श्वेत क्रांति पर मंडराता संकट
डॉ. अरूण जैन
जिस प्रकार आयातित खाद्य तेल ने सरसों के तेल को रसोईघरों से खदेड़ दिया, उसी प्रकार की घटना देश के करोड़ों दूधियों के साथ घटने वाली है। बहुराष्ट्रीय डेयरी कंपनियां अपने दुग्ध उत्पादों को भारतीय बाजार में डंप करने के लिए उदारीकरण का सहारा ले रही हैं। इसे रोकने के लिए हाल ही में सरकार ने मक्खन, घी और बटर ऑयल पर आयात शुल्क तीस फीसद से बढ़ा कर चालीस फीसद कर दिया। सरकार ने यह कदम अंतरराष्ट्रीय बाजार में मक्खन, घी और बटर ऑयल के दामों में आई भारी गिरावट को देखते हुए उठाया है। जब शहरों के अधिकतर लोग, रात ढलने के बावजूद, बिस्तरों में ही दुबके रहते हैं, तभी साइकिल या मोटरसाइकिल पर लदी दूधियों की बाल्टियों की खटखटाहट सुनाई देने लगती है। लेकिन अब कदम-कदम पर मुनाफा कमाने में माहिर बहुराष्ट्रीय डेयरी कंपनियां दूधियों को खदेडऩे की साजिश में जुट गई हैं। अमेरिका और यूरोप में भले ही डेयरी उद्योग पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का नियंत्रण है, विकासशील देशों में दूध उत्पादन के अधिकांश हिस्से पर अब भी असंगठित क्षेत्र का कब्जा है। भारत में करोड़ों परिवार दूध उत्पादन से बिक्री तक के कारोबार में लगे हैं। देश की बहत्तर फीसद गायों, पचासी फीसद भैंसों का मालिकाना हक लघु और सीमांत किसानों और भूमिहीन श्रमिकों के पास है। इस पशुधन की उत्पादकता में बढ़ोतरी प्रत्यक्ष रूप से गरीबी उन्मूलन में सहायक होती है। क्योंकि दूध और दूध उत्पादों की बिक्री से होने वाले मुनाफे में इन सबका हिस्सा होता है। इनके लिए डेयरी व्यापार नहीं, रोजी-रोटी का साधन है। दुग्ध उद्योग का सबसे सकारात्मक पहलू यह है कि इससे समाज के अकुशल लोगों, विशेषकर महिलाओं की स्थिति में सुधार होता है। डेयरी ने देश के लाखों परिवारों को गरीबी के दलदल से निकालने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एनडीडीबी) की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक 2013-14 में देश का दूध उत्पादन चौदह करोड़ टन के आंकड़े को पार कर गया है, जो कि वैश्विक उत्पादन का सत्रह फीसद है। इस प्रकार दूध उत्पादन के मामले में भारत दुनिया में पहले नंबर पर है। दुनिया में सबसे ज्यादा दूध पैदा करने के बावजूद विश्व के डेयरी व्यापार में हमारा दूध पाउडर और मक्खन बहुत कम जा पाता है। क्योंकि यहां ताजा दूध की खपत अधिक होती है। फिर देश में दूध प्रसंस्करण सुविधाओं की भी कमी है। लेकिन विकसित देशों में स्थिति ठीक उलटी है। उदाहरण के लिए, हर साल 1.2 करोड़ टन दूध पैदा करने वाला न्यूजीलैंड पैंतालीस लाख टन दूध पाउडर निर्यात करता है। दरअसल, विकसित देशों में एक तो आबादी कम है, दूसरे मांसाहार से मिली चिकनाई ने वहां हृदय रोगों की समस्या इतनी बढ़ा दी है कि लोग दूध-मक्खन कम ही लेते हैं। खरीदार न मिलने का ही परिणाम है कि अमेरिका, यूरोप, आस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड में दूध पाउडर और मक्खन के पहाड़ खड़े हो गए हैं। यही कारण है कि यहां की डेयरी कंपनियां विकासशील देशों के विशाल बाजारों पर आंख गड़ाए हुए हैं। इन कंपनियों की राह आसान करने के लिए विश्व व्यापार संगठन के प्रावधानों और मुक्त व्यापार समझौतों का सहारा लिया जा रहा है। दुग्ध उत्पादों का सस्ता आयात न सिर्फ घरेलू डेयरी व्यवसाय को तहस-नहस कर देता है, बल्कि डेयरी उद्योग को विकसित भी नहीं होने देता। उदाहरण के लिए, कई अफ्रीकी देश आयातित दुग्ध पाउडर पर निर्भर हैं और आयात प्रतिस्पर्धा के बीच वे अपने यहां स्वस्थ डेयरी उद्योग विकसित कर पाने में नाकाम रहे। अगर किसी ऐसी वस्तु का सस्ता आयात हो जिसकी उपलब्धता हमारे देश में न हो तो वह फायदेमंद होता है। मगर ऐसी चीज का सस्ता आयात, जिसका उत्पादन हमारे देश में होता हो, अगर आवश्यकता की पूर्ति में सहायक होने से अधिक हो, तो वह संबंधित वस्तु के उत्पादकों के लिए नुकसानदेह ही साबित होता है। मसलन, दक्षिण पूर्व एशिया के साथ हुए मुक्त व्यापार समझौतों के तहत खाद्य तेल के आयात ने हमारे तिलहन उत्पादकों के हितों पर बहुत बुरा असर डाला है। यह अलग बात है कि उदारीकरण के पैरोकार मुक्त व्यापार समझौतों के ऐसे नतीजों की तरफ से आंख मूंदे हुए हैं। भारत सरकार यूरोपीय संघ के साथ जिस मुक्त व्यापार समझौते पर सहमति की दिशा में आगे बढ़ रही है वह पिछले चार दशक से सफलतापूर्वक काम कर रहे अमूल मॉडल को नुकसान पहुंचा सकता है। गौरतलब है कि अमूल मॉडल की सफलता में लंबे-चौड़े क्षेत्र में फैले किसानों द्वारा उत्पादित कच्चे दूध की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। इनमें से कई किसान तो ऐसे हैं, जो महज कुछ लीटर दूध ही समिति को देते हैं। इस दूध की न केवल तमाम शहरी क्षेत्रों में सही तरीके से मार्केटिंग की गई, बल्कि इसे मक्खन और आइसक्रीम जैसे मूल्यवर्धित उत्पादों में भी बदला गया। उपभोक्ताओं द्वारा चुकाए जाने वाले पैसे में किसान को अच्छी-खासी हिस्सेदारी मिलती है जिसका मुकाबला निजी कारोबारी नहीं कर सकते। स्पष्ट है कि सहकारी समितियों ने न केवल दुग्ध क्रांति को जन्म दिया, बल्कि उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों की गरीबी कम करने में भी मदद की। अगर मुक्त व्यापार समझौते के जरिए देश में दूध और दुग्ध उत्पादों का आयात बढ़ता है तो यह सफल स्वदेशी मॉडल बिखर जाएगा। यह खतरा भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के छोटे दुग्ध उत्पादकों पर मंडरा रहा है। गौरतलब है कि आज दुनिया का आधा दूध असंगठित क्षेत्र से आता है। विकासशील देशों में तो यह अनुपात अस्सी फीसद तक है। विकसित देशों की दिग्गज डेयरी कंपनियां इस बात से वाकिफ हैं कि दूधियों के नेटवर्क को तोड़े बिना विकासशील देशों में पैठ बनाना मुश्किल है। इसीलिए ये कंपनियां प्रचार अभियान चला कर दरवाजे तक आने वाले इस ताजे दूध को असुरक्षित और अस्वास्थ्यकर बता रही हैं। उसी तरह जैसे सरसों के तेल में आजीर्मोन (एक प्रकार की झाड़ी के फल से निकला तेल) की मिलावट की अफवाह उड़ा कर इन कंपनियों ने सोयाबीन और पामोलिव तेल की राह आसान कर दी, अब वैसा ही तरीका दूध के मामले में आजमा रही हैं। देश के तिलहन उत्पादक जिस प्रकार बहुराष्ट्रीय एग्रीबिजनेस कंपनियों के सामने असहाय साबित हुए उसी प्रकार दूधियों के लिए भी आधुनिक तकनीक से लैस कंपनियों के साथ मुकाबला करना आसान काम नहीं है। फिर ताजा दूध जल्दी ही खराब हो जाता है और दूधियों के पास वह तकनीक नहीं है कि वे इसे दूध पाउडर, मक्खन, पनीर जैसे टिकाऊ उत्पादों में तब्दील कर सकें। यही स्थिति डेयरी कंपनियों के लिए मौके मुहैया करा रही है। बड़ी डेयरी कंपनियां दावे कर रही हैं कि उनके आने से दूध उत्पादकों को लाभकारी कीमत मिलेगी। लेकिन ये दावे हकीकत से परे हैं, क्योंकि तीसरी दुनिया का दूध बाजार बेहद बिखरा हुआ है। बड़ी डेयरी कंपनियों को इतने बड़े पैमाने पर नेटवर्क फैलाने में अधिक लागत आएगी, जिसकी कीमत वसूले बगैर वे नहीं रहेंगी, और इससे उत्पादकों का मुनाफा प्रभावित होगा। फिर डेयरी कंपनियों का लक्ष्य उत्पादकों को लाभकारी कीमत न देकर अपनी तिजोरी भरना होता है। इसीलिए वे बेहद सावधानी से काम करते हुए शुरू में उपभोक्ताओं को सस्ता दूध और उत्पादकों को लाभकारी कीमत देकर स्थानीय खरीद तंत्र को नष्ट कर देती हैं। जैसे ही इनका बिक्री-तंत्र पर एकाधिकार स्थापित हो जाता है वैसे ही ये मनमाने ढंग से मुनाफा कमाने में जुट जाती हैं। चूंकि दूध जल्दी ही खराब हो जाता है इसलिए उत्पादकों के पास उसे बेचने के अलावा कोई चारा नहीं बचता। इस प्रकार कोऑपरेटिव से कॉरपोरेट तक के सफर में करोड़ों दूधियों की जगह गिनती की डेयरी कंपनियां कब्जा जमा लेती हैं। इसके परिणामस्वरूप दूध उत्पादन जैसा लाभकारी व्यवसाय घाटे का सौदा बन जाता है और छोटे-छोटे डेयरी फार्म दूध-व्यवसाय से तौबा कर लेते हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका में पिछले चार दशकों में अ_ासी फीसद छोटे डेयरी फार्म खत्म हो गए। आज अर्जेंटीना, ब्राजील, आस्ट्रेलिया, जापान, दक्षिण अफ्रीका सभी जगह दूधियों की संख्या दो से दस फीसद सालाना की दर से घट रही है। जैसे-जैसे छोटे डेयरी फार्म बंद होते हैं वैसे-वैसे दिग्गज डेयरी कंपनियों का कारोबार बढ़ता जाता है। उदाहरण के लिए, अकेले नेस्ले कंपनी दुनिया के दूध कारोबार के पांच फीसद हिस्से को नियंत्रित करती है। सबसे बड़ी बात यह है कि ये कंपनियां एक भी गाय-भैंस नहीं पालतीं। वे उत्पादकों से उपभोक्ताओं के बीच की कड़ी बन कर मुनाफा कमाती हैं। दूध की बिक्री के कॉरपोरेटीकरण से जहां करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी छिनती है, वहीं मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण की दृष्टि से भी यह घातक साबित होता है। डेयरी कंपनियां ताजे दूध के बजाय उसे प्रसंस्कृत कर बेचती हैं जिससे वह न सिर्फ महंगा हो जाता है, बल्कि उसकी पौष्टिकता भी जाती रहती है। इसे भारत के सफल डेयरी आंदोलन आनंद-मॉडल के उदाहरण से समझा जा सकता है।
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