डाॅ. अरूण जैन
बॉलीवुड फिल्मों को नएपन के आधार पर दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है। -पहली वो, जिनकी मूल विषयवस्तु परंपरागत होती है और जिनमें कुछ नएपन के मसाले छिड़के गए होते हैं। और दूसरी वो, जिनकी मूल विषयवस्तु नएपन और अनूठेपन से लबरेज होती है और उनमें कुछ बॉलीवुड के परंपरागत मसाले छिड़के गए होते हैं। फिल्म 'मर्द को दर्द नहीं होताÓ दूसरी श्रेणी की फिल्म है। इसके 'मर्दÓ यानी हीरो सूर्या (अभिमन्यु दासानी) को सचमुच दर्द नहीं होता। इसका कारण प्रचलित मुहावरा नहीं बल्कि 'कॉनजेनिटल इनसेंसिविटी टू पेनÓ नामक बीमारी है। उसे कितना भी मार लो, पीट लो, नुकीली चीज चुभो दो- उसे कुछ महसूस नहीं होता। इस अजीब स्थिति के चलते उसे मारने वाले झल्ला जाते हैं। कभी-कभार वह पीटने वालों को चिढ़ाते हुए दर्द न होने के बावजूद 'आउचÓ बोल देता है। सूर्या के मन में यह बात घर कर जाती है कि यह बीमारी एक सुपरपावर की तरह है। इस सुपरपावर को और पुख्ता बनाने के लिए वह मार्शल आर्ट सीखना चाहता है, ताकि सही वक्त आने पर दुश्मनों को मजा चखाना चाहता है। उसकी सबसे अच्छी दोस्त सुप्री (राधिका मदान) हर कारस्तानी में उसका साथ देती है। इस बीच हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि दोनों अलग हो जाते हैं। सूर्या को उसके दादाजी (महेश मांजरेकर) और पिता (जिमित त्रिवेदी) दुनिया से छुपाकर बड़ा करते हैं। पुरानी अंगे्रजी-हिंदी एक्शन फिल्में देख-देख कर सूर्या मार्शल आर्ट के कौशल सीखता है। एक कैसेट में वह मार्शल आर्ट विशेषज्ञ मणि (गुलशन देवैया) को देखता है और उसका मुरीद हो जाता है। एक पैर से लाचार होने के बावजूद मणि मार्शल आर्ट में अकेले 100 लोगों को हरा चुका है। मन ही मन सूर्या उसे अपना गुरु मान लेता है। इन्हीं गुरु का लाल चश्मे वाला हमशक्ल भाई जिमी (गुलशन देवैया) कहानी का विलेन है, जो एक बड़ी सिक्योरिटी कंपनी चलाता है। पीठ पर पानी की बोतल वाला बैगपैक, आंखों में मोटा चश्मा चढ़ाए अभिमन्यु ने इस किरदार के लिए जो मेहनत की है, वह फिल्म में नजर आई है। आत्मविश्वास भी उनमें गजब का है। पर उनके किरदार की कुछ कमियां भी हैं। माना कि वह शारीरिक दर्द नहीं महसूस कर सकते, लेकिन भावनात्मक रूप से 'सुन्नÓ क्यों नजर आते हैं? उदाहरण के तौर पर, अपनी मां को याद करते हुए वह कई डायलॉग बोलते हैं, पर इन्हें बोलते समय उनका चेहरा भावहीन सा रहता है। राधिका मदान को फिल्म 'पटाखाÓ के बाद एक ग्लैमरस किरदार में देखना अच्छा लगता है। फिल्म में उनकी एंट्री बेहद धमाकेदार तरीके से होती है। गुलशन देवैया का डबल रोल था और दोनों ही भूमिकाओं के साथ उन्होंने पूरा न्याय किया है। वह एक मंझे हुए अभिनेता हैं। जिमित त्रिवेदी ने 'ओह माई गॉडÓ के बाद इस फिल्म में भी अच्छा काम किया है। सूर्या और उसके सख्त पिता (जिमित) के बीच बिचौलिये की भूमिका निभाते दादाजी की भूमिका में महेश मांजरेकर ने जान डाल दी है। उनके हिस्से में कुछ बहुत रोचक संवाद आए हैं। फिल्म में एक्शन और कॉमेडी का सही संतुलन है, हालांकि यह कुछ छोटी हो सकती थी। वासन बाला का निर्देशन सधा हुआ है। गीत-संगीत औसत है। सिनेमैटोग्राफी अच्छी है। प्रयोगधर्मी सिनेमा पसंद करने वालों को यह फिल्म अच्छी लगेगी। कुछ लोग इसे 'डेडपूल का भारतीय संस्करणÓ भी कह रहे हैं।
No comments:
Post a Comment