Friday, 28 August 2015

हाशिये पर जाती कांग्रेस

डॉ. अरूण जैन
दुनिया भर में आर्थिक उथल-पुथल का दौर चल रहा है। विकासशील ही नहीं विकसित देशों की भी नजर भारत की ओर है। दुनिया की अर्थव्यवस्था में एक बार फिर मंदी के दौर की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। यह संकट भारत के लिए अवसर की तरह उपस्थित है। रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन कह रहे हैं कि वैश्विक पूंजी और पश्चिमी देशों से संपत्ति भारत का रुख कर सकती है, लेकिन सवाल है कि क्या यह आवाज देश के राजनीतिक दलों तक पहुंच रही है। हमारी संसद देश को आगे ले जाने की बजाय पीछे खींचने का मंच बन गई है। क्या राजनीतिक दल देश हित में एक बार यथास्थितिवादी राजनीति को छोडऩे के लिए तैयार होंगे?समय की जरूरत है कि दुनिया को एक संदेश दिया जाए कि भारत इस आर्थिक संकट को चुनौती मानकर इसे अवसर में बदलने के लिए तैयार है। इसके लिए जरूरी है कि संसद वह काम करे जिसके लिए वह बनी है। ऐसा हो इसके लिए जरूरी है कि राजनीतिक दल अपने मतभेद भूलकर देश हित में साथ खड़े हों। सरकार की ओर से संसद का विशेष सत्र (तकनीकी रूप से मानसून सत्र का दूसरा हिस्सा) बुलाने का प्रयास हो रहा है। राजनीतिक दलों और खासतौर से कांग्रेस के लिए अपना रास्ता बदलने का मौका है। साथ ही वह दावा भी कर सकती है कि वह देशहित में ऐसा कर रही है क्योंकि मानसून सत्र में उसने जो किया उसका उसे वांछित राजनीतिक फल मिलता हुआ नहीं दिख रहा है। संसद का मानसून सत्र शुरू होने के बाद से अब तक तीन राज्यों में स्थानीय निकाय के चुनाव हुए हैं। तीनों में कांग्रेस बुरी तरह हारी है। व्यापम घोटाले और ललितगेट पर कांग्रेस या तो अपनी बात मतदाताओं तक पहुंचा नहीं सकी या फिर मतदाताओं को कांग्रेस की बातें विश्वसनीय नहीं लगीं। कर्नाटक के बेंगलूर वृहत महानगर पालिका चुनाव में तो तीस साल में पहली बार ऐसा हुआ है कि राज्य में सत्तारूढ़ दल को हार का मुंह देखना पड़ा हो। बेंगलूर में भाजपा दस साल की ऐंटी इनकंबेंसी के बावजूद जीत गई। व्यापम घोटाले, ललितगेट के बावजूद भारतीय जनता पार्टी की जीत को भले ही इस अर्थ में न देखें कि उसके सारे दाग धुल गए, लेकिन एक बात तो निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि भाजपा बुरी हो तब भी मतदाता कांग्रेस को उसके विकल्प के रूप में नहीं देख रहा है और बेंगलूर में तो उसने तीसरे दल एचडी देवेगौड़ा के जनता दल (एस) को भी नकार दिया। इन चुनावों में मतदाता का संदेश साफ है। वह भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को और समय देना चाहती है। अभी वह किसी विकल्प के बारे में सोच भी नहीं रही है क्योंकि मतदाता जब विकल्प के बारे में सोचना शुरू कर देता है तो वह खंडित जनादेश के रूप में परिलक्षित होने लगता है। इसीलिए कहा गया है कि ये पब्लिक है, सब जानती है। लेकिन कांग्रेस यह साधारण सी बात नहीं समझ रही है। कांग्रेस इस समय चुनावी राजनीति के आइसीयू में है। यह दौर उसके लिए प्राणघातक भी हो सकता है। इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि वह स्वस्थ होकर निकले। लेकिन इस संभावना को हकीकत में बदलने के लिए जो तैयारी और इच्छाशक्ति होनी चाहिए वह वर्तमान नेतृत्व में नजर नहीं आ रही। कांग्रेस पर संकट पहले भी आए हैं। वह उनसे उबरी भी है। हर बार झटका खाकर वह नए कारणों से उबरी। कभी गरीबी हटाओ के नारे और वंचित वर्गों की चिंता के नाम पर तो कभी अपने शीर्ष नेता की शहादत के नाम पर। 2004 में वह अपनी ताकत की बजाय भाजपा की कमजोरी के कारण सत्ता में आई, लेकिन तबसे अब में देश की राजनीति में बहुत सी नदियों का पानी बह गया है। उस समय तक क्षेत्रीय दल इतने ताकतवर नहीं थे। अब कई राज्यों में तो क्षेत्रीय दलों ने राष्ट्रीय दलों को हाशिये पर धकेल दिया है। आज भरोसे के साथ नहीं कहा जा सकता कि इंदिरा गांधी जीवित होतीं तो वह भी कांग्रेस को इस संकट से उबार पातीं। हर नेता का एक समय होता है। उस समय की परिस्थितियां ही उसे महान बनाने में सहायक बनती हैं। कल्पना कीजिए कि आज लोहिया जीवित होते तो उन्हें भी मुलायम सिंह यादव, लालू यादव और नीतीश कुमार के नेतृत्व में काम करना पड़ता। लोहिया के बारे में तो कल्पना ही कर सकते हैं पर उनके साथी जार्ज फर्नांडीज ने तो अपने सक्रिय राजनीतिक जीवन में ही वह दिन देख लिया। भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी आज हाशिये पर हैं तो इसलिए नहीं कि वे पहले अच्छे थे अब बुरे हो गए हैं। वह इसलिए कि उनका समय बीत गया। लेकिन कांग्रेस के लिए चिंता की बात यह है कि उसके युवा नेता का समय आने से पहले ही जाता हुआ दिख रहा है। राहुल गांधी ऐसे नेता नहीं हैं जो अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों को प्रेरित कर सकें। पार्टी की हालत यह हो गई है कि वह जहां सत्ता में है वहां भी हार रही है और जहां विपक्ष में है वहां भी। राहुल गांधी चुनावी राजनीति की असली परीक्षा में अभी तक पास नहीं हो पाए हैं। 11 साल के संसदीय राजनीतिक जीवन में अपने बूते पार्टी को कोई चुनाव नहीं जिता पाए हैं। न ही वह कांग्रेस संगठन में कोई बुनियादी बदलाव कर पाए हैं। पार्टी संगठन को लेकर उनके स्फुट विचार जब तब सुनने को मिलते हैं, लेकिन कोई नया दृष्टिकोण वह पेश नहीं कर पाए हैं। उन्हें पार्टी का अध्यक्ष बनना है यह सबको पता है, लेकिन कब किसी को पता नहीं। इसके दो ही निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। एक कि पार्टी को उनकी नेतृत्व क्षमता पर भरोसा नहीं है। दूसरा यह कि राहुल गांधी को खुद अपनी क्षमता पर संदेह है। दोनों में से कौन सी बात सही है यह तो वही बता सकते हैं। लेकिन देश की सबसे पुरानी और कभी सबसे बड़ी पार्टी की दशा दयनीय होती जा रही है। कोढ़ में खाज यह कि पार्टी में स्पष्ट रूप से दो गुट बन गए हैं। एक अपने को राहुल समर्थक और दूसरे अपने को सोनिया समर्थक बताता है। दोनों ही कांग्रेस को बचाने के नाम पर यह कर रहे हैं। जाहिर है कि यह गुटबाजी पार्टी को बचाने के लिए नहीं अपने पैर के नीचे की जमीन बचाने के लिए है। वस्तु एवं सेवाकर (जीएसटी) संविधान संशोधन विधेयक देश की अर्थव्यवस्था की दशा और दिशा दोनों बदल सकता है। यह विधेयक कांग्रेस का अपना विधेयक है। उसे बदले की राजनीति की भेंट चढ़ाकर कांग्रेस को राजनीतिक रूप से कुछ हासिल नहीं होने वाला। बिहार चुनाव सामने है। दोनों गठबंधन विकास को प्रमुख मुद्दा बनाने का दावा कर रहे हैं। ऐसे में आर्थिक सुधार के इतने बड़े विधेयक को कानून बनने से रोककर वह मतदाताओं के बीच अपनी विश्वसनीयता कायम नहीं कर सकती, लेकिन क्या कांग्रेस में किसी को इसकी चिंता है?

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