गांधी जी का सपना और आज के गांव
अरूण जैन
महात्मा गांधी ने ऐसी हिंसक पंचायती राज व्यवस्था की कल्पना नहीं की थी जैसी कि आज उत्तर भारत के कई राज्यों में दिखाई दे रही है। हमने ग्रामसभाओं को जिस तरह की राजनीति का अखाड़ा बना दिया है उससे ग्रामीण समाज की समरसता और एकता नष्ट हो गई है। उत्तर प्रदेश के नब्बे फीसद गांवों में पिछले चुनाव के बाद से दुश्मनी बढ़ी है। अब फिर चुनाव होने हैं और संभावित उम्मीदवारों की हत्याओं का सिलसिला शुरू हो गया है। ग्रामसभाओं के पास पहुंच रही विभिन्न योजनाओं की धनराशि और उसकी बंदरबांट ने सत्ता और पैसे की प्रतिद्वंद्विता को बढ़ाया है। महात्मा गांधी ने देश की आजादी के बाद जिस तरह के गांव और गांव पंचायत की कल्पना की थी उसका निर्माण हम आज तक नहीं कर सके हैं। उनकी कल्पना थी कि हर गांव पूर्ण प्रजातंत्र होगा, जो अपनी अहम जरूरतों के लिए पड़ोसी पर भी निर्भर नहीं रहेगा। पर महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता घोषित करने वाला देश आज उनकी नीतियों और कार्यक्रमों से बहुत दूर जा चुका है। सरकार ने पंचायती राज कानून तो लागू किया, पर गांधीजी की कल्पना के अनुसार ग्राम पंचायतों को स्वावलंबी बनाने की खातिर कुछ नहीं किया। गांधीजी ने ग्रामसभा से लोकसभा तक के लोकतांत्रिक ढांचे की कल्पना की थी और कहा था कि 'आजादी नीचे से शुरू होनी चाहिए। हर एक गांव के लोगों की हुकूमत या पंचायत का राज होगा। उनके पास पूरी सत्ता और ताकत होगी। इसका मतलब यह है कि हर एक गांव को अपने पांव पर खड़ा होना होगा। अपनी जरूरतें खुद पूरी कर लेनी होंगी ताकि वह अपना कारोबार खुद चला सके। सच्चे प्रजातंत्र में नीचे से नीचे और ऊंचे से ऊंचे आदमी को समान अवसर मिलने चाहिए। इसलिए सच्ची लोकशाही केंद्र में बैठे हुए दस-बीस आदमी नहीं चला सकते, वह तो नीचे से हरेक गांव के लोगों द्वारा चलाई जानी चाहिए।Ó इस दृष्टि से बापू ग्राम पंचायतों के विकास के लिए बहुत उत्सुक थे। उन्होंने कई बार यह बात कही थी कि 'भारत अपने चंद शहरों में नहीं बल्कि सात लाख गांवों में बसा हुआ है।Ó इसमें संदेह नहीं कि प्राचीन काल से ही भारत में प्रशासन की धुरी गांव रहे हैं। गांव ही सामाजिक जीवन के केंद्रबिंदु और देश की अर्थव्यवस्था की प्रधान इकाई थे। राष्ट्रीय संस्कृति, समृद्धि और प्रशासन का भव्य भवन इन्हीं पर खड़ा था, इनसे संबल प्राप्त होता था। दुनिया के किसी भी देश में भारत जितनी धार्मिक और राजनीतिक क्रांतियां नहीं हुई हैं। फिर भी उसकी ग्राम समितियों के कार्यों पर कोई आंच नहीं आई। वे पूरे देश में सदैव स्थानीय हित के कार्यों में लगी रहीं। यहां यूनानी, अफगान, मंगोल, पुर्तगाली, डच, अंग्रेज, फ्रांसीसी आदि आकर शासक बने, पर गांवों के धार्मिक और व्यापारिक संगठनों का काम यथावत चलता रहा। इस बारे में 1830 में अंग्रेज गवर्नर जनरल सर चार्ल्स मेटकाफ ने जो ब्योरा अपने देश को भेजा था उसमें लिखा है कि ''भारत के ग्राम समुदाय एक प्रकार के छोटे-छोटे गणराज्य हैं, जो अपने लिए आवश्यक सभी सामग्री की व्यवस्था कर लेते हैं तथा किसी प्रकार के बाहरी संपर्क से मुक्त हैं। लगता है कि इनके अधिकारों और प्रबंधों पर कभी कोई प्रभाव नहीं पड़ता। एक के बाद एक राजवंश आता है, क्रांतियों का क्रम चलता रहता है। मगर ग्राम समुदाय उसी ढर्रे पर चलता जाता है। मेरे विचार से ग्राम समुदायों के इस संघ ने, जिसमें प्रत्येक (समुदाय) एक छोटे-मोटे राज्य के ही रूप में है, अन्य किसी बात की अपेक्षा अनेक क्रांतियों के बावजूद भारतीय जन समाज को कायम रखने और जनजीवन को विशृंखल होने से बचाने में बड़ा भारी काम किया। साथ ही यह जनता को सुखी बनाए रखने और उसे स्वतंत्र स्थिति का उपभोग कराने का बड़ा भारी साधन है। इसलिए मेरी इच्छा है कि गांवों की इस व्यवस्था में कभी उलटफेर न किया जाय। मैं उस प्रवृत्ति की बात सुन कर ही दहल जाता हूं जो इनकी व्यवस्था भंग करने की सलाह देती है।ÓÓ मेटकाफ के इस खौफ के बावजूद ब्रिटिश सरकार स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता के इन केंद्रों को विनष्ट करने की निर्धारित नीति पर बराबर चलती रही। भारत का पाला पहली बार ऐसे आक्रामक से पड़ा, जिसने यह काम कर दिखाया, जो बहुत पहले किसी ने नहीं किया था। इन ग्राम-गणतंत्रों को विनष्ट कर ब्रिटिश साम्राज्यशाही ने इस प्राचीन देश को सबसे अधिक क्षति पहुंचाई। 1830 को बीते केवल 175 वर्ष हुए, मगर उस गौरवपूर्ण अतीत की धुंधली रेखा भी आज न केवल निरक्षर ग्रामीणोंं, बल्कि सुशिक्षित नर-नारियों के मानस पटल पर भी नहीं रह गई है। हमारी अद्भुत शिक्षा प्रणाली का यह भी एक कमाल है। इस युग में भी क्यों गांधीजी का आग्रह बराबर गांवों के लिए रहता है और क्यों वे 'आत्मनिर्भरÓ स्वशासित ग्राम-गणतंत्रों की वकालत करते नहीं थकते थे। गांधीजी का यह आग्रह इसलिए था कि वे जानते थे कि किसी समय गांवों की क्या हालत थी। वे चाहते थे कि गांवों के सजीव, प्रत्यक्ष लोकतंत्र के आधार पर ही उनकी कल्पना का भारतीय लोकतंत्र कायम हो। दूसरी बात यह है कि गांधीजी प्रत्येक बात पर अहिंसा की दृष्टि से विचार करते थे। उन्होंने यह अनुभव किया था कि जिस राष्ट्रीय निर्माण की उन्होंने कल्पना कर रखी है, उसका आधार गांवों का स्वशासित, आत्मनिर्भर, सहयोगात्मक, सामुदायिक जीवन बहुत अच्छी तरह प्रस्तुत करता है। पर ऐसे प्रयत्न का महत्त्वपूर्ण परिणाम तो नैतिक है। जब आदमी अपनी ही कुशलता और सतत प्रयत्न से कोई आर्थिक दृष्टि से मूल्यवान वस्तु बना सकता है, तो उसे स्वाभिमान, आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता, साहस, आशा, स्वतंत्र सूझ-बूझ और शक्ति प्राप्त होती है। उसके बाद वह अधिक कठिन काम, ऐसा काम जिसमें दूसरों के साथ मिलकर करना पड़े, करने के लिए भी तत्पर हो जाता है। अगर उसके साथ दूसरे भी ऐसा ही करते हैं तो उन सबमें सामूहिक साहस और सामूहिक आशा का संचार होता है। यह कोरा सिद्धांत नहीं है क्योंकि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारत के किसान गांधीजी के कार्यक्रम की प्रेरणा और पथ-प्रदर्शन से अपने ही सादे औजार से ऐसी चीजें बनाते रहे और साथ-साथ अपने चरित्र और नैतिक बल का निर्माण भी करते रहे। इस दौरान खादी की आश्चर्यजनक प्रगति हुई। असहयोग आंदोलन के दिनों में वही जिले अत्याचार का अहिंसक मुकाबला करने में सबसे अधिक साहसी, दृढ़ और सफल रहे, जहां हाथ-कताई, हाथ-बुनाई और ग्रामोत्थान के दूसरे काम कुछ वर्षों से चल रहे थे। हमारे गांव शहरों की सारी जरूरतें पूरी करते थे। देश की गरीबी तब शुरू हुई जब हमारे शहर, कस्बे विदेशी कंपनियों के माल के बाजार बन गए और उपभोग की वस्तुओं को गांवों में भेज कर उनका शोषण करने लगे। अब यह बात साबित हो चुकी है कि कोई व्यक्ति या देश यदि उत्पादकनहीं, सिर्फ उपभोक्ता है तो उसका पतन निश्चित है। व्यक्ति पहले उत्पादकहो, फिर उपभोक्ता, तभी उसका अस्तित्व बचा रहेगा। तमाम सरकारी योजनाएं हमारे गांवों के परंपरागत उद्योग-धंधों को नहीं बचा सकीं जो कभी उनकी जीविका और अर्थव्यवस्था के आधार थे। शहरों की उपभोक्तावादी ऐसी संस्कृति का प्रचार-प्रसार हुआ जो गांवों के लोगों की बदहाली और बेरोजगारी की वजह बन गई है। उदाहरण के लिए, दातुन के बदले तरह-तरह के दंत मंजन, पेस्ट, टूथब्रश; गुड़ और राब की जगह मिल की सफेद चीनी; लकड़ी की सुतली या निवाड़ से बनी खाट या पलंग के बदले लोहे के पाइप या छड़ के पलंग; खपरैल की जगह टिन; सन, पटुए, मंजू आदि की रस्सियों की जगह तार और प्लास्टिक की डोरियां; देहाती चटाई के बदले चीनी और जापानी चटाइयां; गांवों में बांस या घास के बने हुए सूप, दौरे-दौरी, पिटारी आदि के स्थान पर टिन या प्लास्टिक के सूप, डब्बे आदि; पेड़ों के पत्तों से बनी पत्तल की जगह प्लास्टिक की पत्तलें; कुम्हार के घड़े, सुराही, कुल्हड़ की जगह प्लास्टिक के गिलास, थर्मस आदि; देहाती लुहार या कसेरे की बनाई जंजीर, कडिय़ों, हत्थे के बदले मशीन से बने तार या पत्तर की वैसी ही कमजोर मगर आकर्षक चीजें; देहात के सुनार के बनाए गहनों की जगह शहरों में मशीनों से तैयार हुए गहने; देहाती महिलाओं द्वारा गूंथे पंखे, कढ़े आसन, जाजिम, शॉल आदि; रीठा, शिकाकाई आदि प्राकृतिक वस्तुओं के बदले सुगंधित साबुन और शैम्पू; नरकट के बदले तरह-तरह के बाल और जेल पेन और उनके फलस्वरूप देहाती रोशनाई के बदले, रासायनिक रोशनाइयां; देहात के कागज की जगह मशीन के कागज; घरेलू ताजे काढ़े की और अर्कों के बदले तैयार दवाइयों की बोतलें आदि के कारण गांवों की अर्थव्यवस्था को भारी चोट पहुंची है और तमाम लोग बेकार हो गए हैं। गांवों में सूत कताई का काम भी लगभग बंद हो गया है, जो ग्रामीणों की आमदनी का अच्छा जरिया था। इसके अलावा तमाम तरह की मशीनों ने भी गांव वालों को बेरोजगार बनाया है। धान की कटाई-मड़ाई से लेकर आटा पीसने, धान कूटने और कोल्हू बैल से तेल पेरने का काम भी अब मशीनें कर रही हैं। इस तरह के तमाम कामों में लगे मजदूर-किसान अब बेरोजगार हो गए हैं। इससे गांव की पूरी अर्थव्यवस्था चरमरा गई है। इस तरह की तमाम उपभोग की वस्तुओं के लिए अब हम बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर आश्रित हो गए हैं, जिससे देश को भारी कीमत चुकानी पड़ रही है।