Thursday 14 April 2016

सियाचीन मुद्दे पर सहमति बनाएँ भारत और पाकिस्तान 


डॉ. अरूण जैन
सियाचीन में पिछले दिनों कुछ और भारतीय सैनिकों की मौत हुई है। यह अनावश्यक मौत भारत और पाकिस्तान, दोनों का ध्यान 23,000 फीट की ऊंचाई पर, जहां का तापमान माइनस 41 डिग्री है, सेना तैनात करने की निरर्थकता की ओर खींचता है। दोनों को आपसी बातचीत के जरिए घृणित घटनाओं का समाधान खोजना चाहिए। इसके बजाए, नई दिल्ली ने इसे सैनिकों की शहादत मान लिया है और राजकीय सम्मान के साथ उनकी अंत्येष्टि कर अपना काम पूरा समझ लिया। एक दशक से पहले, हिमस्खलन में पाकिस्तान के 180 सैनिकों की मौत हो गई थी, उस वक्त दोनों देश मसले पर विस्तार से बात कर किसी सहमति पर पहुंच सकते थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इसकी पहल की थी। लेकिन, वे समझौते पर हस्ताक्षर नहीं कर सके क्योंकि हमारी सेना ने सामरिक रूप से ग्लेशियर के बहुत अहम होने का सवाल उठा दिया था। यह महज हौआ था। मैंने सेना के अवकाश प्राप्त उच्च अधिकारियों से बात की थी। उन सबों ने सामरिक महत्व की बात को खारिज कर दिया था। सेना के जवान अभी भी ऊंचाई पर तैनात हैं। जनरल परवेज मुशर्रफ ने इसका फायदा उठाया था। भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जिस वक्त बस में सवार होकर लाहौर पहुंचे थे, उस वक्त जनरल मुशर्रफ ने ही सेना और जनजातीय लोगों को ग्लेशियर पर तैनात कर रखा था। मुशर्रफ उस वक्त सेना प्रमुख थे। वे भारत के साथ शांति नहीं चाहते थे। जुल्फीकार अली भुट्टो की तरह उन्होंने भी सोचा था कि भारत को पाकिस्तान पराजित कर सकता है। उन्होंने अपनी इस भूल को महसूस किया और सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया कि वे ऐसा फिर दुबारा कभी नहीं करेंगे क्योंकि उन्हें इतिहास से सबक मिल गई है। कारगिल युद्ध की शुरुआत में भारत को काफी नुकसान हुआ लेकिन अपनी उत्कृष्ट सैन्य क्षमता के कारण अंतत: भारत भारी पड़ा। उस वक्त से अब तक स्थिति सामान्य नहीं है। दोनों देशों के बीच दूरी बनाए रखने के लिए आये दिन कोई न कोई घटना घटती रहती है। संभव है, कुछ ऐसी ताकतें हैं, जो दोनों देशों के बीच शांति नहीं बनना देना चाहतीं। पठानकोट की घटना ताजा उदाहरण है। दोनों देशों के विदेश सचिवों की होने वाली बैठक के कुछ दिन पहले यह घटना घटित हुई। नई दिल्ली और इस्लामाबाद, दोनों ही अब इतना परिपक्व हो चुके हैं कि वे वार्ता भंग नहीं करते। वार्ता का नया कार्यक्रम तय किया गया। फिर भी, सच्चाई यह है कि दोनों देशों के बीच अब तक वार्ता शुरू नहीं हुई है और ना ही जल्दी में इसके फिर से शुरू होने की उम्मीद है। हकीकत में, सियाचीन ग्लेशियर अपने आप में विवाद का विषय है। यह उन कारणों में एक है जिसके कारण दोनों देशों के बीच के रिश्ते में खटास बनी हुई है। दुर्भाग्यवश, इस समस्या ने राजनीतिक रंग ले लिया है। सबसे बेहतर समाधन यह है कि ग्लेशियर को स्वामीहीन भूमि, नो मैन्स लैंड, घोषित कर दिया जाए। शिमला शिखर वार्ता में नियंत्रण रेखा को चित्रित किया गया था। यह अब अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा है। शिखर वार्ता में इस सीमा रेखा को ग्लेशियर तक नहीं बढ़ाया जा सकता था, क्योंकि ऐसा करना अव्यावहारिक पाया गया था। इस मसले को छोड़ दिया गया था। अब दोष मढऩे का कोई मतलब नहीं। उस समय से रिश्ते में जो कड़वाहट बढ़ती गई है, उससे दोनों देशों को उबरना होगा। दोनों देश अब भी शिमला शिखर वार्ता में छोड़े गए रिश्ते की डोर को आगे बढ़ाने का काम कर सकते हैं। अगर ग्लेशियर स्वामीहीन भूमि, नो मैन्स लैंड बन जाता है तो दोनों देशों को शिमला समझौते को सही अर्थों में अक्षरश: लागू करना होगा। पिछली बार जब सहमति बनी थी तब पाकिस्तान का रुख बिल्कुल साफ नहीं था। वह कुछ और सोच रहा था, क्योंकि उसने जर्मनी से बड़ी संख्या में स्नो शू मंगाने का आदेश दिया था। भारतीय खुफिया एजेंसियों ने स्नो शू मंगाये जाने की जानकारी जब नई दिल्ली को दी तो भारत ने ग्लेशियर पर अपने सैनिकों को तैनात कर दिया। पाकिस्तान ने जब ग्लेशियर पर कब्जे के लिए अपनी सेना को भेजा तो वहां भारतीय सैनिकों की मौजूदगी देख वह चकित रह गया। दगाबाजी के भय ने शांति को रोक दिया। फिर भी, एक दूसरे में विश्वास करने के सिवा कोई और विकल्प नहीं है। भारत और पाकिस्तान के बीच शायद ही कभी आपसी समझ रही। आंशिक रूप से ऐसी स्थिति इस कारण रही कि दोनों देश विभाजन की गांठ ढोते रहे हैं और फिर इस कारण कि दोनों का एक दूसरे में भरोसा नहीं रहा है। सबसे बढ़कर, भारत में आम धरणा है कि चूंकि पाकिस्तान के मामले में सेना निर्णायक स्थिति में है, इसलिए पाकिस्तान में फिर से जब तक लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं हो जाती तब तक किसी सार्थक रिश्ते को प्रोत्साहित करना संभव नहीं है। हकीकत में, 1958 में जनरल मोहम्मद अयूब खां द्वारा पाकिस्तान की सत्ता संभालने के वक्त से ही भारत ने मान रखा है कि दोनों देशों के बीच स्थिति सामान्य बनाना संभव नहीं है। जनरल अयूब ने साझा रक्षा समझौते की पेशकश भी की थी। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने यह कहते हुए इसे खारिज कर दिया था: किसके खिलाफ साझा रक्षा? सत्तर के दशक और बाद के दिनों के दो अन्य सैन्य शासन के नेताओं− जनरल जिया उल हक एवं जनरल परवेज मुशर्रफ को कभी गंभीरता से नहीं लिया गया, क्योंकि नई दिल्ली मानती रही कि सैन्य दृष्टि से कही गई उनकी बातें शांति की पहल को कभी कामयाब नहीं होने देगी। हालांकि, परवेज कयानी जिस वक्त सेना प्रमुख थे, उन्होंने दोनों देशों के बीच शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की वकालत कर भारत की सोच को विचलित किया था। लेकिन मसलों को सुलझाने का रास्ता तलाशने के लिए सिविल एवं सैन्य नेतृत्व के बीच बातचीत का उनका सुझाव पेचीदा था। उन्हें यह जानना चाहिए था कि भारत में निर्णय लेने का अधिकार निर्वाचित जन प्रतिनिधियों के हाथों में है और निर्णय लेने की प्रक्रिया में सेना की कोई हिस्सेदारी नहीं है। जनरल कयानी का प्रस्ताव सियाचीन ग्लेशियर तक ही सीमित नहीं था। उन्होंने आगे की कार्रवाई का भी संकेत दिया था और इस तरह इस धारणा को गलत करार दिया था कि भारत और पाकिस्तान के बीच शांति का मसला सेना की युद्धकारी सोच का बंधक है। उन्होंने अवसरों की खिड़की खोली थी जिसे दोनों देशों की सरकारों को रिश्ते को सामान्य बनाने के लिए दोनों हाथों से स्वीकार करना चाहिए था। मुझे लगता है कयानी की सुझावों पर पिछले दरवाजे की शक्तियों ने काम किया। हालांकि, नई दिल्ली ने उनके सुझावों पर कोई आधिकारिक बयान नहीं दिया था, लेकिन मीडिया ने सतर्कता भरी प्रतिक्रिया के साथ उनके सुझावों का स्वागत किया था। उस वक्त सवाल था कि जब तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ द्वारा दोनों देशों की सेना हटाए जाने के सुझाव को पाकिस्तान ने अस्वीकार कर दिया था तो क्या भारत सियाचीन ग्लेशियर से अपनी सेना को हटाएगा। इतिहास ने फिर स्थिति पैदा की है, क्योंकि नवाज शरीफ ही प्रधानमंत्री हैं। उन्हें पहल करनी चाहिए, विशेषकर उस हालत में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने काबुल से लौटते वक्त पाकिस्तान जाने की उदारता दिखायी है। राजीव गांधी की पहल पर हुए समझौते को लागू करने के लिए दोनों या तो इस्लामाबाद या नई दिल्ली में वार्ता कर सकते हैं। उन्हें यह बात समझनी चाहिए कि भारत और पाकिस्तान के बीच स्थिति सामान्य बने बगैर क्षेत्र का विकास नहीं हो सकता। दुनिया के गरीबों की सबसे बड़ी संख्या इस हिस्से में है और इन्हें इस असहाय स्थिति से बाहर लाने के लिए दोनों नेताओं को टकराव का रास्ता छोडऩा होगा।

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