधान किया गया है। यह सामाजिक न्याय की ऐसी परिकल्पना है, जो असमानतापूर्ण जाति व्यवस्था को सुधारवादी तरीके से मिटाना चाहती है। संविधान के स्वीकार किए जाने के साढ़े छह दशक बाद भी हमारे समाज में जातिवादी उत्पीडऩ के विभिन्न रूपों का बोलबाला है, और इनमें छुआछूत की बुराई भी शामिल है। कई लोग इस सिलसिले में हिंदू शास्त्रों की दुहाई देते हैं। भारतीय शासन की सबसे बड़ी विफलता, समाज के सबसे उत्पीडि़त तबके, यानी दलितों को न्याय दिलाने में उसकी विफलता है। पिछले कुछ समय में यह उत्पीडऩ और बढ़ा है। फरीदाबाद में दो दलित बच्चों का जिंदा जलाया जाना और रोहित वेमुला का दुखद अंत, जिसे हैदराबाद विश्वविद्यालय में आत्महत्या करने पर मजबूर कर दिया गया, इस जातिवादी कट्टरता के ही दो उदाहरण हैं। गणतंत्र दिवस से चंद रोज पहले ही उडुपी के पेजावर मठ में एक बहुत बड़े धार्मिक समारोह का आयोजन किया गया था। यहां पर कृष्ण मंदिर में आज भी पंक्ति भेद (ब्राह्मणों तथा अन्य जातियों को भोजन के लिए अलग-अलग पांत में बैठाने) और मडे स्नानम (ब्राह्मणों के आशीर्वाद की आशा से लोगों के उनकी झूठी पत्तलों पर लोटने) जैसे रिवाज चल रहे हैं, जो दलितों तथा निचली जातियों के साथ खुल्लमखुल्ला भेदभाव करते हैं। इस आयोजन में केंद्रीय मंत्रियों, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और कर्नाटक के पूर्व-मुख्यमंत्रियों व कई पूर्व-मंत्रियों ने भी हिस्सा लिया था। लेकिन, उनमें से किसी ने भी इस जातिवादी भेदभाव के बारे में एक शब्द तक नहीं कहा। अब तो शासन बड़े पैमाने पर सार्वजनिक जगत में धार्मिकता को संरक्षण और बढ़ावा देने में जुटा नजर आता है, जबकि देश का संविधान उसे यह जिम्मेदारी सौंपता है कि वह वैज्ञानिक सोच, मानवतावाद, जिज्ञासा व सुधार की भावना विकसित करे। लेकिन इन दिनों इसकी उलटी बातें ही हो रही हैं। सीमित ही सही, मगर हमारे संघीय संविधान में जो भी संघात्मक सिद्धांत मौजूद हैं, उनको भी लगातार कमजोर किया गया और नवउदारवादी निजाम में यह गिरावट और बढ़ गई है। संसाधनों और पूंजी के लिए बाजार ने राज्यों को आपस में होड़ कर रही सत्ताओं में बदलकर रख दिया है। शक्तियों से वंचित और साधनों की कमी के मारे राज्यों को ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया गया है, जहां वे या तो विशेष दर्जा पाने के लिए केंद्र के आगे याचक बने रहते हैं या फिर एक आईआईएम या एक आईआईटी के रूप में केंद्र की कृपा हासिल करने के लिए हाथ फैलाते रहते हैं। योजना आयोग के खात्मे और राष्ट्रीय विकास परिषद के अंत ने राज्यों को और भी ज्यादा केंद्र के रहमोकरम पर निर्भर बना दिया है। नवउदारवादी राजनीति संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था को भीतर से खोखला कर रही है। पूंजीवादी पार्टियों में धन-बल का और पूंजीपति-राजनीतिज्ञ गठजोड़ का बोलबाला है। यह इसकी गारंटी देता है कि चाहे कोई भी सत्ता में आए और चाहे सरकार बदल जाए, नीतियां ज्यों की त्यों बनी रहेंगी। इस तरह, विकल्पों का चुनाव करने में जनता को शक्तिहीन बनाया जा रहा है। भीमराव अंबेडकर ने राजनीतिक समता और सामाजिक-आर्थिक बराबरी का नाता टूटने की जो चेतावनी दी थी, वह सच हो रही है। जनतंत्र को कमजोर किया जाना विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त हो रहा है। मजदूर यूनियन और संगठन बनाने के अधिकार को, जो कि संविधान से मिला एक मौलिक अधिकार है, कतरा जा रहा है। शासन की मिलीभगत से मजदूरों को यूनियन बनाने के अधिकार से वंचित किया जा रहा है और विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) आदि के नाम पर इसे वैधता प्रदान की जा रही है। संविधान में निवारक नजरबंदी के प्रावधान का जो छिद्र है, उसका अंधाधुंध इस्तेमाल करके ऐसे दमनकारी कानून बनाए जा रहे हैं, जो निजी आजादी को सीमित करते हैं। मौजूदा निजाम तो असहमति की आवाजों और अल्पसंख्यकों के विरोध को ही राष्ट्रविरोधी करार दे देता है, इसलिए बेरोक-टोक राजद्रोह के कानून का सहारा लिया जा रहा है। नवउदारवाद और राज्य-प्रायोजित सांप्रदायिकता का योग तानाशाही का रास्ता तैयार कर रहा है। गणतंत्र को सांविधानिक तानाशाही बनाकर रख दिए जाने का खतरा पैदा हो रहा है।

No comments:

Post a Comment