Tuesday, 15 August 2017

शालीनता छोड़ते ही कहाँ से कहाँ पहुँच गये अखिलेश यादव

डॉ. अरूण जैन
अखिलेश यादव शालीन छवि के कारण विशिष्ट पहचान रखते थे। इसका उन्हें लाभ भी मिला था। 2012 के विधानसभा चुनाव में उनके नेतृत्व ने सपा में परिवर्तन का विश्वास जगाया था। मुख्यमंत्री बनने के बाद भी उन्होंने अपनी इस छवि को कायम रखा था। लेकिन सत्ता जाने के बाद से अखिलेश बदले−बदले से नजर आने लगे हैं। पहले वह पत्रकार वार्ता में ऐसे नाराज नहीं होते थे, पहले वह किसी ज्वलंत प्रश्न से बच निकलने का प्रयास नहीं करते थे। उल्लेखनीय है कि हाल ही में अखिलेश एक पत्रकार के प्रश्न पर झुंझला गए थे। पत्रकार ने शिवपाल सिंह यादव की टिप्पणी को लेकर प्रश्न किया था। जवाब देना−ना देना किसी नेता की मर्जी होती है, यह उसका अधिकार भी होता है। इसी प्रकार पत्रकार वार्ता में आमंत्रित किए गए पत्रकार को भी प्रश्न पूछने का अधिकार होता है। जवाब ना मिले, यह अलग बात है। लेकिन इसका प्रश्नकर्ता पत्रकार की कमीज के रंग से कोई लेना−देना नहीं हो सकता। पहले अखिलेश किसी के कपड़ों या उसके रंग पर कोई टिप्पणी नहीं करते थे। यह परिवर्तन भी कुछ समय से दिखाई दे रहा है। इस प्रकरण में अखिलेश के व्यवहार में बदलाव व पत्रकार द्वारा पूछे गए प्रश्न पर विचार करना आवश्यक है। यह सही है कि अखिलेश से पहले सपा के नेताओं की अलग छवि बनी थी। इसमें शालीनता की खास अपेक्षा नहीं होती थी। उस समय सपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी बसपा ही थी। बसपा प्रमुख मायावती व सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव पत्रकार वार्ता में किस पर बरस जाएं कोई नहीं जानता था। अखिलेश ने इस धारणा को बदला था। मुख्यमंत्री व पार्टी प्रदेश अध्यक्ष होने के बाद भी वह प्रश्नों का सहजता व सौम्यता से जवाब देते थे। लेकिन यह मानना होगा कि चुनाव के कुछ महीने पहले शुरू हुई पारिवारिक कलह का उनके आचरण पर गहरा प्रभाव पड़ा। लखनऊ के जनेश्वर मिश्र पार्क में पार्टी के आपात अधिवेशन को मील के पत्थर की भांति देखा जा सकता है। यह सब राम गोपाल यादव की रणनीति के तहत हुआ था। इसमें कुछ ही मिनटों में अप्रत्याशित प्रस्ताव पारित हुए। संस्थापक मुलायम सिंह यादव राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटा दिए गए। उनकी जगह अखिलेश यादव की संगठन के शीर्ष पद पर ताजपोशी हो गयी। शिवपाल सिंह को मंत्री पद से पहले ही हटा दिया गया था, बाद में प्रदेश अध्यक्ष पद से भी मुक्त कर दिया गया। इस घटना के बाद से कहीं ना कहीं अखिलेश का व्यवहार बदलना शुरू हुआ था। उनमें पहले वाली सौम्यता की कमी देखी गयी। रामगोपाल की बात अलग थी। अखिलेश तो मुलायम के पुत्र हैं। मुलायम ने उन्हें लोकसभा सदस्य बनाया, अपने सामने ही राजनीतिक विरासत सौंप दी। क्षेत्रीय दलों में मुख्यमंत्री से बड़ा कोई पद नहीं होता। मुलायम ने अखिलेश की उसी पर ताजपोशी की थी। इसके फौरन बाद पार्टी प्रदेश अध्यक्ष की कमान भी सौंप दी। जब ऐसे मुलायम सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से अपदस्थ करने का प्रस्ताव आया होगा, तो सबसे गहरा मनोवैज्ञानिक असर अखिलेश पर ही पड़ा होगा। इस तथ्य का अनुभव उनके अलावा वहां मौजूद कोई अन्य व्यक्ति नहीं कर सकता था। इसे केवल पिता मुलायम व पुत्र अखिलेश ही समझ और महसूस कर सकते हैं। इस घटना के बाद अखिलेश के बयान, व्यवहार सभी में बदलाव दिखने लगा था। कांग्रेस के साथ गठबन्धन का फैसला दूसरा मील का पत्थर था। इसके बाद अखिलेश ने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के साथ जनसभायें व रोड शो किए। फिर मनोवैज्ञानिक फर्क देखिए। इसके पहले अखिलेश किसी के कपड़ों पर कोई टिप्पणी नहीं करते थे जबकि राहुल गांधी का यह प्रिय विषय था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सूट क्या पहना राहुल उनके पीछे पड़ गए। करीब दो वर्ष तक वह सूट−बूट की सरकार रटते रहे। जब लोगों ने इस ओर ध्यान देना ही बन्द कर दिया, तब राहुल किसी तरह रुके। फिर उन्होंने मोदी के कुर्तों पर तंज करना शुरू किया। शायद यह संगत का असर होगा। अखिलेश भी कपड़ों पर टिप्पणी करने लगे। कुछ दिन पहले पत्रकार वार्ता में उन्होंने कपड़ों पर पूरा बयान दिया था। कहा था कि हम लोग सफेद कुर्ता पायजामा पहन कर काम चला लेते हैं। अब दिन के हिसाब से कुर्ते का रंग बदलना होगा, तब हिन्दू माने जाएंगे। इसके बाद पत्रकार वार्ता में परिवार पर प्रश्न करने वाले की कमीज के रंग को देखकर भड़क गए। भगवा रंग की कमीज पर तंज कसने लगे। यह क्यों ना माना जाये कि यह राहुल गांधी के साथ रहने का प्रभाव था। चुनाव प्रचार में भी अखिलेश ने गुजरात के गधे, इतना झूठ बोलने वाला प्रधानमंत्री नहीं देखा, आदि अनेक बयान दिए। आपात अधिवेशन से पहले अखिलेश ऐसे बयान नहीं देते थे।
 अखिलेश को पहले शालीनता का लाभ मिला था। इससे हटने के बाद वह कहां हैं, इस पर उन्हें स्वयं विचार करना चाहिए। अब पत्रकार द्वारा पूछे गए प्रश्न पर विचार कीजिए। उसने शिवपाल सिंह यादव के कथन पर प्रश्न पूछा था। दोनों को मिलाकर देखें तो साफ होगा कि अखिलेश ने शिवपाल के प्रति नाराजगी उस पत्रकार पर उतार दी। इसे वह उसकी कमीज के रंग तक ले गए। शिवपाल ने अखिलेश से वादा निभाने को कहा था। गौरतलब है कि अखिलेश ने कहा था कि वह चुनाव बाद पार्टी मुलायम सिंह यादव को सौंप देंगे। उन्होंने तीन महीने का समय मांगा था। शिवपाल बताना चाहते थे, कि यह अवधि पूरी हो गयी है। अखिलेश इस बात का जवाब दे सकते थे, इन्कार भी कर सकते थे। एक लाइन या एक दो शब्द में काम चल जाता। लेकिन अखिलेश जवाब की जगह अन्य बातों पर बोले। कहा कि एक दिन तक कर लो जब परिवार पर बात हो, फिर भगवा रंग पर बोले। जबकि यह सब निरर्थक बातें थीं। बात केवल परिवार की आन्तरिक कलह तक सीमित होती, तो अलग बात थी। यहां मुख्य विपक्षी दल की जिम्मेदारियों के निर्वाह की भी बात है। 47 विधायकों वाली पार्टी में शिवपाल भी शामिल हैं, देर सबेर उनकी बात का जवाब तो देना होगा। भले ही उन्हें पार्टी से निकाल दिया जाये। ऐसी बातें जब−जब उठेंगी, तब प्रश्न भी होंगे। यह एक दिन का मसला नहीं हो सकता। देश में किसी ने नहीं कहा कि हिन्दू होने के लिए अलग-अलग रंग के कपड़े पहनना जरूरी है। इसी प्रकार भगवा रंग भाजपा का नहीं है। कितने भगवा धारी सन्त-साधू हैं, जिनका भाजपा से कोई लेना−देना नहीं। ऐसे में कपड़ों के रंग व धर्म पर टिप्पणी करना आपत्तिजनक है। ऐसी बातें अखिलेश की छवि को नुकसान पहुंचाने वाली साबित होंगी।

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