Friday 28 August 2015

हाशिये पर जाती कांग्रेस

डॉ. अरूण जैन
दुनिया भर में आर्थिक उथल-पुथल का दौर चल रहा है। विकासशील ही नहीं विकसित देशों की भी नजर भारत की ओर है। दुनिया की अर्थव्यवस्था में एक बार फिर मंदी के दौर की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। यह संकट भारत के लिए अवसर की तरह उपस्थित है। रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन कह रहे हैं कि वैश्विक पूंजी और पश्चिमी देशों से संपत्ति भारत का रुख कर सकती है, लेकिन सवाल है कि क्या यह आवाज देश के राजनीतिक दलों तक पहुंच रही है। हमारी संसद देश को आगे ले जाने की बजाय पीछे खींचने का मंच बन गई है। क्या राजनीतिक दल देश हित में एक बार यथास्थितिवादी राजनीति को छोडऩे के लिए तैयार होंगे?समय की जरूरत है कि दुनिया को एक संदेश दिया जाए कि भारत इस आर्थिक संकट को चुनौती मानकर इसे अवसर में बदलने के लिए तैयार है। इसके लिए जरूरी है कि संसद वह काम करे जिसके लिए वह बनी है। ऐसा हो इसके लिए जरूरी है कि राजनीतिक दल अपने मतभेद भूलकर देश हित में साथ खड़े हों। सरकार की ओर से संसद का विशेष सत्र (तकनीकी रूप से मानसून सत्र का दूसरा हिस्सा) बुलाने का प्रयास हो रहा है। राजनीतिक दलों और खासतौर से कांग्रेस के लिए अपना रास्ता बदलने का मौका है। साथ ही वह दावा भी कर सकती है कि वह देशहित में ऐसा कर रही है क्योंकि मानसून सत्र में उसने जो किया उसका उसे वांछित राजनीतिक फल मिलता हुआ नहीं दिख रहा है। संसद का मानसून सत्र शुरू होने के बाद से अब तक तीन राज्यों में स्थानीय निकाय के चुनाव हुए हैं। तीनों में कांग्रेस बुरी तरह हारी है। व्यापम घोटाले और ललितगेट पर कांग्रेस या तो अपनी बात मतदाताओं तक पहुंचा नहीं सकी या फिर मतदाताओं को कांग्रेस की बातें विश्वसनीय नहीं लगीं। कर्नाटक के बेंगलूर वृहत महानगर पालिका चुनाव में तो तीस साल में पहली बार ऐसा हुआ है कि राज्य में सत्तारूढ़ दल को हार का मुंह देखना पड़ा हो। बेंगलूर में भाजपा दस साल की ऐंटी इनकंबेंसी के बावजूद जीत गई। व्यापम घोटाले, ललितगेट के बावजूद भारतीय जनता पार्टी की जीत को भले ही इस अर्थ में न देखें कि उसके सारे दाग धुल गए, लेकिन एक बात तो निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि भाजपा बुरी हो तब भी मतदाता कांग्रेस को उसके विकल्प के रूप में नहीं देख रहा है और बेंगलूर में तो उसने तीसरे दल एचडी देवेगौड़ा के जनता दल (एस) को भी नकार दिया। इन चुनावों में मतदाता का संदेश साफ है। वह भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को और समय देना चाहती है। अभी वह किसी विकल्प के बारे में सोच भी नहीं रही है क्योंकि मतदाता जब विकल्प के बारे में सोचना शुरू कर देता है तो वह खंडित जनादेश के रूप में परिलक्षित होने लगता है। इसीलिए कहा गया है कि ये पब्लिक है, सब जानती है। लेकिन कांग्रेस यह साधारण सी बात नहीं समझ रही है। कांग्रेस इस समय चुनावी राजनीति के आइसीयू में है। यह दौर उसके लिए प्राणघातक भी हो सकता है। इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि वह स्वस्थ होकर निकले। लेकिन इस संभावना को हकीकत में बदलने के लिए जो तैयारी और इच्छाशक्ति होनी चाहिए वह वर्तमान नेतृत्व में नजर नहीं आ रही। कांग्रेस पर संकट पहले भी आए हैं। वह उनसे उबरी भी है। हर बार झटका खाकर वह नए कारणों से उबरी। कभी गरीबी हटाओ के नारे और वंचित वर्गों की चिंता के नाम पर तो कभी अपने शीर्ष नेता की शहादत के नाम पर। 2004 में वह अपनी ताकत की बजाय भाजपा की कमजोरी के कारण सत्ता में आई, लेकिन तबसे अब में देश की राजनीति में बहुत सी नदियों का पानी बह गया है। उस समय तक क्षेत्रीय दल इतने ताकतवर नहीं थे। अब कई राज्यों में तो क्षेत्रीय दलों ने राष्ट्रीय दलों को हाशिये पर धकेल दिया है। आज भरोसे के साथ नहीं कहा जा सकता कि इंदिरा गांधी जीवित होतीं तो वह भी कांग्रेस को इस संकट से उबार पातीं। हर नेता का एक समय होता है। उस समय की परिस्थितियां ही उसे महान बनाने में सहायक बनती हैं। कल्पना कीजिए कि आज लोहिया जीवित होते तो उन्हें भी मुलायम सिंह यादव, लालू यादव और नीतीश कुमार के नेतृत्व में काम करना पड़ता। लोहिया के बारे में तो कल्पना ही कर सकते हैं पर उनके साथी जार्ज फर्नांडीज ने तो अपने सक्रिय राजनीतिक जीवन में ही वह दिन देख लिया। भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी आज हाशिये पर हैं तो इसलिए नहीं कि वे पहले अच्छे थे अब बुरे हो गए हैं। वह इसलिए कि उनका समय बीत गया। लेकिन कांग्रेस के लिए चिंता की बात यह है कि उसके युवा नेता का समय आने से पहले ही जाता हुआ दिख रहा है। राहुल गांधी ऐसे नेता नहीं हैं जो अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों को प्रेरित कर सकें। पार्टी की हालत यह हो गई है कि वह जहां सत्ता में है वहां भी हार रही है और जहां विपक्ष में है वहां भी। राहुल गांधी चुनावी राजनीति की असली परीक्षा में अभी तक पास नहीं हो पाए हैं। 11 साल के संसदीय राजनीतिक जीवन में अपने बूते पार्टी को कोई चुनाव नहीं जिता पाए हैं। न ही वह कांग्रेस संगठन में कोई बुनियादी बदलाव कर पाए हैं। पार्टी संगठन को लेकर उनके स्फुट विचार जब तब सुनने को मिलते हैं, लेकिन कोई नया दृष्टिकोण वह पेश नहीं कर पाए हैं। उन्हें पार्टी का अध्यक्ष बनना है यह सबको पता है, लेकिन कब किसी को पता नहीं। इसके दो ही निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। एक कि पार्टी को उनकी नेतृत्व क्षमता पर भरोसा नहीं है। दूसरा यह कि राहुल गांधी को खुद अपनी क्षमता पर संदेह है। दोनों में से कौन सी बात सही है यह तो वही बता सकते हैं। लेकिन देश की सबसे पुरानी और कभी सबसे बड़ी पार्टी की दशा दयनीय होती जा रही है। कोढ़ में खाज यह कि पार्टी में स्पष्ट रूप से दो गुट बन गए हैं। एक अपने को राहुल समर्थक और दूसरे अपने को सोनिया समर्थक बताता है। दोनों ही कांग्रेस को बचाने के नाम पर यह कर रहे हैं। जाहिर है कि यह गुटबाजी पार्टी को बचाने के लिए नहीं अपने पैर के नीचे की जमीन बचाने के लिए है। वस्तु एवं सेवाकर (जीएसटी) संविधान संशोधन विधेयक देश की अर्थव्यवस्था की दशा और दिशा दोनों बदल सकता है। यह विधेयक कांग्रेस का अपना विधेयक है। उसे बदले की राजनीति की भेंट चढ़ाकर कांग्रेस को राजनीतिक रूप से कुछ हासिल नहीं होने वाला। बिहार चुनाव सामने है। दोनों गठबंधन विकास को प्रमुख मुद्दा बनाने का दावा कर रहे हैं। ऐसे में आर्थिक सुधार के इतने बड़े विधेयक को कानून बनने से रोककर वह मतदाताओं के बीच अपनी विश्वसनीयता कायम नहीं कर सकती, लेकिन क्या कांग्रेस में किसी को इसकी चिंता है?

समंदर से घिरा, हरा भरा, खूबसूरत देश मॉरीशस 


डॉ. अरूण जैन
मोती के समान सुंदर तथा सफेद मारीशस के चारों तरफ 100 मील का समुद्री तट और मीलों तक फैली रूपहली रेत ही इसका मुख्य आकर्षण हैं। दक्षिणी अफ्रीका के पास स्थित मारीशस द्वीप पर पहले ज्वालामुखी पर्वत थे जिनसे लावा बहता रहता था या बंजर और पथरीली भूमि थी। 1598 में डचों ने मारीशस पर सबसे पहले कब्जा किया और वे तकरीबन 120 वर्षों तक यहां रहे जिसके प्रमाण आज भी यहां मिलते हैं। 1710 में डच मारीशस छोड़ कर चले गए। इसके पांच वर्ष बाद यहां फ्रेंच आए और वह 95 वर्षों तक यहां रहे। इसके बाद फ्रांसीसियों ने इस द्वीप को अंग्रेजों के हाथों बेच दिया। अंग्रेजों ने इस द्वीप को उपजाऊ और हराभरा बनाने के लिए बहुत मेहनत की। उन्होंने भारत से बिहारी मजदूरों को परिवार सहित यहां लाकर खेती के काम में लगाया। मारीशस में गन्ने की लहलहाती खेती बिहारी मजदूरों की मेहनत का ही परिणाम है। 17वीं और 18वीं सदी में आए मजदूरों की पीढिय़ों ने हिंदू धर्म, भाषा, पहनावा तथा रहन सहन भारतीय परंपरा के अनुसार ही रखा। मारीशस में वैसे अब नई पीढ़ी आधुनिक पोशाक जींस वगैरह पहनने लगी है लेकिन गांवों में आज भी बड़े बूढ़े साड़ी और कुर्ता−धोती को ही महत्व देते हैं। स्कूलों में भोजपुरी वर्नाकुलर के रूप में अनिवार्य है। यहां की बोलचाल की भाषा क्रेओल है जो फ्रेंच, अंग्रेजी और भोजपुरी भाषा के मिश्रण से बनी है। मारीशस को 1968 में अंग्रेजी शासन से पूर्ण आजादी मिली। मारीशस की जलवायु समशीतोष्ण है। यहां मई से अक्टूबर तक सर्दियों का मौसम रहता है लेकिन तापमान 12 डिग्री सेल्सियस से कम नहीं जाता है। नवंबर से अप्रैल तक गर्मी के मौसम में तापमान 30 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं होता है। चूंकि मारीशस चारों ओर समुद्र से घिरा है इसलिए यहां का मौसम वर्ष भर सुहावना बना रहता है। यहां गर्मी में 14 घंटे का और सर्दी में 12 घंटे का दिन होता है। यहां बरसात वर्ष भर होती रहती है। मारीशस में लिली और ताड़ के वृक्षों की शोभा देखते ही बनती है। पांपलेमस में रायल बोटेनिकल गार्डन यहां का सबसे सुंदर गार्डन है। मारीशस की राजधानी पोर्टलुई यहां का सबसे बड़ा शहर एवं बंदरगाह है। यहां की चौड़ी, साफ सुथरी सड़कें तथा यातायात व्यवस्था सैलानियों का मन मोह लेती हैं। पोर्टलुई में बड़े बड़े अति-आधुनिक होटल एवं रेस्तरां हैं, जहां अंग्रेजी, चीनी व भारतीय भोजन आसानी से सुलभ है। मारीशस में खाने−पीने की हर चीज बहुत महंगी हैं क्योंकि यहां घी, दूध, मक्खन, सब्जियां, अनाज, कपड़े आदि सब कुछ विदेशों से आयात किया जाता है। यहां ज्यादातर खाने की वस्तुएं दक्षिण अफ्रीका से तथा कपड़े व गहने भारत, जापान और कोरिया से आयात किए जाते हैं। समुद्री खेलों के शौकीन खिलाडिय़ों के लिए मारीशस सबसे उपयुक्त जगह है क्योंकि वर्ष भर यहां का मौसम खेलों के लिए बेहतर बना रहता है। आजकल समुद्री खेलों को और अधिक लोकप्रिय व सुविधाजनक बनाने के लिए मारीशस सरकार इस ओर विशेष ध्यान भी दे रही है। मारीशस जाने वाले सैलानी यहां की महिलाओं के हाथ के बने शंख, समुद्री सीप और मोती की मालाएं और हस्तकला की अनेक वस्तुओं को बड़े चाव से खरीदते हैं। तो आप भी जब यहां जाएं तो इन्हें खरीदना नहीं भूलें।

इंडस्ट्री को भी नजर आने लगा इकॉनमी में सुधार

डॉ. अरूण जैन
भारतीय इंडस्ट्री ने हाल के महीनों में पहली बार इकॉनमी में सुधार होने की बात मानी है। परचेजिंग मैनेजर्स इंडेक्स (पीएमआई) और कार सेल्स जैसे इंडिकेटर्स में आई तेजी के बाद इंडस्ट्री इकॉनमी को लेकर पहले से ज्यादा पॉजिटिव हुई है। मौजूदा फाइनैंशल ईयर के पहले क्वॉर्टर के लिए सीआईआई एएससीओएन इंडस्ट्री सर्वे के नतीजों में इकनॉमिक ऐक्टिविटीज में मामूली सुधार का संकेत मिला है। बहुत सी चुनौतियों के बावजूद इकॉनमी ग्रोथ के रास्ते पर बढऩे की कोशिश कर रही है। सर्वे के मुताबिक, 93 सेक्टर्स में से 16.1 पर्सेंट ने अप्रैल-जून क्वॉर्टर में 20 पर्सेंट से ज्यादा की ग्रोथ दर्ज की है। एक वर्ष पहले की इसी अवधि में यह आंकड़ा 111 सेक्टर्स में से केवल 7.1 पर्सेंट का था। सर्वे में सेक्टर्स से जुड़ी इंडस्ट्री असोसिएशंस से मिले रिस्पॉन्स के आधार पर ग्रोथ को ट्रैक किया जाता है। सीआईआई असोसिएशंस काउंसिल (एएससीओएन) के चेयरमैन नौशाद फोर्ब्स ने कहा, नेगेटिव ग्रोथ के अनुमान वाले कम सेक्टर्स हैं और बहुत से सेक्टर्स में एक वर्ष पहले के मुकाबले अच्छी ग्रोथ दर्ज की गई है। लोअर ऐक्टिविटी वाले सेक्टर्स का शेयर गिरकर 23.6 पर्सेंट पर आ गया, जो पिछले वर्ष के इसी क्वॉर्टर में 26.9 पर्सेंट था। अन्य मासिक इंडिकेटर्स से भी रिकवरी होने का संकेत मिल रहा है। जुलाई में मैन्युफैक्चरिंग पीएमआई छह महीने के उच्च स्तर पर पहुंच गया, जबकि सर्विसेज पीएमआई दो महीने की नेगेटिव ग्रोथ के बाद पॉजिटिव जोन में आ गया। देश की सबसे बड़ी कार मेकर मारुति सुजुकी की जुलाई में सेल्स 20 पर्सेंट बढ़ी है, जबकि देश की दूसरी सबसे बड़ी कमर्शल वीइकल मैन्युफैक्चरर अशोक लीलैंड की पिछले महीने सेल्स 40 पर्सेंट ज्यादा रही। इकॉनमी में रिवाइवल की बड़ी वजह नए फाइनैंशल ईयर में सरकार की ओर से किए जाने वाले खर्च में बढ़ोतरी है, जिससे प्राइवेट इन्वेस्टमेंट में कमी की भरपाई हुई है।

साउथ चाइना सी पर चीन के बढ़ते दखल से दुनिया परेशान

डॉ. अरूण जैन
दक्षिण चीन सागर में मानव निर्मित द्वीप बनाने और इस इलाके पर चीन के दावे को लेकर अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया समेत दुनिया के कई देशों ने चिंता जाहिर की है।  साउथ चाइना सी (स्ष्टस्) क्षेत्र में जमीन पर दावे से जुड़ी परियोजना को रोकने की बात स्वीकार करने के बावजूद मलयेशिया में आसियान देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक में तनाव बढ़ गया। अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी की तरफ से सबसे कड़ी आलोचना आई। अपने चीन समकक्ष द्वारा इस सिलसिले में भरोसा दिलाये जाने के बावजूद केरी ने चीन पर इस क्षेत्र में जहाजों के आने-जाने और इस क्षेत्र से होकर गुजरने वाले एयर ट्रैफिक पर रोक लगाने का आरोप लगाया। केरी ने कहा, जहाजरानी और एयर ट्रैफिक की आजादी अंतरराष्ट्रीय सामुद्रिक कानून के बुनियादी स्तंभ हैं। मलयेशिया में भारत की ओर से भाग लेने आए विदेश राज्य मंत्री वी. के. सिंह ने कहा, हम दक्षिण चीन सागर में बनती स्थिति को लेकर आसियान देशों की चिंता से सहमत हैं। इससे पहले चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने गुरुवार को दक्षिण चीन सागर मुद्दे पर चीन का रुख स्पष्ट करते हुए फिलीपींस, जापान तथा अमेरिका के दावे को खारिज कर दिया। आसियान रिजनल फोरम (्रक्रस्न) की बैठक के दौरान वांग ने कहा कि चीन सच बोलना अपरिहार्य समझता है और दक्षिण चीन सागर मुद्दे पर अपने रुख को स्पष्ट करता है, जिसे कुछ देशों ने ्रक्रस्न और पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन के दौरान उठाया है। उन्होंने कहा, सबसे पहले तो दक्षिण चीन सागर में हालात स्थिर हैं और किसी बड़ी झड़प की कोई संभावना नहीं है। इसलिए चीनी किसी भी ऐसी बात और कार्य के खिलाफ हैं, जो मतभेदों को बढ़ाने वाला हो, गतिरोध पैदा करता हो और तनाव को प्रश्रय देता हो। मंत्री ने कहा कि दक्षिण चीन सागर में नौ-परिवहन को लेकर चीन के पास वही चिंताएं हैं, जो अन्य देशों के पास हैं, क्योंकि चीन का अधिकांश व्यापार समुद्री मार्ग से होता है। उन्होंने इस बात का उल्लेख किया कि नौ-परिवहन की महत्ता चीन के लिए भी उतना ही जरूरी है। वांग ने कहा, चीन हमेशा इस रुख पर अड़ा रहा है कि सभी पक्ष दक्षिण चीन सागर में नौ-परिवहन का इस्तेमाल अंतर्राष्ट्रीय कानून के आधार पर करें। दक्षिण चीन सागर में नौ-परिवहन तथा फ्लाईओवर की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए चीन अन्य पक्षों के साथ कार्य करने का इच्छुक है। 

इकॉनामी पर गॉड, गोल्ड और ऑइल की मेहरबानी

डॉ. अरूण जैन
कंपनियों और उपभोक्ताओं के लिए हालात बेहतर होते दिख रहे हैं। इसके लिए गॉड, गोल्ड और ऑइल के बदले रुख को श्रेय दिया जा सकता है। बारिश अच्छी रही है और मॉनसून का मिजाज ठंडा रहने के अनुमान अब तक सही साबित नहीं हुए हैं। वर्षा का स्तर सामान्य से महज 6त्न कम है। वहीं ऑइल और गोल्ड की कीमतों में तेज गिरावट आई है। भारत जिन चीजों का आयात करता है, उनमें गोल्ड और ऑइल टॉप पर हैं। कीमत घटने से इस मोर्चे पर राहत मिलेगी। पिछले एक महीने में ऑइल की कीमतें 15त्न घटी हैं और पिछले साल जून के मुकाबले आधे पर चल रही हैं। गोल्ड कई साल के निचले लेवल पर आ गया है। ज्यादातर ऐनालिस्ट्स का मानना है कि यह रुझान आगे भी बना रहेगा। निकट भविष्य में बारिश, सोने और तेल के इस मिजाज के बने रहने की उम्मीद का मतलब यह है कि आगामी फेस्टिवल सीजन में कन्जयूमर्स अपनी बंधी मु_ी ढीली कर सकते हैं। यह इंडिया में कन्जयूमर प्रॉडक्ट्स की खरीद-फरोख्त का सबसे अहम सीजन होता है। कंपनियां अच्छी डिमांड की गवाह बनेंगी और ब्याज दर बढऩे का डर भी नहीं होगा। सरकार को भी करंट अकाउंट और फिस्कल डेफेसिट के मोर्चे पर बेहतर स्थिति के चलते इकॉनमी में पैसा झोंकने में सहूलियत हो सकती है। सोना सस्ता हो रहा है और फसल अच्छी होने से ग्रामीण इलाकों में कार, मोटरसाइकिल, ट्रैक्टर, जूलरी और एफएमसीजी प्रॉडक्ट्स की डिमांड बढ़ सकती है। बारिश के लगभग सामान्य स्तर के अलावा ऑइल और गोल्ड का इंपोर्ट बिल कम रहने का मिलाजुला असर यह होगा कि सरकार और आरबीआई को महंगाई बढऩे की चिंता नहीं सताएगी। इस तरह ब्याज दरें बढ़ाने का दबाव शायद ही रहे। एचडीएफसी बैंक की प्रिंसिपल इकनॉमिस्ट ज्योतिंदर कौर ने कहा कि भारत भाग्यशाली है कि कमोडिटीज, खासतौर से एनर्जी की वैश्विक कीमतों में नरमी आ गई है। उन्होंने कहा, इसके चलते इन्फ्लेशन को आरबीआई के 6त्न के नियर-टर्म टारगेट से नीचे रखने में मदद मिलेगी। ऐनालिस्ट्स ने कहा कि प्राइवेट सेक्टर की ओर से कैपिटल एक्सपेंडिचर में दिख रही सुस्ती की भरपाई के लिए सरकार अपनी ओर से निवेश बढ़ा सकती है और साथ ही, डिसइनवेस्टमेंट से ज्यादा रकम जुटा सकती है क्योंकि तेल कंपनियों का वैल्यूएशन अब बेहतर हो गया है। ऑइल के दाम में गिरावट से रिफाइनिंग करने वाली कंपनियों की उधारी घटेगी और ओएनजीसी पर सब्सिडी का बोझ कम होगा। ढ्ढष्टक्र्र के सीनियर वाइस प्रेजिडेंट और को-हेड (कॉर्पोरेट रेटिंग्स) के रविचंद्रन ने कहा, पॉलिसी रिफॉर्म्स के साथ यह बात इस सेक्टर के लिए अच्छी है। सरकार अगर इन कंपनियों में डिसइन्वेस्टमेंट पर कदम बढ़ाए तो उसे अच्छा वैल्यूएशन मिल सकता है। ऑइल प्राइसेज में गिरावट का दोहरा फायदा है। कन्जयूमर्स की जेब कम ढीली हो रही है, वहीं सरकार ने इस मौके का फायदा उठाकर एक्साइज ड्यूटी बढ़ा दी है। ऐनालिस्ट्स का कहना है कि इस तरह इंडिया को एक लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का फायदा हो सकता है, जो कीमतें न घटने की सूरत में ऑर्गनाइजेशन ऑफ पेट्रोलियम एक्सपोर्टिंग कंट्रीज यानी ह्रक्कश्वष्ट के कुछ मेंबर्स के पास चले गए होते। फिर ऑइल सेक्टर की कंपनियों के लिए बेहतर कैश फ्लो का मतलब यह है कि ये अपने इन्वेस्टमेंट प्लान पर उत्साह से कदम बढ़ा सकती हैं, जिनसे इकॉनमी में गुड्स और सर्विसेज की डिमांड बढ़ेगी। गोल्ड का गणित बिल्कुल साफ है। अगर किसी व्यक्ति ने दो साल पहले 10 ग्राम सोना खरीदने के बजाय वह रकम अपने सेविंग्स बैंक अकाउंट में रखी होगी तो आज वह उसी पैसे से 15 ग्राम गोल्ड खरीद सकता है। गोल्ड और ऑइल की कीमतों में गिरावट का अर्थ यह है कि रुपये में स्थिरता रहेगी और देश के खजाने पर दबाव नहीं होगा। इससे फाइनैंस मिनिस्टर अरुण जेटली को इंफ्रास्ट्रक्चर पर खर्च बढ़ाने और डायरेक्ट टैक्सेज घटाने की सहूलियत मिलेगी। आरबीआई रेट घटाएगा तो लोगों के पास खर्च करने लायक रकम ज्यादा बचेगी और इससे इकॉनमी में डिमांड और बढ़ेगी। डेलॉयट इंडिया के चीफ इकनॉमिस्ट और सीनियर डायरेक्टर अनीस चक्रवर्ती ने कहा, मॉनसून में सुधार के साथ क्रूड ऑइल और गैस की कीमतों में कमी ने फिस्कल डेफेसिट और करंट अकाउंट के मामले में राहत दी है। इससे सरकार को दमदार ढंग से निवेश करने में अधिक सहूलियत होगी। इन बातों का यह मतलब नहीं है कि इकॉनमी रॉकेट की तरह फर्राटा भरेगी, लेकिन यह तो है ही कि फाइनैंस मिनिस्टर को कई कदम उठाने में ज्यादा आसानी होगी।

Monday 3 August 2015

हमें नही चाहिए, ऐसा प्रजातंत्र !

अरूण जैन
हमारे कानून में कहें अथवा देश के प्रजातांत्रिक ढांचे में ऐसी कौन सी व्यवस्था है अथवा लोच है कि सर्वोच्च न्यायालय से फांसी की सजा पाया व्यक्ति राष्ट्रपति के पास जाता है, खारिज होने पर फिर सर्वोच्च न्यायालय जाता है । वहां भी खारिज हो तो राज्य के गवर्नर के पास जाता है। यहां भी निराशा हो तो राज्य सरकार भी उसे मुक्त कर सकती है।
ऐसे एक नहीं अनेक प्रकरण हैं। जिनमें फांसी अथवा उम्र कैद की सजा पाए अपराधी मुक्ति पाने के अनेकानेक प्रयास करते हैं । इनमें आतंकवादी, तस्कर, देशद्रोही, राजनैतिक हत्यारे, दुष्कर्म और हत्या जैसे अपराधों के गंभीर आरोपी शामिल हैं । इनमें दो प्रमुख प्रकरणों का उल्लेख उदाहरण के तौर पर किया जा सकता है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी और फिर उम्र कैद की सजा के बाद तमिलनाडु सरकार ने रिहा करने का निर्णय ले लिया । इस पर संयोग से सर्वोच्च न्यायालय ने संज्ञान लेते हुए रोक लगा दी। दूसरा मामला मंुबई हमलों के गुनहगार याकूब मेनन का है। इसके फांसी के निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय ने तीनों बार बहाले रखा । तब वह राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिकाएं ले गया । वह खारिज होने पर फिर सर्वोच्च न्यायालय चला गया। पिटीशन खारिज होने पर राज्यपाल के समक्ष चला गया। शायद यह हमारे ही देश के संविधान, कानून अथवा प्रजातांत्रिक व्यवस्था का लचीलापन है अथवा धर्मनिपेक्षता की थोथी आवरण व्यवस्था है कि अपराध के मामले में सर्वोच्च संस्था होते हुए भी कोई सर्वोच्च नही है। क्यों सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद राष्ट्रपति के समक्ष अपील की इजाजत होना चाहिए ? क्यों सिंगल बैंच के निर्णय को डबल बैंच और फुल बैंच में ले जाने की इजाजत दी जाना चाहिए । राज्यपाल और राज्य शासन को भी ऐसी सुनवाई का अधिकार क्यों दिया जाना चाहिए । एक बार सर्वोच्च न्यायालय जैसी संस्था के फैसले के बाद केवल उसका क्रियान्वयन किया जाना चाहिए, बस। दोहरी-तिहरी व्यवस्थाए अपराधों में समाप्त होना चाहिए । आश्चर्य तो यह है कि इसका फायदा भी राजनीति से जुड़े अथवा रसूखदार लोग ही ज्यादा उठाते हैं। गरीब और सामान्य आदमी तो पहले फैसले में ही जेल भेज दिया जाता है। वह, और कुछ ऐसा कर ही नही पाता अथवा शायद सक्षम नही होता । जब देश का कानून सबके लिए एक जैसा है तो इस प्रकार की व्यवस्थागत लोच का लाभ स्पष्ट रूप से बंद करना चाहिए। यदि यही प्रजातंत्र है तो कृपया माफ कीजिए हमें नही चाहिए ऐसा प्रजातंत्र !

तोड़फोड और निर्माण से भरा पानी शिप्रा और रूद्रसागर का बना दिया !

अरूण जैन
इस बार तो हद ही हो गई! महाकाल मंदिर प्रबंध समिति और सरकारी अधिकारियों ने लोगों को खूब भरमाया और इलेक्ट्राॅनिक चेनलों-प्रिंट मीडिया में भगवान महाकाल के गर्भगृह में शिप्रा नदी का पानी, कोटितीर्थ कुंड का पानी, रूद्रसागर का पानी भरने का समाचार प्रमुखता से छपवाया, जबकि ऐसा कुछ भी नहीं हुवा । अधूरे निर्माण कार्यों, तोड़फोड़ और अपनी लापरवाही के कारण वर्षा के पानी भरने को धार्मिक भावनाओं से जोड़ने के प्रयास किए गए । इसकी जितनी निन्दा की जाए कम है ।
पिछले सप्ताह उज्जैन शहर में जबर्दस्त बारिश हुई । मात्र चैबीस घंटे मंे 18 इंच, पूरा शहर त्राहि-त्राहि कर उठा । शहर की अधिकांश सड़के, पुल-पुलियाएं इस वर्षा में नही डूबते यदि सिंहस्थ निर्माण कार्य के नाम पर अधिकारियों ने जगह-जगह तुड़ाई-खुदाई न करवाई होती। खोदी गई सड़कों, नालों का मलबा सड़कों पर जहां-तहां पड़ा था । यही कुछ हाल निर्माण सामग्रियों का था, जिनके ढेर सड़कों पर लगे हुए थे । इसी क्रम में महाकाल टनल का भी काम था, जो प्रारंभ से ही विवादों में रहा । पुरातत्व विभाग की इच्छा के विरूद्ध अधिकारी इसे बनाने पर आमादा हैं। कभी इसकी दीवार गिर जाती है, कभी छत धंस जाती है। वास्तविकता यह है कि विस्तारित नंदी हाल भी दोषपूर्ण है। इन्ही सबके कारण वर्षा का जल रिसकर नंदी हाल से महाकाल गर्भगृह में जा पहुंचा और शिवलिंग जलमग्न हो गए । अधिकारियों ने चालाकी से इस दोष को छुपा लिया । शिप्रा नदी का पानी महाकाल मंदिर तक दस जनम तक नहीं पहुंच सकता क्योंकि वे लगभग पहाड़ी पर है। रूद्रसागर भी समीप होते हुए गड्ढे में है और उसका पानी भी वहां नहीं आ सकता । कोटितीर्थ कुंड पक्का बना है और मात्र वर्षा से ही लबालब हुवा है। हालांकि कलेक्टर महोदय ने गर्भगृह में पानी भरने की जांच के आदेश दिए हैं । पर होना क्या है ? जैसे देश की बड़ी-बड़ी जांचों का हश्र हो रहा है, इसका भी हो जाएगा ।
अभी भी समय है, महाकाल में चल रहे निर्माण कार्यों पर गंभीरता से विचार किया जाए। प्रबुद्ध जनों की, पुरातत्व की राय ली जाए । उसी अनुसार काम किया जाए । पुरातत्व सर्वेक्षण अधिनियम के तहत किसी भी प्राचीन मंदिर/स्थल के 300 मीटर के दायरे में उत्खनन और निर्माण नही किया जा सकता । विशेष परिस्थिति में पुरातत्वविदों की देखरेख में काम होना चाहिए। पर अधिकारी कहां किसकी सुनते हैं। ऐसा ही रहा तो प्राचीन स्थलों की इससे भी बदतर हालत हो जाएगी ।

आखिर क्या है उज्जैन प्रशासन की मजबूरी ?



डाॅ. अरूण जैन
उज्जैन में सिंहस्थ को लेकर काफी कुछ काम हो रहे हैं । पर तीन बत्ती चैराहे को पूर्ण रूप से विकसित करने का कार्य जिला प्रशासन और पुलिस प्रशासन ने अब तक हाथ में नही लिया है। चैराहे के कोने पर चल रहा पेट्रोल पम्प सड़क सुरक्षा समिति और हिंदुस्तान पेट्रोलियम कंपनी की स्वीकृति और सहमति के बाद भी अब तक नही हटाया गया है। फलस्वरूप बैरवा समाज के प्रमुख संत बालीनाथजी की प्रतिमा उपेक्षित है और बाधापूर्ण स्थल पर स्थापित करने से प्रशासन का मुंह चिढ़ा रही है ।
तीन बत्ती चैराहे का यह पेट्रोल पम्प चैराहा विकास की योजना के तहत हटाए जाने का निर्णय करीब दो दशक पूर्व ही यातायात समिति में हो गया था, जब शहर में ट्रेफिक वार्डन भी हुवा करते थे। समिति के निर्णय पर पेट्रोलियम कंपनी हिन्दुस्तान पेट्रोलियम ने भी स्वीकृति दे दी थी और इसके एवज में संचालक रमेशचन्द्र जैन को गैस एजेन्सी भी आवण्टित कर दी, जो समीप ही कमला नेहरू मार्ग पर कार्य कर रही है। प्रशासन की सुस्ती का फायदा संचालक उठा रहा है। वह पेट्रोल पम्प पर पेट्रोल भी बेच रहा है और गैस एजेन्सी भी चला रहा है अर्थात दोनों हाथ में लड्डू लेकर खा रहा है ।
जिला-पुलिस प्रशासन की उदासीनता कहिए या अनदेखी कि वह अपने पूर्व निर्णयों का न तो रिकार्ड संभाल कर रख पाता है और न ही उनका ईमानदारी से क्रियान्वयन कर पाता है। इसके अभाव में संत बालीनाथ की महत्वपूर्ण प्रतिमा जो सही स्थान पर लगना थी वह सड़क के ऐसे स्थान पर लगा दी गई है, जहां से देवास रोड की ओर से इन्दौर रोड पर मुड़ने वाले वाहनों को प्रर्याप्त स्थान ही नहीं मिल रहा है। फलस्वरूप यह महत्वपूर्ण प्रतिमा कभी भी क्षतिग्रस्त हो सकती है ।

शिक्षा सुधार की हर कोशिश भगवाकरण नहीं होती 


डाॅ. अरूण जैन
भारत सरकार ने 2009 में जब मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दूसरा मंत्रिमंडल गठित हुआ, शिक्षा में गुणात्मक विकास और व्यापक विस्तार के लिए शिक्षा संस्था और विद्यार्थी का एक मानक निर्धारित किया। इस मानक के अनुसार जिन शिक्षा संस्थाओं में विज्ञान गणित भाषा और सामाजिक विज्ञान की पढ़ाई नहीं होगी उन्हें विद्यालयों और न पढऩे वाले छात्रों को विद्यार्थी की श्रेणी में शामिल नहीं माना जायेगा। इसका यह तात्पर्य नहीं कि जो संस्थाएं केवल मजहबी या कर्मकांडी शिक्षा दे रही हैं, उन्हें बंद कर दिया जायेगा। इस मानक निर्धारण के पीछे उद्देश्य था विद्यार्थियों को आधुनिकता का ज्ञान कराना। इस्लामी शिक्षा देने के लिए मदरसा नाम से जो संस्थाएं चल रही हैं इस नियम से अधिक प्रभावित होंगी, यह स्वाभाविक था। यद्यपि प्रगतिशील विचार वाले लोगों ने इसका स्वागत किया और बहुत से मदरसों में आज इन विषयों को पढ़ाया जाने लगा है लेकिन अधिसंख्य मदरसे ऐसे हैं जो अभी रूढि़वादी ही बने हुए हैं और उनकी रूढिवादिता को बनाए रखने के उपक्रम में जो लगे हैं उनका मुस्लिम समुदाय में प्रभाव होने के कारण वोट बैंक की राजनीति से सत्ता में बने रहने की रणनीति अपनाने वाले दलों की सरकारों ने इस नीति को लागू करने में कोई अभिरूचि नहीं ली। महाराष्ट्र की फडनवीस सरकार ने इस नीति के अनुरूप राज्य की शिक्षा संस्थाओं और विद्यार्थियों का सर्वेक्षण कराने का फैसला किया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि राज्य में कितने विद्यार्थी हैं। महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना गठबंधन की सरकार है। इसलिए उसके प्रत्येक कदम को भगवाकरण के रूप में देखने और शोर मचाने का सिलसिला शुरू हो जाना स्वाभाविक है। हुआ भी वही। और तो और जिस कांग्रेस की सरकार ने यह नीति बनाई थी वह भी भगवाकरण के आरोप के साथ कूद पड़ी। आजकल मुस्लिम समुदाय में अपना स्थान पहला रखने की होड़ चल रही है। इसके लिए जैसे 1947 के पूर्व कांग्रेस के प्रत्येक निर्णय को मुस्लिम लीग हिन्दूकरण के रूप में देखती थी वैसे ही भाजपा सरकार के हर कदम में भगवाकरण का छाया देखने वाले नेता पैदा हो गए हैं। इनमें आजकल सबसे ज्यादा सक्रिय है मुत्तहिदा इत्तिहादुल मुसलमीन के नायक असदुद्दीन ओवैसी। उन्होंने महाराष्ट्र सरकार द्वारा सर्वेक्षण कराए जाने को मदरसों के भगवाकरण का आरोप लगाते हुए, हर स्तर पर उसका विरोध करने की घोषणा कर दी है और कुछ रूढि़वादी मठाधीश उनके स्वर में स्वर मिला रहे हैं। मुसलमानों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति का अध्ययन करने के लिए गठित चाहे सच्चर समिति रही हो या रंगनाथ मिश्र कमीशन, या अन्य अध्ययन सभी का एक समान आकलन है कि मुस्लिम समुदाय में बच्चों को आधुनिक शिक्षा पाने से दूर रखने की प्रवृत्ति इसका सबसे बड़ा कारण है। बच्चे अरबी या फारसी में कुरान तथा अन्य इस्लाम सम्बन्धी पुस्तकों को कंठस्थ तो कर लेते हैं लेकिन मुल्ला या मौलवी बनने के अलावा उनको कोई और रोजगार नहीं मिल पाता। वैदिक कर्मकांड का अध्ययन कराने वाली कुछ शिक्षा संस्थाओं से पुरोहित तो निकल रहे हैं लेकिन उन्हें किन्हीं अन्य रोजगार में जाने का अवसर नहीं मिल रहा है। इन्हीं तथ्यों का संज्ञान लेकर प्रारम्भिक शिक्षा में उपरोक्त विषयों को शामिल कर शिक्षा संस्था और छात्रों की पहचान का मानक बनाया गया। इस मानक का यह उद्देश्य नहीं है कि जो संस्था इन विषयों को नहीं पढ़ायेगी उन्हें बंद कर दिया जायेगा। फिर भी महाराष्ट्र सरकार के अभियान का मुखरित विरोध मदरसों पर कब्जा के भयदोहन के साथ शुरू हो गया है। इनमें ओवैसी जैसे वे मुसलमान भी शामिल हैं जिन्होंने देश ही नहीं विदेश जाकर भी आधुनिक शिक्षा प्राप्त की है। यह प्रयास ठीक उसी प्रकार है जैसे मुस्लिम लीग का नेतृत्व संभालने वाले मोहम्मद अली जिन्ना ने किया था। जिन्हें उर्दू नहीं आती थी और ना ही वह इस्लामी कर्मकांड करते थे और पाश्चात्य जीवन शैली में रहना पसंद करते थे, लेकिन बाद में रूढि़वादिता के प्रवर्तक बन गए थे। आज कल अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का बहुत नाम है वह अपने परिसर का विस्तार भी कर रही है। सर सैय्यद अहमद खां की दूरदर्शिता का ही यह परिणाम है कि शिक्षा, चिकितसा, विज्ञान तथा प्रशासनिक सेवा में यहां से निरंतर निकलने वाले युवकों का योगदान बढ़ रहा है। इस विश्वविद्यालय ने मुसलमानों को समाज की मुख्यधारा में शामिल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। जैसे आज मदरसों में आधुनिक विषयों के समावेश का विरोध हो रहा है, वैसा ही विरोध सर सैय्यद अहमद खां का भी हुआ था। उन्हें गाजीपुर जहां उन्होंने पहला प्रयास किया था, पलायन करना पड़ा। मोहम्मद अली जिन्ना की जीवन शैली में रहने वालों की समझ अभी भी है कि वे तभी तक नेता रहेंगे जब तक मुस्लिम समुदाय अंधविश्वास में डूबा रहेगा। इसलिए उन्हें मुख्यधारा से दूर रखो। एक बार वह मुख्यधारा में आ गया, तो उनकी पकड़ से निकल जायेगा और उनकी दुकानें बंद हो जायेगी। मदरसों में आधुनिक शिक्षा का विरोध करने वालों का तर्क है कि संविधान में अल्पसंख्यकों को जो मौलिक अधिकार दिए गए हैं, सरकार का कदम उसमें दखलंदाजी है। यद्यपि महाराष्ट्र सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जो मदरसे अपने ढर्रे पर चलना चाहते हैं, वे चलें। सरकार उसमें हस्तक्षेप नहीं करेगी, लेकिन मनमोहन सिंह सरकार ने संस्था और छात्र का जो मानक निर्धारित किया है, उसमें उनका समावेश नहीं होगा। यह मदरसों या वैदिक कर्मकांड सम्बन्धी शिक्षा देने वाली दोनों या सभी प्रकार की ऐसे संस्थाओं पर लागू होता है। इस प्रसंग ने एक और तथ्य पर विचार करने की प्रेरणा दी है। क्या अज्ञान में रहने को मौलिक अधिकार माना जायेगा? क्या पिछड़े रहने, लकीर के फकीर बने रहने, सामाजिक समरसता से दूर रहने को मौलिक अधिकार माना जायेगा। जिस प्रकार मुस्लिम लीग कांग्रेस के प्रत्येक निर्णय को हिन्दुत्ववादी होने का फतवा देकर मुसलमानों में पृथकता उभारकर बंटवारा कराने में सफल रही, उसी प्रकार भाजपा सरकार के प्रत्येक निर्णय को भगवाकरण घोषित करने की होड़ से मुसलमानों का भयदोहन किया जा रहा है। आश्चर्य तो यह है कि शिक्षा संस्था और छात्र का जो मानक स्वयं कांग्रेस की सरकार ने निर्धारित किया था, अब उसका खुद कांग्रेस ही विरोध कर रही है। यह विरोधी प्रभावकारी नहीं हो पायेगा। इसमें संदेह नहीं है लेकिन इस प्रसंग की चर्चा में अंधकार में रहने के मूल अधिकार का जो मुद्दा उभरा है, वह अवश्य ही चिंता का कारण होना चाहिए, विशेषकर मुस्लिम समुदाय के लिए। जिसकी पहचान वोट बैंक से बाहर नहीं हो पा रही है। उससे बाहर निकलना उसकी प्राथमिकता होनी चाहिए।