Tuesday 12 May 2015

बदलेगा पैमाना, बढ़ेगी गरीबों की तादाद


डॉ. अरूण जैन
भारत में गरीबों की संख्या कितनी है? कांग्रेस की अगुवाई वाली यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस की सरकार के दौरान बताया गया था कि देश की लगभग 1.2 अरब आबादी के करीब 30 पर्सेंट यानी 36.30 करोड़ लोग गरीब हैं। इस आंकड़े में अब बड़ी बढ़ोतरी हो सकती है। दरअसल गरीबी का लेवल तय करने के लिए प्रति व्यक्ति दैनिक खर्च का जो विवादित पैमाना बनाया गया है, उसे नीति आयोग घटा सकता है। ऐसा करने से आबादी में गरीबों का हिस्सा 40 पर्सेंट तक जा सकता है। दो सीनियर गवर्नमेंट ऑफिशल्स ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि इससे देश में गरीबों की संख्या लगभग 48.40 करोड़ तक पहुंच सकती है। गरीबी के आंकड़े का राजनीतिक महत्व रहा है। ऐनालिस्ट्स ने कहा कि अगर कोई सरकार अपनी गरीब समर्थक इमेज चमकाना चाहती हो और वह पूंजीपतियों से सांठगांठ के आरोपों का सामना कर रही हो, तो गरीबों की ज्यादा संख्या दिखाने की कवायद से उसे फायदा हो सकता है। नीति आयोग के वाइस चेयरमैन अरविंद पनगढिय़ा की अध्यक्षता वाला 14 सदस्यीय कार्यबल 40 पर्सेंट के लेवल पर काम कर रहा है। यह सब नैशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) के 2011 के आंकड़ों पर आधारित है। उम्मीद है कि यह कार्यबल जून में पीएम नरेंद्र मोदी को अपनी रिपोर्ट सौंपेगा। पिछले महीने इस कार्यबल की एक बैठक हुई थी। इसमें शामिल रहे एक सरकारी अधिकारी ने बताया, 'कार्यबल कई कदमों पर विचार कर रहा है, लेकिन आबादी में गरीबों की संख्या को हकीकत के ज्यादा करीब दिखाने की बात पर लगभग एकराय बन गई है। मीटिंग में मौजूद रहे दूसरे अधिकारी ने कहा कि सरकार तो इस आकलन का इस्तेमाल विश्लेषण के कार्यों में करना चाहती है क्योंकि एनएसएसओ के आंकड़े हर पांच साल पर रिवाइज किए जाते हैं। इससे सरकार को यह पता लगाने में भी मदद मिलेगी कि सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं का फायदा गरीबों को मिल पा रहा है या नहीं। साथ ही, दैनिक प्रति व्यक्ति खर्च के आधार पर गरीबी की रेखा तय करने से जो विवाद हुआ था, वैसी स्थिति से भी सरकार बच जाएगी। गरीबी रेखा का महत्व यह भी है कि सोशल सेक्टर की कई योजनाएं इस रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वालों के लिए होती हैं। अगर गरीबी रेखा को बहुत नीचे तय कर दिया जाए तो कई ऐसे लोगों को इन योजनाओं का फायदा नहीं मिलेगा, जो उसके वाजिब हकदार हो सकते होंगे। अगर इस रेखा को काफी उठा दिया जाए तो इसमें ऐसे लोगों की संख्या बढ़ सकती है, जिन्हें इन योजनाओं की जरूरत नहीं होगी। इस तरह लागत भी बढ़ेगी। सुरेश तेंदुलकर कमेटी ने ग्रामीण इलाकों में 27 रुपये प्रति व्यक्ति दैनिक खर्च और शहरी क्षेत्रों में 33 रुपये प्रति व्यक्ति दैनिक खर्च की लिमिट से नीचे गुजर-बसर करने वालों को गरीब मानने की बात की थी। कमेटी ने 2011-12 में यह बात कही थी। इस तरह आबादी का 22 पर्सेंट हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे आया। इस पर विवाद हो गया था। आलोचकों ने कहा था कि ये आंकड़े हकीकत से परे हैं। इसकी समीक्षा के लिए सी रंगराजन कमेटी बनाई गई। रंगराजन कमिटी ने ग्रामीण इलाकों के लिए लिमिट बढ़ाकर 32 रुपये और शहरी क्षेत्रों के लिए 47 रुपये की थी। इस तरह गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वालों का आबादी में हिस्सा 30 पर्सेंट हुआ था। 2014 की इस रिपोर्ट से भी आलोचक शांत नहीं हुए। नरेंद्र मोदी सरकार ने भी इसे स्वीकार नहीं किया और देश में गरीबी का आकलन करने के लिए उसने एक और कमिटी बनाई थी।

Monday 4 May 2015

तो क्या इतिहास दोहराएगी कांग्रेस?

डॉ. अरूण जैन

इतिहास पलटेंगे तो पाएंगे, कांग्रेस का इतिहास अपनी राख से फिर जन्म लेने का रहा है, बिल्कुल फीनिक्स पक्षी की तरह। तो क्या एक बार फिर इतिहास दोहरा पाएगी कांग्रेस? यह आज की तारीख में बड़ा सवाल है क्योंकि 2014 में जैसी दुर्गति कांग्रेस की हुई, पहले कभी नहीं हुई। फिर पहले की तरह इंदिरा गांधी जैसी नेता भी कांग्रेस में नहीं। हालांकि दो महीने की छुट्टी से लौटे कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने किसानों पर दोहरे हमले (बेमौसम बरसात और भूमि अधिग्रहण विधेयक) को लेकर मोदी सरकार पर संसद के बाहर और संसद के अंदर जिस तरह का आक्रामक रूख अपनाया है, उससे अभी देश तो नहीं, लेकिन कांग्रेस पार्टी को जरूर लग रहा है कि कांग्रेस जल्द वापस लौटेगी। इतिहास पलटें तो 1977 हो या 2014 स्थितियां एक जैसी लग रही हैं। तब 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी। लेकिन जनता की बढ़ती नाराजगी के बाद 1977 में उन्होंने लोकसभा चुनाव कराने का फैसला लिया। इस दौरान विपक्ष मजबूत हो चुका था। जब नतीजे आए तो कांग्रेस को 153 सीटें मिलीं। 197 सीटों का नुकसान हुआ। कहा जाने लगा कि कांग्रेस खत्म हो जाएगी। अब 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस 10 साल सत्ता में थी। लेकिन मोदी लहर के आगे कांग्रेस बुरी तरह सिमट गई। अब तक के इतिहास में उसे सबसे कम 44 सीटें मिलीं। अब कांग्रेस के सामने अस्तित्व बचाने की चुनौती है। वैसी ही चुनौतियां जैसी इंदिरा गांधी के समक्ष 1977 में थी। इंदिरा गांधी 1977 के चुनाव के बाद पार्टी के प्रति जनता की खराब हुई धारणा को बदलना चाहती थीं। पार्टी के कई नेता असंतुष्ट थे। इंदिरा गांधी को बगावत रोकनी थी। संजय गांधी का प्रभाव नियंत्रित कर पार्टी पर पकड़ फिर से मजबूत करनी थी। बहुत कुछ वैसी ही परिस्थितियां 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद सोनिया गांधी के सामने हैं। उन्हें जनता की यह धारणा बदलनी है कि पार्टी कमजोर हो चुकी है। पार्टी में खेमेबाजी को खत्म कर पार्टी पर पकड़ फिर से मजबूत बनानी है। अगर आपको याद हो तो 22 मार्च 1977 को चुनाव में हार को स्वीकार करते हुए इंदिरा गांधी ने कहा था- मैं और मेरे साथी पूरी विनम्रता से हार स्वीकार करते हैं। कभी मुझे लगता था कि नेतृत्व यानी ताकत है। आज मुझे लगता है कि जनता को साथ लेकर चलना ही नेतृत्व कहलाता है। हम वापसी करेंगे। और वाकई इंदिरा ने बड़ी ताकत के साथ वापसी की। तो क्या सोनिया गांधी भी इंदिरा के मार्ग को अपनाते हुए आगे बढ़ेंगी? इस सवाल का जवाब अभी भविष्य के गर्भ में है। सोनिया की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वह स्वयं इंदिरा नहीं बन सकतीं। राहुल के भरोसे सोनिया को कांग्रेस की राजनीति को आगे बढ़ानी है। और इस काम को बखूबी अंजाम देने में वह प्रयत्नशील भी हैं। 1977 में कांग्रेस की चुनावी हार के बाद इंदिरा गांधी ने किसानों के बीच जाकर सक्रियता बढ़ाई थी। हाल ही में राहुल के छुट्टी पर जाने के बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी वैसी ही सक्रियता दिखाते हुए राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और मध्यप्रदेश में किसानों से मिलीं। इससे पहले भूमि अधिग्रहण विधेयक के विरोध में संसद से राष्ट्रपति भवन तक विपक्षी दलों के मार्च का नेतृत्व भी किया। अब राहुल के समक्ष बड़े मुद्दों पर सक्रियता दिखाने की चुनौती है जिसका आगाज रविवार की किसान रैली और सोमवार को लोकसभा में किसानों के मुद्दे पर बयान देकर कर चुके हैं। राहुल को कांग्रेस संगठन में अपनी भूमिका स्पष्ट करनी होगी। अभी हाल ही में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और सांसद कमल नाथ ने कहा था, 'कांग्रेस राहुल और सोनिया के बीच झूल रही है। इन स्थितियों से कांग्रेस को बचाने की जिम्मेदारी अब राहुल के कंधों पर है। आगे बढ़कर राहुल को पार्टी की कमान अपने हाथों में लेनी होगी ताकि फैसले केंद्रीकृत हो सकें। इससे कांग्रेस जिस तरह से अपने ही नेताओं के बीच तालमेल न होने के संकट से जूझ रही है, उससे निपटा जा सके। एक तरफ संदीप दीक्षित कह रहे हैं कि सोनिया गांधी को ही पार्टी का अध्यक्ष बने रहना चाहिए तो मिलिंद देवड़ा कह रहे हैं कि राहुल को नेतृत्व की कमान सौंपने का समय आ गया है। राहुल गांधी अगर पार्टी संगठन में सक्रिय हो जाते हैं तो उनके सामने पहली परीक्षा बिहार के विधानसभा चुनाव की होगी। राज्य में अक्टूबर में चुनाव होने हैं। कभी जनता परिवार का हिस्सा रहे लालू और नीतीश बिहार में आज एक साथ हैं। भाजपा-लोजपा के बीच गठबंधन है। बिहार के बाद अगले साल पश्चिम बंगाल में चुनाव हैं। 2017 में उत्तर प्रदेश में चुनाव होने हैं जहां से 2012 में राहुल गांधी ने चुनावी प्रबंधन की शुरुआत की थी। राहुल गांधी के सियासी करियर की बात करें तो 2004 में वह पहली बार सांसद बने थे। जनवरी 2013 में उन्हें पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया गया। लेकिन वे 2012 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के समय से पार्टी में सक्रिय हैं। तब से लेकर अब तक देशभर में लोकसभा चुनाव सहित 20 चुनाव हुए। 6 राज्यों में कांग्रेस अपनी सीटें बढ़ाने में कामयाब रही। लेकिन उसे 5 चुनावों में ही जीत मिली। लोकसभा चुनाव सहित 15 राज्यों में पार्टी हारी है। यह बात सही है कि एक दशक के मनमोहन के शासनकाल में राहुल की हैसियत पार्टी में सिर्फ सांसद भर की रही, लेकिन ये राहुल की अपनी कमजोरी थी। दस साल का समय राजनीति में अपनी हैसियत बनाने के लिए कम समय नहीं होता वो भी तब जब पार्टी की कमान उनकी मां सोनिया गांधी के हाथों में हो। बहरहाल, उक्त तमाम चुनौतियों को स्वीकार कर राहुल गांधी किस तरह से कांग्रेस की राजनीतिक नाव को पार लगाते हैं इस पर देश की नजर है। निश्चित रूप से सड़क से संसद तक राहुल का नया अवतार जिस तरह से सामने आया है उससे इतना तय है कि कांग्रेस आगे बढ़ेगी क्यों कि और पीछे जाने के लिए कांग्रेस के पास कुछ भी नहीं बचा है। जो स्थिति कांग्रेस की 2014 के लोकसभा चुनाव और 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में हुई इससे खराब प्रदर्शन और क्या होगा। इसलिए अब कांग्रेस के लिए आगे बढऩे का वक्त है। मोदी सरकार ने बैठे-बिठाए भूमि अधिग्रहण विधेयक का मुद्दा भी दे दिया है। 67 प्रतिशत किसानों के मुद्दे को लेकर कांग्रेस एक बार फिर इतिहास दोहरा सकती है।

जनता परिवार किस पर भारी- कांग्रेस या भाजपा


डॉ. अरूण जैन

बीस वर्ष बाद एकता की राह पर चल पड़ा जनता परिवार क्या अंतिम पड़ाव तक पहुंच पायेगा ? यदि पहुंच गया तो वह अपने घोषित उद्देश्य भाजपा रोको में सफल होगा या फिर अस्ताचल की ओर जा रही कांग्रेस को और भी कमजोर करेगा? यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं जो जनता परिवार की एकता की चर्चा के साथ उठ खड़े हुए हैं। कांग्रेस देशव्यापी वैकल्पिक भूमिका खोती जा रही है। राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी का भले ही वर्चस्व स्थापित हो गया हो, लेकिन बंगाल, ओडिशा, तामिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और पंजाब में अभी भी क्षेत्रीय पार्टियों का बोलबाला है। इसमें महाराष्ट्र और कश्मीर को आंशिक रूप से शामिल किया जा सकता है। आम तौर पर क्षेत्रीय पार्टियों की सरकारें चाहे केंद्र में साझीदार हो या नहीं केंद्रीय सरकार से तालमेल करके ही चलती रही हैं, चुनाव के अवसर को छोड़कर। जो पार्टियां जनता परिवार में शामिल होने का संकल्प वयक्त कर चुकी हैं उनका एकीकृत स्वरूप विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्रित्वकाल में उस समय उभरा जब जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर और लोकदल के अध्यक्ष अजीत सिंह ने मिलकर एक पार्टी बनाने का संकल्प किया। जनता दल बना और अजीत सिंह उसके अध्यक्ष बने जिन्हें मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश विधायक दल के नेता पद के चुनाव में मात देकर मुख्यमंत्री का दायित्व संभाला। चंद्रशेखर सांसद भर रह गये और अजीत सिंह विश्वनाथ प्रताप सिंह के नजदीक खिसक गए। बिहार जिसकी राजनीतिक स्थिति परिवार की एकता की अपरिहार्यता बन गई है, ने अलग होकर लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनता दल बना लिया, जो आज भी अस्तित्व में है। नीतीश कुमार उनके सिपहसालार थे बाद में आरजेडी का भी विभाजन हो गया। जार्ज फर्नांडीस के नेतृत्व में समता पार्टी बनी और नीतीश कुमार उनके सिपहसालार बन गए। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव का वर्चस्व था उन्होंने समाजवादी नाम को पुन: जीवित किया। अजीत सिंह ने अपने पिता चौधरी चरण सिंह द्वारा स्थापित लोकदल नाम का सहारा लिया तो हरियाणा में चौधरी देवीलाल ने इंडियन नेशनल लोकदल बना लिया। कर्नाटक में देवगौड़ा ने जनता सेक्युलर का सहारा लिया जो बचा खुचा रहा वह जनता दल यूनाइटेड कहलाया जिसके शरद यादव आजकल अध्यक्ष हैं। इनमें से किसी भी क्षत्रप ने पिछले बीस वर्षों में अपने प्रभाव क्षेत्र में परिवार के किसी अन्य घटक को पैर रखने के लिए जमीन नहीं दी। विशेषकर उत्तर प्रदेश और बिहार जहां बिखरे परिवार का सर्वाधिक राजनीतिक वर्चस्व रहा है और आज भी है। इस दौरान कांग्रेस या भाजपा से जूझने के बजाय परिवार के लोग आपस में ही सिर फुटौव्वल करते हुए कभी भाजपा का साथ देते रहे और कभी कांग्रेस का। इस जनता परिवार के एक सदस्य रामविलास पासवान हवा का रूख पहचानने में सबसे प्रवीण निकले यही कारण है कि वे निरंतर केंद्रीय मंत्रिमंडल में बने हुए हैं। जो जनता दल के अध्यक्ष थे अजीत सिंह, उनको पूरी तरह से अस्पृश्य मान लिया गया है। लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत मिलने के बाद जिन राज्यों में विधान सभा के चुनाव हुए वहां भी उन्हें भारी सफलता मिली है। उप चुनावों में अवश्य ही उसकी पराजय हुई क्योंकि गैर भाजपाई दलों ने मिल बांटकर वह चुनाव लड़ा था। शायद उप चुनाव की सफलता ने ही इन दलों को एकजुट होने के लिए प्रेरित किया है जिसका स्वरूप अभी प्रगट होना बाकी है। यह ठीक है कि सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की सत्ता हाथ में होने के कारण मुलायम सिंह यादव को सभी ने नेता मान लिया है और अन्य राज्य में जहां परिवार का कुछ अस्तित्व है, वहां स्वयंभू नेता भी हैं यथा कर्नाटका में देवगौड़ा और हरियाणा में ओमप्रकाश चौटाला, लेकिन जहां दो बराबरी के और अतीत में कुलषित विग्रही लालू यादव और नीतीश कुमार के बीच सामंजस्य होना है, जहां से भाजपा को रोकने का अभियान इसी वर्ष नवम्बर में होने वाले विधान सभा चुनाव से होना है− क्या दोनों सामंजस्य बैठा पायेंगे? लालू यादव चुनाव लडऩे से वंचित हैं लेकिन उनकी महत्वाकांक्षा में कोई कमी नहीं आई है। नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं और बने रहना चाहेंगे। इसलिए सीटों के बंटवारे में विधान सभा में संख्या बल या लोकसभा में मिले मत किसको आधार बनाकर कर टिकट का बंटवारा होगा? नीतीश कुमार ने जिस प्रकार जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया और हटाकर स्वयं बन बैठे उससे उनकी महत्वाकांक्षा का अनुमान लगाया जा सकता है। शायद इसी कारण पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सौहार्द बढ़ाने को जनता दल में संशय की दृष्टि से देखा जा रहा है क्योंकि जिन्होंने मोदी के कारण राजग छोड़ा था, वही नीतीश अब राजनीति में कोई स्थायी बैरी नहीं होता ऐसा कहने लगे हैं। यह मोदी के संदर्भ में है या लालू यादव के इस पर कयास लगाया जा सकता है। नीतीश कुमार मूलत: तो लालू यादव के ही अनुयायी रहे हैं लेकिन उनसे अलग होकर भाजपा से मिलकर लालू यादव के जंगलराज से बिहार को मुक्ति दिलाने के जिस दावे के साथ उन्हें सफलता मिली थी उसके विपरीत उन्हीं लालू यादव की रहनुमाई स्वीकार कर वे अब जंगलराज के बारे में क्या सफाई देंगे। एक बात और स्पष्ट दिखाई देने लगी है वह यह कि पूर्व की ही भांति इन दलों के विलय के बावजूद इनका अस्तित्व बना रहेगा। जीतन राम मांझी अकेले दावेदार नहीं हैं। समाजवादी पार्टी को भी बनाए रखने वाले दावेदार कुनमुना रहे हैं। पप्पू यादव ने तो आरजेडी को कायम रखने की घोषणा ही कर दी है। भाजपा की सफलता से भयभीत होकर एकजुट होने का संकल्प करने वाले इन दलों में बड़े नेता भले ही अपने अस्तित्व के लिए एका कर ले लेकिन स्थानीय स्तर पर उनमें जो संघर्ष है वह तो एकीकृत दल का वही हाल करेगा जो जनता पार्टी या जनता दल का हो चुका है। आज के न्यूक्लीयर परिवार के चलन में संयुक्त परिवार का अस्तित्व यदि आया भी तो कब तक सुरक्षित रहेगा। अब इस कुनबा जोडऩे के उद्देश्य के बारे में। घोषित उद्देश्य है, भाजपा को रोकना। कांग्रेस ने दावा किया है कि उसे इस परिवार से कोई खतरा नहीं है। यही नहीं तो कुछ कांग्रेसी नेता परिवार के साथ चुनावी तालमेल की भी चर्चा करने लगे हैं। लेकिन क्या संभव है और यदि संभव भी हो जाये तो विधान सभा का चुनाव परिणाम वैसा ही होगा जैसा उप चुनावों का हुआ था? नरेंद्र मोदी ने अपने तूफानी चुनाव अभियान से अवाम में विकास की जिस आकांक्षा को अंकुरित किया है उसका आकार बढ़ता जा रहा है। इसका अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मोदी की दस महीने की ही सरकार से बहुत सारी अपेक्षाओं की पूर्ति की अकुलाहट प्रगट होने लगी है। बिहार ने लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार का शासन देखा है उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के शासन से ऊबकर मतदाता मायावती को सत्ता में बैठाता रहा और मायावती से ऊबकर मुलायम सिंह को। उसके सामने तीसरा विकल्प नहीं था। लोकसभा चुनाव ने भाजपा को इनके विकल्प के रूप में उभरने का अवसर दिया है। यह ठीक है कि जिस अनुपात में भाजपा को लोकसभा चुनाव में मत मिले थे, उसी अनपात में विधानसभा में मिलना संभव नहीं है। लेकिन यह धारणा अभी भी बनी है कि नरेंद्र मोदी ही देश का विकास कर सकते हैं। विदेशों में उन्हें मिले अभूतपूर्व सम्मान से भी भारत का मान और मोदी की साख बढ़ी है।