Wednesday 17 April 2019

सलमान खान ने ट्यूबलाइट का बनाया मजाक, कहा-डिप्रेशन में चले गए थे लोग

डाॅ. अरूण जैन

सलमान खान ने हाल ही में अपने करियर और फिल्मों को लेकर कुछ खुलकर बातें की। बता दें कि सलमान की फिल्म ट्यूबलाइट को बॉक्स ऑफिस पर अच्छा रिस्पॉन्स नहीं मिला था। अब हाल ही में एक इंटरव्यू के दौरान सलमान ने ट्यूबलाइट को लेकर बात की। सलमान ने कहा, हमें लगा था कि ट्यूबलाइट एक सुंदर फिल्म होगी। फिल्म बजरंगी भाईजान को मिली अपार तारीफों के बाद, फैन्स ईद पर लोग कुछ अच्छा खुशनुमा देखना चाहते हैं। लेकिन ट्यूबलाइट में वो सभी रो गए थे। वो बिल्कुल ऐसे कह रहे थे कि ये क्या है, ईद ही खराब कर दिया और वो डिप्रेशन में चले गए। सलमान ने आगे कहा, फिल्म भले ही थिएटर पर फेल हो गई, लेकिन डिजिटल प्लेटफॉर्म और टीवी पर फिल्म को अच्छा रिस्पॉन्स मिला। आज जब टीवी और डिजिटल प्लेटफॉर्म पर दर्शकों को फिल्म पसंद आती है तो दर्शक सोचते हैं कि ये फेल कैसे हो गई। इसने देश के बाजार में ही 110 करोड़ रुपये से ऊपर का कारोबार किया था। तो मेरी तो फ्लॉप फिल्में भी वो आंकड़ा ले आती हैं, बहुतों की तो उतनी भी नहीं चली। इसीलिए मैं भाग्यशाली हूं कि इतनी बड़ी हिट फिल्में भी फ्लॉप मानी जाती है। मैं इस आशीर्वाद के लिए शुक्रगुजार हूं। सलमान खान बोले- मैं फिल्मों में किसिंग के लिए नहीं हूं... सलमान खान की फिल्मों में जबरदस्त एक्शन देखने को मिलता है। उनकी फिल्मों में रोमांस तो होता है, लेकिन किसिंग सीन नहीं। सलमान ने हाल ही में ये भी बताया कि वो फिल्मों में किसिंग और न्यूडिटी के लिए नहीं हैं। सलमान ने डीएनए को दिए इंटरव्यू के दौरान कहा, अभी भी जब स्क्रीन पर किसिंग सीन आता है तो हम सभी को अजीब फील होता है। मैं हमेशा अपना ध्यान क्लीन सिनेमा की तरफ रखूंगा। सलमान ने आगे कहा, मैं चाहता हूं कि हमारे बैनर में ऐसी फिल्में हों जिसमें नॉटीनेस, एक्शन, रोमांस हो और सभी साथ बैठकर देख सकें।

अब राफेल में हुए भ्रष्टाचार का केस बिल्कुल क्रिस्टल क्लियर

डाॅ. अरूण जैन

यह पूरी तरह से स्पष्ट हो गया कि अनिल अंबानी ओर फ्रेंच सरकार के बीच किस तरह का लेनदेन हुआ अब हमें यह मानना ही होगा कि 'चौकीदार बहुत बड़का वाला चोर हैंÓ। फ्रांस की मैगजीन रुद्ग रूशठ्ठस्रद्ग ने रॉफेल मामले में अनिल अंबानी ओर तत्कालीन फ्रेंच सरकार की कलई खोल दी। 
आज से पहले हम यह नही जानते थे कि अनिल अंबानी की फ्रांस में पहले से एक रजिस्टर्ड कंपनी है, जिसे 'रिलायंस अटलांटिक फ्लैग फ्रांसÓ कहा जाता है। इस कंपनी की फ्रेंच टैक्स अधिकारियों द्वारा जांच की गई और 2007 से 2010 की अवधि के लिए करों में 60 मिलियन यूरो का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी पाया गया। लेकिन अम्बानी तो अम्बानी ठहरे उन्होंने फ्रांस सरकार से मात्र 7.6 मिलियन यूरो में मामला निपटाने की पेशकश की। अब फ्रांस के राष्ट्रपति तो मोदी जी थे नही तो, फ्रांसीसी कर अधिकारियों ने इस ऑफर को रिफ्यूज कर दिया। उन्होंने एक और जांच की ओर 2010 से 2012 तक की अवधि के लिए पिछले करों के अतिरिक्त 91 मिलियन यूरो की मांग करने लगे। यह मामला थोड़ा लंबा खिंच गया और इधर भारत मे मोदी सत्ता में आ गए और उन्होंने के समय हुई फ्रांस की डसाल्ट कम्पनी के साथ हुई रॉफेल डील को निरस्त कर दिया जिसमें 126 विमान को 590 करोड़ प्रति विमान की कीमत से खरीदा जाना था। मोदी ने डसाल्ट के बजाए सरकार से रॉफेल को खरीदने की पेशकश की अब सिर्फ 36 विमान खरीदने की बात की गयी लेकिन लगभग तिगुनी कीमत यानी 1690 करोड़ देने की पेशकश की गई। फ्रांस के लिहाज से यह सौदा हर हाल में अच्छा था जाहिर था कि तिगुनी कीमत के दिये जाने के पीछे बहुत बड़े निगोशिएशन किए गए थे। पिछले दिनों यह भी सामने आया था कि राफेल डील पर मुहर लगने से पहले अंबानी की रिलायंस एंटरटेनमेंट ने फ्रांसीसी राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद की सहयोगी जुली गायेट के साथ एक फिल्म निर्माण के लिए समझौता किया था। लेकिन आज पता चला है कि अम्बानी की कम्पनी 'रिलायंस अटलांटिक फ्लैग फ्रांसÓ को प्रधानमंत्री मोदी के दौरे के बाद बहुत बड़ी टैक्स छूट मिली। इस नयी राफेल डील के 6 महीने बाद फ्रांस की अथॉरिटीज ने अनिल अंबानी का 143.7 मिलियन यूरो यानी 1,124 करोड़ रुपए से ज्‍यादा का टैक्स माफ कर दिया। 

खुद पर लगे आउटसाइडर टैग से खुश हैं विद्युत जामवाल, कहा- मुझे गर्व है

डाॅ. अरूण जैन

विद्युत जामवाल की फिल्म जंगली रिलीज हो गई है और फिल्म को सही रिस्पॉन्स मिल रहा है। विद्युत के एक्शन की क्रिटिक्स के साथ-साथ दर्शक भी काफी तारीफ कर रहे हैं। विद्युत ने हाल ही में हिन्दुस्तान से खास बातचीत में फिल्म को लेकर कुछ बातें बताईं। कैसे आप इस फिल्म से जुड़े और क्या आपको फिल्म में अच्छा लगा?इस फिल्म के डायरेक्टर हैं चक रसेल जिन्होंने फेमस हॉलीवुड फिल्म मास्क बनाई थी। मैं उनका बहुत बड़ा फैन हूं। उन्होंने कई बड़े एक्शन हीरो के साथ काम किया है तो उनके साथ काम को लेकर मैं काफी एक्साइटेड था। उनका विजन था कि ऐसी फिल्म बनाई जाए जिसमें एंटरटेमेंट हो, कॉमेडी हो और एक्शन हो। तो जब उनका ऑफर मेरे पास आया तो मैं बहुत खुश था। हाथियों के साथ काम करने का कैसा एक्सपीरियंस रहा?आप किसी भी जानवर के साथ टाइम स्पेंड करो चाहे वो हाथी हो, कुत्ता या बिल्ली। आप उनको टाइम दो तो वो आपके साथ अच्छे से रहते हैं। हाथियों के साथ काम करना आसान था, लेकिन मुश्किल था सेट पर लोगों को संभालना क्योंकि कोई आता और हाथी की पूंछ छेड़ता, तो कोई कुछ करता। तो हमें सेट पर सबको समझाना होता था कि कोई भी इन्हें छेड़े ना। फिल्म में जो जानवर थे वो ट्रेन्ड नहीं थे, तो कैसे उनके साथ शूटिंग करते थे?अगर उनको खाना खाने का मन है तो उन्हें खाने दो, पानी पीने का मन है तो पीने दो, नहाने का मन है तो उन्हें नहाने दो। जो उनके मन में आता है उन्हें वो करने दो, इसके बाद जब वो ये सब करके फ्री होते थे तब हम शूटिंग करते थे और उनके साथ काम करना आसान था। आपने जब बॉलीवुड में एंट्री की थी तब आप एक एक्शन हीरो के तौर पर काफी फेमस हुए, लेकिन फिर आपके करियर में ये गैप आया, तो इस गैप के पीछे क्या वजह थी?मैं फिल्म इंडस्ट्री से नहीं हूं, मुझे आउटसाइडर का टैग दिया जाता है और मैं उस टैग को ले लेता हूं क्योंकि मुझे इस पर गर्व है। क्योंकि मैं एक मिडल क्लास से हूं और ये जो सक्सेस है उसे आप कभी कम्पेयर नहीं कर सकते। जो आदमी मर्सिडीज में स्ट्रगल कर रहा है और जो रेगुलर स्ट्रगल कर रहा है उसकी सक्सेस मर्सिडीज वाले से बेहतर है। जो मजा अपनी मां को मेहनत की कमाई से खरीदी मर्सिडीज में घुमाने में है वो बचपन से मर्सिडीज में धूमकर बाद में बड़ी मर्सिडीज को घुमाने में नहीं है। जर्नी मुश्किल थी, लेकिन आपमें टैलेंट है तो मुंबई आपको एक्सेप्ट कर लेगा।

भाजपा के लिए लोकसभा चुनाव मोदी बनाम मोदी ही है

डाॅ. अरूण जैन


नरेन्द्र मोदी चुनाव मैदान में पूरी तरह सक्रिय हो गये हैं। वर्ष 2019 के आम चुनाव में अद्भुत, आश्चर्यकारी जीत के लिये उनके पास सशक्त स्क्रिप्ट है तो उनकी साफ−सुथरी छवि का जादू भी सिर चढ़कर बोल रहा है। चारों ओर से स्वर तो यही सुनाई दे रहा है कि यह चुनाव न तो मोदी बनाम राहुल है, और न ही मोदी बनाम मायावती, अखिलेश या ममता है। बल्कि यह चुनाव मोदी बनाम मोदी ही है। इसलिये भाजपा सरकार एवं मोदीजी के लिये यही वह समय है जिसका आह्वान है अभी और इसी क्षण भाजपा सशक्त भारत निर्मित करने का नक्शा प्रस्तुत करें। यही वह समय है जो थोड़ा ठहरकर अपने बीते दिनों के आकलन और आने वाले दिनों की तैयारी करने का अवसर दे रहा है। लोकसभा चुनाव की सरगर्मियां भाजपा को समीक्षा के लिए तत्पर कर रही है, वही एक नया धरातल तैयार करने का सन्देश भी दे रही है। इस नये धरातल की आवश्यकता क्यों है? क्योंकि सात दशकों के आजादी के सफर में देश ने खोया अधिक है और पाया कम है। अब नया भारत निर्मित करने के लिये नये संकल्प एवं नये धरातल तो चाहिए ही। मोदी सरकार ने यद्यपि बहुत कुछ उपलब्ध किया है, कितने ही नये रास्ते बने हैं। एक नया विश्वास जगा है। भारत मोदी के नेतृत्व में ही विश्व गुरु होने का दर्जा पाएगा। एक आर्थिक महाशक्ति बनेगा, दुनिया में शक्तिमान राष्ट्र होगा। मोदी के पक्ष में लोकप्रियता ने पिछले कुछ महीनों में लंबी छलांग लगाई है। इस बात का प्रमाण ओनिनियन पोल्स, सट्टा बाजार एवं चुनाव से पहले के शेयर बाजार की तेजी हैं। ये तीनों प्रमुख स्रोत यदि मोदी के पक्ष में हैं तो जाहिर है कि वर्ष 2013−14 के चुनाव से पूर्व मोदी लहर के ही इस बार भी और अधिक सशक्त होने के संकेत है। जिस तरह के संकेत 1971 मे इंदिरा गांधी के पक्ष में थे, कुछ वैसा ही इस बार मोदी के पक्ष में है। बालाकोट स्ट्राइक के बाद जाति, धर्म, वर्ग, वर्ण के मसले निस्तेज हो गये हैं, राम मन्दिर की जगह राष्ट्रवाद प्रमुख मुद्दा हो गया है। चुनाव से पहले ही देश ने अंतरिक्ष में एंटी सैटेलाइट का सफल परीक्षण करके दुनिया की चार बड़ी महाशक्तियों में जगह बना दी है। इस तरह मजबूत−सशक्त नेता और सुरक्षा ऐसे मुद्दे हैं, जिन्होंने भाजपा को राष्ट्रव्यापी बढ़त दी है। इन उपलब्धियों के बावजूद भाजपा के लिये यह अवसर जहां अतीत को खंगालने का अवसर है, वहीं भविष्य के लिए नये संकल्प बुनने का भी अवसर है। उसे यह देखना है कि बीता हुआ दौर उसे क्या संदेश देकर जा रहा है और उस संदेश का क्या सबब है। जो अच्छी घटनाएं बीते नरेन्द्र मोदी शासन में हुई हैं उनमें एक महत्वपूर्ण बात यह कही जा सकती है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जनजागृति का माहौल बना− एक  विकास क्रांति का सूत्रपात हुआ, विदेशों में भारत की स्थिति मजबूत बनी। लेकिन जाते हुए वक्त ने अनेक घाव भी दिये हैं, जहां नोटबंदी ने व्यापार की कमर तोड़ दी और महंगाई एक ऐसी ऊंचाई पर पहुंची, जहां आम आदमी का जीना दुश्वार हो गया है। नोटबंदी और जीएसटी ने छोटे उद्योगों को पस्त कर दिया। ये छोटे उद्योग ही रोजगार उत्पन्न करते थे, फलस्वरूप रोजगारों का संकुचन हुआ। रोजगार के संकुचन से आम आदमी की क्रय शक्ति में गिरावट आयी है और बाजार में माल की मांग में ठहराव आ गया है। देश का युवा कैरियर एवं रोजगार को लेकर निराशा को झेल रहा है। मोदी सरकार का शासन कई दृष्टियों से भाजपा को सशक्त करता रहा है। गाय और राममंदिर के मुद्दों पर हिंदू वोट का ध्रुवीकरण करने की कोशिश हुई है। तलाक के नाम पर मुस्लिम महिलाओं के वोटों की दिशा को बदला है। अर्थव्यवस्था को विकसित देशों की तर्ज पर बढ़ाने की कोशिशें की गयी। स्टार्टअप, मेक इन इंडिया और बुलेट ट्रेन की नवीन परियोजनाओं को प्रस्तुति का अवसर मिला। नोटबंदी और जीएसटी को लागू किया गया, भारत में भी डिजिटल इकॉनमी स्थापित करने के प्रयास हुए। भारत की विदेशों में साख बढ़ी। लेकिन घर-घर एवं गांव−गांव में रोशनी पहुंचाने के बावजूद आम आदमी अन्य तरह के अंधेरों में डूबा भी है। भौतिक समृद्धि बटोर कर भी न जाने कितनी तरह की रिक्तताओं की पीड़ा भोग रहा है। गरीब अभाव से तड़पा है तो अमीर अतृप्ति से। कहीं अतिभाव, कहीं अभाव। बस्तियां बस रही है मगर आदमी उजड़ता जा रहा है। भाजपा सरकार जिनको विकास के कदम मान रही है, वे ही उसके लिए विशेष तौर पर हानिकारक सिद्ध हुए हैं। इस पर गंभीर आत्म−मंथन करके ही भाजपा भविष्य का नया धरातल तैयार कर सकेगी। आदिवासी दलित समाज की नाराजगी भी एक अवरोध है। हर बार चुनाव के समय आदिवासी समुदाय को बहला−फुसलाकर उन्हें अपने पक्ष में करने की तथाकथित राजनीति इस बार असरकारक नहीं होने वाली है। क्योंकि आदिवासी−दलित समाज बार−बार ठगे जाने के लिए तैयार नहीं है। देश में कुल आबादी का 11 प्रतिशत आदिवासी है, जिनका वोट प्रतिशत लगभग 23 हैं। क्योंकि यह समुदाय बढ़−चढ़ का वोट देता है। बावजूद देश के आदिवासी−दलित के लिये सरकार कोई ठोस कार्यक्रम नहीं दे पायी। ये समुदाय दोयम दर्जे के नागरिक जैसा जीवन−यापन करने को विवश हैं। यह तो नींव के बिना महल बनाने वाली बात हो गई। भाजपा सरकार को आदिवासी−दलित हित और उनकी समस्याओं को हल करने की बात पहले करनी होगी।  भारत में अमीर देशों की पॉलिसी लागू करने से भारत की अर्थव्यवस्था बिगड़ गई है। अब भाजपा को कुछ ऐसे मौलिक कदमों को उठाने की रूपरेखा प्रस्तुत करनी होगी जिनसे अर्थव्यवस्था को दीर्घ स्तर पर नई दिशा मिले, जनता को संतुष्ट किया जा सके और आम आदमी का खोया विश्वास पुन: हासिल किया जा सके। जीएसटी से जुड़ी जटिलताओं को दूर करना होगा, क्योंकि इसी से जुड़ा रोजगार का मुद्दा है। रोजगार सृजन में ठहराव का यह प्रमुख कारण है। किसानों से जुड़ी समस्याओं पर भी केन्द्र सरकार को गंभीर होना होगा। धर्म से जुड़े मुद्दे भी सरकार के लिये घातक सिद्ध हुए हैं, उनके प्रति व्यावहारिक एवं उदार दृष्टिकोण अपनाना होगा। गंगा पर जहाज चलाने की योजनाओं पर भी पुनर्विचार अपेक्षित है। क्योंकि भारत में गंगा को मां माना जाता है।

Tuesday 16 April 2019

फिल्म देखने से पहले पढ़ें कैसी है मर्द को दर्द नहीं होता

डाॅ. अरूण जैन
बॉलीवुड फिल्मों को नएपन के आधार पर दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है। -पहली वो, जिनकी मूल विषयवस्तु परंपरागत होती है और जिनमें कुछ नएपन के मसाले छिड़के गए होते हैं। और दूसरी वो, जिनकी मूल विषयवस्तु नएपन और अनूठेपन से लबरेज होती है और उनमें कुछ बॉलीवुड के परंपरागत मसाले छिड़के गए होते हैं। फिल्म 'मर्द को दर्द नहीं होताÓ दूसरी श्रेणी की फिल्म है। इसके 'मर्दÓ यानी हीरो सूर्या (अभिमन्यु दासानी) को सचमुच दर्द नहीं होता। इसका कारण प्रचलित मुहावरा नहीं बल्कि 'कॉनजेनिटल इनसेंसिविटी टू पेनÓ नामक बीमारी है। उसे कितना भी मार लो, पीट लो, नुकीली चीज चुभो दो- उसे कुछ महसूस नहीं होता। इस अजीब स्थिति के चलते उसे मारने वाले झल्ला जाते हैं। कभी-कभार वह पीटने वालों को चिढ़ाते हुए दर्द न होने के बावजूद 'आउचÓ बोल देता है। सूर्या के मन में यह बात घर कर जाती है कि यह बीमारी एक सुपरपावर की तरह है। इस सुपरपावर को और पुख्ता बनाने के लिए वह मार्शल आर्ट सीखना चाहता है, ताकि सही वक्त आने पर दुश्मनों को मजा चखाना चाहता है। उसकी सबसे अच्छी दोस्त सुप्री (राधिका मदान) हर कारस्तानी में उसका साथ देती है। इस बीच हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि दोनों अलग हो जाते हैं। सूर्या को उसके दादाजी (महेश मांजरेकर) और पिता (जिमित त्रिवेदी) दुनिया से छुपाकर बड़ा करते हैं। पुरानी अंगे्रजी-हिंदी एक्शन फिल्में देख-देख कर सूर्या मार्शल आर्ट के कौशल सीखता है। एक कैसेट में वह मार्शल आर्ट विशेषज्ञ मणि (गुलशन देवैया) को देखता है और उसका मुरीद हो जाता है। एक पैर से लाचार होने के बावजूद मणि मार्शल आर्ट में अकेले 100 लोगों को हरा चुका है। मन ही मन सूर्या उसे अपना गुरु मान लेता है। इन्हीं गुरु का लाल चश्मे वाला हमशक्ल भाई जिमी (गुलशन देवैया) कहानी का विलेन है, जो एक बड़ी सिक्योरिटी कंपनी चलाता है। पीठ पर पानी की बोतल वाला बैगपैक, आंखों में मोटा चश्मा चढ़ाए अभिमन्यु ने इस किरदार के लिए जो मेहनत की है, वह फिल्म में नजर आई है। आत्मविश्वास भी उनमें गजब का है। पर उनके किरदार की कुछ कमियां भी हैं। माना कि वह शारीरिक दर्द नहीं महसूस कर सकते, लेकिन भावनात्मक रूप से  'सुन्नÓ क्यों नजर आते हैं? उदाहरण के तौर पर, अपनी मां को याद करते हुए वह कई डायलॉग बोलते हैं, पर इन्हें बोलते समय उनका चेहरा भावहीन सा रहता है। राधिका मदान को फिल्म 'पटाखाÓ के बाद एक ग्लैमरस किरदार में देखना अच्छा लगता है। फिल्म में उनकी एंट्री बेहद धमाकेदार तरीके से होती है। गुलशन देवैया का डबल रोल था और दोनों ही भूमिकाओं के साथ उन्होंने पूरा न्याय किया है। वह एक मंझे हुए अभिनेता हैं। जिमित त्रिवेदी ने 'ओह माई गॉडÓ के बाद इस फिल्म में भी अच्छा काम किया है। सूर्या और उसके सख्त पिता (जिमित) के बीच बिचौलिये की भूमिका निभाते दादाजी की भूमिका में महेश मांजरेकर ने जान डाल दी है। उनके हिस्से में कुछ बहुत रोचक संवाद आए हैं। फिल्म में एक्शन और कॉमेडी का सही संतुलन है, हालांकि यह कुछ छोटी हो सकती थी। वासन बाला का निर्देशन सधा हुआ है। गीत-संगीत औसत है। सिनेमैटोग्राफी अच्छी है। प्रयोगधर्मी सिनेमा पसंद करने वालों को यह फिल्म अच्छी लगेगी। कुछ लोग इसे 'डेडपूल का भारतीय संस्करणÓ भी कह रहे हैं।

असली महानायकों की दास्तान है केसरी

डाॅ. अरूण जैन
12 सितंबर 1897 को तत्कालीन भारत के नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रांत (अब पाकिस्तान का खैबर पख्तुनवा प्रांत) में हुई ह्यसारागढ़ी की लड़ाई भारत ही नहीं, विश्व इतिहास की सबसे गौरवपूर्ण गाथाओं में से एक है। सुबह से शाम तक चली इस लड़ाई सिख सैनिकों ने जिस शौर्य का प्रदर्शन किया था, वह अतुलनीय है। सिर्फ इक्कीस सिख सिपाहियों ने दस हजार से ज्यादा अफगानों को तब तक रोके रखा, जब तक कि आखिरी सिपाही नहीं शहीद हो गया। इस लड़ाई में 21 सिख सैनिक और करीब 600 अफगान मारे गए थे। दो दिन बाद ब्रिटिश भारतीय फौज की एक दूसरी टुकड़ी ने अफगानों को खदेड़ कर सारागढ़ी पर फिर से कब्जा कर लिया था। लेकिन क्या विडंबना है कि शौर्य की इस महान गाथा के बारे में अधिकांश भारतीयों को पता नहीं है। इसमें दोष उनका नहीं है। दरअसल, सारागढ़ी में तैनात ब्रिटिश भारतीय सेना के ह्य36 सिख बटालियन के इस गौरवशाली इतिहास को भारत के आधुनिक इतिहासकारों ने वह महत्व नहीं दिया, जो इसे मिलना चाहिए था। इस लड़ाई में शहीद सभी 21 सिख सैनिकों (नॉन-कमीशंड ऑफिसर) को तब मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार ह्यइंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट से सम्मानित किया गया, जो विक्टोरिया क्रॉस और अब के परमवीर चक्र के समकक्ष था।  अनुराग सिंह निर्देशित अक्षय कुमार की ह्यकेसरीö इस इतिहास के प्रति युवा पीढ़ी में उत्सुकता जगाने का काम कर सकती है। जाहिर है, लोकप्रिय धारा के बड़े फिल्मकार अमूमन किसी भी कहानी को बड़े पर्दे पर पेश करने का साहस तभी लेते हैं, जब उन्हें कहानी में व्यावसायिक संभावनाएं नजर आती हैं। ह्यकेसरीö को बनाने के पीछे भी यह गणित होगा, इसके बावजूद इस फिल्म के निर्माता-निर्देशक बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने एक ऐसी घटना को पर्दे पर लाने का फैसला किया, जो एक भारतीय के रूप में हमें गौरवान्वित होने का अवसर देती है। बहरहाल, अब बात फिल्म की। हवलदार ईशर सिंह (अक्षय कुमार) और उसका साथी गुलाब सिंह (विक्रम कोचर) नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रांत के गुलिस्तान फोर्ट में तैनात है, जो अफगानिस्तान और भारत की सीमा पर स्थित है। इस फोर्ट पर कब्जा करने के लिए समय-समय पर अफगान धावा बोलते रहते हैं, लेकिन हर बार नाकाम हो जाते हैं। एक दिन सीमा पार एक मौलवी (राकेश चतुर्वेदी) के नेतृत्व में कुछ अफगान एक औरत (तोरांज केवोन) को मौत की सजा दे रहे हैं, क्योंकि वह अपने पति को छोड़ कर भागने की कोशिश करती है। ईशर सिंह से यह देखा नहीं जाता है और वह अपने अंग्रेज अफसर के आदेश की अवहेलना करके उस औरत की रक्षा करता है। इस बेअदबी की वजह से उसका ट्रांसफर सारागढ़ी कर दिया जाता है। सारागढ़ी फोर्ट का इस्तेमाल गुलिस्तान फोर्ट और लोकार्ट पोस्ट के बीच संपर्क पोस्ट के रूप में किया जाता है। ईशर सारागढ़ी आकर पोस्ट के इंचार्ज का कार्यभार संभालता है। उधर ईशर के कारनामे से भड़का मौलवी अफगान सरदारों गुल बादशाह खान (अश्वत्थ भट्ट) और खान मसूद (मीर सरवर) को एक साथ मिल कर सारागढ़ी, गुलिस्तान और लोकार्ट फोर्ट पर हमला करने के लिए तैयार कर लेता है। 12 सितंबर 1897 को दस हजार से ज्यादा अफगान सारागढ़ी पहुंच जाते हैं और सिख सैनिकों से सरेंडर करने के लिए कहते हैं। सहायता के लिए सारागढ़ी से लोकार्ट संदेश भेजा जाता है, लेकिन 36 सिख बटालियन को तत्काल सहायता नहीं मिल पाती। फिर ईशर सिंह के नेतृत्व में सिख सिपाही आखिरी दम तक लडऩे का फैसला करते हैं। ईशर सिंह अपनी पुरानी पगड़ी उतार कर केसरी पगड़ी पहन लेता है, क्योंकि केसरी शौर्य का प्रतीक है। फिल्म की स्क्रिप्ट बहुत अच्छी तरह से लिखी गई है। इस पर काफी शोध किया गया है। एक पोस्ट से दूसरे पोस्ट तक संदेश भेजने के लिए जिस पद्धति का इस्तेमाल किया गया है, वह प्रामाणिक लगता है। लेखक गिरीश कोहली और निर्देशक अनुराग सिंह ने हर पात्र को उभरने का पूरा मौका दिया है। किरदारों को अच्छी तरह से गढ़ा गया है। कहानी में शौर्य के साथ भावनाओं को इस तरह बुना गया है कि वह दर्शकों के दिलों में घर कर जाती है। इस फिल्म में हल्के-फुल्के क्षण भी हैं, जो एकरसता को तोड़ते हैं और गुदगुदाते हैं। हालांकि फिल्म में कुछ चीजें अस्वाभाविक भी लगती हैं, पर अखरती नहीं हैं। अक्षय कुमार के कुछ एक्शन दृश्यों में ह्यबॉलीवुडिया शैली की छाप साफतौर पर दिखती है। इस फिल्म की एक और खासियत है कि इसमें कहीं भी दो सांप्रदायिक वैमनस्य की बात नहीं की गई है। निर्देशक संतुलित अंदाज में अपनी बात को कहने में सफल रहे हैं। हालांकि इस ऐतिहासिक फिल्म में सिनेमाई छूट ली गई है, फिर भी सारागढ़ी की लड़ाई का चित्रण प्रामाणिक लगता है। गीत-संगीत, सेट, बैकग्राउंड संगीत, संवाद बिल्कुल फिल्म के मिजाज के मुताबिक हैं। बैकग्राउंड में जब गुरुगोविंद सिंह द्वारा रचित ह्यदे वर मोहे शिवा निश्चय कर अपनी जीत करूंö बजता है, तो थियेटर में एक अलग तरह का वातावरण निर्मित हो जाता है। फिल्म की सिनमेटोग्राफी शानदार है। हालांकि फिल्म की लंबाई थोड़ी कम रखी जा सकती थी। निर्देशक अनुराग सिंह पंजाबी फिल्मों का बड़ा नाम हैं। उन्होंने पंजाबी में पंजाब 1984 और जट्ट एंड जूलियट सिरीज जैसी बड़ी हिट फिल्में निर्देशित की हैं। वह हिन्दी में भी कीब (2007) और ह्यदिल बोले हड़ीप्पा (2009) जैसी अति साधारण और असफल फिल्में निर्देशित कर चुके हैं। लेकिन वे बतौर निर्देशक ह्यकेसरी में एक अलग छाप छोड़ते हैं। अक्षय कुमार का अभिनय बेहतरीन हैं। उनका गेटअप भी शानदार है। वे पूरी तरह ईशर सिंह लगते हैं। वैसे गेटअप सारे किरदारों का बढिय़ा है। यह अक्षय का अब तक का सबसे बढिय़ा अभिनय है। मौलवी के रूप में राकेश चतुर्वेदी का अभिनय भी याद रह जाता है। फिल्म में जितने भी और कलाकार हैं, वह भी अपने किरदारों के साथ न्याय करते हैं। ह्यकेसरी को देखने के बाद जब हम सिनेमाहॉल से बाहर निकलते हैं, तो जेहन में अनायास ही ये पंक्तियां गूंजने लगती हैं- ह्यसूरा सो पहचानिए, जो लड़े दीन के हेत/ पुर्जा पुर्जा कट मरे कबहुं न छाड़े खेत। निश्चित रूप से यह फिल्म अपनी बात दर्शकों तक पहुंचाने में कामयाब है। एक कालजयी गाथा पर बनी यह फिल्म सिनेमाई श्रेष्ठता की दृष्टि से भले एक कालजयी फिल्म न हो, लेकिन उत्कृष्ट जरूर है। सिनेमा में अगर आपकी ज्यादा रुचि न हो, तो भी आपको यह फिल्म देखनी चाहिए।

ऑपरेशन बालाकोट के बाद अब ऑपरेशन बहावलपुर ?

डाॅ. अरूण जैन

खुफिया एजेंसियों के दावों को सही माना जाए तो पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आइएसआइ ने जैश के मुखिया मसूद अजहर को बहावलपुर में ही छुपा रखा है। ऐसे में कोई बड़ी बात नहीं है कि ऑपरेशन बहावलपुर भारतीय सेना के ऑपरेशन बालाकोट का पार्ट टू हो जाए। पाकिस्तान को भी डर इस बात का है कि जैश के हैडक्वार्टर को ध्वस्त करने के लिए भारत फिर से यहां सर्जिकल और एयर स्ट्राइक कर सकता है। इसी डर से घबराया पाकिस्तान श्रीगंगानगर जिले से सटी 210 किलोमीटर लंबी भारत-पाक अंतरराष्ट्रीय सीमा के इस पार सैन्य गतिविधियों की टोह लेने के लिए बार-बार ड्रोन उड़ा रहा है। लेकिन भारतीय सेना की मुंहतोड़ कार्रवाई के चलते उसके नापाक मंसूबों पर लगातार पानी फिर रहा है। विदित रहे कि श्रीगंगानगर के सीमावर्ती कस्बे अनूपगढ़ से बहावलपुर की दूरी मात्र 170 किलोमीटर है। सरकार और सेना ने अपने बयानों में इसके संकेत भी दिए हैं।  सेना अगर इस ऑपरेशन को अंजाम देती है तो इसके लिए श्रीगंगानगर जिले से सटी भारत-पाक सीमा पर उसे अपने सुरक्षा कवच को मजबूत करना होगा, ताकि ऑपरेशन की पीड़ा से बिलबिला कर पाकिस्तान जवाबी कार्रवाई करे तो उसका भी मुंहतोड़ जवाब दिया जा सके। इस ऑपरेशन की गतिविधियों की टोह लेने के लिए पाकिस्तानी ड्रोन लगातार भारतीय सीमा का उल्लंघन कर रहे हैं। सेना का मानना है कि पाकिस्तान ड्रोन के माध्यम से जो जानकारी जुटाना चाहता है, उसमें उसे सफलता नहीं मिली और इसीलिए वह इस इलाके में बार-बार ड्रोन भेज रहा है। ठिकाने पर कड़ा पहरा भारतीय सेना की ओर से आपरेशन बहावलपुर की आशंका के चलते पाकिस्तान ने बहावलपुर में रेलवे रोड स्थित जैश-ए-मोहम्मद के हैडक्वार्टर पर कड़ा पहरा बैठा दिया है। सेना के साथ वहां पुलिस भी तैनात है और किसी भी अंजान व्यक्ति को भीतर नहीं जाने दिया जाता। शैतान का दिन, शैतान पर फैसला 13 के अंक को पश्चिमी देशों में शैतानों का दिन मान जाता है। गुरुवार को 13 तारीख यानी शैतानों का दिन है और इसी दिन संयुक्त राष्ट्र संघ में जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को ग्लोबल आतंकी घोषित करने पर फैसला होना है। मसूद को लेकर पाकिस्तान के डर का मुख्य कारण यह भी है कि उसे ग्लोबल आतंकी घोषित कर दिया गया तो भारत के लिए ऑपरेशन बहावलपुर को अंजाम तक पहुंचाना आसान हो जाएगा। पाकिस्तान पोषित आतंकवाद से परेशान ईरान भी इस ऑपरेशन में भारत का मददगार हो सकता है। इस फैसले का असर- ग्लोबल आतंकी घोषित होने पर मसूद अजहर यात्रा नहीं कर पाएगा।- उसके हथियार खरीदने पर रोक लग जाएगी।-

चुनाव होंगे बेहद दिलचस्प, जानिये क्या कहता है कांग्रेस का सर्वे!

डाॅ. अरूण जैन


लोकसभा चुनाव 2019 को लेकर सभी पार्टियां अपने अपने स्तर पर तैयारियां करने में जुटी हुई हैं। इन्हीं सब के बीच एक बड़ी सूचना सामने आ रही है, जिसके अनुसार अचानक कांग्रेस ने सर्वे रिपोर्ट के आधार पर बड़े नेताओं के संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों में फेरबदल कर सकती है। जिसके बाद अब मध्यप्रदेश सहित देश के कुछ जगहों पर चुनाव बहुत ही दिलचस्प हो सकते हैं। सामने आ रही सूचना के अनुसार ज्योतिरादित्य सिंधिया इस बार गुना की जगह ग्वालियर लोकसभा सीट से खड़े हो सकते हैं। उन्हें गुना में अनुकूल चुनावी परिस्थितियां नहीं दिख रही हैं। वहीं ग्वालियर में भाजपा एक लंबे समय से अपनी मजबूती बनाई हुई है और ऐसे में भाजपा हर कीमत पर इस सीट को बचाने की कोशिश करेगी। जबकि ज्योतिरादित्य को काफी हद तक जनता आज भी महाराज मानती है। ऐसे में ग्वालियर में होने वाली भाजपा कांग्रेस की भिडंत कई मामलों में दिलचस्प हो सकती है। सर्वे रिपोर्ट ने सिंधिया को चौंका दिया है। गुना में अंदरूनी विरोध से नुकसान होने की आशंका को देखते हुए सिंधिया अब ग्वालियर जा सकते हैं। अभी तक सिंधिया और उनकी पत्नी प्रियदर्शिनी सिंधिया ने गुना संसदीय क्षेत्र में फोकस कर रखा था। संभावना जताई जा रही है कि राहुल गांधी से चर्चा के बाद सिंधिया ग्वालियर से उतरेंगे। वहीं दूसरी ओर इस बार कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का मुकाबला भी अलबेला माना जा रहा है। दरअसल अमेठी नेहरू-गांधी परिवार का गढ़ रहा है। 1967 से अब तक सिर्फ एक बार जनता पार्टी और एक बार भारतीय जनता पार्टी को अमेठी में जीत नसीब हुई है। सपा-बसपा ने इस बार अमेठी सीट कांग्रेस के लिए छोड़ दी है। 2014 के चुनाव में केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी भले ही अमेठी से चुनाव हार गई थीं, पर वे यहां सक्रिय हैं। इस सीट पर वर्तमान सांसद व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और स्मृति ईरानी के बीच टक्कर की संभावना है। सीट की वर्तमान राजनीतिक स्थिति कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी वर्तमान में अमेठी से सांसद हैं। इससे पहले भी वह दो बार इस सीट से सांसद चुने गए। 2014 के बाद राहुल गांधी आधा दर्जन से अधिक बार अमेठी आ चुके हैं।

अमित शाह को रास नहीं आया 350 करोड़ में बना नया ऑफिस

डाॅ. अरूण जैन

भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह को करीब 350 करोड़ रुपए की लागत से बना नया दफ्तर पसंद नहीं आया है। उन्हें और पार्टी के बाकी वरिष्ठ नेताओं को इसमें वास्तु दोष होने का संदेह है। बीजेपी का मानना है कि नए दफ्तर में आने के बाद से उसके दिन कुछ ठीक नहीं चल रहे। ध्यान देने वाली बात है कि बीते पार्टी को कई चुनावों में हार का सामना करना पड़ा था। ऐसे में शाह अब पुराने दफ्तर में ही बैठेंगे, जिसकी साज-सज्जा का काम जोरों पर है। बीजेपी का नया हाईटेक दफ्तर नई दिल्ली में 6ए, दीन दयाल उपाध्याय मार्ग पर है। 18 फरवरी, 2018 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका उद्घाटन किया था और तभी 34 सालों बाद पार्टी का पता बदला था। दो एकड़ में फैले इस नए दफ्तर में सात मंजिलें, 70 से अधिक कमरे और 200 से अधिक गाडिय़ों की पार्किंग क्षमता है। शाह ने इसे लेकर दावा किया था कि दुनिया में किसी भी राजनीतिक पार्टी का इतना बड़ा दफ्तर नहीं है। इन दिनों यह पार्टी को कतई रास नहीं आ रहा। सूत्रों के हवाले से 'अमर उजालाÓ की एक रिपोर्ट में कहा गया कि शाह का पुराना दफ्तर (11, अशोक रोड) नए सिरे से तैयार कराया जा रहा है। वह उसी में बैठेंगे। बीजेपी नेताओं ने इस बारे में अखबार से कहा कि उनका वॉर रूम पुराने दफ्तर में ही है, लिहाजा निगरानी के लिए शाह वहीं बैठेंगे। हालांकि, कुछ बैठकों के लिए वह नए दफ्तर भी जाएंगे। शाह इससे पहले भी पार्टी दफ्तर में वास्तु दोष ठीक करा चुके हैं। उन्होंने वहां नया गेट लगवाने के साथ कुछ और छोटे-मोटे फेरबदल भी कराए थे।

फिल्म देखने से पहले जरूर पढ़ें कैसी है बदला

डाॅ. अरूण जैन
क्या मैं वो 6 देख रहा हूं जो मुझे देखना चाहिए था, या वो 9 जो मुझे देखना चाहिए था?कॉरपोरेट व्यवसायी नैना सेठी (तापसी पन्नू) के वकील बादल गुप्ता (अमिताभ बच्चन) जब उससे यह सवाल पूछते हैं, तो कहीं न कहीं यह सवाल सिर उठाता है कि क्या नैना सचमुच अपने ही वकील से झूठ बोल रही है? और अगर बोल रही है तो क्यों बोल रही है? बादल, जो रिटायर होने वाले हैं और आज तक एक भी केस नहीं हारे, क्या चौतरफा घिरी नैना को कानून के शिकंजे से बचा पाएंगे?इन सवालों को सुनकर हो सकता है आपको लगे कि इस फिल्म में भी फिल्म 'पिंकÓ सरीखा कोर्टरूम ड्रामा देखने को मिलेगा! हालांकि ऐसा नहीं है। फिल्म 'बदलाÓ लगभग पूरी तरह नैना और उनके वकील बादल के बीच एक कमरे के अंदर हुई बातचीत है। इस बातचीत में ब्रेक या तो उन घटनाक्रमों से आता है जिनके बारे में नैना बताती है, या उन परिस्थितियों से, जिनकी कल्पना बादल करते हैं। इस प्लॉट में रोमांच तो भरपूर है, पर पर्याप्त सस्पेंस की कमी कुछ अखरती है। इसलिए भी, कि इसे सुजॉय घोष ने निर्देशित किया है जिनकी फिल्म 'कहानीÓ और लघु फिल्म 'अहिल्याÓ में रोमांच और रहस्य का एक जबर्दस्त संतुलन था। जो कहानी नैना बादल को सुनाती है, उसके हिसाब से, उनका अर्जुन (टोनी ल्यूक) नाम के फोटोग्राफर के साथ अफेयर चल रहा था जिसकी भनक किसी अंजान शख्स को लग गई थी। वह अंजान शख्स नैना और अर्जुन को ब्लैकमेल कर रहा था। उसने दोनों को एक होटल के कमरे में बुलाया जहां नैना के सिर पर किसी ने वार किया। जब वह होश में आई, तो अर्जुन की मौत हो चुकी थी। इसके बाद पुलिस ने नैना को गिरफ्तार कर लिया था और उसके पति ने भी उसे छोड़ दिया था। मुश्किल की इस घड़ी में नैना का वकील दोस्त (मानव कौल) बेहद सफल और अनुभवी वकील बादल गुप्ता (अमिताभ बच्चन) से नैना का केस लडऩे के लिए कहता है। कहानी के बारे में इससे ज्यादा बताना नाइंसाफी होगी। अंत में फिल्म भयावह सच उजागर करती है। इंटरवेल से बाद का हिस्सा, पहले हिस्से से ज्यादा कसा हुआ और रोचक है। इसका क्लाइमैक्स (अंत) तो इसकी जान है। 'बदलाÓ, स्पैनिश फिल्म 'दि इनविसिबल गेस्टÓ से प्रेरित है। दोनों फिल्मों में मुख्य फर्क यह है कि 'बदलाÓ में कत्ल का इल्जाम एक महिला (तापसी पन्नू) पर है, जबकि 'दि इनविसिबल गेस्टÓ में यह एक पुरुष (मारियो सिएरा) पर था। फिल्म को भारतीय दर्शकों के अनुरूप बनाने के लिए अमिताभ के संवादों में महाभारत के संदर्भ शामिल किए गए हैं। निर्देशन के साथ-साथ सुजॉय घोष ने फिल्म का स्क्रीनप्ले लिखा है और राज वसंत के साथ कहानी भी लिखी है। फिल्म के दौरान कोई गाना नहीं दिखाया जाता(जिसकी जरूरत थी भी नहीं)। एक्टिंग के मामले में अमिताभ बच्चन और तापसी पन्नू दोनों ने अच्छा काम किया है, हालांकि इसे बहुत यादगार नहीं कहा जा सकता। तापसी के प्रेमी बने मलयालम एक्टर टोनी ल्यूक फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी साबित होते हैं जिनकी न तो तापसी संग कोई केमिस्ट्री नजर आती है, न ही वह प्रभावी तरीके से संवाद अदायगी कर पाते हैं। उन्हें ठीकठाक  लंबाई वाला रोल मिला है, बावजूद इसके वह ज्यादातर दृश्यों में सहमे-सहमे से नजर आते हैं। हिंदी बोलते वक्त उनका दक्षिण भारतीय लहजा भी फिल्म के मूड के लिहाज से कुछ अखरता है। फिल्म में अमृता सिंह भी हैं जो काफी प्रभावित करती है। अविक मुखोपाध्याय की सिनेमेटोग्राफी शानदार है। मोनिषा आर बलदावा का संपादन भी कसा हुआ है। अंत में, फिल्म का संवाद- बदला लेना हर बार सही नहीं नहीं होता। पर माफ कर देना भी हर बार सही नहीं होता... बहुत कुछ कहता है, बल्कि यही फिल्म का सार है।

राजनेता सेना को भी नहीं बख्शते

डाॅ. अरूण जैन
भारतीय सेना के पराक्रम पर जो लोग सवालिया निशान उठा रहे हैं उनको शर्म आनी चाहिये। सैनिकों ने जो पराक्रम पाकिस्तान में घुसकर दिखाया और आतंकियों के ठिकानों को नष्ट किया उस पर अब राजनीतिक लोग अपनी-अपनी रोटियां सेंकने पर लगे हैं कोई मारे गये आतंकियों की सख्या जानना चाहता है तो कोई उस पर सबूत चाहता है कि आतंकियों के ठिकानों पर सर्जिकल स्ट्राइक हुई या केवल जंगलों को ही नुकसान पहुँचाया गया। मानने की यह बात है कि यदि सेना ने आतंकियों को नुकसान नहीं पहुँचाया तो पाकिस्तान ने भारत में लड़ाकू विमान एफ-16 से भारतीय सीमा पर बमबारी क्यों की और सैन्य ठिकानों को क्यों निशाना बनना चाहता था। जब भारतीय सेना ने एयर स्ट्राइक की थी उसके दूसरे दिन ही पाकिस्तान ने एफ-16 लड़ाकू विमान से भारतीय सीमा में घुसकर बमबारी शुरू की थी तभी विंग कमांडर अभिनंदन ने पाकिस्तान का लड़ाकू विमान एफ-16 मार गिराया था और उनका विमान मिराज-2000 भी दुर्घटनाग्रस्त हो गया था जिसके चलते पाकिस्तानी नागरिकों ने अभिनंदन को पकड़ लिया था और उनको काफी मारा-पीटा था। जिसका वीडियो भी बहुत तेजी से वायरल हुआ था। बाद में वहाँ की सेना ने अपने कब्जे में लेकर अभिनंदन से पूछताछ भी की थी जिसका भी वीडियो आया था। केंद्र सरकार ने पाकिस्तान पर दबाव बनाया था तभी विंग कमांडर अभिनंदन को पाकिस्तान सरकार रिहा करने पर मजबूर हुई थी।  इन सब के बीच भारतीय सेना के शौर्य पर राजनीतिक उठापटक चालू हो गयी। सबसे पहले एयर स्ट्राइक के दूसरे दिन ही उमर अब्दुल्ला ने वायुसेना पर सवाल उठाया था कि जो एयर स्ट्राइक की गयी है वह बालाकोट भारतीय हिस्से में है। जबकि भारतीय सीमा से सटा हुआ बालाकोटे है न कि पाकिस्तान वाला बालाकोट। यह सरकार को बताना पड़ा था कि यह बालाकोट पाकिस्तान वाला है। इसके बाद उनका कोई बयान नहीं आया। बिना जानकारी के ऐसी बयानबाजी नेताओं की आदत-सी हो गई है। वहीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने मोदी सरकार से एयर स्ट्राइक के सबूत मांग लिये और यह भी कहा कि एयर स्ट्राइक के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कोई सर्वदलीय बैठक नहीं बुलाई व इस ऑपरेशन की जानकारी विपक्ष को भी नहीं साझा की। मोदी सरकार से जवाब मांगा गया कि इस ऑपरेशन से कहाँ बम गिराए गए और कितने लोग उसमें मारे गए। वहीं नवजोत सिंह सिद्धू पुलवामा हमले के बाद भी पाकिस्तान से वार्ता की बात कह रहे थे और जब प्रधानमंत्री ने पुलवामा हमले के बाद विपक्ष की सर्वदलीय बैठक में सभी से पाकिस्तान के खिलाफ सहमति मांगी तो सभी उनके पक्ष में रहे और सभी ने एक सुर में पाकिस्तान के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग भी की थी। तब सिद्धू भी सुर में सुर मिला रहे थे लेकिन जब भारतीय विंग कामंडर को पाकिस्तान छोडऩे के लिए मजबूर हो गया तब इमरान की दरियादिली की बात करने लगे। फिर वार्ता का सुर अलापना शुरू कर दिया। बाद में सिद्धू भी सेना की कार्रवाई का सुबूत मांगने लगे कि इस कार्रवाई में कितने आतंकी मरे उसकी जानकारी साझा की जाये। गौरतलब है कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने भी भारतीय सेना के पराक्रम को न देखते हुए एयरस्ट्राइक का सुबूत मांगने लगे। उन्होंने अमेरिका का हवाला देते हुए कहा कि ओसामा बिन लादेन के खिलाफ जब अमेरिका ने कार्रवाई की थी तब उन्होंने सैटेलाइट के जरिये तस्वीरें साझा की थीं। उन्होंने यह भी कहा था कि यह तकनीकी का युग है ऐसे में सैटेलाइट के माध्यम से सारी तस्वीरें सामने आ जाती हैं। अगर देखा जाये तो जब कांग्रेस की केन्द्र में सरकार थी तब भी तो सैटेलाइट था तब भी तो आतंकी हमले होते थे तब क्यों सैटेलाइट का इस्तेमाल नहीं किया गया। आज जो लोग इन कार्रवाई पर सवालिया निशान उठाकर राजनीतिक फायदा लेना चाहते हैं उन्हें यह भी देखना चाहिये कि दूसरे देश क्यों भारत का साथ देने के लिए तैयार हैं। ईरान भी तो मुस्लिम देश है फिर पाकिस्तान के आतंकवाद को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए क्यों कह रहा है और उसने भारतीय सेना जैसी कार्रवाई करने की चेतावनी तक दे डाली है।  बता दें 13 फरवरी को पाकिस्तान से सटी ईरान के सिस्तान बलूचिस्तान सीमा में एक आत्मघाती हमले में ईरानी रिवोल्यूशनरी गार्ड के 27 जवान शहीद हो गए थे। इसी के चलते कुर्द सेना के कमांडर जनरल कासिम सोलेमानी ने कहा था कि अगर पाकिस्तान ने अपनी जमीन पर पनप रहे आतंकवाद को खत्म नहीं किया तो उन्हें गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं और पाकिस्तान से सवाल भी किया कि आप किस ओर जा रहे हैं ? आपने सभी पड़ोसी देशों की सीमा पर अशांति फैलाई हुई है ऐसा कोई पड़ोसी देश बचा नहीं जहाँ असुरक्षा न फैलाई गयी हो। वहीं राजनीतिक लोगों का निशाना बनने के कारण भारतीय वायुसेना प्रमुख बीएस धनोआ को आखिरकार प्रेस के सामने आना पड़ा। सभी सवालों को उन्होंने बहुत ही सटीक जवाब भी दिया। उन्होंने बहुत ही कम शब्दों में अच्छा जवाब दिया। उन्होंने कहा, वायुसेना मरने वालों की गिनती नहीं करती और बालाकोट आतंकी शिविर पर हवाई हमले में हताहत लोगों की संख्या की जानकारी सरकार देगी। मरने वालों की संख्या लक्षित ठिकाने में मौजूद लोगों की संख्या पर निर्भर करती है। वायु सेना प्रमुख ने यह भी बताया कि यदि जंगल में बम गिरते तो पाकिस्तान क्यों जवाबी हमला करता।  वहीं इसी खींचतान के बीच एनटीआरओ (नेशनल टेक्निकल रिसर्च ऑर्गनाइजेशन) ने बड़ा खुलासा किया था कि सर्विलांस के मुताबिक बालाकोट स्थित जैश-ए-मोहम्मद के कैम्प में जब भारतीय सेना ने एयर स्ट्राइक की थी तब वहाँ करीब 300 मोबाइल फोन एक्टिव थे। अब इसको लेकर भी राजनीति हो सकती है। वहीं पाकिस्तान ने अपने लड़ाकू विमान एफ-16 से तो घुसपैठ की ही थी साथ ही ड्रोन से भारतीय सीमा पर भी जानकारियां इक_ा करने में जुटा था। 26 फरवरी को भारतीय सेना ने पाक सीमा से सटे कच्छ के अबडासा के निकट घुसे एक पाकिस्तानी ड्रोन को मार गिराया था। जिसके दो टुकड़े वहाँ के ग्रामीणों को मिले थे। इतना ही नहीं 4 मार्च को सुखोई 30एमकेआई विमान ने पाकिस्तानी ड्रोन को मार गिराया। पाकिस्तानी ड्रोन को भारतीय वायु सुरक्षा रडार प्रणाली के जरिए पकड़ा गया। इतना ही नहीं आये दिन पाकिस्तान की तरफ से सीजफायर का उल्लंघन होता है। इसी सब से समझ आता है कि पाकिस्तान, भारत पर हमले की फिराक में है लेकिन उसको मौका नहीं मिल रहा है। कुछ राजनीतिक लोगों को अपने देश के शहीदों और उनके परिवार वालों की नहीं बल्कि पड़ोसी देश की चिंता है। अपने ही देश की सेना पर सवालिया निशान उठाकर उनके पराक्रम पर संशय जता रहे हैं।

धमाल की तर्ज पर ही है अजय देवगन की टोटल धमाल

डाॅ. अरूण जैन

फिल्म मेकर इंद्र कुमार के निर्देशन में बनी फिल्म टोटल धमाल आज सिनेमा घरों में रिलीज हो गई है। फिल्म में अजय देवगन, अनिल कपूर, माधुरी दीक्षित, अरशद वारसी, जावेद जाफरी की कॉमेडी देखकर फैंस काफी खुश नजर आ रहे हैं। कॉमेडी से भरपूर इस फिल्म को देखने के बाद आपका दिन बन जाएगा। कहानी टोटल धमाल फिल्म की कहानी 'धमालÓ से मिलती जुलती है। इस अडवेंचर कॉमिडी फिल्म का प्लॉट गुड्डू (अजय देवगन), पिंटू (मनोज पाहवा) और जॉनी (संजय मिश्रा) के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। फिल्म की कहानी एक बड़े खजाने की खोज और उसे हासिल करने की चाहत पर टिकी हुई है। फिल्म में  (अजय देवगन) अपने साथी जॉनी (संजय मिश्रा) के साथ भ्रष्ट पुलिस कमिश्नर के 50 करोड़ लूटकर भागते हैं। लेकिन ,वह खजाना एक दिन अचानक पिंटू के  लग जाता है। पिंटू इस खजाने के बारे में  गुड्डू और जॉनी से नहीं बताता है और उसे लेकर भागने का प्लान बनाने में सफल हो जाता है। वहीं गुड्डू और जॉनी एक दिन पिंटू को ढूंढ तो निकालते हैं, लेकिन उस वक्त तक इस छुपाकर रखे गए मोटे खजाने की जानकारी अविनाश (अनिल कपूर) और बिंदू (माधुरी दीक्षित नेने), लल्लन (रितेश देशमुख) और झिंगुर (पितोबश त्रिपाठी) के अलावा आदित्य (अरशद वारसी) और मानव (जावेद जाफरी) को भी मिल जाती है। इन सबका मकसद लूट के इस खजाने को हासिल करना है। सभी लोग पैसे के पीछे पड़ जाते हैं और फिर शुरू होती है 'पैसा ये पैसाÓ की जंग। वो 50 करोड़ कहां होते हैं और किसे मिलते हैं यह जानने के लिए आपको टोटल धमाल देखनी पड़ेगी। एक्टिंग फिल्म में अजय देवगन, अनिल कपूर, माधुरी दीक्षित की एंट्री काफी धांसू है।  फिल्म में अनिल-माधुरी की छोटी-छोटी तकरार आपको हंसने पर विवश कर देगी। लगभग 18 साल के बाद अनिल कपूर- माधुरी दीक्षित को साथ देखना शानदार है। साथ ही अजय देवगन और संजय मिश्रा के साथ रितेश देशमुख, अरशद वारसी और जावेद जाफरी, बोमन इरानी की अदाकारी आपको लोटपोट करने के लिए काफी है। म्यूजिक और डायलॉग्स 2 घंटें की इस फिल्म को देखकर आप सिनेमाहाल से हंसते हुए निकलेंगे। टोटल धमाल साफ सुथरी पैसा वसूल कॉमेडी पेश करने में सफल रही है।  फिल्म में कोई डबल मिनिंग डायलॉग्स या फूहड़ता नहीं दिखेगी। फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर भी बढिय़ा लेकिन म्यूजिक निराश करता है। ऐसा लगता है मानो जबरदस्ती फिल्म में गाने डालने को कोशिश करती है।  क्यों देखें फिल्म टोटल धमाल साफ सुथरी पैसा वसूल कॉमेडी है। इसे आप फैमिली के साथ वीकेंड पर आराम से देख सकते हैं। फिल्म की गाने आपको पसंद आएंगे। वहीं अजय देवगन की कॉमेडी और अनिल-माधुरी की छोटी-छोटी तकरार आपको पसंद आएगी। फिल्म में कुछ सीन्स जहां थोड़े बोर करते हैं। वहीं, अगला ही सीन आपको हंसा भी देता है। यानि की फिल्म किसी तरह से लोगों को इंटरटेन करने में सफल रहा है।

कमलनाथ ही तय करेंगे लोकसभा उम्मीदवारों के नाम

डाॅ. अरूण जैन


विधानसभा चुनाव जीतकर भाजपा को पंद्रह साल की सत्ता से बाहर करने के बाद अब कांग्रेस की नजऱ प्रदेश की सभी 29 लोकसभा सीटों पर नजऱ है। पार्टी ने इसके लिए विन 29 का लक्ष्य भी तय कर लिया है। पार्टी आलाकमान प्रदेश स्तर के कांग्रेस के सभी दिग्गज नेताओं के नामों को लेकर मंथन करने में जुटी हुई है। वहीं, प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने 16 लोकसभा सीटों की रायशुमारी करने के बाद ये बात पूरी तरह साफ कर दी है कि, जिस तरह सर्वे के आधार पर विधानसभा प्रत्याशियों के टिकट बांटे गए थे, उसी तरह अब लोकसभा चुनाव के लिये प्रत्याशियों का चयन किया जाएगा। यानि, हर सीट के लिये प्रत्याशी का सर्वे किया जा रहा है, जनता के बीच जिसका रिकॉर्ड सबसे सुलभ होगा उसी को टिकट देकर उम्मीदवारी का मौका दिया जाएगा। इस तरह चुना जाएगा प्रत्याशी लोकसभा प्रभारी और मंत्रियों से हुई चर्चा में कुछ उम्मीदवारों के नाम पर चर्चा हुई, जिसके बाद सीएम को कुछ संभावित नाम बंद लिफाफे में सौंपे गए हैं, चर्चा में आए उन नामों को सीएम खुद सर्वे में सामने आए नामों से मिलान करेंगे इसमें जिस प्रत्याशी का नाम सर्वे और चर्चा के आधार पर प्रबल होगा उसे टिकट दिया जाएगा। अगर मंत्रियों से हुई चर्चा में किसी प्रत्याशी का नाम सामने आया था और उसका नाम सर्वे लिस्ट में अनुकूल प्रत्याशियों में नहीं है, तो कमलनाथ ये साफ कर चुके हैं, कि उस प्रत्याशी को टिकट नहीं दिया जाएगा। ्रढ्ढष्टष्ट कर रहा है राष्ट्रीय स्तर पर सर्वे एक तरफ जहां कमलनाथ रायशुमारी के आधार पर नामों का चयन कर रहे हैं, वहीं प्रदेश में सर्वे कराने का काम ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी (एआईसीसी) राजीव गांधी फाउंडेशन के सदस्यों को सौपा गया है। फाउंडेशन के सदस्य हर लोकसभा क्षेत्र में जाकर आमजन से प्रत्याशियों के नामों पर चर्चा कर रहे हैं। इसके जरिये जिताऊ उम्मीदवार का नाम खोजा जा रहा है। हालांकि, सर्वे में जुटी ये टीम प्रदेश की सभी सीटों पर प्रत्याशियों की फायनल लिस्ट कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी को सौंपेगी। इन दोो सूचियों के मिलान के आधार पर प्रत्याशियों को चुना जाएगा। इधर,16 लोकसभा सीटों से प्रभारियों के नाम सर्वे के आधार पर सीएम के पास आ चुके हैं, जिन्हें संभावित प्रत्याशी कहा जा सकता है। सागर-खरगौन लोकसभा सीट खास मुख्यमंत्री कमलनाथ ने शुक्रवार को सागर और खरगौन लोकसभा सीट पर पार्टी की चुनावी तैयारियों को लेकर लोकसभा प्रभारियों और संबंधित मंत्रियों से फीडबैक लिया है। सागर लोकसभा सीट से पार्टी पदाधिकारियों ने बंद लिफाफे में जिन लोगों के नाम सौंपें हैं, उनमें पूर्व मंत्री प्रभु सिंह ठाकुर, पूर्व केंद्रीय मंत्री प्रदीप जैन, भूपेंद्र गुप्ता, भूपेंद्र सिंह मोहासा और पूर्व मंत्री प्रकाश जैन के नाम शामिल हैं। मुख्यमंत्री ने सागर लोकसभा सीट के अंतर्गत आने वाली कांग्रेस द्वारा जीती गई विधानसभा सीटें और अन्य वे सीटें जिन पर कांग्रेस कितने वोटों से हारी है, वहां की जानकारी भी जुटाई है। सागर लोकसभा सीट से कांग्रेस साल 1991 से जीत हासिल नहीं कर पाई है। आखरी बार इसपर कांग्रेस के आनंद अहिरवार जीतकर सांसद चुने गए थे। इसके बाद से ही ये सीट सामान्य श्रेणी में चली गई। जब से लेकर अब तक बीते 28 सालों से इस सीट पर भाजपा का कब्जा है।

बहुत हार्ड है रणवीर सिंह-आलिया भट्ट की कहानी

बहुत हार्ड है रणवीर सिंह-आलिया भट्ट की कहानी

डाॅ. अरूण जैन
जोया अख्तर की फिल्म गली बॉय रिलीज हो गई है। यह फिल्म रिलीज होने से पहले ही सुर्खियों में छाई हुई है।  फिल्म के गाने पहले ही फैन्स की जुबान पर चढ़ चुके हैं। इस फिल्म में पहली बार बॉलीवुड एक्टर रणवीर को एक रैपर के रूप में देखा गया। वहीं एक बार आलिया भट्ट ने फिर साबित कर दिया है कि एक्टिंग में उनका कोई मुकाबला नहीं कर सकता है। इस फिल्म में अगर एक ही लाइन में समझना है तो बता दें कि यह हार्ड है। बता दें कि ज़ोया अख्तर की इस फिल्म को फैंस का काफी प्यार मिल रहा है। जोया इससे पहले जिंदगी ना मिलेगी दोबारा' और 'दिल धड़कने दो' जैसी बड़ी फिल्मों का निर्देशन कर चुकी हैं। इसलिए उनकी इस फिल्म से भी दर्शकों को काफी उम्मीदें हैं। जोया अख्तर ने इस फिल्म के माध्यम से उन लोगों को प्रेरित करना चाहा है जो अपने सपनो को पूरा करने के लिए रोज कड़ी मेहनत करते हैं। भले ही आपने इससे पहले कई फिल्मों में गली बॉय की मुख्य कहानी देख चुकें हैं। लेकिन यह फिल्म आपको इंप्रेस कर जाएगी। कहानी गली बॉय की कहानी बड़े ही सिंपल तरीके से लिखा गया है। फिल्म की कहानी मुंबई की गलियों में अपने टैलेंट को ढूंढते हुए दो रैपर्स डिवाइन (ष्ठद्ब1द्बठ्ठद्ग) और नेजी (हृड्डद्ग54) की कहानी के इर्द-गिर्द घुमती हैं। फिल्म की साधारण सी कहानी को ज़ोया अख्तर ने जिस तरह असाधारण बना  दिया है, वो काबिले तारीफ है। फिल्म में मुराद (रणवीर सिंह) की संघर्ष भरी कहानी को देखकर आपका दिल में एक बार जरूर भर जाएगा। लेकिन आप जब कहानी के अंदर जाएंगे तो आपका दिल प्रेरणाओं की लहर में गोता लगता हुआ नजर आएगा। मुराद एक बहुत ही गरीब परिवार से आता है। उसके पिता (विजय राज) एक ड्राइवर है। मुराद को रैपिंग का काफी शौक है लेकिन उसके घरवाले उसके इस जुनून के विरुद्ध है। सफीना (आलिया भट्ट) उसकी गर्लफ्रेंड है और उसे हर कदम पर सपोर्ट करती है। एम.सी शेरा (सिद्धांत चतुर्वेदी) मुराद की जिंदगी में एक फरिश्ते की तरह आता है और उसे उसके सपने पूरे करने की रहा दिखता है। अपने ख्वाब पूरे करने की कोशिश में जुटा मुराद अब गली बॉय के नाम से जाना जाता है। फिर कहानी में स्काई (कल्कि कोचलिन) की एंट्री होती है। स्काई फॉरेन के एक कॉलेज से म्यूजिक की पढ़ाई कर रही होती है। वह गली बॉय और शेरा के साथ रैप वीडियोज बनाती है। इसके आगे गली बॉय को किस तरह सफलता मिलती है, ये जानने के लिए आपका इसका फिल्म को देखना आवश्यक है। एक्टिंग फिल्म में रणवीर रणवीर सिंह की एक्टिंग देखकर आप रोमांचित हो जाएंगे और कहेंगे की मुदार के रोल में रणवीर ही फिट हैं। वहीं आलिया भट्ट की एक्टिंग भी काबिले तारीफ है। सफीना के रोल में आलिया ने यह साबित कर दिया है कि भले ही कहानी सिंपल क्यों न हो लेकिन अभिनय से फिल्म की काया बदली जा सकती है। आलिया भट्ट ने भी रणवीर का साथ बखूबी निभाया है।  उनकी डायलॉग डिलीवरी ऑडियंस को काफी अच्छी लगेगी. साथ ही इस फिल्म में उनके एक्सप्रेशन्स भी काफी दमदार है, कल्कि कोचलिन ने भी अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है। सिद्धांत चतुर्वेदी इस फिल्म के सरप्राइज पैकेज है। फिल्म गली बॉय से सिद्धांत ने अपने करियर की शानदार शुरुआत की है।

इमरान हाशमी बोले- हमारा एजुकेशन सिस्टम खोखला है

डाॅ. अरूण जैन
जल्द ही फिल्म वाई चीट इंडिया में नजर आने वाले हैं। फिल्म की कहानी शिक्षा व्यवस्था में फैले भ्रष्टाचार पर बनी है।इमरान इस फिल्म में राकेश सिंह का किरदार कर रहे हैं, जो पैसे लेकर परीक्षाओं में अमीर स्टूडेंट्स को पास कराने के लिए उनकी जगह होशियार स्टूडेंट्स को एग्जाम देने भेजता है। हाल ही में इमरान ने लाइव हिन्दुस्तान से खास बातचीत की और फिल्म को लेकर कई बातें बताईं। एजुकेशन सिस्टम को लेकर इमरान ने कहा, लोग शायद इस चीज से वाकिफ नहीं हैं कि हमारा एजुकेशन सिस्टम कितना खोखला है। 10 साल जब हम स्कूल में बिताते हैं तो हमें क्लीयर ही नहीं होता कि हम आगे जाकर क्या करेंगे। ये हमारा स्कूल सिस्टम हमें क्लीयर नहीं करता। बहुत सारे लोग अपनी जिंदगी साइंस कॉमर्स में वेस्ट कर देते हैं क्योंकि स्कूल में हमें रट्टा मारना सिखाया जाता है। बहुत सारी दिक्कतें होती हैं। यूनिवर्सिटी में ज्यादा सीटें मौजूद नहीं हैं। इसके साथ ही चीटिंग माफिया हर स्टेट में मौजूद है। ये अयोग्य स्टूडेंट्स को सीट दिलाते हैं और वो बच्चे फिर आगे जाकर इंजिनियर और डॉक्टर बनते हैं। यही हमने फिल्म में दिखाया है। क्या इस फिल्म से कोई नेगेटिव प्रभाव पड़ेगा?नेगेटिव प्रभाव तो हो ही नहीं सकता क्योंकि हम सोसाइटी की नेगेटिविटी को पेश कर रहे हैं। सबको पता है हमारी सोसाइटी में ऐसा होता है। लेकिन एक फिल्ममेकर होने के नाते ये हमारी जिम्मेदारी है कि हम लोगों के सामने इसे पेश करें और बिना झिझक के दिखाएं कि ऐसा होता है। फिर लोग जानें और इस पर बातचीत हो और इससे बदलाव आएं। आप इस फिल्म के जरिए एक प्रोड्यूसर के तौर पर डेब्यू कर रहे हैं तो वाई चीट इंडिया से ही आपने इसकी शुरुआत क्यों की?मुझे लगा कि ये बहुत ही महत्वपूर्ण फिल्म है। मैं एक मैसेज वाली फिल्म बनाऊं जो लोगों के जेहन में बस जाए। मैसेज वाली फिल्में थोड़ी बोरिंग भी हो जाती है तो मैं ऐसी फिल्म बनाना चाहता था जिससे लोगों को मैसेज भी मिले और उनका मनोरंजन भी हो। इसमें लव स्टोरी है, थ्रिलर है और एजुकेशन सिस्टम के बारे में भी इसमें दिखाया गया है। किसिंग सीन्स को लेकर ये बोले इमरान... इमरान जो सीरियल किसर के टैग से काफी पॉपुलर हैं उन्होंने कई इंटरव्यू में कहा कि वो अब इस टैग से परेशान हो गए हैं। तो हमने जब पूछा कि क्या वो आगे कभी किसिंग सीन नहीं करेंगे तो उन्होंने कहा, इस फिल्म में है मेरा किसिंग सीन। ऐसा नहीं है कि मैं फिल्मों में किस कभी नहीं करूंगा, लेकिन ऐसा होता है कि अगर फिल्म में किसिंग सीन होता है तो सबका माइंड एक ही जगह डाइवर्ट हो जाता है। फिल्म में बहुत सारी चीजें होती हैं। लोग मेहनत करते हैं फिल्म में। लेकिन अगर बार-बार एक ही बारे में बात होती है तो फिर इरिटेशन होने लगती है। फिल्म वाई चीट इंडिया की बात करें तो ये 18 जनवरी को रिलीज होगी। फिल्म में इमरान के साथ श्रेया धन्वन्तरी हैं। श्रेया इस फिल्म के जरिए बॉलीवुड डेब्यू कर रही हैं।

जानिए कितने प्रतिशत लोग बोले कि प्रियंका लड़ें मोदी के खिलाफ चुनाव?

डाॅ. अरूण जैन
जिस दिन से प्रियंका गांधी ने राजनीति में औपचारिक तौर पर कदम रखा, उसी दिन से कई लोगों के मन में ये सवाल तैर रहा है कि वो लोकसभा चुनाव कहां से लड़ेंगी. काफी लोग तो ये भी जानना चाहते हैं कि क्या प्रियंका पीएम मोदी को सीधी टक्कर देने के लिए वाराणसी की सीट को चुनेंगी या नहीं? प्रियंका को लेकर देश की जनता क्या सोचती है? ये जानने के लिए हाल ही में एबीपी न्यूज़ ने सी-वोटर के साथ मिलकर एक बड़ा सर्वे किया है. वाराणसी में प्रियंका गांधी को मोदी के सामने उतारने के पोस्टर लग रहे हैं. ऐसे में वाराणसी से प्रियंका के चुनाव लडऩे को लेकर अटकलों का बाज़ार गर्म है. एबीपी न्यूज़ और सी-वोटर ने एक सर्वे कराकर जनता की नब्ज टटोलने की कोशिश की है. इस सर्वे के मुताबिक, 60 फीसदी लोगों का मानना है कि प्रियंका गांधी को वाराणसी से मोदी के खिलाफ लोकसभा चुनाव जरूर लडऩा चाहिए. जबकि 32 फीसदी लोगों का मानना है कि प्रियंका को मोदी के खिलाफ नहीं लडऩा चाहिए. आठ फीसदी लोग ऐसे भी हैं जिन्हें इस बारे में कुछ नहीं पता या उन्होंने अपनी राय नहीं रखी. इसी सर्वे में एक सवाल ये भी था कि क्या प्रियंका गांधी में भविष्य के प्रधानमंत्री के गुण दिखते हैं. इसके जवाब में  हां बोलने वाले 56त्न लोग मिले. जबकि 29त्न लोग ऐसा नहीं मानते हैं. 15 फीसदी लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने इस बारे में अपनी राय नहीं रखी.

फिल्म देखने से पहले यहां जानें कैसी है मणिकर्णिका

डाॅ. अरूण जैन

आखिरकार लंबे इंतजार के बाद कंगना रनौत की बिग बजट फिल्म मणिकर्णिका-द क्वीन ऑफ झांसी बड़े परदे पर रिलीज हो गई है। सेलेब्स ने तो इस फिल्म की खूब तारीफ की है, लेकिन असल में ये फिल्म कैसी है और दर्शक इस फिल्म को कितना पसंद करेंगे जानते हैं इस रिव्यू में। क्या है स्टोरी... फिल्म की कहानी शुरू होती है पेशवा (सुरेश ओबेरॉय) की दत्तक बेटी मणिकर्णिका उर्फ मनु (कंगना) से जो जन्म से ही साहसी और सुंदर हैं। ऐसे में राजगुरु (कुलभूषण खरबंदा) की नजर उन पर पड़ती है। मनु के साहस और शौर्य से प्रभावित होकर वह झांसी के राजा गंगाधर राव नावलकर (जीशू सेनगुप्ता ) से उसकी शादी करते हैं। ऐसे में मनु झांसी की रानी बनती है। झांसी की रानी को अंग्रेजों के सामने सिर झुकाना कभी गवारा नहीं था। वह झांसी को वारिस देने पर खुश है कि अब उसके अधिकार को अंग्रेज बुरी नियत से हड़प नहीं पाएंगे। मगर घर का ही भेदी सदाशिव (मोहम्मद जीशान अयूब) षड्यंत्र रचकर पहले लक्ष्मीबाई की गोद उजाड़ता है और फिर अंग्रेजों के जरिए गद्दी छीन लेता है। गंगाधर राव के मरने के बाद मनु झांसी की कमान संभालती हैं और झांसी के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा देती है। कैसी है एक्टिंग...कंगना रनौत ने फिल्म में दमदार एक्टिंग की है। उनकी परफॉर्मेंस देखकर लगता है कि झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का रोल उन्हीं के लिए बना था। हालांकि, झलकारी बाई के रोल में अंकिता लोखंडे का रोल छोटा था। लेकिन, अपनी पहली फिल्म में उन्होंने बढिय़ा काम किया है। गुलाम गौस खान के रोल में डैनी की परफॉर्मेंस ये साबित करती है कि उनमें पहले जैसी धार अभी भी कायम है। वहीं, गंगाधर राव के रोल में जीशूसेन गुप्ता, पेशवा के रोल में सुरेश ओबरॉय और राजगुरु के रोल में कुलभूषण खरबंदा ने अपना रोल बखूबी निभाया है।  फिल्म का प्लस प्वाइंट...फिल्म का बेस्ट पार्ट इसका एक्शन है। चाहे वो खुद कंगना रनौत हो या फिर टीवी से बॉलीवुड में कदम रखने रही एक्ट्रेस अंकिता लखंडे। दोनों को पर्दे पर तलवारबाजी करते हुए देखना रोमांचक है। फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक और साउंड 1857 की क्रांति जैसा ही जोश भर देगा।  डायरेक्शन...  फिल्म को राधा कृष्ण, जगरलामुदी के अलावा कंगना ने भी डायरेक्ट किया है। कई विवादों और आपसी टकराव के बाद भी कंगना ने इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया है। फिल्म के आखिरी 40 मिनट आपके रौंगटे खड़े कर देंगे। फिल्म की कमी...पहले हाफ की तुलना में फिल्म का सेकेंड हाफ थोड़ा स्लो है जो इसकी कमजोर कड़ी है। वहीं, झांसी की रानी के रोल में कंगना की डायलॉग डिलिवरी थोड़ी अटपटी है। इसके अलावा फिल्म में कंटीन्यूटी की भी कमी है। फिल्म के विलेन भी इसका एक कमजोर हिस्सा हैं। विलेन का रोल निभा रहे एक्टर्स कुछ खास कमाल नहीं दिखा पाए। देखें या ना देखें?रिपब्लिक डे पर अगर आप अपनी फैमिली और फ्रेंड्स के साथ कोई अच्छी फिल्म देखना चाहते हैं तो मणिकर्णिका जरूर देख सकते हैं। इसके अलावा कंगना की दमदार परफॉर्मेंस और देश के अमर शहीदों को कहानी को बड़े परदे पर देखने के लिए ये फिल्म एक बार जरूर देखनी चाहिए।

संविधान सभा ने इस तरह बनाया था भारत का संविधान

डाॅ. अरूण जैन
15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ और 26 जनवरी 1950 को भारत एक सम्प्रभु लोकतान्त्रिक गणराज्य घोषित हुआ। गणतंत्र दिवस भारत का राष्ट्रीय पर्व है। यह दिवस भारत के गणतंत्र बनने की खुशी में मनाया जाता है। गणतंत्र का अर्थ है हमारा संविधान, हमारी सरकार, हमारे कर्त्तव्य, हमारा अधिकार। इस व्यवस्था को हम सभी गणतंत्र दिवस के रूप में मनाते हैं। भारत में सभी पर्व और त्यौहार मनाते हैं, परन्तु गणतंत्र दिवस को हम राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाते हैं। इस पर्व का महत्व इसलिये भी बढ़ जाता है क्योंकि इसे सभी जाति एवं वर्ग के लोग एक साथ मिलकर मनाते हैं। 26 जनवरी, 1950 के दिन भारत को गणतांत्रिक राष्ट्र घोषित किया गया था। इसी दिन स्वतंत्र भारत का नया संविधान लागू हुआ था। भारत का संविधान विश्व में सबसे बड़ा संविधान है। इस संविधान के जरिये नागरिकों को प्रजातान्त्रिक अधिकार सौंपे गए। संविधान देश में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की व्यवस्था तथा उनके अधिकारों और दायित्वों को सुनिश्चित करता है। संविधान के जरिये हमने अपने लोकतान्त्रिक अधिकार हासिल किये, अर्थात् समस्त अधिकार जनता में निहित हुए, इसी दिन हमें अपने मौलिक अधिकार प्राप्त हुए और एक नए लोकतान्त्रिक देश का निर्माण हुआ।  भारतीय संविधान का निर्माण एक संविधान सभा द्वारा किया गया। संविधान सभा में 296 सदस्य थे। जिन्होंने 2 वर्ष, 11 महीने, 18 दिन काम कर संविधान को तैयार किया। हालाँकि इस अवधि में काम केवल 166 घंटे ही हुआ और हमारा संविधान बनकर तैयार हो गया। 26 जनवरी 1950 को हमारे संविधान को लागू किये जाने के कारण हर वर्ष 26 जनवरी को हम गणतंत्र दिवस के रूप में मनाते हैं। यह दिन हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले अनगिनत स्वतन्त्रता सेनानियों का सपना साकार हुआ। यह महत्वपूर्ण दिन हम गणतंत्र दिवस के रूप में मनाते हैं। इस दिन देश की राजधानी से लेकर गांव−ढाणी तक हम गणतंत्र का पर्व सोल्लास मनाते हैं। यह दिन पूरे देश में उत्साह और देशभक्ति की भावना के साथ मनाया जाता है। इस पावन पवित्र दिन देश की आजादी के लिए संघर्ष करने वाले योद्धाओं को नमन कर उनके बताये मार्ग पर चलने का सकल्प लेते हैं। मातृभुमि के सम्मान एवं आजादी के लिये हजारों देशभक्तों ने अपने जीवन की आहूति दी थी। देशभक्तों की गाथाओं से हमारा कण कण गूँज रहा है।  देशप्रेम की भावना से ओत−प्रोत हजारों सपूतों ने भारत को आजादी दिलाने में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था। ऐसे महान देशभक्तों के त्याग और बलिदान के कारण आज हमारा देश लोकतान्त्रिक गणराज्य हो सका है। गणतंत्र दिवस हमारी राष्ट्रीय एकता एवं भावना को और अधिक प्रगाढ़ बनाने के लिए देशवाशियों को प्रेरित करता है। यह पर्व हमारे शहीदों की अमर गाथाओं से हमें गौरवान्वित करता है और प्रेरणा देता है कि अपने देश के गौरव को बनाए रखने के लिए हम संकल्पित हैं तथा हर पल तेजी से प्रगति और विकास की ओर बढ़ रहे हैं। गणतंत्र दिवस का राष्ट्रीय पर्व देशभर में अपार उत्साह तथा हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। प्रति वर्ष इस दिन झंडारोहण किया जाता है तथा प्रभात फेरियां निकाली जाती हैं। देश की राजधानी दिल्ली सहित सभी प्रान्तों तथा विदेशों के भारतीय राजदूतावासों में भी यह पर्व उल्लास व गर्व से मनाया जाता है। हमारे सुरक्षा प्रहरी परेड निकाल कर, अपनी आधुनिक सैन्य क्षमता का प्रदर्शन करते हैं। सेना की परेड के बाद रंगारंग सांस्कृतिक परेड होती है। विभिन्न राज्यों से आई झांकियों के रूप में भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को दर्शाया जाता है। प्रत्येक राज्य अपने अनोखे त्यौहारों, ऐतिहासिक स्थलों और कला का प्रदर्शन करते हैं। यह प्रदर्शनी भारत की संस्कृति की विविधता और समृद्धि को एक त्यौहार का रंग देती है। आज हमारा देश अपने देशवासियों की अंतरआत्मा को झकझोर रहा है। जिस देश में दूध−दही की नदियां बहती थीं, जिसे सोने की खान कहा जाता था। सत्यमेव जयते जिसका आदर्श था। महापुरूषों और ग्रंथों ने सत्य की राह दिखाई थी। भाईचारा, प्रेम और सद्भाव हमारे वेद वाक्य थे। कमजोर की मदद को हम सदैव आगे रहते थे। भारत के आदर्श समाज और राम राज्य की विश्व में अनूठी पहचान थी। राजाओं के राज को आज भी लोग याद रखते हैं और यह कहते नहीं थकते कि उस समय की न्याय व्यवस्था काफी सुदृढ़ थी, राजा के कर्मचारी आम आदमी को प्रताडि़त नहीं करते थे। सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में नैतिकता थी। बुराई के विरूद्ध अच्छाई का बोलबाला था। महात्मा गांधी ने आजादी के बाद राम राज्य की कल्पना संजोई थी। प्रगति और विकास की ओर हमने तेजी से बढऩे का संकल्प लिया था। पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से चहुंमुखी विकास की ओर कदम बढ़ाये थे। सामाजिक क्रांति का बीड़ा उठाया था। ईमानदारी के मार्ग पर चलने की कसमें खाई थीं। आजादी की आधी से अधिक सदी बीतने के बाद हमारे कदम लडख़ड़ा रहे हैं। सत्यमेव जयते से हमने किनारा कर लिया है। अच्छाई का स्थान बुराई ने ले लिया है और नैतिकता पर अनैतिकता प्रतिस्थापित हो गई है। ईमानदारी केवल कागजों में सिमट गई है और भ्रष्टाचरण से पूरा समाज आच्छादित हो गया है। देश और समाज अंधे कुएं की ओर बढ़ रहा है, जिसमें गिरने के बाद मौत के सिवाय कुछ हासिल होने वाला नहीं है। आजादी के बाद निश्चय ही देश ने प्रगति और विकास के नये सोपान तय किये हैं। पोस्टकार्ड का स्थान ई−मेल ने ले लिया है। इन्टरनेट से दुनिया नजदीक आ गई है। मगर आपसी सद्भाव, भाईचारा, प्रेम, सच्चाई से हम कोसों दूर चले गये हैं। समाज में बुराई ने जैसे मजबूती से अपने पैर जमा लिये हैं। लोक कल्याण की बातें गौण हो गई हैं। देश में भ्रष्टाचार, अराजकता, महंगाई, असहिष्णुता, बेरोजगारी और असमानता से देशवासी बुरी तरह त्रस्त हैं। जन साधारण इसके लिए हमारी राजनीतिक व्यवस्था को पूरी तरह से उत्तरदायी मानता है। जिसने जनतांत्रिक मूल्यों को प्रदूषित किया है। शासन व्यवस्था में भ्रष्टाचार के विरूद्ध आवाज उठाने वाले प्रताडि़त किये जा रहे हैं। रक्षक ही भक्षक बन गये हैं। ऐसे में देशवासियों के जागने का समय आ गया है। भ्रष्टाचार और समाज को गलत राह पर ले जाने वाले लोगों को उनके गलत कार्यों की सजा देने के लिए आमजन को जागरूक होने की महत्ती जरूरत है। देश को बचाने के लिए कमर कसनी होगी। भावी पीढ़ी का भविष्य संवारने के लिए पहले खुद को सुधारना होगा। भ्रष्टाचार के विरूद्ध शंखनाद करना होगा। आदर्श समाज की स्थापना तभी होगी जब हम इसकी शुरूआत अपने घर से करेंगे। समाज की एकजुटता और अच्छे कार्य के लिए एकता का संदेश जन−जन तक पहुँचा कर हम आदर्श राज्य और समाज की स्थापना में भागीदार हो सकते हैं। गणतंत्र की सार्थकता तभी होगी जब हरेक व्यक्ति को काम व भरपेट भोजन मिले। गणतंत्र की सफलता हमारी एकजुटता और स्वतंत्रता सेनानियों की भावना के अनुरूप देश के नव निर्माण में निहित है।

 शिक्षा के कारोबार का काला सच

डाॅ. अरूण जैन

पिछले दो-तीन दशकों में शिक्षा क्षेत्र सबसे फायदेमंद व्यवसायों में से एक के रूप में उभरा है। हर शहर में कुकुरमुत्ते की तरह पनपे कोचिंग संस्थान इसकी गवाही देते हैं। लेकिन मेडिकल, इंजीनियरिंग, एमबीए संस्थानों में पिछले दरवाजे से दाखिले का कारोबार कोचिंग कारोबार से भी बड़ा है। एक-एक सीट के लिए अमीर लोग करोड़ रुपये देने को तैयार रहते हैं, ताकि उनकी नाकारा संतानें ऐसे ही किसी संस्थान में दाखिल हो जाएं। इस काम में उनकी सहायता करते हैं दलाल, जिनकी पहुंच हर जगह है। वे हर जगह पैसे फेंक कर ऐसा करते हैं और खुद मोटा पैसा बनाते हैं। यह कोई छिपी हुई बात नहीं। ज्यादातर लोग इससे वाकिफ हैं। विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं के पेपर लीक होने की खबरें आम हैं। इस धंधे में लगे लोग पकड़ भी जाते हैं, लेकिन ये धंधा कभी मंदा नहीं होता। इमरान हाशमी की 'वाय चीट इंडियाÓ इसी विषय पर आधारित है। कहानी राकेश सिंह उर्फ रॉकी (इमरान हाशमी) एक घोटालेबाज है, जो पैसे लेकर गलत तरीके से अयोग्य छात्रों का दाखिला इंजीनियरिंग कॉलेजों में कराता है। इसके लिए वह जालसाजी करके उन छात्रों की जगह किसी मेधावी छात्र को परीक्षा में बिठा देता है, जो अपनी प्रतिभा की बदौलत वह परीक्षा पास कर लेते हैं और अयोग्य छात्र को एडमिशन मिल जाता है। राकेश के लोग देश के कई शहरों में फैले हैं। सत्येंद्र उर्फ सत्तू (स्निघदीप चटर्जी) एक मध्यवर्गीय परिवार का लड़का है, जिसने ऑल इंडिया इंजीनियरिंग परीक्षा में बहुत अच्छी रैंक हासिल की है। राकेश की नजर पर सत्तू पर जाती है। वह उसे उसकी मजबूरी का फायदा उठा कर, उसे लालच के जाल में फंसा कर दूसरों की जगह इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा देने को तैयार कर लेता है। सत्तू अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई करते हुए, कई छात्रों के लिए ऐसी परीक्षाओं में बैठता है। इस क्रम में राकेश का सत्तू के घर आना-जाना होता है और उसकी बहन नूपुर (श्रेया धन्वंतरी) राकेश से प्यार करने लगती है। सत्तू को अपनी पढ़ाई के साथ-साथ इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षाओं की भी तैयारी करनी पड़ती है, लिहाजा वह दिन-रात मेहनत करता है। इस पे्रशर से निपटने के लिए वह ड्रग्स की शरण में चला जाता है। एक दिन वह ड्रग्स के साथ पकड़ा जाता है और अपने इंजीनियरिंग कॉलेज से निकाल दिया जाता है। वह डिप्रेशन में आ जाता है। राकेश उसे कतर में नौकरी दिलवा देता है और सत्तू के चैप्टर को बंद कर नए 'सत्तूओंÓ की खोज में लग जाता है। इसी बीच राकेश के पीछे पुलिस लग जाती है और उसे जेल जाना पड़ता है, लेकिन वह तुरंत छुट जाता है, क्योंकि उसके सिर पर एक नेता का हाथ है। उसके बाद राकेश इंजीनियरिंग कॉलेजों में एडमिशन की बजाय एमबीए संस्थानों में एडमिशन दिलाने का धंधा शुरू करता है, क्योंकि उसमें कमाई और ज्यादा है। इस सिलसिले में वह मुंबई पहुंचता है, जहां उसकी मुलाकात काफी समय बाद नूपुर से होती है। दोनों के संबंध फिर से परवान चढऩे लगते हैं, लेकिन इस प्रेम कहानी का अंजाम आम प्रेम कहानियों जैसा नहीं होता... संवाद-गीत यह फिल्म एक समसामयिक मुद्दे को उठाती है। इसमें शिक्षा क्षेत्र में चल रहे धंधे के साथ-साथ मध्यवर्गीय मानसिकता भी सवाल खड़े किए गए हैं, जो वाजिब लगते हैं। यह आम आदमी की जिंदगी से जुड़ा विषय है। लेकिन विषय जितना बढिय़ा है, पटकथा उतनी बढिय़ा नहीं है, लिहाजा फिल्म वह प्रभाव पैदा नहीं कर पाती। राकेश की धंधेबाजी की कहानी के साथ-साथ उसकी निजी जिंदगी की कहानी भी समानांतर रूप से चलती रहती है। लेकिन उसे सही तरीके से बुना नहीं गया है, जिसकी वजह उसमें जगह-जगह छेद नजर आते हैं। इससे फिल्म की गति पर भी असर पड़ा है। विषय को मनोरंजक तरीके से पेश करने की कोशिश की गई है। फिल्म कहीं भी बोझिल नहीं होती। लेकिन सौमिक सेन की पटकथा व निर्देशन और थोड़ा सधा होता, तो यह अच्छी फिल्मों की श्रेणी में गिनी जाती। पहले हाफ में फिल्म ज्यादा बेहतर है। दूसरे हाफ में इसकी कसावट थोड़ी कम हो जाती है। एक बात निर्देशक ने अच्छे से दिखाई है कि प्रतियोगी परीक्षाओं में चीटिंग के जरिये दाखिला कराने के लिए दलाल कैसे-कैसे तरीके अपनाते हैं। फिल्म के संवाद कई जगह मजेदार हैं। गीत-संगीत कुछ खास नहीं है।  एक्टिंग इमरान हाशमी का अभिनय शानदार है। वह एक शातिर दलाल की भूमिका में बेहतरीन लगे हैं। अपने किरदार के कारोबारी और निजी जिंदगी के अलग-अलग शेड को उन्होंने सधे तरीके से उभारा है। अभिनय के लिहाज से यह उनकी बेहतरीन फिल्मों में से एक है। श्रेया धन्वंतरी ने भी बढिय़ा काम किया है, खासकर दूसरे हाफ में वह बहुत प्रभावित करती हैं। स्निघदीप चटर्जी भी जमे हैं। वह एक इंजीनियरिंग छात्र की तरह लगे हैं। उनमें थोड़ी-थोड़ी राहुल बोस की झलक मिलती है। राकेश के दोस्त बबलू के किरदार में मनुज शर्मा अपनी क्षमता के अनुसार काम नहीं कर सके हैं। हालांकि इसमें उनका कम, पटकथा का दोष ज्यादा है। बाकी कलाकार भी ठीक हैं।

सपा-बसपा से गठबंधन की उम्मीद खत्म होने के बाद कांग्रेस की नई रणनीति

डाॅ. अरूण जैन


लोकसभा चुनावों को लेकर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का भटकाव जारी है। हालात यह है कि बसपा−सपा से दुत्कारे जाने के बाद भी कांग्रेस यह तय नहीं कर पाई है कि वह इन दोनों दलों के खिलाफ क्या रूख अख्तियार करें। यह स्थिति तब है जबकि बसपा और सपा नेता लगातार कांग्रेस पर हमलवार हैं। ऐसा लगता है कि कांग्रेस चुनाव जीतने से पहले ही सरकार कैसे बनेगी, इस पर ज्यादा मंथन कर रही है। कांग्रेस आलाकमान का यह रवैया कार्यकर्ताओं और नेताओं में निराशा का भाव पैदा कर रहा है। बात आगे बढ़ाई जाए तो समस्या इसी मोर्चे तक सीमित नहीं है। एक ओर जहां अन्य दल चुनाव के लिए बिसात बिछा रहे हैं, वहीं कांग्रेस संगठन को कैसे मजबूत किया जाए इसमें उलझी हुई है। ऐन चुनाव से पहले पिछड़ों को लुभाने के लिए उसके द्वारा पिछड़ा वर्ग विभाग संगठन में विस्तार के साथ बदलाव भी किया जा रहा है। दावा यह है कि एक सप्ताह के भीतर विभाग के प्रदेश संयोजक की नियुक्ति के साथ कमेटी गठित कर ली जाएगी। जिला व ब्लाक इकाइयों के गठन की औपचारिकता 31 जनवरी तक पूरी कर ली जाएगी। प्रदेश के एक लाख से अधिक गांवों में कमेटियां गठित होंगी और प्रधान नामित किया जाएगा। कांग्रेस के  रणनीतिकारों द्वारा पिछड़ा वर्ग विभाग संगठन के माध्यम से सैनी, निषाद, कुर्मी कश्यप, कुशवाहा व लोधी जैसी जातियों को जोडने पर फोकस किए जाने की बात कही जा रही है।  पिछड़ों को लुभाने के लिये ही कांग्रेस पिछड़ा वर्ग समाज की महारैली मार्च के प्रथम सप्ताह में कराई जा रही है। महारैली से पहले जिला स्तर पर भी सम्मेलन कराए जाएंगे। उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी की रैलियां कामयाब बनाने में पिछड़ा वर्ग विभाग अहम भूमिका निभाए, इसके लिये जिला व ब्लाक इकाइयों के कामकाज की नियमित समीक्षा होगी। पिछड़ा वर्ग के वोटरों को लुभाने के लिए कांग्रेस ने नए सिरे से तैयारी शुरू की है। योजना है कि प्रदेश के सभी गांवों में पिछड़ा वर्ग का एक प्रतिनिधि तैनात किया जाएगा। उसे ग्राम प्रधान नाम दिया जाएगा। एक महीने तक गांवों में पिछड़ों के बीच काम करने के बाद मार्च में फीडबैक के लिए सम्मेलन किया जाएगा। सपा−बसपा से गठबंधन के रास्ते बंद होते ही कांग्रेस पूरी ताकत से चुनावी तैयारी में जुट गई है। उसके द्वारा सभी 80 लोकसभा सीटों पर चुनाव लडऩे की बात की जा रही है। इसी क्रम में पिछड़ा वर्ग को जोडने के लिए संगठनात्मक ढांचे में बड़े बदलाव की तैयारी है। ग्रामों में भी पिछड़ा वर्ग विभाग की कमेटी गठित करके प्रधान तैनात किया जाएगा। विधानसभा चुनाव के बाद से पस्त पड़े संगठन की सक्रियता लोकसभा चुनाव की आहट होते ही बढ़ी है। पिछड़ा वर्ग को कांग्रेस से जोडने के अभियान की निगरानी राष्ट्रीय कोआर्डिनेटर अनिल सैनी संभाले हुए हैं। सैनी का दावा है कि राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के चुनाव नतीजों से सिद्ध हुआ पिछड़ा वर्ग तेजी से कांग्रेस की ओर लौट रहा है।  गौरतलब हो, बसपा−सपा से गठबंधन की उम्मीद खत्म होने के बाद कांग्रेस ने राहुल गांधी की रैलियों के कार्यक्रम को नए सिरे से बनाया है। राहुल की प्रदेश में प्रस्तावित एक दर्जन रैलियों की शुरुआत लखनऊ से होगी। जल्द ही रैली की तारीख फाइनल कर ली जाएगी। यूपी कांग्रेस के लिये योंहि नहीं महत्वपूर्ण है। कांग्रेस ने यहां से देश को भारत और पंडित जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के रूप में तीन−तीन प्रधानमंत्री दिए थे। यूपी की फूलपुर संसदीस सीट से 1952, 1957 और 1962 में जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा चुनाव जीता था। नेहरू का 1964 में अपनी मृत्यु तक इस सीट पर कब्जा रहा। 1967 में उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित इस सीट पर काबिज रहीं। वहीं रायबरेली सीट से इंदिरा गांधी के पति फिरोज गांधी सांसद बने थे। बाद में उनकी बहू और राजीव गांधी की पत्नी सोनिया गांधी ने 2004 में यह सीट जीती। 2009 और वर्तमान में 2014 के चुनावों के बाद भी यह सीट उन्हीं के पास है। अमेठी सीट भी नेहरू गांधी परिवार के पास है। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को यूपी से भारी बहुमत मिला था। उस वक्त 85 सीटों (तब उत्तराखंड यूपी का ही हिस्सा था) पर लडऩे वाली देश की इस सबसे पुरानी पार्टी को 83 सीटें मिली थीं। तब कांग्रेस को सबसे ज्यादा लोकसभा सीटें वाले इस राज्य में 51.03 फीसद वोट मिले थे। 1984 के बाद उत्तर प्रदेश में लगातार कांग्रेस का जनाधार गिरा है। 2014 के लोकसभा चुनावों में इसका वोट 07 प्रतिशत पर सिमट कर रह गया था। सबसे खराब प्रदर्शन करते हुए कांग्रेस सोनिया और राहुल की ही लोकसभा सीट बचा पाई थी। प्रदेश में सपा−बसपा की ताकत बढऩे के बाद पिछले तीन दशकों में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार नहीं बन पाई है। एक समय था जब उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की पकड़ बहुत मजबूत थी। लेकिन राम मनोहर लोहिया आंदोलन, मंडल आयोग और भाजपा र्की हिंदुत्व नीति ने राज्य में इस पार्टी का जनाधार खत्म कर दिया। राहुल गांधी के सामने सबसे बड़ी चुनौती पार्टी को उत्तर प्रदेश में खोई हुई साख वापस लौटाने की है तो दूसरी तरफ कई जिलों में कोई कमेटी नहीं होने से पार्टी तंत्र खस्ताहाल है। मतदाताओं−कार्यकर्ताओं पर समान रूप से पार्टी की पकड़ ढीली है।

फिल्म देखने से पहले पढ़ें कैसी है द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर

डाॅ. अरूण जैन

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बायोपिक द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टरकी जबसे अनाउंसमेंट हुई है तबसे ही फिल्म काफी सुर्खियों में है। फिल्म संजय बारू की किताब पर आधारित है और शुक्रवार को फिल्म रिलीज हो गई है। फिल्म की कहानी फिल्म की कहानी 2004 में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए को मिली जीत से शुरू होती है जिसके बाद मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बनते हैं। इसके बाद जर्नलिस्ट संजय बारू की एंट्री होती है और वो मनमोहन सिह के मीडिया एडवाइजर बन जाते हैं। जिसके बाद 2जी, कोयला घोटाला, 2009 के चुनाव में राहुल गांधी को पार्टी का चेहरा बनाना जैसे कई मुद्दे आते हैं। नहीं है बायोपिक बता दें कि ये फिल्म बायोपिक नहीं है। इसमें किताब में दर्ज तमाम छोटी-बड़ी राजनीतिक घटनाओं का सिनेमाई रूपान्तरण है। यहां कहानी के लिए रियल विजुअल्स का दिल खोलकर इस्तेमाल किया गया है। इसमें दिलचस्प बात ये है कि अक्षय खन्ना नरेटर के रूप में समझाते रहते हैं जिससे घटनाएं अच्छे से समझ आती है। शानदार अभिनय अनुपम खेर, अक्षय खन्ना, विपिन शर्मा, सुजैन बर्नर्ट, अर्जुन माथुर और अहाना कुमार ने अच्छा काम किया है। अनुपम खेर को अगर आप देखेंगे तो ऐसा लगेगा कि मनमोहन सिंह ही सामने खड़े हैं। बहुत ही अच्छी तरह से उन्होंने मनमोहन सिंह को कॉपी किया है।

कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं भाजपा को 10-12 सीटों के नुकसान की आशंका

डाॅ. अरूण जैन

2014 में कांग्रेस 29 में से 2 ही सीटें जीती थी, इस विधानसभा चुनाव में 12 लोकसभा सीटों पर बढ़त भाजपा 26 सीटें बरकरार रखने के लिए कर रही मेहनत, एंटीइनकम्बेंसी वाले सांसदों की लिस्ट तैयार विधानसभा चुनाव में 15 साल बाद मिली जीत के बाद कांग्रेस यहां एक्शन मोड में है। मुख्यमंत्री कमलनाथ तेजी से फैसले ले रहे हैं, तो दूसरी ओर भाजपा नजदीकी हार के तुरंत बाद से लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुट गई है। पार्टी के विभिन्न मोर्चा-प्रकोष्ठों की बैठक हो चुकी है। किन सांसदों के खिलाफ एंटीइनकम्बेंसी है, उनकी लिस्ट बनाई जा चुकी है और इस तरह चुनावी रणनीति का प्रारंभिक चरण पूरा कर लिया गया है। पार्टी किसी भी तरह अपनी मौजूदा 26 सीटों (कांग्रेस ने उपचुनाव में झाबुआ-रतलाम सीट जीती) को बरकरार रखना चाहती है। हालांकि, विधानसभा चुनाव परिणामों के बाद भाजपा के कुछ नेता कम से कम 10 से 12 सीटों के नुकसान की आशंका जता रहे हैं। 2019 के चुनाव में कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं है, क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनाव में सिर्फ 2 सीटें (गुना और छिंदवाड़ा) जीती थीं। हाल के विधानसभा चुनाव में उसने वोटों के लिहाज से 12 लोकसभा सीटों पर बढ़त बनाई है। ये सीटें मुरैना, भिंड, ग्वालियर, राजगढ़, बैतूल, छिंदवाड़ा, मंडला, शहडोल, रतलाम, धार, खरगौन और देवास हैं। ऐसे में चर्चा यही है कि कांग्रेस सिर्फ विधानसभा चुनाव में मिली 12 सीट की बढ़त बरकरार रख पाती है या सीटें बढ़ा भी सकती है। राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार गिरिजाशंकर कहते हैं कि अगले तीन महीने में राज्य की कांग्रेस सरकार कितना बेहतर करती है और केंद्र सरकार किस तरह का प्रदर्शन कर पाती है, इसी पर सब कुछ निर्भर करेगा। वहीं अंतिम समय में मोदी चुनाव प्रचार करके तस्वीर बदल देंगे, यह बात कर्नाटक और पांच राज्यों के परिणाम के बाद पूरी तरह साबित नहीं हुई है। इसलिए मोदी मुद्दा तो होंगे, पर प्रभावी नहीं। वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई कहते हैं कि भाजपा सरकार में ब्यूरोक्रेसी हावी थी, ऐसे में कांग्रेस पहले की सरकार से कितना अलग दिखती है और कार्य करती है, इससे ही वह जनता के बीच अपनी जगह बनाएगी। हालांकि, उसने किसानों को ऋणमाफी और पुलिस महकमे को साप्ताहिक अवकाश दे दिया है। परिस्थितियां ज्यादा नहीं बदलीं तो 2019 में कांग्रेस की सीटों की संख्या बढ़कर 12 से 15 हो सकती हैं। भाजपा के महामंत्री कैलाश विजयवर्गीय कहते हैं कि 2019 में देश में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा किए गए विकास कार्य, योजनाएं और ईमानदारी मुद्दा होंगे। इसलिए हम 2014 की तरह फिर 27 सीटें जीतेंगे। इधर, कांग्रेस के लोकसभा में मुख्य सचेतक और गुना सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया कहते हैं कि 2019 के चुनाव के दौरान प्रदेश में दो ही मुद्दे होंगे। पहला- मोदी सरकार के वादे और दूसरा- हमारी राज्य सरकार का वादों पर अमल। मोदी सरकार ने युवा, छोटे व्यापारी, किसान सहित सभी वर्गों के लिए कुछ नहीं किया। सिंधिया ने कहा कि राज्य में हमारी सरकार बनने के चंद घंटों के अंदर मुख्यमंत्री कमलनाथ ने ऋणमाफी की घोषणा की। मोदीजी की सरकार की पराजय सुनिश्चित है और मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस को अच्छी खासी सीटें मिलेंगी।

सर्वश्रेष्ठ ट्रांसफॉर्मर फिल्म है बम्बलबी

डाॅ. अरूण जैन
बात करते हैं बीते कुछ सालों में रिलीज हॉलीवुड फिल्मों की। अगर इनमें दिखाया जाने वाला कोई गैर-इंसानी किरदार परदे पर हद क्यूट लगा है, तो वो 'गार्डियंस ऑफ दि गैलेक्सी वॉल्यूम-2Ó का किरदार 'बेबी ग्रूटÓ है। हां, वही लकडिय़ों से बना टहनीनुमा छोटा बच्चा, जो हर वक्त 'आई एम ग्रूटÓ की रट लगाए रहता था और ठीक वही काम करने के लिए मचलता था, जिसे करने से उसे मना किया जाता था। और अब पेशे खिदमत है क्यूटनेस की पराकाष्ठा को पार करने वाला 'अति क्यूटÓ किरदार बम्बलबी। 'ट्रांसफॉर्मरÓ सिरीज की कोई फिल्म हमें ऐसे किरदार से मिलवाएगी, यह उम्मीद वैसे बेमानी थी, पर यह सच साबित हुई है। ट्रांसफॉर्मर जैसी मशीनी प्रजाति का होते हुए भी यह किरदार अपनी मासूमियत से गुदगुदाता है, रुलाता है और पता नहीं कब, दिल में उतर जाता है। 'बम्बलबीÓ को ट्रांसफॉर्मर सिरीज की सर्वश्रेष्ठ फिल्म कहा जाए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। फिल्म की शुरुआत ट्रांसफॉर्मर्स के ग्रह साइबरट्रॉन में होने वाले कुछ घटनाक्रमों से होती है, जहां इनसानों के दोस्त ट्रांसफॉर्मर ऑटोबॉट्स, इनसानों के दुश्मन ट्रांसफॉर्मर्स डिसेप्टिकॉन्स से युद्ध के दौरान हारने की कगार पर हैं। ऑटोबॉट्स का नेता ऑप्टिमस प्राइम अपने प्रमुख ट्रांसफॉर्मर बी-127 को धरती पर जाने का हुक्म देता है, ताकि वे वहां भविष्य में युद्ध के लिए एक अस्थायी बेस बना सकें। बी-127 ऐसा ही करता है, पर धरती पर उसकी ब्लिट्जविंग नामक डिसेप्टिकॉन से भिडं़त हो जाती है। ब्लिट्जविंग, बी-127 के वॉइस बॉक्स और उसकी याद्दाश्त को नष्ट कर देता है, पर जख्मी होते हुए भी बी-127, ब्लिट्जविंग को खत्म कर देता है। अंत में वह वहीं खड़ी एक वोक्सवैगन बीटल कार का रूप ले लेता है। यह कहानी 1987 के दौर में गढ़ी गई है। ट्रांसफॉर्मस की इन गतिविधियों के बाद हम मिलते हैं 17 वर्षीय लड़की चार्ली से। चार्ली हॉट डॉग बेचने और गैराज में गाडिय़ां बनाने जैसे काम करती है। अपने पिता को खो चुकी चार्ली की मां ने दूसरी शादी कर ली है। हमेशा अकेलापन महसूस करने वाली चार्ली जिस गैराज में काम करती है, वहां एक दिन उसकी नजर पुरानी खटारा वोक्सवैगन बीटल कार पर पड़ती है और वह अपने जन्मदिन के दिन गैराज मालिक से उस कार की फरमाहिश कर बैठती है। यह वही कार है, जिसका रूप बी-127 ट्रांसफॉर्मर ने लिया था। दिलदार मालिक उसकी यह फरमाहिश मान लेता है। चार्ली कार को अपने घरेलू गैराज में ले आती है। एक रोज वह उसके कलपुर्जे खोलकर उसे ठीक ही कर रही होती है कि कार रूप बदलकर ट्रांसफॉर्मर (बी-127) के वेश में आ जाती है। चार्ली इस बदलाव से घबरा जाती है, पर जब वह देखती है कि ट्रांसफॉर्मर खुद ही उससे डरा हुआ है और छुपने के चक्कर में है, तो वह कुछ सहज होती है। धीरे-धीरे दोनों की दोस्ती हो जाती है। यह दोस्ती क्या रंग लाती है, डिसेप्टिकॉन्स के मंसूबों का क्या होता है? बम्बलबी की याददाश्त वापस आती है या नहीं, इन सभी सवालों का जवाब फिल्म देखकर ही पाना बेहतर होगा। फिल्म में चार्ली बनी हैली स्टेनफील्ड ने गजब का अभिनय किया है। एक अकेली, अनाथ टीनेजर लड़की के किरदार में वह रचबस गई हैं। बम्बलबी के साथ उनकी केमिस्ट्री गजब की लगी है। एक दृश्य में वह बम्बलबी को प्रशिक्षण दे रही होती हैं कि अगर वह 'कोडवर्डÓ के रूप में ऐसा कहें कि 'कोई आ गया, छुप जाओÓ... तो ऐसा करना है... इतना कहकर वह एक बड़े से रेत के ढेर के पीछे छुप जाती हैं। उनकी देखादेखी बम्बलबी एक छोटा सा रेत का ढेर बनाता है और उसके पीछे झुककर बैठ जाता है, बिना यह समझे कि उसके शरीर के आकार के सामने वो मु_ी भर रेत का ढेर कुछ नहीं है। फिल्म में इस तरह के कई दृश्य हैं जिन पर हंसी भी आती है और बम्बल की भोली सूरत पर लाड़ भी आता है। इसके लिए तारीफ होनी चाहिए स्क्रीनप्ले लेखिका क्रिस्टीना हॉडसन और निर्देशक ट्रैविस नाइट की। बम्बलबी के किरदार की सबसे बड़ी दिलचस्पी जुड़ी है उस लाचारी और मासूमियत में, जो हर वक्त उसके मशीनी चेहरे पर पसरी रहती है। एक मशीनी किरदार को इतना जीवंत दिखाना कतई आसान नहीं था और यह संभव हुआ है, जिसके लिए फिल्म के निर्माण से जुड़ा हर व्यक्ति तारीफ का पात्र है। जॉन सीना भी फिल्म में एक खास किरदार में हैं (जैक बन्र्स नामक सेना अधिकारी) जिसे उन्होंने बखूबी निभाया है। साथ ही जॉर्ज लैंडबर्ग जूनियर फिल्म में चार्ली के दोस्त मेमो के किरदार में हैं, जिसमें वह जमे हैं। फिल्म का पाश्र्व संगीत भी इसके अनुरूप है। स्पेशल इफेक्ट्स तो दमदार हैं ही। यह फिल्म बच्चों, बड़ों- सभी को पसंद आएगी।
कांग्रेस में बड़े बदलाव की तैयारी
डाॅ. अरूण जैन

क्या कहती है राहुल गांधी की कुंडली
बहुत से लोगों के मन में ये सवाल चल रहा है कि क्या राहुल गांधी देश के प्रधानमंत्री बनेंगें या एक बार फिर से राहुल गांधी के हाथ असफलता ही लगेगी. कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष के सितारे वर्ष 2019 में कैसे रहेंगे, इसे लेकर सबके मन में कौतूहल है. राहुल गांधी का जन्म 19 जून 1970 को दोपहर 02; 28 में नई दिल्ली में हुआ है. इस समय के अनुसार राहुल गांधी की जन्म कुंडली तुला लग्न की है. वहीं इनकी चंद्र राशि धनु है. 2012 से ही राहुल गांधी की कुंडली पर साढ़े साती चल रही थी जो अब समाप्त होने वाला है. वर्ष 2019 से मंगल की महादशा आरंभ होगी, जो राहुल गांधी का भाग्योदय करा सकता है. राहुल गांधी की राशि में मंगल की महादशा चल रही है. ये मंगल मारकेश में है और भाग्य में बैठा हुआ है. 2019 वर्ष कुंडली को देखें तो ये वर्ष राहुल गांधी के लिए काफी अच्छे संकेत दे रहा है. राहुल गांधी के लिए प्रत्यक्ष राजयोग के प्रबल योग दिख रहे हैं. योतिषाचार्य कहते हैं कि राहुल गांधी लाभ भाव में विराजमान सप्तमेश चंद्रमा की महादशा में लग्नेश और धनेश शनि की अंतर्दशा चल रही है. ये कुछ हानि के बाद लाभ प्रदान करती है. पंडितों के अनुसार राहुल गांधी शनि की साढ़े साती का अंतिम चरण चल रहा है. जाता हुआ शनि काफी शानदार परिणाम लेकर आता है. जानकारों के अनुसार समय अनुकूल रहा तो राहुल गांधी अप्रत्याशित रुप से देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हो सकते हैं.

लोकसभा चुनाव 2019 से पहले कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने संगठन को दुरुस्त करने का मन बना लिया है। पार्टी में बड़ा फेरबदल होने जा रहा है। यह बदलाव चुनाव से पहले ही हो सकता है। इसके तहत छह राज्यों में अध्यक्ष बदले जा सकते हैं। वहीं ज्योतिरादित्य सिंधिया का कद बढ़ाने की योजना भी बन रही है। आइए जानें पूरी खबर क्या है। राहुल के विदेश दौरे से पहले हो सकती है घोषणा राहुल गांधी चुनाव से पहले ही कोई कसर छोडऩा नहीं चाहते हैं। इस वजह से वो अभी से संगठन को मजबूत करने की सोच रहे हैं। छह प्रदेशों के अध्यक्ष बदलने के साथ ही पीएल पुनिया और सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया पर बड़ा फैसला हो सकता है। राहुल 11 जनवरी को विदेश जा रहे हैं। वहां जाने से पहले ही बदलाव की फाइल पर अंतिम मुहर लग सकती है। इन प्रदेशों में हो सकता है बड़ा फेरबदल कांग्रेस सबसे पहले तीन राज्यों में जीत के बाद वहां कांग्रेस अध्यक्ष पद भरने की सोच रही है। सचिन पायलट के उपमुख्यमंत्री, कमलनाथ के मुख्यमंत्री और भूपेश बघेल के सीएम बनने के बाद यहां संगठन संभालने वाला कोई नहीं है। वहीं हरियाणा में अशोर तंवर और यूपी में राज बब्बर की छुट्टी हो सकती है। वैसे राज बब्बर चुनाव भी लडऩा चाहते हैं। इसके अलावा दिल्ली में भी अध्यक्ष को लेकर बड़ा निर्णय होना है। वहीं पीएल पुनिया दिल्ली आना चाहते हैं और सिंधिया समेत कुछ अन्य प्रभारियों को महासचिव पद देने की तैयारी है।