एनपीए की कीमत कौन चुकाता है
डॉ. अरूण जैन
हालांकि बैंकों के एनपीए (नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स) यानी गैर-निष्पादित संपत्तियों का मसला काफी समय से चला आ रहा है, लेकिन इधर बीच इसको लेकर चिंता बढ़ी है। वित्तमंत्री कई दफा कह चुके हैं कि एनएपी से निपटने के लिए बैंकों के पास पर्याप्त अधिकार हैं, वहीं रिजर्व बैंक के गवर्नर ने भी पिछले दिनों एनपीए की समस्या से सख्ती से निपटने का आह्वान बार-बार किया है। पर सवाल यह है कि जब वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक, दोनों इस समस्या को लेकर समान रूप से चिंतित है, तो समाधान क्यों नहीं निकल पा रहा है? गाड़ी कहां अटकी है? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम समस्या के असल स्वरूप को ही नजरअंदाज कर रहे हैं, या समस्या को जानते-पहचानते तो हैं, मगर उस पर काबू पाने के लिए जिस राजनीतिक इच्छाशक्ति या साहस की दरकार है उसे नहीं जुटा पा रहे हैं! लोगों की धारणा है कि बैंकों के एनपीए में सबसे बड़ा हिस्सा आम लोगों द्वारा लिये गए कर्ज का है, जबकि हकीकत है ठीक इसके विपरीत। आंकड़ों के अनुसार एनपीए का सबसे बड़ा हिस्सा कॉरपोरेट कर्ज का है। आमतौर पर औद्योगिक विकास के नाम पर कॉरपोरेट जगत को विशेष सुविधा दी जाती है। नया कंपनी कानून 2013 में लाया गया था, जिसने साठ साल पुराने कानून की जगह ली है। इस कानून के मुताबिक नई कंपनी शुरू करने के लिए केवल एक-दो दिन का समय लगना चाहिए। पहले यह समय-सीमा नौ-दस दिनों की थी, जिसे मौजूदा समय में कम करके चार-पांच दिनों पर लाया गया है। गौरतलब है कि बैंकों को भी कर्ज देने में समय-सीमा का पालन करना होता है, जो कॉरपोरेट कर्ज के मामले में भी लागू होता है। अमूमन कंपनियों को जल्द से जल्द कर्ज स्वीकृत करने के लिए बैंक अधिकारियों पर दबाव बनाया जाता है। ऐसी स्थिति में कभी-कभी कंपनियों की वित्तीय सेहत का सही परीक्षण नहीं हो पाता है, और कॉरपोरेट कर्ज एनपीए में तब्दील हो जाते हैं। रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन कॉरपोरेट कर्ज के ऊंचे स्तर और उसे चुकाने संबंधी उद्योग जगत की क्षमता पर लगातार सवाल उठाते रहे हैं। रघुराम राजन का मानना है कि अधिकतर कंपनियों के मुनाफे में कमी आ रही है, जिससे उन्हें कर्ज की किस्त तथा ब्याज चुकाने में दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। बढ़ती चूक के कारण कारपोरेट जगत के 'पुनर्गठितÓ कर्ज की व्यापकता तथा एनपीए में लगातार इजाफा हो रहा है। रघुराम राजन के मुताबिक उद्योग जगत का करीब बीस प्रतिशत कर्ज डूबने के कगार पर है। बहुत सारी कंपनियों ने वित्तवर्ष 2014-15 में परिचालन-घाटा दर्ज किया या उनका परिचालन-लाभ बैंक-कर्ज अदा करने के लिए पर्याप्त नहीं था। इन कंपनियों का परिचालन-मुनाफा ब्याज लागत या ब्याज कवरेज अनुपात एक प्रतिशत से कम होने के कारण वे बैंक कर्ज एवं किस्त की अदायगी नहीं कर सकते हैं। पिछले वित्तवर्ष में सड़सठ कंपनियों के बहीखाते पर कुल 5.65 लाख करोड़ रुपए का बैंक-कर्ज दर्ज था, जो देश की शीर्ष 441 गैर-वित्तीय कंपनियों के कुल कर्ज का तकरीबन बीस प्रतिशत है। गौरतलब है कि इन सड़सठ कंपनियों में से अधिकांश की हैसियत मौजूदा समय में नकारात्मक हो चुकी है। इन कंपनियों की संख्या वित्तवर्ष 2014-15 में बढ़ कर सड़सठ हो गई, जो पिछले साल उनचास, तीन साल पहले उनतीस और वित्तवर्ष 2009-10 के अंत तक सोलह थी। मालूम हो कि यह आंकड़ा बीएसई 500, बीएसई मिडकैप और बीएसई स्मॉलकैप सूचकांकों में शामिल चुनिंदा कंपनियों के आंकड़ों पर आधारित है। वित्तवर्ष 2014-15 में 441 गैर-वित्तीय कंपनियों का कुल कर्ज 28.5 लाख करोड़ रुपए था, जो सभी 654 गैर-वित्तीय कंपनियों के कुल कर्ज का लगभग 98.1 प्रतिशत है। दूसरी तरफ इसी वित्तवर्ष में कर्ज लेने वाली कंपनियों का कुल कर्ज उनकी कुल शुद्ध बिक्री के 80.7 प्रतिशत, परिचालन मुनाफे के 68.9 प्रतिशत और कुल 654 कंपनियों के शुद्ध मुनाफे के 39.4 प्रतिशत के बराबर है। इन कंपनियों का पूंजी निवेश पर रिटर्न (आरओसीई) वित्तवर्ष 2014-15 में घट कर 7.4 प्रतिशत पर आ गया है, जो दशक का न्यूनतम स्तर है। यह 7.1 प्रतिशत की औसत ब्याज लागत से कुछ आधार अंक ही अधिक है। इस दर पर कई कंपनियां कर्ज अदायगी में चूक कर सकती हैं, क्योंकि बैंक कर्ज की किस्त तथा ब्याज लागत अदा करने के लिए उनका परिचालन-मुनाफा पर्याप्त नहीं होगा। इन कंपनियों के पूंजी निवेश पर रिटर्न के मुकाबले बढ़ते कर्ज की ब्याज लागत में कहीं अधिक इजाफा हो रहा है। वित्तवर्ष 2014-15 में बढ़ते कर्ज की लागत बढ़ कर 11.8 प्रतिशत पर पहुंच गई है, जो पूंजी निवेश पर रिटर्न के आकलन से करीब 440 आधार अंक अधिक है। वित्तवर्ष 2004-05 के दौरान इन कंपनियों ने पूंजी निवेश पर 18.7 प्रतिशत रिटर्न दर्ज किया, जो उनकी 6.9 प्रतिशत की औसत ब्याज लागत के मुकाबले दोगुने से भी अधिक है। इन कंपनियों ने 2014-15 में 2.03 लाख करोड़ रुपए ब्याज-लागत भुगतान के तौर पर खर्च किए, जबकि एक साल पहले यह आंकड़ा करीब 1.83 लाख करोड़ रुपए रहा था। इस प्रकार कंपनियों के परिचालन मुनाफे का एक बड़ा हिस्सा पूंजीगत खर्च और वृद्धि के बजाय ब्याज-लागत अदा करने के मद में चला गया। जाहिर है, अगर कंपनियों की आय में तेजी नहीं आती है तो बैंकों की परेशानी में इजाफा हो सकता है। अर्थशास्त्र के सिद्धांत के मुताबिक ऋण लेने वालों को मुद्रास्फीति से लाभ होता है और देने वालों को नुकसान। मुद्रास्फीति में ऋण लेने वालों के लिए उसे चुकाना आसान होता है। भारत की औसत थोक मूल्य महंगाई सन 1970 से 2010 के बीच के चार दशक में 7.6 प्रतिशत के आसपास रही है, जबकि खुदरा महंगाई आठ प्रतिशत रही है। इस कारण से कारपोरेट्स में कर्ज को चुकाने के मामले में आश्वस्ति का भाव पैदा हुआ और वे कर्ज चुकाने को लेकर लापरवाह हो गए। फिर कुछ कंपनियां जान-बूझ कर ऐसा कर रही हैं। इधर, बैंक-कर्ज को पचाने के लिए कुछ कंपनियों द्वारा खुद को दिवालिया घोषित करने के मामलों में बढ़ोतरी हुई है। कॉरपोरेट्स से उम्मीद की जाती है कि वे आर्थिक सुधार की बुनियाद तैयार करेंगे, लेकिन वे आज स्वयं बैंक कर्ज में डूब गए हैं या डूबने वाले हैं। बहरहाल, वर्तमान माहौल में ऐसी कंपनियों की बैलेंस शीट में सुधार लाना आसान नहीं है, क्योंकि कम मुद्रास्फीति वाले माहौल में ऐसा करना संभव नहीं है। दूसरी तरफ, कॉरपोरेट्स की आय में तेजी नहीं आ रही है, जबकि बैंक-कर्ज की ब्याज-दर लागत लगातार ऊंचे स्तर पर बनी हुई है। अगर मौजूदा माहौल में सुधार नहीं होता है तो उद्योग जगत के लिए पूंजी जुटाना मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि बैंक, मौजूदा समय में उद्योग जगत को कर्ज देने से परहेज कर रहे हैं। ऐसी स्थिति निजी निवेश में इजाफा करने की सरकार की कोशिशों के लिए भी एक बड़ी चुनौती है। विकास के लिए निजी क्षेत्र में निवेश करना आवश्यक है, लेकिन बैंक बढ़ते एनपीए से परेशान होकर उद्योग जगत को कर्ज नहीं देना चाहते हैं, जबकि अर्थव्यवस्था को मजबूत करने और विकास दर में इजाफा करने के लिए आवश्यक है कि बैंक, कंपनियों को कर्ज वितरण में कोताही न बरतें, क्योंकि उद्योग जगत को कर्ज मिलने से ही विनिर्माण क्षेत्र में तेजी, रोजगार में बढ़ोतरी, विविध उत्पादों की बिक्री में तेजी आदि संभव हो सकते हैं। इधर, बैंकों का एनपीए और 'पुनर्गठितÓ कर्ज छह लाख करोड़ रुपए से अधिक हो चुका है। बासेल तृतीय के विविध मानकों को पूरा करने के लिए भी बैंकों को लाखों करोड़ रुपए की जरूरत है। लब्बोलुआब यह कि कंपनियों को कर्ज देने में या उनके कर्ज को पुनर्गठित करने में जिस तरह से बैंक लचीला रुख अपना रहे हैं, उससे नुकसान अंतत: आम आदमी और देश को हो रहा है। ऐसे मामलों में राजनीतिक दलों के हस्तक्षेप के मामले भी देखे जाते हैं, जिससे बैंक गलत कंपनियों को कर्ज देने के लिए मजबूर होते हैं। बुरे कर्ज के कुछ मामलों में आवेदन की जांच-पड़ताल में कोताही एक प्रमुख वजह रहती है। यानी आवेदन से संबंधित परियोजना की व्यावहारिकता और लाभप्रद है या नहीं, इसका ठीक से आकलन किए बगैर कर्ज जारी कर दिया जाता है। कुछ मामलों में भ्रष्टाचार भी एक कारण रहता होगा। पर भ्रष्टाचार के साथ-साथ कर्ज-वसूली में बैंकों तथा सरकार का ढीला-ढाला रवैया भी कॉरपोरेट कर्ज के एनपीए में तब्दील होने का अहम कारण है। एनपीए वसूली नहीं होने या उसमें हो रही देरी के लिए भी ऐसी वजहें जिम्मेवार हैं। उदाहरण के तौर पर माल्या को कर्ज देने में लचीला रुख अपनाया गया और अब उसके एनपीए होने के बाद उसकी वसूली में भी लापरवाही बरती जा रही है, जिसके लिए निश्चित रूप से हमारी मौजूदा प्रणाली दोषी है। राजकोषीय घाटे को पाटने के लिए हर तरह की सबसिडी की सीमा बांधी जा रही है। लेकिन अर्थव्यवस्था की छाती पर एनपीए के रूप में जो सबसे बड़ा बोझ है उससे मुक्ति के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं? एनपीए न सिर्फ बैंकों के लिए, बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदेह हैं। इसके चलते बैंकों के पास कारोबारी पूंजी कम हो जाती है, जिससे कई बहुत अच्छे प्रस्तावों के लिए भी कर्ज देने को उनके पास पर्याप्त रकम नहीं होती। यही नहीं, डूबी रकम की भरपाई के लिए वे नए कर्जों पर ब्याज दर बढ़ा सकते हैं, जिसका खमियाजा ग्राहकों को भुगतना पड़ेगा।