Wednesday, 17 April 2019

सलमान खान ने ट्यूबलाइट का बनाया मजाक, कहा-डिप्रेशन में चले गए थे लोग

डाॅ. अरूण जैन

सलमान खान ने हाल ही में अपने करियर और फिल्मों को लेकर कुछ खुलकर बातें की। बता दें कि सलमान की फिल्म ट्यूबलाइट को बॉक्स ऑफिस पर अच्छा रिस्पॉन्स नहीं मिला था। अब हाल ही में एक इंटरव्यू के दौरान सलमान ने ट्यूबलाइट को लेकर बात की। सलमान ने कहा, हमें लगा था कि ट्यूबलाइट एक सुंदर फिल्म होगी। फिल्म बजरंगी भाईजान को मिली अपार तारीफों के बाद, फैन्स ईद पर लोग कुछ अच्छा खुशनुमा देखना चाहते हैं। लेकिन ट्यूबलाइट में वो सभी रो गए थे। वो बिल्कुल ऐसे कह रहे थे कि ये क्या है, ईद ही खराब कर दिया और वो डिप्रेशन में चले गए। सलमान ने आगे कहा, फिल्म भले ही थिएटर पर फेल हो गई, लेकिन डिजिटल प्लेटफॉर्म और टीवी पर फिल्म को अच्छा रिस्पॉन्स मिला। आज जब टीवी और डिजिटल प्लेटफॉर्म पर दर्शकों को फिल्म पसंद आती है तो दर्शक सोचते हैं कि ये फेल कैसे हो गई। इसने देश के बाजार में ही 110 करोड़ रुपये से ऊपर का कारोबार किया था। तो मेरी तो फ्लॉप फिल्में भी वो आंकड़ा ले आती हैं, बहुतों की तो उतनी भी नहीं चली। इसीलिए मैं भाग्यशाली हूं कि इतनी बड़ी हिट फिल्में भी फ्लॉप मानी जाती है। मैं इस आशीर्वाद के लिए शुक्रगुजार हूं। सलमान खान बोले- मैं फिल्मों में किसिंग के लिए नहीं हूं... सलमान खान की फिल्मों में जबरदस्त एक्शन देखने को मिलता है। उनकी फिल्मों में रोमांस तो होता है, लेकिन किसिंग सीन नहीं। सलमान ने हाल ही में ये भी बताया कि वो फिल्मों में किसिंग और न्यूडिटी के लिए नहीं हैं। सलमान ने डीएनए को दिए इंटरव्यू के दौरान कहा, अभी भी जब स्क्रीन पर किसिंग सीन आता है तो हम सभी को अजीब फील होता है। मैं हमेशा अपना ध्यान क्लीन सिनेमा की तरफ रखूंगा। सलमान ने आगे कहा, मैं चाहता हूं कि हमारे बैनर में ऐसी फिल्में हों जिसमें नॉटीनेस, एक्शन, रोमांस हो और सभी साथ बैठकर देख सकें।

अब राफेल में हुए भ्रष्टाचार का केस बिल्कुल क्रिस्टल क्लियर

डाॅ. अरूण जैन

यह पूरी तरह से स्पष्ट हो गया कि अनिल अंबानी ओर फ्रेंच सरकार के बीच किस तरह का लेनदेन हुआ अब हमें यह मानना ही होगा कि 'चौकीदार बहुत बड़का वाला चोर हैंÓ। फ्रांस की मैगजीन रुद्ग रूशठ्ठस्रद्ग ने रॉफेल मामले में अनिल अंबानी ओर तत्कालीन फ्रेंच सरकार की कलई खोल दी। 
आज से पहले हम यह नही जानते थे कि अनिल अंबानी की फ्रांस में पहले से एक रजिस्टर्ड कंपनी है, जिसे 'रिलायंस अटलांटिक फ्लैग फ्रांसÓ कहा जाता है। इस कंपनी की फ्रेंच टैक्स अधिकारियों द्वारा जांच की गई और 2007 से 2010 की अवधि के लिए करों में 60 मिलियन यूरो का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी पाया गया। लेकिन अम्बानी तो अम्बानी ठहरे उन्होंने फ्रांस सरकार से मात्र 7.6 मिलियन यूरो में मामला निपटाने की पेशकश की। अब फ्रांस के राष्ट्रपति तो मोदी जी थे नही तो, फ्रांसीसी कर अधिकारियों ने इस ऑफर को रिफ्यूज कर दिया। उन्होंने एक और जांच की ओर 2010 से 2012 तक की अवधि के लिए पिछले करों के अतिरिक्त 91 मिलियन यूरो की मांग करने लगे। यह मामला थोड़ा लंबा खिंच गया और इधर भारत मे मोदी सत्ता में आ गए और उन्होंने के समय हुई फ्रांस की डसाल्ट कम्पनी के साथ हुई रॉफेल डील को निरस्त कर दिया जिसमें 126 विमान को 590 करोड़ प्रति विमान की कीमत से खरीदा जाना था। मोदी ने डसाल्ट के बजाए सरकार से रॉफेल को खरीदने की पेशकश की अब सिर्फ 36 विमान खरीदने की बात की गयी लेकिन लगभग तिगुनी कीमत यानी 1690 करोड़ देने की पेशकश की गई। फ्रांस के लिहाज से यह सौदा हर हाल में अच्छा था जाहिर था कि तिगुनी कीमत के दिये जाने के पीछे बहुत बड़े निगोशिएशन किए गए थे। पिछले दिनों यह भी सामने आया था कि राफेल डील पर मुहर लगने से पहले अंबानी की रिलायंस एंटरटेनमेंट ने फ्रांसीसी राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद की सहयोगी जुली गायेट के साथ एक फिल्म निर्माण के लिए समझौता किया था। लेकिन आज पता चला है कि अम्बानी की कम्पनी 'रिलायंस अटलांटिक फ्लैग फ्रांसÓ को प्रधानमंत्री मोदी के दौरे के बाद बहुत बड़ी टैक्स छूट मिली। इस नयी राफेल डील के 6 महीने बाद फ्रांस की अथॉरिटीज ने अनिल अंबानी का 143.7 मिलियन यूरो यानी 1,124 करोड़ रुपए से ज्‍यादा का टैक्स माफ कर दिया। 

खुद पर लगे आउटसाइडर टैग से खुश हैं विद्युत जामवाल, कहा- मुझे गर्व है

डाॅ. अरूण जैन

विद्युत जामवाल की फिल्म जंगली रिलीज हो गई है और फिल्म को सही रिस्पॉन्स मिल रहा है। विद्युत के एक्शन की क्रिटिक्स के साथ-साथ दर्शक भी काफी तारीफ कर रहे हैं। विद्युत ने हाल ही में हिन्दुस्तान से खास बातचीत में फिल्म को लेकर कुछ बातें बताईं। कैसे आप इस फिल्म से जुड़े और क्या आपको फिल्म में अच्छा लगा?इस फिल्म के डायरेक्टर हैं चक रसेल जिन्होंने फेमस हॉलीवुड फिल्म मास्क बनाई थी। मैं उनका बहुत बड़ा फैन हूं। उन्होंने कई बड़े एक्शन हीरो के साथ काम किया है तो उनके साथ काम को लेकर मैं काफी एक्साइटेड था। उनका विजन था कि ऐसी फिल्म बनाई जाए जिसमें एंटरटेमेंट हो, कॉमेडी हो और एक्शन हो। तो जब उनका ऑफर मेरे पास आया तो मैं बहुत खुश था। हाथियों के साथ काम करने का कैसा एक्सपीरियंस रहा?आप किसी भी जानवर के साथ टाइम स्पेंड करो चाहे वो हाथी हो, कुत्ता या बिल्ली। आप उनको टाइम दो तो वो आपके साथ अच्छे से रहते हैं। हाथियों के साथ काम करना आसान था, लेकिन मुश्किल था सेट पर लोगों को संभालना क्योंकि कोई आता और हाथी की पूंछ छेड़ता, तो कोई कुछ करता। तो हमें सेट पर सबको समझाना होता था कि कोई भी इन्हें छेड़े ना। फिल्म में जो जानवर थे वो ट्रेन्ड नहीं थे, तो कैसे उनके साथ शूटिंग करते थे?अगर उनको खाना खाने का मन है तो उन्हें खाने दो, पानी पीने का मन है तो पीने दो, नहाने का मन है तो उन्हें नहाने दो। जो उनके मन में आता है उन्हें वो करने दो, इसके बाद जब वो ये सब करके फ्री होते थे तब हम शूटिंग करते थे और उनके साथ काम करना आसान था। आपने जब बॉलीवुड में एंट्री की थी तब आप एक एक्शन हीरो के तौर पर काफी फेमस हुए, लेकिन फिर आपके करियर में ये गैप आया, तो इस गैप के पीछे क्या वजह थी?मैं फिल्म इंडस्ट्री से नहीं हूं, मुझे आउटसाइडर का टैग दिया जाता है और मैं उस टैग को ले लेता हूं क्योंकि मुझे इस पर गर्व है। क्योंकि मैं एक मिडल क्लास से हूं और ये जो सक्सेस है उसे आप कभी कम्पेयर नहीं कर सकते। जो आदमी मर्सिडीज में स्ट्रगल कर रहा है और जो रेगुलर स्ट्रगल कर रहा है उसकी सक्सेस मर्सिडीज वाले से बेहतर है। जो मजा अपनी मां को मेहनत की कमाई से खरीदी मर्सिडीज में घुमाने में है वो बचपन से मर्सिडीज में धूमकर बाद में बड़ी मर्सिडीज को घुमाने में नहीं है। जर्नी मुश्किल थी, लेकिन आपमें टैलेंट है तो मुंबई आपको एक्सेप्ट कर लेगा।

भाजपा के लिए लोकसभा चुनाव मोदी बनाम मोदी ही है

डाॅ. अरूण जैन


नरेन्द्र मोदी चुनाव मैदान में पूरी तरह सक्रिय हो गये हैं। वर्ष 2019 के आम चुनाव में अद्भुत, आश्चर्यकारी जीत के लिये उनके पास सशक्त स्क्रिप्ट है तो उनकी साफ−सुथरी छवि का जादू भी सिर चढ़कर बोल रहा है। चारों ओर से स्वर तो यही सुनाई दे रहा है कि यह चुनाव न तो मोदी बनाम राहुल है, और न ही मोदी बनाम मायावती, अखिलेश या ममता है। बल्कि यह चुनाव मोदी बनाम मोदी ही है। इसलिये भाजपा सरकार एवं मोदीजी के लिये यही वह समय है जिसका आह्वान है अभी और इसी क्षण भाजपा सशक्त भारत निर्मित करने का नक्शा प्रस्तुत करें। यही वह समय है जो थोड़ा ठहरकर अपने बीते दिनों के आकलन और आने वाले दिनों की तैयारी करने का अवसर दे रहा है। लोकसभा चुनाव की सरगर्मियां भाजपा को समीक्षा के लिए तत्पर कर रही है, वही एक नया धरातल तैयार करने का सन्देश भी दे रही है। इस नये धरातल की आवश्यकता क्यों है? क्योंकि सात दशकों के आजादी के सफर में देश ने खोया अधिक है और पाया कम है। अब नया भारत निर्मित करने के लिये नये संकल्प एवं नये धरातल तो चाहिए ही। मोदी सरकार ने यद्यपि बहुत कुछ उपलब्ध किया है, कितने ही नये रास्ते बने हैं। एक नया विश्वास जगा है। भारत मोदी के नेतृत्व में ही विश्व गुरु होने का दर्जा पाएगा। एक आर्थिक महाशक्ति बनेगा, दुनिया में शक्तिमान राष्ट्र होगा। मोदी के पक्ष में लोकप्रियता ने पिछले कुछ महीनों में लंबी छलांग लगाई है। इस बात का प्रमाण ओनिनियन पोल्स, सट्टा बाजार एवं चुनाव से पहले के शेयर बाजार की तेजी हैं। ये तीनों प्रमुख स्रोत यदि मोदी के पक्ष में हैं तो जाहिर है कि वर्ष 2013−14 के चुनाव से पूर्व मोदी लहर के ही इस बार भी और अधिक सशक्त होने के संकेत है। जिस तरह के संकेत 1971 मे इंदिरा गांधी के पक्ष में थे, कुछ वैसा ही इस बार मोदी के पक्ष में है। बालाकोट स्ट्राइक के बाद जाति, धर्म, वर्ग, वर्ण के मसले निस्तेज हो गये हैं, राम मन्दिर की जगह राष्ट्रवाद प्रमुख मुद्दा हो गया है। चुनाव से पहले ही देश ने अंतरिक्ष में एंटी सैटेलाइट का सफल परीक्षण करके दुनिया की चार बड़ी महाशक्तियों में जगह बना दी है। इस तरह मजबूत−सशक्त नेता और सुरक्षा ऐसे मुद्दे हैं, जिन्होंने भाजपा को राष्ट्रव्यापी बढ़त दी है। इन उपलब्धियों के बावजूद भाजपा के लिये यह अवसर जहां अतीत को खंगालने का अवसर है, वहीं भविष्य के लिए नये संकल्प बुनने का भी अवसर है। उसे यह देखना है कि बीता हुआ दौर उसे क्या संदेश देकर जा रहा है और उस संदेश का क्या सबब है। जो अच्छी घटनाएं बीते नरेन्द्र मोदी शासन में हुई हैं उनमें एक महत्वपूर्ण बात यह कही जा सकती है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जनजागृति का माहौल बना− एक  विकास क्रांति का सूत्रपात हुआ, विदेशों में भारत की स्थिति मजबूत बनी। लेकिन जाते हुए वक्त ने अनेक घाव भी दिये हैं, जहां नोटबंदी ने व्यापार की कमर तोड़ दी और महंगाई एक ऐसी ऊंचाई पर पहुंची, जहां आम आदमी का जीना दुश्वार हो गया है। नोटबंदी और जीएसटी ने छोटे उद्योगों को पस्त कर दिया। ये छोटे उद्योग ही रोजगार उत्पन्न करते थे, फलस्वरूप रोजगारों का संकुचन हुआ। रोजगार के संकुचन से आम आदमी की क्रय शक्ति में गिरावट आयी है और बाजार में माल की मांग में ठहराव आ गया है। देश का युवा कैरियर एवं रोजगार को लेकर निराशा को झेल रहा है। मोदी सरकार का शासन कई दृष्टियों से भाजपा को सशक्त करता रहा है। गाय और राममंदिर के मुद्दों पर हिंदू वोट का ध्रुवीकरण करने की कोशिश हुई है। तलाक के नाम पर मुस्लिम महिलाओं के वोटों की दिशा को बदला है। अर्थव्यवस्था को विकसित देशों की तर्ज पर बढ़ाने की कोशिशें की गयी। स्टार्टअप, मेक इन इंडिया और बुलेट ट्रेन की नवीन परियोजनाओं को प्रस्तुति का अवसर मिला। नोटबंदी और जीएसटी को लागू किया गया, भारत में भी डिजिटल इकॉनमी स्थापित करने के प्रयास हुए। भारत की विदेशों में साख बढ़ी। लेकिन घर-घर एवं गांव−गांव में रोशनी पहुंचाने के बावजूद आम आदमी अन्य तरह के अंधेरों में डूबा भी है। भौतिक समृद्धि बटोर कर भी न जाने कितनी तरह की रिक्तताओं की पीड़ा भोग रहा है। गरीब अभाव से तड़पा है तो अमीर अतृप्ति से। कहीं अतिभाव, कहीं अभाव। बस्तियां बस रही है मगर आदमी उजड़ता जा रहा है। भाजपा सरकार जिनको विकास के कदम मान रही है, वे ही उसके लिए विशेष तौर पर हानिकारक सिद्ध हुए हैं। इस पर गंभीर आत्म−मंथन करके ही भाजपा भविष्य का नया धरातल तैयार कर सकेगी। आदिवासी दलित समाज की नाराजगी भी एक अवरोध है। हर बार चुनाव के समय आदिवासी समुदाय को बहला−फुसलाकर उन्हें अपने पक्ष में करने की तथाकथित राजनीति इस बार असरकारक नहीं होने वाली है। क्योंकि आदिवासी−दलित समाज बार−बार ठगे जाने के लिए तैयार नहीं है। देश में कुल आबादी का 11 प्रतिशत आदिवासी है, जिनका वोट प्रतिशत लगभग 23 हैं। क्योंकि यह समुदाय बढ़−चढ़ का वोट देता है। बावजूद देश के आदिवासी−दलित के लिये सरकार कोई ठोस कार्यक्रम नहीं दे पायी। ये समुदाय दोयम दर्जे के नागरिक जैसा जीवन−यापन करने को विवश हैं। यह तो नींव के बिना महल बनाने वाली बात हो गई। भाजपा सरकार को आदिवासी−दलित हित और उनकी समस्याओं को हल करने की बात पहले करनी होगी।  भारत में अमीर देशों की पॉलिसी लागू करने से भारत की अर्थव्यवस्था बिगड़ गई है। अब भाजपा को कुछ ऐसे मौलिक कदमों को उठाने की रूपरेखा प्रस्तुत करनी होगी जिनसे अर्थव्यवस्था को दीर्घ स्तर पर नई दिशा मिले, जनता को संतुष्ट किया जा सके और आम आदमी का खोया विश्वास पुन: हासिल किया जा सके। जीएसटी से जुड़ी जटिलताओं को दूर करना होगा, क्योंकि इसी से जुड़ा रोजगार का मुद्दा है। रोजगार सृजन में ठहराव का यह प्रमुख कारण है। किसानों से जुड़ी समस्याओं पर भी केन्द्र सरकार को गंभीर होना होगा। धर्म से जुड़े मुद्दे भी सरकार के लिये घातक सिद्ध हुए हैं, उनके प्रति व्यावहारिक एवं उदार दृष्टिकोण अपनाना होगा। गंगा पर जहाज चलाने की योजनाओं पर भी पुनर्विचार अपेक्षित है। क्योंकि भारत में गंगा को मां माना जाता है।

Tuesday, 16 April 2019

फिल्म देखने से पहले पढ़ें कैसी है मर्द को दर्द नहीं होता

डाॅ. अरूण जैन
बॉलीवुड फिल्मों को नएपन के आधार पर दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है। -पहली वो, जिनकी मूल विषयवस्तु परंपरागत होती है और जिनमें कुछ नएपन के मसाले छिड़के गए होते हैं। और दूसरी वो, जिनकी मूल विषयवस्तु नएपन और अनूठेपन से लबरेज होती है और उनमें कुछ बॉलीवुड के परंपरागत मसाले छिड़के गए होते हैं। फिल्म 'मर्द को दर्द नहीं होताÓ दूसरी श्रेणी की फिल्म है। इसके 'मर्दÓ यानी हीरो सूर्या (अभिमन्यु दासानी) को सचमुच दर्द नहीं होता। इसका कारण प्रचलित मुहावरा नहीं बल्कि 'कॉनजेनिटल इनसेंसिविटी टू पेनÓ नामक बीमारी है। उसे कितना भी मार लो, पीट लो, नुकीली चीज चुभो दो- उसे कुछ महसूस नहीं होता। इस अजीब स्थिति के चलते उसे मारने वाले झल्ला जाते हैं। कभी-कभार वह पीटने वालों को चिढ़ाते हुए दर्द न होने के बावजूद 'आउचÓ बोल देता है। सूर्या के मन में यह बात घर कर जाती है कि यह बीमारी एक सुपरपावर की तरह है। इस सुपरपावर को और पुख्ता बनाने के लिए वह मार्शल आर्ट सीखना चाहता है, ताकि सही वक्त आने पर दुश्मनों को मजा चखाना चाहता है। उसकी सबसे अच्छी दोस्त सुप्री (राधिका मदान) हर कारस्तानी में उसका साथ देती है। इस बीच हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि दोनों अलग हो जाते हैं। सूर्या को उसके दादाजी (महेश मांजरेकर) और पिता (जिमित त्रिवेदी) दुनिया से छुपाकर बड़ा करते हैं। पुरानी अंगे्रजी-हिंदी एक्शन फिल्में देख-देख कर सूर्या मार्शल आर्ट के कौशल सीखता है। एक कैसेट में वह मार्शल आर्ट विशेषज्ञ मणि (गुलशन देवैया) को देखता है और उसका मुरीद हो जाता है। एक पैर से लाचार होने के बावजूद मणि मार्शल आर्ट में अकेले 100 लोगों को हरा चुका है। मन ही मन सूर्या उसे अपना गुरु मान लेता है। इन्हीं गुरु का लाल चश्मे वाला हमशक्ल भाई जिमी (गुलशन देवैया) कहानी का विलेन है, जो एक बड़ी सिक्योरिटी कंपनी चलाता है। पीठ पर पानी की बोतल वाला बैगपैक, आंखों में मोटा चश्मा चढ़ाए अभिमन्यु ने इस किरदार के लिए जो मेहनत की है, वह फिल्म में नजर आई है। आत्मविश्वास भी उनमें गजब का है। पर उनके किरदार की कुछ कमियां भी हैं। माना कि वह शारीरिक दर्द नहीं महसूस कर सकते, लेकिन भावनात्मक रूप से  'सुन्नÓ क्यों नजर आते हैं? उदाहरण के तौर पर, अपनी मां को याद करते हुए वह कई डायलॉग बोलते हैं, पर इन्हें बोलते समय उनका चेहरा भावहीन सा रहता है। राधिका मदान को फिल्म 'पटाखाÓ के बाद एक ग्लैमरस किरदार में देखना अच्छा लगता है। फिल्म में उनकी एंट्री बेहद धमाकेदार तरीके से होती है। गुलशन देवैया का डबल रोल था और दोनों ही भूमिकाओं के साथ उन्होंने पूरा न्याय किया है। वह एक मंझे हुए अभिनेता हैं। जिमित त्रिवेदी ने 'ओह माई गॉडÓ के बाद इस फिल्म में भी अच्छा काम किया है। सूर्या और उसके सख्त पिता (जिमित) के बीच बिचौलिये की भूमिका निभाते दादाजी की भूमिका में महेश मांजरेकर ने जान डाल दी है। उनके हिस्से में कुछ बहुत रोचक संवाद आए हैं। फिल्म में एक्शन और कॉमेडी का सही संतुलन है, हालांकि यह कुछ छोटी हो सकती थी। वासन बाला का निर्देशन सधा हुआ है। गीत-संगीत औसत है। सिनेमैटोग्राफी अच्छी है। प्रयोगधर्मी सिनेमा पसंद करने वालों को यह फिल्म अच्छी लगेगी। कुछ लोग इसे 'डेडपूल का भारतीय संस्करणÓ भी कह रहे हैं।

असली महानायकों की दास्तान है केसरी

डाॅ. अरूण जैन
12 सितंबर 1897 को तत्कालीन भारत के नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रांत (अब पाकिस्तान का खैबर पख्तुनवा प्रांत) में हुई ह्यसारागढ़ी की लड़ाई भारत ही नहीं, विश्व इतिहास की सबसे गौरवपूर्ण गाथाओं में से एक है। सुबह से शाम तक चली इस लड़ाई सिख सैनिकों ने जिस शौर्य का प्रदर्शन किया था, वह अतुलनीय है। सिर्फ इक्कीस सिख सिपाहियों ने दस हजार से ज्यादा अफगानों को तब तक रोके रखा, जब तक कि आखिरी सिपाही नहीं शहीद हो गया। इस लड़ाई में 21 सिख सैनिक और करीब 600 अफगान मारे गए थे। दो दिन बाद ब्रिटिश भारतीय फौज की एक दूसरी टुकड़ी ने अफगानों को खदेड़ कर सारागढ़ी पर फिर से कब्जा कर लिया था। लेकिन क्या विडंबना है कि शौर्य की इस महान गाथा के बारे में अधिकांश भारतीयों को पता नहीं है। इसमें दोष उनका नहीं है। दरअसल, सारागढ़ी में तैनात ब्रिटिश भारतीय सेना के ह्य36 सिख बटालियन के इस गौरवशाली इतिहास को भारत के आधुनिक इतिहासकारों ने वह महत्व नहीं दिया, जो इसे मिलना चाहिए था। इस लड़ाई में शहीद सभी 21 सिख सैनिकों (नॉन-कमीशंड ऑफिसर) को तब मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार ह्यइंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट से सम्मानित किया गया, जो विक्टोरिया क्रॉस और अब के परमवीर चक्र के समकक्ष था।  अनुराग सिंह निर्देशित अक्षय कुमार की ह्यकेसरीö इस इतिहास के प्रति युवा पीढ़ी में उत्सुकता जगाने का काम कर सकती है। जाहिर है, लोकप्रिय धारा के बड़े फिल्मकार अमूमन किसी भी कहानी को बड़े पर्दे पर पेश करने का साहस तभी लेते हैं, जब उन्हें कहानी में व्यावसायिक संभावनाएं नजर आती हैं। ह्यकेसरीö को बनाने के पीछे भी यह गणित होगा, इसके बावजूद इस फिल्म के निर्माता-निर्देशक बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने एक ऐसी घटना को पर्दे पर लाने का फैसला किया, जो एक भारतीय के रूप में हमें गौरवान्वित होने का अवसर देती है। बहरहाल, अब बात फिल्म की। हवलदार ईशर सिंह (अक्षय कुमार) और उसका साथी गुलाब सिंह (विक्रम कोचर) नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रांत के गुलिस्तान फोर्ट में तैनात है, जो अफगानिस्तान और भारत की सीमा पर स्थित है। इस फोर्ट पर कब्जा करने के लिए समय-समय पर अफगान धावा बोलते रहते हैं, लेकिन हर बार नाकाम हो जाते हैं। एक दिन सीमा पार एक मौलवी (राकेश चतुर्वेदी) के नेतृत्व में कुछ अफगान एक औरत (तोरांज केवोन) को मौत की सजा दे रहे हैं, क्योंकि वह अपने पति को छोड़ कर भागने की कोशिश करती है। ईशर सिंह से यह देखा नहीं जाता है और वह अपने अंग्रेज अफसर के आदेश की अवहेलना करके उस औरत की रक्षा करता है। इस बेअदबी की वजह से उसका ट्रांसफर सारागढ़ी कर दिया जाता है। सारागढ़ी फोर्ट का इस्तेमाल गुलिस्तान फोर्ट और लोकार्ट पोस्ट के बीच संपर्क पोस्ट के रूप में किया जाता है। ईशर सारागढ़ी आकर पोस्ट के इंचार्ज का कार्यभार संभालता है। उधर ईशर के कारनामे से भड़का मौलवी अफगान सरदारों गुल बादशाह खान (अश्वत्थ भट्ट) और खान मसूद (मीर सरवर) को एक साथ मिल कर सारागढ़ी, गुलिस्तान और लोकार्ट फोर्ट पर हमला करने के लिए तैयार कर लेता है। 12 सितंबर 1897 को दस हजार से ज्यादा अफगान सारागढ़ी पहुंच जाते हैं और सिख सैनिकों से सरेंडर करने के लिए कहते हैं। सहायता के लिए सारागढ़ी से लोकार्ट संदेश भेजा जाता है, लेकिन 36 सिख बटालियन को तत्काल सहायता नहीं मिल पाती। फिर ईशर सिंह के नेतृत्व में सिख सिपाही आखिरी दम तक लडऩे का फैसला करते हैं। ईशर सिंह अपनी पुरानी पगड़ी उतार कर केसरी पगड़ी पहन लेता है, क्योंकि केसरी शौर्य का प्रतीक है। फिल्म की स्क्रिप्ट बहुत अच्छी तरह से लिखी गई है। इस पर काफी शोध किया गया है। एक पोस्ट से दूसरे पोस्ट तक संदेश भेजने के लिए जिस पद्धति का इस्तेमाल किया गया है, वह प्रामाणिक लगता है। लेखक गिरीश कोहली और निर्देशक अनुराग सिंह ने हर पात्र को उभरने का पूरा मौका दिया है। किरदारों को अच्छी तरह से गढ़ा गया है। कहानी में शौर्य के साथ भावनाओं को इस तरह बुना गया है कि वह दर्शकों के दिलों में घर कर जाती है। इस फिल्म में हल्के-फुल्के क्षण भी हैं, जो एकरसता को तोड़ते हैं और गुदगुदाते हैं। हालांकि फिल्म में कुछ चीजें अस्वाभाविक भी लगती हैं, पर अखरती नहीं हैं। अक्षय कुमार के कुछ एक्शन दृश्यों में ह्यबॉलीवुडिया शैली की छाप साफतौर पर दिखती है। इस फिल्म की एक और खासियत है कि इसमें कहीं भी दो सांप्रदायिक वैमनस्य की बात नहीं की गई है। निर्देशक संतुलित अंदाज में अपनी बात को कहने में सफल रहे हैं। हालांकि इस ऐतिहासिक फिल्म में सिनेमाई छूट ली गई है, फिर भी सारागढ़ी की लड़ाई का चित्रण प्रामाणिक लगता है। गीत-संगीत, सेट, बैकग्राउंड संगीत, संवाद बिल्कुल फिल्म के मिजाज के मुताबिक हैं। बैकग्राउंड में जब गुरुगोविंद सिंह द्वारा रचित ह्यदे वर मोहे शिवा निश्चय कर अपनी जीत करूंö बजता है, तो थियेटर में एक अलग तरह का वातावरण निर्मित हो जाता है। फिल्म की सिनमेटोग्राफी शानदार है। हालांकि फिल्म की लंबाई थोड़ी कम रखी जा सकती थी। निर्देशक अनुराग सिंह पंजाबी फिल्मों का बड़ा नाम हैं। उन्होंने पंजाबी में पंजाब 1984 और जट्ट एंड जूलियट सिरीज जैसी बड़ी हिट फिल्में निर्देशित की हैं। वह हिन्दी में भी कीब (2007) और ह्यदिल बोले हड़ीप्पा (2009) जैसी अति साधारण और असफल फिल्में निर्देशित कर चुके हैं। लेकिन वे बतौर निर्देशक ह्यकेसरी में एक अलग छाप छोड़ते हैं। अक्षय कुमार का अभिनय बेहतरीन हैं। उनका गेटअप भी शानदार है। वे पूरी तरह ईशर सिंह लगते हैं। वैसे गेटअप सारे किरदारों का बढिय़ा है। यह अक्षय का अब तक का सबसे बढिय़ा अभिनय है। मौलवी के रूप में राकेश चतुर्वेदी का अभिनय भी याद रह जाता है। फिल्म में जितने भी और कलाकार हैं, वह भी अपने किरदारों के साथ न्याय करते हैं। ह्यकेसरी को देखने के बाद जब हम सिनेमाहॉल से बाहर निकलते हैं, तो जेहन में अनायास ही ये पंक्तियां गूंजने लगती हैं- ह्यसूरा सो पहचानिए, जो लड़े दीन के हेत/ पुर्जा पुर्जा कट मरे कबहुं न छाड़े खेत। निश्चित रूप से यह फिल्म अपनी बात दर्शकों तक पहुंचाने में कामयाब है। एक कालजयी गाथा पर बनी यह फिल्म सिनेमाई श्रेष्ठता की दृष्टि से भले एक कालजयी फिल्म न हो, लेकिन उत्कृष्ट जरूर है। सिनेमा में अगर आपकी ज्यादा रुचि न हो, तो भी आपको यह फिल्म देखनी चाहिए।

ऑपरेशन बालाकोट के बाद अब ऑपरेशन बहावलपुर ?

डाॅ. अरूण जैन

खुफिया एजेंसियों के दावों को सही माना जाए तो पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आइएसआइ ने जैश के मुखिया मसूद अजहर को बहावलपुर में ही छुपा रखा है। ऐसे में कोई बड़ी बात नहीं है कि ऑपरेशन बहावलपुर भारतीय सेना के ऑपरेशन बालाकोट का पार्ट टू हो जाए। पाकिस्तान को भी डर इस बात का है कि जैश के हैडक्वार्टर को ध्वस्त करने के लिए भारत फिर से यहां सर्जिकल और एयर स्ट्राइक कर सकता है। इसी डर से घबराया पाकिस्तान श्रीगंगानगर जिले से सटी 210 किलोमीटर लंबी भारत-पाक अंतरराष्ट्रीय सीमा के इस पार सैन्य गतिविधियों की टोह लेने के लिए बार-बार ड्रोन उड़ा रहा है। लेकिन भारतीय सेना की मुंहतोड़ कार्रवाई के चलते उसके नापाक मंसूबों पर लगातार पानी फिर रहा है। विदित रहे कि श्रीगंगानगर के सीमावर्ती कस्बे अनूपगढ़ से बहावलपुर की दूरी मात्र 170 किलोमीटर है। सरकार और सेना ने अपने बयानों में इसके संकेत भी दिए हैं।  सेना अगर इस ऑपरेशन को अंजाम देती है तो इसके लिए श्रीगंगानगर जिले से सटी भारत-पाक सीमा पर उसे अपने सुरक्षा कवच को मजबूत करना होगा, ताकि ऑपरेशन की पीड़ा से बिलबिला कर पाकिस्तान जवाबी कार्रवाई करे तो उसका भी मुंहतोड़ जवाब दिया जा सके। इस ऑपरेशन की गतिविधियों की टोह लेने के लिए पाकिस्तानी ड्रोन लगातार भारतीय सीमा का उल्लंघन कर रहे हैं। सेना का मानना है कि पाकिस्तान ड्रोन के माध्यम से जो जानकारी जुटाना चाहता है, उसमें उसे सफलता नहीं मिली और इसीलिए वह इस इलाके में बार-बार ड्रोन भेज रहा है। ठिकाने पर कड़ा पहरा भारतीय सेना की ओर से आपरेशन बहावलपुर की आशंका के चलते पाकिस्तान ने बहावलपुर में रेलवे रोड स्थित जैश-ए-मोहम्मद के हैडक्वार्टर पर कड़ा पहरा बैठा दिया है। सेना के साथ वहां पुलिस भी तैनात है और किसी भी अंजान व्यक्ति को भीतर नहीं जाने दिया जाता। शैतान का दिन, शैतान पर फैसला 13 के अंक को पश्चिमी देशों में शैतानों का दिन मान जाता है। गुरुवार को 13 तारीख यानी शैतानों का दिन है और इसी दिन संयुक्त राष्ट्र संघ में जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को ग्लोबल आतंकी घोषित करने पर फैसला होना है। मसूद को लेकर पाकिस्तान के डर का मुख्य कारण यह भी है कि उसे ग्लोबल आतंकी घोषित कर दिया गया तो भारत के लिए ऑपरेशन बहावलपुर को अंजाम तक पहुंचाना आसान हो जाएगा। पाकिस्तान पोषित आतंकवाद से परेशान ईरान भी इस ऑपरेशन में भारत का मददगार हो सकता है। इस फैसले का असर- ग्लोबल आतंकी घोषित होने पर मसूद अजहर यात्रा नहीं कर पाएगा।- उसके हथियार खरीदने पर रोक लग जाएगी।-