डाॅ. अरूण जैन
क्या मैं वो 6 देख रहा हूं जो मुझे देखना चाहिए था, या वो 9 जो मुझे देखना चाहिए था?कॉरपोरेट व्यवसायी नैना सेठी (तापसी पन्नू) के वकील बादल गुप्ता (अमिताभ बच्चन) जब उससे यह सवाल पूछते हैं, तो कहीं न कहीं यह सवाल सिर उठाता है कि क्या नैना सचमुच अपने ही वकील से झूठ बोल रही है? और अगर बोल रही है तो क्यों बोल रही है? बादल, जो रिटायर होने वाले हैं और आज तक एक भी केस नहीं हारे, क्या चौतरफा घिरी नैना को कानून के शिकंजे से बचा पाएंगे?इन सवालों को सुनकर हो सकता है आपको लगे कि इस फिल्म में भी फिल्म 'पिंकÓ सरीखा कोर्टरूम ड्रामा देखने को मिलेगा! हालांकि ऐसा नहीं है। फिल्म 'बदलाÓ लगभग पूरी तरह नैना और उनके वकील बादल के बीच एक कमरे के अंदर हुई बातचीत है। इस बातचीत में ब्रेक या तो उन घटनाक्रमों से आता है जिनके बारे में नैना बताती है, या उन परिस्थितियों से, जिनकी कल्पना बादल करते हैं। इस प्लॉट में रोमांच तो भरपूर है, पर पर्याप्त सस्पेंस की कमी कुछ अखरती है। इसलिए भी, कि इसे सुजॉय घोष ने निर्देशित किया है जिनकी फिल्म 'कहानीÓ और लघु फिल्म 'अहिल्याÓ में रोमांच और रहस्य का एक जबर्दस्त संतुलन था। जो कहानी नैना बादल को सुनाती है, उसके हिसाब से, उनका अर्जुन (टोनी ल्यूक) नाम के फोटोग्राफर के साथ अफेयर चल रहा था जिसकी भनक किसी अंजान शख्स को लग गई थी। वह अंजान शख्स नैना और अर्जुन को ब्लैकमेल कर रहा था। उसने दोनों को एक होटल के कमरे में बुलाया जहां नैना के सिर पर किसी ने वार किया। जब वह होश में आई, तो अर्जुन की मौत हो चुकी थी। इसके बाद पुलिस ने नैना को गिरफ्तार कर लिया था और उसके पति ने भी उसे छोड़ दिया था। मुश्किल की इस घड़ी में नैना का वकील दोस्त (मानव कौल) बेहद सफल और अनुभवी वकील बादल गुप्ता (अमिताभ बच्चन) से नैना का केस लडऩे के लिए कहता है। कहानी के बारे में इससे ज्यादा बताना नाइंसाफी होगी। अंत में फिल्म भयावह सच उजागर करती है। इंटरवेल से बाद का हिस्सा, पहले हिस्से से ज्यादा कसा हुआ और रोचक है। इसका क्लाइमैक्स (अंत) तो इसकी जान है। 'बदलाÓ, स्पैनिश फिल्म 'दि इनविसिबल गेस्टÓ से प्रेरित है। दोनों फिल्मों में मुख्य फर्क यह है कि 'बदलाÓ में कत्ल का इल्जाम एक महिला (तापसी पन्नू) पर है, जबकि 'दि इनविसिबल गेस्टÓ में यह एक पुरुष (मारियो सिएरा) पर था। फिल्म को भारतीय दर्शकों के अनुरूप बनाने के लिए अमिताभ के संवादों में महाभारत के संदर्भ शामिल किए गए हैं। निर्देशन के साथ-साथ सुजॉय घोष ने फिल्म का स्क्रीनप्ले लिखा है और राज वसंत के साथ कहानी भी लिखी है। फिल्म के दौरान कोई गाना नहीं दिखाया जाता(जिसकी जरूरत थी भी नहीं)। एक्टिंग के मामले में अमिताभ बच्चन और तापसी पन्नू दोनों ने अच्छा काम किया है, हालांकि इसे बहुत यादगार नहीं कहा जा सकता। तापसी के प्रेमी बने मलयालम एक्टर टोनी ल्यूक फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी साबित होते हैं जिनकी न तो तापसी संग कोई केमिस्ट्री नजर आती है, न ही वह प्रभावी तरीके से संवाद अदायगी कर पाते हैं। उन्हें ठीकठाक लंबाई वाला रोल मिला है, बावजूद इसके वह ज्यादातर दृश्यों में सहमे-सहमे से नजर आते हैं। हिंदी बोलते वक्त उनका दक्षिण भारतीय लहजा भी फिल्म के मूड के लिहाज से कुछ अखरता है। फिल्म में अमृता सिंह भी हैं जो काफी प्रभावित करती है। अविक मुखोपाध्याय की सिनेमेटोग्राफी शानदार है। मोनिषा आर बलदावा का संपादन भी कसा हुआ है। अंत में, फिल्म का संवाद- बदला लेना हर बार सही नहीं नहीं होता। पर माफ कर देना भी हर बार सही नहीं होता... बहुत कुछ कहता है, बल्कि यही फिल्म का सार है।
No comments:
Post a Comment