विश्व बाजार में हम कहां
डॉ. अरूण जैन
सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद विश्व बाजार में हमारा निर्यात लगातार घटता जा रहा है। वैश्विक औद्योगिक क्रांति के पहले विश्व व्यापार में भारत का योगदान पच्चीस फीसद था। यह ब्रिटिश शासन में गिर कर तेरह फीसद हो गया। आजादी के बाद यह तीन फीसद था और आज यह एक फीसद के आसपास है। अगर चालू वित्तवर्ष में निर्यात में गिरावट जारी रही तो लगातार दूसरे साल गिरावट होगी। आमतौर पर यह माना जाता है कि देश की मुद्रा की कीमत कम हो तो निर्यात में उससे मदद मिलती है। विडंबना यह है कि एक तरफ रुपए का रिकार्ड अवमूल्यन भी हुआ है और दूसरी तरफ निर्यात बढऩे के बजाय लुढ़कता गया है। वैश्विक मंदी के कारण विश्व व्यापार की चुनौतियां बढ़ी हैं। अलबत्ताजूट के सामानों, मसालों, हस्तशिल्प, चाय, फलों व सब्जियों के निर्यात में वृद्धि दर अच्छी रही है। यह ठीक है कि दुनिया का कोई भी देश आज वैश्वीकरण से अलग-थलग नहीं रह सकता। भारत भी वैश्विक अर्थव्यवस्था का एक भाग बन गया है। पर किसी भी प्रकार के आर्थिक सुधार लागू किए जाने पर, जिसमें व्यापारिक सुधार भी शामिल है, कुछ लोगों को उससे लाभ होगा तो कुछ को हानि। पर इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि कोई ऐसा हल नहीं हो सकता जिसमें सुधारों से फायदा हो। आर्थिक उदारीकरण के लगभग पच्चीस साल के सफर में भारत ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। आज हमारा देश दुनिया की तेजी से उभरती हुई आर्थिक शक्तियों में गिना जाता है। एक नए मध्य वर्ग का उदय हुआ है। लेकिन महंगाई और बेरोजगारी भी बढ़ी है। अत: यह सवाल भी उठा है कि क्या हमें अपनी नीतियों का फिर से मूल्यांकन करना चाहिए। लगातार आठ फीसद की विकास दर हासिल करने के बाद अब इसमें गिरावट का सिलसिला शुरू हो गया है। गरीबी और अमीरी की खाई बढ़ी है। सामाजिक असंतुलन के कारण नक्सली हिंसा का विस्तार हुआ है। काले धन की भी तेजी से वृद्धि हुई है। आर्थिक सुधार की नीतियों से कॉरपोरेट घराने और मालामाल हुए हैं। लेकिन अब औद्योगिक उत्पादन में गिरावट हो रही है और हमारा विदेश व्यापार का घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है। मांग में कमी से औद्योगिक उत्पादन गिर रहा है। सरकार ने कई नए कार्यक्रम शुरू किए हैं, पर अभी उनके नतीजे नही आए हैं। वास्तव में आर्थिक सुधार और विश्व व्यापार संगठन के समझौतों से उत्पन्न चुनौतियों के संदर्भ में यह आवश्यक हो गया है कि हम सारा ध्यान प्रतिस्पर्धा के मंत्र पर केंद्रित करें। इस प्रतिस्पर्धा में ऐसे कुछ सुरक्षात्मक कदम हमें जरूर उठाने चाहिए ताकि उनसे इस प्रतिस्पर्धा में हमारा अस्तित्व भी कायम रह सके और राष्ट्र का विकास भी हो। इसके लिए राष्ट्रीय लक्ष्य विशुद्ध लाभ का निर्धारित करें और क्षतिपूर्ति के कुछ ऐसे तरीके अपनाएं ताकि जिन लोगों को नुकसान हुआ हो, उन लोगों को क्षति की आवश्यक पूर्ति हो। घरेलू आर्थिक सुधार व बहुपक्षीय बातचीत उस सीमा तक जारी रखना चाहिए जहां तक राष्ट्रीय शुद्ध लाभ के सकारात्मक होने की स्थिति हो। आर्थिक सुधारों के लिए अधिकांश जनता का समर्थन कायम रखने की खातिरउन लोगों की क्षति की पूर्ति करने का हमें ध्यान रखना होगा जिन्हें उक्त सुधारों के कारण नुकसान हुआ है। उक्त क्षतिपूर्ति के लिए कुछ तरीके निकालने पड़ेंगे, जैसे पुन: प्रशिक्षण, शीघ्रता से दूसरे काम दिलवाने की सुनिश्चितता, नया व्यापार करने के लिए वित्तीय सहायता आदि। उद्योगों को अपने ढांचे व कार्यप्रणाली में भारी और मूलभूत परिवर्तन करने होंगे। अपने उत्पाद में गुणात्मक वृद्धि, विक्रय की गतिविधि में कार्यकुशलता, ऊर्जा प्रबंध और बाजार पहुंच के बीच ठहरने के लिए लागत कम करने आदि की आवश्यकता होगी। विकास दर में बढ़ोतरी के साथ-साथ महंगाई को काबू में रखने के लिए ठोस और दीर्घकालिक प्रयासों की जरूरत है। हमारी व्यापारिक नीति का अन्य नीतियों के साथ तालमेल होना निहायत जरूरी है, क्योंकि व्यापार एक ऐसा शक्तिशाली घटक है जो यदि अच्छी तरह से प्रबंधित किया जाए, तो उससे कई वर्गों व क्षेत्रों को लाभ हो सकता है। जरूरत इस बात की है कि विभिन्न घटकों जैसे सरकार, बाजार और अन्य संस्थाओं के बीच सही तथा उचित संतुलन हो और जिसमें किसी भी सहभागी घटक के हितों की अनदेखी न हो अर्थात वह सभी सहभागी घटकों के हितों में हो। पर इसके लिए पहले प्रणाली के सभी अंगों की खोजपूर्ण व्याख्या करनी पड़ेगी और प्रणालीगत कमजोरियों व अपर्याप्तताओं को पहचान कर उन्हें दुरुस्त करना पड़ेगा तथा शासन के आधार स्तंभों को पारदर्शी और न्यायोचित बनाना होगा। सुशासन के जरिए ही हम अपने उत्पाद को बेहतर बना कर दुनिया के बाजार का लाभ उठा सकते हैं। उदारीकरण के बारे में विवाद का एक बड़ा विषय है- उदारीकरण के नकारात्मक प्रभावों का प्रतिकार करने की सरकार की क्षमता। भारत जैसा देश मूलत: नौकरशाही के भरोसे चलता है। ऐसी नौकरशाही जिसमें अधिकांशत; स्वार्थपरक नौकरशाह हैं। ऐसी स्थिति में ऐसा नहीं लगता कि यह नौकरशाही भारत की अर्थव्यवस्था को विश्व की निरंतर बदलती हुई अर्थव्यवस्था के अनुरूप कोई आकार, बिना सरकार की भागीदारी के दे सकती हो। अत: आवश्यकता इस बात की है कि सरकार शासन करने की अपनी शैली को इस सीमा तक बदले कि निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों के बीच में कुछ ऐसी ऊर्जा व गति आए जिससे यह सुनिश्चित हो जाए कि बाजारी प्रक्रियाएं भ्रमित नहीं होंगी और दोनों क्षेत्र मोटे रूप में अपने सामाजिक दायित्व का निरंतर निर्वहन करते रहेंगे। पहले उदारीकरण में सरकारी भूमिका प्रमुख रहती थी और निजी क्षेत्र उसमें मात्र पूरक का काम करता था, पर अब शायद स्थिति विपरीत हो चुकी है। मसलन, मूलभूत सुविधाओं के क्षेत्र में सरकारी भूमिका अपरिहार्य है और निजी क्षेत्र सड़कों और पुल आदि बनाने में बहुत अधिक निवेश करने से हमेशा कतराएगा, क्योंकि इन सार्वजनिक संपत्तियों का सीधे मूल्य निर्धारण नहीं हो सकता है। कुछ लोगों की सोच यह है कि सरकार यदि असफल होती है तो बाजार निश्चित रूप से सफल होगा और इसके विपरीत यदि सरकार सफल होती है तो बाजार असफल होगा। यह धारणा रखना गलत है। आज तक किसी भी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था ने इस प्रकार के तार्किक संबंध की अनुभूति नहीं की है। दरअसल, सरकार को तो अपनी अर्थव्यवस्था में निजी निवेश की प्रक्रिया का रास्ता सहज व सुविधाजनक कर देना चाहिए और इस प्रकार एक उत्पादककी भूमिका निभाने के बजाय एक नियंत्रक की भूमिका निभानी चाहिए। पिछले अनुभवों के आधार पर और भविष्य में सुधार और पहल किए जाने के संकेतों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि भूमंडलीकरण से गरीबों के जीवन-स्तर में कोई विशेष प्रगति नहीं हुई है। पर केवल इस कारण से भूमंडलीकरण की प्रक्रिया पर प्रश्नचिह्न लगाना विवेकपूर्ण व उचित नहीं होगा, क्योंकि भूमंडलीकरण के नतीजों के सकारात्मक होने के लिए एक शर्त बहुत जरूरी होगी कि देश उपलब्ध अवसरों का पूरा-पूरा फायदा उठाए और उचित सुरक्षात्मक उपाय काम में लेते हुए नियंत्रणों या प्रतिबंधों से तालमेल रख कर कार्य करे। किसी भी देश के विकास के प्रभाव का वास्तविक मापदंड आम आदमी की मूलभूत आवश्यकताओं को उपलब्ध करवाना है। पर हमारे यहां इसके लिए कोई विशिष्ट रणनीति नहीं अपनाई गई है। इसका संभावित कारण यह है कि हमारा उदारीकरण प्रतिक्रियात्मक उदारीकरण है, न कि क्रियात्मक और सुनियोजित उदारीकरण। अत; आवश्यकता इस बात की है कि भूमंडलीकरण व सुधारों के प्रति जो हमारा वर्तमान में रुख है वह बदले और ये सुधार हमारी आवश्यकताओं और हितों के अनुरूप हमारी अपनी शर्तों पर ही हों। उदारीकरण को हम कृषि आधारित और जनाधार से प्रेरित उदारीकरण बनाएं, न कि मात्र कंपनी और व्यापार आधारित उदारीकरण। यह भी सही है कि भूमंडलीकरण के लिए अक्सर यह कहा जाता है कि वह अमीर और गरीब के बीच की खाई को और बढ़ाता है। पर इस प्रश्न का उत्तर इस बात पर निर्भर करता है कि आप किस तरह की गरीबी की बात कर रहे हैं। जहां तक भारत का प्रश्न है उसकी प्राथमिकता गरीबी का उन्मूलन है। वह गरीबी जो मौत से भी बदतर है। इसलिए यदि भारत कोशिश करे तो भूमंडलीकरण के जरिए इस गरीबी से पीछा छुड़ा सकता है। पर इस समय जैसी स्थिति है उससे नहीं लगता कि वर्तमान सरकारी शैली व प्रणाली के रहते भारत भूमंडलीकरण का पूरा लाभ उठा सकता है। भूमंडलीकरण का पूरा लाभ उठाने के लिए भारत को प्रशासन के स्तर पर सुधार लाने होंगे। सरकारी संरक्षण कम करने होंगे तथा भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में और अधिक भागीदारी निभाने के साथ-साथ सरकार यदि उचित वातावरण व समुचित मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराएगी तो ही भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में लाभ अर्जित होंगे, जैसे उसे कम कीमत पर सही मात्रा में सही गुणात्मकता की बिजली उपलब्ध करानी होगी। मूलभूत सुविधाएं मसलन संचार माध्यम, सड़कें, परिवहन, बंदरगाह आदि उपलब्ध कराना पड़ेगा। श्रम बाजार को लचीला बनाना पड़ेगा ताकि बिना शोषण उचित मूल्य पर समुचित व सही प्रकार के कामगार उपलब्ध हो सकें, नौकरशाही के तंत्र को कसना पड़ेगा, उनका नजरिया बदलना पडेÞगा व उन्हें अनुशासित करना पड़ेगा। उनको यह सिखाना पड़ेगा कि वे लोक सेवक हैं और जनहित के प्रति उनका सीधा उत्तरदायित्व है। भ्रष्टाचार के इस वातावरण में भ्रष्ट अधिकारी भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया में बाधक सिद्ध होते हैं। अत; भ्रष्ट अधिकारियों से सतर्क रहने के लिए सरकार को प्रभावी प्रणाली निर्मित करनी पड़ेगी। पूरी प्रशासनिक व्यवस्था पारदर्शी, न्यायोचित और जवाबदेह बनाई जानी चाहिए।
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