Monday 8 June 2015

मोदी सरकार को परेशान मत करो RSS ने अपने लोगों से कहा

डॉ. अरूण जैन
आरएसएस के जॉइंट जनरल सेक्रटरी दत्तात्रेय होसबोले ने  सहायक संगठनों को चेतावनी देते हुए मोदी सरकार के इकॉनमिक रिफॉर्म्स में किसी प्रकार की बाधा ना डालने को कहा है। साथ ही उन्होंने आर्थिक अजेंडा तय करने में संघ की भूमिका का भी जिक्र किया। होसबोले ने भारतीय मजदूर संघ की मीटिंग में कहा कि आरएसएस ने केंद्रीय मंत्रालयों को 72 ऐसे पॉइंट भेजे हैं, जिन पर तुरंत अमल करने के लिए कहा गया है। होसबोले के मुताबिक बीजेपी सरकार के शासन में देश को राजनीतिक दलालों से मुक्त कराया गया और यह बड़ा बदलाव है। सरकार सही ट्रैक पर है और ऐसे में उसके फैसलों को टकराव का मुद्दा बनाने की बजाय सहयोग से काम करना चाहिए। बीजेपी सरकार देश हित में काम कर रही है और उसकी मंशा पर संदेह नहीं किया जा सकता। होसबोले ने भारतीय मजदूर संघ से दूसरे ट्रेड यूनियन की तरह टकराव की स्थिति से बचने को कहा। मजदूर संघ की मांगों के बारे में होसबोले ने कहा कि उनकी 72 में से 43 मांगों को आसानी से सुलझाया जा सकता है। गौरतलब है कि मार्च में आयोजित हुई आरएसएस की तीन-दिवसीय मीट में भारतीय मजदूर संघ और भारतीय किसान संघ ने मोदी सरकार के लेबर लॉ रिफॉर्म और आर्थिक नीतियों के प्रति नाराजगी जताई थी। होसबोले के मुताबिक सरकार भूमि बिल, लेबर लॉ, बैंकिंग, रक्षा क्षेत्र में विदेशी निवेश और बीमा इत्यादि क्षेत्रों में बढिय़ा काम कर रही है। 26 मई को मोदी सरकार के एक साल पूरा होने पर भारतीय मजदूर संघ ने दूसरे संगठनों के साथ मिलकर मोदी सरकार की नीतियों के खिलाफ आंदोलन करने की योजना बनाई थी। इन संगठनों के मुताबिक मोदी सरकार लेबर लॉ में गलत प्रावधान लाने और मजदूरी को सस्ता बनाने का प्रयास कर रही है। होसबोले का यह बयान ऐसे मौके पर आया है जब बीजेपी का पूरा शीर्ष संगठन नागपुर में संघ प्रमुख मोहन भागवत से मिलने और सरकार के एक साल पूरा होने पर उनसे चर्चा करने पहुंच रहा है।

TOI रेटिंग में मोदी सरकार को 77%, पहले साल डिस्टिंक्शन से पास

डॉ. अरूण जैन
नरेंद्र मोदी की सरकार को एक साल होने पर 100 में से 77.5 अंकों के साथ पास किया है। इस रेटिंग का आधार मोदी सरकार का एक साल का कामकाज है, जिसे 10-10 नंबरों के 10 हिस्सों में बांटा गया है। जानिए, किस क्षेत्र में कितने नंबर मिले हैं मोदी सरकार को...रेटिंग- 9 नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनावों से पहले मजबूत नेतृत्व देने का वादा किया था और इस बात से उनके विरोधी भी इनकार नहीं करते कि उन्होंने शासन में अपनी छाप छोड़ी है। बल्कि उन पर सत्ता के केंद्रीकरण के आरोप भी लगते हैं। सरकारी बाबुओं के समय पर दफ्तर पहुंचने से लेकर मंत्रियों की रिपोर्ट जांचने के मामले में यह पिछली सरकार के मुकाबले सख्त साबित हुई है। हालांकि सीवीसी और सीआईसी की नियुक्ति में देरी होना सरकार का नकारात्मक पहलू है। 2- विकास के रास्ते पर अर्थव्यवस्था रेटिंग- 7.5 उत्तराधिकार में मिली धीमी विकास दर और अनिश्चितता के चलते निवेशक के डिगे हुए भरोसे को बदलने में मोदी सरकार ने सफलता पाई है। पिछले एक साले के मुकाबले में देखें तो स्थिति में सुधार ही हुआ है। भूमि अधिग्रहण विधेयक और श्रम कानूनों में बदलाव को भी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिश माना जा रहा है। इंश्योरेंस बिल और माइनिंग बिल इसी का एक हिस्सा हैं। स्नष्ठढ्ढ पॉलिसी में बदलाव भी मेक इन इंडिया के नारे को जमीन पर लाने की कोशिश है। हालांकि, घरेलू निवेश की चिंताजनक स्थिति इसका असफल पहलू हो सकता है, जिसका असर रोजगार और मेक इन इंडिया पर भी पड़ेगा। 3- संकटग्रस्त कृषि क्षेत्र में जान फूंकना रेटिंग- 5.5 कृषि ऐसा क्षेत्र है, जिसमें सरकार अपने वादों को पूरा करने में असफल रही, हालांकि खराब मॉनसून का भी इसमें हाथ रहा। अब 33 फीसदी फसल खराब होने पर आपदा प्रभावित किसान मुआवजा ले सकते हैं, यह पहले 50 फीसदी था। सॉइल हेल्थ कार्ड लॉन्च हो गया है। अगले तीन साल में 13 करोड़ किसानों को इस कार्ड के जरिए उनकी मिट्टी की कमजोरी और ताकत बताने का लक्ष्य है। 4- हेल्थ-एजुकेशन पर ध्यान रेटिंग- 6.5 सरकार को हेल्थ और एजुकेशन सेक्टर में बजट कम करने पर आलोचना का शिकार होना पड़ा है। इसके अलावा मनरेगा जैसी योजनाओं का बजट कम करने पर भी सरकार आलोचना के केंद्र में रही है। डीयू में चार साल के कोर्स को खत्म करने के अलावा सरकार ने केंद्रीय विश्वविद्यालयों में वीसी की नियुक्ति के लिए नई नीति और नई शिक्षा नीति के लिए हर गांव से सुझाव लिए हैं। हालांकि, केंद्रीय विद्यालयों में जर्मन या संस्कृत के मामले पर सरकार विवादों में भी फंसी। 5- विदेश नीति और भारत की छवि  रेटिंग- 9 सार्क नेताओं को अपने शपथ ग्रहण में बुलाने से लेकर मोदी ने भूटान, नेपाल और श्री लंका के दौरे से पड़ोसियों में अपनी और देश की अच्छी छवि बनाई। इसके अलावा मोदी के फ्रांस, जापान, चीन और अमेरिका जैसे विकसित देशों के दौरों से भी दूरगामी परिणाम तलाशने की कोशिश की गई है। यमन और नेपाल में राहत और बचाव कार्य से भी देश की छवि को नया स्वरूप मिला है। हालांकि, आलोचक पाकिस्तान के प्रति स्पष्ट रणनीति न होने का मुद्दा उठाते रहते हैं। 6- रक्षा क्षेत्र का पुनरुत्थान रेटिंग- 8 यूपीए शासनकाल में रणनीतियां बनाने में विदेश मंत्रालय की सबसे कम भागीदारी थी। ऐसा शायद विवादों से बचने के लिए किया गया था। अब रक्षा क्षेत्र के आधुनिकीकरण के प्रॉजेक्ट्स हों या फ्रांस से अटका हुआ रफाल विमानों का सौदा इसने भारत के सुरक्षा तंत्र को मजबूत करने का काम किया है। हालांकि, वन रैंक-वन पेंशन की धीमी गति, नई रक्षा खरीद नीति में देरी जैसे मामलों में सरकार पीछे रह गई है। 7- भ्रष्टाचार और काला धन रेटिंग- 9एक साल के शासनकाल में व्यापारियों और उद्योगपतियों को यह कहते सुना जा रहा है कि इस सरकार ने मंत्रियों से नजदीकी गांठने की संस्कृति को खत्म कर दिया है। इस दौरान कोई घोटाला न होने से भी सरकार की भ्रष्टाचार विरोधी छवि मजबूत हुई है। ब्लैक मनी के लिए स्ढ्ढञ्ज तो गठित हो गई, लेकिन अभी तक कोई ब्लैक मनी हासिल नहीं की जा सकी है। 8- आधारभूत सुविधाओं में बढा़वा रेटिंग- 7सरकार ने रेलवे पर पांच सालों में 1.5 लाख करोड़ रुपए खर्च कर रेलवे को ट्रैक पर लाने का वादा किया है। रोज 30 किमी सड़कें बनाने का लक्ष्य सरकार अकेले हासिल नहीं कर सकती और इसके लिए निजी निवेशकों की भी जरूरत पड़ेगी। 100 स्मार्ट सिटी का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा गया है। सरकार ने ऊर्जा क्षेत्र की बुरी हालत के बावजूद 2019-20 तक 24 घंटे बिजली उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा है। 9- सामाजिक सुरक्षा पर जोर रेटिंग- 8 सरकार के सबसे सफल कदम जन-धन योजना ने हर घर का एक बैंक खाता होने जैसी अहम चीज की शुरुआत की है। इन खातों में 15 हजार करोड़ रुपए जमा किए जा चुके हैं। इसके अलावा जीवन और दुर्घटना बीमा योजनाओं की शुरुआत भी सकारात्मक कदम है। 10- राज्यों के साथ बेहतर संबंध रेटिंग- 8 मोदी ने कहा था कि वह विकास में राज्यों को भी भागीदार बनाएंगे। इसकी शुरुआत योजना आयोग को खत्म कर नीति आयोग की शुरुआत से हो चुकी है। केंद्र ने राज्यों को संकट के समय, फसल खराब होने पर, बाढ़ या भूकंप आने पर तुरंत मदद की है। इससे उन्हें नीतीश कुमार जैसे विरोधी से भी प्रशंसा मिली है।

गर्मियों में सुकून देती है बर्फ से लदी ये खूबसूरत वादियां


डॉ. अरूण जैन
उत्तर भारत में ऐसे कई हिल स्टेशन हैं, जहां आप गर्मी से राहत पा सकते हैं और परिवार व दोस्तों के साथ फुर्सत के दो पल बिता सकते हैं। तो आइए आपको भी ऐसी कुछ जगहों पर ले चलते हैं, जो गर्मियों में पर्यटन क लिए मशहूर हैं। कश्मीर- पृथ्वी का स्वर्ग कहा जाने वाला कश्मीर प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर हैं। हिमालय और पीर पंजाब पर्वत श्रृंखला के बीच बसा कश्मीर उत्तर भारत के मुख्य हिल स्टेशनों में से एक हैं। यहां का डल झील बेहतरीन पर्यटक स्थलों में से है। साथ ही इसके किनारे बसा हजरत-बल-मस्जिद दर्शनीय है। झेलम के किनारे बसा भवानी का मंदिर, शंकराचार्य मंदिर, मार्तडय सूर्य मंदिर और शालीमार गार्डन बेहतरीन पर्यटक स्थलों में से एक है। केदारनाथ- उत्तराखंड के रूद्रप्रयाग जिले में बसे केदारनाथ की यात्रा अपने आप में पावन हैं। 3,584 मीटर की ऊंचाई पर स्थित चारों धामों में से यह हिंदुओं का सबसे पवित्रधाम है। बारह ज्योर्तिलिंग में सबसे पवित्र ज्योर्तिलिंग यहीं देखने को मिलता है। मंदिर के पास मंदाकिनी नदी का कल-कल बहता पानी मन को शांति देता हैं। भगवान शिव के दर्शन के लिए दूर-दूर से पर्यटक यहां आते हैं। मनाली- समुद्रतल से 1950 मीटर की ऊंचाई पर बसा हैं हिमाचल प्रदेश का मनाली। यहां के खूबसूरत पहाड़ पर्यटकों की पहली पसंद है। हिमाचल की राजधानी शिमला से 250 किलोमीटर दूर कुल्लू-मनाली के सुंदर दृश्य, गार्डन, पहाड़ों और सेब के बाग पर्यटकों की अपनी तरफ आकर्षित करते हैं। हिमालय नेशनल पार्क, हिडिंबा मंदिर, सोलांग घाटी, रोहतांग पास, रघुनाथ मंदिर और जगन्नाथी देवी मंदिर दर्शनीय है। श्रीनगर- कश्मीर की ग्रीष्मकालीन राजधानी है श्रीनगर। इस खूबसूरत शहर में पर्यटन के लिहाज से देखने के लिए बहुत कुछ है। खूबसूरत झील, ऐतिहासिक व धार्मिक स्थल और पुरातत्व से धनी है श्रीनगर। पर्यटकों में यहां का शालीमार बाग, शाही चश्मा, और परी महल बेहद खास है। शिमला- 2202 मीटर की ऊंचाई पर बसे इस खूबसूरत इलाके को पहाड़ों की रानी कहा जाता है। शिमला में सबसे बेहतरीन आइस स्केटिंग का मजा लिया जा सकता है। हर सर्दियों में होने वाली बर्फबारी इसे और भी खूबसूरत बना देती हैं। हर तरफ फैली बर्फ की सफेद चादर इस शहर को प्राकृतिक खूबसूरती देती हैं। शिमला ट्रेकिंग के लिए भी प्रसिद्ध है। लेह- हिमालय के बीच स्थित हैं लेह। यहां की प्राकृतिक सुंदरता कुदरत का वरदान है। यहां बौद्ध धर्म और मस्जिद के अनेक स्मारक हैं। बर्फ से ढ़की हिमालय की चोटियां लेह को और भी खूबसूरत बनाती हैं। लेह की सुंदरता देखने के साथ-साथ यहां पर्यटक ट्रेकिंग का आनंद भी ले सकते हैं। मसूरी- 2500 मीटर की ऊंचाई पर बसा मसूरी प्राकृतिक दृश्यों का धनी हैं। 1820 में ब्रिटिश की अंग्रेजी सेना यहां की बेहतरीन खूबसूरती से प्रभावित थी। उसने यहां अपने लिए आवास बनाए। यहां का यात्रा उन लोगों के लिए सुखद हैं जो दिल्ली और दूसरे स्थानों की गर्मी से राहत पाना चाहते हैं। प्रकृति ने मसूरी को खूबसूरती वरदान में दिया है। नैनीताल- उत्तराखंड के कुमाऊं के निचली पहाड़ी क्षेत्र में बसा है नैनीताल। नैनी झील के लिए मशहूर नैनीताल को झीलों का जिला कहा जाता है। नैनीताल की कई घाटियों में नाशपाती के आकार की झील देखने को मिलती है। यह झील चारों तरफ से पहाड़ों से घिरी हैं और पर्यटकों के बीच आकर्षण का केंद्र भी है। नैनीताल का नाम यहां की प्रसिद्ध देवी नैना के नाम पर पड़ा है। मुख्य पर्यटक स्थल में टिफिन टॉप, नैनी लेक, नैना पीक वगैरह हैं। उत्तर भारत में इसके अलावा और भी कई ऐसे पर्वतीय क्षेत्र हैं, जहां आप सुकून के कुछ पल बिता सकते हैं। गर्मियों की चिलचिलाती गर्मी से कुछ आराम चाहिए तो कर आइए इन हिल स्टेशनों की सैर।

कूटनीति या व्यापार


डॉ. अरूण जैन
डॉ. अरूण जैन
ऐसी क्या जल्दी थी कि चीनियों के लिए मोदीजी इ-वीजा की घोषणा कर आए? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस यात्रा में भी गीत-संगीत, डांस-ड्रामा था। बौद्ध धर्म था। मानसरोवर यात्रा का मार्ग था। ताइची और योग का समागम था, और साथ में चौबीस समझौते थे। लेकिन जो नहीं था, उसे लेकर अरुणाचल और कश्मीर के लाखों पासपोर्ट धारक निराश हैं, क्योंकि अब भी चीन ने नत्थी वीजा जारी किए जाने के निर्णय में कोई बदलाव नहीं किया है। पासपोर्ट पर स्टेपल वीजा देने का निहितार्थ यही है कि चीन अब भी कश्मीर और अरुणाचल प्रदेश को विवादित हिस्सा मानता है। चीन के लिए पाक अधिकृत कश्मीर, विवादित हिस्सा नहीं है! उस पार के कश्मीरी बाकायदा स्टांप लगे वीजा के साथ चीन का भ्रमण करते हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में 'सिल्क रूटÓ बनाने से लेकर विभिन्न परियोजनाओं में चीन द्वारा चालीस अरब डॉलर लगाने पर जो चिंता व्यक्त की है, उससे क्या फर्क पड़ा है? बेजिंग इससे पीछे नहीं हटने वाला। ऐसा लगता है, मानो मोदी पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में चीनी सड़कें, अधोसंरचना पर चिंता व्यक्त कर विरोध की औपचारिकता पूरी कर आए हैं। विरोध और चिंता में बहुत बड़ा फर्क होता है। बीस फरवरी को मोदी जब अरुणाचल दौरे पर थे, तब चीन विरोध प्रकट कर रहा था। नृत्य-संगीत से मोदीजी का स्वागत करने वाले चीन ने इतना भी नहीं कहा कि आगे से अरुणाचल में नई दिल्ली से शिखर नेताओं के जाने पर आपत्ति नहीं करेंगे। इन चौबीस समझौतों में खटकने वाली बात यह है कि आतंकवाद समाप्त करने के बारे में चीन ने कोई समझौता नहीं किया है। क्यों? इसकी वजह पाकिस्तान है। क्योंकि जब भी आतंकवाद के विरुद्ध प्रस्ताव लाने की बात होती, उसकी जद में पाकिस्तान आता ही। यों, शिन्चियांग के उईगुर आतंकियों से चीन त्रस्त है, जो फर्जी पाकिस्तानी पासपोर्ट के साथ तुर्की में राजनीतिक शरण ले रहे हैं। चीन आधिकारिक तौर पर तुर्की के विरुद्ध बयान दे चुका है। लेकिन पाकिस्तान के कबीलाई इलाकों की आतंक-फैक्ट्रियों में उईगुर अतिवादियों का आना रुका नहीं है। बावजूद इसके राष्ट्रपति शी, प्रधानमंत्री मोदी के साथ आतंकवाद के विरोध में कदमताल नहीं करना चाहते। पाकिस्तान के बरास्ते जिस महत्त्वाकांक्षा के साथ चीन यूरेशिया के लिए नए सिल्क रूट बनाने के सपने साकार कर रहा है, उसके टूटने का जोखिम चीन नहीं उठा सकता। बेजिंग के शिन्हुआ विश्वविद्यालय में मोदी ने बार-बार इसकी याद दिलाई कि आतंकवाद के कारण विकास, सहयोग और निवेश में अवरोध पैदा होता है। लेकिन चीनी नेतृत्व का व्यवहार इस सवाल पर चिकने घड़े जैसा ही था। मोदी ने दो-तीन अवसरों पर यह स्पष्ट कर लेना चाहा कि सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के वास्ते भारत की दावेदारी को चीन कितना समर्थन करता है। चीन ने सिर्फ इतना कहा, संयुक्त राष्ट्र में भारत की बड़ी भूमिका का चीन समर्थन करेगा। इस 'बड़ी भूमिकाÓ का मतलब क्या है? यह संशय की स्थिति कब खत्म होगी कि चीन ऐसे प्रस्ताव के विरुद्ध वीटो का इस्तेमाल नहीं करेगा?सितंबर 2014 में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत आए थे, तब पांच वर्षों में बीस अरब डॉलर के निवेश का वादा हुआ था। लेकिन नौ महीनों में नौ कदम भी आगे नहीं बढ़े हैं। सच तो यह है कि चीन और भारत के बीच कूटनीति का यह दौर विश्वास बहाली का है। इस 'कॉन्फिडेंस बिल्डिंग डिप्लोमेसीÓ का एक ही मंत्र है, पहले इस्तेमाल करो, फिर विश्वास करो। इसलिए जिन चौबीस आयामों पर चीन-भारत के बीच समझौते हुए हैं, उनमें ज्यादातर सांस्कृतिक आदान-प्रदान, खनन और व्यापार वाले समझौते हैं। लेकिन यह सारा कुछ तब बिखर जाता है, जब लद््दाख से लेकर अरुणाचल की सीमा पर घुसपैठ होती है। ऐसी घटनाएं क्यों बासठ की याद बार-बार दिलाती हैं? भारत के 'प्रधान सेवकÓ को याद रखना चाहिए कि लद््दाख से लेकर सिक्किम और अरुणाचल की सीमाओं पर जो चीनी सैनिक तैनात हैं, वे 'शिआन टेराकोटा वारियर म्यूजियमÓ में मिट्टी के बने सैनिक नहीं हैं। वे सचमुच के सैनिक हैं, जिन्हें सिखाया गया है कि सीमा पार घुसपैठ कर भारत पर दबाव बनाए रखो। भारत-चीन के नेताओं ने एक बार फिर से अहद किया है कि सीमा विवाद जल्द सुलझा लेंगे। दिसंबर 1988 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी चीन गए थे, तब भी संकल्प किया गया था कि सीमा विवाद जल्द सुलझा लेंगे। इसके आठ साल बाद तब के चीनी राष्ट्रपति चियांग ज़ेमिन नवंबर 1996 में नई दिल्ली आए, और घोषणा की कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर विश्वास बहाल करेंगे, साथ ही सीमा विवाद शीघ्र सुलझा लेंगे। पिछले साल 10 से 14 फरवरी के बीच भारत के तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन और चीन के स्टेट कौंसिलर यांग चीशी ने पंद्रहवें दौर की सीमा संबंधी बातचीत की थी। फिर पिछले साल सितंबर और नवंबर में दो दौर की और बैठकें हुई थीं। उसके पांच माह बाद यांग चीशी इस साल तेईस मार्च को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से अठारहवें दौर की बैठक नई दिल्ली में कर गए थे। सीमा विवाद पर दोनों देशों के नेताओं और नौकरशाहों की बैठकों को देख कर लगता है, मानो इसे हनुमानजी की पूंछ बना दिया गया हो। इन बैठकों के बाद बयान जारी होता है, 'विवाद जल्द सुलझा लेंगे!Ó ऐसे 'कॉपी-पेस्टÓ बयान से जनता पक चुकी है। हिमालय से प्रशांत महासागर तक, चीन के लगभग बीस देशों से सीमा विवाद हैं। इससे यही संदेश जाता है कि चीन, दुनिया का सबसे पंगेबाज देश है। विश्व-नेता बनने के लिए एक बारी में तीन देशों की यात्रा की नई परंपरा एशिया में शुरू हुई है। ऐसा अक्सर अमेरिकी राष्ट्रपति किया करते थे। 2015 में चीनी राष्ट्रपति शी और प्रधानमंत्री मोदी के बीच इस तरह की प्रतिस्पर्धा हम सब देख सकते हैं। शी और मोदी जिन विषयों पर प्रतिस्पर्घा नहीं कर, एक-दूसरे से इत्तिफाक रख रहे हैं, उनमें बौद्ध धर्म पर हो रही कूटनीति है। म्यांमा समेत पूर्वी एशिया के देशों और श्रीलंका में बौद्ध धर्म, घरेलू राजनीति को प्रभावित करता दिखता है। लेकिन जिस बौद्ध धर्म की बिसात पर चीन गोटियां चल रहा है, उसके नतीजे बड़े खतरनाक निकलेंगे। इसके बूते चीन, दलाई लामा को हाशिये पर लाने का कुचक्र चल रहा है। नेपाल में बीस हजार तिब्बती, शरणार्थी के रूप में रह रहे हैं, उनकी हिम्मत नहीं है कि चीन के खिलाफ चूं बोल दें। लगभग यही स्थिति भारत में बनने लगी है। दो मई को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह धर्मशाला जाकर दलाई लामा से मिलने वाले थे। लेकिन चीन का इतना खौफ था कि सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष ने अपनी यात्रा ही स्थगित कर दी। इसलिए मोदीजी जब चीनी मठों में सरकारी बौद्ध लामाओं से अभ्यंतर हो रहे थे, उससे धर्मशाला में माहौल असहज सा हो रहा था। कूटनीति पर व्यापार का नशा इतना हावी हो चुका है कि हम हर फैसले पर चीन की खुशी-नाखुशी का ध्यान रखने लगे हैं। सितंबर-अक्तूबर में बंगाल की खाड़ी में उन्नीसवें दौर के मालाबार नौसैनिक अभ्यास में अमेरिका के साथ जापान को बुलाएं या नहीं, ऐसी ऊहापोह की स्थिति प्रधानमंत्री कार्यालय में बनी हुई है। यह कमजोर नेतृत्व का नतीजा है। चीन ने बंगाल की खाड़ी में अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान, सिंगापुर और भारत के संयुक्त नौसैनिक अभ्यास का विरोध 2007 में किया था। 2009 और 2014 में यूपीए का दौर था, जब मालाबार अभ्यास के लिए जापान का आना टाल दिया गया था। चीन पूरी ढिठाई से अरब सागर में पाकिस्तान के साथ नौसैनिक अभ्यास करता रहा है, तब भारत को क्यों नहीं आपत्ति होनी चाहिए थी? चीन ने यूक्रेन से खरीदे लियोनिंग नामक पोत पर पाक नौसैनिकों को प्रशिक्षित किया था। सवाल यह है कि चीन से मोदीजी ने जो चौबीस समझौते किए हैं, उससे क्या हमारा सालाना व्यापार घाटा पूरा हो जाएगा? 2014 तक चीन-भारत का उभयपक्षीय व्यापार 70.65 अरब डॉलर का था। तब चीन भारत को 54.42 अरब डॉलर का माल भेज रहा था, जबकि चीन के लिए भारत का कुल निर्यात 16.41 अरब डॉलर का था। अर्थात चीन से व्यापार में भारत को 2014 में 37.8 अरब डॉलर के घाटे में था। यह इतनी बड़ी खाई है कि उसे पाटने का रास्ता चौबीस सूत्री समझौतों में कहीं से नजर नहीं आता। इससे अलहदा चीन ने भारत के प्रोजेक्ट निर्यात बाजार पर जबर्दस्त तरीके से कब्जा किया हुआ है। इस साल कोई साठ अरब डॉलर के चीनी प्रोजेक्ट निर्यात को निष्पादित होना है। जिस चीनी निवेश को भारत लाने के लिए हम बावले हो रहे हैं, उससे पहले अफ्रीका में हमें झांक लेना चाहिए कि वहां चीन ने क्या किया है। अंगोला, जांबिया, जिम्बाब्वे, दक्षिण अफ्रीका के कोयला, लौह और तांबा खनन, तेल दोहन, अधोसंरचना के ठेके पर चीनियों का कब्जा है। सबसे ज्यादा शोषण श्रम बाजार में है, जिसकी वजह से चीनियों का व्यापक विरोध हो रहा है। इन इलाकों के बाजार को नियंत्रित करने वाले ढाई लाख चीनी 'येलो मास्टर्सÓ के नाम से जाने जाते हैं। ये येलो मास्टर्स वहीं के कामगारों से जो माल बनाते हैं, उसे 'जिंग-जौंगÓ कहा जाता है, जिसकी कोई गारंटी नहीं होती। तंजानिया के खनन व्यवसाय पर येलो मास्टर्स हावी हैं। वहां से लौह अयस्क निकालने के वास्ते एक चीनी कंपनी ने 2011 में तीन अरब डॉलर का निवेश किया था। कई दूसरी चीनी कंपनियां तंजानिया से जवाहरात, सोना, मैग्नेशियम, कोबाल्ट निकालने के लिए आगे आर्इं। मगर भ्रष्टाचार इतना हुआ कि लोग सरकार के विरुद्ध हो गए। दक्षिण-पूर्वी तंजानिया के बंदरगाह-शहर मतवारा से दार-ए-सलाम तक गैस पाइपलाइन लगाने में जमकर घोटाला हुआ, और आम जनता चीनियों के विरुद्ध सड़कों पर उतर आई। गृहयुद्ध जैसे हालात को दबाने के लिए सरकार को सेना की मदद लेनी पड़ी। सब-सहारा अफ्रीका में कोई दो हजार चीनी कंपनियां कारोबार कर रही हैं। इन्हें देखने के लिए कोई दस लाख चीनी इस इलाके में जम चुके हैं। वाशिंगटन स्थित 'सेंटर फॉर ग्लोबल डेवलपमेंटÓ की रिपोर्ट थी कि 2000 से 2011 तक चीन ने अफ्रीका की सोलह सौ तिहत्तर परियोजनाओं में पचहत्तर अरब डॉलर लगा दिए थे। 2012 में पता चला कि अफ्रीका से चीन दो सौ अरब डॉलर से अधिक का 'ट्रेड वॉल्यूमÓ बढ़ा चुका है, और फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका चीन से काफी पीछे जा चुके थे। लेकिन क्या इससे अफ्रीका के हालात सुधरे? अफ्रीका में कितने बुलेट ट्रेन ट्रैक और स्मार्ट सिटी चीन ने बना दिए? चीन वहां के श्रम बाजार की मिट्टी पलीद कर चुका है। अश्वेत कामगार जबर्दस्त शोषण के शिकार हुए हैं। क्या इससे भारत को सबक लेने की जरूरत नहीं है?