Tuesday, 18 April 2017

कुछ मुद्दों पर ठन भी सकती है मोदी-ट्रंप के बीच


डॉ. अरूण जैन
अमेरिका के नये राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच अच्छा संवाद कायम हो गया है। वे दोनों दो बार फोन पर बात कर चुके हैं और अपने चुनाव-अभियान के दौरान हजारों प्रवासियों भारतीयों के बीच ट्रंप कह चुके हैं कि 'आई लव हिंदू एंड इंडियाÓ। इसके अलावा चार-पांच भारतीय मूल के लोगों को उन्होंने अपने प्रशासन में काफी जिम्मेदारी के पद भी दे दिए हैं। ट्रंप अपने मन की बात बिना लाग-लपेट के कहने के लिए विख्यात हो चुके हैं। उन्होंने कई देशों के बारे में काफी सख्त टिप्पणियां भी की हैं लेकिन भारत के विरुद्ध उन्होंने अभी तक एक शब्द भी नहीं बोला है। उनके चुनाव के दौरान भारतीय मूल के कई लोगों ने उनका डटकर समर्थन भी किया था। इन सब तथ्यों को देखते हुए ऐसा लगता है कि ट्रंप के अमेरिका के साथ भारत के संबंध ओबामा के अमेरिका से भी ज्यादा गहरे हो सकते हैं। गहरे का मतलब क्या? यही कि ओबामा के दौरान दोनों देशों के बीच जो समझौते हुए हैं (उनमें से ज्यादातर अभी तक अधर में लटके हुए हैं), उन्हें अमली जामा पहनाना। पिछले ढाई साल में ओबामा और मोदी की नौ मुलाकातें हो चुकी हैं, लगभग तीन दर्जन मुद्दों पर दोनों देशों का संवाद भी चल रहा है, भारत ने अमेरिका से 15-16 बिलियन डॉलर के शस्त्रास्त्र भी खरीद लिए हैं लेकिन परमाणु भ_ियां लगाने के महत्वपूर्ण समझौते पर कोई ठोस प्रगति नहीं हुई हैं। ट्रंप और मोदी, दोनों ही अपने-अपने देश की राष्ट्रीय राजनीति में अचानक उभरे हैं। दोनों को विदेश नीति के संचालन का अनुभव नहीं है लेकिन दोनों ही अपने संकल्प के धनी मालूम पड़ते हैं। दोनों का अतिवाद और बड़बोलापन आम जनता को उनकी तरफ खींचता है। इसीलिए आशंका होती है कि जब ट्रंप को अपनी भारत-नीति लागू करनी होगी तो वे कहीं पल्टा न खा जाएं जैसे कि मोदी की पाकिस्तान-नीति पिछले ढाई-साल में कई बार उलट-पलट चुकी है। कम से कम दो मुद्दे ऐसे हैं, जिन पर भारत से ट्रंप की ठन सकती है। पहला तो भारतीय नागरिकों को अमेरिका में काम करने के लिए वीजा का प्रश्न है। ट्रंप ने अपने पहले पद-ग्रहण में ही कह दिया है कि वे आप्रवासियों पर रोक लगाएंगे। क्या वे भारतीयों के मामले में ढील देंगे? इस समय अमेरिका की अर्थव्यवस्था में भारतीयों की भूमिका अद्वितीय है। अमेरिका के प्रवासी भारतीय सबसे अधिक समृद्ध, सबसे अधिक शिक्षित, सबसे अधिक खुशहाल और सबसे अधिक मर्यादित समुदाय है। यदि उनके आगमन पर ट्रंप रोक लगाएंगे और यदि उनसे रोजगार छीनेंगे तो भारत चुप कैसे बैठेगा? इसके अलावा वे अमेरिका की ही हानि करेंगे। यदि भारतीय लोग अमेरिका छोड़ दें तो ट्रंप इतने योग्य और अनुशासित अमेरिकियों को कहां से लाएंगे? ट्रंप ने अपने चुनाव-अभियान के दौरान भी इस रोक की रट लगा रखी थी। अब राष्ट्रपति बनते ही उन्होंने अपने अटपटे लगने वाले वादों को लागू करना शुरू कर दिया है, उससे यह संकेत मिलता है कि उक्त मुद्दा शीघ्र ही विवादास्पद बनने वाला है। ऐसे में दो देशों के नेताओं के बीच कायम किया गया दिखावटी सद्भाव कहां तक टिक पाएगा? अगर टिका रहे तो बहुत अच्छा हो! दूसरी बात भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। वह सिर्फ भारत के बारे में ही नहीं है। उसका संदर्भ बड़ा है। ट्रंप का कहना है कि अमेरिकी पूंजी का फायदा दुनिया के दूसरे देश उठा रहे हैं। अब ट्रंप-प्रशासन इस नीति पर पुनर्विचार करेगा। क्या भारत में लगी अमेरिकी पूंजी और उससे पैदा होने वाले रोजगारों पर भी ट्रंपजी की वक्र-दृष्टि होगी? वे स्वयं व्यवसायी रहे हैं। उन्हें पता होना चाहिए कि अब से कई दशक पहले अमेरिका के प्रसिद्ध विदेश मंत्री जॉन फॉस्टर डलेस ने बाहर जाने वाले अमेरिकी डॉलर के बारे में क्या कहा था। डलेस का कहना था कि सहायता या विनियोग के नाम पर बाहर जाने वाला एक डॉलर, तीन डॉलर बनकर वापस लौटता है। भारत-जैसे देशों में लगी अमेरिकी पूंजी हमेशा अमेरिका के लिए ही ज्यादा फायदे दुहती है। ट्रंप का यह कहना सही नहीं है कि 'हमने अन्य देशों को मालदार बना दिया हैÓ और हमारे देश की 'संपदा, शक्ति और आत्मविश्वास हवा में उड़ गए हैं।Ó आशा है कि ट्रंप प्रशासन के अफसर उन्हें जब अमेरिकी नीतियों के अंदरुनी रहस्य समझाएंगे तो उनके विचारों में कुछ बदलाव आएगा। तब शायद वे सिर्फ 'पहले अमेरिकाÓ कहने के साथ-साथ यह भी कह देंगे कि 'दूसरे भी साथ-साथ।Ó इन आशंकाओं के बावजूद अभी ऐसा लगता है कि ट्रंप के अमेरिका और मोदी के भारत में एक मुद्दे पर जबर्दस्त जुगलबंदी हो सकती है। वह है, आतंकवाद का! यों तो ओबामा भी आतंकवाद का विरोध करते रहे लेकिन ट्रंप ने आतंकवाद के उन्मूलन के लिए जैसा खांडा खड़काया है, पिछले 20 साल में किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति ने नहीं खड़काया। उन्होंने सात मुस्लिम राष्ट्रों के नागरिकों के अमेरिका आने पर भी रोक लगा दी है। पश्चिम एशिया के इन राष्ट्रों में आतंकवादियों का दबदबा है। भारत के लिए जरा आश्चर्य की बात है कि इन राष्ट्रों की सूची में पाकिस्तान और अफगानिस्तान का नाम नहीं है। भारत तो इन्हीं राष्ट्रों के आतंकवादियों का शिकार है। क्या ट्रंप भी अन्य राष्ट्रपतियों की तरह केवल उन्हीं आतंकी राष्ट्रों के खिलाफ होंगे, जो अमेरिकी हितों को चोट पहुंचाते हैं? यदि ऐसा होगा तो मानना पड़ेगा कि उन्होंने मोदी को सब्जबाग दिखा दिया है। चने के पेड़ पर चढ़ा दिया है। उन्हें जब नवाज शरीफ ने जीतने पर बधाई दी थी, तब उनकी लफ्फाजी देखने लायक थी। उन्होंने नवाज और पाकिस्तान को भी सिर पर बिठा लिया था। यदि ट्रंप अफगानिस्तान से पूरी तरह हाथ धोना चाहेंगे और पाकिस्तान को चीन के हाथों में सौंप देंगे तो अमेरिका की दक्षिण एशियाई नीति शीर्षासन की मुद्रा धारण कर लेगी। यद्यपि इस्राइल के प्रति मोदी और ट्रंप का भाव चाहे एक-जैसा हो लेकिन भारत इस्राइल की ट्रंप-नीति का पूर्ण समर्थन नहीं कर पाएगा। हमारे सुयोग्य विदेश सचिव जयशंकर पर निर्भर करता है कि ट्रंप की इस अल्हड़ नदी में वे भारत की नाव को किस तरह खेते रहेंगे।  ट्रंप ने अमेरिका को 12 राष्ट्रीय प्रशांत संगठन (टीपीटी) से भी मुक्त कर लिया है। इन राष्ट्रों पर चीन का दबदबा बढ़ेगा। वे 'नाटोÓ सैन्य संगठन को भी अप्रासंगिक कह चुके हैं। वे पुतिन के रूस को अमेरिका के बहुत निकट लाना चाहते हैं। वे मेक्सिको और अमेरिका के बीच दीवार खड़ी करने पर तुले हुए हैं। वे जलवायु संबंधी वैश्विक सर्वसम्मति के भी विरुद्ध हैं। उनका और उनकी नीतियों का अमेरिका में ही जमकर विरोध हो रहा है। वे किसी को नहीं बख्श रहे। उन्होंने अपनी पार्टी के असंतुष्ट नेताओं और अमेरिकी पत्रकारों की भी खूब खबर ली है। पिछले राष्ट्रपतियों और प्रशासनों पर भी रंदा चलाने में वे नहीं चूके हैं। ऐसी हालत में ट्रंप के साथ चलते वक्त भारत को अपने कदम फूंक-फूंककर रखने होंगे।

No comments:

Post a Comment