Monday 6 July 2015

कूटनीति या व्यापार


डॉ. अरूण जैन
ऐसी क्या जल्दी थी कि चीनियों के लिए मोदीजी इ-वीजा की घोषणा कर आए? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस यात्रा में भी गीत-संगीत, डांस-ड्रामा था। बौद्ध धर्म था। मानसरोवर यात्रा का मार्ग था। ताइची और योग का समागम था, और साथ में चौबीस समझौते थे। लेकिन जो नहीं था, उसे लेकर अरुणाचल और कश्मीर के लाखों पासपोर्ट धारक निराश हैं, क्योंकि अब भी चीन ने नत्थी वीजा जारी किए जाने के निर्णय में कोई बदलाव नहीं किया है। पासपोर्ट पर स्टेपल वीजा देने का निहितार्थ यही है कि चीन अब भी कश्मीर और अरुणाचल प्रदेश को विवादित हिस्सा मानता है। चीन के लिए पाक अधिकृत कश्मीर, विवादित हिस्सा नहीं है! उस पार के कश्मीरी बाकायदा स्टांप लगे वीजा के साथ चीन का भ्रमण करते हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में 'सिल्क रूटÓ बनाने से लेकर विभिन्न परियोजनाओं में चीन द्वारा चालीस अरब डॉलर लगाने पर जो चिंता व्यक्त की है, उससे क्या फर्क पड़ा है? बेजिंग इससे पीछे नहीं हटने वाला। ऐसा लगता है, मानो मोदी पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में चीनी सड़कें, अधोसंरचना पर चिंता व्यक्त कर विरोध की औपचारिकता पूरी कर आए हैं। विरोध और चिंता में बहुत बड़ा फर्क होता है। बीस फरवरी को मोदी जब अरुणाचल दौरे पर थे, तब चीन विरोध प्रकट कर रहा था। नृत्य-संगीत से मोदीजी का स्वागत करने वाले चीन ने इतना भी नहीं कहा कि आगे से अरुणाचल में नई दिल्ली से शिखर नेताओं के जाने पर आपत्ति नहीं करेंगे। इन चौबीस समझौतों में खटकने वाली बात यह है कि आतंकवाद समाप्त करने के बारे में चीन ने कोई समझौता नहीं किया है। क्यों? इसकी वजह पाकिस्तान है। क्योंकि जब भी आतंकवाद के विरुद्ध प्रस्ताव लाने की बात होती, उसकी जद में पाकिस्तान आता ही। यों, शिन्चियांग के उईगुर आतंकियों से चीन त्रस्त है, जो फर्जी पाकिस्तानी पासपोर्ट के साथ तुर्की में राजनीतिक शरण ले रहे हैं। चीन आधिकारिक तौर पर तुर्की के विरुद्ध बयान दे चुका है। लेकिन पाकिस्तान के कबीलाई इलाकों की आतंक-फैक्ट्रियों में उईगुर अतिवादियों का आना रुका नहीं है। बावजूद इसके राष्ट्रपति शी, प्रधानमंत्री मोदी के साथ आतंकवाद के विरोध में कदमताल नहीं करना चाहते। पाकिस्तान के बरास्ते जिस महत्त्वाकांक्षा के साथ चीन यूरेशिया के लिए नए सिल्क रूट बनाने के सपने साकार कर रहा है, उसके टूटने का जोखिम चीन नहीं उठा सकता। बेजिंग के शिन्हुआ विश्वविद्यालय में मोदी ने बार-बार इसकी याद दिलाई कि आतंकवाद के कारण विकास, सहयोग और निवेश में अवरोध पैदा होता है। लेकिन चीनी नेतृत्व का व्यवहार इस सवाल पर चिकने घड़े जैसा ही था। मोदी ने दो-तीन अवसरों पर यह स्पष्ट कर लेना चाहा कि सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के वास्ते भारत की दावेदारी को चीन कितना समर्थन करता है। चीन ने सिर्फ इतना कहा, संयुक्त राष्ट्र में भारत की बड़ी भूमिका का चीन समर्थन करेगा। इस 'बड़ी भूमिकाÓ का मतलब क्या है? यह संशय की स्थिति कब खत्म होगी कि चीन ऐसे प्रस्ताव के विरुद्ध वीटो का इस्तेमाल नहीं करेगा?सितंबर 2014 में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत आए थे, तब पांच वर्षों में बीस अरब डॉलर के निवेश का वादा हुआ था। लेकिन नौ महीनों में नौ कदम भी आगे नहीं बढ़े हैं। सच तो यह है कि चीन और भारत के बीच कूटनीति का यह दौर विश्वास बहाली का है। इस 'कॉन्फिडेंस बिल्डिंग डिप्लोमेसीÓ का एक ही मंत्र है, पहले इस्तेमाल करो, फिर विश्वास करो। इसलिए जिन चौबीस आयामों पर चीन-भारत के बीच समझौते हुए हैं, उनमें ज्यादातर सांस्कृतिक आदान-प्रदान, खनन और व्यापार वाले समझौते हैं। लेकिन यह सारा कुछ तब बिखर जाता है, जब लद््दाख से लेकर अरुणाचल की सीमा पर घुसपैठ होती है। ऐसी घटनाएं क्यों बासठ की याद बार-बार दिलाती हैं? भारत के 'प्रधान सेवकÓ को याद रखना चाहिए कि लद््दाख से लेकर सिक्किम और अरुणाचल की सीमाओं पर जो चीनी सैनिक तैनात हैं, वे 'शिआन टेराकोटा वारियर म्यूजियमÓ में मिट्टी के बने सैनिक नहीं हैं। वे सचमुच के सैनिक हैं, जिन्हें सिखाया गया है कि सीमा पार घुसपैठ कर भारत पर दबाव बनाए रखो। भारत-चीन के नेताओं ने एक बार फिर से अहद किया है कि सीमा विवाद जल्द सुलझा लेंगे। दिसंबर 1988 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी चीन गए थे, तब भी संकल्प किया गया था कि सीमा विवाद जल्द सुलझा लेंगे। इसके आठ साल बाद तब के चीनी राष्ट्रपति चियांग ज़ेमिन नवंबर 1996 में नई दिल्ली आए, और घोषणा की कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर विश्वास बहाल करेंगे, साथ ही सीमा विवाद शीघ्र सुलझा लेंगे। पिछले साल 10 से 14 फरवरी के बीच भारत के तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन और चीन के स्टेट कौंसिलर यांग चीशी ने पंद्रहवें दौर की सीमा संबंधी बातचीत की थी। फिर पिछले साल सितंबर और नवंबर में दो दौर की और बैठकें हुई थीं। उसके पांच माह बाद यांग चीशी इस साल तेईस मार्च को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से अठारहवें दौर की बैठक नई दिल्ली में कर गए थे। सीमा विवाद पर दोनों देशों के नेताओं और नौकरशाहों की बैठकों को देख कर लगता है, मानो इसे हनुमानजी की पूंछ बना दिया गया हो। इन बैठकों के बाद बयान जारी होता है, 'विवाद जल्द सुलझा लेंगे!Ó ऐसे 'कॉपी-पेस्टÓ बयान से जनता पक चुकी है। हिमालय से प्रशांत महासागर तक, चीन के लगभग बीस देशों से सीमा विवाद हैं। इससे यही संदेश जाता है कि चीन, दुनिया का सबसे पंगेबाज देश है। विश्व-नेता बनने के लिए एक बारी में तीन देशों की यात्रा की नई परंपरा एशिया में शुरू हुई है। ऐसा अक्सर अमेरिकी राष्ट्रपति किया करते थे। 2015 में चीनी राष्ट्रपति शी और प्रधानमंत्री मोदी के बीच इस तरह की प्रतिस्पर्धा हम सब देख सकते हैं। शी और मोदी जिन विषयों पर प्रतिस्पर्घा नहीं कर, एक-दूसरे से इत्तिफाक रख रहे हैं, उनमें बौद्ध धर्म पर हो रही कूटनीति है। म्यांमा समेत पूर्वी एशिया के देशों और श्रीलंका में बौद्ध धर्म, घरेलू राजनीति को प्रभावित करता दिखता है। लेकिन जिस बौद्ध धर्म की बिसात पर चीन गोटियां चल रहा है, उसके नतीजे बड़े खतरनाक निकलेंगे। इसके बूते चीन, दलाई लामा को हाशिये पर लाने का कुचक्र चल रहा है। नेपाल में बीस हजार तिब्बती, शरणार्थी के रूप में रह रहे हैं, उनकी हिम्मत नहीं है कि चीन के खिलाफ चूं बोल दें। लगभग यही स्थिति भारत में बनने लगी है। दो मई को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह धर्मशाला जाकर दलाई लामा से मिलने वाले थे। लेकिन चीन का इतना खौफ था कि सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष ने अपनी यात्रा ही स्थगित कर दी। इसलिए मोदीजी जब चीनी मठों में सरकारी बौद्ध लामाओं से अभ्यंतर हो रहे थे, उससे धर्मशाला में माहौल असहज सा हो रहा था। कूटनीति पर व्यापार का नशा इतना हावी हो चुका है कि हम हर फैसले पर चीन की खुशी-नाखुशी का ध्यान रखने लगे हैं। सितंबर-अक्तूबर में बंगाल की खाड़ी में उन्नीसवें दौर के मालाबार नौसैनिक अभ्यास में अमेरिका के साथ जापान को बुलाएं या नहीं, ऐसी ऊहापोह की स्थिति प्रधानमंत्री कार्यालय में बनी हुई है। यह कमजोर नेतृत्व का नतीजा है। चीन ने बंगाल की खाड़ी में अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान, सिंगापुर और भारत के संयुक्त नौसैनिक अभ्यास का विरोध 2007 में किया था। 2009 और 2014 में यूपीए का दौर था, जब मालाबार अभ्यास के लिए जापान का आना टाल दिया गया था। चीन पूरी ढिठाई से अरब सागर में पाकिस्तान के साथ नौसैनिक अभ्यास करता रहा है, तब भारत को क्यों नहीं आपत्ति होनी चाहिए थी? चीन ने यूक्रेन से खरीदे लियोनिंग नामक पोत पर पाक नौसैनिकों को प्रशिक्षित किया था। सवाल यह है कि चीन से मोदीजी ने जो चौबीस समझौते किए हैं, उससे क्या हमारा सालाना व्यापार घाटा पूरा हो जाएगा? 2014 तक चीन-भारत का उभयपक्षीय व्यापार 70.65 अरब डॉलर का था। तब चीन भारत को 54.42 अरब डॉलर का माल भेज रहा था, जबकि चीन के लिए भारत का कुल निर्यात 16.41 अरब डॉलर का था। अर्थात चीन से व्यापार में भारत को 2014 में 37.8 अरब डॉलर के घाटे में था। यह इतनी बड़ी खाई है कि उसे पाटने का रास्ता चौबीस सूत्री समझौतों में कहीं से नजर नहीं आता। इससे अलहदा चीन ने भारत के प्रोजेक्ट निर्यात बाजार पर जबर्दस्त तरीके से कब्जा किया हुआ है। इस साल कोई साठ अरब डॉलर के चीनी प्रोजेक्ट निर्यात को निष्पादित होना है। जिस चीनी निवेश को भारत लाने के लिए हम बावले हो रहे हैं, उससे पहले अफ्रीका में हमें झांक लेना चाहिए कि वहां चीन ने क्या किया है। अंगोला, जांबिया, जिम्बाब्वे, दक्षिण अफ्रीका के कोयला, लौह और तांबा खनन, तेल दोहन, अधोसंरचना के ठेके पर चीनियों का कब्जा है। सबसे ज्यादा शोषण श्रम बाजार में है, जिसकी वजह से चीनियों का व्यापक विरोध हो रहा है। इन इलाकों के बाजार को नियंत्रित करने वाले ढाई लाख चीनी 'येलो मास्टर्सÓ के नाम से जाने जाते हैं। ये येलो मास्टर्स वहीं के कामगारों से जो माल बनाते हैं, उसे 'जिंग-जौंगÓ कहा जाता है, जिसकी कोई गारंटी नहीं होती। तंजानिया के खनन व्यवसाय पर येलो मास्टर्स हावी हैं। वहां से लौह अयस्क निकालने के वास्ते एक चीनी कंपनी ने 2011 में तीन अरब डॉलर का निवेश किया था। कई दूसरी चीनी कंपनियां तंजानिया से जवाहरात, सोना, मैग्नेशियम, कोबाल्ट निकालने के लिए आगे आर्इं। मगर भ्रष्टाचार इतना हुआ कि लोग सरकार के विरुद्ध हो गए। दक्षिण-पूर्वी तंजानिया के बंदरगाह-शहर मतवारा से दार-ए-सलाम तक गैस पाइपलाइन लगाने में जमकर घोटाला हुआ, और आम जनता चीनियों के विरुद्ध सड़कों पर उतर आई। गृहयुद्ध जैसे हालात को दबाने के लिए सरकार को सेना की मदद लेनी पड़ी। सब-सहारा अफ्रीका में कोई दो हजार चीनी कंपनियां कारोबार कर रही हैं। इन्हें देखने के लिए कोई दस लाख चीनी इस इलाके में जम चुके हैं। वाशिंगटन स्थित 'सेंटर फॉर ग्लोबल डेवलपमेंटÓ की रिपोर्ट थी कि 2000 से 2011 तक चीन ने अफ्रीका की सोलह सौ तिहत्तर परियोजनाओं में पचहत्तर अरब डॉलर लगा दिए थे। 2012 में पता चला कि अफ्रीका से चीन दो सौ अरब डॉलर से अधिक का 'ट्रेड वॉल्यूमÓ बढ़ा चुका है, और फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका चीन से काफी पीछे जा चुके थे। लेकिन क्या इससे अफ्रीका के हालात सुधरे? अफ्रीका में कितने बुलेट ट्रेन ट्रैक और स्मार्ट सिटी चीन ने बना दिए? चीन वहां के श्रम बाजार की मिट्टी पलीद कर चुका है। अश्वेत कामगार जबर्दस्त शोषण के शिकार हुए हैं। क्या इससे भारत को सबक लेने की जरूरत नहीं है?

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