Friday, 15 April 2016

अफ्रीका का सौंदर्य सिमटा विक्टोरिया प्रपात में 
डॉ. अरूण जैन
आकर्षक उद्यानों वाले पठार, ऊंची-ऊंची पर्वत श्रेणियां, रोमांचक वन्य जीवन, समुद्र जैसी विशाल झीलें और मनमोहक जलप्रपात, यह सब कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जिनकी वजह से बार−बार अफ्रीका जाने को मन करता है। अफ्रीका की प्राकृतिक खूबसूरती में जो चीज सबसे अधिक हैरान करती है वह है भव्य विक्टोरिया जलप्रपात। इस जलप्रपात को कुदरत का खूबसूरत अजूबा ही कहा जा सकता है। ऐसा अनुमान है कि प्रति मिनट जैंबेजी नदी का लगभग 55 लाख घन मीटर पानी घाटी में नीचे गिरता रहता है और इस घाटी के सामने के छोर से, जोकि नदी के तट जितना ही ऊंचा है, का आनंद आप ले सकते हैं। इस प्रपात को एक किनारे से दूसरे किनारे तक देखने के लिए आपको कार द्वारा या फिर पैदल पुल पार करके जिम्बाब्वे की सीमा में प्रवेश करना होगा। यह पुल जलप्रपात से 700 मीटर दक्षिण में स्थित है और इस पर खड़े होकर आप इसका पूरा नजारा देख सकते हैं। विक्टोरिया जलप्रपात के आसपास लोग हजारों साल से रहते आ रहे हैं, लेकिन बाहरी दुनिया को प्रकृति के इस आश्चर्य से परिचित कराने का श्रेय एक स्काटिश मिशनरी डेविड लिविंग्सटन को जाता है। 1855 में एक छोटी सी नाव में बैठ कर वह यहां पहुंचा था। उसी ने उस समय की परंपरा के अनुसार इंग्लैंड की महारानी के नाम पर इसे विक्टोरिया जलप्रपात नाम दिया और उसके नाम पर इस शहर का नाम पड़ा लिविंग्सटन। इस जलप्रपात का सबसे पुराना नाम शोंगवे था, जो इस क्षेत्र में बसे टोकलेया लोगों ने इसे दिया था। उसके बाद एंडेबेले लोग यहां आकर बसे और उन्होंने इसे बदल कर अमांजा थुंकुआयो कर दिया, जिसका अर्थ हुआ, धुएं में बदलता हुआ पानी। अंत में मकालोलो लोगों ने इसे एक नया नाम दिया मोस औ तुन्या, यानि गरजता हुआ धुआं। स्थानीय लोगों में आज भी यही नाम प्रचलित है। पिछले लगभग साढ़े पांच लाख वर्षों के दौरान यह जलप्रपात अपना स्थान बदलता रहा है। इस प्रक्रिया के दौरान नदी अब तक सात घाटियां पीछे छोड़ कर अपने वर्तमान स्थान पर पहुंची है। यहां आपको पानी तथा कीचड़ में अपने स्थूल शरीर को छिपाने का प्रयास करते हिप्पो भी देखने को मिल जाएंगे। आसपास के वनों में आपको एक डाल से दूसरी डाल पर कूदते बंदर भी नजर आएंगे साथ ही अनेक प्रकार के पक्षियों का कलरव भी आपका मन मोह लेगा। यहां का विक्टोरिया राष्ट्रीय उद्यान हाथी, अफ्रीकी भैंस, शेर तथा अन्य वन्य पशुओं से भरा पड़ा है। नदी में बड़े−बड़े खतरनाक मगरमच्छ भी हैं इसलिए इसमें नहाना सुरक्षित नहीं है। यहां सूर्योदय तथा सूर्यास्त देखने का सबसे अच्छा समय अक्टूबर से दिसंबर के बीच ही होता है, उस समय नदी में पानी भी ज्यादा नहीं होता और आकाश भी साफ होता है। आधुनिक पर्यटकों के मनोरंजन के लिए यहां पैराशूटिंग और जैंबेजी पुल से बंजी जंपिंग जैसे रोमांचक खेलों की व्यवस्था है। मछली पकडऩे के शौकीनों के लिए कुछ विशेष नौकाएं भी यहां उपलब्ध हैं जो नदी के अंदर ले जाकर आपके इस शौक को पूरा करती हैं। विक्टोरिया जलप्रपात को देखने के बाद आप यह अवश्य ही महसूस करेंगे कि प्रकृति का इससे अधिक रोमांचक, नाटकीय, भव्य तथा विलक्षण रूप शायद ही कहीं अन्यत्र देखने को मिले।
विश्व बाजार में हम कहां
डॉ. अरूण जैन
सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद विश्व बाजार में हमारा निर्यात लगातार घटता जा रहा है। वैश्विक औद्योगिक क्रांति के पहले विश्व व्यापार में भारत का योगदान पच्चीस फीसद था। यह ब्रिटिश शासन में गिर कर तेरह फीसद हो गया। आजादी के बाद यह तीन फीसद था और आज यह एक फीसद के आसपास है। अगर चालू वित्तवर्ष में निर्यात में गिरावट जारी रही तो लगातार दूसरे साल गिरावट होगी। आमतौर पर यह माना जाता है कि देश की मुद्रा की कीमत कम हो तो निर्यात में उससे मदद मिलती है। विडंबना यह है कि एक तरफ रुपए का रिकार्ड अवमूल्यन भी हुआ है और दूसरी तरफ निर्यात बढऩे के बजाय लुढ़कता गया है। वैश्विक मंदी के कारण विश्व व्यापार की चुनौतियां बढ़ी हैं। अलबत्ताजूट के सामानों, मसालों, हस्तशिल्प, चाय, फलों व सब्जियों के निर्यात में वृद्धि दर अच्छी रही है। यह ठीक है कि दुनिया का कोई भी देश आज वैश्वीकरण से अलग-थलग नहीं रह सकता। भारत भी वैश्विक अर्थव्यवस्था का एक भाग बन गया है। पर किसी भी प्रकार के आर्थिक सुधार लागू किए जाने पर, जिसमें व्यापारिक सुधार भी शामिल है, कुछ लोगों को उससे लाभ होगा तो कुछ को हानि। पर इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि कोई ऐसा हल नहीं हो सकता जिसमें सुधारों से फायदा हो। आर्थिक उदारीकरण के लगभग पच्चीस साल के सफर में भारत ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। आज हमारा देश दुनिया की तेजी से उभरती हुई आर्थिक शक्तियों में गिना जाता है। एक नए मध्य वर्ग का उदय हुआ है। लेकिन महंगाई और बेरोजगारी भी बढ़ी है। अत: यह सवाल भी उठा है कि क्या हमें अपनी नीतियों का फिर से मूल्यांकन करना चाहिए। लगातार आठ फीसद की विकास दर हासिल करने के बाद अब इसमें गिरावट का सिलसिला शुरू हो गया है। गरीबी और अमीरी की खाई बढ़ी है। सामाजिक असंतुलन के कारण नक्सली हिंसा का विस्तार हुआ है। काले धन की भी तेजी से वृद्धि हुई है। आर्थिक सुधार की नीतियों से कॉरपोरेट घराने और मालामाल हुए हैं। लेकिन अब औद्योगिक उत्पादन में गिरावट हो रही है और हमारा विदेश व्यापार का घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है। मांग में कमी से औद्योगिक उत्पादन गिर रहा है। सरकार ने कई नए कार्यक्रम शुरू किए हैं, पर अभी उनके नतीजे नही आए हैं। वास्तव में आर्थिक सुधार और विश्व व्यापार संगठन के समझौतों से उत्पन्न चुनौतियों के संदर्भ में यह आवश्यक हो गया है कि हम सारा ध्यान प्रतिस्पर्धा के मंत्र पर केंद्रित करें। इस प्रतिस्पर्धा में ऐसे कुछ सुरक्षात्मक कदम हमें जरूर उठाने चाहिए ताकि उनसे इस प्रतिस्पर्धा में हमारा अस्तित्व भी कायम रह सके और राष्ट्र का विकास भी हो। इसके लिए राष्ट्रीय लक्ष्य विशुद्ध लाभ का निर्धारित करें और क्षतिपूर्ति के कुछ ऐसे तरीके अपनाएं ताकि जिन लोगों को नुकसान हुआ हो, उन लोगों को क्षति की आवश्यक पूर्ति हो। घरेलू आर्थिक सुधार व बहुपक्षीय बातचीत उस सीमा तक जारी रखना चाहिए जहां तक राष्ट्रीय शुद्ध लाभ के सकारात्मक होने की स्थिति हो। आर्थिक सुधारों के लिए अधिकांश जनता का समर्थन कायम रखने की खातिरउन लोगों की क्षति की पूर्ति करने का हमें ध्यान रखना होगा जिन्हें उक्त सुधारों के कारण नुकसान हुआ है। उक्त क्षतिपूर्ति के लिए कुछ तरीके निकालने पड़ेंगे, जैसे पुन: प्रशिक्षण, शीघ्रता से दूसरे काम दिलवाने की सुनिश्चितता, नया व्यापार करने के लिए वित्तीय सहायता आदि। उद्योगों को अपने ढांचे व कार्यप्रणाली में भारी और मूलभूत परिवर्तन करने होंगे। अपने उत्पाद में गुणात्मक वृद्धि, विक्रय की गतिविधि में कार्यकुशलता, ऊर्जा प्रबंध और बाजार पहुंच के बीच ठहरने के लिए लागत कम करने आदि की आवश्यकता होगी। विकास दर में बढ़ोतरी के साथ-साथ महंगाई को काबू में रखने के लिए ठोस और दीर्घकालिक प्रयासों की जरूरत है। हमारी व्यापारिक नीति का अन्य नीतियों के साथ तालमेल होना निहायत जरूरी है, क्योंकि व्यापार एक ऐसा शक्तिशाली घटक है जो यदि अच्छी तरह से प्रबंधित किया जाए, तो उससे कई वर्गों व क्षेत्रों को लाभ हो सकता है। जरूरत इस बात की है कि विभिन्न घटकों जैसे सरकार, बाजार और अन्य संस्थाओं के बीच सही तथा उचित संतुलन हो और जिसमें किसी भी सहभागी घटक के हितों की अनदेखी न हो अर्थात वह सभी सहभागी घटकों के हितों में हो। पर इसके लिए पहले प्रणाली के सभी अंगों की खोजपूर्ण व्याख्या करनी पड़ेगी और प्रणालीगत कमजोरियों व अपर्याप्तताओं को पहचान कर उन्हें दुरुस्त करना पड़ेगा तथा शासन के आधार स्तंभों को पारदर्शी और न्यायोचित बनाना होगा। सुशासन के जरिए ही हम अपने उत्पाद को बेहतर बना कर दुनिया के बाजार का लाभ उठा सकते हैं। उदारीकरण के बारे में विवाद का एक बड़ा विषय है- उदारीकरण के नकारात्मक प्रभावों का प्रतिकार करने की सरकार की क्षमता। भारत जैसा देश मूलत: नौकरशाही के भरोसे चलता है। ऐसी नौकरशाही जिसमें अधिकांशत; स्वार्थपरक नौकरशाह हैं। ऐसी स्थिति में ऐसा नहीं लगता कि यह नौकरशाही भारत की अर्थव्यवस्था को विश्व की निरंतर बदलती हुई अर्थव्यवस्था के अनुरूप कोई आकार, बिना सरकार की भागीदारी के दे सकती हो। अत: आवश्यकता इस बात की है कि सरकार शासन करने की अपनी शैली को इस सीमा तक बदले कि निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों के बीच में कुछ ऐसी ऊर्जा व गति आए जिससे यह सुनिश्चित हो जाए कि बाजारी प्रक्रियाएं भ्रमित नहीं होंगी और दोनों क्षेत्र मोटे रूप में अपने सामाजिक दायित्व का निरंतर निर्वहन करते रहेंगे। पहले उदारीकरण में सरकारी भूमिका प्रमुख रहती थी और निजी क्षेत्र उसमें मात्र पूरक का काम करता था, पर अब शायद स्थिति विपरीत हो चुकी है। मसलन, मूलभूत सुविधाओं के क्षेत्र में सरकारी भूमिका अपरिहार्य है और निजी क्षेत्र सड़कों और पुल आदि बनाने में बहुत अधिक निवेश करने से हमेशा कतराएगा, क्योंकि इन सार्वजनिक संपत्तियों का सीधे मूल्य निर्धारण नहीं हो सकता है। कुछ लोगों की सोच यह है कि सरकार यदि असफल होती है तो बाजार निश्चित रूप से सफल होगा और इसके विपरीत यदि सरकार सफल होती है तो बाजार असफल होगा। यह धारणा रखना गलत है। आज तक किसी भी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था ने इस प्रकार के तार्किक संबंध की अनुभूति नहीं की है। दरअसल, सरकार को तो अपनी अर्थव्यवस्था में निजी निवेश की प्रक्रिया का रास्ता सहज व सुविधाजनक कर देना चाहिए और इस प्रकार एक उत्पादककी भूमिका निभाने के बजाय एक नियंत्रक की भूमिका निभानी चाहिए। पिछले अनुभवों के आधार पर और भविष्य में सुधार और पहल किए जाने के संकेतों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि भूमंडलीकरण से गरीबों के जीवन-स्तर में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई है। पर केवल इस कारण से भूमंडलीकरण की प्रक्रिया पर प्रश्नचिह्न लगाना विवेकपूर्ण व उचित नहीं होगा, क्योंकि भूमंडलीकरण के नतीजों के सकारात्मक होने के लिए एक शर्त बहुत जरूरी होगी कि देश उपलब्ध अवसरों का पूरा-पूरा फायदा उठाए और उचित सुरक्षात्मक उपाय काम में लेते हुए नियंत्रणों या प्रतिबंधों से तालमेल रख कर कार्य करे। किसी भी देश के विकास के प्रभाव का वास्तविक मापदंड आम आदमी की मूलभूत आवश्यकताओं को उपलब्ध करवाना है। पर हमारे यहां इसके लिए कोई विशिष्ट रणनीति नहीं अपनाई गई है। इसका संभावित कारण यह है कि हमारा उदारीकरण प्रतिक्रियात्मक उदारीकरण है, न कि क्रियात्मक और सुनियोजित उदारीकरण। अत; आवश्यकता इस बात की है कि भूमंडलीकरण व सुधारों के प्रति जो हमारा वर्तमान में रुख है वह बदले और ये सुधार हमारी आवश्यकताओं और हितों के अनुरूप हमारी अपनी शर्तों पर ही हों। उदारीकरण को हम कृषि आधारित और जनाधार से प्रेरित उदारीकरण बनाएं, न कि मात्र कंपनी और व्यापार आधारित उदारीकरण। यह भी सही है कि भूमंडलीकरण के लिए अक्सर यह कहा जाता है कि वह अमीर और गरीब के बीच की खाई को और बढ़ाता है। पर इस प्रश्न का उत्तर इस बात पर निर्भर करता है कि आप किस तरह की गरीबी की बात कर रहे हैं। जहां तक भारत का प्रश्न है उसकी प्राथमिकता गरीबी का उन्मूलन है। वह गरीबी जो मौत से भी बदतर है। इसलिए यदि भारत कोशिश करे तो भूमंडलीकरण के जरिए इस गरीबी से पीछा छुड़ा सकता है। पर इस समय जैसी स्थिति है उससे नहीं लगता कि वर्तमान सरकारी शैली व प्रणाली के रहते भारत भूमंडलीकरण का पूरा लाभ उठा सकता है। भूमंडलीकरण का पूरा लाभ उठाने के लिए भारत को प्रशासन के स्तर पर सुधार लाने होंगे। सरकारी संरक्षण कम करने होंगे तथा भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में और अधिक भागीदारी निभाने के साथ-साथ सरकार यदि उचित वातावरण व समुचित मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराएगी तो ही भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में लाभ अर्जित होंगे, जैसे उसे कम कीमत पर सही मात्रा में सही गुणात्मकता की बिजली उपलब्ध करानी होगी। मूलभूत सुविधाएं मसलन संचार माध्यम, सड़कें, परिवहन, बंदरगाह आदि उपलब्ध कराना पड़ेगा। श्रम बाजार को लचीला बनाना पड़ेगा ताकि बिना शोषण उचित मूल्य पर समुचित व सही प्रकार के कामगार उपलब्ध हो सकें, नौकरशाही के तंत्र को कसना पड़ेगा, उनका नजरिया बदलना पडेÞगा व उन्हें अनुशासित करना पड़ेगा। उनको यह सिखाना पड़ेगा कि वे लोक सेवक हैं और जनहित के प्रति उनका सीधा उत्तरदायित्व है। भ्रष्टाचार के इस वातावरण में भ्रष्ट अधिकारी भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया में बाधक सिद्ध होते हैं। अत; भ्रष्ट अधिकारियों से सतर्क रहने के लिए सरकार को प्रभावी प्रणाली निर्मित करनी पड़ेगी। पूरी प्रशासनिक व्यवस्था पारदर्शी, न्यायोचित और जवाबदेह बनाई जानी चाहिए।
मोदी सरकार का नया मंत्र- मेरा गाँव मेरा देश 

डॉ. अरूण जैन
वित्त वर्ष 2016-17 के लिए पेश किया गया आम बजट जहाँ ग्रामीण अर्थव्यवस्था में एक नई क्रांति लाने का प्रयास है वहीं शहरी गरीबों का भी ध्यान रख सरकार ने विपक्ष के सूट बूट की सरकार होने के आरोपों को कमतर करने का प्रयास किया है। बजट में अमीरों से थोड़ा और लेकर गरीब हाथों में देने का प्रस्ताव किया गया है। सरकार ने कृषि कल्याण टैक्स लगाकर अपनी किसान विरोधी छवि खत्म करने का भी प्रयास किया है क्योंकि पिछले वर्ष भूमि अधिग्रहण विधेयक को लेकर सरकार की जो किसान विरोधी छवि बनी थी उसका बड़ा राजनीतिक खामियाजा सत्तारुढ़ दल को भुगतना पड़ा था। पिछले बजट से यदि इस बजट की तुलना करें तो इस बार कोई भी नहीं कह सकता कि यह पूंजीपतियों के लिए या अमीरों को ध्यान में रख कर बनाया गया बजट है। वित्त मंत्री ने सर्वाधिक जोर राजस्व अर्जित करने और उसका आवंटन बुनियादी ढांचा के विकास पर ज्यादा से ज्यादा करने पर दिया है। आम बजट ने साफ संकेत दे दिया है कि सत्तारुढ़ पार्टी ने हालिया चुनावी हारों को गंभीरता से लिया है। पिछले बजट में स्मार्ट सिटी पर जोर देने वाली सरकार ने इस बार गांवों और किसानों पर ज्यादा ध्यान दिया। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने वर्तमान माहौल में जो बजट बनाया है उसे पूरी तरह संतुलित कहा जा सकता है। हालांकि मध्यम वर्ग और उद्योग जगत को बजट से जो उम्मीदें थीं वह सभी पूरी नहीं हो पायी हैं लेकिन सरकार ने विकास के इंजन को तेजी से आगे बढ़ाने पर निश्चित रूप से ध्यान दिया है। बजट प्रस्तावों को देखा जाए तो स्पष्ट होता है कि वित्त मंत्री अंत्योदय मंत्र को लेकर आगे बढ़े हैं और समाज के निचले तबके की ज्यादा परवाह की है। अभी तक इस तबके की याद चुनावों के समय ही राजनीतिक दलों को आती रही है। अच्छा है कि मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल के दूसरे वर्ष में ही इस वर्ग की सुध ले ली। हालांकि सरकार सभी बजट प्रस्तावों को कितना अमल में ला पाती है यह अभी देखने वाली बात होगी। वित्त मंत्री ने रॉबिनहुड की तर्ज पर अमीरों से धन लेकर गरीबों में बांटने की जो योजना बनाई है उस पर अमल सही तरह से होते दिखना भी चाहिए। वित्त मंत्री ने करदाताओं के पैसों के सही इस्तेमाल पर भी जोर दिया है देखना होगा कि सरकार इसमें कितना कामयाब होती है। दरअसल सरकार समझ चुकी है कि जब तक कृषि और ग्रामीण क्षेत्र का भला नहीं होगा देश के लिए अच्छे दिन नहीं आएँगे। इसलिए कभी मनरेगा के प्रभाव पर सवाल उठाने वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने वित्त वर्ष 2016-17 में इस योजना के लिए आवंटन 3,800 करोड़ रुपये बढ़ाने का प्रस्ताव किया है। यदि पूरी राशि खर्च हो जाती है तो यह मनरेगा में अब तक सबसे बड़ा बजट खर्च होगा। साथ ही वित्त मंत्री ने 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के दीर्घ कालिक लक्ष्य के साथ कृषि क्षेत्र के लिए करीब 36,000 करोड़ रुपए के आवंटन की घोषणा की है। सरकार ने उर्वरक सब्सिडी भी अब सीधे किसानों के बैंक खातों में पहुंचाने की पहल की घोषणा की है। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग में सौ फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत से भी किसानों को लाभ होगा। अगले वित्त वर्ष के लिए कृषि ऋण का लक्ष्य बढ़ाकर नौ लाख करोड़ रुपए करने का प्रस्ताव भी किया गया है। कृषि ऋण पर ब्याज छूट के लिए 15,000 करोड़ रुपए का आवंटन और नयी फसल बीमा योजना के लिए 5,500 करोड़ रुपए तथा दलहन उत्पादन को प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए 500 करोड़ रुपए का आवंटन कर सरकार ने साफ किया है कि उसकी किसानों पर ज्यादा ध्यान देने की योजना है लेकिन यहाँ कुछ सवाल भी उठते हैं जैसे कि यदि 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने का लक्ष्य है तो अब भी निम्न आय में जी रहा किसान क्या 2022 तक भी निम्न आय वाला ही बना रहेगा? 2022 तक तो महंगाई और भी बढ़ चुकी होगी ऐसे में किसान का भला मात्र दोगुनी आय से कैसे होगा? सरकार ने किसानों को ऋण सुलभ कराने का इंतजाम तो कर दिया है लेकिन उसे ऋण से बाहर आने का मौका मिलता तो ज्यादा अच्छा होता। शहरी मध्यम वर्ग को जरूर इस बजट से कुछ निराशा हुई होगी लेकिन सरकार का उसके बारे में यह मानना है कि यह वर्ग सबसिडी नहीं सुविधाएँ चाहता है और जोर इसी बात पर है कि उसे सभी जरूरी सुविधाएँ मुहैया करायी जाएं। हालांकि सरकार ने इस वर्ग को कुछ राहत प्रदान की है। पहली बार मकान खरीदने वालों को 35 लाख रुपये तक के कर्ज पर 50,000 रुपये सालाना अतिरिक्त ब्याज छूट देने की घोषणा की गयी है। इस योजना में शर्त यह है कि मकान का मूल्य 50 लाख रुपये से अधिक नहीं होना चाहिए। इसके अलावा छोटे करदाताओं को राहत देते हुए बजट में 5,00,000 रुपये तक सालाना आय वालों के लिये धारा 87 (ए) के तहत कर छूट सीमा 2,000 रुपये से बढ़ाकर 5,000 रुपये करने का प्रस्ताव किया गया है। इस श्रेणी में दो करोड़ करदाता हैं जिन्हें कर देनदारी में 3,000 रुपये की राहत मिलेगी। जिनके पास अपना मकान नहीं है और उन्हें नियोक्ताओं से आवास भत्ता नहीं मिलता है उन्हें 60,000 रुपये का छूट मिलेगी जो फिलहाल 24,000 रुपये है। एक करोड़ रुपये से अधिक के व्यक्तिगत आयकर पर 12 प्रतिशत अधिभार को बढ़ाकर 15 प्रतिशत कर साफ संकेत दिया गया है कि आने वाले समय में उच्च वर्ग को और त्याग करने के लिए तैयार रहना होगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि वैश्विक अर्थव्यवस्था जिस गंभीर संकट से गुजर रही है उसमें भारत का प्रदर्शन कमोबेश ठीकठाक रहा है। सरकार की मानें तो पिछली सरकार के अंतिम तीन वर्षों में विकास दर घटकर 6.3 प्रतिशत रह गई थी जबकि सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर अब बढ़कर 7.6 प्रतिशत हो गई है। पिछली सरकार के अंतिम तीन वर्षों के दौरान उपभोक्ता मूल्य सूचकांक संबंधी मुद्रास्फीति 9.4 प्रतिशत के स्तर पर थी जो कम होकर 5.4 प्रतिशत पर आ गई है। किसी भी वित्त मंत्री की सफलता असफलता राजकोषीय घाटे को कम करने और राजस्व लक्ष्य अर्जित करने पर भी टिकी होती है। इस मोर्चे पर देखें तो राजकोषीय घाटा चालू वित्त वर्ष में 3.9 प्रतिशत अनुमानित है जिसे अगले वित्त वर्ष में कम कर 3.5 प्रतिशत पर लाया जाएगा। अगले वित्त वर्ष में कुल सरकारी खर्च 19.78 लाख करोड़ रुपये होगा। इसमें 5.50 लाख करोड़ रुपये योजना व्यय तथा अन्य 14.28 लाख करोड़ रुपये गैर-योजना व्यय में खर्च होंगे। चालू वित्त वर्ष में राजस्व घाटा बेहतर रहने का अनुमान है और यह जीडीपी का 2.5 प्रतिशत रह सकता है जबकि बजटीय लक्ष्य 2.8 प्रतिशत था। सरकार ने कृषि और ग्रामीण क्षेत्र के साथ-साथ शहरी क्षेत्र का भी ध्यान रखा है तथा कस्बों को शहरों में परिवर्तित करने की ओर भी ध्यान दिया है। बजट में आर्थिक वृद्धि की गति तेज करने के लिये बुनियादी ढांचे क्षेत्र पर काफी जोर दिया गया है। रेलवे और सड़क परियोजनाओं सहित विभिन्न ढांचागत योजनाओं के लिये 2.21 लाख करोड़ रुपए आवंटित किये गये हैं। बुनियादी ढांचे के लिए एक नयी क्रेडिट रेटिंग प्रणाली विकसित करने का भी प्रस्ताव किया गया है। सरकार ने गरीब परिवारों की महिला सदस्यों के नाम रसोई गैस कनेक्शन मुहैया कराने और इसमें दो साल के भीतर पांच करोड़ बीपीएल परिवारों को शामिल करने की महत्वाकांक्षी योजना भी बनाई है। इसके अलावा गरीबों का ध्यान रखते हुए देश में सभी जिला अस्पतालों में डायलिसिस सेवाएँ और कम कीमत पर जेनेरिक दवा उपलब्ध कराने के लिए देश भर में 3,000 जन औषधि स्टोर खोलने की भी घोषणा की है। इसके अलावा सभी परिवारों को बीमा के दायरे में लाने की योजना भी पेश की गयी है। शहरों में बढ़ते प्रदूषण और यातायात की स्थिति पर गौर करते हुए गाडिय़ों पर उपकर लगा दिया गया है तथा बीडी को छोड़ सभी तंबाकू उत्पादों पर उत्पाद शुल्क बढ़ा दिया गया है। चांदी को छोड़ सभी आभूषणों पर शुल्क बढ़ा दिया गया है। सरकार ने लगभग 26 सौ करोड़ रुपए का नया टैक्स जुटाने का भी लक्ष्य रखा है जिसे अर्जित कर पाना असंभव नहीं तो मुश्किल तो है ही। अभी सरकार की आलोचना इस आरोप के साथ हो रही है कि उसने यह 2022 का बजट बना दिया है। वित्त मंत्री ने जीडीपी और महंगाई दर के जो आंकड़े पेश किये हैं उसके आधार पर देखें तो अर्थव्यवस्था का विकास तेज हुआ है, विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ा है और महंगाई कम हुई है लेकिन यदि इन आंकड़ों से परे हटकर हकीकत के धरातल पर देखें तो महंगाई ने हर वर्ग को परेशान किया है और अच्छे दिन लाने का वादा अब तक पूरा नहीं हुआ है। बहरहाल, बजट में कुछ प्रमुख खामियाँ रह गयी हैं जैसे कि ग्रामीण महिलाओं के लिए एलपीजी कनेक्शन की व्यवस्था की गयी है लेकिन शहरी महिलाओं के खाते में कुछ नहीं आया है। महिल सुरक्षा पर भी कोई विशेष ध्यान बजट में नहीं दिया गया है। खेलों का बजट जिस तरह नाममात्र के लिए बढ़ाया गया है उससे लगता है क्रिकेट का राज बना रहेगा। किसानों के लिए कर्ज की व्यवस्था कर दी गयी लेकिन कर्ज से निजात दिलाने की ज्यादा कोशिश नहीं की गयी।
सात प्रसिद्ध पुरियों में से एक है श्रीकृष्ण की द्वारका 

डॉ. अरूण जैन
गुजरात के पश्चिमी सागर के तट पर स्थित द्वारका को वैसे तो एक तीर्थ माना जाता है लेकिन अपनी ऐतिहासिकता, कलात्मकता, भवनों और प्रकृति की रमणीयता के कारण यह देश का एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल भी है। पौराणिक युग में इसे कुशस्थली और द्वारवती नामों से भी जाना जाता था। द्वारका प्राचीन भारत की सात प्रसिद्ध पुरियों में से एक है। यहां उत्कृष्ट वास्तुकला को उजागर करती हुई अनेक इमारतें हैं। आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, नरसी मेहता, मीरा, कबीर, नानक आदि यहां आने वाले प्रसिद्ध सैलानी हैं। द्वारका अपने द्वारकाधीश मंदिर के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है। इसे जगत मंदिर भी कहते हैं। पारम्परिक शैली में निर्मित यह मंदिर पांच मंजिला है। भूतल से लेकर शिखर तक मंदिर के हर भाग को बखूबी तराशा गया है। यहां भगवान श्रीकृष्ण का जन्मदिवस बड़े ही धूमधाम और उत्साह के साथ मनाया जाता है। देशभर में चार स्थानों पर आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित किए गए मठों में से एक शारदा पीठ भी यहां है। शारदा पीठ शैक्षिक सोसाइटी, आर्ट्स कालेज और संस्कृत अकादमी का संचालन करती है यहां संस्कृत और इंडोलाजी में शोध की सुविधाएं भी उपलब्ध हैं। विश्व प्रसिद्ध 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक ज्योतिर्लिंग द्वारका में है, जिसे नागेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है। भक्तजनों के लिए यह ज्योतिर्लिंग कितना महत्व रखता है इसका आभास यहां होने वाली भीड़ को देखकर लगाया जा सकता है। द्वारका नगर से करीब 35 किलोमीटर दूर स्थित बेट द्वारका को बेट शंखोद्धार भी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण यहीं अपने परिवार के साथ रहते थे। बेट द्वारका के लिए द्वारका से ओखा तक लगभग 30 किलोमीटर की दूरी रेल या बस से तय की जा सकती है। उसके बाद करीब 5 किलोमीटर की समुद्री यात्रा बोट द्वारा तय की जा सकती है। पर्यटकों के लिए यह एक रोमांचक अनुभव रहता है। बेट द्वारका में बना भगवान श्रीकृष्ण का मंदिर एक पुराना घर मात्र है लेकिन इसकी मान्यता बहुत है। द्वारका के अन्य दर्शनीय स्थलों में रूक्मिणी मंदिर, लक्ष्मी मंदिर, मीरा बाई मंदिर, नरसी मेहता मंदिर आदि प्रमुख हैं। द्वारका वीरमगाम से ओखा जाने वाली मीटरगेज रेलवे लाइन पर स्थित है। राजकोट, जामनगर और अहमदाबाद से यहां के लिए रेल सुविधाएं आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं। स्टेट हाइवे द्वारा द्वारका गुजरात व देश के अन्य भागों से जुड़ा हुआ है। गुजरात राज्य परिवहन निगम की बसें राज्य के विभिन्न भागों से द्वारका जाती हैं। सामान्यत: द्वारका पर्यटन के लिए मध्य सितंबर से मध्य मई तक का मौसम अनुकूल रहता है। यदि आप चाहें तो अहमदाबाद पर्यटन के दौरान द्वारका पर्यटन का कार्यक्रम भी बना सकते हैं।

बुलेट ट्रेन से पहले


डॉ. अरूण जैन
भारत में लगभग एक दशक से चर्चा का विषय बनी बुलेट ट्रेन अर्थात बहुत तीव्र गति से चलने वाली ट्रेन का सपना लगता है अब पूरा होने के करीब है। पूर्व रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने अपनी जापान यात्रा के दौरान जिस तीव्र गति से चलने वाली ट्रेन को भारत में लाए जाने पर चर्चा छेड़ी थी, पिछले दिनों जापान के प्रधानमंत्री के भारत दौरे के बाद संभवत: वह परियोजना अब आकार लेती दिखाई दे रही है। योजना के अनुसार बुलेट ट्रेन की शुरुआत अमदाबाद व मुंबई जैसे देश के दो पश्चिमी महानगरों के मध्य की जानी है। लगभग पांच सौ किलोमीटर लंबे इस मार्ग पर उच्च गति वाली रेल परियोजना तैयार करने में लगभग एक लाख करोड़ रुपए की लागत आने की संभावना है। यह धनराशि भी जापान द्वारा ही भारत को कर्ज के रूप में दी जाएगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि उच्च गति से चलने वाली यह ट्रेन परियोजना पूरा होने के बाद भारत को उन चंद देशों की श्रेणी में ला खड़ा करेगी जहां बुलेट ट्रेन संचालित हो रही है। इस समय विश्व के जिन देशों में तीव्र गति की ट्रेन चलाई जा रही है उनमें चीन, जापान, फ्रांस, जर्मनी, रूस, इटली, पोलैंड, दक्षिण कोरिया, ताईवान, तुर्की, अमेरिका, ब्रिटेन, स्पेन, पुर्तगाल, उजबेकिस्तान, स्वीडन, आस्ट्रिया तथा बेल्जियम आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इन देशों में सबसे ताजातरीन परियोजना चीन ने शुरू की है जो इस परियोजना को शुरू करने के साथ ही विश्व में सबसे अधिक दूरी तक की बुलेट ट्रेन रेल लाइन बिछाने वाले देशों में भी शामिल हो गया है। चीन ने अब तक लगभग बीस हजार किलोमीटर तक की रेल लाइन बिछाने में सफलता हासिल की है। आमतौर पर तीव्र गति वाली ये रेलगाडिय़ां दो सौ किलोमीटर प्रति घंटा से लेकर तीन सौ साठ किलोमीटर प्रति घंटा तक की गति से चलाई जाती हैं। गौरतलब है कि बुलेट ट्रेन का संचालन सामान्य रेल व्यवस्था से अलग किस्म का होता है। लिहाजा, इसके लिए रेल लाइन से लेकर रेलवे स्टेशन, नियंत्रण कक्ष, स्टाफ तथा इससे संबंधित सभी तकनीकी व्यवस्थाएं अलग से करनी पड़ती हैं। अर्थात यदि भारत में बहुत तीव्र गति से चलने वाली बुलेट ट्रेन ने अपने पांव पसारे तो इसकी खातिर नई रेल लाइन बिछाने के लिए भूमि अधिग्रहण किया जाएगा। इसके अतिरिक्त स्टेशन, स्टॉफ से लेकर नियंत्रण केंद्र तक का पूरा ढांचा नए सिरे से तैयार किया जाएगा। जाहिर है, एक लाख करोड़ रुपए जैसी भारी-भरकम रकम जो मुंबई-अमदाबाद जैसे छोटे रूट के लिए निर्धारित की गई है वह इन्हीं बातों के मद्देनजर है। यहां यह सोचना भी गलत नहीं होगा कि इतने भारी-भरकम खर्च के बाद शुरू की जाने वाली इस ट्रेन का किराया भी विमान के किराए से कम तो बिल्कुल नहीं होगा, ज्यादा जरूर हो सकता है। पिछले दिनों जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे के भारत के दौरे के बाद जब से इस परियोजना पर सहमति हुई उसी समय से इस परियोजना के पक्ष और विपक्ष में तरह-तरह की चर्चा चल रही है। जहां देश का एक वर्ग बुलेट ट्रेन के भारत में आगमन की संभावनाओं पर संतोष जता रहा है और इसके पक्ष में कई दलीलें पेश कर रहा है, वहीं इस परियोजना को लेकर आलोचना के स्वर भी अत्यंत तार्किक व मुखर हैं। समर्थन में दिया जाने वाला तर्क खासतौर पर भविष्य में र्इंधन की कमी तथा वर्तमान जलवायु संकट से निपटने के उपाय का है। इस परियोजना के आलोचकों के तर्कों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सबसे पहली आलोचना तो इस परियोजना पर आने वाली भारी-भरकम लागत को लेकर है। सवाल यह किया जा रहा है कि एक लाख करोड़ की रकम जापान से उधार लेकर देश में तीव्र गति की रेल चलाया जाना ज्यादा जरूरी है या बुलेट ट्रेन के संचालन से पहले देश की वर्तमान रेल व्यवस्था तथा मौजूदा रेल ढांचे में सुधार जरूरी है? हालांकि भारतीय रेल निरंतर सुधार की प्रक्रिया के दौर से गुजर रही है। पर इसके बावजूद अब भी इससे जुड़ी अनेक ऐसी बुनियादी बातें हैं जो वर्तमान भारतीय रेल व्यवस्था की संपूर्णता पर सवाल खड़ा करती हैं। उदाहरण के तौर पर भारतीय रेल को लेट-लतीफी से निजात नहीं मिल पा रही है। खासतौर पर सर्दियों में कोहरा पडऩे के दिनों में रेलगाडिय़ां घंटों देरी से चलती हैं। यह देरी बारह, चौदह और सोलह घंटे तक खिंच जाती है। निश्चित रूप से कोहरे में सिग्नल नजर आने में दिक्कतें होती हैं, जिसकी वजह से रेलगाडिय़ों की गति कम होने से विलंब होना स्वाभाविक है। पर ऐसे समय जबकि भारत बुलेट ट्रेन को आमंत्रित करने जा रहा हो, सर्वप्रथम वर्तमान रेल व्यवस्था में ऐसी तकनीकी प्रणाली का होना बहुत जरूरी है जो धुंध के बावजूद ड्राइवर को सिग्नल होने या न होने की जानकारी स्वत: दे सके। अन्यथा यदि वर्तमान लाल व हरे सिग्नल को देखने के भरोसे पर ही रेलगाडिय़ां चलती रहीं तो क्या बुलेट ट्रेन का संचालन भी इस दुर्व्यवस्था का शिकार नहीं होगा?दूसरा सबसे बड़ा प्रश्न भारतीय रेल यात्रियों की सुरक्षा को लेकर है। हमारे यहां लगभग पूरे देश में मात्र राजधानी व शताब्दी जैसी चंद रेलगाडिय़ों को छोड़ कर, प्राय: अन्य सभी एक्सप्रेस व पैसेंजर रेलगाडिय़ों के किसी भी डिब्बे में आसामाजिक तत्त्व, चोर-लुटेरे या अनधिकृत वैंडर, भिखारी प्रवेश कर सकते हैं। यात्री स्वयं उससे बाहर निकलने के लिए इसलिए नहीं कहता कि वह किसी विवाद या झगड़े में पडऩा नहीं चाहता। यदि हम चीन जैसे देशों से बराबरी करते हुए बुलेट ट्रेन की दौड़ में शामिल होना चाह रहे हैं तो हमें चीन की सामान्य रेल व्यवस्था से सबक लेने की भी जरूरत है। चीन में बुलेट ट्रेन अथवा सामान्य ट्रेन तो क्या सामान्य रेलस्टेशन के प्लेटफार्म पर भी कोई व्यक्ति बिना टिकट के प्रवेश नहीं पा सकता। और वहां बिना निजी पहचान पत्र के किसी भी व्यक्ति को टिकट नहीं दिया जाता। फिर आखिर कोई चोर-लुटेरा ट्रेन के डिब्बे में कैसे प्रवेश कर सकेगा? यही व्यवस्था हमारे देश में भी लागू की जानी चाहिए। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय रेल इन दुर्व्यवस्थाओं से मुक्ति पाने का रास्ता ढूंढे बिना अत्यंत खर्चीली बुलेट ट्रेन की ओर देख रही है। हमारे देश में कई घटनाएं ऐसी हुई हैं जिनसे साबित हो चुका है कि भारतीय रेल में पुलिस की मिलीभगत से यात्रियों को लूटा जाता है। इतना ही नहीं, कई बार पुलिस वाले स्वयं यात्रियों को उनकी तलाशी के बहाने लूट लेते हैं। ऐसे कई मामले जीआरपी में दर्ज भी हैं। देश में कई स्थानों पर जीआरपी, आरपीएफ और टिकट निरीक्षक की मिलीभगत से व्यापारियों द्वारा अपना माल बिना किसी रेलवे भुगतान के मंगाया या ले जाया जाता है। टिकट-निरीक्षक बेटिकट यात्रियों से पैसा लेकर यात्रा करने की छूट दे देते हैं। टिकट निरीक्षक आरक्षण के हकदार आरएसी या वेटिंग के यात्रियों को बर्थ देने के बजाय उन यात्रियों को पहले बर्थ दे देते हैं जो उनकी मु_ी गरम करते हैं। रेलवे स्टेशनों पर भिखारियों के रूप में नशेडिय़ों और नशे का कारोबार करने वालों की भीड़ देखी जा सकती है। इनमें भी चोर व लुटेरे इसी वेश में पनाह लेते हैं। जो पुलिस रेल की सुरक्षा के लिए रेलवे प्लेटफार्म पर तैनात की जाती है वह अपनी नाजायज ढंग से होने वाली कमाई के प्रति इतनी चौकस रहती है कि सुबह चार बजे से ही उन व्यापारियों पर नजर रखने लगती है जो बिना बुकिंग के अपना सामान ट्रेन पर रख कर ले जाना चाहते हैं। पर चौबीस घंटे प्लेटफार्म पर रह कर नशा करने वाले तथा शराब पीकर नग्नावस्था में पड़े रहने वाले व जुर्म को संरक्षण देने वाले भिखारी रूपी लोगों को प्लेटफार्म से भगाने का कष्ट यही पुलिस गवारा नहीं करती। बजाय इसके , कभी उनसे चाय-सिगरेट मंगवाती है तो कभी अपना स्कूटर या मोटरसाइकल साफ करवाती है। देश में प्लेटफार्म की कमी एक और बड़ी समस्या है। उदाहरण के तौर पर, बिहार के दरभंगा जिले का लहेरिया सराय रेलवे स्टेशन प्रारंभ से ही केवल एक प्लेटफार्म पर आश्रित है। जबकि दरभंगा के अधिकतर सरकारी कार्यालयों के जिला मुख्यालय लहेरिया सराय रेलवे स्टेशन के आसपास ही हैं। इसके बावजूद इस स्टेशन पर एक ही प्लेटफार्म है, जबकि अक्सर यहां एक साथ कई रेलगाडिय़ां आती-जाती रहती हैं। यहां प्लेटफार्म नंबर एक के यात्री ही सुरक्षित तरीके से प्लेटफार्म पर चढ़-उतर पाते हैं। दूसरी व तीसरी लाइन पर आने वाली गाडिय़ों और अपने निर्धारित डिब्बे तक पहुंचना यात्रियों के लिए बेहद खतरनाक होता है। इस स्टेशन पर कई बार लाइन नंबर दो व तीन पर पत्थरों पर दौड़ते हुए यात्री दुर्घटना के शिकार हो चुके हैं। वहां कई लोगों का ट्रेन में चढऩे से रह जाना तो आम बात है। खासतौर पर वृद्धों और महिलाओं को काफी दिक्कतें उठानी पड़ती हैं। इस प्रकार के देश में सैकड़ों रेलवे स्टेशन हैं जहां यात्रियों की सुविधाओं और उनकी सुरक्षा के लिए प्लेटफार्म नंबर दो-तीन या चार के निर्माण की आवश्यकता है। जाहिर है, पहले इन बुनियादी जरूरतों को पूरा किए जाने की जरूरत है, न कि इन तकाजों और प्राथमिकताओं को नजरअंदाज करते हुए सीधे बुलेट ट्रेन दौड़ाने का सपना पूरा करने की। 

गंगा सफाई योजना अधर में क्यों


डॉ. अरूण जैन
गंगा की सफाई और अविरलता को लेकर राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) गंभीर है। उसने केंद्र से स्पष्ट कहा है कि बगैर उसकी अनुमति के उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड सरकार को कौड़ी भी मुहैया न कराएं। इतना ही नहीं, एनजीटी ने केंद्रीय जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा पुनर्जीवन मंत्रालय पर भी काफी तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि गंगा की सफाई पर उसके पास सुंदर-सुंदर नारों के सिवाय कुछ भी नहीं है। एनजीटी ने यहां तक कहा है कि गंगा पर सरकार का काम उसके नारों से उलट रहा है। दरअसल, एनजीटी ने उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड की सरकारों को गंगा सफाई को लेकर लापरवाही बरतने और प्रदूषण के स्रोतों को लेकर कोई संतोषजनक उत्तर न देने पर बजट रोकने के निर्देश दिए हैं। साथ ही, केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय की खिंचाई इन राज्यों पर आवश्यक कार्रवाई नहीं करने की वजह से की है। मंत्रालय की कमान उमा भारती के पास है और वे अकसर उत्तराखंड के हरिद्वार पहुंचती हैं और यहां गंगा में स्नान करती हैं। यहां यह बताना भी उचित होगा कि प्रदूषण की वजह से हरकी पैड़ी में गंगा सबसे ज्यादा मैली है। उमा भारती अकसर कहती हैं कि गंगा प्रदूषण मुक्त होगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह ड्रीम प्रोजेक्ट है, वगैरह, वगैरह। लेकिन केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय घोषणाओं के सिवाय अब तक ज्यादा कुछ नहीं कर पाया है। नमामि गंगे परियोजना के तहत जनवरी 2016 से ही गंगा की सफाई तीन चरणों में होनी है जिसमें अल्पकालिक योजना व पांच वर्ष की दीर्घावधि योजना शामिल है। लेकिन फिलहाल सबकुछ ठप पड़ा हुआ है। पांच राज्यों उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल तक 2,525 किलोमीटर में फैली इस नदी की सफाई की जानी है। इन पांच में झारखंड ही ऐसा राज्य है जहां भाजपा की सरकार है। यों तो केंद्र सरकार अलग-अलग मुद्दों पर समय-समय पर गैर-भाजपा सरकारों की खिंचाई करती रहती है; केंद्र बार-बार टिप्पणी करता है कि ये सरकारें केंद्रीय अनुदान का सही इस्तेमाल नहीं कर रही हैं। लेकिन विडंबना है कि गंगा की सफाई को लेकर केंद्र ने अब तक प्रत्यक्ष रूप से इन राज्यों के खिलाफ न कोई कार्रवाई की और न ही किसी प्रकार का आरोप मढ़ा है। जबकि सभी जानते हैं कि नमामि गंगे प्रधानमंत्री का ड्रीम प्रोजेक्ट है। एनजीटी ने बजट पर रोक इसलिए लगाई कि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की सरकारों ने प्रदूषण के स्रोत की सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं कराई। ऐसी बात नहीं कि प्रदूषण से जुड़े आंकड़े सरकार के पास नहीं हैं। दरअसल, नौकरशाह लापरवाह हैं। राज्य सरकारों के अलावा कई गैर-सरकारी संगठन हैं जो हर साल गंगा में फैल रहे कचरों का सर्वेक्षण कराते रहते हैं। लेकिन जब तक केंद्र और राज्य सरकारें इसमें विशेष रुचि नहीं लेंगी, तब तक गंगा यों ही मैली रहेगी। गंगा की सफाई के नाम पर वर्ष 1985 से लेकर अब तक बाईस हजार करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं, जिसमें गंगा एक्शन प्लान का फंड, जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीकरण मिशन व विश्व बैंक द्वारा दिया गया कर्ज भी शामिल है। इतनी भारी धनराशि लगाए जाने के बावजूद गंगा स्वच्छ क्यों नहीं हो सकी? इसकी जवाबदेही कभी तय क्यों नहीं हुई?उत्तर प्रदेश का वाराणसी शहर जो प्रधानमंत्री मोदी का संसदीय क्षेत्र भी है, यहां वर्ष 1992 में बीओडी यानी बायोलॉजिकल आक्सीजन डिमांड 5 मिलीग्राम प्रति लीटर थी जो वर्ष 2015 में बढ़ कर 8.3 हो गई है। जबकि जिन्स फिकल कोली फार्म की संख्या सौ प्रति मिलीलीटर थी, यह बढ़ कर उनचास सौ हो गई है। केवल बनारस की बात करें तो चौवालीस नालों के जरिये तकरीबन 46 एमएलडी सीवेज और कचरा गंगा नदी में प्रवाहित हो रहा है। इसके अलावा मणिकर्णिका व हरिश्चंद्र घाटों पर एक वर्ष में इकतालीस हजार शव जलाए जाते हैं जिनमें नब्बे टन राख निकलती है और यह राख गंगा नदी में ही प्रवाहित होती है। वाराणसी के अलावा फर्रुखाबाद, कन्नौज, कानपुर व इलाहाबाद में बढ़ते शहरीकरण से पिछले दो दशक में गंदे पानी की मात्रा में बेतहाशा वुद्धि हुई है। उत्तराखंड जहां गोमुख से गंगा का उद््गम माना गया है, इस प्रदेश में विशेष रूप से हरिद्वार में प्रदूषण की स्थिति काफी भयावह है। वर्ष 2015 के सर्वे के मुताबिक 16.87 मिलियन टन सीवर का गंदा पानी गंगा में रोजाना मिल रहा है। केंद्र व राज्य के झगड़ों के बीच तैंतालीस सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) फंसे हुए हैं। यहां एसटीपी बारह क्षेत्रों में स्थापित होने हैं। स्टेट प्रोजेक्ट मैनेजमेंट ग्रुप बावन करोड़ की योजना केंद्र को सौंप चुका है। इस पर केंद्र का स्पष्ट कहना है कि एसटीपी पर होने वाले कुल खर्च का तीन फीसद उत्तराखंड सरकार को वहन करना चाहिए। जबकि उत्तराखंड सरकार को यह मंजूर नहीं है। उसका साफ कहना है कि एसटीपी पर जो खर्च हो वह पूरा का पूरा केंद्र सरकार को वहन करना चाहिए। उत्तराखंड में अर्द्धकुंभ शुरू हो गया है। उत्तराखंड सरकार का दावा है कि अप्रैल 2016 तक कुल एक करोड़ श्रद्धालु हरिद्वार में डुबकी लगाएंगे। ऐसे में मल-मूत्र, फूल व प्लास्टिक सभी तो गंगा में ही जाएंगे। यहां इस बात का उल्लेख करना जरूरी है कि वर्ष 2010 में उत्तराखंड में कुंभ के दौरान हरिद्वार में गंगा के नमूनों की पड़ताल की गई तो प्रति दस मिलीलीटर जल में हानिकारक जीवाणुओं की संख्या छह हजार पाई गई जो स्नान के पानी के लिए सरकार द्वार जारी मानकों से पंद्रह हजार फीसद ज्यादा थी। इस प्रदूषण के कारण ही हैजा, पीलिया, पेचिश व टाइफाइड जैसी जलजनित बीमारियां बढ़ी हैं। वैसे भी देश में आठ फीसद स्वास्थ्य समस्याएं और एक तिहाई मौतें जलजनित बीमारियों के कारण ही होती हैं। ऋषिकेश से इलाहाबाद तक गंगा के आसपास करीब पच्चीस औद्योगिक इकाइयां स्थित हैं जिनमें चीनी, उर्वरक व कागज मिल के अलावा तेलशोधक कारखाने तथा चमड़ा उद्योग प्रमुख हैं। इनसे निकलने वाला कचरा और रसायनयुक्त गंदा पानी गंगा में गिर कर इसके पारिस्थितिकीय तंत्र को भारी नुकसान पहुंचा रहा है। इन कारखानों से निकलने वाले अपशिष्ट में मुख्य रूप से हाइड्रोक्लोरिक एसिड, मरकरी, भारी धातुएं व कीटनाशक जैसे खतरनाक रसायन होते हैं। ये रसायन मनुष्य की कोशिकाओं में जमा होकर बहुत-सी बीमारियां उत्पन्न करते हैं। बिहार और पश्चिम बंगाल में भी गंगा में प्रदूषण, गंगा एक्शन प्लान पर काम होने के बावजूद तेजी के साथ बढ़ा है। संसदीय लोक लेखा समिति ने तो तीखी टिप्पणी करते हुए कहा है कि पटना में गंगाजल तेजाब बन गया है। यहां तीन से ज्यादा नालों का मुंह गंगा में खुलता है। बिहार के पंद्रह सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट एक अरसे से खराब हैं। फतुहा से दानापुर तक गंगा के पेट में र्इंट के भ_े लगते हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक पांच फीसद गंदा पानी पश्चिम बंगाल में गंगा नदी में ही प्रवाहित होता है। करीब 131 करोड़ लीटर गंदगी रोजाना गंगा में गिरती है। चौंतीस सीवेज प्लांट हैं जिनकी क्षमता 457 एमएलडी है, लेकिन चौदह सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट खराब पड़े हुए हैं। इसलिए महज 214 एमएलडी पानी ही साफ हो पाता है। बोर्ड ने कोलकाता, हावड़ा व सियालदह सहित एक दर्जन शहरों में चौंसठ नए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट स्थापित करने के सुझाव भी दिए हैं लेकिन वहां तृणमूल कांग्रेस की सरकार गंगा की सफाई को लेकर अब तक खामोश है। झारखंड में भाजपा की सरकार है। यहां पर गंगा केवल साहेबगंज जनपद से होकर गुजरती है। इस प्रदेश में काफी कम काम होने के बावजूद आगामी अप्रैल 2016 से गंगा सफाई अभियान का कार्यक्रम शुरू होने की बात कही जा रही है। इसके लिए छिहत्तर गांव चिह्नित भी किए जा चुके हैं। इन गांवों में शौचालय भी बनने हैं। साढ़े ग्यारह लाख की आबादी वाले इस क्षेत्र में गंगा सफाई अभियान वर्ष 2019 तक चलने की संभावना है। अन्य राज्यों के मुकाबले झारखंड में गंगा सफाई में न ही ज्यादा मेहनत और न ही ज्यादा बजट की जरूरत है। फिर भी अपनी ओर से सरकार कोई भी ठोस पहल नहीं कर रही है। इस सरकार को भी नमामि गंगे के अनुदान का इंतजार है।एनजीटी ने काफी पहले ही यह सुझाव दिया था कि गंगा के किनारे पचास मीटर का बफर जोन बनाया जाए। नदियों को प्रदूषण-मुक्त करने के लिए कई देशों में बफर जोन बनाए गए हैं। बफर जोन बनने के बाद वहां किसी तरह के निर्माण-कार्य की इजाजत नहीं होगी। लेकिन किसी भी सरकार ने एनजीटी के आदेश को गंभीरता से नहीं लिया है। इसके पहले तीन मई 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की सरकारों को गंगा के आसपास पॉलीथिन को प्रतिबंधित करने का आदेश दिया था, लेकिन दोनों राज्य सरकारों की नींद अब जाकर खुली है और एलान किया गया है कि एक फरवरी 2016 से पॉलीथिन पर प्रतिबंध लगाया जाएगा। अब केंद्र सरकार प्रमुख गंगा घाटों पर शीघ्र ही प्रदूषण का स्तर प्रदर्शित करने वाले इलेक्ट्रानिक डिस्प्ले बोर्ड लगाने जा रही है। इससे स्नान घाट के जल की गुणवत्ता का ताजातरीन हिसाब पल-पल दिख सकेगा। लेकिन रुड़की विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों का कहना है कि डिस्प्ले बोर्ड से ज्यादा जरूरी है गंगा की सफाई। वैज्ञानिक गंगा की सफाई और प्रदूषण-मुक्ति से जुड़े सुझाव दे सकते हैं, लेकिन कार्यक्रमों को क्रियान्वित करने की जिम्मेदारी तो केंद्र व राज्य सरकारों की है। 

मोदी के खिलाफ घृणात्मक अभियान अपने चरम पर 

डॉ. अरूण जैन
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ घृणात्मक अभियान अपने चरम पर पहुंच चुका है। दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश में निर्वाचित प्रधानमंत्री के खिलाफ ऐसा घृणात्मक अभियान कभी नहीं चलाया गया होगा। कहा जा रहा है कि मोदी मुस्लिम विरोधी हैं, मोदी अनुसूचित जाति विरोधी हैं, मोदी पूंजीपतियों के समर्थक हैं, मोदी देश में असहिष्णुता बढ़ाने के दोषी हैं। मतलब यह कि देश में चाहे अराजकता बढ़ाने वाले तत्वों की सक्रियता हो या आर्थिक विकास को प्राकृतिक कारणों के साथ−साथ राजनीतिक असहयोग से बाधित करने का प्रयास, सबके लिए मोदी ही दोषी हैं। नेताजी सुभाष चंद्र बोस से सम्बन्धित दस्तावेज सार्वजनिक करने की मांग को स्वीकार कर मोदी ने राजनीतिक चाल चली है क्योंकि उससे नेहरू का यह पत्र सार्वजनिक हो गया है जिसमें उन्होंने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को सूचित किया था कि नेताजी युद्ध अपराधी हैं। अतीत के कुकृत्यों पर परदा डालने के लिए मोदी विरोधी अभियान हथियार बन गया है और निहित स्वार्थी उसे दोनों हाथों से चला रहे हैं। जो स्वयं किसी कृत्य के लिए दोषी से आरोपित होने के कारण अदालत अथवा जांच एजेंसियों के घेरे में हैं उन सभी को लगता है कि नरेंद्र मोदी के प्रति घृणात्मक प्रचार ही उनके बचाव का एकमात्र उपाय है। आजकल कहीं कुछ भी हो उसके लिए नरेंद्र मोदी को दोषी ठहराकर घृणा पैदा करना मुख्य मुद्दा बन गया है। असोसिएटेट जर्नलस की अपार सम्पत्ति पर कब्जे के प्रयास की अदालती समीक्षा की स्थिति हो या फिर दिल्ली के मुख्यमंत्री ने सचिव के ख्लिाफ आरोपों की सीबीआई की जांच या अरूणाचल में कांग्रेसी विधायकों का मुख्यमंत्री के प्रति विद्रोह या किसी छात्र का क्षुब्ध होकर आत्महत्या करना। सबका ठीकरा मोदी के सिर फोड़ा जा रहा है। इस आरोप को मढऩे के प्रयास में जिस निकृष्ट शब्दावली में अभिव्यक्ति हो रही है, वह अभिव्यक्तिकर्ता की विक्षिप्त मानसिकता का परिचय तो है ही साथ ही इस बात का सबूत भी कि देश को दिशा देने का दावा करने वाले किस मानसिकता से वशीभूत हैं। सत्ता से बाहर होना या बाहर होने का भय उनके भीतर सत्ता में रहने के दौरान किए गए कृत्यों से जेल जाने की नौबत के कारण हमला बचाव का सर्वोत्तम उपाय है की रणनीति अपनाने की प्रेरणा पैदा कर रहा है। यह अभियान अभी और तेज होाग और इसके लिए कुप्रचार के सभी हथकंडे अपनाए जाने वाले हैं। इस युद्ध में भारतीय जनता पार्टी को अपने सहयोगियों की लिप्सा के कारण भी अकेले जूझना पड़ेगा। आश्चर्य यह है कि किसानों और गरीबों के लिए अभूतपूर्व उपायों को अपनाने वाली भाजपा सरकार उनमें पैठ बनाने के लिए मुखरित नहीं है। वह बचाव की मुद्रा में ही है, जो उसके सद्प्रयासों के कारण भी प्रतिकूल के माहौल बनाने वालों को और अधिक हमलावर बना रही है।  नरेंद्र मोदी के खिलाफ घृणात्मक अभियान से दो सवाल खड़े हुए हैं। एक यह कि क्या मोदी सरकार जिसने भ्रष्टाचार से निदान और गुड गवर्नेंस का वादा किया है, उससे पीछे हटकर समझौता करेगी? क्या वह एक के बाद एक भ्रष्टाचार और सार्वजनिक सम्पत्ति की लूट करने वालों के खिलाफ स्वाभाविक रूप से चल रही कानूनी प्रक्रिया को ढील प्रदान करेगी या फिर सभी प्रकार के विरोधों के बावजूद अपने वादे पर कायम रहेगी। दूसरा यह कि क्या जो घृणात्मक अभियान चल रहा है उससे अवाम इतना प्रभावित होगा कि भारतीय जनता पार्टी की बिहार के समान ही आने वाले सभी चुनाव में पराजय होगी। कम से कम कांग्रेस का तो यही आकलन है कि उनके शीर्ष नेताओं और कई मुख्यमंत्रियों के खिलाफ जो वाद अदालत में हैं या जिनकी जांच चल रही है उसके सम्बन्ध में बदले की भावना की कार्यवाही का अभियान चलाकर, उसी प्रकार फिर सत्ता में लौट सकेंगे जैसे 1980 में इंदिरा गांधी लौटी थीं। उनके इस आकलन में दो खामी हैं, एक तो 1980 के समान केंद्र में जनता पार्टी की सरकार नहीं है जो अंतरकलह के कारण भीतर से खोखली हो गई थी और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के कारण प्रधानमंत्री बनने के लिए कांग्रेस के बिछाये जाल में फंस गई थी। इस समय केंद्र में एक पार्टी की सरकार है जो वैचारिक प्रतिबद्धता से युक्त है, उसके कार्यबाधित हो सकते हैं, लेकिन रूक नहीं सकते। साथ ही सरकार भ्रष्टाचार से न तो समझौता करेगी और न दबाव बर्दाश्त करेगी। नरेंद्र मोदी ने गुजरात में बाह्य और आंतरिक दोनों ओर से प्रबलतम दबावों का सामना करते हुए घृणात्मक अभियान की चरमता के बावजूद जनसमर्थन प्राप्त करने में जो सफलता प्राप्त की उससे यह बात स्पष्ट है। लेकिन सरकार को एक बात पर अवश्य विचार करना होगा कि क्या उसके खिलाफ जो घृणात्मक अभियान है अवाम अपने आप उसके निहितार्थ समझ जायेगा या फिर उसको समझाने के लिए कुछ करना भी चाहिए और यदि कुछ करना चाहिए तो वह क्या?
सरकार के प्रदर्शन को लेकर प्रधानमंत्री भी हुए चिंतित 
डॉ. अरूण जैन
अब तक काफी आशान्वित नजर आते रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के माथे पर भी अब चिंता की लकीरें साफ नजर आने लगी हैं। सरकार की ओर से उठाए जा रहे कदमों और बनायी जा रही योजनाओं से भले वह खुश हों लेकिन उन पर अमल की गति और सरकारी योजनाओं के प्रचार प्रसार की खराब स्थिति प्रधानमंत्री की चिंता का प्रमुख कारण है। प्रधानमंत्री को यह नजर आ रहा है कि देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की स्थिति में सुधार लाने के प्रयास रंग लाते नहीं दिख रहे हैं जोकि आने वाले चुनावों में भारतीय जनता पार्टी सहित राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के लिए नुकसानदायी सिद्ध हो सकता है। प्रधानमंत्री ने मंत्रिमंडल की हालिया बैठक में इन चिंताओं को मंत्रियों के समक्ष रखते हुए अपनी अपेक्षाओं को भी दोहराया और अब हर महीने के अंतिम बुधवार को मंत्रियों के साथ कामकाज की समीक्षा बैठक होना तय कर दिया है। प्रधानमंत्री सिर्फ मंत्रियों के भरोसे ही सब कुछ नहीं छोड़ देना चाहते इसलिए लगातार सभी मंत्रालयों के सचिवों से भी संपर्क बनाए रहते हैं और उनके साथ बैठकें भी करते हैं। मंत्रिमंडल बैठक में मंत्रियों द्वारा अपने कामकाज की प्रेजेन्टेशन से प्रधानमंत्री का संतुष्ट नहीं होना दर्शाता है कि प्रधानमंत्री निचले स्तर तक महसूस की जा रही उन भावनाओं को समझ रहे हैं कि आम आदमी राजग सरकार से धीरे धीरे निराश हो रहा है। दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनावों तथा विभिन्न उपचुनावों के परिणामों से भी यह बात सिद्ध होती है कि भाजपा की हार का कारण पार्टी की ओर से सिर्फ रणनीतिक खामी नहीं थी बल्कि जनता की केंद्र सरकार से बढ़ रही नाराजगी से भी पार्टी को नुकसान हुआ। प्रधानमंत्री दावा करते हैं कि उनकी सरकार के कार्यकाल में वर्ष 2015 में कोयला, बिजली, यूरिया फर्टिलाइजर और मोटर वाहन का सबसे ज्यादा उत्पादन हुआ है। यही नहीं वर्ष 2015 में गांवों में गरीबों को सबसे ज्यादा कुकिंग गैस कनेक्शन दिये गये, प्रतिदिन के हिसाब से राष्ट्रीय राजमार्ग बनाने का औसत बढ़कर 30 किमी हो गया, मंदी के दौर में भी देश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 39 प्रतिशत बढ़ गया। डिजिटल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया-स्टैण्डअप इंडिया जैसी रोजगारपरक पहलें की गयीं। यकीनन यह सभी पहलें सराहनीय हैं लेकिन आम आदमी को तत्काल अपनी झोली में कुछ नजर नहीं आ रहा है। यही नहीं स्टार्टअप इंडिया जैसी पहलों से बड़े शहरों के युवा तो खुश हैं लेकिन किसान को अभी तक अपने लिए भी स्टार्टअप या स्टैण्डअप जैसी सरकारी पहलों का इंतजार है। प्रधानमंत्री ने मन की बात कार्यक्रम के जरिये अपनी बात लोगों तक तो पहुंचाई ही साथ ही सुझावों और शिकायतों के तौर पर उन्हें जो पत्र या ईमेल मिलते रहते हैं उसके जरिये उन तक भी यही बात पहुंच रही है कि चमकते भारत और अच्छे दिनों का जो ख्वाब लोकसभा चुनावों में दिखाया गया था वह अभी आम जनता के लिए दूर की कौड़ी बना हुआ है। प्रधानमंत्री मंत्रियों के भरोसे ही सब कुछ नहीं छोड़ देना चाहते इसलिए हाल ही में उन्होंने सभी विभागों के सचिवों की बैठक बुलाई जिसमें मंत्रिमंडल के कुछ वरिष्ठ सदस्य ही मौजूद थे। देर रात तक चली इस बैठक में प्रधानमंत्री ने शासन के विभिन्न क्षेत्रों में बदलाव करने के लिए सचिवों को सुझाव एवं विचार पेश करने को कहा और सचिवों के आठ समूहों का गठन किया। बैठक में सचिवों ने अपने मंत्रालय के कामकाज के बारे में प्रस्तुतिकरण के बारे में सवाल पूछे तथा कई महत्वपूर्ण सुझाव भी दिए। प्रधानमंत्री ने बैठक में सचिवों को निर्देश दिये कि अयोग्य अधिकारियों या शिकायतों पर कार्रवाई नहीं करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाए। प्रधानमंत्री की चिंताओं को वाजिब ठहराता एक हालिया सर्वेक्षण बताता है कि राजग सरकार के कामकाज को एक रायशुमारी में ''औसत से ऊपरÓÓ माना गया है। हालांकि इस रायशुमारी के नतीजों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रेटिंग के मामले में अपनी सरकार से आगे हैं। एबीपी न्यूज नील्सन द्वारा कराई गई इस रायशुमारी में 46 फीसदी प्रत्युत्तरदाताओं ने सरकार को बहुत अच्छी या अच्छी बताया लेकिन मोदी को 54 फीसदी लोगों ने ''बहुत अच्छा या अच्छाÓÓ बताते हुए ऊंची रेटिंग दी। रायशुमारी के अनुसार, अगर अभी लोकसभा चुनाव कराए जाते हैं तो राजग को 38 फीसदी वोट मिल सकते हैं जिसका मतलब है कि पार्टी को वर्ष 2014 में मिली 339 सीटों की तुलना में 301 सीटें मिलेंगी। ''राष्ट्र का मिजाजÓÓ भांपने के लिए कराए गए इस सर्वेक्षण के अनुसार, 47 फीसदी प्रत्युत्तरदाताओं को लगता है कि मोदी की लोकप्रियता दिन प्रतिदिन घट रही है लेकिन 45 फीसदी प्रत्युत्तरदाताओं को ऐसा नहीं लगता। प्रधानमंत्री अब अपनी सरकार के प्रदर्शन पर ज्यादा ध्यान केंद्रित कर रहे हैं यह बात इस खबर से भी जाहिर होती है जिसमें कहा गया कि इस वर्ष नरेंद्र मोदी विदेश दौरों पर कम और राज्यों के दौरों पर ज्यादा रहेंगे। प्रधानमंत्री इस बात से भी निराश हैं कि उनकी सरकार की योजनाओं के प्रचार पर खर्चा तो खूब हो रहा है लेकिन योजनाओं में निहित जनहित की बात आम लोगों तक नहीं पहुंच पा रही है। हाल ही में सरकार की ओर से किसानों के लिए शुरू की गयी फसल बीमा योजना काफी लाभकारी है लेकिन किसानों के बीच इसका सही प्रचार प्रसार नहीं हो पाया। सरकार अब योजनाओं के प्रचार के लिए क्षेत्रीय मीडिया तक पहुंचने का प्रयास कर रही है। प्रेस सूचना ब्यूरो ने देश का पहला अखिल भारतीय क्षेत्रीय संपादक सम्मेलन एक और जयपुर में बुलाया है। सम्मेलन में 100 से भी ज्यादा संपादकों के हिस्सा लेने की संभावना है। सम्मेलन में केंद्र का पक्ष रखने और संपादकों से जनता के मन की बात जानने के लिए नौ केंद्रीय मंत्री पहुंच रहे हैं। ऐसा ही सम्मेलन देश के पश्चिमी और दक्षिणी भाग में भी आयोजित किया जायेगा। प्रधानमंत्री ने हाल ही में सभी मंत्रियों को निर्देश दिया था कि वह विभिन्न संसदीय क्षेत्रों का दौरा कर बजट के बारे में जनता की राय जानें और सरकार की उपलब्धियां उन्हें बताएं। प्रधानमंत्री ने सरकार की उपलब्धियों को जनता के बीच पहुंचाने के लिए पार्टी संगठन का भी पूरा सहयोग लेने की पहल की है। अमित शाह के दूसरी बार भाजपा अध्यक्ष पद संभालने के सप्ताह भर के अंदर ही दोनों प्रमुख नेताओं ने पार्टी के विभिन्न मोर्चों के पदाधिकारियों के साथ बैठक कर कामकाज की समीक्षा की। बहरहाल, संसद का बजट सत्र निकट है। यदि सरकार जीएसटी सहित अन्य महत्वपूर्ण विधेयकों पर आगे नहीं बढ़ पाई तो इसे सरकार की राजनीतिक नाकामी के रूप में देखा जा सकता है क्योंकि जनता यह भले जानती है कि राज्यसभा में राजग के पास बहुमत नहीं है लेकिन उसने जो भाजपा को पूर्ण बहुमत दिया था उसका सही राजनीतिक उपयोग अभी तक नहीं हो पाया है। सरकार से अपेक्षा है कि वह विपक्ष से मेलजोल बढ़ाकर विधेयकों की राह में आ रही अड़चनों को दूर करे। कुछ समय पहले खबरें थीं कि प्रधानमंत्री वित्त मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय और रेलवे मंत्रालय के कामकाज से नाखुश हैं और इन विभागों के मंत्रियों को बदला जा सकता है लेकिन अभी बजट सत्र के निकट आने को देखते हुए ऐसे किसी फेरबदल की संभावना कम ही है। अरुण जेटली के समक्ष देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करने और निवेश आकर्षित करने की कठिन चुनौती है। हालांकि सरकार का कहना है कि राजग शासन में वैश्विक मंदी के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था में मजबूती रही लेकिन भाजपा के ही कुछ किनारे कर दिये गये वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि यह सब आंकड़ों का हेरफेर है। जेटली संकेत दे चुके हैं कि इस बार लोकलुभावन बजट नहीं आएगा। देखना होगा कि सरकार विभिन्न राजनीतिक चुनौतियों से किस तरह निबटती है।

हनीमून की जगह ऐसी हो जिसे संजो लें अपने दिलों में 


डॉ. अरूण जैन
शादियों का मौसम शुरू हो गया है। ऐसे में शादीशुदा जोड़े को तलाश होती है ऐसी जगह की जहां वे अपने साथी को समझ सकें और उसके साथ सुकून के पल बिता सकें। साथ ही उस जगह की खूबसूरती को जीवन भर के लिए स्मृतियों में सहेज सकें। भारत में हनीमून मनाने की ऐसी कई जगह हैं, जहां की खूबसूरती नवविवाहित युगल के हर पल को यादगार बनाती हैं। ऐसे ही कुछ स्थानों के बारे में हम बता रहे हैं। जम्मू और कश्मीर- दुनिया का स्वर्ग कहा जाने वाला कश्मीर सबसे बेहतरीन स्थान माना जाता है। हरी-भरी घाटियां, चमचमाती झीलें, ऊंचे पहाड़ और प्राकृतिक नजारे, नवविवाहित युगल के लिए बेहतर गंतव्य है। यहां के नजारे हमेशा के लिए यादगार बने रहेंगे। गोआ- पूरे भारत में नवविवाहित जोड़ों के लिए गोआ बेहतरीन जगह है। सूरज की धरती, रेत और समुद्र का मेल इसकी खूबसूरती में चार चांद लगा देते हैं। पूरी दुनिया से जोड़े यहां घूमने और साथ समय बिताने आते हैं। समुद्री किनारा, सुंदर दृश्य, बेहतरीन मौसम और ढेर सारी मस्ती हर पल को बेहद रोमांटिक बना देते हैं। कुर्ग- दक्षिणी भारत का कुर्ग छोटा सा खूबसूरत शहर है। इसे भारत का स्कॉटलैंड भी कहा जाता है। कॉफी की तरोताजा कर देने वाली खुशबू, नारंगी रंग के बाग और कई एकड़ तक फैली हरियाली हनीमून जोड़े के लिए बेहतरीन जगह है। नैनीताल- उत्तराखंड का नैनीताल रोमांटिक हिल स्टेशन है। यह जोड़ों के लिए बेहतरीन जगह है। मनमोहक झीलें, खूबसूरत दृश्य, बोट राइड्स और सुखद मौसम नैनीताल को और भी रोमांटिक बना देते हैं। जैसलमेर- अगर आप अपने हनीमून को थोड़ा शाही अंदाज देना चाहते हैं तो राजस्थान का जैसलमेर सबसे बेहतर है। यह शहर ऐतिहासिक है। यहां हाथी और ऊंट की सवारी और बहुत कुछ मशहूर है। इसके अलावा राजस्थान में ही और कई जगह घूम सकते हैं- जैसे माउंट आबू, बीकानेर, जयपुर, जोधपुर और उदयपुर। शिमला- हिमाचल प्रदेश का शिमला नवविवाहितों को हमेशा से आकर्षित करता आया है। दिल्ली की चिलचिलाती गर्मी से निजात पाने के लिए यह बेहतरीन जगह है। शिमला बेहद शांत स्वच्छ और प्राकृतिक खूबसूरती से भरा पड़ा है। ऊटी- नीलगिरी पहाडिय़ों में बसा तमिलनाडु का ऊटी बेहतरीन हिल स्टेशनों में से एक है। रोमांटिक जगहों में ऊटी सबसे बेहतर शहर माना जाता है। यहां का बोटेनिकल गार्डन, रोज गार्डन, ऊटी झील और डोडाबेटा चोटी इस जगह में और रोमांच भर देते हैं। दार्जीलिंग- सुंदर हिल स्टेशनों में दार्जीलिंग बेहतर विकल्प है। यह आपके हनीमून को यादगार बना देगा। कई एकड़ में फैले चाय के बागान और बर्फीला मौसम यहां बिताए आपके लमहों को अविस्मरणीय बना देगा। बैकवॉटर- केरल का बैकवॉटर भगवान का देश माना जाता है। हनीमून के लिए यह स्वर्ग कहा जाता है। झीलों का फैला जाल, नहर और नदियां ये सब इस जगह में चार चांद लगा देती हैं। आप पारम्परिक तरीके में हाउसबोट पर इन जगहों की सैर भी कर सकते हैं।

एनपीए की कीमत कौन चुकाता है


डॉ. अरूण जैन
हालांकि बैंकों के एनपीए (नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स) यानी गैर-निष्पादित संपत्तियों का मसला काफी समय से चला आ रहा है, लेकिन इधर बीच इसको लेकर चिंता बढ़ी है। वित्तमंत्री कई दफा कह चुके हैं कि एनएपी से निपटने के लिए बैंकों के पास पर्याप्त अधिकार हैं, वहीं रिजर्व बैंक के गवर्नर ने भी पिछले दिनों एनपीए की समस्या से सख्ती से निपटने का आह्वान बार-बार किया है। पर सवाल यह है कि जब वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक, दोनों इस समस्या को लेकर समान रूप से चिंतित है, तो समाधान क्यों नहीं निकल पा रहा है? गाड़ी कहां अटकी है? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम समस्या के असल स्वरूप को ही नजरअंदाज कर रहे हैं, या समस्या को जानते-पहचानते तो हैं, मगर उस पर काबू पाने के लिए जिस राजनीतिक इच्छाशक्ति या साहस की दरकार है उसे नहीं जुटा पा रहे हैं! लोगों की धारणा है कि बैंकों के एनपीए में सबसे बड़ा हिस्सा आम लोगों द्वारा लिये गए कर्ज का है, जबकि हकीकत है ठीक इसके विपरीत। आंकड़ों के अनुसार एनपीए का सबसे बड़ा हिस्सा कॉरपोरेट कर्ज का है। आमतौर पर औद्योगिक विकास के नाम पर कॉरपोरेट जगत को विशेष सुविधा दी जाती है। नया कंपनी कानून 2013 में लाया गया था, जिसने साठ साल पुराने कानून की जगह ली है। इस कानून के मुताबिक नई कंपनी शुरू करने के लिए केवल एक-दो दिन का समय लगना चाहिए। पहले यह समय-सीमा नौ-दस दिनों की थी, जिसे मौजूदा समय में कम करके चार-पांच दिनों पर लाया गया है। गौरतलब है कि बैंकों को भी कर्ज देने में समय-सीमा का पालन करना होता है, जो कॉरपोरेट कर्ज के मामले में भी लागू होता है। अमूमन कंपनियों को जल्द से जल्द कर्ज स्वीकृत करने के लिए बैंक अधिकारियों पर दबाव बनाया जाता है। ऐसी स्थिति में कभी-कभी कंपनियों की वित्तीय सेहत का सही परीक्षण नहीं हो पाता है, और कॉरपोरेट कर्ज एनपीए में तब्दील हो जाते हैं। रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन कॉरपोरेट कर्ज के ऊंचे स्तर और उसे चुकाने संबंधी उद्योग जगत की क्षमता पर लगातार सवाल उठाते रहे हैं। रघुराम राजन का मानना है कि अधिकतर कंपनियों के मुनाफे में कमी आ रही है, जिससे उन्हें कर्ज की किस्त तथा ब्याज चुकाने में दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। बढ़ती चूक के कारण कारपोरेट जगत के 'पुनर्गठितÓ कर्ज की व्यापकता तथा एनपीए में लगातार इजाफा हो रहा है। रघुराम राजन के मुताबिक उद्योग जगत का करीब बीस प्रतिशत कर्ज डूबने के कगार पर है। बहुत सारी कंपनियों ने वित्तवर्ष 2014-15 में परिचालन-घाटा दर्ज किया या उनका परिचालन-लाभ बैंक-कर्ज अदा करने के लिए पर्याप्त नहीं था। इन कंपनियों का परिचालन-मुनाफा ब्याज लागत या ब्याज कवरेज अनुपात एक प्रतिशत से कम होने के कारण वे बैंक कर्ज एवं किस्त की अदायगी नहीं कर सकते हैं। पिछले वित्तवर्ष में सड़सठ कंपनियों के बहीखाते पर कुल 5.65 लाख करोड़ रुपए का बैंक-कर्ज दर्ज था, जो देश की शीर्ष 441 गैर-वित्तीय कंपनियों के कुल कर्ज का तकरीबन बीस प्रतिशत है। गौरतलब है कि इन सड़सठ कंपनियों में से अधिकांश की हैसियत मौजूदा समय में नकारात्मक हो चुकी है। इन कंपनियों की संख्या वित्तवर्ष 2014-15 में बढ़ कर सड़सठ हो गई, जो पिछले साल उनचास, तीन साल पहले उनतीस और वित्तवर्ष 2009-10 के अंत तक सोलह थी। मालूम हो कि यह आंकड़ा बीएसई 500, बीएसई मिडकैप और बीएसई स्मॉलकैप सूचकांकों में शामिल चुनिंदा कंपनियों के आंकड़ों पर आधारित है। वित्तवर्ष 2014-15 में 441 गैर-वित्तीय कंपनियों का कुल कर्ज 28.5 लाख करोड़ रुपए था, जो सभी 654 गैर-वित्तीय कंपनियों के कुल कर्ज का लगभग 98.1 प्रतिशत है। दूसरी तरफ इसी वित्तवर्ष में कर्ज लेने वाली कंपनियों का कुल कर्ज उनकी कुल शुद्ध बिक्री के 80.7 प्रतिशत, परिचालन मुनाफे के 68.9 प्रतिशत और कुल 654 कंपनियों के शुद्ध मुनाफे के 39.4 प्रतिशत के बराबर है। इन कंपनियों का पूंजी निवेश पर रिटर्न (आरओसीई) वित्तवर्ष 2014-15 में घट कर 7.4 प्रतिशत पर आ गया है, जो दशक का न्यूनतम स्तर है। यह 7.1 प्रतिशत की औसत ब्याज लागत से कुछ आधार अंक ही अधिक है। इस दर पर कई कंपनियां कर्ज अदायगी में चूक कर सकती हैं, क्योंकि बैंक कर्ज की किस्त तथा ब्याज लागत अदा करने के लिए उनका परिचालन-मुनाफा पर्याप्त नहीं होगा। इन कंपनियों के पूंजी निवेश पर रिटर्न के मुकाबले बढ़ते कर्ज की ब्याज लागत में कहीं अधिक इजाफा हो रहा है। वित्तवर्ष 2014-15 में बढ़ते कर्ज की लागत बढ़ कर 11.8 प्रतिशत पर पहुंच गई है, जो पूंजी निवेश पर रिटर्न के आकलन से करीब 440 आधार अंक अधिक है। वित्तवर्ष 2004-05 के दौरान इन कंपनियों ने पूंजी निवेश पर 18.7 प्रतिशत रिटर्न दर्ज किया, जो उनकी 6.9 प्रतिशत की औसत ब्याज लागत के मुकाबले दोगुने से भी अधिक है। इन कंपनियों ने 2014-15 में 2.03 लाख करोड़ रुपए ब्याज-लागत भुगतान के तौर पर खर्च किए, जबकि एक साल पहले यह आंकड़ा करीब 1.83 लाख करोड़ रुपए रहा था। इस प्रकार कंपनियों के परिचालन मुनाफे का एक बड़ा हिस्सा पूंजीगत खर्च और वृद्धि के बजाय ब्याज-लागत अदा करने के मद में चला गया। जाहिर है, अगर कंपनियों की आय में तेजी नहीं आती है तो बैंकों की परेशानी में इजाफा हो सकता है। अर्थशास्त्र के सिद्धांत के मुताबिक ऋण लेने वालों को मुद्रास्फीति से लाभ होता है और देने वालों को नुकसान। मुद्रास्फीति में ऋण लेने वालों के लिए उसे चुकाना आसान होता है। भारत की औसत थोक मूल्य महंगाई सन 1970 से 2010 के बीच के चार दशक में 7.6 प्रतिशत के आसपास रही है, जबकि खुदरा महंगाई आठ प्रतिशत रही है। इस कारण से कारपोरेट्स में कर्ज को चुकाने के मामले में आश्वस्ति का भाव पैदा हुआ और वे कर्ज चुकाने को लेकर लापरवाह हो गए। फिर कुछ कंपनियां जान-बूझ कर ऐसा कर रही हैं। इधर, बैंक-कर्ज को पचाने के लिए कुछ कंपनियों द्वारा खुद को दिवालिया घोषित करने के मामलों में बढ़ोतरी हुई है। कॉरपोरेट्स से उम्मीद की जाती है कि वे आर्थिक सुधार की बुनियाद तैयार करेंगे, लेकिन वे आज स्वयं बैंक कर्ज में डूब गए हैं या डूबने वाले हैं। बहरहाल, वर्तमान माहौल में ऐसी कंपनियों की बैलेंस शीट में सुधार लाना आसान नहीं है, क्योंकि कम मुद्रास्फीति वाले माहौल में ऐसा करना संभव नहीं है। दूसरी तरफ, कॉरपोरेट्स की आय में तेजी नहीं आ रही है, जबकि बैंक-कर्ज की ब्याज-दर लागत लगातार ऊंचे स्तर पर बनी हुई है। अगर मौजूदा माहौल में सुधार नहीं होता है तो उद्योग जगत के लिए पूंजी जुटाना मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि बैंक, मौजूदा समय में उद्योग जगत को कर्ज देने से परहेज कर रहे हैं। ऐसी स्थिति निजी निवेश में इजाफा करने की सरकार की कोशिशों के लिए भी एक बड़ी चुनौती है। विकास के लिए निजी क्षेत्र में निवेश करना आवश्यक है, लेकिन बैंक बढ़ते एनपीए से परेशान होकर उद्योग जगत को कर्ज नहीं देना चाहते हैं, जबकि अर्थव्यवस्था को मजबूत करने और विकास दर में इजाफा करने के लिए आवश्यक है कि बैंक, कंपनियों को कर्ज वितरण में कोताही न बरतें, क्योंकि उद्योग जगत को कर्ज मिलने से ही विनिर्माण क्षेत्र में तेजी, रोजगार में बढ़ोतरी, विविध उत्पादों की बिक्री में तेजी आदि संभव हो सकते हैं। इधर, बैंकों का एनपीए और 'पुनर्गठितÓ कर्ज छह लाख करोड़ रुपए से अधिक हो चुका है। बासेल तृतीय के विविध मानकों को पूरा करने के लिए भी बैंकों को लाखों करोड़ रुपए की जरूरत है। लब्बोलुआब यह कि कंपनियों को कर्ज देने में या उनके कर्ज को पुनर्गठित करने में जिस तरह से बैंक लचीला रुख अपना रहे हैं, उससे नुकसान अंतत: आम आदमी और देश को हो रहा है। ऐसे मामलों में राजनीतिक दलों के हस्तक्षेप के मामले भी देखे जाते हैं, जिससे बैंक गलत कंपनियों को कर्ज देने के लिए मजबूर होते हैं। बुरे कर्ज के कुछ मामलों में आवेदन की जांच-पड़ताल में कोताही एक प्रमुख वजह रहती है। यानी आवेदन से संबंधित परियोजना की व्यावहारिकता और लाभप्रद है या नहीं, इसका ठीक से आकलन किए बगैर कर्ज जारी कर दिया जाता है। कुछ मामलों में भ्रष्टाचार भी एक कारण रहता होगा। पर भ्रष्टाचार के साथ-साथ कर्ज-वसूली में बैंकों तथा सरकार का ढीला-ढाला रवैया भी कॉरपोरेट कर्ज के एनपीए में तब्दील होने का अहम कारण है। एनपीए वसूली नहीं होने या उसमें हो रही देरी के लिए भी ऐसी वजहें जिम्मेवार हैं। उदाहरण के तौर पर माल्या को कर्ज देने में लचीला रुख अपनाया गया और अब उसके एनपीए होने के बाद उसकी वसूली में भी लापरवाही बरती जा रही है, जिसके लिए निश्चित रूप से हमारी मौजूदा प्रणाली दोषी है। राजकोषीय घाटे को पाटने के लिए हर तरह की सबसिडी की सीमा बांधी जा रही है। लेकिन अर्थव्यवस्था की छाती पर एनपीए के रूप में जो सबसे बड़ा बोझ है उससे मुक्ति के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं? एनपीए न सिर्फ बैंकों के लिए, बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदेह हैं। इसके चलते बैंकों के पास कारोबारी पूंजी कम हो जाती है, जिससे कई बहुत अच्छे प्रस्तावों के लिए भी कर्ज देने को उनके पास पर्याप्त रकम नहीं होती। यही नहीं, डूबी रकम की भरपाई के लिए वे नए कर्जों पर ब्याज दर बढ़ा सकते हैं, जिसका खमियाजा ग्राहकों को भुगतना पड़ेगा। 
गंगाजल कब होगा अविरल-निर्मल
डॉ. अरूण जैन

गंगा की सफाई के नाम पर तीन दशकों में करोड़ों के वारे-न्यारे हो चुके हैं। मगर स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ है। कभी गंगा को भारतीय संस्कृति का हिस्सा बताकर तो कभी जीवनरेखा बताकर सभी सरकारों ने इसकी महिमा गाने में कसर नहीं छोड़ी है। निर्मलता और अविरलता का दावा हकीकत में कोरा साबित हो रहा है। क्यों हो रही है इस पावन नदी की दुर्दशा और कौन है जिम्मेदार? न दशकों में गंगा की सफाई के नाम पर तीन हजार करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं। लेकिन गंगा की दशा नहीं सुधरी और इन सालों में गंगा की और भी ज्यादा दुर्दशा हो गई है। 1985 में तबके प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने गंगा सफाई की योजना शुरू की थी। लेकिन इस योजना ने लालफीताशाही के चलते दम तोड़ दिया। केंद्र में भाजपा नीत राजग सरकार आने के डेढ़ साल बाद भी धरातल पर गंगा को साफ करने का कोई काम नहीं दिखाई दे रहा है। एक सर्वे के मुताबिक हरकी पैड़ी हरिद्वार में भी गंगा का जल आचमन करने के लायक नहीं है। एक ओर जहां गंगाजल का तापमान बढ़ा है वहीं दूसरी ओर गंगाजल में ऑक्सीजन की मात्रा घटी है, जो जीवनदायिनी गंगा के लिए तो खतरे की घंटी है ही, साथ ही इंसान और गंगा पर निर्भर जीव-जंतुओं के जीवन के लिए भी खतरे के संकेत हैं। गोमुख से लेकर हरिद्वार तक प्रदूषित पानी के सतहत्तर नाले गंगा और उसकी सहायक नदियों में गिर रहे हैं। ऋषिकेश से हरिद्वार तक 248 आश्रम, होटल और धर्मशालाएं गंगा के किनारे बने हुए हैं। इनकी गंदगी गंगा में जाती है। राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) ने हरिद्वार और ऋषिकेश में पॉलीथीन और प्लॉस्टिक पर पूरी तरह से पाबंदी लगा रखी है। लेकिन स्थानीय प्रशासन की लापरवाही के चलते यहां धड़ल्ले से पॉलीथीन बिक रही है। हरिद्वार और ऋषिकेश में गंगा प्रदूषण नियंत्रण विभाग ने 1985 से लेकर 2010 कुंभ मेले तक गंगा में गिर रहे जितने भी सीवर और गंदे पानी के नाले बंद किए थे, उनमें से अधिकांश आज भी गंगा नदी में गिर रहे हैं। हरिद्वार में 1985 और 2010 के कुंभ मेले में जगजीतपुर में दो जल-मल शोधन संयंत्र 18 एमएलडी और 27 एमएलडी के लगाए गए थे। लेकिन यह संयंत्र गंदा पानी साफ करने की क्षमता खो चुके है। इस समय गंगा में बिना साफ किए 30 एमएलडी सीवर का गंदा पानी रोजाना गंगा में छोड़ा जा रहा है। हरिद्वार में हरकी पैड़ी से उत्तर दिशा की ओर गंगा के ऊपरी भाग में पंतद्वीप पार्किंग का गंदा पानी खुलेआम गंगा में जा रहा है। हरकी पैड़ी से पहले लोकनाथ घाट नाला, कांगडा मंदिर नाला, नाई सोता नाला, नांगों की हवेली का नाला और गऊ घाट नाले से भी रिस-रिसकर गंदा पानी गंगा में गिर रहा है। हरिद्वार में ललतारो पुल और बिड़ला घाट के आसपास बने धर्मशालाओं, होटलों और अवैध बस्तियों का गंदा पानी खुलेआम गंगा में गिरकर जल को प्रदूषित कर रहा है। और यहां गंगा के तट पर जगह-जगह सूअर घूमते हुए नजर आते है। इसके अलावा कनखल में दरिद्र भंजन मंदिर और मातृसदन के पास सीवर के गंदे पानी के नाले खुलेआम गंगा में गिर रहे हैं। मायापुर से लेकर पुल जटवाडा ज्वालापुर तक गंगा नहर में तीन नाले- गोविंदपुरी , कसाई नाला और हरिद्वार औद्योगिक क्षेत्र के मायापुर नाले का रसायनयुक्तयुक्त प्रदूषित पानी गिर रहा है। जिससे सिंचाई के लिए खेतों में जा रहा गंगा जल प्रदूषित हो रहा है। इसका दुष्प्रभाव फसलों पर पड़ रहा है। हरिद्वार में चंडीघाट और बैरागी कैंप के बीच में बने टापुओं में और गोविंदपुरी में गंगा नहर के किनारे बनी अवैध बस्तियों का गंदा पानी गंगा में गिर रहा है। एनजीटी ने हरिद्वार में सत्तरह आश्रमों और बाईस होटलों को गंगा में गंदा पानी डालने पर नोटिस दिया था। इन होटलों और आश्रमों के खिलाफ अब तक जिला प्रशासन ने कोई कार्रवाई नहीं की है। हरिद्वार में एनजीटी के आदेश बेमतलब साबित हो रहे हैं। जिला प्रशासन एनजीटी के आदेशों का पालन कराने में कोई रुचि नहीं दिखा रहा है। जबकि एनजीटी के कमिश्नर एसए जैदी दो दफा हरिद्वार का दौरा कर चुके हैं। जैदी का कहना है कि जिला प्रशासन पर एनजीटी के आदेशों का पालन कराने के लिए सामाजिक संगठनों को दबाव बनाना होगा। एनजीटी ने जनता को गंगा में प्रदूषण फैलाने वालों के खिलाफ एक हथियार दे दिया है। जनता को कानून के दायरे में रहकर उसका प्रयोग करना चाहिए। हरिद्वार में गंगा के किनारे आश्रमों, होटलों और अपार्टमेंट के नाम पर धड़ल्ले से अवैध निर्माण हो रहे है। लेकिन अवैध निर्माणों को रोकने वाली सरकारी एजेंसी हरिद्वार रूडकी विकास प्राधिकरण के अधिकारी हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्यावरण विज्ञान विभाग द्वारा किए गए एक सर्वे के मुताबिक गोमुख से लेकर हर्षिल तक ही गंगा का पानी पीने योग्य है। और देवप्रयाग में गंगा का पानी नहाने और आचमन के लायक है। जबकि ऋषिकेश से हरिद्वार तक गंगा का पानी आचमन के लायक भी नहीं रहा। विश्वविद्यालय के पर्यावरण विज्ञान विभाग के अध्यक्ष रमेश चंद्र शर्मा का कहना है कि गंगोत्री से लेकर हरिद्वार तक और बद्रीनाथ से लेकर देवप्रयाग तक जिस तरह से इन क्षेत्रों में आबादी का दबाव बढ़ा है और शहरीकरण हुआ है, उससे पर्यावरण को बेहद नुकसान पहुंचा है। श्रीनगर गढ़वाल में गंगा की सबसे प्रमुख सहायक अलकनंदा नदी पर बने बांध ने इस नदी के पानी को सबसे ज्यादा प्रदूषित किया है। श्रीनगर के पास कीर्तिनगर में अलकनंदा का पानी नहाने लायक भी नहीं रहा है। उसका बुरा असर गंगा नदी पर भी पड़ रहा है। 'नमामि गंगेÓ कार्यक्रम के तहत केंद्र सरकार की योजना अगले साल जनवरी में हरिद्वार में लगने वाले अर्द्धकुंभ मेले से पहले गंगा का जल बिल्कुल स्वच्छ करने की है। लेकिन, जिस तरह गोमुख से लेकर हरिद्वार तक गंगा में गिर रहे गंदे नालों को रोकने की सरकारी योजना चल रही है, उससे नहीं लगता कि अर्द्धकुंभ तक गंगा साफ हो जाएगी। उत्तराखंड पेयजल निगम (गंगा) के महाप्रबंधक वाईके मिश्रा के मुताबिक इस साल सितंबर में गोमुख से लेकर हरिद्वार तक गंगा में गिर रहे नालों को बंद करने की 502 करोड़ रुपए की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) केंद्र सरकार को राज्य सरकार की तरफ से भेज दी गई थी। लेकिन अब तक केंद्र सरकार की तरफ से इस मामले में कोई मंजूरी नहीं मिली है। मिश्रा का कहना है कि गोमुख से देवप्रयाग तक भागीरथी नदी में, बद्रीनाथ से देवप्रयाग तक गंगा की सबसे बड़ी सहायक नदी अलकनंदा में और देवप्रयाग से हरिद्वार तक गंगा नदी में कुल एक सौ तैंतालीस नाले मिलते है। इनमें से एक सौ पैंतीस नालों में प्रदूषित पानी आता है, जिनमें से अ_ावन नाले जल संस्थान ने बंद करने का दावा किया है। और अब भी सतहत्तर नालों का गंदा पानी सीधे गंगा और उसकी सहायक नदियों में गिरता है। इन 143 नालों में से केवल आठ नालों में ही प्राकृतिक स्रोतों का साफ पानी आता है। जगजीतपुर हरिद्वार में गंगा किनारे सत्तर करोड़ रुपयों की लागत का प्रस्तावित चालीस एमएलडी के जल-मल शोधन संयंत्र (एसटीपी) का काम अभी तक शुरू नहीं हुआ है। उत्तराखंड जल संस्थान अनुरक्षण शाखा (गंगा) के अधिशासी अभियंता अजय कुमार का कहना है कि हरिद्वार शहर के पचहत्तर एमएलडी सीवर के गंदे पानी में से केवल पैंतालीस एमएलडी सीवर के पानी का ही ट्रीटमेंट हो पा रहा है। और तीस एमएलडी सीवर का गंदा पानी गंगा नदी में छोडऩा पड़ रहा है। 1985 और 2010 के कुंभ मेले में गंगा प्रदूषण नियंत्रण इकाई द्वारा हरिद्वार शहर की नालियां और सीवर लाइनें बंद की गई थीं। लेकिन बंद करने के लिए जो तरकीब अपनाई गई, वह कारगर नहीं है। हल्की सी बरसात होने पर इन नालों का गंदा पानी उछल कर सीधे गंगा में जाता है। इंडियन एकेडमी ऑफ एनवायरनमेंट साइंसेज के राष्ट:ीय अध्यक्ष बीडी जोशी के अनुसार पिछले तीस सालों में गंगाजल का तापमान दो डिग्री सेल्शियस बढ़ चुका है। 1985 में गंगाजल का तापमान 12.5 डिग्री सेल्शियस था, जो 2015 में बढकर 14.5 डिग्री सेल्शियस हो गया है। इसी तरह गंगाजल में ऑक्सीजन की मात्रा भी घटी है। गंगाजल में ऑक्सीजन की मात्रा 1985 में 10.8 मिलीग्राम प्रतिलीटर थी जो कि अब घटकर 8.2 मिलीग्राम प्रतिलीटर रह गई है। साथ ही गंगाजल की पारदर्शिता 1985 के मुकाबले 60 फीसद से घटकर 29 फीसद रह गई है। गंगा में भारी मात्रा में कूडा, कचरा और सीवर का पानी डालने से गंगा में टीडीएस की मात्रा 287.8 मिलीग्राम प्रतिलीटर से बढकर 412.7 मिलीग्राम प्रतिलीटर हो गई है। सभी आंकडेÞ बताते है कि अमृत तुल्य गंगाजल के अस्तित्व पर आज संकट के बादल मंडरा रहे हैं। नेशनल एनवायरनमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंन्स्टीट्यूट (नीरी) द्वारा किए गए एक सर्वे के मुताबिक गंगाजल के नमूनों में कोलीफोर्म, फिकल कोलीफार्म, इ-कोलाई और फीकल स्ट्रैप्टोकोकाई नामक नुकसानदेह तत्त्व पाया गया है। जांच में यह तथ्य सामने आया कि गंगा नदी के मैदानी क्षेत्रों में मानव-मल से पैदा होने वाले प्रदूषण की मात्रा काफी ज्यादा बढ़ गई है और गंगा घाटी की इस पट्टी में पित्त की थैली के कैंसर के मामले अन्य स्थानों के मुकाबले ज्यादा पाए गए हैं। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च अपोलो हॉस्पिटल बंग्लुरू (कर्नाटक) के वरिष्ठ सलाहकार और कैंसर विशेषज्ञ पीपी वाप्सी के मुताबिक इन क्षेत्रों में चिकित्सा विज्ञान के विशेषज्ञों की एक समिति गठित कर और ज्यादा तथ्य जुटाने की आवश्यकता है, ताकि इन क्षेत्रों में कैंसर की रोकथाम की जा सके। उत्तराखंड आयुर्वेदिक विश्वविद्यालय के शिक्षक सुनील जोशी का मानना है कि मैदानी क्षेत्रों में सीवर का पानी जिस तेजी के साथ गंगा में मिल रहा है, उससे जलजनित पेट की बीमारियों का तेजी से फैलने का खतरा बढ़ जाता है। पित्त की थैली के साथ-साथ लीवर के कैंसर का भी खतरा पैदा हो जाता है। उन्होंने सुझाव दिया कि गंगा के तट पर नीम, हरड़, बहेड़ा, गूलर, पीपल जैसे पेड़ों को लगाने की जरूरत है, जो गंगाजल को शुद्ध रखने में सहायक होगें। 1985 में गंगा एक्शन प्लान के तहत विद्युत शवदाह गृह, सीवर ट्रीटमेंट प्लांट और नालों को बंद करने सिलसिला शुरू हुआ था, लेकिन बाद में उस तरफ से ध्यान हटा लिया गया। हरिद्वार में बना विद्युत शवदाह गृह कई सालों से बंद पड़ा है। श्रीनगर गढ़वाल में बना जल-मल शोधन संयंत्र कभी ढंग से काम नहीं कर पाया। इन लापरवाहियों की वजह से गंगा एक्शन प्लान ने बीच में ही दम तोड़ दिया। गंगा नदी के नाम पर धर्म और आस्था की दुकान चलाने वाले साधु-संत और मठाधीशों के बड़े-बडेÞ आश्रम और अखाडे गंगा को प्रदूषित करने में पीछे नहीं रहे हैं। गोमुख और बद्रीनाथ से हरिद्वार तक गंगा और अलकनंदा के तट पर बने सैकडों आश्रमों का गंदा पानी सीधे गंगा में जा रहा है। खनन माफियाओं ने खनन के नाम पर किनारे लगे पेड़ों को काट डाला और गंगा का जिस तरह दोहन किया उससे गंगा के अस्तित्व पर ही संकट खड़ा हो गया है। गंगा रक्षा के काम में लगी संस्था मातृसदन के स्वामी शिवानंद सरस्वती का कहना है कि जिस तरह से गंगा में खनन करने के नाम पर गंगा के टापुओं को बर्बाद किया जा रहा है उससे गंगा का वजूद मिटते हुए देर नहीं लगेगी।
नई इबारत लिखने का वक्त

डॉ. अरूण जैन
भारत-पाकिस्तान के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों की जीवन भर वकालत करते रहे चोटी के शायर अहमद फराज का एक शेर है, 'रात नाम लेती नहीं है खत्म होने का, यही तो वक्त है सूरज तेरे निकलने का।Ó भारत-पाकिस्तान संबंधों के हवाले से यह बेहद मौजूं शेर है। मास्को से बारास्ता काबुल स्वदेश वापस आते वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अचानक से लाहौर जाकर प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से मुलाकात करना बहुत कुछ कह गया है। लाहौर हवाई अड्डे पर मोदी-शरीफ गर्मजोशी से गले मिले। यानी अब उन ताकतों को सावधान हो जाना चाहिए जो भारत-पाकिस्तान के आपसी संबंधों में कभी चाशनी घुलते देखना नहीं चाहतीं। भारत-पाकिस्तान संबंधों को लेकर हालिया हलचल संदेश दे रही है कि मोदी-शरीफ वाकई दोनों देशों के दशकों से उलझे हुए मसलों को सुलझाने को लेकर गंभीर हैं। गुफ्तुगू के दौर शुरू हो चुके हैं और इसे जारी रखा जाएगा। अब कश्मीर से लेकर आतंकवाद से जुड़े मसलों पर कोई सहमति बनेगी। आपसी व्यापारिक संबंध बेहतर किए जाएंगे। मोदी अचानक से लाहौर पहुंचे या उनकी यात्रा सुनियोजित थी, इसपर बुद्धिविलास से फर्क ही क्या पड़ता है? नरेंद्र मोदी ने अपने हालिया लाहौर दौरे से अपने पूर्ववर्ती के ख्वाब को सच करके दिखा दिया। मनमोहन सिंह ने 2007 में कहा था कि मेरी चाहत है कि दोनों मुल्कों के लोगों को इस बात की छूट मिले कि वे नाश्ता अमृतसर में करें, लंच लाहौर में और रात की दावत रावलपिंडी में। दरअसल, विदेशमंत्री सुषमा स्वराज की हालिया पाकिस्तान यात्रा संदेश दे गई थी कि भारत-पाकिस्तान संबंधों पर पड़ी बर्फ की चादर जल्द ही पिघलेगी। दोनों मुल्क स्थायी रूप से शत्रु बनकर नहीं रह सकते। बुजुर्गों का पुराना कहना है कि अगर सुख और शांति से रहना चाहते हो तो पड़ोसियों को अच्छा मित्र बनाओ ताकि वे तुम्हारे सुख-दुख में साथ खड़े नजर आएं। अपने शपथग्रहण समारोह में मोदी ने नवाज शरीफ को निमंत्रण देकर एक तरह से अपनी मंशा साफ कर दी थी कि उनकी सरकार पाकिस्तान से सद्भावनापूर्ण संबंध चाहती है। अभी तक दोनों मुल्कों के संबंधों में 'कभी खुशी-कभी गमÓ का भाव रहता है। अब कोशिश यह होनी चाहिए कि दोनों उन अवरोधों को पार करते रहें जो उनके सामने संबंधों को सुधारने के रास्ते में आएंगे। इस लिहाज से पाकिस्तान के सामने बड़ी चुनौती है। वहां पर फौज का असर खासा रहा है। फौज का मूल चरित्र शुरूसे ही घोर भारत-विरोधी रहा है। पाकिस्तान के सेना-प्रमुख आर्मी राहील शरीफ भारत के खिलाफ जहर उगलते रहते हैं। उन्होंने कुछ समय पहले ही जंग की सूरत में भारत को अंजाम भुगतने की चेतावनी दी थी। राहील शरीफ कश्मीर के मसले पर भी टिप्पणी करने से बाज नहीं आते। साफ है कि नवाज शरीफ अगर राहील शरीफ को कसें तो दोनों देशों के संबंधों में मिठास घुल सकती हैं। हालांकि बीते दिनों यह सुनकर अच्छा लगा था कि नवाज शरीफ ने अपने मंत्रियों और सहयोगियों को भारत के खिलाफ गैर-जिम्मेदराना और भड़काऊ बयान देने से बचने के लिए कहा था। पर बेहतर होगा कि राहील शरीफ की जुबान पर ताला लगाएं नवाज शरीफ। राजमोहन गांधी ने अपनी किताब 'पंजाब: ए हिस्ट्री फ्रोम औरंगजेब टु माउंटबेटनÓ में लिखा है कि पाकिस्तान की सेना पर पंजाबियों का वर्चस्व साफ है। उसमें अस्सी फीसद से ज्यादा पंजाबी हैं। ये घोर भारत-विरोधी हैं। इस भावना के मूल में पंजाब में देश के विभाजन के समय हुए खून-खराबे को देखा जा सकता है। शरीफ को पाकिस्तान के हिस्से वाले पंजाब में भारत-विरोधी ताकतों को भी कुचलना होगा। पाकिस्तान का पंजाब इस्लामी कट्टरपन की प्रयोगशाला है। वहां पर हर इंसान अपने को दूसरे से बड़ा कट्टर मुसलमान साबित करने की होड़ में लगा रहता है। हालांकि यह भी सच है कि अब पाकिस्तान में निर्वाचित सरकार गुजरे दौर की तुलना में कहीं ज्यादा शक्तिशाली है। आज के दिन उससे सेना भी पंगा लेने से बचती है। शरीफ ने अपने मंत्रियों को भारत-विरोधी बयानबाजी से बचने की सलाह देकर परोक्ष रूप से सेना को संदेश दे दिया कि अब उसे अनावश्यक रूप से निर्वाचित सरकार के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। इधर, भारत में भी पाकिस्तान विरोधी ताकतों को शांत होना होगा। भारत-पाकिस्तान के संबंधों की तुलना किसी अन्य दो देशों से करना बेमानी होगा। एक ही लोग, एक खान-पान, एक पहनावा, पर गिले-शिकवे हजार। दोनों को एक-दूसरे से शिकायतें हैं तमाम। कश्मीर से लेकर करगिल तथा सर क्रीक के अनसुलझे सवाल। मुंबई में 26/11 के लिए जिम्मेवार लोगों का अभी तक कानूनी शिकंजे से बचे रहना। पर इन गिले-शिकवों के बीच दोनों देशों के अवाम में एक दूसरे को लेकर प्रेम है। गुजरे दौर की कड़वी यादें खत्म हो रही है। एक-दूसरे के साथ मिलने की ख्वाहिश बढ़ रही है। मोदी की पाकिस्तान यात्रा से दोनों पड़ोसी मुल्कों की फिजाओं में मैत्री का रंग और गाढ़ा हुआ है। आम राय यह बन रही है यहां-वहां के कश्मीर को छोड़ कर सियाचिन और सरक्रीक जैसे समाधान-योग्य मुद््दों पर आगे बढऩा चाहिए और द्विपक्षीय व्यापार को बढ़ावा देना चाहिए। एक बात और। मोदी ने काबुल के बाद लाहौर जाकर मानो पाकिस्तान को भरोसा दिला दिया कि उनका देश काबुल को इस्लामाबाद के खिलाफ इस्तेमाल नहीं करेगा। भारत के इस कदम का स्वागत होगा, क्योंकि पूरी दुनिया अफगानिस्तान में तालिबान का सफाया चाहती है। इसके साथ ही अब भारत-पाकिस्तान के व्यापारिक संबंधों में भी नई जान फूंकने की आवश्यकता है। भारत-चीन के बीच जटिल सीमा विवाद के बाद भी व्यापारिक रिश्ते जिस तेजी से कदमताल कर रहे हैं, उसी तरह से भारत-पाकिस्तान के व्यापारिक संबंध भी आगे बढऩे चाहिए। चालू वित्तवर्ष के अप्रैल-दिसंबर के नौ माह में 49.5 अरब डॉलर के द्विपक्षीय व्यापार के साथ चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार देश बन गया है। ये आंकड़े बहुत कुछ कहते हैं। भारत-चीन के व्यापारिक रिश्ते जिस तरह से छलांग लगा रहे हैं, वे उन तमाम देशों के लिए उदाहरण हो सकते हैं जो सीमा विवाद में उलझने के कारण आगे नहीं बढ़ रहे। दरअसल, भारत-चीन का नेतृत्व जन्नत की हकीकत से वाकिफ है। उसे आपसी सहयोग के महत्त्व और लाभ का अहसास है। क्या अब भारत-चीन की तरह भारत-पाकिस्तान संबंध भी मजबूत होंगे? भारत ने पाकिस्तान के साथ व्यापार समझौता करने का प्रस्ताव रखा था और 2016 तक सभी वस्तुओं से शुल्क हटाने का वादा किया था। भारत ने पाकिस्तान को 1996 में ही सर्वाधिक वरीयता प्राप्त देश का दर्जा दे दिया है। यह विश्व व्यापार संगठन का नियम है जिसके तहत देशों को व्यापार में समान नियम लगाना जरूरी है। अब पाकिस्तान को तिजारती संबंधों को गति देने के लिए अलग से ठोस पहल करनी होगी। मोदी उस राज्य से आते हैं जहां के लोग दुनिया भर में अपने कारोबारी मिजाज के लिए जाने जाते हैं। उधर शरीफ भी मूलत: व्यापारी हैं। दोनों नेताओं को मालूम है कि अगर वे पुराने जटिल मसलों को हल करने के रास्ते ही तलाशते रहे तो बात नहीं बनेगी। वक्त आगे बढ़ रहा है, दुनिया आगे बढ़ रही है। आर्थिक सवाल अब ज्यादा खास हो गए हैं। इसलिए वक्त का तकाजा है कि उन्हीं सवालों में से संभावनाओं को तलाशा जाए जिससे कि सरहद के आर-पार रहने वालों की जिंदगी बेहतर हो सके। पाकिस्तानी नेतृत्व समझ रहा है कि कश्मीर तक संवाद को सीमित रखने से देश के सामने खड़े बड़े सवालों के जवाब नहीं खोजे जा सकेंगे। निर्विवाद रूप से दोनों देशों में अमन की राह पर चलने वालों की संख्या बढ़ी है। यह अहसास जोर पकड़ रहा कि इस उपमहाद्वीप में खुशहाली के लिए शांतिपूर्ण माहौल बेहद जरूरी है। जब सैकड़ों साल लड़ाई लडऩे के बाद सारा यूरोप एक हो सकता है, यूरोपीय संघ एक मुद्रा और एक झंडे का इस्तेमाल करने लगा है, तो यह सवाल उठने लगा है कि भारत और पाक अपनी अदावत क्यों नहीं भूल सकते! यहां इस बात का जिक्र जरूरी है कि महान समाजवादी चिंतक डॉ राममनोहर लोहिया और भारतीय जनसंघ के महामंत्री दीनदयाल उपाध्याय ने 1966 में भारत-पाक संघ का प्रस्ताव रखा था, जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मजाक उड़ा कर अस्वीकार कर दिया था। क्या अब दीनदयाल-लोहिया के सपने को पूरा होने का वक्त आ गया है?पाक में बेरोजगारी व महंगाई ने भी सिर उठाया हुआ है। बिजली की सख्त कमी व लोडशेडिंग से जनता बेतरह परेशान है। अगर आप पाकिस्तान के अखबार पढ़ें तो पाएंगे कि वहां पर बिजली की किल्लत उपद्रव का कारण बन रही है। देश की आर्थिक दशा बिल्कुल चरमरा गई है। इस परिप्रेक्ष्य में माना जा सकता है कि दोनों मुल्क आर्थिक क्षेत्र में सहयोग बढ़ाएंगे तो मामला कुछ हद तक पटरी पर जरूर आएगा।
इसमें दो राय नहीं कि भारत-पाकिस्तान के बीच व्यापार में बढ़ोतरी से वे ताकतें मजबूत होंगी जो शांति चाहती हैं और उनको नुकसान होगा जो चरमपंथ के रास्ते पर हैं। बेशक, यह भारत-पाकिस्तान के संबंधों की नई इबारत लिखे जाने का वक्त है।

मोदी सरकार गुपचुप कर रही है राम मंदिर बनाने की तैयारी!


डॉ. अरूण जैन
क्या मोदी सरकार अंदर ही अंदर अयोध्या में राम मंदिर बनाने की तैयारी कर रही है? क्या 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी राम मंदिर के अपने वादे को पूरा करके ही जायेगी? यह सम्भावना उस समय और मजबूत दिखी जब उन्नाव से बीजेपी के सांसद, अयोध्या में विवादित ढांचा विध्वंस के आरोपी और राम जन्म भूमि आंदोलन से जुड़े रहे साक्षी महाराज ने एटा स्थित अपने आश्रम में फिर कहा कि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण बीजेपी के एजेंडे में है और हम 2019 के लोकसभा चुनाव में मंदिर बनाने के बाद ही जायेंगे। उन्नाव के बीजेपी सांसद साक्षी महाराज ने आज एटा में अपने आश्रम में एक बार फिर अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण को अगले लोक सभा चुनाव से पूर्व करवाने की बात कही। उन्होंने कहा कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का मुद्दा 2014 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी के घोषणा पत्र में भी था और उसी के तहत हम 2019 के लोक सभा चुनावों में राम मंदिर के निर्माण के बाद ही जायेंगे। साक्षी महाराज ने कहा कि छोटा ही सही, 1992 में ही कारसेवकों ने अयोध्या में राम मंदिर बना दिया था। उससे पहले अनवरत रूप से कार सेवा पुरम में पत्थर तराशे जा रहे थे। साक्षी ने कहा कि अयोध्या में मंदिर तीन तरह से ही बन सकता है। एक तो न्यायलय से, दूसरा सहमति से और तीसरा सोमनाथ की तरह से लोकसभा में प्रस्ताव पारित करके। उन्होंने कहा कि मध्य   प्रदेश के 6 लाख से अधिक मुसलमानों ने राष्ट्रपति को लिखित में दिया है कि अयोध्या में राम मंदिर बनना चाहिए। उन्होंने कहा कि राम हम सबके पुरखा हैं और पुरखों का सम्मान करना सबका कर्तव्य हैं। उन्होंने कहा कि जब हमने राम मंदिर आंदोलन शुरू किया था तो सभी पार्टियों से समर्थन माँगा था। उसमे केवल बीजेपी ने ही हमारा साथ दिया। 2014 के घोषणा पत्र में भी बीजेपी ने राम मंदिर बनाने की प्रतिबद्धता व्यक्त की थी। आगरा में हुई बीफ पार्टी, जे एन यू मामले और हैदराबाद मामले में उन्होंने कहा कि लगता है कि पूरे इस्लाम को और मुसलमानों को बदनाम करने की भी साजिश है। उन्होंने कहा कि इन सारी गतिविधियों में दो षणयंत्र हैं- एक मोदी सरकार को फेल करने का, विवाद में डालने का और दूसरा हिन्दू मुसलमान को बांटने के लिए पूरे मुस्लिम समुदाय को बदनाम करने का। लेकिन अच्छी बात है कि इस्लाम के धर्माचार्य समझदार हैं और वे खुद ही ऐसी बातों का खंडन कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि आगरा में हुई बीफ पार्टी की मजिस्ट्रेटी जांच में प्रथम दृष्ट्या प्रमाण नहीं मिले हैं परन्तु फिर भी वे मानव संसाधन विकास मंत्री और प्रदेश के राज्यपाल से इस पूरे मामले की जांच की मांग करेंगे। 

Thursday, 14 April 2016

गणतंत्र के हालात पर निर्ममता से नजर डाल लेना जरूरी 

डॉ. अरूण जैन
भारतीय गणतंत्र के 66 साल पूरे करने के साथ ही देश में नवउदारवादी सुधारों के भी 25 बरस पूरे हो गए हैं। इस मौके पर गणतंत्र के हालात पर जरा निर्ममता से नजर डाल लेना जरूरी है। 26 जनवरी, 1950 को जो गणतांत्रिक संविधान स्वीकार किया गया था, उसमें प्रतिष्ठापित मार्गदर्शक सिद्धांत शासन को यह निर्देश देते हैं कि एक ऐसी समाज व्यवस्था, जिसमें राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं में सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय समाया हो सुनिश्चित करके जनता के कल्याण को आगे बढ़ाएं। शासन इसका प्रयत्न करे कि आय की असमानताओं को कम से कम किया जाए...। इस संविधान के अपनाए जाने के बाद गुजरे साढ़े छह दशकों में शासन ने इन मार्गदर्शक सिद्धांतों को त्याग ही दिया है। नवउदारवादी व्यवस्था के अपनाए जाने के बाद से तो असमानताओं को न्यूनतम किए जाने की बजाय पोसा और बढ़ाया जा रहा है। सबसे धनी एक फीसदी भारतीयों के हाथों में इस समय देश की संपदा के 53 फीसदी हिस्से का स्वामित्व है। दूसरी ओर, दुनिया के तमाम गरीबों का पांचवां हिस्सा भारत में ही रहता है। साल 2015 में देश भर में किसानों की आत्महत्याओं में चौंकाने वाली तेजी आई है। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडि़शा व अन्य राज्यों में हजारों किसानों ने आत्महत्या की है। अकेले महाराष्ट्र में 3,228 किसानों की आत्महत्याएं दर्ज हुई हैं, जो वास्तविकता को कम करके दिखाने वाला आंकड़ा है। कृषि संकट के चलते ग्रामीण गरीबों की तादाद बढ़ती ही जा रही है। भारतीय गणतंत्र जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय और संघीय व्यवस्था के हमारे बुनियादी सिद्धांतों पर खड़ा है, हालांकि इनकी अपनी अंतर्निहित सीमाएं भी हैं। उदारीकरण और निजीकरण के बाद गुजरी चौथाई सदी में इन चारों का ही अवमूल्यन हुआ है और उनकी हालत खस्ता नजर आ रही है। आज सत्तातंत्र पर जिन ताकतों का कब्जा है, वे भारतीय राज्य की जितनी भी धर्मनिरपेक्ष अंतर्वस्तु थी, उसे कमजोर करने की कोशिशों में लगी हुई हैं। जनतंत्र का मूलाधार है, धर्म, लिंग या जाति के विभाजन से ऊपर उठकर सभी नागरिकों के अधिकारों की समानता। इसे सिर्फ धर्मनिरपेक्ष राज्य ही सुनिश्चित कर सकता है। हमारे संविधान की एक खासियत यह है कि इसमें सामाजिक भेदभाव और छुआछूत जैसी बुराइयों को दूर करने के लिए सकारात्मक कदमों का प्रावधान किया गया है। यह सामाजिक न्याय की ऐसी परिकल्पना है, जो असमानतापूर्ण जाति व्यवस्था को सुधारवादी तरीके से मिटाना चाहती है। संविधान के स्वीकार किए जाने के साढ़े छह दशक बाद भी हमारे समाज में जातिवादी उत्पीडऩ के विभिन्न रूपों का बोलबाला है, और इनमें छुआछूत की बुराई भी शामिल है। कई लोग इस सिलसिले में हिंदू शास्त्रों की दुहाई देते हैं। भारतीय शासन की सबसे बड़ी विफलता, समाज के सबसे उत्पीडि़त तबके, यानी दलितों को न्याय दिलाने में उसकी विफलता है। पिछले कुछ समय में यह उत्पीडऩ और बढ़ा है। फरीदाबाद में दो दलित बच्चों का जिंदा जलाया जाना और रोहित वेमुला का दुखद अंत, जिसे हैदराबाद विश्वविद्यालय में आत्महत्या करने पर मजबूर कर दिया गया, इस जातिवादी कट्टरता के ही दो उदाहरण हैं। गणतंत्र दिवस से चंद रोज पहले ही उडुपी के पेजावर मठ में एक बहुत बड़े धार्मिक समारोह का आयोजन किया गया था। यहां पर कृष्ण मंदिर में आज भी पंक्ति भेद (ब्राह्मणों तथा अन्य जातियों को भोजन के लिए अलग-अलग पांत में बैठाने) और मडे स्नानम (ब्राह्मणों के आशीर्वाद की आशा से लोगों के उनकी झूठी पत्तलों पर लोटने) जैसे रिवाज चल रहे हैं, जो दलितों तथा निचली जातियों के साथ खुल्लमखुल्ला भेदभाव करते हैं। इस आयोजन में केंद्रीय मंत्रियों, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और कर्नाटक के पूर्व-मुख्यमंत्रियों व कई पूर्व-मंत्रियों ने भी हिस्सा लिया था। लेकिन, उनमें से किसी ने भी इस जातिवादी भेदभाव के बारे में एक शब्द तक नहीं कहा। अब तो शासन बड़े पैमाने पर सार्वजनिक जगत में धार्मिकता को संरक्षण और बढ़ावा देने में जुटा नजर आता है, जबकि देश का संविधान उसे यह जिम्मेदारी सौंपता है कि वह वैज्ञानिक सोच, मानवतावाद, जिज्ञासा व सुधार की भावना विकसित करे। लेकिन इन दिनों इसकी उलटी बातें ही हो रही हैं। सीमित ही सही, मगर हमारे संघीय संविधान में जो भी संघात्मक सिद्धांत मौजूद हैं, उनको भी लगातार कमजोर किया गया और नवउदारवादी निजाम में यह गिरावट और बढ़ गई है। संसाधनों और पूंजी के लिए बाजार ने राज्यों को आपस में होड़ कर रही सत्ताओं में बदलकर रख दिया है। शक्तियों से वंचित और साधनों की कमी के मारे राज्यों को ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया गया है, जहां वे या तो विशेष दर्जा पाने के लिए केंद्र के आगे याचक बने रहते हैं या फिर एक आईआईएम या एक आईआईटी के रूप में केंद्र की कृपा हासिल करने के लिए हाथ फैलाते रहते हैं। योजना आयोग के खात्मे और राष्ट्रीय विकास परिषद के अंत ने राज्यों को और भी ज्यादा केंद्र के रहमोकरम पर निर्भर बना दिया है। नवउदारवादी राजनीति संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था को भीतर से खोखला कर रही है। पूंजीवादी पार्टियों में धन-बल का और पूंजीपति-राजनीतिज्ञ गठजोड़ का बोलबाला है। यह इसकी गारंटी देता है कि चाहे कोई भी सत्ता में आए और चाहे सरकार बदल जाए, नीतियां ज्यों की त्यों बनी रहेंगी। इस तरह, विकल्पों का चुनाव करने में जनता को शक्तिहीन बनाया जा रहा है। भीमराव अंबेडकर ने राजनीतिक समता और सामाजिक-आर्थिक बराबरी का नाता टूटने की जो चेतावनी दी थी, वह सच हो रही है। जनतंत्र को कमजोर किया जाना विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त हो रहा है। मजदूर यूनियन और संगठन बनाने के अधिकार को, जो कि संविधान से मिला एक मौलिक अधिकार है, कतरा जा रहा है। शासन की मिलीभगत से मजदूरों को यूनियन बनाने के अधिकार से वंचित किया जा रहा है और विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) आदि के नाम पर इसे वैधता प्रदान की जा रही है। संविधान में निवारक नजरबंदी के प्रावधान का जो छिद्र है, उसका अंधाधुंध इस्तेमाल करके ऐसे दमनकारी कानून बनाए जा रहे हैं, जो निजी आजादी को सीमित करते हैं। मौजूदा निजाम तो असहमति की आवाजों और अल्पसंख्यकों के विरोध को ही राष्ट्रविरोधी करार दे देता है, इसलिए बेरोक-टोक राजद्रोह के कानून का सहारा लिया जा रहा है। नवउदारवाद और राज्य-प्रायोजित सांप्रदायिकता का योग तानाशाही का रास्ता तैयार कर रहा है। गणतंत्र को सांविधानिक तानाशाही बनाकर रख दिए जाने का खतरा पैदा हो रहा है।

कश्मीरियों के लिए देवदूत बन कर आती रही है सेना 


डॉ. अरूण जैन
अगर आम कश्मीरियों के शब्दों पर जाएं तो सेना के जवान उनके लिए देवदूत से कम नहीं हैं। रही बात आतंकवाद समर्थकों की, तो उनके लिए तो आम कश्मीरी जनता भी दुश्मन है। आखिर आम जनता दुश्मन क्यों न हो, क्योंकि आतंकवाद समर्थकों की मुखबिरी करने में अब कश्मीरी सबसे आगे हैं जिस कारण आतंकवाद को एक हद तक सुरक्षा बल खत्म करने में कामयाब रहे हैं। कश्मीरियों के दिलों में अभी भी सितम्बर 2014 की भीषण बाढ़ के जख्म हरे हैं। अक्तूबर 2005 में आए सदी के सबसे भयंकर भूकंप के निशान उनके सीनों पर हैं। कई बार आए बर्फीले सुनामी से हुई तबाही के निशां देख-देख कर वे आज भी फूट-फूट कर रो देते हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं जिसमें अगर उनके लिए कोई देवदूत बन कर आया था तो वे थे भारतीय सेना के जवान। ज्यादा दूर की बात छोडि़ए, दो दिन पहले ही खराब हुए मौसम में 73 कश्मीरियों को मौत के मुंह से बचाने कन्हैया कुमार नहीं आया था बल्कि सेना के वे जवान आए थे जिन्हें अपने सैंकड़ों साथी कश्मीर में 26 सालों से चल रहे आतंकवाद की बलि बेदी पर कुर्बान कर देने पड़े हैं। यह सच है कि कश्मीर में सैनिकों की कुर्बानियों का आंकड़ा सेना के लिए भी चिंता का कारण है। पर इसके बावजूद सेना ने कश्मीरियों की मदद से अपने हाथ पीछे नहीं खींचे। वर्ष 2014 के सितम्बर महीने में जब कश्मीर में सदी की भीषणतम बाढ़ आई तो सेना की बादामी बाग छावनी भी पूरी तरह से पानी में डूब गई। उनके हथियार और गोला-बारूद भी पानी में चला गया। ऐसे हालात के बावजूद सेना के जवानों ने दिन-रात जाग कर भूखे प्यासे रह कर एक लाख से अधिक कश्मीरियों को सुरक्षित बाहर निकाला था। ऐसी ही हालत 8 अक्तूबर 2005 को भी थे। सौ सालों के बाद पहली बार भीषण भूकंप ने कश्मीर को झकझोर कर रख दिया था। आम नागरिक ही नहीं बल्कि सेना को भी भारी क्षति उठानी पड़ी थी। एलओसी से सटे इलाकों में सबसे ज्यादा नुकसान सेना को हुआ था। बीसियों जवान मारे गए थे। लेकिन सैनिकों ने इस पर दुख या विलाप करने की बजाए नागरिकों को बचाने के कार्य को प्राथमिकता दी थी। यही नहीं सप्लाई लाइन बंद हो जाने के बाद सेना ने नागरिकों के लिए रहने और खाने-पीने की व्यवस्था की थी। ऐसे ही हिचकोले करीब तीन बार बर्फीले सुनामी ने कश्मीर को दिए थे। सेना के बंकर, पोस्टें, इत्यादि बर्फ के नीचे दफन हो गए। पर कश्मीरियों की मदद करने का जज्बा दफन नहीं हो पाया। तभी तो अनंतनाग के वाल्टेंगुनार में सेना के जवानों ने अपनी जान पर खेल कर हजारों कश्मीरियों को बचाया था। तब कश्मीरियों ने सेना के जवानों के लिए एक शब्द का इस्तेमाल किया था: 'मसीहाÓ। यह लेखा-जोखा कुछ बड़ी घटनाओं का था जब सेना के वे जवान कश्मीरियों के लिए देवदूत बन कर आए थे जिन पर कन्हैया कुमार जैसा छुटभैया नेता कश्मीरी महिलाओं से बलात्कार का घिनौना आरोप मढ़ रहे हैं, जबकि आए दिन ऐसी कई घटनाएं जम्मू कश्मीर में होती रहती हैं जब कश्मीरियों के लिए सैनिक 'मसीहाÓ बन कर सामने आते हैं। सिर्फ प्राकृतिक घटनाएं ही नहीं, आतंकवाद के दौरान पाकिस्तान परस्त आतंकवादियों के जुल्मों के शिकार कश्मीरियों के लिए भी सेना मसीहा बन कर ही हमेशा सामने आई है। उसने कभी भेदभाव नहीं किया। तभी तो मरीयम बेगम आज भी सेना के जवानों को दुआएं देती हैं जिसके नाक और कान आतंकियों ने मुखबिर होने के आरोप में काट दिए थे और सेना ने उसे नए नाक और कान दिलवाए थे। इन सबके बीच करगिल की चोटियों पर 1999 के युद्ध में वीर गाथाएं लिखने वाले सैनिकों की दास्तानों को कैसे भुलाया जा सकता है जब उन्होंने विश्व का सबसे खतरनाक और कठिन युद्ध लड़ कर फतह पाई थी और दुनिया के सबसे ऊंचे युद्धस्थल सियाचिन हिमखंड पर तैनात जवानों के जज्बे और हिम्मत को शायद कन्हैया कुमार भी सलामी देने पर मजबूर होगा जो शून्य से 50 डिग्री के नीचे के तापमान में दुश्मन से हमारी रक्षा के लिए खड़े हैं ताकि हिन्दुस्तान में रहने वाले सुख और चैन की नींद सो सकें।

सिंहस्थ के बाद शीत युद्ध में उबाल


डॉ. अरूण जैन
सिंहस्थ को लेकर किवदंतियों का दौर इन दिनों अब चर्चाओं में दिखाई देने लगा है तो वहीं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जिन्होंने गैर कांग्रेसी सरकार के मुखिया होने के नाते लम्बे समय तक प्रदेश की सत्ता पर काबिज होने का जो मिथक तोड़ा है अब भले ही इस मिथक को लेकर तमाम तरह की वाहवाही लूटी जा रही हो यही नहीं सिंहस्थ और उससे जुड़ी किवदंतियों ने भी अब जोर पकड़ लिया है, हालांकि साधु-संतों द्वारा शिवराज को इनसे कुछ राहत दिलाने के उद्देश्य से यह घोषणा भले ही की जा रही हो कि वह सिंहस्थ के बाद प्रदेश की राजनीति में पडऩे वाले असर के मिथक को तोड़कर भी एक इतिहास बनायेंगे लेकिन ऐसा राजनैतिक पर्यवेक्षकों को नजर नहीं आ रहा है और वह यह कहते नजर आ रहे हैं कि भले ही साधु-संत शिवराज को यह तसल्ली दे रहे हों कि सिंहस्थ के बाद वह पद पर काबिज रहेंगे लेकिन मोदी और शिवराज के बीच चल रहे शीत युद्ध को देखकर तो ऐसा नहीं लगता है कि सिंहस्थ को लेकर जो किवदंतियां चर्चित हैं वह बदलती नजर आएंगी, भाजपा से जुड़े सूत्रों के अनुसार मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को जो 2014 के लोकसभा चुनाव के पूर्व भाजपा के कुछ नेताओं ने मोदी के स्थान पर उन्हें प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाने की जो आस जगाई थी अब वह धीरे-धीरे लौ पकडऩे लगी है है हालांकि राजनीतिक फलक पर नरेन्द्र मोदी के द्वारा उन भाजपाई नेताओं को तो धीरे-धीरे हाशिये पर पहुंचा दिया इसके बाद भी शिवराज सिंह की वह इच्छा इन दिनों प्रबल होती दिखाई देने लगी है भाजपा से जुड़े सूत्रों का तो यहां तक दावा है कि मोदी शिवराज के बीच सबकुछ सामान्य है लेकिन वह यह भी कहते नहीं थकते कि स्थितियां इस समय भिन्न दिखाई दे रही हैं और नरेन्द्र मोदी ने राज्य की तमाम केन्द्रीय योजनाओं पर राज्य में अपने स्तर पर मानिटरिंग कराने की योजना बनाकर शिवराज सरकार में चल रहे भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने का प्रयास किया है तो वहीं शिवराज सिंह भी पिछले कुछ दिनों से तमाम अनुष्ठानों और टोटकों के साथ-साथ ज्योतिषियों की राय पर नये-नये टोटके और अनुष्ठानों को अंजाम देने में लगे हुए हैं उससे यह लगता है कि मोदी और शिवराज के बीच चल रहा शीतयुद्ध सिंहस्थ के बाद उसमें कुछ उबाल आएगी और इसकी भनक इन दिनों भाजपा की राजनीति में देखी जा रही है, भाजपा के एक वरिष्ठ नेता के अनुसार शिवराज सिंह मोदी के खिलाफ कब शह और मात का खेल खेलेंगे इसके लिये वह उपयुक्त समय की प्रतीक्षा में हैं। क्योंकि वह अपने उन राजनैतिक आकाओं की सलाह पर सबकुछ नीति अनुसार करने में लगे हुए हैं, सूत्रों का तो यह भी दावा है कि मोदी मंत्रीमण्डल में भले ही सारे सदस्य टीम के मुखिया के होते हैं लेकिन उसमें भी शिवराज सिंह के करीब 14 से अधिक मंत्री मौजूद हैं जो समय आने पर कब क्या कर जाएं यह कुछ कहा नहीं जा सकता है। लेकिन धीरे-धीरे मुख्यमंत्री अपनी राजनीति बिसात अब मध्यप्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे देश में बिछाने की तैयारी में लगे हुए हैं। 
यूपी में प्रशांत किशोर के सहारे मंजिल पाने का प्रयास 
डॉ. अरूण जैन
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस फिर से खड़ा होना चाहती है। इसके लिये 2017 के विधानसभा चुनाव से बेहतर मौका और क्या हो सकता है। वैसे यह पहला प्रयास नहीं है और आखिरी भी नहीं होगा। करीब दो दशकों से यह सिलसिला चला आ रहा है। परम्परागत रूप से किसी भी चुनाव से पूर्व कांग्रेसी वापसी का ढिंढोरा पीटने लगते हैं। यह और बात है कि जब नतीजे आते हैं तो कांग्रेस जीत तो दूर तीसरे/चौथे स्थान पर दिखाई देती है। हर हार के बाद कुछ समय के लिये कांग्रेसी खामोशी की चादर ओढ़ लेते हैं और दिन बीतने के साथ चादर खिसकती जाती है। जब कांग्रेसियों के पास कोई विजन नहीं होता है तो जनता को बार−बार नेहरू−गांधी परिवार की कुर्बानी की याद दिलाकर भावनात्मक रूप से अपने पक्ष में करने का प्रयास किया जाता है। एक समय था उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास जनाधार वाले तमाम नेताओं की लम्बी−चौड़ी फौज हुआ करती थी। नारायण दत्त तिवारी, वीर बहादुर सिंह, लोकपति त्रिपाठी, वासुदेव सिंह, बलदेव सिंह आर्य, सईद्दुल हसन, नरेन्द्र सिंह, राजा अजीत प्रताप सिंह, स्वरूप कुमारी बख्शी, अरूण कुमार सिंह मुन्ना, महावीर प्रसाद, सिब्ते रजी, प्रवीण कुमार शर्मा, सुनील शास्त्री, हुकुम सिंह (अब दोनों भाजपा में), शिव बालक पासी, जफर अली नकवी, दीपक कुमार, मानपाल सिंह, सुखदा मिश्रा जैसे तमाम नेताओं की अपने−अपने इलाकों में तूती बोला करती थी। एक तो इन ताकतवर नेताओं की फौज और उस पर इंदिरा गांधी, राजीव गांधी जैसे नेताओं की सरपरस्ती ने कांग्रेस को कई दशकों तक यूपी में कमजोर नहीं होने दिया, लेकिन इंदिरा और राजीव गांधी की मौत के बाद उत्तर प्रदेश कांग्रेस में सब कुछ तितर−बितर हो गया। न तो कांग्रेस की डूबती नैया को सोनिया गांधी उबार पाईं न ही राहुल गांधी की कोशिशें कामयाब हुईं। नारायण दत्त तिवारी कांग्रेस के आखिरी मुख्यमंत्री साबित हुए जो 1989 तक सीएम की कुर्सी पर विराजमान रहे थे। कांग्रेस में ताकतवर नेताओं की कमी सबको खलती रही, लेकिन इस दौरान कोई नई लीडरशिप नहीं उभरी। चंद नाम जरूर सामने थे, लेकिन यह सर्वमान्य नहीं थे। पूर्व केन्द्रीय मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल, उत्तर प्रदेश कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष डॉ. रीता बहुगुणा जोशी, प्रमोद तिवारी, संजय सिंह, आदित्य जैन, सलमान खुर्शीद, पूर्व नौकरशाह से नेता बने पीएल पुनिया, समाजवादी पार्टी छोड़कर कांग्रेस का दामन थामने वाले बेनी प्रसाद वर्मा, फिल्म अभिनेता से नेता बने राज ब्बर किस किस का नाम गिनाया जाये, कोई भी कांग्रेस को मझधार से नहीं उभार पाया। बात यहीं आकर खत्म नहीं हुई थी, जिस कांग्रेस का सिक्का पूरे देश में चलता था, उस कांग्रेस के दिग्गज नेताओं सोनिया−राहुल गांधी तक को अपनी जीत पक्की करने के लिये समाजवादी पार्टी से वॉकओवर लेना पड़ जाता था। अमेठी और रायबरेली में सोनिया−राहुल की जीत पक्की करने के लिये समाजवादी पार्टी अपना प्रत्याशी नहीं उतारती तो उपकार स्वरूप कांग्रेस नेतृत्व कन्नौज और मैनपुरी में अपना प्रत्याशी नहीं खड़ा करती ताकि मुलायम सिंह परिवार के सदस्य आसानी से अपनी जीत सुनिश्चित कर सकें। यूपी की तरह ही बिहार में भी कांग्रेस और राहुल गांधी नीतिश कुमार और लालू यादव के पिछल्लूग नजर आये। बात ज्यादा पीछे न जाकर 2007 और 2012 के विधान सभा चुनाव, 2009 एवं 2014 के लोकसभा चुनाव के अलावा बीते लगभग चार वर्षों में हुए विधान सभा के उप−चुनाव की कि जाये तो कांग्रेस कहीं भी मुकाबले में नहीं दिखी। उक्त चुनावों और उसमें कांग्रेस की पतली हालत की चर्चा इसलिये हो रही है क्योंकि इन सभी चुनावों में कांग्रेस ने अपने युवराज राहुल गांधी को आगे करके जीत के बड़े−बड़े दावे किये थे। जीत का स्वाद चखने के लिये राहुल गांधी ने दलितों के यहां जाकर कई दिन गुजारे। उनकी झोपड़ी में बैठकर खाना खाया। मच्छरों के बीच चरपाई पर सोये। जिस तरह राहुल ने दलितों को लुभाने के लिये अभियान चलाया था, उसी प्रकार मुसलानों को रिझाने के लिये भी उन्होंने कोई कसर बाकी नहीं रखी थी। मुजफ्फरनगर दंगे हों या फिर दादरी कांड अथवा साम्प्रदायिक हिंसा का और कोई मामला राहुल स्वयं ऐसे मौकों पर गये और एक वर्ग विशेष के साथ एक पक्ष बनकर खड़े रहे। इसके बाद भी हाल ही में सम्पन्न हुए यूपी के पंचायत चुनावों में रायबरेली को छोड़कर कहीं भी कांग्रेस का खाता नहीं खुला। सबसे करारी हार राहुल के अपने लोकसभा क्षेत्र अमेठी में हुई है। इस हार की ठीकरा राहुल गांधी और उनके खास लोगों के सिर पर फूटने से बचाने के लिए टीम राहुल व उनके करीबी लोगों ने यह बहाना बनाना आरम्भ कर दिया है कि पंचायत चुनाव चूंकि सिम्बल पर नहीं लड़े गए थे, इसलिए हार की जिम्मेदारी राहुल गांधी पर डालना नाइंसाफी होगी। हालांकि पार्टी में कई लोग इस तर्क से सहमत नहीं थे। कई जिलों में बेकार उम्मीदवारों के चयन के लिए सीधे तौर पर राहुल के करीबी लोगों पर अंगुलियां उठाई जा रही हैं। कांग्रेस के एक नेता ने कई जिलों की एक सूची बताई जहां पंचायत चुनाव अध्यक्षों की उम्मीदवारी तय करते समय उन जिलों के कांग्रेस कार्यकर्त्ताओं से चर्चा करना तक जरुरी नहीं समझा गया था। टीम राहुल के करीबी लोग कांग्रेस की हार के बचाव में विगत दो दशकों का आंकड़ा देते हुए यह भी तर्क गढ़ रहे हैं कि यूपी में जिसकी सरकार रहती है, उसी पार्टी के लोग ही पंचायत चुनावों में जीतते रहे हैं। कांग्रेस को लगातार पराजय मिल रही है, लेकिन आज भी यूपी में गांधी परिवार की उपस्थिति अमेठी, रायबरेली, इलाहाबाद और थोड़ी−बहुत सुखा प्रभावित बुंदेलखंड आदि इलाकों तक सीमित है। कांग्रेस के पास कोई ऐसा कद्दावर नेता नहीं है जिसे मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट किया जा सके। निर्मल खत्री, मधुसूदन मिस्त्री के सहारे संगठन अगर आगे बढ़ सकता तो कब का बढ़ गया होता। कांग्रेस में सर्वमान्य नेता का अभाव है तो सीएम के नाम पर जब चर्चा होती है तो कांग्रेसियों की सुई प्रियंका वाड्रा के नाम पर अटक जाती है। ऐसी हालत में कांग्रेस 2017 में कैसे वापसी कर सकती है। इसका जवाब लोग राहुल से पूछ रहे थे तो राहुल गांधी किसी परिपक्व नेता की तरह जवाब देने की बजाय प्रशांत किशोर की शरण में चले गये। पहले मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने में और हाल ही में संपन्न हुए बिहार चुनाव में जदयू−राजद−कांग्रेस गठबंधन की जीत में अहम भूमिका निभाने वाले राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर राहुल की मर्जी के अनुसार अब यूपी चुनावों में कांग्रेस की कमान संभालेंगे। हाल ही में नई दिल्ली में यूपी चुनावों को लेकर कांग्रेस की बैठक में जब प्रशांत किशोर दिखाई दिये तो सियासी प्याले में उफान आ गया। बाद में पता चला कि प्रशांत किशोर के कंधों पर राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की जिम्मेदारी डाली है। पिछले करीब तीन दशकों से कांग्रेसी यूपी में सत्ता का स्वाद चखना तो दूर दो अंकों से आगे नहीं बढ़ पाये लेकिन प्रशांत किशोर का साथ मिलते ही कांग्रेसी 2017 के चुनाव में भाजपा, सपा और बसपा को चारों खाने चित कर देने का दावा करने लगे हैं।