Thursday 24 September 2015

आरक्षण पर नई बहस का वक्त


डॉ. अरूण जैन
गुजरात का खाता-पीता संपन्न पटेल समाज भी जातिगत आधार पर आरक्षण चाहता है। उसने अपनी ताकत भी दिखा दी है। हालांकि उनका आंदोलन बहुत सारे सवाल छोड़ गया है। इस आंदोलन पर केजरीवाल-नीतीश प्रेरित होने के आरोप भी लग रहे हैं। हार्दिक पटेल और केजरीवाल के फोटोग्राफ भी सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं। इन सवालों के जवाब देश को तलाशने होंगे। जो जातियां सामाजिक-आर्थिक रूप से संपन्न और समृद्ध हैं उन्हें भी आरक्षण की मलाई की चाहत है। आप भारत से बाहर कहीं भी चले जाइए आपको सबसे ज्यादा पटेल ही मिलते हैं। कुछ साल पहले तक न्यूयार्क शहर की टेलीफोन डायरेक्टरी में पटेल सरनेम के सबसे ज्यादा पन्ने थे। गुजरात में ये हीरे और तेल-घी के बड़े कारोबारी से लेकर दूसरे पेशों में भी सफल हैं। गुजरात में पटेल और उत्तर भारत में जाटों और गुर्जरों के आरक्षण के आंदोलन से अब सरकार को और संसद को दलगत राजनीति से ऊपर उठकर जातिगत आधारित आरक्षण नीति पर फिर से विचार करने के लिए बैठना होगा। इसमें कोई बुराई भी नहीं है। आखिर तमाम नीतियां वक्त के साथ बदलती रही हैं और स्वस्थ लोकतंत्र में ऐसा होना भी चाहिए। अब देश को यह विचार करने की जरूरत है कि आरक्षण किस-किस को मिले और उसका आधार क्या हो? लोकतंत्र की खूबसूरती भी यही है कि इसमें सबको अपनी बात रखने का अधिकार और आजादी है। लेकिन इसके बेजा इस्तेमाल की लोकतंत्र इजाजत तो नहीं देता। अब इस सवाल पर भी सरकार को सोचना होगा कि क्या किसी शख्स को आरक्षण का लाभ एक बार मिलना चाहिए या बार-बार और पीढ़ी-दर-पीढ़ी। क्या कालेजों में एडमिशन से लेकर नौकरी और फिर प्रमोशन तक में आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए? आरक्षण के बल पर जो सरकारी सेवाओं में पहुंच गए, विधानसभाओं और संसद की सदनों तक में आ गए, मंत्री और राज्यपाल तक बन गए, क्या उनके बच्चे भी आरक्षण के हकदार होने चाहिए?आरक्षण को खत्म हरगिज नहीं किया जा सकता। वंचितों और समाज के सबसे पिछड़े पायदान पर रहने वाले समाजों को तो आरक्षण की सख्त जरूरत है और उन्हें आरक्षण का लाभ देना भी होगा। देश उन पर कोई अहसान नहीं कर रहा। सभी लोकतांत्रिक देशों में समाज के दबे-कुचले वर्गों को मुख्यधारा में लाने के लिए विशेष प्रयास किए ही जाते हैं। विशेष योजनाएं चलाई जाती हैं। अमेरिका में अश्वेतों के लिए अफरमेटिव एक्शन चलता है। दक्षिण अफ्रीका की तो क्रिकेट टीम तक में भी अश्वेतों के लिए आरक्षण की नीति है। इसलिए आरक्षण को खारिज करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। पर प्रश्न यह उठता है कि आरक्षण किसको दिया जाए, आरक्षण का आधार क्या हो और आरक्षण एक पीढ़ी को दिया जाए या उसे एक पुश्तैनी हक बना दिया जाए। बड़ा सवाल यह है कि क्या मौजूदा जाति पर आधारित आरक्षण से दलितों और पिछड़ों को लाभ हुआ और हुआ तो कितना हुआ? बेशक नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण के चलते बहुत से दलित और पिछड़े समाज के लोगों को हम समाज के तमाम क्षेत्रों में अगली पंक्ति में कदमताल करते हुए तो देख ही रहे हैं। लेकिन आरक्षण के चलते सारे दलितों या अन्य पिछड़ी जातियों की जिंदगी कतई नहीं बदली। पिछड़े वर्ग और दलितों में भी गिनी-चुनी दबंग जातियां और पहले से ही खाते-पीते वर्ग आरक्षण की मलाई खा रहे हैं। बिहार में 133 ओबीसी जातियां हैं और 23 अनुसूचित जातियां हैं। उत्तर प्रदेश में 76 ओबीसी जातियां और 66 अनुसूचित जातियां हैं। इनमें जो जातियां असरदार हैं उनकी तादाद लाखों में हैं। जिनका असर कम है वे कुछ हजारों तक सीमित हैं। यह सबको पता है कि जिन जातियों से जुड़े लोगों की तादाद कम है उन्हें तो आरक्षण का लाभ वैसे भी नहीं मिल रहा। आरक्षण की रेवडिय़ां तो बड़ी और दबंग जातियों के हिस्से में ही जा रही हैं। नतीजा यह हो रहा है कि आरक्षण की नीति के बावजूद बहुत सी जातियों का सामाजिक-आर्थिक स्तर पर पिछड़ापन बरकरार है। अब कई स्तरों पर यह मांग भी उठ रही है कि आरक्षण का लाभ उन्हें ही मिले जो आर्थिक रूप से पिछड़े हैं। कायदे से इसमें बुराई ही क्या है? अगर आरक्षण का आधार आर्थिक-सामाजिक तय कर लिया जाए तो इसमें बुराई ही क्या है? कम से कम इस लिहाज से एक स्वस्थ बहस तो देश में शुरू हो ही जानी चाहिए। दुनिया तेजी से बदल रही है। अब समाज और सरकार को नौजवानों को आरक्षण जैसे मसलों से आगे सोचने के लिए प्रेरित करना चाहिए। देश में साक्षरता तेजी से बढ़ रही है। शिक्षित होने की प्यास और ख्वाहिश हर स्तर पर हर जाति-धर्म में देखी जा रही है। इसके चलते अब वक्त नौकरी करने का कम और उद्यमी बनने के लिए ज्यादा मुफीद नजर आ रहा है। वे नौजवान भी उद्यमी भी बन रहे हैं जिनके परिवार में कभी किसी ने बिजनेस नहीं किया। इसमें दलित और पिछड़ी जातियों से संबंध रखने वाले भी कम नहीं हैं। आज डॉ. अंबेडकर हमारे बीच होते तो उन्हें निश्चित रूप से इस बात का संतोष होता कि सैकड़ों-हजारों वर्षों से दबे-कुचले दलित अब छोटी-मोटी नौकरी करके ही खुश नहीं हैं। वे उद्यमी बन रहे हैं। वे रोजगार मांग नहीं रहे, बल्कि दे रहे हैं। आर्थिक उदारीकरण दलित उद्यमियों के लिए फायदेमंद रहा। उसके बाद दलित उद्यमियों को तमाम क्षेत्रों में अपने लिए जगह बनाने का मौका मिला। बेशक कोई भी समाज जो कठिन दौर से गुजरता है और संघर्ष करता है वह एक दिन तरक्की करता है। अब दलितों का समय आ गया है। दलित व्यापार में अपनी क्षमताओं से आगे बढ़ रहे हैं। कुल मिलाकर बात यह है कि अब देश के सभी शिक्षित नौजवानों को नौकरी और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण से आगे के बारे में सोचना होगा। यदि आरक्षण पर पुनर्विचार हो तो मुद्दा यह होना चाहिए कि जिन अति पिछड़ी और महादलित जातियों को अब तक आरक्षण का कुछ खास लाभ नहीं मिला उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को कैसे ऊपर उठाया जाए?

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