Monday 8 February 2016

शरीफ को सहारे की जरूरत

डॉ. अरूण जैन
इस समय दुनिया में अगर किसी राजनेता को सर्वाधिक सहानुभूति और नैतिक सहारे की जरूरत है, तो वह हैं पाकिस्तान के वजीर-ए-आजम नवाज शरीफ। शरीफ को अपने ही मुल्क में तमाम मोर्चों पर लडऩा पड़ रहा है। अगर वह सफल रहे, तो दुनिया में उनका दर्जा कमाल अतातुर्क जैसा हो जाएगा। असफल होने पर उन्हें मिखाइल गोर्बाचेव की तरह कलंकित होना पड़ सकता है, क्योंकि पाकिस्तान पर विखंडन का खतरा भी मंडरा रहा है। भारत में जो लोग यह सोचकर खुश होते हैं कि पाकिस्तान अपनी लगाई आग में झुलस रहा है, वे आत्मघाती हैं। अशांत और विखंडित पड़ोसी खतरनाक साबित होता है। अपनी सीमाओं पर बसे देशों से भारत के सर्द-गरम रिश्तों पर नजर डाल देखें, सब समझ में आ जाएगा। चीन को हम शत्रु मानते आए हैं। आज उसकी गिनती दुनिया के अमीर मुल्कों में होती है, इसीलिए उसकी सरजमीं से आतंकवादियों का निर्यात नहीं होता। उसके हुक्मरां सीमा विवाद पर बात करने की बजाय व्यापार की बढ़ोतरी पर बल देते हैं। इसके उलट पाकिस्तान की सत्ता और सेना हमारे सीमाई सूबों में आग लगाती रही हैं। अगर पाकिस्तान में भी खुशहाली की बयार बहने लगे, तो वे इधर-उधर उलझने की बजाय अपना घर संवारने में जुट जाएंगे। यह हो कैसे? पहले वहां के अंदरूनी हालात पर नजर डालते हैं। पाकिस्तान एक इस्लामी राष्ट्र है। पाकिस्तान की स्थापना के पीछे अवधारणा थी कि मुसलमानों को ऐसा राज्य चाहिए, जहां वे अपनी धार्मिक परंपराओं के अनुरूप फल-फूल सकें। मोहनदास करमचंद गांधी के आभा मंडल के सामने अपनी प्रतिष्ठा का दीप बुझता देख मोहम्मद अली जिन्ना ने यह ‘मीठी गोली’ अखंड भारत के मुसलमानों को दी थी। वे अलग देश बनाकर भी नाकामयाब रहे। अपने उदय के साथ पाकिस्तान तमाम विरोधाभासों से घिर गया। धर्म भले एक था, पर इस देश में बहुलतावाद के इतने कारक मौजूद थे कि उन पर सिर्फ मजहब से फतह नहीं पाई जा सकती थी। यही वजह है कि आज के पाकिस्तान में पठानों, बलूचों और अल्पसंख्यकों की सत्ता में भागीदारी लगभग न के बराबर है। जिस पाकिस्तान का गठन इस्लाम के नाम पर हुआ था, वहां के लोगों की हालत अन्य इस्लामी देशों के मुकाबले बेहद खराब है। संसार की सबसे बड़ी मुसलमान आबादी इंडोनेशिया में है। वहां के लोगों की तुलना पाकिस्तानियों से करने पर हम अचरज से भर जाते हैं। इंडोनेशिया की प्रति व्यक्ति सालाना आय 2015 में तकरीबन 11,135 अमेरिकी डॉलर थी। पाकिस्तान में प्रति व्यक्ति आय इसकी आधी से भी कम 4,902 डॉलर है। पिछली गरमियों में पाक में बिजली की इतनी भयंकर कटौती हुई कि 1,200 से ज्यादा लोग लू और ताप से मर गए। इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता पर गुरुवार को हुए आईएस के हमले ने इस्लामाबाद को भी साफ संदेश दिया है। इंडोनेशिया कभी पाकिस्तान की तरह आतंकवाद की ‘प्रयोगशाला’ नहीं रहा। अल बगदादी वहां कयामत बरपाने में जुटा है। पाकिस्तान में तो ओसामा तक शरण पाता रहा है। दहशत के कारोबारी जब जकार्ता को नहीं बख्श रहे, तो भला पाक को क्यों छोड़ेंगे?आतंकवादियों को पालने-पोसने की सजा हमारे पड़ोसी को शिद्दत से मिल रही है। साल 2004 से 2014 के बीच पाकिस्तान में हुए ‘दोस्त’ अमेरिका के ड्रोन हमलों में 2,414 लोग मारे गए और मुल्क में खून-खराबे की वजह से 18 लाख लोगों को दर-बदर होना पड़ा। वहां आपसी मार-काट कितनी भयंकर है, इसका उदाहरण पेशावर के सैनिक स्कूल पर हुआ हमला है। 16 दिसंबर, 2014 को हुई इस घिनौनी आतंकवादी हरकत में 132 बच्चों को मौत के घाट उतार दिया गया था। इसके बाद से पाकिस्तान में बहस तेज हो गई है कि दहशतगर्दी से हमें क्या मिला? नवाज शरीफ और पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल राहील शरीफ के पास उनसे जूझने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा। सैकड़ों आतंकवादियों को पकडक़र सैनिक अदालतों के हवाले कर दिया गया और दर्जनों लोगों को सूली पर लटका दिया गया। इन कठोरतम फैसलों में भी दोमुंहापन झलक रहा था। अलगाववादियों से तो वहां की हुकूमत निपट रही थी, पर भारत विद्वेषियों को तब भी पनाह दी जा रही थी। यह गलत फैसला था। हाफिज सईद, जकीउर्रहमान लखवी, दाऊद इब्राहिम, मसूद अजहर और इन जैसे दहशतगर्दों ने पाकिस्तानी सत्ता और समाज पर इतनी पकड़ बना ली है कि वे अब इस्लामाबाद के हुक्मरानों को आंखें दिखाने लगे हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण मसूद अजहर का ताजा बयान है। हिरासत में लिए जाते ही जैश की साइट पर पोस्ट किए गए उसके खत में भारत-पाकिस्तान, दोनों को धमकाया गया है। उसने मुशर्रफ पर हुए हमले का भी जिक्र किया है। मतलब, मौलाना अप्रत्यक्ष तौर पर शरीफ को जान से मारने की धमकी दे रहा है। यही नहीं, मुंबई हमलों के ‘मास्टर माइंड’ हाफिज सईद ने जुम्मे की तकरीर में मोदी के साथ नवाज शरीफ को भी कोसा। साफ है। सेना और सत्ता को मिलकर ऐसे तत्वों का सफाया करना होगा, जो परेशानियों से घिरे पाक को नई मुसीबतों में डाल रहे हैं। पाकिस्तान को अब अपनी रीत-नीत में आमूल परिवर्तन करना होगा। आतंकवादियों ने उसे अपनी मिल्कियत समझ लिया है। वे वहां अपनी कारगुजारियों को मालिकाना अंदाज में अंजाम देते हैं। मसूद अजहर की नजरबंदी से उम्मीद जगी है कि आईएसआई, सेना और वहां की अन्य एजेंसियां शांति के इन शत्रुओं को भविष्य में आस और आसरा नहीं देंगी। ऐसे लोगों को सैनिक अदालत के हवाले कर इंसाफ के दरवाजे तक पहुंचाया जाएगा। इसके लिए जरूरी है कि नई दिल्ली, वाशिंगटन और बीजिंग के सत्तानायक मिलकर आतंकवादियों के स्वर्ग (बकौल बराक ओबामा) पाकिस्तान के मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान को यह नैतिक बल प्रदान करें कि वह ऐसे तत्वों की गर्दन मरोड़ सके। इस संबंध में गृह मंत्री राजनाथ सिंह का बयान गौरतलब है कि फिलहाल वहां के हुक्मरानों की नीयत पर शक करने का कोई कारण नहीं है। पाकिस्तान को अपनी नेकनीयती साबित करने के लिए थोड़ा वक्त देना चाहिए। यही वजह है कि पठानकोट हमले के बावजूद नई दिल्ली के सत्तानायकों ने संयमित भाषा का इस्तेमाल किया। परिणाम सामने है। जैश के लोगों की गिरफ्तारी के शुरुआती संकेत शुभ हैं। आप दोनों देशों के विदेश मंत्रालयों के प्रवक्ताओं की भाषा पर गौर करें। ऐसा लगता है, जैसे स्क्रिप्ट साथ बैठकर लिखी गई है। दोनों को मौलाना मसूद की गिरफ्तारी की खबर नहीं, दोनों देशों के सुरक्षा सलाहकार लगातार संपर्क में हैं, दोनों विदेश सचिवों ने विचार-विनिमय के बाद 15 जनवरी को प्रस्तावित बातचीत को टाला आदि-इत्यादि। और तो और, पाकिस्तान के जांच दल को पठानकोट आने की अनुमति देने को भारत तैयार है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। उम्मीद है, शरीफ और मोदी उन निष्कर्षों पर भी पहुंचेंगे, जिनकी पहले महज कल्पना की गई थी। यहां यह भी गौरतलब है कि राहील शरीफ ने पाकिस्तानी अवाम से वायदा किया है कि 2016 में वह पाक को आतंकवाद से मुक्त करके रहेंगे। उनका यह संकल्प भारत के साथ सुलह किए बिना कैसे पूरा हो सकता है?

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