Wednesday 16 August 2017

तनाव की सीमा

डॉ. अरूण जैन
भारत और चीन के बीच सीमा पर पिछले करीब डेढ़ महीने से कायम विवाद अब गंभीर शक्ल लेने लगा है। हाल के दिनों में चीन ने भारत के कई कदमों पर जिस तरह आक्रामक बयानबाजी की है, उससे यही लगता है कि उसकी दिलचस्पी तनाव को कम करने के बजाय उसे हवा देने में है। भारत और चीन के बीच सीमा पर पिछले करीब डेढ़ महीने से कायम विवाद अब गंभीर शक्ल लेने लगा है। हाल के दिनों में चीन ने भारत के कई कदमों पर जिस तरह आक्रामक बयानबाजी की है, उससे यही लगता है कि उसकी दिलचस्पी तनाव को कम करने के बजाय उसे हवा देने में है। यह अपने आप में एक विचित्र आरोप है कि भारत चीन की सीमा पर सैनिक भेज कर राजनीतिक उद्देश्य पूरा करना चाहता है। अगर सुरक्षा संबंधी जरूरतों के मद्देनजर भारत की सेना कोई गतिविधि करती है तो उस पर चीन को आखिर भारत को ऐसा नहीं करने की सलाह देने की जरूरत क्यों लगती है? भूटान से लगती सीमा पर तनाव जरूर है, लेकिन चीन के इस आरोप का क्या आधार है कि भारतीय सैनिकों ने दोनों देशों के बीच निर्धारित सीमा को अवैध तरीके से पार किया है? जबकि भारत का यह कहना है कि डोकलाम क्षेत्र में सड़क का निर्माण भारत की सामरिक सुरक्षा के लिहाज से एक संवेदनशील मसला है, इसलिए उसने पिछले महीने इस क्षेत्र में अपने सैनिक भेजे थे। मकसद बस इतना था कि इसे रोका जा सके। दरअसल, भारत को यह स्वाभाविक चिंता है कि इस क्षेत्र में अगर सड़क तैयार हो गई तो पूर्वोत्तर के राज्यों को देश से जोडऩे वाले बीस किलोमीटर के दायरे में चीन का दखल बढ़ जाएगा। इस इलाके को 'सेवन सिस्टर्सÓ के नाम से जाना जाता है और यह सामरिक रूप से बेहद अहम है। दूसरी ओर, चीन के सरकारी मीडिया ने साफ तौर पर कहा कि वह भारत से निपटने के लिए तैयार है। इस तरह के उकसावे वाले बयानों का क्या आशय निकाला जाए! गौरतलब है कि सिक्किम के डोकलाम को लेकर चीन और भूटान के बीच विवाद होता रहता है और इधर इसी मसले पर भारत और चीन के बीच भी सीमा विवाद तीखा हुआ है। बीते कुछ समय से लगातार इस क्षेत्र में भारत और चीन ने सीमा पर अपनी फौज की तादाद बढ़ा दी है। स्वाभाविक ही यह एक संवेदनशील स्थिति है, जिसे अगर वक्त रहते नहीं संभाला गया तो यह एक बड़े नुकसान की वजह बन सकती है। यही कारण है कि यह मामला भारत के लिए चिंता का सबब है।  को संसद में पूर्व रक्षा मंत्री मुलायम सिंह यादव ने कहा भी कि आज भारत की सबसे बड़ी चिंता पाकिस्तान नहीं, चीन है क्योंकि वह हमले की तैयारी कर चुका है। अगर उनकी आशंका का आधार मजबूत है तो निश्चित रूप से यह स्थिति भारत के लिए सजग रहने की है। दोनों देशों के बीच करीब साढ़े तीन हजार किलोमीटर लंबी सीमा है। सीमा विवाद की वजह से ही 1962 का युद्ध हुआ था, लेकिन अब भी कुछ इलाकों को लेकर विवाद कायम है, जिसकी वजह से भारत और चीन के बीच तनाव पैदा हो जाता है। यह किसी से छिपा नहीं है कि विस्तार के कई मोर्चों पर चीन एक साथ काम कर रहा है, जिसमें सड़क, रेल, आर्थिक शक्ति और तकनीकी विकास प्रमुख है। खासतौर पर भारत की सीमा से सटे क्षेत्रों में वह जिस तरह सैन्य गतिविधियां चला रहा है, वह भारत की सुरक्षा के लिए एक बड़ा खतरा है। चीन के रवैये का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि उसने सिक्किम के नाथुला दर्रे से होकर जाने वाले सत्तावन भारतीय तीर्थयात्रियों को कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए रास्ता देने से भी इनकार कर दिया। क्या इससे यह जाहिर नहीं होता कि वहां अवैध गतिविधियों का आरोप लगा कर चीन अपने ऊपर लगने वाले आरोपों से पल्ला झाडऩा चाहता है?

Tuesday 15 August 2017

भ्रष्टाचार की जड़ें सेना तक पहुँचना देश के लिए बड़ा खतरा

डॉ. अरूण जैन
भ्रष्टाचार वो बीमारी है जिसकी शुरूआत एक व्यक्ति के नैतिक पतन से होती और अन्त उस राष्ट्र के पतन पर होता है, एक कटु सत्य। जब सम्पूर्ण राष्ट्र की समृद्धि उस देश के हर नागरिक की समृद्धि का कारण बने तो वो राष्ट्र सम्पूर्ण विश्व के लिए एक उदाहरण बन जाता है। जब भ्रष्टाचार एक व्यक्ति की समृद्धि का कारण बने तो कालांतर में वो राष्ट्र विश्व के लिए एक आसान लक्ष्य बन जाता है। भ्रष्ट आचरण के बीज एक व्यक्ति से परिवार में परिवार से समाज में और समाज से सम्पूर्ण राष्ट्र में फैल जाते हैं। यह वो पौधा है जो बहुत ही आसानी और शीघ्रता से न सिर्फ स्वयं फलने फूलने लगता है अपितु अपने पालनहार के लिए भी उतनी ही आसानी से समृद्धि के द्वार खोल देता है। लेकिन इसके बीज की एक खासियत यह होती है कि यह एक बार जिस स्थान पर पनप जाता है उसे  हमेशा के लिए ऐसा बंजर कर देता है कि फिर उस पर मेहनत ईमानदारी स्वाभिमान जैसे फूल खिलने बन्द हो जाते हैं। और इस बीज के सहारे एक व्यक्ति जितना समृद्ध होता जाता है परिवार के संस्कार उतने ही कमजोर होते जाते हैं। परिवार में संस्कारों के ह्रास से समाज की नींव कमजोर पडऩे लगती है। समाज के कमजोर पड़ते ही राष्ट्र पिछडऩे लगता है। कुछ खबरें ऐसी होती हैं जो हमें यह सब सोचने के लिए मजबूर कर देती हैं। जब देश की रक्षा और देश की सुरक्षा करने वाले जांबाजों की सुरक्षा के साथ ही खिलवाड़ किया जा रहा हो तो क्या अब समय नहीं आ गया कि हम इस बात की गंभीरता को समझें कि इस देश में भ्रष्टाचार की जो जड़ें अभी तक सरकारी कार्यालयों, नेताओं और ब्यूरोक्रेट्स तक फैली हुई थीं अब सेना के भीतर भी पहुँच गई हैं? जिस भ्रष्टाचार ने अब तक इस देश के आम आदमी के जीवन को दुश्वार बनाया हुआ था वो आज सेना के जवान के जीवन को दाँव पर लगा रहा है? जो भ्रष्टाचार इस देश की जड़ें खोद रहा था आज देश की सीमाओं और सुरक्षा के साथ खिलवाड़ करने से भी नहीं चूक रहा? बात केवल इतनी नहीं है कि मेक इन इंडिया के तहत बनने वाली देश की पहली स्वदेशी तोप में लगने वाले कलपुर्जे चीनी निकले जिसका पता तब चला जब परीक्षण के दौरान एक बार बैरल बर्स्ट हो गया और दो बार तोप का मजल फट गया। मुद्दा इससे कहीं गंभीर है।  बात यह है कि गन कैरिज फैक्टरी, जीसीएफ का एक महत्वपूर्ण एवं महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट है, स्वदेशी बोफोर्स धनुष का निर्माण। वो बोफोर्स जिसने कारगिल युद्ध में भारतीय सेना को पाकिस्तानी सेना से टक्कर लेने एवं युद्ध जीतने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वो धनुष जो दुनिया की शीर्ष पांच तोपों में शामिल है, बोफोर्स बीओ5 (स्वीडन), एम 46 एस (इजरायल), जीसी 45 (कनाडा), नेक्सटर (फ्रांस), धनुष (भारत)। लेकिन जब देश की सुरक्षा से जुड़ा ऐसा कोई संवेदनशील एवं महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट विवाद के कारण जांच की सीमा में आ जाता है तो न सिर्फ पूरे तंत्र की विश्वसनीयता शक के दायरे में आ जाती है बल्कि पूरी निर्माण प्रक्रिया जो अब तक तोपों को बनाने में लगी थी और तेजी से आगे बढ़ रही थी अब अचानक सभी कागजातों के सील होने के कारण थम जाती है और पूरा प्रोजेक्ट पीछे चला जाता है। दरअसल जीसीएफ ने दिल्ली की जिस कम्पनी सिद्ध सेल्स को इन कलपुर्जों को बनाने का ठेका दिया था उसने एक सर्टिफि़केट दिया था कि यह कलपुर्जे सीआरबी नामक जर्मनी कम्पनी में निर्मित हैं। इतना ही नहीं उन पर सीआरबी मेड इन जर्मनी" की सील भी लगी थी। लेकिन अब सीबीआई की जांच में जो भी तथ्य सामने आ रहे हैं वे न सिर्फ चौंकाने वाले हैं बल्कि बेहद गंभीर एवं चिंताजनक भी है। पता चला है कि जब यह पुर्जे जीसएफ ने टेस्ट किए थे तब भी इनके डायमेन्शन में गड़बड़ के बावजूद इन्हें स्वीकार कर लिया गया था। जैसे जैसे जांच की परतें खुलती जा रही हैं इस मामले की जड़ों की गहराई भी बढ़ती जा रही हैं। क्योंकि जो सर्टिफि़केट सिद्ध सेल्स ने जीसीएफ को दिया था वो फर्जी था, जर्मनी की उक्त कम्पनी ऐसे कलपुर्जों का निर्माण ही नहीं करती। लेकिन इससे भी अधिक चिंता का विषय यह है कि सिद्ध सेल्स ने पूरी दुनिया में से चीन को ही क्यों चुना अपने ही देश की सेना को नकली माल सप्लाई करने के लिए?इन नकली पुर्जों का निर्माण चीन के हेनान में स्थित साइनो यूनाइटेड इन्डस्ट्री लूयांग चाइना में हुआ था। इसके अलावा सीबीआई को चीन और सिद्ध सेल्स के बीच कई ईमेल के आदान प्रदान का रिकॉर्ड भी मिला है। तो दिल्ली की जिस कम्पनी ने इस पूरे फर्जीवाड़े को अंजाम दिया उसका यह आचरण किस दायरे में है? चार सौ बीसी के या फिर देशद्रोह के? सेना के जिन अफसरों की निगरानी में यह प्रोजेक्ट था उनसे यह नादानी में हुआ था फिर जानबूझकर? उन्हें कम्पनी द्वारा धोखा दिया गया या फिर उन्होंने देश को धोखा दिया? जिस सेना पर पूरा देश गर्व करता है उस सेना के ऐसे महत्वपूर्ण पदों पर न तो नादानी की गुंजाइश होती है और न ही विश्वासघात की। दोनों के ही अंजाम घातक होते हैं। हमारा सैनिक अगर मातृभूमि की रक्षा में दुश्मन से लड़ते लड़ते वीरगति को प्राप्त हो तो उसे अपनी शहादत पर गर्व होता है लेकिन जब एक देशभक्त सैनिक अपने ही किसी साथी की गद्दारी के कारण अपने प्राणों की बलि देता है तो उसे अपने प्राणों का नहीं, दुख इस बात का होता है कि अब मेरा देश असुरक्षित हाथों में है। वो सैनिक जो अपनी जवानी देश की सीमाओं की रक्षा में लगा देता है, वो पत्नी जो अपनी जिंदगी सरहद की निगरानी करते पति पर गर्व करते हुए बिता देती है, वो बच्चे जो अपने पिता के इंतजार में बड़े हो जाते हैं और वो बूढ़ी आँखें जो अपने बेटे के इंतजार में दम तोड़ देती हैं, क्या इस देश के सर्वोच्च पदों पर बैठे नेता और कठिन से कठिन प्रतियोगी परीक्षाओं को पास करके इन पदों पर आसीन अधिकारी कभी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़े ऐसे ही किसी सैनिक के परिवार से मिलकर उनके कुछ बेहद मासूम और सरल से सवालों के जवाब दे पाएंगे?

मुकेश अंबानी अपने छोटे भाई अनिल अंबानी के कारोबार को लील गए!

डॉ. अरूण जैन
तकनीक के तेवर रिश्तों को तहस नहस कर रहे हैं। मुकेश अंबाजी और अनिल अंबानी को ही देख लीजिए। दोनों भाई हैं। सगे भाई। धीरूभाई अंबानी के स्वर्ग सिधारते ही रिश्तों में दूरियां आ गई थी, और दोनों मन से बहुत दूर हो गए। फिर मोबाइल फोन के जिस धंधे में अनिल अंबानी थे, उसी मोबाइल की दुनिया में कदम रखते ही मुकेश अंबानी ऐसा भूचाल ले आए कि उनके स्मार्टफोन और फ्री डेटा से अनिल अंबानी की दुनिया न केवल हिलने लगी, बल्कि गश खाकर धराशायी हो गई। इन दिनों अनिल अंबानी की नींद उड़ी हुई है। वे धंधा समेटने की फिराक में है। वैसे भी वे कोई मुनाफे का धंधा नहीं कर रहे हैं। भारी कर्ज का बोझ उनके सर पर है और बहुत आसानी से इससे उबरने की फिलहाल कोई गुंजाइश नहीं है। मुकेश अंबानी अपने रिलायंस जियो के जरिए मोबाइल की दुनिया में तूफान खड़ा किए हुए है, तो अनिल अंबानी के रिलायंस कम्यूनिकेशन (आरकॉम) की नैया उस तूफान में हिचकोले खा रही है। वैसे, यह कहने को हर कोई आजाद है कि मुकेश अंबानी को ऐसा नहीं करना चाहिए था। भाई द्वारा भाई की मदद करने के विषय पर बहुत साल पहले एक फिल्म आई थी, नाम था - भाई हो तो ऐसा। लेकिन लेकिन इस उल्टी गंगा को देखकर यही तथ्य अब सवाल की मुद्रा में हमारे देश में पूछा जा रहा है कि - भाई हो तो ऐसा ऐसा ? मुकेश अंबानी के जियो के आते ही तीन महीने में ही अनिल की कंपनी को कुल एक हजार करोड़ का नुकसान हुआ है। जी हां, एक हजार करोड़। हमारे हिंदुस्तान की सवा सौ करोड़ जनता में से एक सौ चौबीस करोड़ लोगों को अगर यह पूछा जाए कि एक करोड़ में कितने शून्य होते हैं, तो वे बता भी नहीं पाएंगे। मगर, यहां तो मामला एक हजार करोड़ के नुकसान का है। रिलायंस जियो की लांचिंग से हालांकि सभी टेलिकॉम आपरेटर की कमाई को जबरदस्त झटका लगा है। लेकिन अनिल अंबानी के आरकॉम पर जियो ने कुछ ज्यादा ही करारी चोट की है। मुकेश अंबानी के मोबाइल फोन और इंटरनेट की कदम रखते ही अनिल अंबानी की हालत खराब है। अनिल परेशान हैं। आरकॉम के आंकड़ों को देखकर डरावनी तस्वीर सामने आ रही है। बड़ी संख्या में इनिल अंबानी के ग्राहक आरकॉम छोड़कर जियो सहित दूसरे ऑपरेटरों की सर्विस ले रहे हैं। हालांकि एयरटेल, वोडाफोन और आइडिया कुछ हद तक अपने ग्राहकों को सहेजने में सफल रहे हैं। लेकिन आरकॉम को अपने डेटा ग्राहकों के मामले में भी बहुत बड़ा नुकसान उठाना पड़ा है। एक साल पहले आरकॉम के पास 38.9 मिलियन ग्राहक थे। लेकिन 2017 की आखिरी तिमाही में उसके पास सिर्फ 28.3 मिलियन ग्राहक बचे हैं। मतलब, करीब 10 मिलियन ग्राहक उन्हें छोड़ गए हैं। देश के बड़े कर्जदारों में अनिल अंबानी का नाम लगातार शिखर की ओर बढ़ रहा हैं। वे लगातार कर्ज के बोझ तले दबते जा रहे हैं और हालात यह हैं कि जिनकी उनकी सकल संपत्ति है, उससे ज्यादा उन पर कर्ज है। अनिल अंबानी की रिलायंस को उधार देने वालों की नींद उड़ी हुई है और इस कंपनी में जिन्होंने निवेश किया है, वे भी परेशान हैं। मार्च 2017 के जाते जाते अनिल अंबानी की कंपनी आरकॉम कुल 45 हजार 733 करोड़ रुपये के कर्ज के बोझ तले आ गई है। अनिल अंबानी की आरकॉम का भविष्य कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है। बीते साल की आखरी तिमाही के नतीजों में कंपनी में रेवेन्यू तो बड़ी मात्रा में घटी ही है, आरकॉम के नेट प्रॉफिट में भी बहुत बड़ी गिरावट आई है। आंकड़ों पर नजर डालें, तो सन 2017 में जनवरी - मार्च की तिमाही में कंपनी को कुल 948 करोड़ रुपये का घाटा झेलना पड़ा है। मतलब करीब एक हजार करोड़ का घाटा। मतलब साफ है कि आनेवाले दिनों में अनिल अंबानी की तरफ से कोई बड़ी खबर सुनने को मिल सकती है। 
छोटे भाई अनिल अंबानी कर्जे के इस बोझ को कम करने का मन बना चुके हैं। इसके लिए वे अपना मोबाइल टॉवर का कारोबार बेचने की तैयारी में हैं। आरकॉम के मोबाइल टॉवर कारोबार की कुल कीमत करीब 25 हजार करोड़ रुपये मानी जा रही है। ब्रूकफील्ड नाम की कंपनी इसके लिए तैयार भी है। अनिल अंबानी आश्वस्त हैं कि इसके अलावा थोड़ी बहुत रकम उन्हें अपनी कंपनी के एयरसेल के साथ मर्जर से भी मिल ही जाएगी। सो, वे इस संकट से पार पा लेंगे। लेकिन फिर भी रिलायंस को उधार देने वालों की नींद उड़ी हुई है और अनिल अंबानी की कंपनी में निवेश करनेवालों को अपने भविष्य पर संकट दिख रहा है। बीते एक साल के दौरान शेयर मार्केट में रिलायंस कंम्यूनिकेशन के शेयर लगभद 40 फीसदी टूट चुके हैं। बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज में उनके शेयर काफी नीचे उतर गए हैं। नैशनल स्टॉक एक्सचेंज पर भी कंपनी का शेयर 20 फीसदी से अधिक कमजोर हुए। मुकेश अंबानी की रिलायंस जियो की आक्रामक मार्केटिंग और बेहद कम कीमत रखने की नीति के कारण छोटे भाई अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस कम्युनिकेशंस को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है। यह सब इसलिए हैं क्योंकि धंधे में कोई किसी का भाई नहीं होता।

राहुल ने सिंधिया को दिल्ली बुलाया, कमलनाथ खुश हुए

डॉ. अरूण जैन
राहुल गांधी ने मप्र में कांग्रेस की ओर से सीएम कैंडिडेटशिप के दावेदार ज्योतिरादित्य सिंधिया को दिल्ली बुला लिया है। उन्हे नेशनल मीडिया स्ट्रेटजी कमेटी में शामिल किया गया है। साथ ही कहा गया है कि वो डेली मीटिंग करेंगे। सिंधिया की इस पोस्टिंग से उनके प्रतिस्पर्धी कमलनाथ समर्थक काफी खुश नजर आ रहे हैं। उनका कहना है कि अब कमलनाथ का रास्ता साफ हो गया है, क्योंकि सिंधिया तो दिल्ली में ही रहेंगे। कमलनाथ इस बार शायद अपने पेंशन प्लान पर काम कर रहे हैं। उनकी लोकप्रियता या योग्यता के सवाल पर बार-बार दोहराया जा रहा है कि उनकी उम्र हो गई है। अब उन्हे अगला मौका शायद नहीं मिलेगा। योग्यता के मामले में दावा किया जा रहा है कि वो सबसे अच्छे मैनेजर हैं। पार्टी के भीतर का मैनेजमेंट हो नेताओं की गुटबाजी का मैनेजमेंट हो या फिर चुनावों का मैनेजमेंट सभी में वह पार्टी के भीतर नंबर वन हैं। हालांकि मप्र में हुए उपचुनावों में उनका मैनेजमेंट का जादू दिखाई ही नहीं दिया। शहडोल लोकसभा में तो उनकी पराजित प्रत्याशी ने भाजपा नेता से लवमैरिज कर ली। टिकट दिलाने समय शायद कमलनाथ को मालूम ही नहीं था कि उनकी प्रत्याशी को भाजपा से प्यार है। लोकप्रियता के मामले में वो सिंधिया से काफी पीछे हैं। मंच पर शिवराज का सामना करने की स्थिति में कतई नहीं माने जा सकते। वैसे भी मैनेजर्स सीएम के नीचे काम करते हैं। मैनेजर्स को कभी सीएम नहीं बनाया जाता। वोट की ताकत जनता के हाथ में है और जनता सिंधिया के साथ है। बस एक खामी है कि वो गुटबाजी को खत्म नहीं कर सकते। कांग्रेस का एक वर्ग सिंधिया का स्वभाविक विरोध करता है। कमलनाथ, सिंधिया की इसी कमजोरी का फायदा उठाना चाहते हैं। वो दावा करते हैं कि उनके सामने आने पर गुटबाजी खत्म हो जाएगी। राहुल गांधी के सामने संकट यह है कि यदि कमलनाथ को आगे करते हैं तो क्या जनता पसंद करेगी और यदि सिंधिया को आगे किया तो पार्टी के भीतर से खतरा है। फैसला अभी बाकी है। खुद को इंदिरा गांधी का तीसरा बेटा कहने वाले कमलनाथ के सामने बड़ी समस्या यह है कि वो राहुल गांधी की पसंद नहीं हैं।

देश के सभी बड़े न्यूज चैनलों में अंबानी का पैसा लगा है!

डॉ. अरूण जैन
एनडीटीवी वाले मामले से और कुछ हुआ हो या न हो, मगर यह जरूर पता चल गया कि देश के टॉप टेन चैनलों में से शायद ही कोई बचा हो जिसमें अम्बानी का ठीक ठाक पैसा न लगा हो (हृष्ठञ्जङ्क में भी प्रणव-राधिका के तमाम शेयर अंबानी के पास गिरवी हैं)। इस हिसाब से राष्ट्रवादी हो, बहुराष्ट्रवादी हो या साम्यवादी हो। तकरीबन हर न्यूज़ चैनल अंतत: अम्बानी न्यूज़ ही है। फर्क सिर्फ इतना है कि कोई चीख कर बातें करता है तो कोई मृदुल स्वर में। कोई राष्ट्रवादियों को शेयरिंग कंटेंट उपलब्ध कराता है तो कोई उदारवादियों को। इस लिहाज से अखबार अभी बचे हुए हैं। दो चार बड़े अखबार ही होंगे जिनमें अम्बानी का पैसा लगा होगा। बाकी अंबानी के विज्ञापन के लिए ही मुंह जोहते रहते हैं। अखबार वाले विज्ञापन पर बिकते हैं, जबकि ह्ल1 वाले परमानेंटली बिके हुए हैं, किसी रोज अंबानी इन पर कब्जा कर सकता है। अगर विज्ञापन न मिले तो अखबार वाले किसी भी रोज राजस्थान पत्रिका की तरह सीना तानकर खड़े हो सकते हैं। मगर ह्ल1 वालों को छापे के दिन का इंतजार करना पड़ता है। और हां, ये सरकार के खिलाफ तो खड़े हो सकते हैं मगर अंबानी के खिलाफ खड़ा होना मुश्किल होता है। रस्मी खबरें चला देना अलग बात है। हां, बीबीसी और स्क्रॉल डॉट इन की बात अलग है। इन दो मीडिया हाउस को आमदनी से कोई लेना देना नहीं है। इन्हें सिर्फ खर्च करना है। और खर्च करने के लिये इनके पास इफरात पैसा है। लिहाजा इनको न अम्बानी की गरज है और न ही स्रड्ड1श्च-श्चह्म्स्रड्ड की। क्रांति करने के लिए ऐसी आदर्श स्थिति तो चाहिए ही होती है। बीबीसी का पैसा कहां से आता है, यह तो मालूम है। बस स्क्रॉल का सोर्स ऑफ इनकम नहीं मालूम। लगता है कोई जादुई चिराग है इनके पास।

जिन मुद्दों पर घेरती थी भाजपा अब उन्हीं मुद्दों पर सवालों के घेरे में

डॉ. अरूण जैन
उत्तर प्रदेश की जनता ने जिस जानदार−शानदार तरीके से भारतीय जनता पार्टी को विधान सभा चुनाव में बहुमत दिलाया था, उससे बीजेपी और खासकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ऊपर अपेक्षाओं का बोझ बढ़ गया था। मोदी पर इसलिये क्योंकि उन्हीं (मोदी) के फेस को आगे करके बीजेपी ने चुनाव लड़ा था। मोदी ने चुनाव प्रचार के दोरान प्रदेश की बिगड़ी कानून व्यवस्था और किसानों की बदहाली को बड़ा मुद्दा बनाया था। बीजेपी जब चुनाव जीती तो तेजतर्रार योगी आदित्यनाथ को इस उम्मीद के साथ सीएम की कुर्सी पर बैठाया गया कि वह जनता की कसौटी पर खरे उतरेंगे। तीन माह का समय होने को है, मगर आज यही दो समस्याएं योगी सरकार और बीजेपी आलाकमान के लिये परेशानी का सबब बनी हुई हैं। दिल्ली से लेकर लखनऊ तक में पार्टी नेताओं/प्रवक्ताओं को जनता और मीडिया के तीखे सवालों का जवाब देना पड़ रहा है। योगी सरकार की पहली कैबिनेट बैठक में छोटे-मझोले किसानों का कर्ज माफ करने को मंजूरी दे दी गई थी, लेकिन तकनीकी कारणों से ऐसा हो नहीं पाया। योगी सरकार कार्यकाल के तीसरे माह में चल रही है, मगर अभी तक कर्ज माफी के नाम पर किसानों के हाथ कुछ भी नहीं लगा है। इसको लेकर किसानों में तो नाराजगी स्वाभाविक है, विपक्ष भी लगातार किसानों का कर्ज नहीं माफ हो पाने के मुद्दे को खाद−पानी देने का काम कर रहा है। किसान कर्ज माफी को लेकर योगी सरकार के प्रति आशंकित हैं तो बिगड़ी कानून व्यवस्था के चलते आमजन भयभीत हैं। प्रदेश की चरमराई कानून व्यस्था ने विपक्ष को बैठे-बैठाये योगी सरकार पर हमलावर होने का मौका दे दिया है। कल तक बीजेपी वाले जिस अखिलेश सरकार को बिगड़ी कानून व्यवस्था को लेकर घेरा करती थे और इसे चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा बना दिया था, आज उसी वजह से योगी सरकार को बार-बार शर्मिंदा होना पड़ रहा है।  बात यहीं तक सीमित नहीं है अब तो योगी सरकार के कई फैसलों पर अदालत भी उंगली उठाने लगी है। खैर, किसी भी सरकार के कामकाज की समीक्षा के लिये तीन माह का समय काफी छोटा होता है, इसलिये योगी सरकार को भी इसका फायदा मिलना चाहिए। भले ही नई सरकार के गठन के बाद भी यूपी में हालात बहुत ज्यादा नहीं बदले हों, लेकिन जनता का योगी सरकार पर विश्वास बना हुआ है। सीएम योगी पूरी ईमानदारी और मेहनत से काम कर रहे हैं और सबको यही उम्मीद है कि देर-सवेर योगी की मेहनत रंग लायेगी। परंतु इसके लिये योगी जी को सरकारी मशीनरी के पेंच और टाइट करने होंगे। अभी तक तो यही नजर आ रहा है कि जिनके हाथों में कानून व्यवस्था दुरूस्त करने की जिम्मेदारी है, वह यूपी में आये बदलाव को देख नहीं पा रहे हैं और पुराने तौर−तरीकों पर ही चल रहे हैं। कुछ पुलिस के अधिकारी तो योगी राज में भी भी अखिलेश के प्रति वफादार नजर आ रहे हैं, जिसकी वजह से भी कानून व्यवस्था में सुधार देखने को नहीं मिल रहा है। बात यहीं तक सीमित नहीं है। चर्चा तो यह भी है कि योगी सरकार को बदनाम करने के लिये विरोधी दलों द्वारा भी पडय़ंत्र रचा जा रहा है। कई जगह आपराधिक वारदातों में विरोधी दलों के नेताओं की लिप्ता भी देखी जा रही है। सहारनपुर की हिंसा को इसका प्रत्यक्ष प्रमाण कहा जा सकता है। सहारनपुर में मायावती से लेकर राहुल गांधी तक ने जिस तरह माहौल खराब करने की कोशिश की उसे जनता समझती है। एक और बात विरोधी दल और पूर्ववर्ती सरकारों के वफादार सरकारी कर्मचारी तो योगी की राह में रोड़े फंसा ही रहे हैं, योगी के अपने भी इस मामले में पीछे नहीं हैं। भगवाधारियों द्वारा आगरा में पुलिस थानों पर हमला, मेरठ में एसएसपी के आवास में घुस कर गुंडागर्दी, लखनऊ में बीजेपी नेता द्वारा एक होमगाई की पिटाई, गोरखपुर में एक आईपीएस महिला पुलिस अधिकारी के साथ बीजेपी विधायक राधा मोहन दास का अभद्र व्यवहार सत्तारूढ़ दल के नेताओं की गुंडागर्दी की बानगी भर है। असल में योगी के लिये विपक्षी ही नहीं उनकी पार्टी के नेता और कार्यकर्ता भी मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं। इससे उलट बात अगर योगी के सार्थक प्रयासों और सराहनीय फैसलों की करें तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जिस तरह से महिलाओं की सुरक्षा को लेकर गंभीर पहल की वह अपने आप में मिसाल बन गई। योगी सरकार के शपथ लेते ही पूरे प्रदेश में लड़कियों से छेडख़ानी की घटनाओं पर अंकुश लग गया। बेटियों को लेकर योगी आदित्यनाथ की पहल ने निश्चित तौर पर उत्तर प्रदेश की बच्चियों और महिलाओं की सुरक्षा और उनकी प्रगति के लिए बहुत बड़ी उम्मीद जगा दी। हालांकि प्रदेश में कई ऐसे मामले मी सामने आये जिनमें महिलाओं की सुरक्षा पर सवाल खड़ा होता रहा। फिर भी घरेलू हिंसा, एसिड अटैक, छेडख़ानी और बलात्कार से पीडि़त महिलाओं और किशोरियों को योगी राज में अपनी सुरक्षा की उम्मीद बरकरार है। वैसे, यह जगजाहिर है कि यूपी में महिलाओं के साथ अपराध हमेशा ही चिंता का विषय बना रहा है। नेशनल कमीशन फॉर वीमेन के आंकड़ों के अनुसार, भारत में घरेलू हिंसा के मामले सबसे अधिक उत्तर प्रदेश में हैं। वर्ष 2015−16 में अकेले उत्तर प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा के मामलों की संख्या 6,110 थी, जबकि दिल्ली में 1,179, हरियाणा में 504, राजस्थान में 447 और बिहार में 256 मामले दर्ज थे। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार महिलाओं पर अत्याचार के मामलों में उनके घर वाले ही सबसे आगे रहते हैं। पीडि़त महिलाओं द्वारा पति और रिश्तेदारों के खिलाफ सबसे अधिक मामले दर्ज कराना इस बात का संकेत है। महिलाओं की सुरक्षा को लेकर यूपी में योगी सरकार बनते ही एंटी रोमियो स्क्वॉड एक्शन में आ गया था, जिसके काम की काफी सराहना हुई तो कुछ आलोचनाएं भी इस स्क्वॉड को झेलनी पड़ीं।

कुदरत का खूबसूरत अजूबा माना जाता है विक्टोरिया जलप्रपात

डॉ. अरूण जैन
इस प्रपात को एक किनारे से दूसरे किनारे तक देखने के लिए आपको कार द्वारा या फिर पैदल पुल पार करके जिम्बाब्वे की सीमा में प्रवेश करना होगा। यह पुल जलप्रपात से 700 मीटर दक्षिण में स्थित है। आकर्षक उद्यानों वाले पठार, ऊंची−ऊंची पर्वत श्रेणियां, रोमांचक वन्य जीवन, समुद्र जैसी विशाल झीलें और मनमोहक जलप्रपात, यह सब कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जिनकी वजह से बार−बार अफ्रीका जाने को मन करता है। अफ्रीका की प्राकृतिक खूबसूरती में जो चीज सबसे अधिक हैरान करती है वह है भव्य विक्टोरिया जलप्रपात। इस जलप्रपात को कुदरत का खूबसूरत अजूबा ही कहा जा सकता है। ऐसा अनुमान है कि प्रति मिनट जैंबेजी नदी का लगभग 55 लाख घन मीटर पानी घाटी में नीचे गिरता रहता है और इस घाटी के सामने के छोर से, जोकि नदी के तट जितना ही ऊंचा है, का आनंद आप ले सकते हैं। इस प्रपात को एक किनारे से दूसरे किनारे तक देखने के लिए आपको कार द्वारा या फिर पैदल पुल पार करके जिम्बाब्वे की सीमा में प्रवेश करना होगा। यह पुल जलप्रपात से 700 मीटर दक्षिण में स्थित है और इस पर खड़े होकर आप इसका पूरा नजारा देख सकते हैं। विक्टोरिया जलप्रपात के आसपास लोग हजारों साल से रहते आ रहे हैं, लेकिन बाहरी दुनिया को प्रकृति के इस आश्चर्य से परिचित कराने का श्रेय एक स्काटिश मिशनरी डेविड लिविंग्सटन को जाता है। 1855 में एक छोटी सी नाव में बैठ कर वह यहां पहुंचा था। उसी ने उस समय की परंपरा के अनुसार इंग्लैंड की महारानी के नाम पर इसे विक्टोरिया जलप्रपात नाम दिया और उसके नाम पर इस शहर का नाम पड़ा लिविंग्सटन। इस जलप्रपात का सबसे पुराना नाम शोंगवे था, जो इस क्षेत्र में बसे टोकलेया लोगों ने इसे दिया था। उसके बाद एंडेबेले लोग यहां आकर बसे और उन्होंने इसे बदल कर अमांजा थुंकुआयो कर दिया, जिसका अर्थ हुआ, धुएं में बदलता हुआ पानी। अंत में मकालोलो लोगों ने इसे एक नया नाम दिया मोस औ तुन्या, यानि गरजता हुआ धुआं। स्थानीय लोगों में आज भी यही नाम प्रचलित है। पिछले लगभग साढ़े पांच लाख वर्षों के दौरान यह जलप्रपात अपना स्थान बदलता रहा है। इस प्रक्रिया के दौरान नदी अब तक सात घाटियां पीछे छोड़ कर अपने वर्तमान स्थान पर पहुंची है। यहां आपको पानी तथा कीचड़ में अपने स्थूल शरीर को छिपाने का प्रयास करते हिप्पो भी देखने को मिल जाएंगे। आसपास के वनों में आपको एक डाल से दूसरी डाल पर कूदते बंदर भी नजर आएंगे साथ ही अनेक प्रकार के पक्षियों का कलरव भी आपका मन मोह लेगा। यहां का विक्टोरिया राष्ट्रीय उद्यान हाथी, अफ्रीकी भैंस, शेर तथा अन्य वन्य पशुओं से भरा पड़ा है। नदी में बड़े−बड़े खतरनाक मगरमच्छ भी हैं इसलिए इसमें नहाना सुरक्षित नहीं है। यहां सूर्योदय तथा सूर्यास्त देखने का सबसे अच्छा समय अक्तूबर से दिसंबर के बीच ही होता है, उस समय नदी में पानी भी ज्यादा नहीं होता और आकाश भी साफ होता है। आधुनिक पर्यटकों के मनोरंजन के लिए यहां पैराशूटिंग और जैंबेजी पुल से बंजी जंपिंग जैसे रोमांचक खेलों की व्यवस्था है। मछली पकडऩे के शौकीनों के लिए कुछ विशेष नौकाएं भी यहां उपलब्ध हैं जो नदी के अंदर ले जाकर आपके इस शौक को पूरा करती हैं। विक्टोरिया जलप्रपात को देखने के बाद आप यह अवश्य ही महसूस करेंगे कि प्रकृति का इससे अधिक रोमांचक, नाटकीय, भव्य तथा विलक्षण रूप शायद ही कहीं अन्यत्र देखने को मिले।

विदेश यात्राओं पर सवाल उठाने से पहले उपलब्धियाँ देखें

डॉ. अरूण जैन
विपक्ष के लोग यद्यपि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश यात्राओं पर तरह तरह की टिप्पणियां करते हैं लेकिन इन यात्राओं की अनगिनत उपलब्धियों के कारण ही आज दुनिया जिस तरह से भारत की तरफ देख रही है वह ऐतिहासिक है। कुछ पंडित भारत की विदेश नीति के आक्रामक होने की बात कहते हैं लेकिन यह समय के साथ होने वाली स्पर्धा है जिसमें हमारे प्रधानमंत्री को यह सब करना पड़ा है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। अब जबकि मोदी के सत्ता में आये तीन वर्ष पूरे हो रहे हैं, भारत की विदेश नीति को लेकर चर्चायें होना स्वाभाविक है क्योंकि इसी दौर में दुनिया एक नए तरह के वातावरण में प्रवेश कर रही है। अमेरिका सहित दुनिया के कई देशों में दक्षिणपंथ का उदय हो रहा है। वैश्वीकरण पर संकट के बादल हैं और दुनिया नयी परिभाषाओं के साथ आकार ले रही है। ऐसे में विवेचना दोनों की ही होनी चाहिए- इतिहास की भी और वर्त्तमान से जुड़े भविष्य की भी। एक तरह से देखने पर नरेंद्र मोदी की विदेश नीति भारत को अधिक प्रतिस्पर्धी, विश्वस्त और सुरक्षित देश के रूप में नए सिरे से तैयार करने में सक्षम प्रतीत होती है। यद्यपि मजबूत विदेश नीति की बुनियाद मजबूत घरेलू नीति ही होती है। वह भारत, जहाँ सम्पूर्ण विश्व का छठवां भाग निवास करता है, हमेशा अपनी शक्ति से बहुत कम प्रहार करता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वह नियम-निर्माता नहीं नियम मानने वाला देश रहा है। सुखी और शांत पड़ोसी  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार की विदेश नीति में सुखी और शांत पड़ोसी बनाने की पहल सबसे बड़ी ताकत है। मोदी ने अपने शपथ ग्रहण के दिन से ही इसकी शुरुआत कर दी थी जिसे 5 मई को कर के भी दिखा दिया। यह अलग बात है कि इस दिशा में पकिस्तान एक नासूर ही बन कर सामने आता रहा है। पकिस्तान को छोड़ दीजिये तो आज हम यह कह सकने की स्थिति में हैं कि समूचा दक्षिण एशिया आज एक कुटुंब के रूप में उभर कर सामने आया है जो मोदी की नीतियों की सबसे बड़ी विजय है। इस बात को दक्षिण एशिया के सभी देशों ने भी स्वीकार किया है।
 इसरो की तरफ से दक्षिण एशिया संचार उपग्रह जीसेट-9 को लांच करने के बाद दक्षिण एशियाई देशों के राष्ट्राध्यक्षों ने भारत को शुक्रगुजार मानते हुए कहा कि भारत के इस कदम से क्षेत्रीय देशों का आपसी संपर्क बढ़ेगा। सैटेलाइट में उपग्रह छोड़े जाने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि यह लांच इस बात को प्रमाणित करता है कि जब क्षेत्रीय सहयोग की बात हो तो आसमान में कोई सीमा नहीं होती है। प्रधानमंत्री ने कहा कि क्षेत्रीय जरूरतों के हिसाब से इसरो की टीम ने दक्षिण एशिया सैटेलाइट का निर्माण किया। मोदी ने आगे कहा कि इस लांचिंग के मौके पर मुझसे जुडऩे के लिए अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भुटान, नेपाल, मालदीव और श्रीलंका के अपने सहयोगी नेताओं का शुक्रिया करता हूं। दुनिया में एक मिशन के तहत सबसे अधिक सैटेलाइट्स की सफल लॉन्चिंग के बाद भारत ने दक्षिण एशियाई देशों के लिए त्रस््रञ्ज-9 को अंतरिक्ष में भेज दिया। इस क्षेत्र के देशों के लिए यह काफी अहम उपहार है। बदलते दौर में अपने पड़ोसियों से संबंधों को मजबूत करने के लिए भी यह सैटेलाइट काफी अहम भूमिका निभाएगा। नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, मालदीव, श्रीलंका के लिए भारत का यह उपहार कई मायनों में अहम इसलिए भी है क्‍योंकि इन देशों का अपना या तो कोई सैटेलाइट है ही नहीं या फिर उससे मिलने वाली सेवाएं इतनी खास नहीं हैं। इस सैटेलाइट लॉन्चिंग से जुड़ी एक अहम बात यह भी है कि इस सैटेलाइट की सेवाओं के लिए भारत ने किसी भी अन्‍य देश से कोई राशि नहीं ली है। इसका अर्थ है कि इस क्षेत्र के सभी देश इस सैटेलाइट से मिलने वाली जानकारियों को अपने हित के लिए बिना किसी मूल्य के इस्तेमाल कर सकेंगे। हालांकि पाकिस्तान इसमें भागीदार नहीं है। अरब देशों से रिश्ते बेहतर करने की पहल पश्चिम एशियाई देशों से भारत की बढ़ती नजदीकी बहुत ज्यादा सुर्खियां नहीं बटोर रही है। मगर मोदी सरकार का अरब देशों से ताल्लुक बेहतर करने का मिशन कई लोगों को पसंद आया है। कई जानकारों को लगता है कि अरब मुल्कों से नजदीकी बढ़ाने से घरेलू मोर्चे पर मोदी सरकार ये संदेश भी देने में कामयाब होगी कि वह धर्मनिरपेक्ष है। प्रधानमंत्री मोदी का इरादा विदेश नीति में पश्चिमी एशियाई देशों को अहमियत देने का है। उन्होंने संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब, ईरान, इराक और कतर के अलावा फिलिस्तीन से ताल्लुक बेहतर करने पर जोर दिया है। हालांकि, इन नीतियों से भारत अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर संदेश देना चाह रहा है। मगर इसका घरेलू राजनीति पर भी असर होगा। भारत में 14 करोड़ मुसलमान रहते हैं, जो दुनिया के किसी देश में मुसलमानों की दूसरी सबसे ज्यादा आबादी है। प्रधानमंत्री मोदी की आर्थिक और विदेश नीति में काफी दिलचस्पी है। अरब देशों के साथ संबंध बेहतर करके वो मुस्लिम देशों के बीच पाकिस्तान के असर को भी कम करना चाह रहे हैं ताकि भारत के साथ विवाद में इन देशों का पाकिस्तान को मिल रहा समर्थन कमजोर हो। बहुत से लोग प्रधानमंत्री मोदी की इस नीति के समर्थक हैं। सूत्रों के मुताबिक, मोरक्को की राजधानी रबात से कुछ जानकारियां ऐसी मिली हैं कि आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा मोरक्को की जमीन का इस्तेमाल अपनी गतिविधियों के लिए कर रहा है।

यूपी निकाय चुनाव जुलाई में संभावित, बीजेपी दिल्ली की तर्ज पर उतारेगी नये चेहरे

डॉ. अरूण जैन
उत्तर प्रदेश में नगर निकाय चुनाव की तस्वीर इस बार बदली-बदली नजर आ सकती है। जब से बीजेपी में मोदी युग की शुरूआत हुई है, तब से बीजेपी हर चुनाव में सौ फीसदी ताकत झोंक रही है। आम और विधान सभा चुनाव की तरह ही  पंचायत, नगर निगम अथवा किसी तरह के उप-चुनावों मे भी आलाकमान जरा भी कोताही नहीं छोडता है। पश्चिमी बंगाल, केरल, कर्नाटक जैसे रास्यों मे भी यह सोच कर कोताही नहीं बरती जाती है कि यहां बीजेपी मजबूत नहीं है। इसका प्रभाव यह होता है पार्टी को जीत भले न मिले लेकिन पहचान जरूर मिल जाती है। पार्टी द्वारा जीत के लिये पारम्परिक रास्ते से हटकर नये-नये प्रयोग किये जाते हैं। इसका फायदा भी मिलता है। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद बिहार और दिल्ली विधान सभा के चुनावों को छोड़कर कहीं भी किसी भी स्तर के चुनाव में बीजेपी को हार का मुंह नहीं देखना पड़ा, बल्कि उसने उम्मीद से भी बेहतर प्रदर्शन किया। असम, अरूणाचल प्रदेश, मणिपुर जैसे राज्यों में बीजेपी की सरकार बनना इस बात का प्रमाण है कि बीजेपी का विस्तार हो रहा है। हाल ही में, दिल्ली महानगर निगम (एमसीडी) चुनाव में बीजेपी के रणनीतिकारों ने जीत का जो धमाल किया उसके पीछे उनकी रणनीति ही थी। आलाकमान जानता था कि उसकी पार्टी दस वर्षो से एमसींडी पर काबिज है इसलिये उसके खिलाफ सत्ता विरोधी माहौल बना हुआ है, इस लिये पार्टी ने अपने सभी मौजूदा पार्षदों के टिकट काट कर नये प्रत्याशी मैदान में उतारने का बड़ा जोखिम मोल लिया। वेसे, इस तरह का प्रयोग बीजेपी पूर्व में गुजरात में कर चुकी थी और उसका उसे फायदा भी मिला था,लेकिन चुनावी बिसात कहीं भी एक जैसेी नहीं बिछी होती है, इसा लिये दिल्ली में जोखिम तो था ही। जोखिम उठाया तो फायदा भी मिला। बीजेपी के सामने कांग्रेस और आम आदमी पार्टी पूरी तरह से बौने हो गये। दिल्ली में मिली शानदार जीत ने बीजेपी के रणनीतिकारों के हौसलों को पंख लगा दिये। दिल्ली फतेह के बाद बीजेपी आलाकमान उत्तर प्रदेश नगर निकाय चुनाव में भी यही रणनीति अपनाने जा रहा है। यहां भी उसने सभी वर्तमान सभासदों और मेयरों, नगर पालिका परिषद के अध्यक्षों के टिकट काट कर उनकी जगह नये प्रत्याशी उतारने का मन बना लिया है। इस परिर्वतन के चलते पिछले चुनाव के उम्मीदवार ही नहीं ऐसे नेताओं के परिवारीजन भी भाजपा का टिकट पाने से वंचित रहेगे। वैसे नये सिरे से आरक्षण किये जाने के बाद उम्मीदवारों का बदलना लाजिमी भी है। उत्तर प्रदेश में 14 नगर निगम, 202 नगर पालिका परिषद और 438 नगर पंचायतों में चुनाव के लिए भाजपा ने अभी से तैयारी शुरू कर दी है। यूपी में कुल 654 नगर निकायों के 11993 वार्डों के लिए जुलाई में चुनावं होने हैं। तुलनात्मक रूप से भी देखा जाये तो यूपी में भी हालात दिल्ली जैसे ही हैं। यहां भी पिछले दस वर्षों से  करीब-करीब सभी जिलों में बीजेपी का कब्जा है। जनता की नाराजगी सिर चढ़कर बोल रही है। निकाय चुनाव का बिगुल बज चुका है। परिसीमन की अंतिम सूची जारी की जा चुकी है। नगर निकाय चुनाव आयोग के अनुसार 2011 में तय व्यवस्था के अनुसार पहले पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित वार्डों की लिस्ट तैयार किये जाने के बाद अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षित वार्डों की लिस्ट तैयार की गई है। इसके बाद ओबीसी के लिए आरक्षित वॉर्डों की लिस्ट तैयार हुई। सभी बचे हुए वॉर्ड सामान्य वर्ग में रखे गये हैं। इन सभी वर्गों में 33 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित करना अनिवार्य होगा। सभी दल अपने-अपने चुनाव चिह्न पर लड़ेंगे उत्तर प्रदेश नगर निकाय चुनाव इस बार सभी दल अपने-अपने चुनाव चिह्न पर लड़ सकती हैं। बीजेपी, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी तो पहले से भी अपने सिम्बल पर चुनाव लड़ती रही है। बहुजन समाज पार्टी ने भी इस बार अपने चुनाव चिन्ह पर चुनाव लडऩे का फैसला किया है। लोकसभा चुनाव में खाता भी नहीं खुल पाने और विधान सभा चुनाव में 19 सीटों पर सिमट जाने के बाद बसपा सुप्रीमों मायावती एक बार फिर अपनी ताकत पहचाना चाहती हैं। उधर, बीजेपी निकाय चुनाव में नये चेहरों को तो उतारेगी, लेकिन चुनावी मैदान मे ंपुराने दोस्तों के साथ ही ताल ठोंकती नजर आयेगी। बीजेपी, अपना दल (सोनेलाल) और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी से तालमेल करेगी। इसका खाका तैयार हो रहा है। अपना दल सोनेलाल के अध्यक्ष आशीष सिंह और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर भाजपा के संगठन महामंत्री सुनील बंसल से मिल चुके हैं। संकेत मिले हैं कि जिन क्षेत्रों में इन दोनों सहयोगी दलों के विधायक और सांसद हैं, कम से कम उन क्षेत्रों में नगर पालिका परिषद और नगर पंचायतों में इन्हें मौका मिल सकता है। भाजपा को नए उम्मीदवार लाने की मजबूरी होगी 2012 के निकाय चुनाव के सापेक्ष इस बार महिला, पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति तथा सामान्य वर्ग के लिए आरक्षित सीटों का चक्रानुक्रम बदलेगा। इस वजह से भी भाजपा को नए उम्मीदवार लाने की मजबूरी होगी। भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष जेपीएस राठौर ने नगर निगम, नगर पालिका परिषद और नगर पंचायतों में प्रभारी तैनात कर सूचनाओं का संकलन शुरू कर दिया है। इस बीच दूसरे दलों से भाजपा में आने वालों की संख्या भी बढ़ती जा रही है,जिससे बीजेपी को 'बल्ले-बल्लेÓ नजर आ रही है। 2012 में 12 नगर निगमों के  निकाय चुनाव में भाजपा ने दस शहरो में जीत हासिल की थी। सिर्फ बरेली और इलाहाबाद में भाजपा उम्मीदवारों को हार का मुंह देखना पड़ा था। इलाहाबाद की महापौर अभिलाषा गुप्ता बीजेपी में  शामिल हो चुकी हैं। इस तरह वर्तमान में कुल 11 सीटों पर भाजपा का कब्जा है। उप-मुख्यमंत्री बनने के बाद डॉ. दिनेश शर्मा लखनऊ का मेयर पद छोड़ चुके हैं। हाल में कई नगर पंचायतों और पालिका परिषदों के अध्यक्ष भी भाजपा में शामिल हुए हैं। बात पंचायत चुनावों की कि जाये तो 202 नगर परिषद में करीब 40 और 438 नगर पंचायतों में करीब सौ सीटों पर भाजपा का कब्जा है। चुनावों में लगातार मिल रही विजय के बाद भी भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को नहीं लग रहा है कि बीजेपी का अभी स्वर्णिम काल आना बाकी है। यानी विधानसभा चुनाव की तरह ही भाजपा पंचायत और निकाय स्तर पर भी काबिज होना चाहती है। इसीलिए पार्टी पूरी ताकत से जुट गई है।

शालीनता छोड़ते ही कहाँ से कहाँ पहुँच गये अखिलेश यादव

डॉ. अरूण जैन
अखिलेश यादव शालीन छवि के कारण विशिष्ट पहचान रखते थे। इसका उन्हें लाभ भी मिला था। 2012 के विधानसभा चुनाव में उनके नेतृत्व ने सपा में परिवर्तन का विश्वास जगाया था। मुख्यमंत्री बनने के बाद भी उन्होंने अपनी इस छवि को कायम रखा था। लेकिन सत्ता जाने के बाद से अखिलेश बदले−बदले से नजर आने लगे हैं। पहले वह पत्रकार वार्ता में ऐसे नाराज नहीं होते थे, पहले वह किसी ज्वलंत प्रश्न से बच निकलने का प्रयास नहीं करते थे। उल्लेखनीय है कि हाल ही में अखिलेश एक पत्रकार के प्रश्न पर झुंझला गए थे। पत्रकार ने शिवपाल सिंह यादव की टिप्पणी को लेकर प्रश्न किया था। जवाब देना−ना देना किसी नेता की मर्जी होती है, यह उसका अधिकार भी होता है। इसी प्रकार पत्रकार वार्ता में आमंत्रित किए गए पत्रकार को भी प्रश्न पूछने का अधिकार होता है। जवाब ना मिले, यह अलग बात है। लेकिन इसका प्रश्नकर्ता पत्रकार की कमीज के रंग से कोई लेना−देना नहीं हो सकता। पहले अखिलेश किसी के कपड़ों या उसके रंग पर कोई टिप्पणी नहीं करते थे। यह परिवर्तन भी कुछ समय से दिखाई दे रहा है। इस प्रकरण में अखिलेश के व्यवहार में बदलाव व पत्रकार द्वारा पूछे गए प्रश्न पर विचार करना आवश्यक है। यह सही है कि अखिलेश से पहले सपा के नेताओं की अलग छवि बनी थी। इसमें शालीनता की खास अपेक्षा नहीं होती थी। उस समय सपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी बसपा ही थी। बसपा प्रमुख मायावती व सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव पत्रकार वार्ता में किस पर बरस जाएं कोई नहीं जानता था। अखिलेश ने इस धारणा को बदला था। मुख्यमंत्री व पार्टी प्रदेश अध्यक्ष होने के बाद भी वह प्रश्नों का सहजता व सौम्यता से जवाब देते थे। लेकिन यह मानना होगा कि चुनाव के कुछ महीने पहले शुरू हुई पारिवारिक कलह का उनके आचरण पर गहरा प्रभाव पड़ा। लखनऊ के जनेश्वर मिश्र पार्क में पार्टी के आपात अधिवेशन को मील के पत्थर की भांति देखा जा सकता है। यह सब राम गोपाल यादव की रणनीति के तहत हुआ था। इसमें कुछ ही मिनटों में अप्रत्याशित प्रस्ताव पारित हुए। संस्थापक मुलायम सिंह यादव राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटा दिए गए। उनकी जगह अखिलेश यादव की संगठन के शीर्ष पद पर ताजपोशी हो गयी। शिवपाल सिंह को मंत्री पद से पहले ही हटा दिया गया था, बाद में प्रदेश अध्यक्ष पद से भी मुक्त कर दिया गया। इस घटना के बाद से कहीं ना कहीं अखिलेश का व्यवहार बदलना शुरू हुआ था। उनमें पहले वाली सौम्यता की कमी देखी गयी। रामगोपाल की बात अलग थी। अखिलेश तो मुलायम के पुत्र हैं। मुलायम ने उन्हें लोकसभा सदस्य बनाया, अपने सामने ही राजनीतिक विरासत सौंप दी। क्षेत्रीय दलों में मुख्यमंत्री से बड़ा कोई पद नहीं होता। मुलायम ने अखिलेश की उसी पर ताजपोशी की थी। इसके फौरन बाद पार्टी प्रदेश अध्यक्ष की कमान भी सौंप दी। जब ऐसे मुलायम सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से अपदस्थ करने का प्रस्ताव आया होगा, तो सबसे गहरा मनोवैज्ञानिक असर अखिलेश पर ही पड़ा होगा। इस तथ्य का अनुभव उनके अलावा वहां मौजूद कोई अन्य व्यक्ति नहीं कर सकता था। इसे केवल पिता मुलायम व पुत्र अखिलेश ही समझ और महसूस कर सकते हैं। इस घटना के बाद अखिलेश के बयान, व्यवहार सभी में बदलाव दिखने लगा था। कांग्रेस के साथ गठबन्धन का फैसला दूसरा मील का पत्थर था। इसके बाद अखिलेश ने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के साथ जनसभायें व रोड शो किए। फिर मनोवैज्ञानिक फर्क देखिए। इसके पहले अखिलेश किसी के कपड़ों पर कोई टिप्पणी नहीं करते थे जबकि राहुल गांधी का यह प्रिय विषय था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सूट क्या पहना राहुल उनके पीछे पड़ गए। करीब दो वर्ष तक वह सूट−बूट की सरकार रटते रहे। जब लोगों ने इस ओर ध्यान देना ही बन्द कर दिया, तब राहुल किसी तरह रुके। फिर उन्होंने मोदी के कुर्तों पर तंज करना शुरू किया। शायद यह संगत का असर होगा। अखिलेश भी कपड़ों पर टिप्पणी करने लगे। कुछ दिन पहले पत्रकार वार्ता में उन्होंने कपड़ों पर पूरा बयान दिया था। कहा था कि हम लोग सफेद कुर्ता पायजामा पहन कर काम चला लेते हैं। अब दिन के हिसाब से कुर्ते का रंग बदलना होगा, तब हिन्दू माने जाएंगे। इसके बाद पत्रकार वार्ता में परिवार पर प्रश्न करने वाले की कमीज के रंग को देखकर भड़क गए। भगवा रंग की कमीज पर तंज कसने लगे। यह क्यों ना माना जाये कि यह राहुल गांधी के साथ रहने का प्रभाव था। चुनाव प्रचार में भी अखिलेश ने गुजरात के गधे, इतना झूठ बोलने वाला प्रधानमंत्री नहीं देखा, आदि अनेक बयान दिए। आपात अधिवेशन से पहले अखिलेश ऐसे बयान नहीं देते थे।
 अखिलेश को पहले शालीनता का लाभ मिला था। इससे हटने के बाद वह कहां हैं, इस पर उन्हें स्वयं विचार करना चाहिए। अब पत्रकार द्वारा पूछे गए प्रश्न पर विचार कीजिए। उसने शिवपाल सिंह यादव के कथन पर प्रश्न पूछा था। दोनों को मिलाकर देखें तो साफ होगा कि अखिलेश ने शिवपाल के प्रति नाराजगी उस पत्रकार पर उतार दी। इसे वह उसकी कमीज के रंग तक ले गए। शिवपाल ने अखिलेश से वादा निभाने को कहा था। गौरतलब है कि अखिलेश ने कहा था कि वह चुनाव बाद पार्टी मुलायम सिंह यादव को सौंप देंगे। उन्होंने तीन महीने का समय मांगा था। शिवपाल बताना चाहते थे, कि यह अवधि पूरी हो गयी है। अखिलेश इस बात का जवाब दे सकते थे, इन्कार भी कर सकते थे। एक लाइन या एक दो शब्द में काम चल जाता। लेकिन अखिलेश जवाब की जगह अन्य बातों पर बोले। कहा कि एक दिन तक कर लो जब परिवार पर बात हो, फिर भगवा रंग पर बोले। जबकि यह सब निरर्थक बातें थीं। बात केवल परिवार की आन्तरिक कलह तक सीमित होती, तो अलग बात थी। यहां मुख्य विपक्षी दल की जिम्मेदारियों के निर्वाह की भी बात है। 47 विधायकों वाली पार्टी में शिवपाल भी शामिल हैं, देर सबेर उनकी बात का जवाब तो देना होगा। भले ही उन्हें पार्टी से निकाल दिया जाये। ऐसी बातें जब−जब उठेंगी, तब प्रश्न भी होंगे। यह एक दिन का मसला नहीं हो सकता। देश में किसी ने नहीं कहा कि हिन्दू होने के लिए अलग-अलग रंग के कपड़े पहनना जरूरी है। इसी प्रकार भगवा रंग भाजपा का नहीं है। कितने भगवा धारी सन्त-साधू हैं, जिनका भाजपा से कोई लेना−देना नहीं। ऐसे में कपड़ों के रंग व धर्म पर टिप्पणी करना आपत्तिजनक है। ऐसी बातें अखिलेश की छवि को नुकसान पहुंचाने वाली साबित होंगी।

सिंधिया का कद बढऩे की खबर से कांग्रेस में खेमेबंदी शुरू

डॉ. अरूण जैन
जब से ये खबर सामने आई है कि सिंधिया लोकसभा में पार्टी के नेता बनने के प्रबल दावेदार हैं तब से पार्टी के भीतर दो खेमे सक्रिय हो गए हैं. एक खेमा वो है जो राहुल गांधी के काफी करीब है और दूसरा खेमा वो है जो सोनिया के करीब है, लेकिन भविष्य की टीम राहुल में जगह मिलने को लेकर आश्वस्त नहीं है.
सिंधिया का नाम आने की खबर के बाद राहुल के करीबियों का मानना है कि राहुल के लोकसभा सांसद रहते उनके हमउम्र और तेज तर्रार सिंधिया को नेता बनाना मुफीद नहीं होगा. इससे राहुल के कद पर असर पड़ सकता है. इस खेमे का मानना है कि राहुल को हर मोर्चे पर फ्रंट से लीड करते हुए नजर आना चाहिए. इसलिए उन्हीं को पहले लोकसभा में पार्टी का नेता बनना चाहिए. इससे उनको अनुभव भी मिलेगा और उन्हीं को पार्टी का अध्यक्ष बनना चाहिए. इस खेमे के तर्क है कि, सोनिया भी पार्टी अध्यक्ष रहते हुए वाजपेयी सरकार के दौरान लोकसभा में विपक्ष की नेता थीं. कांग्रेस का दूसरा खेमा एक अलग खिचड़ी पकाने में जुट गया है. सोनिया के वो करीबी जो राहुल की टीम से बाहर हो सकते हैं उनकी अलग ही गणित है. उनकी कोशिश ज्यादा से ज्यादा वक्त सोनिया को ही पार्टी अध्यक्ष बनाये रखने की है. इसलिए इस खेमे की कोशिश है कि राहुल ही लोकसभा में पार्टी के नेता बन जाएं जिससे एक व्यक्ति एक पद का सिद्धांत मानने की बात करने वाले राहुल खुद ही कुछ और दिन पार्टी अध्यक्ष पद से दूर हो जाएंगे और सोनिया कुछ दिन और अध्यक्ष बनीं रह जाएंगी. इस खेमे का यह भी तर्क है कि सोनिया के अध्यक्ष रहने से उनकी वरिष्ठता और कद महागठबंधन बनाने में ज्यादा सहायक होगी. दरअसल, 2014 की लोकसभा चुनाव की हार के बाद एक भी चुनाव ऐसा नहीं है जो पार्टी ने जीता हो और जिसका सेहरा राहुल गांधी के सिर पर बांधा जाए. सूत्रों के मुताबिक इन दोनों की एक बात पर सहमति है कि सिंधिया को पार्टी महासचिव बना दिया जाए और मध्यप्रदेश से ही महासचिव कमलनाथ को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर भेज दिया जाए, जिस पर कमलनाथ की भी सहमति है. कांग्रेस में घोषणा से पहले नाम लीक हो जाने, बाहर आने और उसको रोकने के लिए तमाम खेमे सक्रिय हो जाते हैं. कुछ ऐसा ही सिंधिया के मामले में भी होता नजर आ रहा है. लेकिन, सोनिया तकरीबन मन बना चुकी हैं. अब तो बस राहुल की मुहर लगनी है. ऐसे में कोशिश राहुल से वीटो लगवाने की है. जो फिलहाल तो मुश्किल ही लगता है. लेकिन जब तक घोषणा नहीं होती तब तक बेहाल कांग्रेस में हलचल तो मची रहने वाली है.

अपनी खुद की 'छोटी सी एयरफोर्स चाहती है भारतीय फौज

डॉ. अरूण जैन
भारतीय थल सेना ने अपनी ही एक मिनी एयरफोर्स की मांग दोबार उठाई है। सेना को अपनी छोटी एयरफोर्स में तीन हेवी ड्यूटी हेलीकॉप्टरों की मां की है। इंडियन आर्मी 11 अपाचे हेलीकॉप्टरों को खरीदने की योजना बना रही है। वहीं सेना की इस मांम को लेकर रक्षा मंत्री अरुण जेटली की अध्यक्षता में आगामी शनिवार को बैठक होगी। बता दें वायु सेना ने हाल ही में 22 अपाचे हेलीकॉप्टों की खरीद की थी जिनकी डिलिवरी 2019 से शुरू होगी। इन हेलीकॉप्टरों को सेना भी अपने अधीन लाना चाहती है जबकि एयरफोर्स को इस पर एतराज है। टाइम्स ऑफ इंडिया वेबसाइट की खबर के मुताबिक आर्मी का दावा है कि हेलीकॉप्टर मिलने से, युद्ध के समय थलसेना की मदद बेहतर स्थिति में होंगी क्योंकि वे जमीनी युद्ध को एयरफोर्स से बेहतर समझते हैं। खबर के मुताबिक वायु सेना का पक्ष है कि उसके अधीन सभी अटैक और मध्य लिफ्ट वाले हेलीकॉटर होने चाहिए, क्योंकि सेना को अधिकार देने से प्रॉजेक्ट्स या मिशन की कीमत मंहगी हो सकती है। बता दें इससे पहले यूपीए सरकार ने हेलीकॉप्टरों की खीचातानी को लेकर फैसला दिया था कि सभी खरीदे गए 22 हेलीकॉप्टर वायु सेना के पास ही जाएंगे। वहीं खबर के मुताबिक सेना एक अधिकारी ने इस मामले पर जानकारी दी। उन्होंने बताया कि आर्मी एविएशन कॉर्प को 1986 में बनाया गया था, जिसके पास लगभग 250 से ज्यादा चेतक/चीताह लाइट हेलीकॉप्टर और ध्रुव एडवांस लाइट हेलीकॉप्टर हैं। अधिकारी के मुताबिक, ऐसे में आर्मी एविएशन कॉर्प को अटैक हेलीकॉप्टर भी मिलने चाहिए। रिपोर्ट्स के मुताबिक सेना अपने हेलिकॉप्टर बेड़े के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में है।वहीं रिपोर्ट्स के अनुसार भारतीय सेना अमेरिकी अपाचे 64 हमले के हेलिकॉप्टरों का नवीनतम संस्करण खरीदना चाहती है। सेना 39 हैलीकॉप्टरों को खरीदना चाहती है और इनकी कीमत 12 हजार करोड़ से ज्यादा की होगी। खरीद के लिए हेलिकॉप्टरों को 10 के तीन स्क्वाड्रनों में बांटा जाएगा।

उत्तर प्रदेश में छुट्टियों की छुट्टी करने का फैसला ऐतिहासिक

डॉ. अरूण जैन
देश के सबसे बड़े व राजनीति के लिहाज से विशेष दर्जा रखने वाले राज्य उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने गत दिनों पूरे देश को एक सार्थक बहस का मुद्दा दे दिया। महापुरुषों के नाम पर होने वाली छुट्टियों को निरर्थक बताते हुए उन्होंने सुझाव दिया उनकी जयंती या पुण्यतिथि पर विद्यालयों में घंटे−दो घंटे का आयोजन कर छात्रों को उन विभूतियों के व्यक्तित्व और कृतित्व से अवगत कराना कहीं बेहतर होगा। योगी जी ने डॉ. आंबेडकर की जयंती के एक आयोजन में उक्त बात कहकर बर्र के छत्ते में पत्थर मारने का जो दुस्साहस किया उसकी पूरे देश में सकारात्मक प्रतिक्रिया देखी गई। सोशल मीडिया सहित टीवी चैनलों ने भी देश भर में होने वाली छुट्टियों का चि_ा पेश कर ये उजागर किया कि सरकारी दफ्तर और शिक्षण संस्थाओं में अवकाश संस्कृति के चलते न तो पूरा काम हो पाता है और न ही अध्यापन।  उत्तर प्रदेश से छुट्टियों को लेकर जो जानकारी सामने आई उसके मुताबिक वहां महापुरुषों के नाम पर 42 छुट्टियां हर वर्ष होती हैं। 52 रविवार के साथ दूसरे और तीसरे शनिवार की छुट्टी के 24 दिन और हो जाते हैं। फिर सरकारी कर्मचारी को मिलने वाली तमाम छुट्टियां भी तकरीबन 50 दिन तो होती ही हैं। कुल मिलाकर सालभर में आधे से ज्यादा समय वहां के सरकारी कर्मचारी छुट्टी मनाते हैं जिसका असर सीधा कामकाज पर पड़ता है और जनता हलकान होती है। इसी तरह शिक्षण संस्थाओं में भी कुल मिलाकर आधे दिन भी पढ़ाई हो जाए तो बड़ी बात है। जो जानकारी आई है उसमें उ.प्र. की पिछली सरकारों ने विभिन्न जातियों की प्रसिद्ध हस्तियों की याद में इसलिए छुट्टी रखवाई जिससे सजातीय मतदाता संतुष्ट हों। मसलन कर्पूरी ठाकुर नाई जाति के थे और रहने वाले बिहार के। फिर भी उ.प्र. में उनके नाम पर अवकाश होता है। आचार्य नरेन्द्र देव, भगवान परशुराम, निषादराज और ऐसे ही अन्य अवकाश जातिगत समीकरणों को ध्यान रखते हुए दे दिये गये। अन्य राज्य इस मामले में हालांकि उ.प्र. से पीछे हैं परन्तु महापुरुषों के नाम पर छुट्टी दिये जाने का चलन सभी जगह है।  उत्तर प्रदेश की पूर्व समाजवादी पार्टी ने जातीय राजनीति साधने के लिये छुट्टियों का दांव खूब खेला। समाजवादी महापुरुषों के जन्मदिन पर छुट्टियों का ऐलान करके सपा समाजवादी राजनीति के साथ−साथ जातियों की राजनीति भी साधती रही। सबसे पहले सरकार ने किसान नेता चौधरी चरण सिंह के जन्मदिन पर छुट्टी की घोषणा की। इससे जाट राजनीति में कुछ फायदा होने की उम्मीद थी। फिर सपा सरकार ने 24 जनवरी को बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत कर्पूरी ठाकुर के जन्मदिन पर छुट्टी कर दी और 17 अप्रैल को पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय चंद्रशेखर के जन्मदिन पर सरकारी अवकाश की घोषणा हुई। अति पिछड़ा और राजपूत वोट साधने की राजनीति के तहत यह छुट्टियां की गयीं। असल में समाजवादी पार्टी की सरकार पिछड़ा, अति पिछड़ा, मुस्लिम, जाट और राजपूत वोट का समीकरण बनाना चाहती थी। वो अलग बात है कि सपा की सारी जुगत और जातियों की राजनीति भाजपा की आंधी में उड़ गयी।  देशभर में औसतन सरकारी कर्मचारियों को वर्ष के 365 दिनों में से सरकारी कार्यालयों में 5 दिवसीय कार्य सप्ताह होता है। इसका तात्पर्य है कि साल में 104 सप्ताहांत छुट्टियां होती हैं। इसके अलावा 3 राष्ट्रीय अवकाश, 14 राजपत्रित अवकाश और 2 प्रतिबंधित अवकाश सरकारी कर्मचारियों को मिलते हैं। प्रतिबंधित अवकाश छोटे धार्मिक समूहों की सुविधा के लिए दिए गए थे किंतु अब ये सभी के लिए 2 अतिरिक्त छुट्टियां बन गए हैं।  इसके अलावा सरकारी कर्मचारियों को 12 दिन का आकस्मिक अवकाश, 20 दिन का अर्द्ध वेतन अवकाश, 30 दिन का अर्जित अवकाश और 56 दिन का चिकित्सा अवकाश मिलता है। कुल मिलाकर साल में इन्हें 249 छुट्टियां मिलती हैं और केवल 116 दिन वे कार्य करते हैं। महिलाओं को 6 माह का मातृत्व अवकाश और 2 वर्ष का चाइल्ड केयर अवकाश भी मिलता है। सरकारी बाबू इतने से ही खुश नहीं होते हैं। सामान्य कार्य दिवस 8 घंटे का होता है जिसमें 1 घंटे का भोजनावकाश भी होता है, किंतु सरकारी कर्मचारी के कार्यालय में घुसते ही उसका चाय का समय शुरू हो जाता है और यह दिन भर चलता रहता है। फिर भी उसके लिए ओवर टाइम की कोई कमी नहीं है।  हमारे संसद सदस्य राष्ट्रीय और राजपत्रित अवकाशों के अलावा 36 दिन के प्रतिबंधित अवकाश के हकदार भी हैं। किंतु वे इतने से भी संतुष्ट नहीं हैं, वे बीच−बीच में संसद सत्र की भी छुट्टी करवा देते हैं। होली और रामनवमी को भी ऐसा ही होता है। हमारे जनसेवकों ने स्वयं को सप्ताह में दो दिन की छुट्टी का हकदार बना दिया है, चाहे इससे करदाताओं का करोड़ों रुपया बर्बाद क्यों न हो जाए। न्यायपालिका में लाखों मामले लम्बित हैं, फिर भी उच्चतम न्यायालय साल में 193 दिन, उच्च न्यायालय 210 दिन और निचली अदालतें 245 दिन कार्य करती हैं। अमरीकी उच्चतम न्यायालय में सालाना छुट्टियां नहीं होती हैं जबकि वहां के उच्चतम न्यायालय में केवल 9 न्यायाधीश हैं, फिर भी वह सभी मामलों का निपटान कर देता है, जबकि हमारे यहां 27 न्यायाधीश हैं और मामले कई दशकों से लंबित पड़े हुए हैं। हम नहीं चाहते कि हमारे न्यायाधीशों को छुट्टियां न मिलें, किंतु यदि वे कम छुट्टियां करें और अधिक न्याय दें तो इससे लोगों को न्याय मिलने में सहायता मिलेगी। खुशी की बात यह है कि मुख्य न्यायमूर्मि जेएस खेहर ने घोषणा की है कि इस वर्ष ग्रीष्मावकाश के दौरान 3 पीठें कार्य करेंगी। 

दिल्ली में निगम चुनाव आप हारी तो विधानसभा का मध्यावधि चुनाव संभव

डॉ. अरूण जैन
दिल्ली में मध्यावधि चुनाव की संभावना! क्या दिल्ली में विधानसभा चुनाव समय से पहले भी हो सकते हैं? निगम चुनावों में अगर आप का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा तो उसमें तोडफ़ोड़ की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। माना जा रहा है कि आप के कई विधायक टूट सकते है। इसके अलावा आप के 21 विधायकों के खिलाफ चुनाव आयोग में लाभ के पद का मामला लंबित है। अगर इनकी सदस्यता ख़त्म हो गयी तो जाहिर मध्यावधि चुनाव संभव है। माना जा रहा है कि 21 विधायकों पर जल्द ही फैसला होना है। हृड्डस्रद्बद्व स्. ्रद्मद्धह्लद्गह्म् : अगर केजरीवाल जब एमसीडी का चुनाव हारते हैं तो दोष ईवीएम मशीन पे ही मढ़ा जाएगा ना!! वैसे केजरीवाल भी यही चाहते हैं ताकि जनता के बीच अपनी बुरी तरह घटी साख को ईवीएम में छुपा लें। बेहतर हो कि एमसीडी चुनाव देर से ही सही, पर पर्ची वाली ईवीएम से हो या फिर बैलट से। ताकि हारने वाली पार्टी या व्यक्ति कोई बहाना ना बना सके। ये ईवीएम में गड़बड़ी की बात हर राजनीतिक पार्टी को सूट कर रही है। हार गए तो ईवीएम मैनेज्ड थी जी। और जीत गए तो उंगली से विक्ट्री का निशान बना देंगे। बहुत मोटी चमड़ी है इनकी।

नीतीश ने मोदी को अपना नेता मान लिया


डॉ. अरूण जैन
लालू परिवार से पिंड छुड़ाकर  भाजपा के समर्थन से सत्ता में वापस आ जाना यह जानने के लिए काफी है कि यूं ही नीतीश कुमार को बिहार की राजनीति का चाणक्य नहीं कहा जाता। वह छठी बार बिहार के मुख्यमंत्री बने हैं। अपने पत्ते बेहद सोच समझकर चलने वाले नीतीश कुमार के बारे में लालू प्रसाद का कहना है कि उनका दांत मुंह में नहीं आंत में है। अंतिम समय तक कोई यह भांप नहीं सका कि आखिरकार नीतीश के मन में चल क्या रहा है। लालू परिवार पर सीबीआई के छापे व एफआईआर दर्ज होने के बाद से ही नीतीश ने दूरी बनानी शुरू कर दी थी, हालांकि उनकी अगली चाल क्या होगी इसकी भनक किसी को भी नहीं लगी। 66 वर्षीय नीतीश कुमार ने राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण राज्य के मुख्यमंत्री पद से बुधवार शाम को इस्तीफा दिया और तीन घंटे से भी कम समय में भाजपा ने उन्हें समर्थन देकर फिर बिहार की गद्दी सौंपने का रास्ता साफ कर दिया। उस दिन घटनाक्रम इतनी तेजी से बदला कि बड़े बड़े राजनीतिक पंडित भी भौंचक्के रह गये। लालू के पुत्रमोह ने जहां 80 विधायकों वाली राजद को सत्ता से बाहर कर दिया वहीं मूकदर्शक बनकर तमाशा देखने वाली कांग्रेस भी महागठबंधन से पूर्व के दौर में पहुंच गई। सोशल मीडिया पर कांग्रेस की यह कहकर खिल्ली उड़ाई जा रही है कि तलाक राजद व जदयू का हुआ लेकिन विधवा कांग्रेस हो गई। बहरहाल, नीतीश कुमार के इस दांव से जहां राजद व कांग्रेस बौखलाई हुई है वहीं भाजपा की बांछें खिल गई हैं। भाजपा की खुशी का कारण यह नहीं है कि उसके कुछ विधायक मंत्री बन गये। उसकी प्रसन्नता की असली वजह यह है कि साल 2019 के आम चुनाव में विपक्ष के पास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनौती दे सकने लायक अब कोई मजबूत चेहरा नहीं बचा है। माना जा रहा था कि नीतीश कुमार को आगे कर विपक्ष आम चुनाव में मोदी को चुनौती देने की मंशा पाले हुए था लेकिन अब नीतीश कुमार के भाजपा की छतरी तले अपना भविष्य सुरक्षित कर लेने से विपक्ष का मंसूबा ध्वस्त हो गया है।   एक वक्त नरेंद्र मोदी की परछाई से भी दूर भागने वाले नीतीश कुमार ने बिहार की सियासत को 180 डिग्री घुमा दिया है। इससे न केवल नीतीश कुमार छठी बार बिहार के मुख्यमंत्री बने हैं बल्कि पीएम मोदी के कांग्रेसमुक्त भारत के सपने को कुछ और आसान बना दिया है। अब देश के 18 राज्यों में भाजपा व उसके सहयोगियों की सरकार है। यानी पूरब से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक देश की 67 प्रतिशत जनता पर भाजपा या उसके सहयोगियों का शासन है। अगर गहराई से देखें तो इस सियासी बदलाव में असली जीत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हुई है। नरेंद्र मोदी ही वह शख्स थे जिन्हें भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किये जाने के बाद नीतीश कुमार ने एनडीए से अपना 17 साल पुराना रिश्ता एक झटके में खत्म कर लिया था। मोदी व नीतीश के बीच की खाई कई बार मीडिया की सुर्खियां बनती रही हैं। लेकिन अब वह सब पुराने दिनों की बात हो गई है।  अब नीतीश कुमार को नरेंद्र मोदी की छतरी तले बिहार का शासन चलाने में कोई भी आपत्ति नहीं है। उन्होंने नरेंद्र मोदी को अपना नेता मान लिया है। मोदी भी तो यही चाहते थे। बिहार में विजय रथ के थम जाने की कसक भी इसी के साथ खत्म हो गई है। नीतीश कुमार ने भी उनका नेतृत्व स्वीकार कर लिया है। इसकी पृष्ठभूमि जैसा कि विरोधी दल कह रहे हैं बहुत पहले से ही तैयार हो रही थी। इसकी बानगी राष्ट्रपति चुनाव के लिए उम्मीदवार के नाम पर विचार करने के लिए आयोजित सोनिया गांधी के भोज से दूरी व उसके 24 घंटे बाद ही प्रधानमंत्री मोदी की डिनर पार्टी में शामिल होने के रूप में देखा जा सकता है।  दोनों नेताओं के रिश्तों के बीच जमी बर्फ उसके बहुत पहले पिघलनी शुरू हो गई थी। इसकी पहल खुद नीतीश कुमार की ओर से ही की गई थी। नोटबंदी के दौरान जहां पूरा विपक्ष दाना पानी लेकर मोदी पर चढ़ दौड़ा था वहीं नीतीश कुमार ने न केवल इसका समर्थन किया बल्कि बेनामी संपत्ति के खिलाफ भी कार्रवाई करने की मांग कर दी। इसी तरह उन्होंने सर्जिकल स्ट्राइक की भी खुले मन से सराहना की। प्रधानमंत्री मोदी ने भी नीतीश को निराश नहीं किया। पटना में आयोजित प्रकाश पर्व के दौरान नीतीश कुमार की शराबबंदी की जमकर सराहना की। धीरे धीरे दुश्मनी दोस्ती में बदली और परिणाम तब दिखा जब राष्ट्रपति उम्मीदवार के तौर पर रामनाथ कोविंद का नाम घोषित किये जाने के बाद नीतीश ने ऐलान कर दिया कि उनकी पार्टी एनडीए उम्मीदवार को वोट देगी। बहरहाल, एक बात तो तय है कि बिहार के इस राजनीतिक उलटफेर का 2019 के लोकसभा चुनाव पर गहरा असर पड़ेगा।

आंकड़े खुद कह रहे हैं- देश के अच्छे दिन आ रहे हैं


डॉ. अरूण जैन
आजादी के 70 साल बीत रहे हैं। देश ने अनेक सरकारों को देखा है। आम जनता को सभी केन्द्रीय सरकारों के खट्टे-मीठे अनुभव प्राप्त हुए हैं। एक समय था जब विपक्ष सोच भी नहीं सकता था कि वह राष्ट्रीय स्तर पर सत्तासीन हो सकेगा, लेकिन लंबे समय तक विपक्ष में रहने वाली पार्टी को जनता−जनार्दन ने अधिकांश राज्यों सहित केंद्र में भी व्यापक जनसमर्थन दिया है। प्रतिकूलता में धैर्य और साहस की आवश्यकता होती है और अनुकूलता में मर्यादा और विनम्रता की आवश्यकता होती है। 16 मई और 26 मई 2014 यह तिथि भारतीय राजनीति के इतिहास में दर्ज हो चुकी है। भारतीय राजनीति और भारत की सरकार को स्थायित्व देने का सुनहरा समय प्रारंभ हुआ। समय किसी का सहोदर नहीं होता है। वह तो आता है और चला जाता है। आज जब हम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के तीन वर्षों के कार्यों और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के कार्यों का अवलोकन करते हैं तो लगता है कि मोदी सरकार आध्यात्मिक समाज के भगवान श्रीराम की मर्यादाओं से बंधकर जनहितार्थ कार्य करने में लगे हुए हैं और वहीं राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भगवान श्रीकृष्ण के पथ पर चलकर नयी राजनीति से दल का विस्तार करते हुए परिणाम तक ले जाने में जुटे हुए हैं।  वर्षों से भाजपा पर अगड़ों और अमीरों की पार्टी होने का ग्रहण लगता रहा। मोदी सरकार और भाजपा संगठन ने पिछले तीन वर्षों में इस मिथक को तोड़ते हुए हर गरीब के घर−घर में यह बात पहुंचाने का सफलतम प्रयास किया है कि मोदी सरकार और भाजपा संगठन गरीबों की पार्टी है और समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचने वाली पार्टी है। गरीबी हटाओ जैसे नारे आजादी के बाद कांग्रेस देती रही, लेकिन गरीबी हटी नहीं। भाजपा ने न नारा दिया, न वादा किया। प्रधानमंत्री ने संसद की चौखट पर माथा टेकते हुए पहला वाक्य कहा कि यह सरकार गरीबों की सरकार है। और अपने पहले वाक्य को अभी तक जमीन पर साकार करने के लिए मोदी सरकार का हर फैसला साकार होता दिख रहा है।  भारतीय समाज को पहली बार यह अहसास हो रहा है कि निर्वाचित सरकार हमारी है। सरकार की सफलता पहले पायदान पर उस समय समझ में आती है कि जब समाज यह कहने लगे कि जो हम सोच रहे हैं वही सरकार कर रही है। देश भ्रष्टाचार से त्रस्त था। घोटालों की गूंज से संसद गूंजती रहती थी। आम आदमी का जीवन भ्रष्टाचार के कारण त्रस्त हो गया था। तीन साल में कालेधन पर रोक, भ्रष्टाचार से मुक्ति और बेनामी संपत्ति पर अलीगढ़ का ताला लगाने का जो सफलतम प्रयास मोदी सरकार ने किया है वह हर जुबां पर है। कालेधन से मुक्ति के लिए विमुद्रीकरण का ऐतिहासिक फैसला किया गया। विमुद्रीकरण की परीक्षा में नरेन्द्र मोदी जहां शत-प्रतिशत सफल हुए हैं, वहीं गरीबों ने अपनी आवाज से सरकार के साथ आवाज मिलाकर दो-टूक लोकतांत्रिक फैसला दिया कि विमुद्रीकरण पर मोदी सरकार के साथ हैं। इतना कठोर निर्णय! गरीब से गरीब को कठिनाई हुई, लेकिन सबके मन में एक खुशी थी कि कालाधन और भ्रष्टाचार रोकने का इससे बड़ा कोई उपाय नहीं है। विपक्षी पूछते हैं कि सरकार ने क्या किया? मैं उनको कहना चाहता हूं कि तीन साल में 49 करोड़ लोगों से अधिक को सीधा लाभ पहुंचाने और उनके सिर्फ बैंक खाते ही नहीं, बल्कि तकदीर के खाते खोलने का काम किया है। कुछ आंकड़े− जनधन−योजना के तहत 27.97 करोड़ खाते खोले गए। इन खातों में इन गरीबों ने स्वयं 63.835 करोड़ रुपए जमा किए। अब इन खातों में सरकारी योजनाओं की राशि जाने लगी। 13 करोड़ गरीबों को विभिन्न सामाजिक सुरक्षा में शामिल किया गया। स्टार्टअप एवं स्टैण्डअप योजना के तहत मुद्रा योजना के माध्यम से 6.6 करोड़ लोगों ने ऋण लिये और व्यापार शुरू किया। उज्ज्वला योजना के तहत समाज के अंतिम व्यक्ति जैसे 2 करोड़ लोगों को नि:शुल्क रसोई गैस कनेक्शन दिए गए। यह उज्ज्वला यही नहीं थमेगी, आने वाले वर्षों में 5 करोड़ लोगों के घर में धुआं बंद करेगी। क्या किया तीन साल में, विपक्षी पूछते हैं? राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बाद स्वच्छ भारत को अगर किसी ने जनांदोलन बनाया तो वह नरेन्द्र मोदी की सरकार ने किया है। स्वच्छता, समाज को स्वस्थता की ओर ले जा रही है। स्वच्छ भारत का अभिप्राय है स्वस्थ भारत। सामान्य सी बात लगती है, लेकिन उजाला एलईडी योजना, जिसके पीछे बिजली बचाओ अभियान है, इसके तहत 11 करोड़ 8 लाख एलईडी बल्ब वितरित किए गए। प्रधानमंत्री आवास योजना को सफल करने के लिए बैंक के ब्याज दरों में कमी और 2022 तक 5 करोड़ आवासहीन लोगों के सपने को साकार करने की दिशा में जो कदम उठाया जा रहा है वह ऐतिहासिक कहा जाएगा। 12 हजार करोड़ की प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना के माध्यम से करोड़ों हाथों को हुनर देने का काम किया जा रहा है। मोदी सरकार द्वारा किसानों के लिए अनेक कार्य किए जा रहे हैं। भारत कृषि प्रधान देश है। हमारी अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है। किसान यदि सुरक्षित नहीं तो भारत सुरक्षित नहीं है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किसानों की सुरक्षा के लिए फसल बीमा राशि दुगुनी कर दी और किसानों के लिए प्रीमियम राशि को अब तक के दुगुने स्तर पर लाया गया। अब तक देश के 3 करोड़ 86 लाख किसानों ने इस योजना के तहत अपने को सुरक्षित किया है। इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, जिसके तहत हर खेत को पानी के लिए पिछले दो वर्षों से 12.7 लाख हेक्टेयर से ज्यादा भूमि पर सूक्ष्म सिंचाई की व्यवस्था की गई है। किसान की आय दुगुनी करने के लिए जबर्दस्त योजना बनाई गई है। अच्छे दिन आएंगे ये नारा नहीं है। अच्छे दिन आ रहे हैं। 31 मार्च 2014 को उपभोक्ता महंगाई दर 9.46 प्रतिशत थी जो 31 मार्च 2017 को तीन साल के अंदर घटकर 3.81 प्रतिशत हो गई है। ये आंकड़े भारत के हैं, भाजपा के नहीं। 31 मार्च 2014 को जीडीपी जो 6.7 प्रतिशत थी वह 31 मार्च 2017 को 7.10 प्रतिशत हो गई। 31 मार्च 2014 को औद्योगिक उत्पादन दर नकारात्मक 0.10 प्रतिशत थी जो 31 मार्च 2017 को 3 साल के अंदर बढ़कर 5.2 प्रतिशत हो गई है। सड़कों की बात करें तो एक लाख 20 हजार किलोमीटर सड़कों का निर्माण कोई सामान्य बात नहीं है। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत 2016-17 में 48,000 किमी सड़क निर्माण हुआ और हर रोज 133 किमी सड़क का निर्माण किया जा रहा है। 2013−14 में रोजाना 69 किमी सड़क का ही निर्माण होता था। इतना ही नहीं प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण से निम्न और मध्यम वर्ग के शोषण का खात्मा हुआ। मोदी सरकार के 19 मंत्रालयों और विभागों की 92 योजनाओं में प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण लागू होने से 49,560 करोड़ की बचत हुई। संघीय व्यवस्था को मजबूत किया गया। एक राष्ट्र−एक कर (जीएसटी) को लागू कर और जीएसटी के लिए नेशनल काउंसिल बनाकर निर्णय लेने का जो फोरम बनाया गया वह संघीय व्यवस्था को मजबूत करता है। मोदी सरकार का सपना है कि हर व्यक्ति को छत मिले। यूपीए सरकार के 10 साल के कार्यकाल से ज्यादा घर मोदी सरकार में मिले हैं और 17,73,533 किफायती घरों के निर्माण को स्वीकृति दी गई है। महिला सशक्तिकरण को लेकर सरकार ने अनेक कदम उठाए हैं। प्रधानमंत्री मुद्रा योजना से मिले लाभों में 79 प्रतिशत महिलाएं हैं। सुकन्या समृद्धि योजना से 1 करोड़ खाते खोले गए और कुल 11,000 करोड़ रुपए जमा किए गए। बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ कार्यक्रम अत्यंत सफल कार्यक्रम साबित हो रहा है। मोदी सरकार ने गरीब की रसोई को धुआं मुक्त कर दिया है और अब तक 2 करोड़ 20 लाख गरीब परिवार की माताएं-बहनें इसका लाभ ले रही हैं। मोदी सरकार की प्राथमिकता है युवाओं का विकास और प्रोत्साहन। स्टार्टअप्स अभियान के माध्यम से युवाओं को वित्तीय सहायता दी जा रही है, जिससे युवा अब केवल नौकरी नहीं मांग रहा है अपितु व्यवसाय कर वह रोजगार सृजन में भी जुट रहा है। सरकारी नौकरियों में भर्ती की प्रक्रिया को सरल और पारदर्शी बनाया गया है तथा 34 लाख से अधिक गैर-राजपत्रित पदों पर भर्ती के लिए साक्षात्कार की बाध्यता को समाप्त किया गया है। मोदी सरकार की अभिनव योजना मेक इन इंडिया कार्यक्रम को बड़ी उपलब्धि हासिल हुई है। भारत ने उत्पादों की गुणवत्ता के मामले में चीन को सात स्थान पीछे धकेल दिया है। मोदी सरकार सुरक्षा बलों के सशक्तिकरण के लिए प्रतिबद्ध है। रिटार्यड सैनिकों के हित में सरकार ने ऐतिहासिक कदम उठाते हुए चार दशकों से लंबित वन रैंक, वन पेंशन की मांग को पूरा किया। बांग्लादेश के साथ लंबे समय से चले आ रहे सीमा विवाद को मोदी सरकार ने सुलझाया। मेक इन इंडिया के तहत भारत रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन रहा है। भारतीय सेना ने पीओके में आतंकवादियों को उसके घर में घुसकर मारा और सर्जिकल स्ट्राइक से विश्व में देश की साख बढ़ी। इससे पहले म्यांमार में भी आतंकवादियों के खिलाफ ऑपरेशन चलाया। विधि के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन किए गए। 1100 से ज्यादा अप्रचलित कानूनों को निरस्त किया गया और ऐसे ही 400 अन्य कानूनों को निरस्त किए जाने की कार्रवाई की जा रही है। वहीं, राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देकर ऐतिहासिक निर्णय लिया गया है। मोदी सरकार में संविधान, सीमा और सेना का गौरव बढ़ा है। दुनिया भर में भारत की साख और धाक बढ़ी है। प्रधानमंत्री के विदेश प्रवास से भारतवंशियों के बीच उत्साह जगा है। कैबिनेट के निर्णय और आंकड़ों पर जाएं तो शब्द और पन्ने कम पड़ जाएंगे। दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी आज भारतीय जनता पार्टी है। 17 राज्यों में एनडीए की सरकार है। इन राज्यों में 61 प्रतिशत आबादी रहती है, अर्थात् देश की दो तिहाई आबादी की सेवा एनडीए सरकार कर रही है। कांग्रेस शासित राज्य की आबादी मात्र 9 प्रतिशत रह गई। कांग्रेस की केवल 6 राज्यों में सरकार है। इन राज्यों में केवल 8.6 प्रतिशत आबादी रहती है। भाजपा के 283 लोकसभा सांसद हैं। राज्य सभा में 56 सांसद हैं। एनडीए के 339 लोकसभा सांसद हैं और राज्यसभा में 74 सांसद हैं। 10 सदस्यों के साथ शुरू हुई भाजपा 12 करोड़ सदस्यों के साथ आज विश्व की सबसे बड़ी पार्टी है। पूरे देश में भाजपा के 1,398 विधायक हैं। अजजा और अजा के सर्वाधिक सांसद भाजपा के हैं। सर्वाधिक महिला सांसद भाजपा की हैं। सर्वाधिक महापौर भाजपा के हैं। सर्वाधिक जिला पंचायत और पार्षद भाजपा के हैं। सर्वाधिक गांव के सरपंच भाजपा के हैं। आने वाले दिनों में एनडीए राष्ट्र की पसंद का राष्ट्रपति चुनने वाला है। विश्व के नामवर नेताओं में एक श्रेष्ठ नाम आता है नरेन्द्र मोदी का। अंग्रेजी में ग्लोबल और हिंदी में वैश्विक नेता का स्थान बनाने में उन्होंने उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल की। संगठन और सत्ता के समन्वय का इतिहास रचा जा रहा है। अनुकूलता के इस वर्चस्वशाली माहौल में देश की निगाहें भाजपा की ओर टिकी हुई हैं। कांग्रेस युग की समाप्ति का दौर चल रहा है। भाजपा युग के आगमन का दौर प्रारंभ हो चुका है। इस अनुकूल माहौल में हम सबका दायित्व बढ़ गया है। देश में अधिकारों की बजाय देश के लिए कर्तव्य करने का भाव पैदा हुआ है। तीन साल में भारतीय राजनीति ने अपनी खोई हुई साख को लौटाने की दिशा में एक नहीं, अनेक कदम उठाए हैं। मई 2014 के पहले रोज भ्रष्टाचार की चर्चा सदन में और सड़क पर होती थी, पर गत 3 वर्षों में न देश में, न संसद में, न सड़क पर मोदी सरकार में भ्रष्टाचार का आरोप न लगना यह दर्शाता है कि भारत भ्रष्टाचार मुक्त राष्ट्र की श्रेणी की ओर अग्रसर हो रहा है। देश न प्रधानमंत्री का है, न भाजपा का। देश भारत के सवा सौ करोड़ आबादी का है और उसकी सेवा का जो सुनहरा मौका मिला है, उस दिशा में भाजपा और भाजपा सरकार का कदम सदैव उठते रहना चाहिए।

लालबत्ती के आतंक से मुक्ति की नई सुबह


डॉ. अरूण जैन
देश में वीवीआईपी कल्चर को खत्म करने के लिए नरेंद्र मोदी कैबिनेट ने ऐतिहासिक निर्णय लिया है। इस फैसले के बाद शान समझी जाने वाली लालबत्ती वाहनों पर लगाने का अधिकार किसी के पास नहीं होगा। इस निर्णय से राजनीति की एक बड़ी विसंगति को न केवल दूर किया जा सकेगा, बल्कि ईमानदारी एवं प्रभावी तरीके से यह निर्णय लागू किया गया तो समाज में व्याप्त लालबत्ती संस्कृति के आतंक से भी जनता को राहत मिलेगी। क्योंकि न केवल कीमती कारों में बल्कि लालबत्ती लगी गाडिय़ों में धौंस जमाते तथाकथित छुटभैये नेता जिस तरह से कहर बनकर जनता को दोयम दर्जा का मानते रहे हैं, उससे मुक्ति मिलेगी और इससे राजनीति में अहंकार, कदाचार एवं रौब−दाब की विडम्बनाओं एवं दुर्बलताओं से मुक्ति का रास्ता साफ होगा। इससे साफ-सुथरी एवं मूल्यों पर आधारित राजनीति को बल मिलेगा। नये भारत में इस तरह के अनुशासित, अहंकारमुक्त, स्वयं को सर्वोपरि मानने की मानसिकता से मुक्त जनप्रतिनिधियों की प्रतिष्ठा अनिवार्य है। अंग्रेजों द्वारा अपनी अलग पहचान बनाये रखने की गरज से ऐसी व्यवस्था लागू की गई थी जिसका आंखें मूंदकर हम स्वतन्त्र भारत में पालन किये जा रहे थे। सर्वोच्च न्यायालय ने लगातार लालबत्ती संस्कृति पर अंकुश लगाने की जरूरत बताई थी मगर राजनीतिक दल इसे दरकिनार किये जा रहे थे। लाल बत्ती एवं वीआइपी संस्कृति ने जनतांत्रिक और समतावादी मूल्यों को ताक पर ही रख दिया था। हर व्यवस्था में कुछ शीर्ष पदों पर आसीन व्यक्तियों को विशिष्ट अधिकार हासिल होते हैं, इसी के अनुरूप उन्हें विशेष सुविधाएं भी मिली होती हैं, ऐसा होना कोई गलत भी नहीं है। लेकिन गलत तो तब होने लगा जब मंत्रियों और नेताओं का सुरक्षा संबंधी तामझाम बढऩे लगा और लाल बत्ती लगी गाडिय़ों का दायरा भी। बहुत सारे मामलों में सत्ता में होने का फायदा उठा कर नियमों में बदलाव करके गाड़ी पर लाल बत्ती लगाने की छूट बढ़ाई गई। जाहिर है, यह सत्ता के दुरुपयोग का ही एक उदाहरण था। यह भी हुआ कि बहुत सारे वैसे लोग भी लाल बत्ती लगी गाड़ी लेकर घूमने लगे जो इसके लिए कतई अधिकृत नहीं थे। कई तो फर्जी तरीके से लालबत्ती लगाकर गैरकानूनी काम एवं प्रभाव जमाने लगे। जिस अधिकारी या व्यक्ति को लालबत्ती की सुविधा मिली थी, उनके पारिवारजन एवं मित्र आदि इस रौब या वीआईपी होने का दुरुपयोग करने लगे। आम जनता से हटकर एक खास मनोवृत्ति और वीवीआइपी संस्कृति को प्रतिबिंबित करने का जरिया बन गई यह लालबत्ती। अपने रुतबे का प्रदर्शन और सत्ता के गलियारे में पहुंच होने का दिखावा इस तरह सत्ता का अहं अनेक विडम्बनापूर्ण स्थितियों का कारण बनती रही। अपने को अत्यंत विशिष्ट और आम लोगों से ऊपर मानने का दंभ एक ऐसा दंश या नासूर बन गया जो तानाशाही का रूप लेने लगा। जनता को अधिक से अधिक सुविधा एवं अधिकार देने की मूल बात कहीं पृष्ठभूमि में चली गयी और राजनेता कई बार अपने लिये अधिक सुविधाओं एवं अधिकारों से लैस होते गये। राजनीति की इस बड़ी विसंगति एवं गलतफहमी को दूर करने का रास्ता खुला है जो लोकतंत्र के लिये एक नयी सुबह है। क्योंकि राजनीति एवं राजनेताओं में लोगों के विश्वास को कायम करने के लिये इस तरह के कदम जरूरी है। सत्ता का रौब, स्वार्थ सिद्धि और नफा नुकसान का गणित हर वीआईपी पर छाया हुआ है। सोच का मापदण्ड मूल्यों से हटकर निजी हितों पर ठहरता रहा है। यही कारण है राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय चरित्र निर्माण की बात उठना ही बन्द हो गयी। जिस नैतिकता, सरलता, सादगी, प्रामाणिकता और सत्य आचरण पर हमारी संस्कृति जीती रही, सामाजिक व्यवस्था बनी रही, जीवन व्यवहार चलता रहा वे आज लुप्त हो गये हैं। उस वस्त्र को जो राष्ट्रीय जीवन को ढके हुए था आज हमने उसे तार-तार कर खूंटी पर टांग दिया था। मानो वह हमारे पुरखों की चीज थी, जो अब इतिहास की चीज हो गई। लेकिन अब बदलाव आ रहा है तो संभावनाएं भी उजागर हो रही हैं। लेकिन इस सकारात्मक बदलाव की ओर बढ़ते हुए समाज के कुछ खास तबकों को भी स्वयं को बदलना होगा। राजनेताओं की भांति हमारे देश में पत्रकार, वकील आदि ऐसे वर्ग हैं जो स्वयं को वीआईपी से कम नहीं समझते। ऐसे लोग भी अपनी कारों पर भले ही लालबत्ती न रखते हों, लेकिन प्रेस एवं एडवोकेट बड़े-बड़े शब्दों में लिखवाते हैं और पुलिस हो या आम जनता, उनको दबाने या रौब गांठने की पूरी कोशिश करते हैं। इन लोगों के लिये भी कुछ नियम बनने चाहिए। कई लोग सत्ता एवं सम्पन्नता के एक स्तर तक पहुंचते ही दुर्व्यवहार करने लगते हैं और वहीं से शुरू होता है प्रदर्शन का ज़हर और आतंक। समाज में जितना नुकसान परस्पर स्पर्धा से नहीं होता उतना प्रदर्शन से होता है। प्रदर्शन करने वाले के और जिनके लिए किया जाता है दोनों के मन में जो भाव उत्पन्न होते हैं वे निश्चित ही सौहार्द्रता एवं समता से हमें बहुत दूर ले जाते हैं। अतिभाव और हीन भाव पैदा करते हैं और बीज बो दिये जाते हैं शोषण, कदाचार और सामाजिक अन्याय के। अब यदि आजादी के बाद से चली आ रही लाल बत्ती एवं वीआईवी संस्कृति की इन विसंगतियों एवं विषमताओं को दूर करने की ठानी है तो जनता को शकुन तो मिलेगा ही।  यह फैसला प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की पहल पर लिया गया है जिन्होंने पिछले दिनों ही भारत यात्रा पर आयीं बंगलादेश की प्रधानमन्त्री शेख हसीना वाजेद का दिल्ली हवाई अड्डे पर बिना किसी तामझाम के पहुंच कर स्वागत किया था। आदर्श सदैव ऊपर से आते हैं। लेकिन शीर्ष पर अब तक इनका अभाव छाया हुआ था, वहां मूल्य बन ही नहीं रहे थे, लेकिन अब शीर्ष पर मूल्य बन रहे हैं और उसी का यह सन्देश जनता के बीच गया है कि प्रधानमन्त्री की गाड़ी भी बिना लालबत्ती के दिल्ली की सड़कों पर यातायात के नियमों का पालन करते हुए निकल सकता है। अत: राज्यों के मुख्यमन्त्रियों को फिर डर किस बात का हो सकता है? लेकिन असली मुद्दा राजनीति में सेवा, सादगी एवं समर्पण के लिये आने वाले लोगों का नहीं बल्कि ऐसे अति विशिष्ट बने व्यक्तियों का है जो राजनीति में आते ही प्रदर्शन, अहंकार एवं रौब गांठने के लिये हैं, ऐसे ही लोग जोड़−तोड़ करके लालबत्ती की गाडिय़ां लेते थे और फिर समाज, प्रशासन व पुलिस में अपना अनुचित प्रभाव जमाते थे। ऐसे लोग तो सड़कों पर आतंक एवं अराजकता का माहौल तक बनाने से बाज नहीं आते थे। इसकी आड़ में असामाजिक तत्व भी ऐसे कारनामे कर जाते थे जिनसे कानून-व्यवस्था की रखवाले पुलिस तक को बाद में दांतों के नीचे अंगुली दबानी पड़ती थी। हूटर बजाते हुए लालबत्ती लगी गाडिय़ां सारे नियम−कानून तोड़ कर आम जनता में दहशत फैलाने का काम करती थीं। जो लोग वास्तव में विशिष्ट व्यक्ति हैं उन्हें लाल बत्ती की जरूरत थी ही नहीं क्योंकि उनका रुतबा किसी प्रकार के दिखावे की मांग नहीं करता है। जैसे ही प्रधानमंत्रीजी ने लालबत्ती संस्कृति पर अंकुश की बात कही, अनेक नेताओं ने अपने हाथों से अपनी कारों की लालबत्ती हटाते हुए फोटो खिचवाएं। इस तरह की कार्रवाई से कहा गया कि वे आम जनता को वीआईपी मानने की तैयारी में दिख रहे हैं, लालबत्ती हो, या अखबार में फोटो छपना, टीवी पर आना हो या स्वयं को किसी मसीहा की तरह दर्शाना हो− यह मानसिकता बदलना इतना आसान नहीं है। मन्दिरों में हो या अन्य जलसों में राजनेता सभी व्यवस्थाओं को ताक पर रखकर लम्बी−लम्बी लाइनों में लगी जनता को ठेंगा दिखाते हुए सबसे आगे पहुंच जाते हैं। क्या नेता हर मौके पर धीरज के साथ अपनी बारी आने का इंतजार कर सकेंगे? बहुत मुश्किल है राजनेताओं को सादगी, संयम, सरलता एवं अहं मुक्ति का पाठ पढ़ाना और उसे उनके जीवन में ढालना। हालत यह है कि जिस दिन लालबत्ती हटाने का फैसला टीवी की सुर्खियों में था, उसी दिन यह खबर भी चल रही थी कि बीजेपी के एक विधायक ने एक टोल बूथ पर खुद को तुरंत आगे न निकलने देने से नाराज होकर एक टोलकर्मी को थप्पड़ मार दिया। कोई टोलकर्मी को तो कोई एयरपोर्ट अधिकारी को थप्पड़ मारकर ही अपने आपको शंहशाह समझ रहा है, इन हालातों में कैसे लालबत्ती एवं वीआईपी की मानसिकता से इन राजनेताओं को मुक्ति दिलाई जा सकती है? यह शोचनीय है। अत्यंत शोचनीय है। खतरे की स्थिति तक शोचनीय है कि आज तथाकथित नेतृत्व दोहरे चरित्र वाला, दोहरे मापदण्ड वाला होता जा रहा है। उसने कई मुखौटे एकत्रित कर रखे हैं और अपनी सुविधा के मुताबिक बदल लेता है। यह भयानक है। उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने ऐसे अनेक साहसिक निर्णय लिये एवं कठोर कदम उठाये हैं और अब केंद्र सरकार ने आगे बढ़कर मोटर वीइकल्स ऐक्ट के नियम 108 (1) और 108 (2) में बदलाव करके लाल बत्ती वाली गाडिय़ों को ट्रैफिक नियमों से छूट देने की व्यवस्था ही खत्म कर दी। लेकिन मोदी एवं योगी से आगे की बात सोचनी होगी। देश में सही फैसलों की अनुगूंज होना शुभ है, लेकिन इनको क्रियान्वित करना भी ज्यादा जरूरी है। वीआईपी कल्चर खत्म करने के नफा−नुकसान का गणित उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना महत्वपूर्ण यह है कि इससे आम लोगों के मन से खास लोगों का खौफ कुछ कम जरूर होगा। एक समतामूलक समाज की संरचना निर्मित करने की दिशा में हम आगे बढ़ेंगे।

एटमी हथियारों से मुक्ति का सपना

डॉ. अरूण जैन
हाल ही में नाभिकीय हथियारों को प्रतिबंधित करने के लिए बाध्यकारी समझौते के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र महासभा के तत्त्वावधान में आयोजित बहुपक्षीय वार्ता जून-जुलाई 2017 तक समझौते का प्रारूप विकसित कर लेने की उम्मीदों के साथ समाप्त हो गई। यह वार्ता संयुक्त राष्ट्र महासभा की प्रथम समिति, जो कि नि:शस्त्रीकरण तथा अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े विषयों को देखती है, के द्वारा पिछले वर्ष अक्तूबर माह में 123-38 के भारी बहुमत से स्वीकृत प्रस्ताव-एल 41 की अगली कड़ी थी। दिसंबर 2016 में महासभा ने भी यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। प्रस्ताव का मुख्य बिंदु यह था कि मार्च 2017 तथा जून-जुलाई 2017 में होने वाली वार्ता में नाभिकीय हथियारों पर प्रतिबंध लगाने के लिए एक बाध्यकारी समझौते के निर्माण पर चर्चा की जाएगी, ताकि आगे चलकर इन हथियारों की पूर्णत: समाप्ति का मार्ग प्रशस्त हो सके। जहां भारत, पाकिस्तान, चीन सहित कुल सोलह देशों ने इस प्रस्ताव पर मतदान में भाग नहीं लिया, वहीं प्रस्ताव का समर्थन करने वाले देशों में उत्तर कोरिया भी था। इस पांच दिवसीय वार्ता में सौ से भी अधिक देशों ने भाग लिया और यह संदेश दिया कि आज विश्व के अधिकतर देश नाभिकीय हथियारों से मुक्ति चाहते हैं। पर विडंबना यह है कि वर्तमान में नाभिकीय हथियार निर्माण में सक्षम नौ देशों- एन-5 देशों (नाभिकीय अप्रसार संधि द्वारा नाभिकीय शक्ति संपन्न घोषित पांच देश- संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस, चीन) तथा भारत, पाकिस्तान, उत्तर कोरिया व इजराइल (इजराइल ने अभी तक कोई नाभिकीय परीक्षण नहीं किया है, पर यह माना जाता है कि उसके पास भी नाभिकीय हथियार हैं) में से किसी भी देश ने इस तरह के किसी बाध्यकारी समझौते का स्पष्ट रूप से समर्थन नहीं किया है। हालांकि पिछले वर्ष उत्तर कोरिया ने एल-41 प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया था, मगर नाभिकीय नि:शस्त्रीकरण के संबंध में उसकी गंभीरता संदिग्ध है। संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की प्रतिनिधि निक्की हेली ने तो यहां तक कह दिया कि इस प्रकार के समझौते से उत्तर कोरिया जैसे देशों को लाभ मिलेगा और अमेरिका जैसे देशों की स्थिति इससे कमजोर होगी, जिनकी शांति व सुरक्षा के लिए ये हथियार आवश्यक हैं। यहां तक कि नाभिकीय हथियारों का एकमात्र भुक्तभोगी जापान भी यह कह कर समझौते का विरोध कर रहा है कि अमेरिका के नाभिकीय हथियार उसे सुरक्षा प्रदान करते हैं। अमेरिका का कहना है कि एटमी हथियार उसे अवरोधक क्षमता प्रदान करते हैं और इसलिए किसी भी बड़े आक्रमण या नाभिकीय हमले से बचने के लिए इनका होना आवश्यक है। भारत भी अपने आदर्शवाद को तिलांजलि देते हुए यह स्वीकार कर चुका है कि परमाणु हथियार आज की वास्तविकता हैं और इन पर प्रतिबंध का कोई भी प्रयास अमेरिका व रूस जैसे देशों की सहमति के बिना सफल नहीं हो सकता। इसी क्रम में भारत का नाभिकीय सिद्धांत एक न्यूनतम विश्वसनीय अवरोधक स्तर तक नाभिकीय हथियारों के निर्माण का उल्लेख करता है। शीतयुद्ध के दौरान अति प्रचलित हुआ नाभिकीय हथियारों का अवरोधक सिद्धांत इस मान्यता पर आधारित है कि यदि किसी देश के पास नाभिकीय हथियार और पर्याप्त प्रत्युत्तर (सेकंड स्ट्राइक) क्षमता विद्यमान हो, तो पारस्परिक सुनिश्चित विध्वंस की संभावना उसके दुश्मन देश को उस पर नाभिकीय आक्रमण करने से रोकेगी। शीतयुद्ध काल में सोवियत संघ तथा अमेरिका के बीच कोई प्रत्यक्ष युद्ध न होना इसी सिद्धांत की सफलता के उदाहरण के रूप में प्रचारित किया जाता है तथा यह सिद्धांत आज भी नाभिकीय हथियारों को औचित्यपूर्ण सिद्ध करने का एक प्रमुख तर्क है। वस्तुत; अवरोधक सिद्धांत की आड़ में नाभिकीय हथियार निर्माण क्षमता वाले देश न केवल अपने नाभिकीय हथियारों को बनाए रखते हैं, बल्कि इन हथियारों को समाप्त करने के किसी भी प्रयास को विफल कर देते हैं, जबकि 1968 में हस्ताक्षरित नाभिकीय अप्रसार संधि सभी एन-5 देशों से यह अपेक्षा करती है कि वे नाभिकीय हथियारों की यथाशीघ्र समाप्ति के लिए वार्ता करेंगे। इसके बावजूद आज तक नाभिकीय हथियारों की पूर्णत: समाप्ति के लिए एन-5 की तरफ से कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया है और नि:शस्त्रीकरण की जगह परमाणु हथियार नियंत्रण को प्राथमिकता दी गई है। अमेरिका तथा पूर्व सोवियत संघ के बीच हुई सामरिक अस्त्र परिसीमन संधि (साल्ट), सामरिक अस्त्र न्यूनीकरण संधि (स्टार्ट) जैसी संधियां वस्तुत: अस्त्र नियंत्रण की दिशा में उठाए गए कदम थे। इसके फलस्वरूप हालांकि एन-5 देशों में नाभिकीय हथियारों के भंडार में कुछ कमी अवश्य आई, पर भारत, पाकिस्तान, उत्तर कोरिया जैसे देशों में नाभिकीय हथियारों का प्रसार नहीं रोका जा सका। नाभिकीय हथियारों के इस प्रसार का ही परिणाम है कि आज जहां एक ओर भारत- पाकिस्तान के बीच नाभिकीय हथियारों व प्रक्षेपास्त्रों के निर्माण की होड़ ने दक्षिण एशिया क्षेत्र को 'न्यूक्लियर फ्लैशपॉइंटÓ के रूप में स्थापित किया है, वहीं दूसरी ओर 2003 में नाभिकीय अप्रसार संधि से बाहर आने के बाद उत्तर कोरिया नाभिकीय परीक्षण करता रहा है, जिससे न केवल कोरियाई प्रायद्वीप बल्कि जापान की सुरक्षा पर भी निरंतर खतरा बना हुआ है। इतना ही नहीं, एटमी हथियारों की मौजूदगी ने एटमी आतंकवाद जैसे खतरे की आशंका भी उत्पन्न कर दी है। इस सब के बावजूद अमेरिका और अन्य नाभिकीय शक्ति संपन्न देश अवरोधक-सिद्धांत का बखान करते रहते हैं, जबकि तमाम शोध दर्शाते हैं कि नाभिकीय हथियार हमेशा अवरोधक का कार्य नहीं करते। अवरोधक सिद्धांत के विरोध में कहा जाता है कि यह सिद्धांत किसी देश की सुरक्षा के लिए गारंटी नहीं माना जा सकता। वार्ड एच. विल्सन ने अपनी पुस्तक 'फाइव मिथ्स अबाउट न्यूक्लियर वेपंसÓ में यह दर्शाया है कि इतिहास में कई ऐसे भी उदाहरण रहे हैं, जब नाभिकीय हथियारों की मौजूदगी के बावजूद किसी देश पर आक्रमण हुए हैं या उसे अपने प्रतिद्वंद्वी देश से कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा है। विएतनाम युद्ध में नाभिकीय शक्ति संपन्न अमेरिका को विएतनाम से न केवल कड़ी चुनौती मिली, बल्कि इस युद्ध में अमेरिका की रणनीतिक हार भी हुई। इसी प्रकार 1973 के योम किप्पुर युद्ध में इजराइल के पास नाभिकीय हथियारों की मौजूदगी की संभावना के बावजूद अरब देश उस पर आक्रमण करने से नहीं घबराए। इसके अलावा, तमाम शोध दर्शाते हैं कि नाभिकीय हथियारों के निर्माण के बाद भारत-पाकिस्तान सीमा पर होने वाली हिंसक घटनाओं में पहले की तुलना में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। अत: केवल नाभिकीय हथियारों का निर्माण कर लेना किसी देश को बाहरी आक्रमण या प्रतिद्वंद्वी की हिंसक गतिविधियों से नहीं बचा सकता। जाहिर है, न केवल नाभिकीय हथियार निर्माण सक्षम देशों बल्कि समस्त विश्व की सुरक्षा सुनिश्चित करने का बेहतर विकल्प यह होगा कि विश्व में नि; शस्त्रीकरण आंदोलन को बढ़ावा दिया जाए और नाभिकीय हथियारों को प्रतिबंधित करते हुए उनके पूर्णत: उन्मूलन का प्रयास किया जाए। वस्तुत: नाभिकीय हथियार मुक्त विश्व में ही शांति और स्थायित्व की स्थापना की जा सकती है। और इसीलिए, नाभिकीय हथियारों पर प्रतिबंध के लिए होने वाली कोई भी वार्ता- चाहे नाभिकीय हथियार रखने वाले देश उसका हिस्सा बनें या न बने- एक नैतिक बल रखती है। आशा की जानी चाहिए कि जब जून-जुलाई 2017 में वार्ता का अगला दौर आयोजित हो, तब वैश्विक शांति के उद्देश्य को सर्वोपरि मानते हुए सभी देश नाभिकीय हथियारों पर प्रतिबंध के लिए आपसी सहमति बना सकें।

Tuesday 18 April 2017

हॉलीडे मनाने लंदन जाएं तो याद रखें यह कुछ बातें 


डॉ. अरूण जैन
छुट्टियां मनाने के लिए लंदन एक आदर्श शहर है। इसे बसंत ऋतु में देखने का अपना ही मजा है क्योंकि तब नर्गिस खिलकर यहां के बगीचों की सुंदरता में चार चांद लगा देते हैं। चूंकि यहां थियेटर−ऑपेरा वगैरह भी हैं इसलिए यहां समय कैसे कट जाता है पता ही नहीं चलता। लंदन शहर के मुख्यत: तीन भाग हैं− पुराना शहर, जहां पुरानी इमारतें जैसे वेस्ट मिन्स्टर जहां शाही परिवार के भवन और सरकारी कार्यालय हैं और वेस्ट एंड जहां खरीदारी के मुख्य तीन स्थान बॉन्ड स्ट्रीट, रीजेंट स्ट्रीट और ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट हैं। जब आप वायुयान द्वारा लंदन पहुंचेंगे तो वहां के तीन हवाई अड्डों− हीथ्रो, गेटविक और स्टैन्स्टेड में से किसी एक पर उतरेंगे। हीथ्रो हवाई अड्डे से भूमिगत रेल या एयर बस द्वारा सेंट्रल लंदन पहुंच सकते हैं। ये आपको लंदन के प्रमुख होटलों वाले क्षेत्रों से होते हुए ले जाएंगे। आप अपनी वांछित जगह पर 45 से 85 मिनट के बीच पहुंच सकते हैं। गेटविक हवाई अड्डे से बाहर जाने का बेहतर साधन रेल ही है। वहां दिन में हर 15 मिनट पर और रात में हर एक घंटे पर रेलगाड़ी मिल जाएगी। इसी तरह स्टैन्स्टेड हवाई अड्डे से भी नियमित रेल सेवाएं उपलब्ध हैं। लंदन में घूमने के लिए सबसे अच्छा साधन है ट्यूब रेलवे। इसकी रेलगाडिय़ां रविवार को सुबह 7.30 से रात 11.30 बजे तक और अन्य दिन सुबह 5.30 बजे से रात 12 बजे तक थोड़े−थोड़े अंतराल पर उपलब्ध होती हैं। लंदन घूमने आए हैं तो कम से कम आप यहां चार दिन अवश्य ठहरने का कार्यक्रम बनाएं।  लंदन के प्रमुख स्थलों में बकिंघम पैलेस, कॉमनवेल्थ इंस्टीट्यूट, गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्डस, टावर ऑफ लंदन, ज्वेल हाउस, मदाम तुसाओ संग्रहालय, लंदन संग्रहालय, विक्टोरिया संग्रहालय और सेंट पाल गिरजाघर प्रमुख हैं। बंकिघम पैलेस महारानी का शाही निवास है। यहां अप्रेल से अगस्त के बीच तक ठंड के मौसम में एक दिन के अंतराल पर सवेरे 11.30 बजे महारानी के अंगरक्षकों के दल का अदलाबदली समरोह देखने लायक होता है।  टेम्स नदी के तट पर बनी किलेनुमा इमारत टावर ऑफ लंदन कहलाता है। यहां पर सेन्ट जॉन का गिरजाघर भी है। टावर के पास ही ज्वेल हाउस भी है। यह वास्तव में सोना, हीरा व जवाहरात का भंडार है। विख्यात भारतीय हीरा कोहिनूर भी यहीं पर है। फरवरी माह में ज्वेल हाउस बंद रहता है। मदाम तुसाद का संग्रहालय पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। यह अपनी तरह का एकमात्र संग्रहालय है। यहां विश्व के अनेक महान और विशिष्ट लोगों की मोम से बनाई मूर्तियां रखी गई हैं। इन मूर्तियों को बहुत ही सहेजकर रखा जाता है। इन्हें इतनी सफाई से बनाया जाता है कि आपको लगेगा कि यह मूर्ति अभी बोल पड़ेगी।  लंदन में स्थित सेन्ट पॉल गिरजाघर 33 सालों में बनकर तैयार हुआ था। ईसाई समुदाय के लोग रोम के सेन्ट पीटर गिरजाघर के बाद इसे संसार का दूसरा महत्वपूर्ण गिरजाघर मानते हैं। यहां सोने की अनेक मूर्तियां हैं। दीवारों पर की गई चित्रकारी में भी सोने का प्रयोग किया गया है। इनके अतिरिक्त यहां बारबिकन आर्ट सेंटर, पार्लियामेंट लंदन, डायमंड सेंटर, प्लेनिटॅरियम, टावर ब्रिज, ब्रिटिश म्यूजियम, कैबिनेट वार रूम्स, जियॉलाजिकल म्यूजियम आदि दर्शनीय स्थल भी हैं।

कुछ मुद्दों पर ठन भी सकती है मोदी-ट्रंप के बीच


डॉ. अरूण जैन
अमेरिका के नये राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच अच्छा संवाद कायम हो गया है। वे दोनों दो बार फोन पर बात कर चुके हैं और अपने चुनाव-अभियान के दौरान हजारों प्रवासियों भारतीयों के बीच ट्रंप कह चुके हैं कि 'आई लव हिंदू एंड इंडियाÓ। इसके अलावा चार-पांच भारतीय मूल के लोगों को उन्होंने अपने प्रशासन में काफी जिम्मेदारी के पद भी दे दिए हैं। ट्रंप अपने मन की बात बिना लाग-लपेट के कहने के लिए विख्यात हो चुके हैं। उन्होंने कई देशों के बारे में काफी सख्त टिप्पणियां भी की हैं लेकिन भारत के विरुद्ध उन्होंने अभी तक एक शब्द भी नहीं बोला है। उनके चुनाव के दौरान भारतीय मूल के कई लोगों ने उनका डटकर समर्थन भी किया था। इन सब तथ्यों को देखते हुए ऐसा लगता है कि ट्रंप के अमेरिका के साथ भारत के संबंध ओबामा के अमेरिका से भी ज्यादा गहरे हो सकते हैं। गहरे का मतलब क्या? यही कि ओबामा के दौरान दोनों देशों के बीच जो समझौते हुए हैं (उनमें से ज्यादातर अभी तक अधर में लटके हुए हैं), उन्हें अमली जामा पहनाना। पिछले ढाई साल में ओबामा और मोदी की नौ मुलाकातें हो चुकी हैं, लगभग तीन दर्जन मुद्दों पर दोनों देशों का संवाद भी चल रहा है, भारत ने अमेरिका से 15-16 बिलियन डॉलर के शस्त्रास्त्र भी खरीद लिए हैं लेकिन परमाणु भ_ियां लगाने के महत्वपूर्ण समझौते पर कोई ठोस प्रगति नहीं हुई हैं। ट्रंप और मोदी, दोनों ही अपने-अपने देश की राष्ट्रीय राजनीति में अचानक उभरे हैं। दोनों को विदेश नीति के संचालन का अनुभव नहीं है लेकिन दोनों ही अपने संकल्प के धनी मालूम पड़ते हैं। दोनों का अतिवाद और बड़बोलापन आम जनता को उनकी तरफ खींचता है। इसीलिए आशंका होती है कि जब ट्रंप को अपनी भारत-नीति लागू करनी होगी तो वे कहीं पल्टा न खा जाएं जैसे कि मोदी की पाकिस्तान-नीति पिछले ढाई-साल में कई बार उलट-पलट चुकी है। कम से कम दो मुद्दे ऐसे हैं, जिन पर भारत से ट्रंप की ठन सकती है। पहला तो भारतीय नागरिकों को अमेरिका में काम करने के लिए वीजा का प्रश्न है। ट्रंप ने अपने पहले पद-ग्रहण में ही कह दिया है कि वे आप्रवासियों पर रोक लगाएंगे। क्या वे भारतीयों के मामले में ढील देंगे? इस समय अमेरिका की अर्थव्यवस्था में भारतीयों की भूमिका अद्वितीय है। अमेरिका के प्रवासी भारतीय सबसे अधिक समृद्ध, सबसे अधिक शिक्षित, सबसे अधिक खुशहाल और सबसे अधिक मर्यादित समुदाय है। यदि उनके आगमन पर ट्रंप रोक लगाएंगे और यदि उनसे रोजगार छीनेंगे तो भारत चुप कैसे बैठेगा? इसके अलावा वे अमेरिका की ही हानि करेंगे। यदि भारतीय लोग अमेरिका छोड़ दें तो ट्रंप इतने योग्य और अनुशासित अमेरिकियों को कहां से लाएंगे? ट्रंप ने अपने चुनाव-अभियान के दौरान भी इस रोक की रट लगा रखी थी। अब राष्ट्रपति बनते ही उन्होंने अपने अटपटे लगने वाले वादों को लागू करना शुरू कर दिया है, उससे यह संकेत मिलता है कि उक्त मुद्दा शीघ्र ही विवादास्पद बनने वाला है। ऐसे में दो देशों के नेताओं के बीच कायम किया गया दिखावटी सद्भाव कहां तक टिक पाएगा? अगर टिका रहे तो बहुत अच्छा हो! दूसरी बात भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। वह सिर्फ भारत के बारे में ही नहीं है। उसका संदर्भ बड़ा है। ट्रंप का कहना है कि अमेरिकी पूंजी का फायदा दुनिया के दूसरे देश उठा रहे हैं। अब ट्रंप-प्रशासन इस नीति पर पुनर्विचार करेगा। क्या भारत में लगी अमेरिकी पूंजी और उससे पैदा होने वाले रोजगारों पर भी ट्रंपजी की वक्र-दृष्टि होगी? वे स्वयं व्यवसायी रहे हैं। उन्हें पता होना चाहिए कि अब से कई दशक पहले अमेरिका के प्रसिद्ध विदेश मंत्री जॉन फॉस्टर डलेस ने बाहर जाने वाले अमेरिकी डॉलर के बारे में क्या कहा था। डलेस का कहना था कि सहायता या विनियोग के नाम पर बाहर जाने वाला एक डॉलर, तीन डॉलर बनकर वापस लौटता है। भारत-जैसे देशों में लगी अमेरिकी पूंजी हमेशा अमेरिका के लिए ही ज्यादा फायदे दुहती है। ट्रंप का यह कहना सही नहीं है कि 'हमने अन्य देशों को मालदार बना दिया हैÓ और हमारे देश की 'संपदा, शक्ति और आत्मविश्वास हवा में उड़ गए हैं।Ó आशा है कि ट्रंप प्रशासन के अफसर उन्हें जब अमेरिकी नीतियों के अंदरुनी रहस्य समझाएंगे तो उनके विचारों में कुछ बदलाव आएगा। तब शायद वे सिर्फ 'पहले अमेरिकाÓ कहने के साथ-साथ यह भी कह देंगे कि 'दूसरे भी साथ-साथ।Ó इन आशंकाओं के बावजूद अभी ऐसा लगता है कि ट्रंप के अमेरिका और मोदी के भारत में एक मुद्दे पर जबर्दस्त जुगलबंदी हो सकती है। वह है, आतंकवाद का! यों तो ओबामा भी आतंकवाद का विरोध करते रहे लेकिन ट्रंप ने आतंकवाद के उन्मूलन के लिए जैसा खांडा खड़काया है, पिछले 20 साल में किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति ने नहीं खड़काया। उन्होंने सात मुस्लिम राष्ट्रों के नागरिकों के अमेरिका आने पर भी रोक लगा दी है। पश्चिम एशिया के इन राष्ट्रों में आतंकवादियों का दबदबा है। भारत के लिए जरा आश्चर्य की बात है कि इन राष्ट्रों की सूची में पाकिस्तान और अफगानिस्तान का नाम नहीं है। भारत तो इन्हीं राष्ट्रों के आतंकवादियों का शिकार है। क्या ट्रंप भी अन्य राष्ट्रपतियों की तरह केवल उन्हीं आतंकी राष्ट्रों के खिलाफ होंगे, जो अमेरिकी हितों को चोट पहुंचाते हैं? यदि ऐसा होगा तो मानना पड़ेगा कि उन्होंने मोदी को सब्जबाग दिखा दिया है। चने के पेड़ पर चढ़ा दिया है। उन्हें जब नवाज शरीफ ने जीतने पर बधाई दी थी, तब उनकी लफ्फाजी देखने लायक थी। उन्होंने नवाज और पाकिस्तान को भी सिर पर बिठा लिया था। यदि ट्रंप अफगानिस्तान से पूरी तरह हाथ धोना चाहेंगे और पाकिस्तान को चीन के हाथों में सौंप देंगे तो अमेरिका की दक्षिण एशियाई नीति शीर्षासन की मुद्रा धारण कर लेगी। यद्यपि इस्राइल के प्रति मोदी और ट्रंप का भाव चाहे एक-जैसा हो लेकिन भारत इस्राइल की ट्रंप-नीति का पूर्ण समर्थन नहीं कर पाएगा। हमारे सुयोग्य विदेश सचिव जयशंकर पर निर्भर करता है कि ट्रंप की इस अल्हड़ नदी में वे भारत की नाव को किस तरह खेते रहेंगे।  ट्रंप ने अमेरिका को 12 राष्ट्रीय प्रशांत संगठन (टीपीटी) से भी मुक्त कर लिया है। इन राष्ट्रों पर चीन का दबदबा बढ़ेगा। वे 'नाटोÓ सैन्य संगठन को भी अप्रासंगिक कह चुके हैं। वे पुतिन के रूस को अमेरिका के बहुत निकट लाना चाहते हैं। वे मेक्सिको और अमेरिका के बीच दीवार खड़ी करने पर तुले हुए हैं। वे जलवायु संबंधी वैश्विक सर्वसम्मति के भी विरुद्ध हैं। उनका और उनकी नीतियों का अमेरिका में ही जमकर विरोध हो रहा है। वे किसी को नहीं बख्श रहे। उन्होंने अपनी पार्टी के असंतुष्ट नेताओं और अमेरिकी पत्रकारों की भी खूब खबर ली है। पिछले राष्ट्रपतियों और प्रशासनों पर भी रंदा चलाने में वे नहीं चूके हैं। ऐसी हालत में ट्रंप के साथ चलते वक्त भारत को अपने कदम फूंक-फूंककर रखने होंगे।

बांग्ला देश का बड़ा नुकसान कर रही हैं शेख हसीना


डॉ. अरूण जैन
यह समझ में आने लायक नहीं है कि जब बांग्ला देश आजादी के जश्न में लगा है तो हिंदुओं के मंदिर और उनकी संपत्ति को तहस-नहस क्यों किया जा रहा है। 45 साल पहले भारत, जहां की बहसुंख्यक आबादी हिंदु है, ने पूर्व पाकिस्तान के लोगों को सेना के बोलबाले वाले पश्चिमी पाकिस्तान के हाथों से आजादी छीनने में मदद की। दो हजार से ज्यादा भारतीय सैनिकों और अफसरों ने इस्लामाबाद के खिलाफ लड़ाई में जान दी। खास बात यह है कि शेख हसीना उन शेख मुजीबुर रहमान की बेटी हैं जिन्होंने जनआंदोलन खड़ा किया और इस क्षेत्र को मुक्त कराया। धार्मिक ताकतों के खिलाफ लडऩे की उनकी पहचान पर संदेह नहीं किया जा सकता है। लेकिन यह अलग बात है कि उन्होंने कट्टरपंथियों के खिलाफ कार्रवाई का इस्तेमाल विपक्षी पार्टियों के खिलाफ लडऩे में किया है। बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की शिकायत है कि हसीना की नाराजगी उनके खिलाफ है क्योंकि वही एकमात्र विकल्प है। उनकी शिकायत है कि शेख हसीना के नेतृत्व वाली अवामी लीग उन्हें खत्म करने के लिए हर चाल चल रही है। यहां तक कि यह अफवाह भी फैला दी गई है कि वे भारत−विरोधी हैं ताकि खालिदा जिया की छवि खराब कर दी जाए। मुझे शेख मुजीबुर रहमान के साथ ढाका में हुई मुलाकात याद है जो आज बांग्लादेश कहे जाने वाले क्षेत्र की मुक्ति के तत्काल बाद हुई थी। मैंने उनसे शिकायत की थी कि बहुत ज्यादा भारत विरोधी भावना है। मैं ढाका प्रेस क्लब गया था और पत्रकारों को यह मजाक करते पाया कि हिलसा मछली कोलकाता के होटलों में मिलती है, लेकिन बांग्लादेश में नहीं। नई दिल्ली और कोलकाता की तीखी आलोचना की कि गई कि वे बांग्लादेश की मुक्ति का फायदा उठा रहे हैं। लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा, जिन्होंने भरतीय सेना का नेतृत्व किया था, का खास जिक्र किया गया कि उन्होंने पूर्व पाकिस्तान के साथ व्यापार करने वाले अमीर पश्चिमी पाकिस्तानियों को लूटा। शेख मुजीबुर रहमान ने मुझे कहा कि बंगाली एक गिलास पानी देने देने वाले का एहसान भी नहीं भूलता। आपके देश वालों ने क्षेत्र को मुक्त कराने के लिए मुक्ति वाहिनी की मदद की और अपनी जान दी है। उन्होंने कहा कि बांग्लादेश में सेकलुरिज्म की गहरी जड़ें हैं और इसे किसी भी हालत में नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। लेकिन हैरत की बात है कि बांग्लादेश की सेकुलर पहचान पर आज सवाल खड़े हो रहे हैं। जम्मातए इस्लामिया, जो एक समय जनरल एचएम एरशाद के सैनिक शासन के समय सरकार का हिस्सा थी, शासन करने के इस्लामिक तरीके को लेकप्रिय बनाने की भरपूर कोशिश कर रही है और दुनिया के एक इस्लामिक राज्य के साथ नजदीकी संबंध बनाना चाहती है। सौभाग्य से, बांग्ला देश में इसे व्यावहारिक रूप से कोई समर्थन नहीं है।  लेकिन शेख हसीना की बदनामी के कारण बांग्लादेशी न केवल भारत विरोधी बल्कि नरम रूप में इस्लामिक भी दिखाई देते हैं। वह मुख्य विपक्षी नेता खालिदा जिया के समर्थकों को मिटाने में व्यस्त हैं। इस लड़ाई में बेगम जिया के साथ के सेकुलर लोगों को भी सांप्रदायिक बताया जा रहा है और उन्हें खदेड़ा जा रहा है। अब शेख हसीना की चिंता जड़ जमाने की और सत्ता नहीं छोडऩे की है। विरोधी दल खुल कर कह रहे हैं कि वे शायद उन्हें हटा पाने में सफल नहीं होंगी क्योंकि वह कभी निष्पक्ष चुनाव नहीं होने देंगी। वह पहले से ही खानदानी शासन की चर्चा करने लगी हैं और अमेरिका में रहने वाले अपने बेटे के साथ सरकार के सभी मामलों को लेकर मशविरा कर रही हैं। इसी सोच के अनुसार, प्रधानमंत्री विश्वविद्यालय और शिक्षण संस्थानों में महत्वपूर्ण जगहों पर अपने समर्थकों की नियुक्त किर रही हैं, इसके बावजूद कि उनके पास योग्यता और डिग्री नहीं है। इस प्रक्रिया में, वह योग्यता पर आधारित शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद कर रही हैं। लेकिन उन्हें इसकी कोई फिक्र नहीं है क्योंकि उन्हें भरोसा है कि सेकुलरिजम के नाम पर वह अपने किसी भी समर्थक को ऊंचे पद पर बिठा सकती हैं। एक कानून बनाने पर विचार हो रहा है जिसमें उनके पिता या उनके शासन को चुनौती देने वाले को राष्ट्रद्रोही समझा जाएगा। निस्संदेह, लोकतांत्रिक परंपरा को देखने का यह अजीब तरीका है। लेकिन एक बार यह कानून बन जाता है तो बांग्लादेश में कोई भी आश्चर्य जनक बात हो सकती है। आने वाले दिनों में, विरोधी पार्टियां जो आज उनका खास निशाना हैं, की कोई आवाज नहीं उठेगी। माहौल ज्यादा निरंकुश और तानाशाही वाला हो जाएगा। और बहुत कम लोग रह जाएंगे जो सरकार से सवाल कर पाएंगे।  अपने सभी कामों में, शेख हसीना देश का कल्याण भूल चुकी हैं। जब वह अपना स्वतंत्रता दिवस मना रहा है, बांग्लादेश इस समस्या का सामना कर रहा है कि आर्थिक विकास के जरिए लोगों को लाभ दिलाने में सरकार कितनी सफल हो रही है। दुर्भाग्य से, ऐसा नहीं है। प्रधानमंत्री अपनी उपलब्धि इसी में गिनती हैं कि उन्होंने अपने पक्के समर्थकों को कितने पद दिए हैं।

योगी का चाबुक अपने पराये में अंतर नहीं कर रहा


डॉ. अरूण जैन

21वीं सदी के शुरुआती वर्ष 2002 में विक्रम भट्ट निर्देशित हिन्दी फीचर फिल्म राज के एक गीत, यह शहर है अमन का, यहां की फिजा है निराली, यहां पर सब शांति-शांति है, यहां पर सब शांति-शांति है। ने खूब शोहरत बटोरी थी। यह गीत आजकल उत्तर प्रदेश पर काफी फिट बैठ रहा है। यूपी में सत्ता परिवर्तन होते ही एक गजब तरह की खामोशी ने पूरे राज्य को अपने आगोश में ले लिया है। इसका कारण है योगी सरकार का अपराधियों पर कसता शिकंजा, जिसके कारण यूपी में योगी सरकार का इकबाल बुलंद है। पूरे प्रदेश में जिस तेजी के साथ माहौल बदल रहा है, उसने प्रदेश की अमन प्रिय जनता काफी सुकून महसूस कर रही है। शहर की सड़कें और चौराहे इस बात के गवाह हैं। बात−बात पर मारपीट पर उतारू दबंग किस्म के लोग अब कहीं नहीं दिखाई देते हैं। बड़े-बड़े मॉल और पार्कों में अब शोहदे लफंगई करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। बात ज्यादा पुरानी नहीं है जब छोटी-छोटी बात पर लोग अपना आपा खो बैठते थे, मरने-मारने तक की नौबत पहुंच जाती थी। न खाकी वर्दी का डर रह गया था, न कानून की चिंता। महिलाओं के साथ छेड़छाड़ की घटनाएं समाज को अभिशप्त करती जा रही थीं। जिसकी बेटी या बहन के साथ छेड़छाड़ होती थी, वह अपना मुंह नहीं खोल सकता था। अगर खोलता तो जान के लाले पड़ जाते। उलटा उसी को किसी केस में फंसा दिया जाता। कदम−कदम पर सड़क पर दहशत का माहौल देखने को मिलता था। यह सब सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के नेताओं की शह में चल रहा था। जिनका समाजवाद से दूर-दूर का नाता नहीं है, वह भी सपा राज में सपाई चोला ओढ़कर कारनामे कर रहे थे। अवैध कब्जेदार, नकल और खनन माफिया, अवैध निर्माण, अवैध नर्सिंग होम, खाद्य पदार्थों में मिलावट, कालाबाजारी से लेकर कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रहा था। सरकारी पैसों की बंदरबांट, थानों की नीलामी, ठेकेदारों की मनमानी सब कुछ चल रहा था। ऐसा नहीं है कि योगी राज में अब सब कुछ खत्म हो गया हो या फिर बदल गया हो, लेकिन कम से कम कोई यह तो नहीं कह सकता है कि यूपी में कानून व्यवस्था की धज्जियां सरकारी संरक्षण में उड़ाई जा रही हैं। अपराधिक वारदातें आज भी घटित हो रही हैं, लेकिन अनुपात में कमी आई है। अब समाज विरोधी तत्व यह नहीं सोच सकते हैं कि उन्हें कहीं से संरक्षण मिल जायेगा, इसलिये अपराधी पकड़े भी जा रहे हैं ओर जेल की सलाखों के पीछे भी पहुंच रहे हैं। जिसके चलते ऐसा लगता है कि यूपी की बदनाम सड़कों पर खामोशी का पहरा बैठ गया हो। यह जरूर है कि सड़क पर अब पहले जैसा तांडव देखने को नहीं मिलता है, मगर चारदिवारी के भीतर होने वाले अपराधों पर अभी नियंत्रण नहीं हो पाया है। बहरहाल, समाज में आ रहे बदलाव को अगर सियासी चश्मा उतार कर देखा जाये तो काफी कुछ साफ नजर आने लगता है। अपराधिक प्रवृति के लोगों में सरकार और पुलिस का भय पनपने की वजह से ऐसा हुआ है। गुंडे माफियाओं को पता है कि अगर वह कानून को अपने हाथ लेंगे तो उनको कोई बचाने वाला नहीं मिलेगा यह दृश्य जगह-जगह देखने को भी मिल रहा है। लखनऊ में विधान भवन के समाने से अगर ट्रैफिक पुलिस का सब इंस्पेक्टर एक मंत्री की लालनीली बत्ती लगी पुलिस स्क्वॉड की गाड़ी को गलत पार्किंग के कारण क्रेन से उठाकर ले जा सकती है और यदि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी से बीजेपी विधायक सुशील सिंह की हत्या आरोपियों को छुड़ाने की कोशिश को पुलिस नाकाम करके बीएसपी नेता की हत्या के आरोपियों को जेल भेज देती है तो इसका मतलब यही हुआ कि योगी सरकार की कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं है। उनका चाबूक अपने पराये में अंतर नहीं कर रहा है। सीएम योगी ने कानून व्यवस्था चुस्त−दुरूस्त करने के लिये पुलिस को खुली छूट दे रखी है, जिसकी वजह से ही अपराध का ग्राफ घटा है। पुलिस अब बेजा दबाव बीजेपी नेताओं और विधायकों का भी नहीं मान रही है। हाँ, इस बीच कई और तरह की समस्याओं ने जरूर जन्म लिया है, जिस कारण पुलिस को कानून व्यवस्था बनाये रखने में दिक्कत आ रही है। योगी के सत्ता संभालते ही आंदोलनों की बयार बहने लगी है। शराब बंदी के खिलाफ आंदोलन, प्राइवेट स्कूल मालिकों की मनमानी के खिलाफ आंदोलन, कट्टर हिन्दूवादी नेताओं की हठधर्मी के किस्से, अयोध्या में भगवान राम लला के मंदिर के निर्माण की मांग जोर पकडऩे जैसी समस्याएं जरूर योगी सरकार के लिये सिरदर्द बनी हुई हैं। लब्बोलुआब यह है कि योगी राज में उत्तर प्रदेश उम्मीदों का प्रदेश बन गया है। ऐसा लग रहा है पूर्ववर्ती सरकारों को लेकर प्रदेश की जनता में या तो विश्वास की कमी रही होगी अथवा जनता का मिजाज समझ पाने में यह सरकारें नाकाम रही होंगी। योगी को सत्ता संभाले चंद दिन बीते हैं, इन चंद दिनों में सरकार ने काफी अहम फैसले भी लिये हैं, जिसके चलते प्रदेश में अपराध के ग्राफ में कमी आई है। नौकरशाहों, अधिकारियों और कर्मचारियों के काम का तौर-तरीका बदल गया है। चाहें अवैध बूचडख़ाने हो या फिर अवैध निर्माण अथवा खनन, भू और नकल माफिया योगी, सरकार का हंटर सभी के खिलाफ तेजी के साथ चल रहा है।  योगी राज आते ही यूपी में सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई भी तेज हो गई है। चाहे तीन तलाक का मामला हो या फिर शराब जैसी बुराइयों के कारण बिगड़ता सामाजिक तानाबाना। महिलाओं से छेड़छाड़ का मसला हो अथवा उनको आगे बढऩे देने का मौका मिलने की बात। जनता को कम पैसे में बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराना, शिक्षा को व्यवसायीकरण से बचाना, सरकारी स्कूलों की स्थिति में सुधार से लेकर सड़कों के गड्ढे, अतिक्रमण, सरकारी संपत्ति पर कब्जा करने वाले सभी पर योगी की नजरें जमी हैं।