Monday, 7 December 2015

समान नागरिक संहिता के लिए बन रहा है दबाव 

डॉ. अरूण जैन

यह तो लगभग निश्चित सा लग रहा है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में संसद द्वारा सर्वसम्मति से जिस कानून को सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध घोषित कर दिया है, उसे कतिपय संशोधनों के साथ पुन: सरकार पेश कर सकेगी, क्योकि जिस कांग्रेस ने इस विधेयक को तैयार किया था, सार्वजनिक रूप से यह कह चुकी है कि अब वह इसका समर्थन नहीं करेगी। नरेंद्र मोदी सरकार का हर मुद्दे पर विरोध ही करने की उसकी और वामपंथियों की रणनीति में संदर्भ में पूर्व में किए गए समर्थन के खिलाफ जाने का एकमात्र औचित्य यही है। अन्य दलों की स्थिति अभी स्पष्ट नहीं है क्योंकि यह संविधान संशोधन विधेयक है, इसलिए उसे पारित करने के लिए दो तिहायी बहुमत की आवश्यकता है। लोकसभा में तो यह संभव है लेकिन राज्यसभा में असंभव। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के औचित्य अनौचित्य पर बहुत चर्चा हो चुकी है इसलिए उसके विवरण और जाने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के एक अन्य निर्देश जो समान नागरिक संहिता (कामन सिविल कोड) बनाए जाने के संदर्भ में है पर चर्चा की जरूरत है। एक निर्देश हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने भी केंद्रीय सरकार को दिया है। तीन महीने में एक ऐसा कानून बनाने का जो गोवंश हत्या पर देशव्यापी प्रतिबंध लगाने वाला हो। यद्यपि दोनों ही कानून आवश्यक है लेकिन क्या सरकार ऐसा करने में सक्षम है। इस समय देश में सांप्रदायिक पहचान के नाम पर उन्माद बढ़ाने का प्रयास अपने चरम पर है। जब सांप्रदायिक दंगों में सैकड़ों लोग मारे गए या धर पकड़कर भागकर किसी नहर में डाल दिए गए अथवा जब वर्ष भर उत्तर प्रदेश का एक इलाका सांप्रदायिक उन्माद में जलता रहा, जब हजारों लोगों को किसी एक व्यक्ति के इस कथन पर कि जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिल जाती है, मौत के घाट उतार दिया गया, या गोधरा में ट्रेन के डिब्बे में लोगों को जलाकर मार डाला गया अथवा उसके बाद के दंगे में कई सौ लोग मारे गए, जिनकी आत्म नहीं जागी थी, वह किसी एक व्यक्ति को अफवाह के चलते मार दिया गया पर जिस प्रकार जागी है, उसमें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अतीत में भी कई बार कामन सिविल कोड बनाने के निर्देश के बावजूद जिस प्रकार के लोगों की प्रतिक्रिया के कारण सरकार हिलने तक तैयार नहीं हुई, उन तत्वों की विपरीत रवैए की उपेक्षा कर अत्यंत आवश्यक होते हुए भी वर्तमान सरकार पहल कर सकेगी इसमें संदेह है। उसकी एक समुदाय के खिलाफ होने की छवि उभारने का जो अभियान चल रहा है उसके अभियानकर्ता इसे मुद्दा बनाकर देश की शांति व्यवस्था को भंग करने की पूरी तैयारी में जुट गए हैं। राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल में जब सर्वोच्च न्यायालय का हैदराबाद की एक महिला शाहबानो को पति से गुजरा भत्ता मिलने का फैसला आया, तब सरकार ने उसके अनुरूप कानून बनाने का मन बनाना इसका संकेत राजीव गांधी के प्रिय राज्यमंत्री आरिफ मोहम्मद खां के लोक सभा में दिए गए भाषण से मिला लेकिन चौबीस घंटे में ही पांसा पलट गए। दूसरे दिन एक अन्य राज्य मंत्री जियाउल रहमान अंसारी ने लोकसभा में आरिफ का जोरदार विरोध किया। सरकार पीछे हट गई। आरिफ ने त्यागमात्र दे दिया और कुछ दिनों बाद कांग्रेस भी छोड़ दिया। देश में सम्पत्ति उत्तराधिकार आदि के संदर्भ में एक कानून हिन्दू कोड बिल के नाम से लागू है। सरकारी तौर पर जिन समुदायों को अल्पसंख्यक की मान्यता दी गई है उनमें से सिख, बौद्ध तथा जैन समुदायों पर भी यह कानून प्रभावी है, केवल अल्पसंख्यक मुसलमान और इसाई इसकी परिधि से बाहर हैं। संविधान में सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक कानून बनाने का सरकार को निर्देश है, समाजवादी नेता डाक्टर राम मनोहर लोहिया, सर्वोदयी जयप्रकाश नारायण, विचारक आचार्य नरेंद्र देव आदि जितने भी उस समय के सार्वजनिक जीवन में पुरोधा थे सभी इसके पक्ष में थे। साम्प्रदायिक जनसंघ भाजपा तो शुरू से एक देश एक जन की पक्षधर रही है, लेकिन सेक्युलरिज्म के अलमबरदारों ने कभी भी इस विचार को क्रियान्वित नहीं होने दिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने संभवत: चौथी बार−मोदी सरकार को पहली बार−यह निर्देश दिया है। अभी मोदी सरकार ने इस दिशा में कोई पहल नहीं किया है, लेकिन उनके मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों ने सामाजिक चिंतकों के समान ही इस मुद्दे पर देशव्यापी चर्चा चलाने पर बल दिया है। यह संकेत मिलता है, जो प्रगट भी होने लगा है कि यद्यपि सेक्युलरिस्ट अभी मौन हैं तथापि मुस्लिम और इसाई समुदायों के प्रवक्ताओं ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश का विरोध करना शुरू कर दिया है। जाहिर है सेक्युलरिस्ट उसी का अनुसरण करेंगे, जैसा पूर्व में करते रहे हैं। ऐसी स्थित मिें क्या नरेंद्र मोदी सरकार सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के अनुरूप कानून बनाने की पहल कर बिखराववादियों को अपने खिलाफ संगठित होने के लिए एक और मुद्दा प्रदान कर सकेंगे। यह भविष्य बतायेगा। शायद सरकार को दिए गए निर्देशों कापालन न करने पर सर्वोच्च न्यायालय इस मुद्दे पर निष्क्रियता के लिए जैसे पूर्व में कभी शास्ति नहीं की है, इस बार भी न करे। क्योंकि भारत एक सेक्युलर देश होने के बावजूद अल्पसंख्यक अवधारणा पर आधारित रचना के अनुरूप चलने के कारण उसकी रूढि़वादिता से हट पाने की संगठित स्वर मुखरित करने के लिए एकजुट नहीं हो रहा है। भारत में अल्पसंख्यक संविधान, न्यायालय और बहुसंख्यक पर पूर्ववत हावी रहने की मानसिकता से युक्त होने और शह पाने के कारण शायद ही ऐसा कदम उठा सके। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने संपूर्ण देश के लिए समान गौवंश हत्या निषेध का कानून बनाने का केंद्रीय सरकार को जो निर्देश दिया है, वह भी संविधान की व्यवस्था के अनुरूप है। क्यों कि उसमें कहा यद्यपि केंद्रीय कानून का निर्देश नहीं है तथापि यह कहा गया है कि वह यह सुनिश्चित करे कि सभी राज्य अपनी स्थानीय परिस्थिति के अनुरूप गौवंश हत्या निषेध कानून बनाए। अधिकांश राज्यों में यह कानून लागू है। यद्यपि कुछ राज्यों के कानून में ऐसी खामी है जिसका लाभ गौवधिक उठा सकते हैं−उठा रहे हैं। गौवंश की हत्या पर रोक लगाने के औचित्य अनौचित्य पर इस समय विवाद अपने चरम पर है, यह विषय हिन्दू बनाम मुसलमान इसाई तथा पुराणपंथी बनाम प्रगतिशीलता के रूप में भी चर्चित हो रहा है। पुराणपंथी उतने मुखरित नहीं जितने प्रगतिशील जो गोमांस भक्षण की मुहिम चला रहे हैं।

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