Monday 3 August 2015

तोड़फोड और निर्माण से भरा पानी शिप्रा और रूद्रसागर का बना दिया !

अरूण जैन
इस बार तो हद ही हो गई! महाकाल मंदिर प्रबंध समिति और सरकारी अधिकारियों ने लोगों को खूब भरमाया और इलेक्ट्राॅनिक चेनलों-प्रिंट मीडिया में भगवान महाकाल के गर्भगृह में शिप्रा नदी का पानी, कोटितीर्थ कुंड का पानी, रूद्रसागर का पानी भरने का समाचार प्रमुखता से छपवाया, जबकि ऐसा कुछ भी नहीं हुवा । अधूरे निर्माण कार्यों, तोड़फोड़ और अपनी लापरवाही के कारण वर्षा के पानी भरने को धार्मिक भावनाओं से जोड़ने के प्रयास किए गए । इसकी जितनी निन्दा की जाए कम है ।
पिछले सप्ताह उज्जैन शहर में जबर्दस्त बारिश हुई । मात्र चैबीस घंटे मंे 18 इंच, पूरा शहर त्राहि-त्राहि कर उठा । शहर की अधिकांश सड़के, पुल-पुलियाएं इस वर्षा में नही डूबते यदि सिंहस्थ निर्माण कार्य के नाम पर अधिकारियों ने जगह-जगह तुड़ाई-खुदाई न करवाई होती। खोदी गई सड़कों, नालों का मलबा सड़कों पर जहां-तहां पड़ा था । यही कुछ हाल निर्माण सामग्रियों का था, जिनके ढेर सड़कों पर लगे हुए थे । इसी क्रम में महाकाल टनल का भी काम था, जो प्रारंभ से ही विवादों में रहा । पुरातत्व विभाग की इच्छा के विरूद्ध अधिकारी इसे बनाने पर आमादा हैं। कभी इसकी दीवार गिर जाती है, कभी छत धंस जाती है। वास्तविकता यह है कि विस्तारित नंदी हाल भी दोषपूर्ण है। इन्ही सबके कारण वर्षा का जल रिसकर नंदी हाल से महाकाल गर्भगृह में जा पहुंचा और शिवलिंग जलमग्न हो गए । अधिकारियों ने चालाकी से इस दोष को छुपा लिया । शिप्रा नदी का पानी महाकाल मंदिर तक दस जनम तक नहीं पहुंच सकता क्योंकि वे लगभग पहाड़ी पर है। रूद्रसागर भी समीप होते हुए गड्ढे में है और उसका पानी भी वहां नहीं आ सकता । कोटितीर्थ कुंड पक्का बना है और मात्र वर्षा से ही लबालब हुवा है। हालांकि कलेक्टर महोदय ने गर्भगृह में पानी भरने की जांच के आदेश दिए हैं । पर होना क्या है ? जैसे देश की बड़ी-बड़ी जांचों का हश्र हो रहा है, इसका भी हो जाएगा ।
अभी भी समय है, महाकाल में चल रहे निर्माण कार्यों पर गंभीरता से विचार किया जाए। प्रबुद्ध जनों की, पुरातत्व की राय ली जाए । उसी अनुसार काम किया जाए । पुरातत्व सर्वेक्षण अधिनियम के तहत किसी भी प्राचीन मंदिर/स्थल के 300 मीटर के दायरे में उत्खनन और निर्माण नही किया जा सकता । विशेष परिस्थिति में पुरातत्वविदों की देखरेख में काम होना चाहिए। पर अधिकारी कहां किसकी सुनते हैं। ऐसा ही रहा तो प्राचीन स्थलों की इससे भी बदतर हालत हो जाएगी ।

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