Tuesday, 21 April 2015

राहुल की अग्निपरीक्षा


डॉ. अरूण जैन
जहां राहुल गांधी की गुमशुदगी एक कौतूहल का विषय थी वहीं उनकी वापसी ने कांग्रेस के नेतृत्व के सामने समस्या पैदा कर दी है। कांग्रेसियों में दो फाड़ हो गया है, एक वर्ग सोनिया को तो दूसरा राहुल को अध्यक्ष बनाना चाहता है। अर्थात गांधी परिवार की चित भी और पट भी। कुछ समय से कांग्रेस नेतृत्व को लेकर जूझ रही है और उसके सामने तीन विकल्प हैं। एक, कोई योग्य कांग्रेसी गांधी परिवार के बाहर का नेतृत्व संभाले। दो, गांधी परिवार से राहुल की जगह प्रियंका कांग्रेस को नेतृत्व दें और तीन, स्वयं राहुल ही नेतृत्व करें। ऐसा लगता है कि राहुल की गुमशुदगी के प्रकरण में इन विकल्पों में से अंतिम विकल्प को अमली जामा पहनाने की कोशिश की जा रही है। इसका कारण यह है कि इस बहस का ध्येय प्रथम दो विकल्पों को पूरी तरह से खत्म करने का है अर्थात अब नेतृत्व के केंद्र में केवल और केवल राहुल हैं, प्रियंका या गांधी परिवार से बाहर का कोई नहीं। यह एक सोची समझी रणनीति लगती है। लेकिन क्या राहुल में कांग्रेस का नेतृत्व करने की क्षमता है? क्या उन्होंने अपने दस-ग्यारह वर्षों के संसदीय जीवन में कोई भी ऐसा काम किया है जिससे उनकी अपनी, कांग्रेस पार्टी या देश की साख अच्छी हुई हो? कांग्रेस में एक से एक वरिष्ठ और योग्य लोग हैं, क्या उनको राहुल का नेतृत्व स्वीकार होगा? ये सभी प्रश्न राहुल और कांग्रेस, दोनों के भविष्य के लिए गंभीर हैं। जो कांग्रेसी राहुल के पक्ष में बोल रहे हैं वे संभवत: सोनिया के निर्देश पर ऐसा कर रहे होंगे, लेकिन सोनिया बनाम राहुल जैसे संवेदनशील मसले पर राय देने में जाहिर है हर कांग्रेसी असहज महसूस कर रहा होगा कि पता नहीं ऊंट किस करवट बैठ जाए। वैसे सभी जानते हैं कि अगर सोनिया राहुल को कांग्रेस की बागडोर सौंपना ही चाहती हैं तो उसे टाला नहीं जा सकता भले ही उसमें कुछ समय लग जाए। राहुल को कांग्रेस की बागडोर औपचारिक रूप से सौंपने के पूर्व पार्टी उनको दलीय निर्णय की प्रक्रिया में कुछ मुद्दों पर प्रभावी भूमिका दे सकती है, जिससे न केवल उनकी राष्ट्रीय फलक पर उपस्थिति बढ़े, बल्कि यदि वे उन भूमिकाओं का सफलतापूर्वक निर्वहन कर सकें तो पार्टी उस सफलता का श्रेय राहुल को देकर उनको अध्यक्ष पद पर स्थापित कर सके। भूमि-अधिग्रहण कानून तथा बिहार, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव ऐसे कुछ मुद्दे हो सकते हैं। लेकिन सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि कोई भी विश्वास के साथ यह नहीं कह सकता कि इन मुद्दों पर राहुल और कांग्रेस सफल होंगे या उनका ग्राफ और नीचे चला जाएगा। कारण यह है कि कोई भी कांग्रेस का नेतृत्व करे, उसे इस जमीनी हकीकत से रूबरू होना पड़ेगा कि पार्टी का संगठन अब जमीन पर नहीं, बल्कि कागजों पर चलता है। बिहार और उत्तर प्रदेश, दोनों ही राज्यों में पिछले 25-26 वर्षों से कांग्रेस की कोई सरकार नहीं बनी। बिहार में जगन्नाथ मिश्र (मार्च 1990) और उत्तर प्रदेश में नारायण दत्त तिवारी (दिसंबर 1989) अंतिम कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे। इतने लंबे समय तक सत्ता से दूर रहने से पार्टी कार्यकर्ताओं को भी लगने लगा है कि उनकी पार्टी सत्ता में वापसी नहीं कर पाएगी। अत; वे उससे छिटककर दूर चले गए हैं। मुस्लिम और दलित, जो कभी कांग्रेस का जनाधार हुआ करते थे, आज वे जनता-परिवार के किसी घटक या अन्य किसी क्षेत्रीय पार्टी का हिस्सा बन चुके हैं। राहुल या किसी भी कांग्रेसी के पास उनको वापस लाने का क्या कोई भी फार्मूला है? क्या राहुल अपने अज्ञातवास में इन दोनों राज्यों में कांग्रेस को फिर से जीवित करने का कोई गुरुमंत्र सीख कर आए हैं? अगले कुछ वर्ष राहुल की अग्निपरीक्षा होगी। उस परीक्षा की सबसे खास बात यह है कि जहां जनता क्षेत्रीय राजनीति के लिए क्षेत्रीय दलों को तरजीह देती है वहीं वह राष्ट्रीय राजनीति के लिए राष्ट्रीय दलों को ही बागडोर सौंपना चाहती है और इस श्रेणी में फिलहाल केवल भाजपा और कांग्रेस ये दो दल ही आते हैं। लोग मोदी और भाजपा को राष्ट्रीय राजनीति में कितना वक्त देंगे? शायद दस वर्ष? फिर? तो घूम-फिरकर कांग्रेस को भी सत्ता में आना ही है। लेकिन इसे स्वयं सिद्ध प्रमेय न मानकर एक स्वर्णिम संभावना माना जाना चाहिए। और इसीलिए राहुल गांधी को अभी विजय और पराजय के चक्रव्यूह से निकल कर कांग्रेस की नींव मजबूत करने के लिए दूरगामी कदम उठाने चाहिए। यह न केवल कांग्रेस, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के लिए भी एक सकारात्मक पहल होगी। इधर कुछ समय से भारतीय राजनीति में दो नई प्रवृत्तियां मुखर हो रही हैं। एक, 'विकास पर स्पर्धा और दो, जातिवादी राजनीति में कुछ कमी। इन दोनों का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जाता है। उन्होंने देश में राजनीति के विमर्श को एक नई दिशा जरूर दी है। राज्यों और उनके मुख्यमंत्रियों को स्पष्ट संकेत दिया है कि अगर वे अपने-अपने राज्यों में विकास नहीं करेंगे तो वे राजनीति में एक हारने वाली पारी खेल रहे होंगे। विकास तो सभी का होना चाहिए चाहे वे किसी भी धर्म या जाति के हों। इससे मोदी ने समावेशी राजनीति की शुरुआत की है, जिसमें वास्तव में सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय का उद्देश्य है। वे सदैव 125 करोड़ भारतवासियों की बात करते हैं और उनके अभी तक के निर्णयों में कोई निर्णय ऐसा नहीं जिससे किसी भेदभाव की बू आती हो। इसके कारण कभी शहरी और मध्य-वर्ग की कही जाने वाली भाजपा आज सभी क्षेत्रों और सभी वर्गों को आकर्षित कर रही है। राहुल को भी इस स्पर्धा में कूदना पड़ेगा और विकास-मूलक तथा समावेशी राजनीति की शुरुआत करनी पड़ेगी। अच्छी बात यह है कि इसके लिए अभी उनके पास कुछ समय है। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या उनके पास ऐसा करने की इच्छा-शक्ति भी है? देश में कांग्रेस के सिमटते जनाधार और गांधी-परिवार द्वारा नेतृत्व की अपरिहार्यता के टूटते मिथक के बीच राहुल को एक त्वरित, संकल्पयुक्त एवं आशावादी निर्णय लेना होगा, लोगों को संदेश देना होगा कि वह देश की राजनीति के एक समर्पित सिपाही हैं अन्यथा न केवल उनके, बल्कि कांग्रेस के भी भविष्य पर एक गंभीर और स्थायी प्रश्न-चिह्न लग जाएगा।

Monday, 13 April 2015

समापन किश्त


दुबई के आर्थिक विकास में पर्यटन-उड्डयन का विशेष योगदान 

अरूण जैन
दुबई के प्रति आकर्षित होने वाले लोगों और सामान्यजनों को जान कर आश्चर्य होगा कि इस अमीरात को राजस्व आय तेल से नही होती बल्कि उसके आर्थिक विकास और मुख्य राजस्व के स्त्रोत पर्यटन, उड्डयन सेवाएं, जमीनों का व्यवसाय और वित्तीय सेवाएं हैं । तेल से तो दुबई को लगभग 5 प्रतिशत राजस्व ही प्राप्त होता है । 
अरब रेगिस्तान में होने के बावजूद दुबई ने रेत के बड़े-बड़े ढूहों को पर्यटन के सर्वाधिक बड़े आकर्षण के रूप में विकसित कर लिया है । यहां आने वाला रेगिस्तान से डरता-घबराता नही बल्कि रोमांचित होता है । रेगिस्तान की अमिट यादें लेकर लौटता है पर्यटक, फिर से वापस आने के लिए । सन् 2013 की एक रिपोर्ट के अनुसार इस अमीरात की कुल जनसंख्या का 53 प्रतिशत तो केवल भारतीय लोग हैं । 17 प्रतिशत अमीराती, 13 प्रतिशत पाकिस्तानी, 7.5 प्रतिशत बांगलादेशी, 2.5 प्रतिशत फिलीपीनो और 1.5 प्रतिशत श्रीलंकाई नागरिक हैं । हालांकि अरबी भाषा यहां की राष्ट्रीय और सरकारी भाषा है, पर अंग्रेजी दूसरी मुख्य भाषा है । वैसे हिन्दुस्तानी, पंजाबी, सिंधी, गुजराती भाषा भी बहुतायत में बोली जाती है क्योंकि बहुसंख्य जनसंख्या तो वही है । वैसे तो दुबई में 50 हजार से 70 हजार बेरल प्रतिदिन तेल का उत्पादन होता है, इतनी ही प्राकृतिक गैस भी । फिर भी इससे मात्र 5 से 7 प्रतिशत अमीरात राजस्व की प्राप्ति ही होती है । तेल के इस भंडार की भी अगले 20 वर्ष में समाप्त हो जाने की संभावनाएं हैं रियल इस्टेट और निर्माण से 22.6 प्रतिशत, व्यापार से 16 प्रतिशत, पर्यटन और उड्डयन से 15 प्रतिशत और वित्तीय सेवाओं से 11 प्रतिशत राजस्व आय हो रही है और यही दुबई के की आर्थिक उन्नति के बड़े योगदानी हैं । दुबई के निर्यात के मुख्य क्षेत्र भारत (6.53 बिलियन डालर), स्विट्जरलेंड (2.36 बिलियन डालर) इराक (2.8 बिलियन डालर) है । दुबई के आयात के मुख्य स्त्रोत भारत (12.55 बिलियन डालर), चीन (11.55 बिलियन डालर) और संयुक्त राष्ट्र (7.57 बिलियन डालर) है । भारत दुबई का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार रहा है । पश्चिमी उत्पादकों के लिए दुबई और उसके दुबई क्रीक और डेरा बंदरगाह महत्वपूर्ण बंदरगाह रहे हैं । 1970 के दशक से दुबई व्यापार का महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है । यहां सोने का ड्यूटी फ्री व्यापार है और 1990 तक यहां सोने की ईंटे और शिलाएं भारत जाती रही हैं । दुबई का जेबेल अली बंदरगाह 1970 में बना । यह विश्व का सबसे बड़ा मानव निर्मित बंदरगाह है । बुर्ज खलीफा, पाम द्वीप और सबसे मंहगा बुर्ज अल अरब होटल देखने से संबंध रखते है । दुबई को विश्व में ‘सिटी आॅफ गोल्ड के नाम से भी जाना जाता है । सन् 2011 में दुबई का सोने का व्यापार 580 टन रहा है । विश्व के सर्वश्रेष्ठ वित्तीय शहरों और धनी शहरों में दुबई का 27 वां स्थान, सन् 2012 के अनुसार रहा है । दुबई ने अपने आर्थिक विकास को बढ़ाने की दृष्टि से कुछ और महत्वपूर्ण परियोजनाएं तैयार की हैं। इनमें दुबई फेशन 2020, और वल्र्ड एक्सपो 2020 है । अकेले दुबई में कम से कम 70 शाॅपिंग सेंटर है जिनमें विश्व का सबसे बड़ा शाॅपिंग सेंटर ‘दुबई माल’ भी है । 
मानव अधिकार संगठनों ने मानव अधिकारों के हनन के लिए दुबई का घोर विरोध किया है । करीब ढाई लाख मजदूर नारकीय जीवन यहां पर जी रहे हैं । इन मजदूरों के साथ अनुचित व्यवहार पर सन् 2009 में बनी एक फिल्म ‘स्लेव्स इन दुबई’ काफी चर्चित हुई है । हालांकि दुबई सरकार मजदूरों के साथ अमानवीय व्यवहार को समय-समय पर नकारती रही है । सन् 2014 में मानव अधिकार संगठन की एक ताजा रिपोर्ट में संयुक्त अरब अमीरात में घरेलू कामकाजी महिलाओं के स्याह पक्ष की तस्वीर उकेरी गई है । इनमें अधिकांश एशियाई देशों, विशेषकर भारतीय महिलाएं शामिल हैं । जनवरी 2013 के अनुसार दुबई अमीरात की जनसंख्या 21 लाख से अधिक है ।

मध्यपूर्व अध्ययन यात्रा -2

सोने का, सोने सा अमीरात-दुबई

अरूण जैन
बदलते समय के साथ लोगों की पसंदगी-नापसंदगी भले ही कितनी भी बदली हो, पर सोने के प्रति आकर्षण पहले भी था, आज भी है और आगे भी ऐसा ही बना रहेगा । सरकारों ने कई उपाय अपनाए कि सोने के प्रति लगाव और संग्रहण में कमी आए । फिर भी सोने के आयात में वर्ष-दर-वर्ष बढ़ोतरी ही हो रही है । शायद यह भी दुबई की लोकप्रियता का एक प्रमुख कारण है, जिसके बाजार सोने से पटे पड़े हैं ।
दुबई को विश्व में ‘‘सोने का शहर (सिटी आॅफ गोल्ड)’’ के नाम से जाना जाता है । क्योंकि इसकी अर्थव्यवस्था का मुख्य हिस्सा सोने के व्यापार पर आधारित है । इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2011 में दुबई का सोने का कुल व्यापार 580 टन पर पहुंच गया था । मैं जब अपने ठहरने के होटल पर सुबह पहुंचा तो मन में सबसे पहली जिज्ञासा ‘‘गोल्ड मार्केट’’ देखने की थी । तैयार होकर जब पूछताछ की तो पता चला कि दुबई में दो मुख्य गोल्ड मार्केट है - ‘ओल्ड गोल्डसुख’ और ‘न्यू गोल्डसुख’ । टेक्सी चालक और गाइड भी इन क्षेत्रों को इसी नाम से पुकारते और जानते हैं । जैसा कि नाम से ही जाहिर है ‘ओल्ड गोल्डसुख’ सर्वाधिक पुराना मार्केट है । यदि आप भारत में नाथद्वारा (राजस्थान) गए, हों तो आप ओल्ड गोल्डसुख की गलियों की कल्पना कर सकते हैं । गलियां, गलियों में गलियां, और सभी में लकड़ी की कामगारी की दुकाने । वैसे तो इस मार्केट में दिन भर रौनक बनी रहती है, पर शाम ढलते ही यहां का नजारा अत्यन्त लुभावना और आकर्षक हो जाता है । छोटी-छोटी सैकड़ो दुकानें । एक-एक दुकान में कांच के शो रूम में जगमगाते छोटे-बड़े, विशालकाय हार, चूडियां, कान के टाप्स और कड़े । मेरा ख्याल है कि एक-एक दुकान में करोड़ों का सोना होगा । इसके साथ ही सानेके बिस्कुट और गिन्नियां भी बहुतायत में हैं । आपको जानकर, सुखद आश्चर्य होगा कि सोने के भाव में, भारत में और यहां पर लगभग तीन से साढ़े-तीन हजार रूपए प्रति 10 ग्राम का अंतर है । सोना तुलनात्मक रूप से सस्ता ही है । ड्यूटी फ्री पोर्ट होने से यह अंतर है । फिर किसी प्रकार की धोखाधड़ी नहीं । शुीता ग्यारंटीड है । इस अंतर के बाद भी बारगेनिंग (सौदेबाजी) तो है ही । भारत में अधिकतम 98 प्रतिशत शुीता का सोना ही मिलता है, पर दुबई में शुीता 99 प्रतिशत उपलब्ध है,


जो विश्व में संभवतया और कहीं नहीं है । दुकानदारों में अधिकांश गुजराती हैं । खरीददारों में अरब और भारतीय पर्यटक सर्वाधिक नजर आते हैं । मार्केट में घुसने वाला पर्यटक कुछ समय तो भौंचक्का होकर पूरा मार्केट केवल घूमता है और शो-केस निहारता है । संकरी सड़कों पर, जहां केवल पैदल ही लोग चलते है, जगह-जगह सुस्ताने के लिए बैंचे लगी हुई हैं । मुझे नहीं लगता कि पर्यटक पहले दिन ही यहां कुछ खरीद लेता होगा । एक से दो पूरे दिन पहले तो केवल सर्वेक्षण और आंकलन में ही बीत जाते हैं । तब जाकर पर्यटक खरीदने का मूड बनाता है कि कहां से और क्या खरीदा जाए । मुझे नहीं लगता कि इस मार्केट में 2-5-10 लाख रूपये के कोई मायने है । दुबई आने वाला हर पर्यटक संभवतया गोल्ड खरीदी के लिए रूटीन से हटकर विशेष व्यवस्था करके आता है । वैसे खरीददारी के लिए ‘ओल्ड गोल्डसुख’ मार्केट ही सबसे बेहतर और जायज हे । ‘न्यू गोल्डसुख’ बाद में बसा हुवा नया बाजार है । यहां दुकानों की भव्यता जरूर पर शायद वो वेरायटियां नहीं जो ओल्ड गोल्डसुख में हैं । इस बाजार के प्रवेश पर ही लिखा है सिटी आॅफ गोल्ड । व्यक्ति चाह कर भी इस मार्केट से हिल नही पाता । हालांकि दुबई में देखने के और भी बहुत से सुंदर और प्राकृतिक स्थान है, पर ओल्ड गोल्डसुख की तो बात ही कुछ और है । किसी भी विदेशी स्थल से आप लौटें तो परिचित पूछते हैं कि यह देखा, वह देखा, क्या देखा ! दुबई होकर आने वाला चाहे जितने स्थानों का वर्णन कर डाले, परिचित कहते हैं- ओल्ड गोल्डसुख नही देखा, तो क्या देखा । वैसे पूरे दुबई में अन्य स्थानों पर, भी गोल्ड शाॅप है । मालों की एक बड़ी संख्या में सोने की दुकानें है । पर ओल्ड इज गोल्ड । इसकी अपनी ललक है, अपना आकर्षण है । आंखों को  बेसाख्ता सुकून मिलता है । खरीददारी आपकी अपनी श्रद्धा है, क्षमता है ।
मध्य-पूर्व अध्ययन यात्रा - 1

विश्व के पर्यटको का अकेला आकर्षण-दुबई


अरूण जैन 
विदेशी पर्यटन और शाॅपिंग में रूचि रखने वालों के लिए दुबई का नाम सबसे टाॅप सूची में है । किसी समय कहा जाता था कि विदेश जाना है और स्विट्जरलेंड नही देखा तो क्या देखा । परन्तु आज दुबई ने उसे भी पीछे छोड़ दिया है । शाॅपिंग के नए-नए आयाम, गगनचुंबी इमारतें और अन्य कई रोमाचंक आकर्षण इस शहर और अमीरी राष्ट्र में है । सोने की चकाचैंध तो आंखों को विस्फटित कर देती है । 
संयुक्त अरब अमीरात का एक हिस्सा, यह दुबई हालांकि अमीरात का दूसरा सबसे बड़ा भौगोलिक क्षेत्र है और इसकी राजधानी अबू धाबी है । पर्शियन गल्फ के दक्षिण पूर्वी किनारे पर बसा दुबई का नामकरण भी पर्शियन भाषा के शब्द ‘‘दो पै’’ से हुवा है जिसका, अर्थ है दो आधारों अथवा दो हिस्सों वाला शहर । दुबई सात अमीर राज्यों में से एक है, जिनसे मिलकर यू.ए.ई. बना है । दुबई और अबूधाबी को इस संयुक्त राष्ट्र की अपनी संसद में राष्ट्रीय महत्व के शीर्ष मामलों पर ‘वीटो’ का अधिकार प्राप्त है । सन् 1960 तक दुबई की आय का मुख्य स्त्रोत व्यापार था । 1966 में तेल की खोज के पश्चात सन् 1969 से तेल से आय की शुरूआत हुई । परन्तु स्त्रोत सिमित होने के कारण उत्पादन बहुत कम है । बावजूद इसके इस अमीरात के प्रारंभिक विकास में तेल का महत्वपूर्ण योगदान रहा । अब इसकी आय का प्रमुख स्त्रोत हो गया है- पर्यटन, उड्डयन, जमीने और वित्तीय सेवाएं । हाल ही में कुछ बड़ी निर्माण परियोजनाओं और खेलकूद के कारण दुबई ने पूरे विश्व का ध्यान अपनी ओर खींचा है । विश्व की सबसे उंची इमारत बुर्ज खलीफा ऐसा ही एक निर्माण है । पर इसके साथ ही दुबई मानवीय अधिकारों के हनन की आलोचना का भी केन्द्र बना हुवा है, वह भी बहुसंख्य दक्षिण एशियाई मजदूरों के कारण । दुबई का संपत्ति बाजार 2008-09 में बड़ी गिरावट का शिकार हुवा । क्योंकि 2007-08 में वित्तीय मंदी आई थी । लेकिन आसपास की अमीरातों के कारण दुबई फिर से उपर आया है और आ रहा है । 2012 के एक सर्वेक्षण के अनुसार दुबई विश्व का 22वां सबसे खर्चीला शहर और सन् 2014 में मध्य-पूर्व का सर्वाधिक खर्चीला शहर रहा है । यहां के होटल विश्व में जिनेवा के बाद सबसे मंहगे हैं ।
दुबई-हवाई अड्डे से जैसे ही पर्यटक होटल के लिए रवाना होता है, चैड़ी सड़को, गगनचुम्बी इमारतों के मध्य से गुजरते, उसे कल्पना भी नहीं होती कि किसी समय 18वीं सदी की शुरूआत में यह मछुआरों का एक गांव था, जहां अंगुलियों पर गिनने लायक लोग रहते थे । आज यहां वो सब सुख सुविधाएं उपलब्ध है जो एशिया अथवा यूरोप के किसी भी उन्नत और विकसित शहर में उपलब्ध हो सकती हैं । फिर चाहे वह मेट्रो हो, टेक्सी के रूप में अत्याधुनिक कारें अथवा बड़े-बड़े शाॅपिंग माल, जिसमें खरीददारी करना आज की युवा पीढ़ी शान समझती है । विश्व का सबसे बड़ा शापिंग सेंटर दुबई माल यही है । पर्यटक दुबई में घूमता हुवा भौंचक्का रहता है कि यह देख या वह देखे , यह खरीदे या वह खरीदे । मेरे ख्याल से पर्यटक 10 हजार रूपए लाया हो, या 10 लाख या 10 करोड़ । खरीददारी और खर्च करने के लिए यहां सारी राशि कम ही है ।

Monday, 6 April 2015

समापन किश्त-उजबेकिस्तान

सार्वजनिक सेवाओं में महिलाओं की भागीदारी 67 प्रतिशत

डाॅ. अरूण जैन
उजबेकिस्तान, हालांकि उजबेक बहुल (81 प्रतिशत) देश है, बावजूद इसके यहां सार्वजनिक सेवाओं में महिला भागीदारी अधिक नजर आई । बुरका प्रथा भी नहीं के बराबर ही दिखाई दी । सन् 1991 में यू.एस.एस.आर. से पृथक होने के बाद यहां यूरोपीय वातावरण का प्रभाव बढ़ा है, जो एक स्वतंत्र और खुलेपन का संकेत है । महिलाएं लगभग हर क्षेत्र में पुरूषों के साथ कदम से कदम मिलाकर, बराबरी से परिश्रम कर रही हैं ।
यह देश, पांच देशों की सीमाओं से घिरा हुवा है- कज़ाकिस्तान, ताजिकिस्तान, किरगिस्तान, अफगानिस्तान और तुर्कमेनिस्तान । पहले दिन से ही हम पत्रकारों ने अनुभव किया कि ताशकंद में उतरने से लेकर अपने पूरे प्रवास में सभी सार्वजनिक स्थानों पर महिलाएं ही ज्यादा कार्यरत दिखी । फिर चाहे होटल हो, सफाई व्यवस्था हो, मेट्रो अथवा बुलेट ट्रेन हो या स्थानीय व्यवसाय । सरकारी सेवाओं में जरूर महिलाओं का प्रतिशत कुछ कम नजर आया । स्थानीय मार्गदर्शक और रहवासियों ने चर्चाओं में बताया कि महिलाएं घरेलू कार्य प्रमुखता से करती है । इसके बाद भी सार्वजनिक सेवाओं में महिला भागीदारी का सामान्य औसत 67 प्रतिशत और पुरूष भागीदारी 35 प्रतिशत है । सरकारी कामों में जरूर महिला भागीदारी 40 प्रतिशत के आसपास है । फिर भी रूढिवादी परम्पराओं का प्रभाव यहां काफी कम है । शायद आधुनिक वातावरण विकसित होने के पीछे यही मुख्य नजरिया नजर आया । बाजारों में महिला विक्रेताएं, रेस्टोरेंट और होटलों में बेली-केबरे डांसर आम है । कई रेस्तराओं का संचालन ही महिलाएं करती हैं । यह एक अच्छा संकेत है । रेलवे सेवा में महिला कर्मचारियों का प्रभुत्व है ।
भाषा अवरोध होने के बावजूद यहां भारत के साथ काफी साम्यता है । प्राचीन आर्यवर्त का हिस्सा होने की इसकी पुष्टि कुछ और तथ्यों से भी होती है । चार्वाक लेक, चिमगन माउन्टेन, ब्रम्हाजी होटल, चोरसू बाजार आदि ऐसे कई सार्वजनिक स्थल हैं, जिनके नाम पौराणिक-भारतीय ग्रंथों से प्रेरित लगते हैं । यहां न्यू ईयर 21 मार्च को मनाया जाता है जिसे नवरोज नाम दिया गया है । इस दिन राष्ट्रीय अवकाश रहता है । भारत की तरह यहां का राष्ट्रीय खेल-फुटबाल ही है । भारत के समान ही उजबेक भी प्रजातांत्रिक देश है । राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के साथ यहां संसद है जिसमें अपर हाउस-सीनेट कहलाता है और लोअर हाउस विधान परिषद । यूरोपीय पेटर्न पर यातायात दाहिने हाथ पर संचालित होता है । यहां केवल 10 प्रतिशत कृषि भूमि ही नदियों और पोरवरो से सिंचित है । शेष हिस्सा या तो बड़ा रेगिस्तान है अथावा पर्वत श्रंखलाएं । अपने आप में समृद्ध इतिहास को समेटे इस देश में बेशुमार स्थायी स्मारक और पुरातन इमारतें मौजूद हैं, जिनका रखरखाव देखने लायक है । ठंड के मौसम में -10 डिग्री सेल्सियस तक रहने वाले तापमान के कारण यहां बर्फबारी बहुत सामान्य है और लंबी-चैड़ी पर्वत श्रंखलाओं पर जमी बर्फ की चादर इतनी आकर्षक है कि यूरोपीय स्विंट्जरलेंड इसके आगे कहीं नही ठहरता ।
उजबेकिस्तान यात्रा . 4

इकाॅनाॅमिक बूम की प्रतीक्षा में उजबेकिस्तान !

डाॅ. अरूण जैन
अच्छी तकनीक, विकास में एशियाई और यूरोपीय देशों का मुकाबला करता उजबेकिस्तान अभी भी असंतुष्ट और खाली-खाली नजर आता है । पानी, बिजली और जमीन की कोई कमी इस देश में नही है, जो किसी भी विकसित हो रहे राष्ट्र के लिए पहली महत्वपूर्ण जरूरत है । इसके शहरों में आधुनिक, तेज गति रेल सेवा है, अत्याधुनिक मेट्रो सेवा है, व्यवस्थित बस एवं स्थानीय सेवाएं है । आधुनिक और पूर्ण सुविधायुक्त होटल हैं । मेन पाॅवर भी है । चार लाख 48 हजार 978 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले, तीन करोड़ से अधिक की जनसंख्या वाले इस देश की सबसे बड़ी समस्या मुद्रा की लगती है, जो चलन में है । यहां की स्थानीय मुद्रा ‘सोम’ कहलाती है, जिसकी विनिमय दर 100 रूपए में चार हजार सोम है । मुझे तो पूरे समय छोटा सा छोटा नोट 500 सोम का ही नजर आया, वह भी भूले भटके । इससे छोटा देखने को नही मिला । एक हजार, पांच हजार सोम के नोट तो बहुत कामन है । वैसे तो रहन-सहन, खान-पान का स्तर भारत के समतुल्य ही है । पर फिर भी वस्त्र, सूखा मेवा हमारे देश की अपेक्षा यहां सस्ता है । इसमें स्थानीय होने का पुट भी है, जो अन्य यूरोपीय-एशियाई देशों में नजर नही आता । 
ताशकंद पहुंचते ही मैने सबसे पहले एक सौ अमेरिकन डालर के बदले स्थानीय मुद्रा सोम ली जो तीन लाख सोम से भी कुछ अधिक थी । बाकी मित्रों ने भी यही किया । एक बारगी तो हमें एहसास हुवा कि हम सभी लखपति हो गए । परन्तु जब खरीददारी के लिए निकले तो पता चला कि यह तो एक दिन के लिए भी पर्याप्त नही थी । यहां प्राचीन अर्थशास्त्री का सिद्धांत याद आया कि झोला भरकर नोट लेकर जाओ और जेब में सामान रख कर वापस आओ । सामान्य रहन-सहन स्तर के बावजूद एक बात सबसे ज्यादा अखरी कि बाथरूम जाने के भी पैसे लगते हैं । निजी सार्वजनिक बाथरूम में जाने के लिए प्रति व्यक्ति एक हजार सोम अदा करने होते हैं । सरकारी बाथरूम में भी 500 सोम देने होते हैं, जो कई साथियों को रेलवे स्टेशन पर और चिमगन माउंटेन (हिन्दुकुश पर्वत श्रंखला) की यात्रा के दौरान अदा करना पड़े । हां, होटलों और रेस्टोरेंट में यह बाध्यता नही थी । और तो और ताशकंद एयरपोर्ट पर पहुंचते ही लगेज ट्राली उठाने गए तो पोर्टर ने रोकते हुए तीन हजार सोम प्रति ट्राली किराया अदा करने को कहा । अधिकांश भौचक्के सदस्य अपना सामान खुद एयरपोर्ट से हाथो में बाहर लेकर आए । मोबाईल सिम 15 डाॅलर में मिलती है, जिसमें 8.5 डालर का ‘टाॅकटाइम’ मिलता है । लोकल काॅल निःशुल्क है, पर देश के बाहर काॅल करने पर दो डाॅलर प्रति मिनिट चार्ज लगता है अर्थात चार-पांच मिनिट में काॅल टाइम समाप्त । होटलों के फोन से यह चार्ज चार डालर प्रति मिनिट है । यह अत्यन्त मंहगा है और भुगतान भी हर संभव डाॅलर में ही लेते हैं । मेरे मोबाइल में तो उज्जैन की आइडिया और बी.एस.एन.एल. की दो सिम थी । होटलों में सभी जगह निःशुल्क वाई-फाई सेवा है । मैने यूं ही बेमतलब प्रयास वाट्सप पर किया और भाग्य देखिये ‘वाट्स एप’ से चित्र और मैसेज उज्जैन, मुंबई और अन्य स्थानों पर चले गए । वापसी में पुष्टि भी आ गई । बस, मैं तो जब तक रहा, होटल उजबेकिस्तान पहुंचकर रात को या सुबह सवेरे काफी सारे खीचे गऐ चित्र मित्रों और बच्चों को भेज देता था । बातें भी हो जाती थी । ऐसी निःशुल्क सेवा ने यात्रा का मजा दोगुना कर दिया । खैर, खाने-पीने की दरो का जायजा लीजिए । तैयार काॅफी 2000 सोम (50 रूपये), नमकीन पेकेट 1000 सोम (25 रूपये), चाय 1500 सोम (37 रूपये), आइसक्रीम 3000 सोम (75 रूपए), । सूखे मेवे के बाजार में 50 प्रतिशत के आसपास बारगेन (मोल-तोल) की स्पष्ट गुजाइश है । यही स्थिति रेडीमेड कपड़ों, कोट, जर्किन आदि में भी है । पर सभी जगह डाॅलर की भूख नजर आई । उजबेक की स्थानीय मुद्रा के प्रति दिलचस्पी कम दिखी । हालांकि लेने से इंकार नही करते । त्रासदी देखिए कि उजबेक के किसी भी एयरपोर्ट पर अधिकारी, दुकानदार ‘सोम’ स्वीकार ही नही करते । केवल डाॅलर में भुगतान लेते हैं । क्योंकि मेरे पास कुछ स्थानीय मुद्रा वापसी पर बच गई थी, भारतीय एयरपोर्ट पर जब मैने ‘एक्सचेंज’ का प्रयास किया तो अधिकारियो ने इंकार कर दिया । बताया कि रिजर्व बैंक उजबेक मुद्रा नही लेती । अर्थात स्थानीय मुद्रा अंतर्राष्ट्रीय लेन-देन में कहीं भी स्वीकार्य नहीं है, खुद के देश में भी नहीं । शायद यही मुख्य कारण नजर आता है- विदेशी मुद्रा भंडार का पर्याप्त न होना । वैसे इस देश के पर्यटन व्यवसाय में इसी वर्ष से बूम की शुरूआत हुई है । वर्षांत तक पर्यटक संख्या में आशतीत वृद्धि होने की संभावना है । विदेशी मुद्रा भंडार की वृद्धि के लिए यह एक सुखद पहलू है । इसी से जुड़ा होटल और रेस्टोरेंट व्यवसाय है, जिसकी अभी भी पर्याप्त संभावनाएं मौजूद हैं । उजबेक सरकार के पास बहुत बड़ी मात्रा में रिक्त जमीन उपलब्ध है । सरकार ने होटल व्यवसाय के लिए निःशुल्क भूखंड देने की योजना शुरू की है । भारत से टाटा उद्योग ने एक फाइव स्टार होटल के लिए काम शुरू किया है । उसे सरकार ने निःशुल्क जमीन दे दी है । यूरोप की तर्ज पर यहां रात्रि डिनर के दौरान आकर्षक बेली डांस और केबरे के अलावा हिन्दुस्तानी गानों पर नृत्य के कार्यक्रम रेस्टोरेंट-होटलों में आम है । वोदका, कोन्याक जैसी स्थानीय मदिरा के साथ यूरोप की सभी विदेशी मदिरा न केवल निर्धारित दुकानों पर उपलब्ध है वरन होटलों के ओपन बार में भी सुलभ हैं । आटोमोबाइल उद्योगों में शेवेरले, मर्सिडीज जैसी कंपनियों के उत्पादन कारखाने है । वैसे इस देश की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार घरेलू उत्पादन है जिसमें कपास, सोना, यूरेनियम और प्राकृतिक गैस सम्मिलित है । सरकार ने विदेशी निवेश और घरेलू जरूरतों के लिए आयात को बढ़ावा देकर अर्थव्यवस्था को नियंत्रित कर रखा है । पर यहां उद्योगों के लिए काफी संभावनाएं मौजूद है । कहना न होगा कि उजबेकिस्तान एक बडे इकाॅनामिक बूम की प्रतीक्षा कर रहा है । निकट भविष्य में एशिया का यह हिस्सा विकसित यूरोपीय देशों की कतार में खड़ा होगा ऐसी अपेक्षा की जा सकती है ।
उजबेकिस्तान यात्रा .3 

समृद्ध इतिहास को समेटे समरकंद

डाॅ. अरूण जैन

इतिहास इस बात का गवाह है कि अंग्रेजों के आने के पूर्व तक एक लंबे समय भारत देश पर मुस्लिम शासकों ने शासन किया । इसका सिलसिला मंगोल शासक शासन चंगेजखान और तैमूर लंग से शुरू होकर बहादुरशाह ज़फर तक जाता है । इन सभी मुस्लिम शासको का अंतरंग सबंध किसी न किसी रूप में समरकंद से रहा है, जो उजबेकिस्तान का एक महत्वपूर्ण शहर है और राजधानी ताशकंद से 400 किलोमीटर दूर है । कहा जाता है कि इतिहास के पन्नो में एक आर्यावर्त खंड का उल्लेख है । यह खंड हिन्दु-कुश पर्वत श्रंखला और हिमालय के मध्य बसा हुवा था । उस मान से उजबेकिस्तान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, ब्रम्हा (अब म्यांमार), बांग्लादेश आदि उसी आर्यवर्त के अविभाजित हिस्से थे । हिन्दुकुश पर्वत श्रंखला उजबेकिस्तान से प्रारम्भ होकर सतत 600 किलोमीटर की लम्बाई में फैली हुई हैं, जो हिमालय पर्वत श्रंखला पर समाप्त होती है । दोनोे पर्वत श्रंखलाओं के मध्य का यह हिस्सा लगभग समुद्र रहित और सम्पूर्ण भूखंड है ।
हम पत्रकारों को प्रातः 8 बजे के पूर्व ताशकंद रेल्वे स्टेशन पहुॅंचना था । स्वाभाविक रूप से होटल उजबेकिस्तान प्रबंधन ने हमें प्रातः 5.30 बजे ‘वेकअप काॅल’ दी । फटाफट तैयार हो कर हम 18 मंजिला होटल के 12 वें माले से भूतल पर पहुंच चुके थे । प्रातः 7 बजे बसें रेल्वे स्टेशन रवाना हुई । साढ़े 7 बजे हम रेल्वे स्टेशन पहुॅंच गए । स्टेशन भवन से कुछ दूर परिसर में पुलिस निरीक्षण चैकी थी, जिससे होकर ही परिसर में प्रवेश किया जा सकता था । पुलिस अधिकारी ने पहले हमारे टिकिट देखे और फिर एक-एक कर प्रवेश दिया । उसके बाद एक और चेक नाका था । यह गलियारानुमा था । यहां तीन-चार अधिकारी थे । उन्होने सुरक्षा जांच के बाद रेल्वे स्टेशन भवन की ओर क्रम से जाने दिया, जो कुछ दूरी पर था । रेलवे, भवन में प्रवेश के पूर्व सारे हेंडबेग, मोबाइल, कैमरे एक्सरे मशीन से गुजरे । हमारे शरीर की भी एक और सुरक्षा जांच हुई । इसके बाद भवन के खुले हाल में हमें कुर्सियों पर प्रतीक्षा करने को कहा गया । प्लेटफार्म पर जाने के मार्ग के दरवाजे बंद थे । ये दरवाजे प्लेटफार्म पर ट्रेन पहुंचने पर ही खुलते हैं । करीब पौने आठ बजे ट्रेन प्लेटफार्म पर आई और हमें प्लेटफार्म पर जाने देने के लिए पुलिस ने दरवाजे खोले । खुलते ही सब एक के पीछे एक प्लेटफार्म पर पहुंचे और लाइन में ही रेलवे कोचेज को पार करते गए । हर कोच के बाहर दो महिला-पुरूष कंडक्टर नीचे खड़े थे । इच्छित कोच के पास पहुंचने पर संबंधित कोच कंडक्टर ने हमे कोच में चढने का संकेत दिया । मार्गदर्शक ने बताया कि आधे लोग एक हिस्से में और-आधे दूसरे हिस्से में बैठें । यह बुलेट ट्रेन थी, जो ताशकंद से समरकंद नाॅन-स्टाॅप जाती थी । करीब 200 से 250 किलोमीटर प्रति घंटा रफ्तार वाली यह बुलेट आठ बजे रवाना हुई । सभी कोचेज वातानुकूलित और टीवी युक्त थे । किराए में प्रातः का नाश्ता भी शामिल था जो वायुसेवा की तर्ज पर था । दो घंटे में ट्रेन समरकंद पहुंच गई । मार्ग में कंट्री साइड का द्रष्य अत्यन्त मनोरम था और पूरा रेलवे टेªक दोनों ओर से पूरी तरह जालनुमा वायर फेंसिग द्वारा सुरक्षित बनाया गया था, जिससे होकर मनुष्य तो दूर जानवर भी पटरी पर प्रवेश नही कर सकता । 
समरकंद रेलवे स्टेशन से बाहर-आते ही बसें तैयार थी, जो हमें लेकर मुस्लिम शासक तैमूरलग के मकबरे की ओर रवाना हो गई । चंगेज यही शासक बना । तेमूरलग का जन्म इसी जमीं पर हुवा था । उन्होने 13वीं से 15वीं सदी के बीच शासन किया । सत्ता की भूख इन्हे भारत तक ले गई । परन्तु वे सम्पूर्ण भारत पर फतह न कर सके । दिल्ली पर जरूर कब्जा किया । तैमूरलंग को यहां ‘‘आमिर तैमूर’’ के नाम से पुकारा जाता है । एक बड़े क्षेत्र में आमिर तैमूर का मकबरा है । समीप ही एक चैराहे पर तैमूर लंग का आदमकद स्टेच्यू लगाया गया है । इस शांत शहर में लगभग तीन घंटे भ्रमण के दौरान सड़कों के दोनों ओर उंचे खाली स्थानों पर मकबरे ही मकबरे नजर आए । ऐसा लगता था मानो यह मकबरों का शहर हो । वैसे 30 लाख की जनसंख्या वाले इस शहर में सूखे मेवों का व्यापार मुख्य रूप से होता है । एक विशाल स्थायी मंडी व्यापार के लिए निर्मित की गई है, जहां व्यापार के लिए ओटले बने हुए है । ‘अखरोट, काली किशमिश, अंजीर, बादाम, चिलगोजे और काजू मुख्य मेवा है और प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है । निश्चित रूप से भारत की तुलना में मेवे का भाव कम ही है । सो सभी ने जी भरकर सूखा मेवा खरीदा । दोपहर को हमें एक स्थानीय घरेलू रेस्टोरेंट ले जाया गया । घरेलू इस माने में कि आवासीय क्षेत्र में कुछ कमरे और हाल बनाए गए थे । पूरा संचालन एक परिवार के हाथों में था। परिवार के बुजुर्ग माॅं-बाप बड़े प्रवेश द्वार पर आगवानी के लिए खड़े थे । अन्य युवा, महिला-पुरूष खाने की व्यवस्था में लगे थे । खाना भी लीक से हटकर था । प्रारंभ में पाव रोटी, फल, सूप लाया गया जिसमें चांवल, मूंग की दाल, टमाटर और सब्जियां थी । पुलाव मोटे चांवल के बावजूद बेहद जायकेदार था ।
समरकंद से जुडे मंगोल मुस्लिम शासको के इतिहास और उस समय की घटनाओं के ब्यौरे ने स्पष्ट कर दिया कि उजबेकिस्तान और भारत के गहरे संबंध रहे हैं, जिनमें व्यापारिक सौदे भी शामिल है । लंबी-चैड़ी पर्वत श्रंखलाऐं और विराट होने के कारण और सुरक्षित क्षेत्र होने के कारण मुस्लिम शासकों ने भारत पर लंबे समय तक शासन किया । अंग्रेजों के आने तक वे वंश-दर-वंश यहां काबिज रहे । शाम 6 बजे हम समरकंद रेलवे स्टेशन वापिस पहुंचे और ताशंकद की ओर रवाना हो गए ।
उजबेकिस्तान यात्रा . 2

ताशकंद-भूकम्प से नष्ट हुवा, खड़ा हुवा अनुशासन-सुरक्षा का अनुठा उदाहरण

डाॅ. अरूण जैन

वैसे तो प्राकृतिक आपदा से दो बार ध्वस्त हुए और फिर से अपने पैरों पर उठ खड़े होने के लिए जापान को विश्व भर में जाना जाता है । परन्तु उजबेकिस्तान की राजधानी और देश का सबसे बड़ा शहर ताशकंद ऐसा बिरला शहर है, जो भूकम्प से लगभग ध्वस्त होने के बाद न केवल नए सिरे से खड़ा हो गया वरन अनुशासन और सुरक्षा की दृष्टि से भी अन्य देशों के लिए एक उदाहरण बन गया है ।
भारतीय पत्रकारों के दल ने ताशकंद भ्रमण और विभिन्न मुलाकातों में महसूस किया कि ताशकंद, यूरोपीय और एशियाई देशों के लिए कई मुद्दों में महत्वपूर्ण है । चर्चाओं में रहवासी बताते हैं कि सन् 1966 में सुबह सवा पांच बजे के लगभग 8.8 तीव्रता का भूकम्प ताशकंद में आया था । अधिकांश जनसंख्या नींद के आगोश में थी । लगभग पूरा शहर नष्ट हो गया । करीब 6 लाख लोग इस प्राकृतिक आपदा में मारे गए थे । तीन वर्षों की मेहनत के बाद ताशकंद शहर का पुनर्निर्माण हो पाया । इस कार्य में विश्व के 15 देशों ने भी मदद की और 1970 में यह शहर नए स्वरूप में खड़ा हो गया । ‘‘इनडिपेन्डेन्स स्क्वायर’’ वाले मार्ग पर सड़क के बाईं और प्रयोग के तौर पर भूकम्प रोधी मकान बनाए गए । सड़क के दायीं ओर वाले हिस्से को निर्माण से रिक्त रखा गया । इसी ओर बने ‘‘इनडिपेन्डेन्स स्क्वायर’’ के एक खुले हाल में बड़े डायरीनुमा पीतल के कई पन्नों में उन 6 लाख दिवंगत लोगों के ‘नाम-स्थान’ स्थायी रूप से उकेरे गए हैं । इसे एक आकर्षक उद्यान का स्वरूप दिया गया है । इसी स्क्वायर के समीप संसद भवन बना हुवा है, जिस पर उजबेकिस्तान का ‘सिम्बल’ लगा है । 
तीन करोड़ से अधिक की जनसंख्या वाले इस देश में 18 वर्ष की आयु वाले प्रत्येक युवक के लिए एक वर्ष की मिलिट्री टेªनिंग अनिवार्य की गई है । इस अवधि के बाद युवक चाहे तो नौकरी निरन्तर रख सकता है अथवा मिलिट्री छोड़ सकता है । परन्तु छोड़ने वाले युवक को मिलिट्री को एक राशि पेनल्टी के तौर पर सरकार को भुगतान करना पड़ती है । शायद इस ट्रेनिंग का ही असर है कि देश के नागरिको में कड़ा अनुशासन है । न तो कोई थूकता मिलेगा, न ही कचरा फेंकता । ट्रेफिक सिगनल का सख्ती से पालन सभी चार पहिया वाहन चालक करते हैं । नागरिक सड़को को केवल ‘जेब्रा क्राॅसिंग से ही पार करते हैं । बीच में और कहीं से नहीं । एक स्थान पर हम पत्रकारों के दल ने भारतीय मानसिकता के वशीभूत कहीं से भी सड़क पार करने की जल्दी दिखाई तो साथ चल रहे मार्गदर्शक ने हमें तुरन्त रोक कर वापस किया और कुछ दूरी पर स्थित जेब्रा क्राॅसिंग पर ले जाकर वहां से सड़क पार करवाई । सिंगनल नही होंने पर भी यदि नागरिक ‘जेब्रा’ से सड़क पार करते हैं तो आने-जाने वाले समस्त वाहन लाइन से कुछ दूरी पर स्वतः खड़े हो जाते हैं । नागरिक पार जाने के बाद ही वाहन पुनः आने-जाने लगते हैं । वैसे सभी सड़कों को पार करने के लिए अन्डरब्रिज बने हुए है, जिन से होकर रहवासी सड़क पार करते है । स्थानीय यातायात के साधनों में निजी चैपहिया वाहनों के अलावा पब्लिक ट्रांॅसपोर्ट के नाम पर सिटी बसे,  विद्युत चलित सिटी बसें और मेट्रो ट्रेन के अलावा सीमित संख्या में टेक्सियां भी हैं । परन्तु दुपहिया और तीन पहिया वाहन कहीं नही दिखे । उत्सुकतावंश पूछने पर मार्गदर्शक ने बताया कि सन् 1992 में शहर में आतंकवादियों ने एक बम विस्फोट की घटना को अंजाम दिया था, जिसमें सायकल का उपयोग हुवा था । घटना के बाद नकाबपोश आतंकवादी एक मोटर सायकल पर भाग निकला । बस, तभी से सरकार ने सभी दुपहिया और तीन पहिया वाहनों पर देश भर में स्थायी प्रतिबंध लगा दिया । निश्चित रूप से यह मुस्लिम बहुल देश है । स्वाभाविक रूप से बड़ी संख्या में मस्जिदें हैं । जहां अजान नियमित पढ़ी जाती है । लेकिन हमें किसी मस्जिद के आसपास अजान की गूंज सुनाई नहीं दी । इसके विपरीत हमारे देश में मस्जिदों के बाहर और उपर लाऊड स्पीकर लगाकर पूरे शहरवासियों को अजान सुनाई जाती है । यह गंभीर चिन्तन और मनन का विषय है । सड़कों, भवनों आदि की सफाई पौ फटते ही शुरू हो जाती है जो शाम तक सतत जारी रहती है । सभी सड़के, बगीचे, भवन इतने साफ-सुथरे हैं कि कचरे का एक टुकड़ा बमुश्किल नजर आएगा । यूरोप की तरंह कहीं भी चैपहिया वाहनों के हाॅर्न बजते नहीं सुनाई दिए । सुरक्षा का जायजा भी लीजिए । रेलवे स्टेशनों पर स्टेशन परिसर के करीब 100 मीटर बाहर से ही केवल टिकिटधारी व्यक्ति को उसके सामान के साथ प्रवेश की अनुमति है । पुलिस, जो कि हरी यूनिफार्म में रहती है, स्टेशन परिसर से अंदर ट्रेन में चढ़ने तक सभी स्थानों पर मौजूद है । गैर टिकिटधारी को परिसर तक में प्रवेश की अनुमति नहीं है । यात्री का सारा सामान एक्सरे मशीनों से होकर रेल स्टेशन भवन में जाता है । वहीं टिकिटधारी की भी सुरक्षा जांच होती है । ट्रेन टिकिट उतनी ही जारी होती है जितनी ट्रेन की बैठक क्षमता है । एयरपोर्ट की सरुक्षा जांच तो अत्यन्त सख्त है । परिसर प्रवेश तो टिकिटधारी तक सीमित है ही । परन्तु सुरक्षा जांच की सख्ती ऐसी है कि आपकी जेबों से मोबाइल, केमरा, चश्मा और अन्य सभी सामान  तो डलिया में रखकर एक्सरे मशीन से निकाले जाते हैं, पर व्यक्ति से कोट, जर्किन, यहां तक की जूते भी अतरवा कर डलिया में रख एक्सरे मशीन से निकलते हैं । नंगे पैर, खाली जेब, पेंट-शर्ट में फिर व्यक्ति की सख्त चेकिंग होती है । कैमरे, मोबाइल खोलकर और चलाकर देखे जाते हैं । यहां तक कि खींचे गए फोटो भी देखे जाते हैं । यह सब नियमित और प्रतिदिन की जांच है । होटलों में भी सुरक्षा उपकरण लगे हैं, जिससे होकर सभी को गुजरना होता है । पुलिस हेडक्वार्टर भवन, वर्दीधारी पुलिस, मेट्रों ट्रेन, बुलेट ट्रेन के चित्र खींचना भी प्रतिबंधित है । सभी जगहों पर तैनात पुलिस स्वचालित हथियारों से सज्जित है हालांकि यह उजबेकिस्तान की सामान्य दिनचर्या है ।

लालबहादुर शास्त्री की ताशकंद में हत्या हुई थी, भारत सरकार जांच करवाए

(ताशकंद से लौटकर डाॅ. अरूण जैन)
भारत के प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की ताशंकद में स्वाभाविक मृत्यु नही हुई थी वरन एक सोचे-समझे राजनैतिक षडयंत्र के तहत उनकी हत्या की गई थी । इसकी पुष्टि करते हुए शास्त्रीजी की धर्मपत्नी श्रीमती ललिता शास्त्री ने स्वयं कहा था कि उनका पूरा शरीर नीला पड़ गया था । यह संभवतया किसी अत्यंत जहरीले विष के कारण था, जो उन्हे रात के खाने में किसी खाद्य पदार्थ में मिलाकर दिया गया था । पर न तो सोवियत (अविभाजित) सरकार और न ही भारत सरकार ने इस गंभीर हादसे की ईमानदार जांच करवाई ।
यह स्वीकारोक्ति ताशकंद गए भारत के पत्रकारों के एक वृहद प्रतिनिधिमंडल के समक्ष स्थानीय रहवासियों ने नववर्ष के प्रथम सप्ताह में की । पत्रकारों के दल ने व्यवसाइयों, कामगारों और अन्य विभिन्न वर्गों से पृथक-पृथक चर्चाएं की । इस दौरान यह गंभीर तथ्य उभरकर आया । हालांकि यह घटना अविभाजित रूस (यू.एस.एस.आर.) के समय हुई थी । अब विभाजन के पश्चात यह क्षेत्र उजबेकिस्तान के नाम से जाना जाता है और इसकी राजधानी ताशकंद है । स्थानीय रहवासी इस प्रश्न का संतोषजनक उत्तर नहीं दे सके कि सोवियत सरंकार ने इस घटना की सही-सही जांच क्यों नहीं करवाई । परन्तु एक सर्वाधिक चैंकाने वाला पहलू यह है कि अविभाजित रूस के रहवासी भी भारतवासियों को बहुत प्यार करते थे और उजबेकिस्तान के रहवासी भी भारतीयों को बहुत प्यार और सम्मान करते हैं । फिल्म अभिनेता-निर्माता राजकपूर और भारतीय फिल्मों के प्रति रहवासियों का पागलपन तब भी था और आज भी है । 
भारतीय पत्रकारों के दल को भी ताशकंद, में काफी प्यार मिला । ‘इंडियन’ कहते ही स्थानीय रहवासियों के चेहरों पर आई मुस्कुराहट देखते ही बनती थी । भारतीयों के प्रति प्यार का एक व्यक्तिगत उदाहरण देना चाहूंगा । मै और मेरे मित्र दोपहर बाद चोरसू बाजार शाॅपिंग के लिए गए थे । वापसी में शाम हो चुकी थी और हम कुछ देर बाद ही मार्ग भटक गए । परेशान मित्र ने किसी से मदद लेने का मशविरा दिया । समीप एक कम्प्युटर बूथ पर कार्यरत महिला से मैने अंग्रेजी में बात करने का प्रयास किया । पर वह अंग्रेजी लगभग नहीं जानती थी । तभी वहां एक युवक आया । उसने मुझ से अंग्रेजी में पूछा कि क्या बात है । मैने मार्ग भटकने का हवाला देते हुए होटल उजबेकिस्तान जाने की बात कही । युवक ने दो मिनिट प्रतीक्षा करने को कहा । ‘कम्प्युटर हट’ पर कुछ भुगतान करने के बाद युवक ने हमें पीछे आने का संकेत दिया । हम आगे बढ़े पर मन में संशय था कि कुछ गड़बड़ न हो । युवक एक कार के समीप पहुंचा और हमें पीछे की सीट पर बैठने का ईशारा किया । दरवाजा खोलकर जैसे ही हम बैठने लगे तो देखा कि आगे की सीट पर एक नवयुवती बैठी है । साथ आया युवक चालक सीट पर बैठ गया । युवक -युवती ने स्थानीय भाषा में चर्चा की युवती ने अंग्रेजी में हमसे होटल उजबेकिस्तान जाने का पूछा जिस पर मैने हां कहा और कार चलदी । अनजान देश, अनजान शहर में मैं अभी भी शंका से भरा हुवा था । करीब आधे घंटे की यात्रा के बाद कार होटल उजबेकिस्तान के बाहर रूकी और हमने राहत की सांस ली । मैने चालक से किराया लेने को कहा तो युवती बोली कि यह न तो टेक्सी है और न हमने आपको पैसों के लिए बिठाया है । आप भारतीय है इसलिए आपको यहां लाकर छोड दिया । युवती ने यह भी कहा कि इंडिया बहुत खूबसूरत शहर है, पर मैं अभी तक इंडिया नहीं गई हूूं । हमने दोनों को धन्यवाद दिया और भारत आने का निमंत्रण दिया । युवक ने अपना नाम सुकरात बताया । इस युवा जोड़े के अपनेपन ने हमें उजबेकिस्तान का मुरीद कर दिया । भारतीयों और शास्त्रीजी के प्रति स्नेह का एक और उदाहरण यह है कि जिस फाॅरेन सेंटर पर ताशकंद समझौता हुवा था, उसके समीप एक चैराहे पर शास्त्रीजी का स्टेच्यू सरकार ने लगवाया है और लगी हुई सड़क को ‘शास्त्री स्ट्रीट’ का नामकरण किया गया है । पत्रकारों ने यहां काफी सारे चित्र खीचे ।
ताशकंदवासियों का अभी भी मत है कि प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु की घटना की भारतीय सरकार को निष्पक्ष जांच करवाना चाहिए और उसके पीछे के समस्त तथ्य अथवा षडयंत्र देशवासियों के सामने उजागर किया जाना चाहिए ।