Sunday, 13 December 2015

सिर्फ वंचितों को आरक्षण देने की दलील में गलत क्या? 


डॉ. अरूण जैन
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत ने आरक्षण के बारे में ऐसा क्या कह दिया कि राजनीति को महज वोट बैंक तक समेट देने वालों के समान ही भारतीय जनता पार्टी उसकी मुखालफत में मुखरित हो गई? क्या किसी व्यवस्था का उद्देश्य के अनुरूप क्रियान्वयन की समीक्षा करने से हमें गुरेज करना चाहिए। यह माना जाता है और प्राय: सभी सरकारें और संगठन निर्धारित किए गए कार्यक्रम और योजनाओं की नित्य ही समीक्षा करते रहते हैं। समीक्षा को क्रियान्वयन को सुनिश्चित कराने का सर्वोच्च उपाय माना जाता है। यदि मोहन भागवत ने चौथाई शताब्दी पहले पिछड़े वर्ग के और आधी शताब्दी से भी अधिक समय से अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए लागू आरक्षण की समीक्षा की आवश्यकता जतायी तो किसके सामने से परोसी थाली खिसका ली और आरक्षण के नाम पर जो कुछ देश में हो रहा है उसको देखते हुए आरक्षण को राजनीति का मुद्दा बनाने का परामर्श दिया? ऐसा उन्होंने नहीं किया है। समय−समय पर देश के तमाम विचारवान लोगों यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय तक ने आरक्षण के लिए लिये जाने वाले राजनीतिक निर्णय पर न केवल विपरीत टिप्पणी की है अपितु उसे खारिज भी कर दिया है। भारतीय जनता पार्टी का दावा है कि वह सत्ता के लिए राजनीति नहीं करती इसलिए उसका वोट बैंक की रणनीति में भरोसा नहीं है लेकिन आरक्षण के संदर्भ में श्री भागवत की अभिव्यक्ति पर उसकी प्रतिक्रिया शाब्दिक भेद के अलावा उन लोगों से भिन्न नहीं कही जा सकती जो केवल सत्ता से सम्पन्नता के लिए वोट बैंक की राजनीति में आकंठ डूबे हुए हैं। अर्ध और चौथाई शती से जो व्यवस्था लागू है क्या उस उद्देश्य की प्राप्ति में सफल रही है जिसको संज्ञान में लेकर उसे लागू किया गया था? समय−समय पर जो तथ्य उभरकर आते रहे हैं उससे तो यही पता चलता है कि इतनी अवधि बीत जाने के बाद भी अभी भी सत्तर प्रतिशत से अधिक लोग इसके संपर्क से भी अछूते हैं। कुल तीस प्रतिशत लोगों में यह व्यवस्था सिमट कर रह गई है और यही तीस प्रतिशत शेष के भी प्रवक्ता बनकर किसी भी समीक्षा के खिलाफ मुखरित हो उठते हैं। आरक्षण जो कि सामाजिक बराबरी के लिए आर्थिक उत्थान की अवधारणा से लागू किया गया था वह अब हक के रूप में परिवर्तित हो चुकी है तथा सामाजिक विषमयता और संघर्ष का कारण बनती जा रही है। संघ एक ऐसा संगठन है जो सामाजिक समरसता के लिए काम करता है। ऐसी स्थिति में उसका चिन्तित होना अस्वाभाविक नहीं है। आरक्षण की समीक्षा के लिए मोहन भागवत द्वारा की गई अभिव्यक्ति के बाद राजस्थान की भाजपा सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित सीमा−पचास प्रतिशत−को नजरंदाज कर आरक्षित वर्ग को उनहत्तर प्रतिशत कर दिया है। समय−समय पर विभिन्न राज्य सरकारें वर्गों और सम्प्रदायों के आग्रह पर ऐसा ही विधेयक पारित करती रही हैं। क्या हुआ उनका परिणाम? सभी को सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक करार कर दिया और वे लागू नहीं हो सकी। जिन सरकारों ने उन्हें लागू किया था उन्होंने मांगकर्ताओं से मुक्ति पाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का सहारा लिया। राजस्थान सरकार के निर्णय का भी वही हश्र होने वाला है। आरक्षण की परिधि में शामिल किए जाने के लिए जो आंदोलन हो रहे हैं उससे अपनी साख को बचाने के लिए जानते हुए भी कि वह असंवैधानिक है, सरकार कानून बनाने से परहेज नहीं कर रही है। उन पर अमल नहीं हो सकेगा इसके लिए आश्वस्त होते हुए भी लिये गये निर्णय से ऐसी सरकारें जिस आकांक्षा को बलवती बना रही हैं वह हिंसक होती जा रही है। गूजरों ने लगभग एक महीने तक रेलपथ को घेरे रखा उनका अनुसरण अब सभी करने लगे हैं। चाहे पश्चिम उत्तर प्रदेश और हरियाणा के जाट हों या फिर गुजरात का पाटीदार समुदाय, आवागमन बाधा से अरबों रूपये की क्षति हो रही है। तोड़ फोड़ से सरकारी सम्पत्ति को नष्ट किया जा रहा है। इसकी भरपायी किसको करनी पड़ेगी या पड़ रही है? सरकारी सम्पत्ति किसकी सम्पत्ति है? शायद ही किसी को इसकी परवाह होगी। उत्तर प्रदेश में आरक्षण ने एक अलग समस्या खड़ी कर दी है जिससे सम्पूर्ण प्रश्नतंत्र लुंज पुंज हो गया है। पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने अनुसूचित जाति के लिए आरक्षण का क्रियान्वयन जिस ढ़ंग से किया, उसके फलस्वरूप कनिष्ठ−ज्येष्ठ हो गए और ज्येष्ठ कनिष्ठ। इसके विरूद्ध प्रभावित लोग उच्च न्यायालय की शरण में गए। न्यायालय ने सरकार के निर्णय को गलत करार कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के फैसले की ही पुष्टि की और वर्तमान सरकार को एक निर्धारित समय सीमा में दुरूस्ती का निर्देश दिया। उहापोह के बाद सरकार को न्यायालय के निर्देश के अनुसार काम करना पड़ा है। राज्य का कर्मचारी दो भागों में बंट गया है। धरना−प्रदर्शन से आगे बढ़कर धमकियां दी जाने लगी हैं। यह तनाव धमकियों से आगे भी बढ़ सकता है ऐसे संकेत मिल रहे हैं। आरक्षण ने युवा पीढ़ी को उत्तेजित और गुमराह करने का काम किया है और राजनीतिक दलों को वोट बैंक बनाने के लिए प्रेरित किया है। हमने जाति आधारित सामाजिक पिछड़ापन को आरक्षण का आधार माना है तो फिर मजहब के आधार पर आरक्षण दिलाने के वादे क्यों किए जा रहे हैं। यदि तथाकथित सवर्ण वर्ग को हमने सामाजिक पिछड़ा नहीं माना है तो फिर उनमें आर्थिक रूप से पिछड़ों के लिए आरक्षण का नारा हर राजनीतिक दल क्यों बुलंद कर रहा है। हमने ऐसे कानून बना लिए हैं जिसमें जन्म के आधार पर असमानता अपराध बन गया है। इसलिए जाति या सम्प्रदाय के आधार पर पिछड़ापन का कोई औचित्य नहीं है। पिछड़ा वह है जो वंचित है, जो वंचित है वही शोषित है वही असमानता का शिकार है। तो क्या यह औचित्य पूर्ण नहीं होगा कि वंचितों की पहचान जाति, सम्प्रदाय, क्षेत्र आदि के बजाय उनकी वंचित स्थिति को संज्ञान में लेकर की जाये। इस पहचान के आग्रह को शताब्दियों से शोषण कर रहे लोगों की साजिश की संज्ञा प्रदान कर शोर मचाया जाता है। यद्यपि इस शोर का कोई औचित्य नहीं है लेकिन क्योंकि राजनीति वोट बैंक की हो गई है इसलिए कोई भी दल इसके औचित्य का प्रतिपादन करने के लिए मुखरित नहीं होता। इसलिए यह कहा जाने लगा है कि क्या जिन वर्गों को सामाजिक बराबरी और आर्थिक उत्थान के लिए आरक्षण दिया जा रहा है, क्या इस वर्ग को उसका समुचित लाभ हुआ है या नहीं इसकी समीक्षा होनी चाहिए। और जो लोग आर्थिक उत्थान के कारण सामाजिक पिछड़ेपन के दायरे से बाहर हो गये हैं क्या उनको आरक्षण से लाभान्वित होने से वंचित कर जो वंचित हैं उनको लाभ नहीं पहुंचाया जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय ने पिछड़े वर्ग में ऐसे लोगों के लिए क्रीमीलेयर निर्धारित करने का निर्देश भी दिया लेकिन सरकारों ने क्रीमीलेयर के लिए जो मानक तय किया है उससे अरब खरबपति भी प्रभावित नहीं होता। अनुसूचित वर्ग में तो इस लेयर की चर्चा भी करना पाप कृत्य बन जाता है। फलत: आरक्षण कुछ परिवारों में ही बंधुआ बन गया है। यद्यपि अनुसूचित जाति आयोग के वर्तमान अध्यक्ष पीएल पूनिया ने जो एक प्रशासनिक अधिकारी रहे हैं, समीक्षा के ओचित्य का प्रतिपादन किया है तथापि उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती के समान ही असर करने वाली साबित हुई है। कई दलित लेखकों और उद्यमियों ने भी आरक्षण के वर्तमान स्वरूप पर प्रश्नचिन्ह लगाए हैं लेकिन वोट बैंक के सौदागरों द्वारा भयदोहन अभियान से उसे कुंठित कर दिया गया।

मोदी विरोधी अभियान का नेता कौन- राहुल या लालू? 



डॉ. अरूण जैन
दिल्ली के बाद बिहार विधान सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की भारी पराजय से एक बात बहुत स्पष्ट हो गई है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के लिए आने वाले दिन अधिकतम कठिनाई भरे होंगे। संसद और संसद के बाहर असहिष्णुता का मुद्दा बनाकर भाजपा की लोकसभा चुनाव में अभूतपूर्व विजय के माहौल से मतदाताओं को निकालकर सारे देश में ऐसा माहौल बनाने का प्रयास होगा, जिसका सामना करने में भाजपा को अकेले जूझना पड़ेगा। लोकसभा चुनाव में जो उसके साथ रहे हैं उसमें शिवसेना ने तो बिहार चुनाव के पहले से ही ताल ठोंक रखी है और जो सहयोगी अल्पसंख्यक अर्थात् मुस्लिम मतदाताओं के विपरीत रूख से हतोत्साहित होकर साथ छोड़ सकते हैं उनमें तेलुगूदेशम पार्टी संभवत: सबसे आगे रहेगी। पंजाब में अकाली दल के लिए भाजपा का साथ छोडऩा संभव नहीं है, लेकिन जम्मू कश्मीर में पीडीपी कब तक कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस के आमंत्रण को ठुकराती रहेगी यह कह पाना कठिन है। भाजपा का बिहार में चुनाव जीत पाना संदिग्ध अवश्य था लेकिन वह दिल्ली के समान ध्वस्त होगी इसका अनुमान किसी ने नहीं लगाया। इस परिणाम के लिए भाजपा की वही रणनीति भी जिम्मेदार है जिसके कारण वह दिल्ली में हारी थी। दिल्ली में यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अरविन्द केजरीवाल की व्यक्तिगत आलोचना कर उन्हें अपने समकक्ष न खड़ा कर दिया होता तो शायद परिणाम का वैसा स्वरूप प्रगट नहीं हुआ होता जैसा हुआ है। उम्मीद यह थी कि बिहार में जिस विकास की आस जगाने के लिए भाजपा चुनाव मैदान में उतरी थी उसी पर कायम रहेगी तथा प्रधानमंत्री नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव की व्यक्तिगत आलोचना नहीं करेंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं। प्रधानमंत्री बिहार के इन दो धुरंधर राजनीतिक विरोधियों की संयुक्त शक्ति का अनुमान लगवाने में असफल रहे। बिहार में भाजपा वैसे ही अकेले दम पर विकल्प की स्थिति में कभी नहीं रही है, इसलिए वह मत प्रतिशत के आधार पर अपने लिए संतोष का दावा कर सकती है लेकिन जो नतीजा सीटों के रूप में सामने आता है समीक्षा का आधार वही बनता है। लोकसभा में पूर्ण बहुमत पाने के बावजूद उसका मत प्रतिशत चालीस तक नहीं पहुंच सका था। तो क्या यह संभव है कि आगामी आने वाले चुनावों में चाहे वह विधानसभा का हो या फिर 2019 में लोकसभा का जिस हिन्दी क्षेत्र में उसे भारी सफलता अन्य दलों के बिखराव से मिली थी, उसका संज्ञान लेकर जैसी एकजुटता बिहार में हुई है वह आगे बढ़ेगी। इसकी संभावना कम है। हिन्दीभाषी प्रदेशों में अगला आम चुनाव उत्तर प्रदेश में 2017 में होना है। उत्तर प्रदेश के दो प्रभावी दल समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी हैं। भाजपा लोकसभा चुनाव में भारी सफलता के बावजूद तीसरे स्थान और कांग्रेस चौथे स्थान पर है। यद्यपि एक बार 1993 में सपा−बसपा ने मिलकर चुनाव लड़ा था, लेकिन उसके बाद से वे एक−दूसरे का विकल्प भर बनकर रह गए हैं। कांग्रेस का अस्तित्व नाममात्र के लिए है। ऐसे में भाजपा को किसी महागठबंधन की चुनौती का सामना तो नहीं करना पड़ेगा लेकिन एक चुनौती स्थायित्व पा चुकी है। वह कारण जिसके फलस्वरूप 1990 में पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनाने के बाद से विधानसभा में प्रत्येक निर्वाचन में उसकी संख्या घटती जा रही है। जिस प्रकार सपा−बसपा सरकार रहते हुए हार के कारणों में जाने से परहेज करती हैं, शायद भाजपा भी निरंतर घटती जा रही विधायकों की संख्या के कारण का संज्ञान लेने में असफल रही है। बिहार में महागठबंधन का एजेंडा लालू प्रसाद यादव ने पटना की प्रथम जनसभा में जिसमें नीतीश कुमार और सोनिया गांधी दोनों मौजूद थे, बहुत स्पष्ट कर दिया था। चुनाव अगड़ों और पिछड़ों के बीच होगा। बिहार में पिछड़ा वर्ग वर्चस्व राजनीति का केंद्र बिन्दु रहा है। इसलिए आरक्षण नीति की समीक्षा के औचित्य की चाहे जितनी वांछनीयता हो, इस अभिव्यक्ति ने इस वर्ग में भाजपा के प्रति अनुकूलता को प्रतिकूलता में बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। लालू यादव और नीतीश कुमार ने बड़ी चालाकी से अनुसूचित वर्ग में भी इस आशंका की पैठ बढ़ाई। भाजपा सफाई देती रही लेकिन वह इस आशंका से मतदाताओं को उबार पाने में असफल रही। देशभर में जो भाजपा विरोधी हैं उन्होंने कुछ क्रियाओं पर भाजपा के छुटभैय्यों की प्रतिक्रिया को मुद्दा बनाकर जो माहौल पैदा किया उसने राष्ट्रपति को असहिष्णुता के माहौल से विचलित कर दिया। मुस्लिम मतदाता भाजपा के प्रति कभी अनुकूल नहीं रहा है। लेकिन वह जब बंट जाता है तो उसका लाभ भाजपा को मिल जाता है। लोकसभा चुनाव के समय समग्र रूप से भाजपा के खिलाफ एकजुट ना हो पाने का उसे मलाल रहा है। इसलिए गौमांस भक्षण और दादरी जैसी घटनाओं को मुद्दा बनाकर मुखरित विशिष्टता प्राप्त लोगों की अभिव्यक्ति ने उसे एकजुट होने की प्रेरणा दी। भाजपा और कुछ अन्य संगठनों के निचले पायदान के लोगों ने उस पर जो प्रतिक्रिया की वही भाजपा का एजेंडा है यह बात मुसलमानों को समझाने में महागठबंधन सफल रहा। इसीलिए जो मुस्लिम दल जोर आजमाइश के लिए उतरे थे, उनका मुलम्मा मुसलमानों पर नहीं चढ़ पाया। सजायाफ्ता लालू यादव को यादव वर्ग अपना नेता मानता है उनके राजनीतिक हाशिए पर चले जाने का उनको मलाल था, नीतीश कुमार के साथ आने पर उन्हें अपना वर्चस्व लौटाने का स्वर्णिम अवसर प्राप्त हो गया। यद्यपि भाजपा ने किसी भी राज्य विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित नहीं किया तथापि जहां पहले से मुख्यमंत्री मौजूद थे, यथा राजस्थान, मध्य प्रदेश या छत्तीसगढ़ के अलावा जहां उसे सफलता मिली। यथा गोवा, महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड वहां कांग्रेस या जिन दलों से उसे संघर्ष करना था, उनकी भी साख कांग्रेस के समान ही थी। लोकसभा चुनाव के मुकाबले मत प्रतिशत कम होने के बावजूद उसे सफलता मिली। इन सभी राज्यों में महाराष्ट्र एक ऐसा राज्य है जहां बड़े भाई की भूमिका निभा रहे शिवसेना को छोटे भाई की स्थिति असहनीय हो गई है, वह वहां कुछ विस्फोट कर दे तो आश्चर्य नहीं होगा। फिलहाल तो वह शल्य के समान मनोबल तोडऩे में लगी है। बिहार के चुनाव में भाजपा को परास्त करने की एकजुटता की स्थिति कैसी रहेगी, इस पर भावी राजनीति निर्भर रहेगी।

क्या नरेंद्र मोदी का जादू कम हो गया है? 

डॉ. अरूण जैन

नरेंद्र मोदी का जादू कम हो गया है या चुनाव प्रचार गलत ढंग से हुआ। वजह कुछ भी हो, वास्तविकता यह है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का बिहार में सफाया हो गया। भाजपा आत्मविश्वास दिखा रही है और उसे लगता है कि विपक्षी एकता उसके नुकसान का कारण है। फिर भी, बिहार के चुनावों ने भाजपा, खासकर प्रधानमंत्री-पार्टी अध्यक्ष के रूप में मोदी और अमित शाह की जोड़ी के मंसूबों पर करारा प्रहार है। एक दूसरे पर दोष लगाने का सिलसिला, जो मतगणना के कुछ घंटों के बाद ही शुरू हो गया था, लगातार जारी है। नेतृत्व वर्ग में क्रोध के स्वर बढ़ते जा रहे हैं। आने वाले समय में यह और भी बढ़ेगा। हर चुनाव के बाद जिस तरह विश्लेषण होते हैं, बिहार का भी बार-बार विश्लेषण किया जाएगा। बेशक, किसी समय में लड़े जाने वाले चुनाव के मुकाबले सबसे ज्यादा तीखे ढंग से लड़ा गया चुनाव था। पहले कोई भी चुनाव सांप्रदायिक नफरत के आधार पर बांटने वाली राजनीति और धार्मिक असहिष्णुता के आधार पर नहीं लड़ा गया है। हमने ऐसा कोई विधानसभा चुनाव नहीं देखा जिसमें दर्जनों केंद्रीय मंत्रियों ने प्रचार किया हो और प्रधानमंत्री ने 30 रैलियों में भाषण किया हो। पार्टी अमित शाह रणनीति तैयार करने के लिए आठ महीनों से भी ज्यादा बिहार में जमे रहे। लेकिन परिणाम आए तो महागठबंधन को सफलता हाथ लगी। नीतिश कुमार और लालू प्रसाद की जोड़ी कांग्रेस, जिसे 2014 के आम चुनावों के बाद से मिल रही लगातार पराजय के बाद अपनी स्थिति में बदलाव जरूरत थी, के साथ खामोशी से भारी विजय की ओर बढ़ गई। यह आरएसएस और भाजपा की बांटने वाली राजनीति के मुकाबले सामाजिक कल्याण और आर्थिक विकास के लिए वोट था। अंत में, जैसा पाया गया कि बिहार के लोगों ने मोदी के जोर और तथाकथित गुजरात मॉडल के कारण 2014 में केंद्र की सत्ता में आई भाजपा की पूरी तरह नकार दिया। वास्तव में दोनों को अस्वीकार करने में दिल्ली पहली थी जो 70 में से 67 सीटें देकर आम आदमी पार्टी को सत्ता में ले आई। बेशक, भाजपा ने कुछ राज्यों में सफलता का स्वाद जरूर चखा। झारखंड और हरियाणा में उसे सफलता मिली और जम्मू-कश्मीर में उसने पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ सरकार बनी ली। लेकिन बिहार एक ऐसा राज्य था जहां भाजपा को मुश्किलों को पार कर लेने का भरोसा था। दुर्भाग्य से, ऐसा नहीं होना था। मेरी राय में भाजपा के नुकसान के कई कारण हैं- ध्रुवीकरण, आरक्षण, गाय आदि। लेकिन मेरे हिसाब से, पिछले दो कार्यकलापों में नीतिश कुमार ने जो सुशासन दिया वह साफ दिखाई देता है। नीतीश कुमार ने उपहार के रूप में थोड़े समय के लिए सत्ता जीतनराम मांझी को चलाने दी। इसे एक छोटा भटकाव मानकर भूल जाना चाहिए। दूसरों शब्दों में कहें, बिहार के लोग सुशासन का चेहरा बन चुके नीतीश कुमार को इसके बावजूद चुनना चाहते थे कि उन्होंने अपने घोर विरोधी राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू यादव से हाथ मिला था। आरजेडी को जनता दल युनाइटेड से ज्यादा सीटें मिली हैं और लालू यादव मंत्रिमंडल बनाने में तकलीफ देने वाली कीमत मांग सकते हैं। लेकिन मुझे विश्वास है कि नीतीश कुमार बागडोर थामेंगे और लोगों को निराश नहीं करेंगे जिन्होंने उनमें विश्वास जाहिर किया है। मुझे यह भी उम्मीद है कि कांग्रेस, जिसकी विधानसभा में अच्छी संख्या है, आसपास में जो कुछ हो रहा है उसे नजरअंदाज नहीं करेगी। मैं इसे कोई ज्यादा मायने की बात नहीं समझता कि लालू ने कहा कि नीतीश बिहार में शासन करेंगे और वह खुद केंद्र में मोदी का मुकाबला करेंगे, बिहार के मामलों में दखलदाजी किए बगैर। मैं यह बड़बड़ाहट सुन सकता हूं कि लालू के बेटों को मंत्रिमंडल में लिए जाने और एक को उपमुख्यमंत्री बनाने का संकेत दिया जा रहा है। यहीं पर नीतीश को संतुलन बनाना होगा क्योंकि भाजपा और एनडीए में उनके प्रतिद्वंदियों को ऐसे ही मौके की तलाश है ताकि वे कूदकर उसे दोनों हाथ से लपक लें। मैं इसमें नहीं जाना चाहता कि भाजपा से कहां चूक हुई क्योंकि पार्टी में चुनाव मैनेजर हैं जो इसका विश्लेषण करेंगे। लेकिन मैं अधिकार के साथ कह सकता हूं कि बिहार के उदाहरण ने भविष्य में आ रहे चुनावों के लिए एक ढांचा दे दिया है। अगले साल असम, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु को चुनाव में जाना है तो क्षेत्रीय पार्टियां हर राज्य में बिहार के मॉडल पर भाजपा के खिलाफ कुछ गठबंधन बना सकती है। निस्संदेह, हर राज्य की अपनी जरूरतें हैं और विकास के कार्यक्रम हैं, इसके अलावा अपने स्थानीय नेताओं के साथ खास मॉडल पर काम करते है। सिर्फ एक चालाक गठजोड़ जो लालू और नीतीश कुमार की तरह का हो और जिसे स्थानीय मतदाताओं की नब्ज की पहचान हो, उस हद तक सफलता हासिल कर सकता है जिस हद तक बिहार में सफलता मिली है। चुनाव के पहले का समझौता निश्चित और स्थानीय जरूरतों की पक्की समझदारी के आधार पर होना चाहिए। मोदी-शाह के नेतृत्व माडल पर लौटें तो मुझे यह कहते हुए दुख है कि दोनों ने चीजों को महत्व नहीं दिया। चुनाव अभियान के दौरान दिखाया गया उनका घमंड पार्टी के सफाए का एकमात्र कारण हो सकता है। निश्चित तौर पर, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण का मुद्दा उठा कर आग में घी डाला। यहां तक कि बिहार के भाजपा नेतृत्व ने कई बयान दिए हैं जो इस ओर इशारा करते हैं कि पार्टी कुछ मुद्दों पर अंतिम हद तक गई और वे यह बताते दिखते हैं कि आरएसएस प्रमुख के बयान बिहारियों को ठीक नहीं लगे। ऐसा लगता है कि मोदी रास्ता भटक गए हैं और नहीं जानते कि नौकरशाही की खामियों पर किस तरह काबू पाया जा सकता है, ऐसी चीज जिसका सामना पहले शासन करने वालों को करना पड़ा था। पार्टी की ओर से घोषित आर्थिक सुधार देश को निर्लज्जता से दक्षिण पंथ की ओर ले जाता है। अगर जवाहर लाल नेहरू की समाजवादी जैसी पद्धति बहुत ज्यादा है, तो ज्यादातर गरीब जनता वाले देश में भाजपा अमीरों और कारपोरेट समर्थक होने का आभास नहीं दे सकती और उसे दक्षिणपंथी नीतियों से बाहर आना होगा। मैं यह सुझाव नहीं दे रहा हूं कि पार्टी भारतीय संविधान की प्रस्तावना के हर अक्षर का पालन करे। लेकिन वह ऐसी कोई राह नहीं अपना सकती जो संविधान के भावना के एकदम विपरीत हो, ऐसा शासन जो उस कदम के खिलाफ हो जो अमीरों और गरीबों के बीच कम करने के लिए उठाया गया हो। मोदी और उनकी पार्टी जितनी जल्दी यह समझ लें, उतना बेहतर होगा।

Monday, 7 December 2015

सर्दियों में कई पर्यटन स्थल हो जाते हैं गुलजार 





अरूण जैन
सर्दियों की ठंडी रातें और सर्द सुबह। ऐसे में मन करता हैं, बस चाय और किताबें लेकर रजाई में मजा है। गुलमर्ग की बर्फबारी देखने का आनंद तो इसी मौसम में है। हिमालय की पहाडिय़ां बर्फ की रजाई ओढ़े अलग ही दृश्य प्रस्तुत करती हैं। भारत में भी कुछ ऐसी जगहें हैं जहां इन सर्दियों में घूमने का मजा लिया जा सकता हैं। तो आइए चलें और खूबसूरत सर्दियां मनाएं इन जगहों पर- मनाली- दिसम्बर में मनाली की बर्फबारी यहां की सुंदरता में चार चांद लगा देती है। बर्फ से ढकी पहाड़ की चोटियों को देखकर ऐसा लगता हैं मानों पूरा हिल स्टेशन सफेद मखमली रजाई से ढका हो। गुलमर्ग- अगर आप ऐसी जगह जाना चाहते हैं, जहां की खूबसूरती देखकर एक पल के लिए निहारते रह जाएं, तो गुलमर्ग से बेहतर कुछ नहीं। कश्मीर घाटी को तो धरती का स्वर्ग कहा जाता है जब यह पूरी तरह बर्फ से ढ़क जाती है। श्रीनगर से 50 किलोमीटर दूर गुलमर्ग में सबसे ज्यादा बर्फबारी देखने को मिलती हैं। इस दौरान यहां स्कींग का मजा लिया जा सकता है। जैसलमेर- इसे डेजर्ट (रेतीला) शहर भी कहा जाता है। यहां के खूबसूरत किले देखने के लिए पूरे देश से पर्यटक आते हैं। शादी-शुदा जोड़े और हनीमून के लिए यह जगह बेहतर है। यहां का कैमेल राइड, सूर्योदय और सूर्यास्त देखने का अलग ही आनंद है। यहां आकर ऐसा लगता हैं मानों हम खुद ही राजा है। मुन्नार- मुन्नार के चाय के बागान बादलों से ढकी ढलानें, खूबसूरत पहाड़ी और प्राकृतिक दृश्य के कारण इसे भगवान का देश कहा जाता है। मुन्नार में साहसिक खेलों का भी आनंद लिया जाता है। हनीमूनर्स के लिए यह बेहतरीन जगह हैं। यहां पूरे परिवार के साथ जा सकते हैं। कसोल- कुल्लू से 42 किलोमीटर दूर छोटा सा गांव कसोल पार्वती घाटी में बसा है। यहां की खूबसूरती देखते बनती है। मनिकर्ण से सिर्फ पांच किलोमीटर दूर यह गांव बेहतरीन पर्यटक स्थल है। मसूरी- देहरादून से सिर्फ एक घंटे की यात्रा कर आप खूबसूरत शहर मसूरी पहुंच सकते ळैं। साप्ताहांत में भी यहं के खूबसूरत दृश्यों का आनंद लिया जा सकता है। दिसम्बर के अंत में यहां की बर्फबारी देखते बनती है। क्रिसमस की छुट्टियों में यहां की बर्फबारी और चारों तरफ फैली हरियाली का मजा आप ले सकते हैं। शिमला- सर्दियों में ज्यादातर लोग शिमला जाना पसंद करते हैं। मनोरंजन के हिसाब से भी शिमला बेहतरीन है। यहां की बर्फबारी पूरे देश से देखने लोग आते हैं। इसके अलावा दार्जलिंग की खूबसूरत पहाडिय़ां, पटनीटॉप की शिवालिक पहाडिय़ों पर बर्फबारी और जोधपुर के ऐतिहासिक किले और यहां की वास्तुकला भी देखने लायक है।
कितना कामयाब रहेगा बिहार का नया राजनैतिक संयोजन 
अरूण जैन
बिहार में नयी सरकार के गठन के बाद मंत्रिमंडल का जो स्वरूप उभर कर आया है उस पर कई सवाल खड़े किये जा रहे हैं। मात्र आठवीं कक्षा पास व्यक्ति यदि आज के दौर में भी किसी राज्य का उपमुख्यमंत्री बनने में कामयाब हो पाया है तो इसे भारतीय लोकतंत्र का कमाल नहीं बल्कि खामी कहा जाना चाहिए। उल्लेखनीय है कि महागठबंधन में सबसे ज्यादा विधायकों वाली पार्टी राष्ट्रीय जनता दल है और उसके प्रमुख लालू प्रसाद यादव के दोनों युवा पुत्र राज्य मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री बनाये गये हैं। यह दोनों मंत्रिमंडल में कितने वरिष्ठ हैं इसका अंदाजा इसी बात से लगा लेना चाहिए कि तमाम वरिष्ठों और अनुभवी नेताओं को दरकिनार करते हुए मुख्यमंत्री के बाद लालू पुत्रों को शपथ दिलाई गई। लालू प्रसाद यादव के छोटे बेटे तेजस्वी यादव बिहार के उपमुख्यमंत्री बनाये गये हैं और वह सड़क निर्माण विभाग संभालेंगे जबकि उनके बड़े भाई तेज प्रताप यादव जोकि शपथ लेते वक्त उच्चारण भी सही तरह से नहीं कर पा रहे थे अब स्वास्थ्य, सिंचाई और पर्यावरण जैसे महत्वपूर्ण महकमों की जिम्मेदारी संभालेंगे। यह सही है कि बिहार या देश में कम शैक्षणिक योग्यता वाले व्यक्ति का मंत्री या मुख्यमंत्री बनना कोई नयी बात नहीं है लेकिन आज जबकि भारत तेजी से तरक्की कर रहा है और उसे विश्व के अन्य देशों के साथ सतत संपर्क की जरूरत है और तेजी से बदलती तकनीकी दुनिया से सांमजस्य बनाने की जरूरत है, ऐसे में हमारे नेता यदि कोई पत्र आदि पढऩे लिखने के ही काबिल नहीं हों तो उन्हें पूरी तरह प्रशासनिक अधिकारियों पर ही निर्भर रहना पड़ेगा। यदि कोई वाकई नेक इरादों के साथ राजनीति में आया हो और जनहितकारी नीतियों को लागू कराना चाहता हो लेकिन शिक्षित नहीं हो तो वह अपनी अज्ञानता के चलते काम नहीं कर पाएगा। नीतीश कुमार बिहार की छवि बदलने के प्रयास में लंबे समय से लगे हैं और इस काम में उन्हें सफलता भी मिल रही है लेकिन यह भी गौरतलब है कि बिहार में नकल करते छात्रों और नकल करवाते लोगों तथा पुलिस के मूक दर्शक बने रहने की तसवीरें पिछले दिनों वायरल हो गयी थीं। उसी तरह अब बिहार के मंत्रियों की शैक्षणिक योग्यता भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा पा रही है। बढ़ते बिहार ही नहीं बढ़ते भारत की छवि पर भी इन सबसे प्रभाव पड़ रहा है लेकिन राजनीति की अपनी मजबूरियां भी हैं क्योंकि सामाजिक गणित को साधने और राजनीति में परिवारवाद के चलते एडज़स्ट करने के चक्कर में कई बार राजनीतिक दलों को ऐसे लोगों को मंत्री बनाना पड़ता है जोकि काबिल नहीं होते हैं। पिछले दिनों देखने में आया कि कुछ राज्य सरकारों ने पंचायत चुनाव लडऩे के लिए शैक्षिक योग्यता निर्धारित करने की दिशा में कदम उठाया लेकिन जब ऐसा ही कदम विधानसभा और लोकसभा के उम्मीदवारों के लिए उठाने की मांग उठती है तो उसे खारिज कर दिया जाता है। ज्यादा दूर नहीं जाएं तो एकदम बगल यानि पड़ोसी पाकिस्तान में भले लोकतंत्र नाम का ही हो लेकिन वहां पर संसद का चुनाव लडऩे के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता स्नातक निर्धारित है। एक बड़ा सवाल और उठता है कि जब कुछ राज्यों जैसे हाल ही में राजस्थान और हरियाणा ने विधानसभा से अध्यादेश पास कर जिला परिषद के चुनाव लडऩे के लिए न्यूनतम दसवीं पास और सरपंच पद के लिए चुनाव लडऩे की योग्यता कम से कम आठवीं पास होना अनिवार्य करने की दिशा में कदम बढ़ाया तो केंद्र सरकार को भी चाहिए कि लोकसभा और विधानसभा के लिए भी ऐसी व्यवस्थाएं करने के लिए कदम बढ़ाए। यदि बहाना यह है कि ऐसा करने से ज्यादातर आबादी का चुनाव लडऩे का अधिकार वंचित होगा तो सरकारों को अपने सर्वशिक्षा अभियान की सफलता और स्कूल छोडऩे वालों की संख्या में कमी आने के दावों पर गौर करना चाहिए। हरियाणा सरकार ने जब पंचायत चुनावों में शैक्षिक योग्यता निर्धारित करने की दिशा में कदम बढ़ाया तो मामला सर्वोच्च अदालत तक गया और वहां पर दलील दी गयी कि यह अध्यादेश असंवैधानिक है और इसे लागू नहीं किया जा सकता। कहा गया कि इस अध्यादेश से संविधान द्वारा दिए गए चुनाव लडऩे के अधिकार का हनन हो रहा है और अगर इसे लागू किया जाएगा तो करीब 95 फीसदी महिलाएं अपने हक से वंचित हो जाएंगी, जबकि 80 फीसदी लोग इससे प्रभावित होंगे। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया था कि वह चुनाव लडऩे के लिए पात्रता मापदंड के रूप में शैक्षणिक योग्यता के खिलाफ नहीं है, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत यह भेदभाव पूर्ण है, क्योंकि यह अनुच्छेद बराबर अवसर की गारंटी देता है। बहरहाल, विकास के नारे और अपनी साफ छवि की बदौलत चुनाव जीते नीतीश कुमार की राह जनता ने इस बार जितनी आसान की है उतनी ही कठिनाई महागठबंधन के सहयोगी पैदा भी कर सकते हैं। मुख्यमंत्री भले जनता दल युनाइटेड का है लेकिन वह विधायकों की संख्या मामले में दूसरे नंबर का दल है। देखना होगा कि राजद कोटे के मंत्री यदि आगे चलकर विवाद पैदा करते हैं तो नीतीश उन पर कैसे लगाम लगाते हैं। जहां तक नीतीश के मंत्रिमंडल में सर्वसमाज की भागीदारी का सवाल है तो यकीनन उन्होंने मंत्रिमंडल गठन में सामाजिक जातिगत आंकड़ों को ध्यान में रखा है। मंत्रिमंडल में सबसे ज्यादा यादव जाति से 7 मंत्री बने हैं जबकि पांच लोग दलित हैं। चार अति पिछड़ा वर्ग से और चार मुस्लिम हैं। चार मंत्री पद सर्वणों को दिये गये हैं जबकि तीन पद कोइरी और एक कुर्मी (मुख्यमंत्री को छोड़कर) मंत्री बना है। इन मंत्रियों में मात्र दो महिलाएं हैं। नीतीश के 28 सदस्यीय मंत्रिमंडल में 17 लोग पहली बार मंत्री बने हैं इसलिए माना जाना चाहिए कि सरकार नये उत्साह के साथ काम करेगी।

जानिए सोनिया-मन-मोदी की 'चाय पे चर्चा'की 


सोनिया और मनमोहन सिंह के साथ उनकी मुलाकात पहले से फिक्स नहीं थी। प्रधानमंत्री ने अचानक यह मीटिंग फिक्स की थी। दरअसल, यह सारी कवायद बिहार चुनाव में हार के बाद की जा रही है। हमारे सूत्र बता रहे हैं कि बात सिर्फ इतनी ही नहीं थी। कई और कारण हैं, जिनकी वजह से पीएम मोदी को सोनिया और मनमोहन को बुलाना पड़ा। 
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने  पीएम नरेंद्र मोदी से 7 रेसकोर्स रोड मुलाकात की। करीब 35 मिनट चली इस मुलाकात में पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम, संसदीय कार्य मंत्री वैंकया नायडू और वित्त मंत्री अरुण जेटली भी मौजूद थे। 'बैठक के दौरान संसद में अटके हुए कई बिलों पर चर्चा हुई। जीएसटी पर कांग्रेस ने अपना पक्ष रखा। सरकार ने भी उन मुद्दों पर अपना रुख साफ किया। कांग्रेस नेताओं ने बताया कि वे अपनी पार्टी से चर्चा करेंगे।Ó लेकिन बिहार चुनाव में हार ; कांग्रेस के एक सीनियर लीडर ने बताया कि इससे पहले तो वे आसमान में उड़ रहे थे, लेकिन अब मोदी जमीन पर आ गए हैं और देश की जनता के लिए कुछ अच्छा करना चाहते हैं। हम जनता के बीच स्पष्ट संदेश देना चाहते हैं कि कांग्रेस राष्ट्रहित के कार्यों में पूरा सहयोग देना को तैयार है। मोदी सरकार की छवि ; सूत्रों के मुताबिक, बिहार चुनाव में हार के बाद मोदी अपनी सरकार की नकारात्मक छवि को बदलना चाहते हैं। मोदी की टीम को यह एहसास भी हो चुका है कि निकट भविष्य में एनडीए को राज्यसभा में बहुमत मिलने वाला नहीं है। जेटली-राहुल की मुलाकात ने खोला रास्ता ; सूत्रों का कहना है कि सोनिया-मोदी की मुलाकात पर्सनल लेवल पर आ रहे बदलाव की ओर भी इशारा करती है। अब इसे संयोग ही कहेंगे कि निजी स्तर पर इसकी शुरुआत अरुण जेटली की राहुल गांधी के साथ मुलाकात से हुई। जब वह कांग्रेस उपाध्यक्ष को अपनी बेटी की शादी में बुलाने के लिए पहुंचे थे। यहीं से दोनों पक्षों के शीर्ष स्तर पर बातचीत का रास्ता खुला। राहुल की ताजपोशी ; वहीं, कांग्रेस सूत्रों की मानें तो सोनिया गांधी इस समय विरोध का महौल नहीं चाहती हैं। उनका फोकस राहुल गांधी को सत्ता सौंपने पर है। जिससे कि राहुल मिडिल क्लास वोटर और युवाओं के बीच जगह बना सकें। 

अस्थायी कामों में बंदरबांट शुरू



अरूण जैन
अब जबकि सिंहस्थ महापर्व सिर पर है, ऐसे समय में ताबड़तोड़ अस्थायी कामों पर जो विशाल बंदरबांट शुरू हो गई है उस पर किसी की नजर नही है, अथवा देखकर भी अनदेखा किया जा रहा है। सभी अस्थायी प्रकृति के कार्य तीन से दस गुना उॅंचे भावों पर करवाए जा रहे हैं। सरकारी मशीनरी किसी भी ‘खॉं’ को पत नही कर रही है। 
मेरे ख्याल से एक उदाहरण ही काफी होगा। सिंहस्थ मेला क्षेत्र में साधु-संतों और आगंतुकों के लिए अस्थायी शौचालय बनाए जाना है। नगरनिगम ने इसका आंकलन 36 करोड का बनाया था। इसे अब बढ़ाकर 111 करोड़ कर दिया गया है। पहले 15 हजार शौचालय बनाना थे, इनकी संख्या बढ़ाकर अब 48 हजार कर दी गई है। कहा जा रहा है कि इसमें भारतीय और यूरोपियन शौचालय के साथ सुविधाजनक बाथरूम भी शामिल हैं। निविदाएं दिखाने को चार कंपनियों को दी गई हैं। पर जानकार सूत्र बताते हैं कि अधिकांश कार्य लल्लूजी एंड संस को ही दिया गया है और इस कंपनी ने पेटी कांट्रेक्ट अन्य छोटी कंपनियों को दे दिया है। प्रश्न यह है कि ये 48 हजार शौचालय बनने का सत्यापन कौन करेगा ? फिर-शौचालय का जो स्पेशिफिकेशन दिया है वह मात्र गढ्ढे बनाकर उसमें मेटल बाक्स रखने का है। जो खेत अथवा जमीन मात्र एक-दो माह के लिए लोगों से अधिग्रहीत किए है उनमें से इन बाक्स और स्ट्रक्चर को निकालकर कहां सहेजा जाएगा या ले जाया जाएगा यह स्पष्ट नहीं है। अर्थात काम हुवा, आया-गया, कुछ भी स्पष्ट नही है। मतलब सब पानी में। मेरे अनुमान से मात्र इसी कार्य में कम से कम 70-80 करोड़ रूपए का लोचा है। इसके बाद अभी ताबड़तोड में कुछ नए घाट बनाए जा रहें है। जमीन समतलीकरण का कार्य चल रहा है। सेटेलाइट टाउन का काम होना है, पार्किंग स्थल तैयार होना है। कई पहुंच मार्ग बनना है।
वैसे तो सिंहस्थ केन्द्रीय समिति के अध्यक्ष के रूप में माखनसिंह जी आ चुके हैं। आरएसएस से जुड़े श्री सिंह अत्यन्त साफ छवि के व्यक्तित्व है, पर वे ‘इलेवन्थ अवर’ के भ्रष्टाचार में कितनी रोक लगा पाएंगे यह कह सकना मुश्किल है। क्योंकि अब समय शुरू हो चुका है कि कैसे व्यवस्थाए ठीक से ठीक की जाएं। ताकि संतो और श्रद्धालुओं को असुविधाएं न हो। निश्चित है ऐसे समय में पैसे का कोई मोल नहीं है और यही अधिकारियों के लिए चांदी कूटने का सही समय है।
वैसे, स्थायी प्रकृति के कामों की बातें करें तो मात्र दो-तीन ओवरब्रिज ही, वो भी काम लायक पूरे हो पाएंगे। शेष मानकर चलिए अगले सिंहस्थ तक भी पूरे हो जाएं तो भगवान की कृपा समझिए। डामर और पक्की सड़कों की बात तो छोड़ ही दीजिए। अधिकतर बनाई गई सड़के उखड़ने लगी हैं। सीमेंट कांक्रीट सड़कों के काम काफी कुछ अधूरे पड़े हैं। और पक्का विश्वास करिए कि महापर्व के तुरन्त बाद पहली बारिश में लगभग सभी सड़के उखड जाने वाली हैं। घाटों और बाहरी सड़कों पर चार आदमी बाद में नही मिलने वाले। फिर रख रखाव की बात तो भूल ही जाइए। यही है क्लीन सिंहस्थ-ग्रीन सिंहस्थ ।
केरल की खूबसूरती में चार चांद लगाते बैकवाटर 
डॉ. अरूण जैन
केरल हरियाली के मामलों में उत्तर पूर्वी राज्यों से भी एक कदम आगे है। यहां हरियाली के साथ साथ सागर के नीले जल के सौंदर्य को भी निहारा जा सकता है जो उत्तर पूर्वी राज्यों में उपलब्ध नहीं है। केरल के सौंदर्य का वास्तविक आनंद लेने के लिए वहां की यात्रा रेल अथवा बस से ही करनी चाहिए। हरे नारियल के बगीचों के बीच से निकलती हुई बस जब किसी नदी या नाले को पार करती है तो देखने पर ऐसा लगता है कि जैसे किसी चित्रकार ने हरे तथा नीले रंगों को मिलाकर कैनवास पर बिखेर दिया हो। केरल का कालीकट क्षेत्र मालाबार तट के नाम से भी जाना जाता है। यह बहुत ही खूबसूरत बीच है। यहां सैलानियों की भीड़ देखकर इसकी लोकप्रियता का अंदाजा लगाया जा सकता है। केरल में सागर जल से भरी हुई विशेष प्रकार की झीलें भी हैं जिन्हें बैक वाटर कहते हैं इसके कारण इस छोटे से प्रदेश की सुंदरता में चार चांद लग गये हैं। बैक वाटर भूमि के निचले हिस्से में सागर का जल भर जाने के कारण बनता है। केरल की स्थिति कुछ ऐसी है कि पूरे प्रदेश में दक्षिण से उत्तर तक एक सिरे से दूसरे सिरे तक रेल लाइन बिछी है तथा उसी के समानांतर सड़क बनी हुई है। इन्हीं के साथ सड़क के दोनों तरफ एकमंजिले या दोमंजिले मकान बने हैं। इन मकानों के आगे एक सुंदर सा बाग होता है जिसमें नारियल, कटहल, आम, काजू, रबर, सुपारी, काफी, केला आदि के वृक्ष लगे होते हैं। किसी−किसी बाग में विभिन्न प्रकार के मसाले जैसे काली मिर्च, छोटी इलायची, दालचीनी आदि के पेड़ भी देखने को मिलते हैं। कालीकट से लगभग 16 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कापड बीच है। यह वही प्रसिद्ध स्थान है जहां पर 21 मई 1498 को पुर्तगाली नाविक वास्को डि गामा ने भारत की भूमि पर अपना कदम रखा था। यहां पास ही में माहे नामक एक जगह है। माहे में शराब पर प्रतिबंध नहीं है। केवल 9 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल वाले छोटे से माहे के अंदर आप जब बस या कार में यात्रा कर रहे होंगे तो साथ ही दूसरी तरफ पटरी पर चलती हुई रेल को देखकर आपको काफी अच्छा लगेगा। आपको ऐसा प्रतीत होगा जैसे आप दोनों एक−दूसरे के साथ किसी प्रतियोगिता में भाग ले रहे हों। तेल्लीचेरी नगर माहे से 10 किलोमीटर दूर है। यह वही प्रसिद्ध नगर है जिसने भारत ही नहीं बल्कि सारे विश्व को सैंकड़ों सर्कस के कलाकार उपलब्ध कराए हैं। यहां के गांव−गांव में सर्कस प्रशिक्षण के अनेक केंद्र हैं, जिनमें कलाकारों को सर्कस के करतब सिखाए जाते हैं। इसलिए इसे सर्कस नगर भी कहा जाता है। वैसे तो तेल्लीचेरी एक छोटा सा कस्बा है। जहां मछुआरों की बस्तियां हैं। शाम को जब मछली पकडऩे वाली नौकाएं वापस लौटती हैं तो तट पर मछली खरीदने वालों का मेला सा लग जाता है। कण्णूर क्षेत्र मालाबार का बड़ा व्यावसायिक नगर माना जाता है। कण्णूर उच्चकोटि के काजू, रबर, नारियल तथा कागज के लिए जाना जाता है। यहां पर एशिया की सबसे मशहूर प्लाईवुड फैक्टरी भी स्थित है। इसके अलावा यहां के निकटवर्ती स्थानों पर फूलों के उत्पादन तथा उनके निर्यात के प्रमुख केंद्र भी स्थित हैं। हस्तकला की वस्तुओं तथा बीड़ी आदि का उत्पादन भी कण्णूर में काफी होता है। सागर तट पर बसे हुए कण्णूर नगर में पयंबलम, मुझापूलंगड तथा मियामी जैसे सुंदर बीच हैं जो सैलानियों की भीड़भाड़ से अछूते हैं। पायथल मलै नामक आकर्षक पर्वतीय स्थल भी यहां स्थित हैं, किंतु सबसे रोचक तो यहां का सर्प उद्यान है जहां पर अनेक प्रकार के सांपों का प्रदर्शन किया जाता है। इस स्थान पर सर्पदंश चिकित्सा केंद्र भी बना है। कण्णूर नगर के निकट मलावलतम नदी के किनारे पर परासनी कडायू का प्रसिद्ध मंदिर है, जो केवल हिंदू ही नहीं बल्कि अन्य सभी जातियों के लिए भी समान रूप से खुला है। यह मुथप्पन भगवान का मंदिर माना जाता है जो शिकारियों के देवता हैं। इसीलिए इस मंदिर में कांसे के बने हुए कुत्तों की मूर्तियां हैं। यहां ताड़ी तथा मांस का प्रसाद मिलता है तथा यहां के पुजारी दलित वर्ग के होते हैं। मालाबार क्षेत्र के प्राकृतिक सौंदर्य, संस्कृति तथा प्रदूषण रहित वातावरण को देख कर मन खुश हो जाता है। वास्को डि गामा की यात्रा के 500 वर्ष पूरे होने के कारण यह स्थान विश्व प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है।

इस बार एक नही, कई के मुंह काले होंगे ?


डॉ. अरूण जैन
आप, लाख सिर फोड़ कर मर जाओ! पर अधिकारी तो वहीं करेगे जैसा वे चाहेंगे। संभागआयुक्त और कलेक्टर इन्हें हड़का-हड़का कर परेशान है, पर मजाल है कि अधिकारी तिल भर भी हिल पाएं। ऐसा लगता है कि इस बार एक नही, कई अधिकारियों के मुंह काले किये जा सकते है।
दिसम्बर, दिसम्बर और दिसम्बर की रट लगाकर उच्चाधिकारी हैरान-परेशान हैं। पर मजाल है कि किसी के चेहरे पे शिकन भी आ जाए।
पुरातत्व विभाग की 15 करोड रूपए की डाक्यूमेंट्री बनाने का प्रस्ताव मुख्य सचिव की सजगता से नामंजूर कर दिया गया, वरना कलेक्टर-संभाग आयुक्त ने रेवड़ी बंटवाने की व्यवस्था कर ही दी थी।
फिर भी रेवड़ी कैसे बंट रही है, देखिए एक जायजा तो ले ही लें। सिंहस्थ क्षेत्र में जो अस्थायी शौचालय 36 करोड रूपए में बनने थे, वे अब 111 करोड रूपए में बनाए जाएंगे। बजट से साधु-संत भी नाखुश हैं। उनके पड़ाव क्षेत्रों में 50-50 लाख रूपए के काम करने की मंजूरी दी गई है। जबकि 12 वर्ष, पूर्व ही प्रत्येक अखाड़े में इससे कहीं अधिक राशि के निर्माण कार्य प्रशासन-शासन ने करवाए थे। जैसा कि मैने पूर्व में ही कहा था, बाबा लोगों का आगमन अभी ‘से शुरू हो गया है। व्यवस्थाएं करने के लिए उन्होंने अधिकारियों को हड़काना शुरू कर दिया है। इधर इस बार के सिंहस्थ में किन्नरों का अखाड़ा विशेष आकर्षण और रोमांच का केन्द्र रहेगा ऐसा मेरा मानना है। और अगर कुछ के काले मुंह हुए अथवा पिटाई हुई तो मानकर चलिए कि वह भी इसी अखाड़े से शुरू होगी। पिछले, सिंहस्थ की तुलना में साधु-संतों के पडाव स्थलों की संख्या तीन गुना हो गई है। अन्य संस्थाएं भी बढ़ेगी ही। 56 करोड रूपए खर्च कर बनाई गई सड़के अभी से खराब हो गई हैं। पड़ाव स्थलों का समतलीकरण ही नहीं हो पाया है। पुलों का कार्य मात्र 20 से 25 प्रतिशत पूरा हो पाया है। क्या कांग्रेस और क्या सत्तारूढ़ भाजपा ? क्या नजरे रखेंगी। परफारमेंस गांरटी तो किसी का काकाजी भी नहीं दे सकता। पार्किंग के लिए आरक्षित भूमि पर फसलों की बुवाई हो गई है। अतिक्रमण ही सिंहस्थ क्षेत्र से नहीं हट पाए हैं, जो 6 माह पहले हट जाना चाहिए थे। यहां भी शिप्रा नदी सफाई के नाम पर करोड़ो का खेल चल रहा है। 10 हजार की सफाई पर 10 करोड़ खर्च किए जा रहे हैं। मेरे ख्याल से 1968 से अब तक अरबों रूपए इसी शुद्धिकरण कार्य पर खर्च हो चुके है, परन्तु 11 नाले आज भी नदी में मल-मूत्र और गंदगी विसर्जित कर रहे हैं। सही है वह कहावत-राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट। अंत काल पछताएगा, जब प्राण जाएंगे छूट। पिछले सिंहस्थ में भी महापर्व के तुरंत बाद तीन अधिकारी परलोक जा चुके हैं।

समान नागरिक संहिता के लिए बन रहा है दबाव 

डॉ. अरूण जैन

यह तो लगभग निश्चित सा लग रहा है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में संसद द्वारा सर्वसम्मति से जिस कानून को सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध घोषित कर दिया है, उसे कतिपय संशोधनों के साथ पुन: सरकार पेश कर सकेगी, क्योकि जिस कांग्रेस ने इस विधेयक को तैयार किया था, सार्वजनिक रूप से यह कह चुकी है कि अब वह इसका समर्थन नहीं करेगी। नरेंद्र मोदी सरकार का हर मुद्दे पर विरोध ही करने की उसकी और वामपंथियों की रणनीति में संदर्भ में पूर्व में किए गए समर्थन के खिलाफ जाने का एकमात्र औचित्य यही है। अन्य दलों की स्थिति अभी स्पष्ट नहीं है क्योंकि यह संविधान संशोधन विधेयक है, इसलिए उसे पारित करने के लिए दो तिहायी बहुमत की आवश्यकता है। लोकसभा में तो यह संभव है लेकिन राज्यसभा में असंभव। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के औचित्य अनौचित्य पर बहुत चर्चा हो चुकी है इसलिए उसके विवरण और जाने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के एक अन्य निर्देश जो समान नागरिक संहिता (कामन सिविल कोड) बनाए जाने के संदर्भ में है पर चर्चा की जरूरत है। एक निर्देश हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने भी केंद्रीय सरकार को दिया है। तीन महीने में एक ऐसा कानून बनाने का जो गोवंश हत्या पर देशव्यापी प्रतिबंध लगाने वाला हो। यद्यपि दोनों ही कानून आवश्यक है लेकिन क्या सरकार ऐसा करने में सक्षम है। इस समय देश में सांप्रदायिक पहचान के नाम पर उन्माद बढ़ाने का प्रयास अपने चरम पर है। जब सांप्रदायिक दंगों में सैकड़ों लोग मारे गए या धर पकड़कर भागकर किसी नहर में डाल दिए गए अथवा जब वर्ष भर उत्तर प्रदेश का एक इलाका सांप्रदायिक उन्माद में जलता रहा, जब हजारों लोगों को किसी एक व्यक्ति के इस कथन पर कि जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिल जाती है, मौत के घाट उतार दिया गया, या गोधरा में ट्रेन के डिब्बे में लोगों को जलाकर मार डाला गया अथवा उसके बाद के दंगे में कई सौ लोग मारे गए, जिनकी आत्म नहीं जागी थी, वह किसी एक व्यक्ति को अफवाह के चलते मार दिया गया पर जिस प्रकार जागी है, उसमें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अतीत में भी कई बार कामन सिविल कोड बनाने के निर्देश के बावजूद जिस प्रकार के लोगों की प्रतिक्रिया के कारण सरकार हिलने तक तैयार नहीं हुई, उन तत्वों की विपरीत रवैए की उपेक्षा कर अत्यंत आवश्यक होते हुए भी वर्तमान सरकार पहल कर सकेगी इसमें संदेह है। उसकी एक समुदाय के खिलाफ होने की छवि उभारने का जो अभियान चल रहा है उसके अभियानकर्ता इसे मुद्दा बनाकर देश की शांति व्यवस्था को भंग करने की पूरी तैयारी में जुट गए हैं। राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल में जब सर्वोच्च न्यायालय का हैदराबाद की एक महिला शाहबानो को पति से गुजरा भत्ता मिलने का फैसला आया, तब सरकार ने उसके अनुरूप कानून बनाने का मन बनाना इसका संकेत राजीव गांधी के प्रिय राज्यमंत्री आरिफ मोहम्मद खां के लोक सभा में दिए गए भाषण से मिला लेकिन चौबीस घंटे में ही पांसा पलट गए। दूसरे दिन एक अन्य राज्य मंत्री जियाउल रहमान अंसारी ने लोकसभा में आरिफ का जोरदार विरोध किया। सरकार पीछे हट गई। आरिफ ने त्यागमात्र दे दिया और कुछ दिनों बाद कांग्रेस भी छोड़ दिया। देश में सम्पत्ति उत्तराधिकार आदि के संदर्भ में एक कानून हिन्दू कोड बिल के नाम से लागू है। सरकारी तौर पर जिन समुदायों को अल्पसंख्यक की मान्यता दी गई है उनमें से सिख, बौद्ध तथा जैन समुदायों पर भी यह कानून प्रभावी है, केवल अल्पसंख्यक मुसलमान और इसाई इसकी परिधि से बाहर हैं। संविधान में सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक कानून बनाने का सरकार को निर्देश है, समाजवादी नेता डाक्टर राम मनोहर लोहिया, सर्वोदयी जयप्रकाश नारायण, विचारक आचार्य नरेंद्र देव आदि जितने भी उस समय के सार्वजनिक जीवन में पुरोधा थे सभी इसके पक्ष में थे। साम्प्रदायिक जनसंघ भाजपा तो शुरू से एक देश एक जन की पक्षधर रही है, लेकिन सेक्युलरिज्म के अलमबरदारों ने कभी भी इस विचार को क्रियान्वित नहीं होने दिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने संभवत: चौथी बार−मोदी सरकार को पहली बार−यह निर्देश दिया है। अभी मोदी सरकार ने इस दिशा में कोई पहल नहीं किया है, लेकिन उनके मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों ने सामाजिक चिंतकों के समान ही इस मुद्दे पर देशव्यापी चर्चा चलाने पर बल दिया है। यह संकेत मिलता है, जो प्रगट भी होने लगा है कि यद्यपि सेक्युलरिस्ट अभी मौन हैं तथापि मुस्लिम और इसाई समुदायों के प्रवक्ताओं ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश का विरोध करना शुरू कर दिया है। जाहिर है सेक्युलरिस्ट उसी का अनुसरण करेंगे, जैसा पूर्व में करते रहे हैं। ऐसी स्थित मिें क्या नरेंद्र मोदी सरकार सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के अनुरूप कानून बनाने की पहल कर बिखराववादियों को अपने खिलाफ संगठित होने के लिए एक और मुद्दा प्रदान कर सकेंगे। यह भविष्य बतायेगा। शायद सरकार को दिए गए निर्देशों कापालन न करने पर सर्वोच्च न्यायालय इस मुद्दे पर निष्क्रियता के लिए जैसे पूर्व में कभी शास्ति नहीं की है, इस बार भी न करे। क्योंकि भारत एक सेक्युलर देश होने के बावजूद अल्पसंख्यक अवधारणा पर आधारित रचना के अनुरूप चलने के कारण उसकी रूढि़वादिता से हट पाने की संगठित स्वर मुखरित करने के लिए एकजुट नहीं हो रहा है। भारत में अल्पसंख्यक संविधान, न्यायालय और बहुसंख्यक पर पूर्ववत हावी रहने की मानसिकता से युक्त होने और शह पाने के कारण शायद ही ऐसा कदम उठा सके। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने संपूर्ण देश के लिए समान गौवंश हत्या निषेध का कानून बनाने का केंद्रीय सरकार को जो निर्देश दिया है, वह भी संविधान की व्यवस्था के अनुरूप है। क्यों कि उसमें कहा यद्यपि केंद्रीय कानून का निर्देश नहीं है तथापि यह कहा गया है कि वह यह सुनिश्चित करे कि सभी राज्य अपनी स्थानीय परिस्थिति के अनुरूप गौवंश हत्या निषेध कानून बनाए। अधिकांश राज्यों में यह कानून लागू है। यद्यपि कुछ राज्यों के कानून में ऐसी खामी है जिसका लाभ गौवधिक उठा सकते हैं−उठा रहे हैं। गौवंश की हत्या पर रोक लगाने के औचित्य अनौचित्य पर इस समय विवाद अपने चरम पर है, यह विषय हिन्दू बनाम मुसलमान इसाई तथा पुराणपंथी बनाम प्रगतिशीलता के रूप में भी चर्चित हो रहा है। पुराणपंथी उतने मुखरित नहीं जितने प्रगतिशील जो गोमांस भक्षण की मुहिम चला रहे हैं।
12 वर्ष में सिंहस्थ का बजट 100 गुना बढ़ा




डॉ. अरूण जैन
सिंहस्थ पड़ाव क्षेत्र के लिये 3061 व सेटेलाईटटाऊन के लिये 352 हेक्टेयर जमीन अधिसूचित । इसके पूर्व 2004 में हुए सिंहस्थ के लिये 2154.42 हेक्टेयर जमीन अधिसूचित हुई थी।  इस बार 2515 करोड़ के निर्माण, जबकि गत सिंहस्थ में बजट था मात्र 262 करोड़। कस्बानुमा उज्जैन शहर अब महानगर की तर्ज पर विकसित हो रहा है। जो लोग लम्बे समय बाद उज्जैन को देखेंगे, वे इसके परिवर्तित रूप से चकित हो जायेंगे। 
सिंहस्थ-2016 के लिये उज्जैन कस्बा एवं आसपास के ग्रामों के पटवारी हलकों की कुल 3061 हेक्टेयर जमीन पड़ाव क्षेत्र के लिये और 352 हेक्टेयर सेटेलाईट टाऊन के लिये अधिसूचित की गई है। इस हिसाब से पिछले सिंहस्थ से इस बार 1259 हेक्टेयर अधिक क्षेत्र में मेला आयोजित होगा।  3061.60 हेक्टेयर में सिंहस्थ के लिये भूमि अधिसूचित की गई है। सिंहस्थ-2016 के लिये बनाये जाने वाले छह सेटेलाईट टाऊन के लिये भी विभिन्न क्षेत्रों की जमीन अधिसूचित कर दी गई है। सिंहस्थ में 6 झोन व 22 सेक्टर होंगे सिंहस्थ-2016 के लिये तैयार की गई कार्य योजना के तहत मेला क्षेत्र एवं शहर को कुल छह झोन एवं 22 सेक्टर में विभक्त किया गया है।प्रत्येक सेक्टर में सेक्टर मजिस्ट्रेट की तैनाती की जायेगी एवं अन्य आवश्यक व्यवस्थाएं सुनिश्चित की जायेगी। सिंहस्थ में झोन क्रमांक-1 मंगलनाथ झोन रहेगा। इसके अन्तर्गत तीन सेक्टर मंगलनाथ, खाकचौक व आगर रोड पर स्थापित होंगे। इसी तरह झोन क्रमांक-2 काल भैरव में गढ़कालिका, सिध्दवट तथा काल भैरव सेक्टर होंगे। झोन क्रमांक-3 महाकाल पर स्थापित होगा। इस झोन में लाल पुल, रामघाट, महाकाल, हरसिध्दि, नरसिंह घाट, गोपाल मन्दिर व चिन्तामन गणेश में सेक्टर बनाये जायेंगे। झोन क्रमांक-4 दत्त अखाड़ा क्षेत्र में रहेगा। इस झोन में भूखी माता, मुल्लापुरा, उजडख़ेड़ा-1, उजडख़ेड़ा-2, रणजीत हनुमान तथा दत्त अखाड़ा सेक्टर बनाये जायेंगे। झोन क्रमांक-5 चामुण्डा माता पर होगा। इस झोन में फ्रीगंज सेक्टर रहेगा। झोन क्रमांक-6 त्रिवेणी क्षेत्र में रहेगा। इसमें त्रिवेणी व यंत्र महल सेक्टर शामिल रहेंगे। सिंहस्थ-2016 के लिये राज्य सरकार ने मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान के निर्देश पर खजाने के द्वार खोल दिये हैं। गत सिंहस्थ-2004 में यहां मात्र 262 करोड़ रूपये का व्यय सिंहस्थ पर किया गया था और गिनेचुने स्थायी प्रकृति के काम हुए थे वहीं इस बार अनेक काम ऐसे हो रहे हैं जो नगर की दिशा और दशा बदल देंगे।  362 करोड़ की सड़कें मेट्रो सिटी का अहसास करवायेंगी। इस बार सिंहस्थ में केवल सड़कों पर निर्माण के लिये 362 करोड़ का व्यय किया जा रहा है। लगभग सौ नई सड़कें तैयार हो रही हैं, चार फोरलेन पूर्ण हो चुके हैं। गत सिंहस्थ में लोक निर्माण विभाग का कुल बजट मात्र 51 करोड़ रूपये था। इस बार प्रमुख रूप से इंजीनियरिंग कॉलेज रोड, एमआर-10, एमआर-5 को फोरलेन में तब्दील किया जा चुका है। इस पर सेन्ट्रल लाईटिंग भी लग गई है। यह मार्ग इनर रिंग रोड से जुड़ जायेंगे और सारा ट्रैफिक बाहर के क्षेत्र में रहेगा ।

श्वेत क्रांति पर मंडराता संकट

डॉ. अरूण जैन
जिस प्रकार आयातित खाद्य तेल ने सरसों के तेल को रसोईघरों से खदेड़ दिया, उसी प्रकार की घटना देश के करोड़ों दूधियों के साथ घटने वाली है। बहुराष्ट्रीय डेयरी कंपनियां अपने दुग्ध उत्पादों को भारतीय बाजार में डंप करने के लिए उदारीकरण का सहारा ले रही हैं। इसे रोकने के लिए हाल ही में सरकार ने मक्खन, घी और बटर ऑयल पर आयात शुल्क तीस फीसद से बढ़ा कर चालीस फीसद कर दिया। सरकार ने यह कदम अंतरराष्ट्रीय बाजार में मक्खन, घी और बटर ऑयल के दामों में आई भारी गिरावट को देखते हुए उठाया है। जब शहरों के अधिकतर लोग, रात ढलने के बावजूद, बिस्तरों में ही दुबके रहते हैं, तभी साइकिल या मोटरसाइकिल पर लदी दूधियों की बाल्टियों की खटखटाहट सुनाई देने लगती है। लेकिन अब कदम-कदम पर मुनाफा कमाने में माहिर बहुराष्ट्रीय डेयरी कंपनियां दूधियों को खदेडऩे की साजिश में जुट गई हैं। अमेरिका और यूरोप में भले ही डेयरी उद्योग पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का नियंत्रण है, विकासशील देशों में दूध उत्पादन के अधिकांश हिस्से पर अब भी असंगठित क्षेत्र का कब्जा है। भारत में करोड़ों परिवार दूध उत्पादन से बिक्री तक के कारोबार में लगे हैं। देश की बहत्तर फीसद गायों, पचासी फीसद भैंसों का मालिकाना हक लघु और सीमांत किसानों और भूमिहीन श्रमिकों के पास है। इस पशुधन की उत्पादकता में बढ़ोतरी प्रत्यक्ष रूप से गरीबी उन्मूलन में सहायक होती है। क्योंकि दूध और दूध उत्पादों की बिक्री से होने वाले मुनाफे में इन सबका हिस्सा होता है। इनके लिए डेयरी व्यापार नहीं, रोजी-रोटी का साधन है। दुग्ध उद्योग का सबसे सकारात्मक पहलू यह है कि इससे समाज के अकुशल लोगों, विशेषकर महिलाओं की स्थिति में सुधार होता है। डेयरी ने देश के लाखों परिवारों को गरीबी के दलदल से निकालने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एनडीडीबी) की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक 2013-14 में देश का दूध उत्पादन चौदह करोड़ टन के आंकड़े को पार कर गया है, जो कि वैश्विक उत्पादन का सत्रह फीसद है। इस प्रकार दूध उत्पादन के मामले में भारत दुनिया में पहले नंबर पर है। दुनिया में सबसे ज्यादा दूध पैदा करने के बावजूद विश्व के डेयरी व्यापार में हमारा दूध पाउडर और मक्खन बहुत कम जा पाता है। क्योंकि यहां ताजा दूध की खपत अधिक होती है। फिर देश में दूध प्रसंस्करण सुविधाओं की भी कमी है। लेकिन विकसित देशों में स्थिति ठीक उलटी है। उदाहरण के लिए, हर साल 1.2 करोड़ टन दूध पैदा करने वाला न्यूजीलैंड पैंतालीस लाख टन दूध पाउडर निर्यात करता है। दरअसल, विकसित देशों में एक तो आबादी कम है, दूसरे मांसाहार से मिली चिकनाई ने वहां हृदय रोगों की समस्या इतनी बढ़ा दी है कि लोग दूध-मक्खन कम ही लेते हैं। खरीदार न मिलने का ही परिणाम है कि अमेरिका, यूरोप, आस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड में दूध पाउडर और मक्खन के पहाड़ खड़े हो गए हैं। यही कारण है कि यहां की डेयरी कंपनियां विकासशील देशों के विशाल बाजारों पर आंख गड़ाए हुए हैं। इन कंपनियों की राह आसान करने के लिए विश्व व्यापार संगठन के प्रावधानों और मुक्त व्यापार समझौतों का सहारा लिया जा रहा है। दुग्ध उत्पादों का सस्ता आयात न सिर्फ घरेलू डेयरी व्यवसाय को तहस-नहस कर देता है, बल्कि डेयरी उद्योग को विकसित भी नहीं होने देता। उदाहरण के लिए, कई अफ्रीकी देश आयातित दुग्ध पाउडर पर निर्भर हैं और आयात प्रतिस्पर्धा के बीच वे अपने यहां स्वस्थ डेयरी उद्योग विकसित कर पाने में नाकाम रहे। अगर किसी ऐसी वस्तु का सस्ता आयात हो जिसकी उपलब्धता हमारे देश में न हो तो वह फायदेमंद होता है। मगर ऐसी चीज का सस्ता आयात, जिसका उत्पादन हमारे देश में होता हो, अगर आवश्यकता की पूर्ति में सहायक होने से अधिक हो, तो वह संबंधित वस्तु के उत्पादकों के लिए नुकसानदेह ही साबित होता है। मसलन, दक्षिण पूर्व एशिया के साथ हुए मुक्त व्यापार समझौतों के तहत खाद्य तेल के आयात ने हमारे तिलहन उत्पादकों के हितों पर बहुत बुरा असर डाला है। यह अलग बात है कि उदारीकरण के पैरोकार मुक्त व्यापार समझौतों के ऐसे नतीजों की तरफ से आंख मूंदे हुए हैं। भारत सरकार यूरोपीय संघ के साथ जिस मुक्त व्यापार समझौते पर सहमति की दिशा में आगे बढ़ रही है वह पिछले चार दशक से सफलतापूर्वक काम कर रहे अमूल मॉडल को नुकसान पहुंचा सकता है। गौरतलब है कि अमूल मॉडल की सफलता में लंबे-चौड़े क्षेत्र में फैले किसानों द्वारा उत्पादित कच्चे दूध की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। इनमें से कई किसान तो ऐसे हैं, जो महज कुछ लीटर दूध ही समिति को देते हैं। इस दूध की न केवल तमाम शहरी क्षेत्रों में सही तरीके से मार्केटिंग की गई, बल्कि इसे मक्खन और आइसक्रीम जैसे मूल्यवर्धित उत्पादों में भी बदला गया। उपभोक्ताओं द्वारा चुकाए जाने वाले पैसे में किसान को अच्छी-खासी हिस्सेदारी मिलती है जिसका मुकाबला निजी कारोबारी नहीं कर सकते। स्पष्ट है कि सहकारी समितियों ने न केवल दुग्ध क्रांति को जन्म दिया, बल्कि उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों की गरीबी कम करने में भी मदद की। अगर मुक्त व्यापार समझौते के जरिए देश में दूध और दुग्ध उत्पादों का आयात बढ़ता है तो यह सफल स्वदेशी मॉडल बिखर जाएगा। यह खतरा भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के छोटे दुग्ध उत्पादकों पर मंडरा रहा है। गौरतलब है कि आज दुनिया का आधा दूध असंगठित क्षेत्र से आता है। विकासशील देशों में तो यह अनुपात अस्सी फीसद तक है। विकसित देशों की दिग्गज डेयरी कंपनियां इस बात से वाकिफ हैं कि दूधियों के नेटवर्क को तोड़े बिना विकासशील देशों में पैठ बनाना मुश्किल है। इसीलिए ये कंपनियां प्रचार अभियान चला कर दरवाजे तक आने वाले इस ताजे दूध को असुरक्षित और अस्वास्थ्यकर बता रही हैं। उसी तरह जैसे सरसों के तेल में आजीर्मोन (एक प्रकार की झाड़ी के फल से निकला तेल) की मिलावट की अफवाह उड़ा कर इन कंपनियों ने सोयाबीन और पामोलिव तेल की राह आसान कर दी, अब वैसा ही तरीका दूध के मामले में आजमा रही हैं। देश के तिलहन उत्पादक जिस प्रकार बहुराष्ट्रीय एग्रीबिजनेस कंपनियों के सामने असहाय साबित हुए उसी प्रकार दूधियों के लिए भी आधुनिक तकनीक से लैस कंपनियों के साथ मुकाबला करना आसान काम नहीं है। फिर ताजा दूध जल्दी ही खराब हो जाता है और दूधियों के पास वह तकनीक नहीं है कि वे इसे दूध पाउडर, मक्खन, पनीर जैसे टिकाऊ उत्पादों में तब्दील कर सकें। यही स्थिति डेयरी कंपनियों के लिए मौके मुहैया करा रही है। बड़ी डेयरी कंपनियां दावे कर रही हैं कि उनके आने से दूध उत्पादकों को लाभकारी कीमत मिलेगी। लेकिन ये दावे हकीकत से परे हैं, क्योंकि तीसरी दुनिया का दूध बाजार बेहद बिखरा हुआ है। बड़ी डेयरी कंपनियों को इतने बड़े पैमाने पर नेटवर्क फैलाने में अधिक लागत आएगी, जिसकी कीमत वसूले बगैर वे नहीं रहेंगी, और इससे उत्पादकों का मुनाफा प्रभावित होगा। फिर डेयरी कंपनियों का लक्ष्य उत्पादकों को लाभकारी कीमत न देकर अपनी तिजोरी भरना होता है। इसीलिए वे बेहद सावधानी से काम करते हुए शुरू में उपभोक्ताओं को सस्ता दूध और उत्पादकों को लाभकारी कीमत देकर स्थानीय खरीद तंत्र को नष्ट कर देती हैं। जैसे ही इनका बिक्री-तंत्र पर एकाधिकार स्थापित हो जाता है वैसे ही ये मनमाने ढंग से मुनाफा कमाने में जुट जाती हैं। चूंकि दूध जल्दी ही खराब हो जाता है इसलिए उत्पादकों के पास उसे बेचने के अलावा कोई चारा नहीं बचता। इस प्रकार कोऑपरेटिव से कॉरपोरेट तक के सफर में करोड़ों दूधियों की जगह गिनती की डेयरी कंपनियां कब्जा जमा लेती हैं। इसके परिणामस्वरूप दूध उत्पादन जैसा लाभकारी व्यवसाय घाटे का सौदा बन जाता है और छोटे-छोटे डेयरी फार्म दूध-व्यवसाय से तौबा कर लेते हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका में पिछले चार दशकों में अ_ासी फीसद छोटे डेयरी फार्म खत्म हो गए। आज अर्जेंटीना, ब्राजील, आस्ट्रेलिया, जापान, दक्षिण अफ्रीका सभी जगह दूधियों की संख्या दो से दस फीसद सालाना की दर से घट रही है। जैसे-जैसे छोटे डेयरी फार्म बंद होते हैं वैसे-वैसे दिग्गज डेयरी कंपनियों का कारोबार बढ़ता जाता है। उदाहरण के लिए, अकेले नेस्ले कंपनी दुनिया के दूध कारोबार के पांच फीसद हिस्से को नियंत्रित करती है। सबसे बड़ी बात यह है कि ये कंपनियां एक भी गाय-भैंस नहीं पालतीं। वे उत्पादकों से उपभोक्ताओं के बीच की कड़ी बन कर मुनाफा कमाती हैं। दूध की बिक्री के कॉरपोरेटीकरण से जहां करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी छिनती है, वहीं मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण की दृष्टि से भी यह घातक साबित होता है। डेयरी कंपनियां ताजे दूध के बजाय उसे प्रसंस्कृत कर बेचती हैं जिससे वह न सिर्फ महंगा हो जाता है, बल्कि उसकी पौष्टिकता भी जाती रहती है। इसे भारत के सफल डेयरी आंदोलन आनंद-मॉडल के उदाहरण से समझा जा सकता है।
मीडिया ट्रायल पर नीति बनाने का सही मौका 


डॉ. अरूण जैन
समाचार माध्यमों की साख, निष्पक्षता और उपादेयता सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी है कि उन्हें अभिव्यक्ति की पूरी आज़ादी मिले। वही आज़ादी जिसे सुरक्षित बनाए रखने के लिए अनगिनत हस्तियों ने जोशीली और भावुकतापूर्ण टिप्पणियाँ की हैं। महात्मा गांधी हों या नेल्सन मंडेला, नोम चोम्स्की हों या अल्बर्ट आइंस्टीन, अभिव्यक्ति की आज़ादी का अनगिनत कोणों से छिद्रान्वेषण करते हुए भी सबने यही कहा है कि इसमें निहित चुनौतियों के बावजूद हमें हर कीमत पर इसकी रक्षा करने की ज़रूरत है। वाल्तेयर का यह वाक्य तो जैसे शिलालेखों पर उत्कीर्ण कर दिया गया है कि भले ही मैं आपके विचारों से सहमत न होऊं लेकिन अपनी बात कहने के आपके अधिकार की जीवनपर्यन्त रक्षा करूँगा। प्रिंट मीडिया हो, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया या फिर सोशल मीडिया, अभिव्यक्ति की आज़ादी सब पर लागू होती है सभी समाचार माध्यमों ने स्वाधीनता के बाद इसका पूरा उपयोग भी किया है। लगभग 21 महीने के आपातकाल को छोड़कर। एकाध बार सरकारों ने ऐसे कानून बनाने की प्रक्रिया शुरू की जो किसी न किसी परोक्ष ढंग से अभिव्यक्ति की आज़ादी को प्रभावित कर सकते थे तो मीडिया ने एकजुटता के साथ उनका विरोध किया और इस विरोध में उसे जनता का भी पूरा समर्थन मिला। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय प्रस्तावित मानहानि कानून को इस श्रेणी में गिना जा सकता है, जब मीडिया के प्रबल विरोध ने केंद्र सरकार को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया। जब इंडियन एक्सप्रेस अखबार समूह इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की सरकारों की जनविरोधी नीतियों और नाकामियों को उजागर करने में लगा हुआ था तो इस समूह को केंद्र सरकार का कोपभाजन बनना पड़ा था। उस पर मुकदमों की बाढ़ लगा दी गई, सीबीआई के छापे पड़े और प्रताडऩा के जितने भी प्रशासनिक तौर-तरीके हो सकते हैं वे अपनाए गए। लेकिन तब ज्यादातर समाचार माध्यमों ने इंडियन एक्सप्रेस का साथ दिया और सरकारी प्रताडऩा का जमकर विरोध किया। कहने का तात्पर्य यह है कि सभी समाचार माध्यमों को इस बात का अहसास है कि उनके अस्तित्व के लिए अभिव्यक्ति का अधिकार कितना महत्वपूर्ण है। लेकिन दुर्भाग्य से, समय-समय पर ऐसे अवसर सामने आ जाते हैं जब पाठक और दर्शक यह सोचने पर विवश हो जाते हैं कि क्या उन्हें इस बात की भी अनुभूति है कि इस अधिकार की एक गरिमा भी है जिसकी रक्षा का दायित्व सरकार या प्रशासनिक तंत्र पर नहीं बल्कि मीडिया पर स्वयं है? अभिव्यक्ति के अधिकार को स्वच्छंदतापूर्वक इस्तेमाल करते समय क्या मीडिया इस बात का ध्यान रखता है कि कोई भी अधिकार दुरुपयोग करने के लिए नहीं होता और कोई भी आज़ादी तभी तक सही ठहराई जा सकती है जब तक कि वह दूसरों की आज़ादी तथा अधिकारों का हनन न करे। आज बहुत से समाचार माध्यम मीडिया की पहुँच, शक्ति और अभिव्यक्ति की आज़ादी का प्रयोग अपेक्षित उत्तरदायित्व के साथ नहीं कर पा रहे हैं। किसी भी सनसनीखेज ख़बर के सामने आने पर मीडिया ट्रायल या पत्रकारीय मुकदमों का जो सिलसिला चलता है, वह इसका ज्वलंत उदाहरण है। जब स्वयंभू अदालत बन जाए मीडिया मीडिया ट्रायल से तात्पर्य है किसी घटना के तुरंत बाद समाचार माध्यमों, विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया द्वारा संबंधित व्यक्तियों को सीधे अपराधियों की तरह पेश कर दिया जाना और उन पर विभिन्न कोणों से आरोपों की बौछार करते हुए उनका अपराध सिद्ध कर देने की बेताबी दिखाना। मीडिया ऐसी हर घटना पर कुछ इस अंदाज में दहाड़ते हुए शेर की तरह टूट पड़ता है जैसे उसे इसी घटना की तलाश थी। उसके बाद वह घटना की आधी-अधूरी तफ्तीश करते हुए उस पर विभिन्न कोणों से स्टूडियो में बहस करता है और फिर परिणाम भी सुना देता है। ज़रूरी नहीं कि सभी समाचार माध्यमों की सोच एक जैसी ही हो और सबके द्वारा सुनाए गए फैसले एक जैसे ही हों। वे परस्पर विपरीत भी हो सकते हैं और परस्पर भिन्न कोणों पर आधारित भी हो सकते हैं। मीडिया अपनी तफ्तीश को पर्याप्त और गहन सिद्ध करने के लिए संबंधित लोगों के जीवन के तमाम पहलू उजागर करने में लग जाता है भले ही इन पहलुओं का घटना से कोई संबंध हो या नहीं। यह कथन अतिशयोक्ति नहीं होगा कि आज मीडिया अपने आपको जन-अदालत समझने लगा है। अभियुक्तों को घेरने वाले दर्जनों कैमरामैन, उनके परिजनों से मिलने वाले अनगिनत पत्रकार, टेलीविजन कैमरों के सामने बैठकर गंभीर से गंभीर अपराध का चुटकियों में विश्लेषण कर डालने वाले तथाकथित विशेषज्ञ शायद ही कभी इस बात पर विचार करते हों कि वे न्यायपालिका के क्षेत्र में घुसपैठ कर रहे हैं। और यह कि उनके पास किसी घटना की जाँच का न तो पर्याप्त कौशल मौजूद है और न ही इस तरह चुटकियों में निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। इस बात की तो वे शायद ही कभी चिंता करते हों कि जिन लोगों को वे अपराधी सिद्ध करने पर तुले हैं यदि वे वास्तव में अपराधी नहीं है तो उन्हें इस तरह बदनाम करने का अधिकार मीडिया को कैसे मिल जाता है? न्यायपालिका पर दबाव एक प्रश्न यह उठता है कि जिस तरह का माहौल मीडिया बनाता है उसकी वजह से क्या जाँच एजेंसियों पर जाँच को एक खास दिशा में आगे बढ़ाने का दबाव नहीं पड़ता है और क्या इंसाफ की कुर्सी पर बैठे न्यायाधीश मीडिया द्वारा देश भर में बनाए गए इतने संवेदनशील तथा पक्षपातपूर्ण माहौल के बीच स्वतंत्र, निष्पक्ष और विवेकपूर्ण ढंग से मामले पर विचार कर सकते हैं? क्या वे किसी तरह के दबाव के शिकार नहीं होते हैं? यदि कोई फैसला मीडिया के दृष्टिकोण के विरुद्ध जाता है तो वह जाँच एजेंसियों और न्यायपालिका पर भी प्रत्यक्ष या परोक्ष टिप्पणी करने से नहीं चूकता। क्या मीडिया सर्वज्ञाता है और उसे किसी भी संस्था को निशाना बनाने एवं उसके कामकाज को प्रभावित करने का अधिकार प्राप्त है? अभिव्यक्ति की आज़ादी का अर्थ तो यह नहीं है। मीडिया ट्रायल एक किस्म का सुविधाजनक एक्टिविज़्म भी है जो टेलीविजन स्टूडियो के भीतर बैठकर हालात बदलने की उसकी आकांक्षा या कहिए कि महत्वाकांक्षा को भी प्रकट करता है। हालाँकि यह महत्वाकांक्षा अनेक मौकों पर सकारात्मक और सार्थक भी सिद्ध हुई है और मीडिया एक्टिविज़्म के उस पहलू पर किसी को ऐतराज भी नहीं है। मिसाल के तौर पर जेसिका लाल हत्याकांड को देखिए। अगर मीडिया ने इस मामले में लगातार दबाव न बनाए रखा होता और गवाहों का स्टिंग ऑपरेशन करके सही तथ्यों को सामने लाने में मदद न की होती तो शायद अपराधी कभी के छूट जाते। शिवानी नामक एक पत्रकार की हत्या का मामला भी इसी श्रेणी में आता है और राजीव कटारा हत्याकांड भी, जिसमें अभियुक्त समाज के शक्तिशाली या आपराधिक छवि वाले वर्ग से आते थे और उनके लिए हालात को प्रभावित कर साफ बच निकलना असंभव नहीं था। मीडिया के दबाव में जाँच एजेंसियों को इन मामलों की जाँच को गंभीरता से लेना पड़ा। अदालतों ने भी उन पर दबाव बनाया और बेहतर तथ्य सामने आ सके। प्रियदर्शिनी मट्टू हत्याकांड में भी मीडिया की भूमिका सार्थक रही। इसी तरह, मीडिया ने सलमान खान और संजय दत्त के मामलों को भी कभी हल्के से लेने की छूट जाँच एजेंसियों को नहीं दी और बड़ी हस्तियों की तमाम असुविधाओं और अप्रसन्नता के बावजूद न्यायपालिका ने उनके साथ वही सलूक किया जैसा कि किसी आम अपराधी के साथ किया जाता। बल्कि कहा तो यह भी जाता है कि उनके साथ कुछ अधिक ही कड़ाई बरती गई जिसके भीतर एक संदेश निहित था कि यदि ऐसा लोगों के साथ कठोरता बरती जाए तो वह समाज में भी एक संदेश भेजती है।

बाबा लोग कम, धर्मालु ज्यादा भुगतेंगे 



डॉ. अरूण जैन
सिंहस्थ कैसा होगा, उस समय क्या समस्याएं होगी, श्रद्धालु कितने परेशान होंगे इस सबसे किसी को कोई लेना-देना नहीं है। केवल पुलिस विभाग को छोड़कर अन्य किसी को धर्मालुओं के बारे में चिन्ता नहीं है और यह विभाग हरसंभव प्रयास कर रहा है कि सामान्य जन को स्नान के लिए कम से कम पैदल चलना पड़े।
अब दोखिए ना! सिंहस्थ की पूर्व व्यवस्थाओं में सबसे अहम भूमिका निर्माण विभागों की है, फिर चाहे वह नगरनिगम हो, लोक निर्माण विभाग हो, सेतु निगम हो, जल संसाधन विभाग हो अथवा उज्जैन विकासस प्राधिकरण, नियम से इन सभी विभागों को सिंहस्थ तैयारियों के लिए 4 से 5 वर्ष पूर्व जाग जाना चाहिए था। ताकि स्थायी प्रकृति के कार्य कम से कम तीन वर्ष पूर्व शुरू हो जाते। लेकिन बुजुर्गों ने कहा है कि ऐसा नियम से करोगे तो दो नंबर का पैसा कैसे मिलेगा। उपर से लेकर नीचे तक ‘रेवड़ी’ बंटना है तो समय से काम शुरू होना ही नही थे । वही हुवा। 56 करोड़ की सड़के जो अभी ऐन समय पर बनाई गई है, वे अभी से खराब हो गई हैं। सिंहस्थ में उबड़-खाबड़ मिलना है। उस समय रिपेरिंग हुई भी तो 10 रूपये के 1000 रूपए खर्च होंगे। प्रदेश के मुखिया ईमानदार नजर आते हैं। पर एक अकेला क्या करेगा। उन्होंने 15 करोड़ रूपए की डाक्यूमेंट्री बनाने का प्रस्ताव निरस्त कर दिया। और भी गैर जरूरी अथवा काली गंध वाले प्रस्ताव खारिज कर दिए।
आखिर 2400 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है। तो ज्यादा खर्चा तो होना ही चाहिए। वरना फिर केन्द्र सरकार से राशि की मांग कैसे करेंगे। ग्यारह पुल बनने हैं, पर अब तक केवल दो पूरे हो पाए हैं। हरिफाटक ओवरब्रिज की एक लेन पूरी तरह बंद कर दी गई है। उसकी अब तक डिजाइन ही मंजूर नही हुई है। लगता नहीं कि सिंहस्थ में वह सिरा खुलेगा। पार्किंग की जमीन का अधिग्रहण ही नहीं हुवा है और किसानों ने फसल बो दी है। पुलिस की यातायात व्यवस्था तभी सफल हो सकेगी जब पुल तैयार हों, सड़के ठीक हों, पार्किंग अप-टू-डेट हों। वरना सारी तैयारियां धरी रह जाएंगी और सर्वाधिक परेशानी पुलिस को ही झेलना पड़ेगी। अब इस पर कौन पहल करेंगा। बाबाओं का आगमन शुरू हो गया है। तो प्रशासन का सारा ध्यान अब उन पर केन्द्रित है।
16 वर्ष बाद कांग्रेस पार्टी फिर बिखरने की तरफ, इस बार कोई बचानेवाला नहीं ; फोतेदार
डॉ. अरूण जैन
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एम एल फोतेदार ने अपनी पुस्तक ''द चिनार लीव्स में लिखा है कि राहुल अपने पिता की ही तरह राजनीति नहीं करना चाहते और उनकी ''सीमाएं हंै और उन्हें उनके पिता की तरह इस काम के लिए तैयार नहीं किया गया है जैसा कि उनके पिता को स्वयं इंदिरा गांधी ने तैयार किया था. 
पूर्व प्रधानमंत्री दिवंगत इंदिरा गांधी के निकट सहयोगी रहे एम. एल. फोतेदार ने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर खुलेआम सवाल खड़ा किए हैं और कहा है कि यह केवल समय की बात है कि पार्टी के अंदर इसे कब चुनौती मिलती है. पूर्व केंद्रीय मंत्री फोतेदार ने सोनिया की आलोचना करते हुए कहा कि उनमें कई गुण होने के बावजूद राजनीतिक प्रबंधन की कमी है और राहुल को आगे बढाने की उनकी इच्छा से पार्टी के अंदर समस्याएं खडी हुई हैं. राहुल के कांग्रेस की सत्ता संभालने के समय को लेकर चल रही चर्चा के बीच फोतेदार ने कहा है कि राहुल में ''कुछ अडियलपन है और नेता बनने की उनकी प्रेरणा ''बहुत मजबूत नहीं है. उन्होंने कहा, ''राहुल गांधी का नेतृत्व इस देश के लोगों को स्वीकार्य नहीं है और सोनिया गांधी का बेहतरीन समय पीछे छूट गया है. पार्टी को नेतृत्व देने वाला कोई नहीं है. इसने सीखना छोड दिया है        उन्होंने कहा, ''संसद के दोनों सदनों में विपक्षी नेताओं की नियुक्ति में इसने गलत चुनाव किए हैं. विधानसभा चुनावों में चुनौतियों से निपटने में इसने गलत विकल्प चुने. वास्तव में पार्टी ने कुछ भी सही नहीं किया है या नहीं कर रही है. यह दुख है कि नेहरु इंदिरा की विरासत इतने निचले स्तर पर पहुंच गई है.            फोतेदार ने लिखा है कि ''चूंकि सोनिया जी खुद ही पार्टी की निर्विरोध नेता हैं इसलिए यह उनकी जिम्मेदारी है कि पार्टी में बदलाव लाएं.  मैं देखता हूं कि वे इस चुनौती से कैसे पार पाते हैं क्योंकि सोनिया इंदिरा नहीं हैं और राहुल संजय नहीं हैं. नेहरु... गांधी परिवार के पूर्व वफादार ने सोनिया के बारे में कहा कि वह इतिहास की सबसे ज्यादा समय तक कांग्रेस अध्यक्ष होंगी ''भले ही सबसे विशिष्ट नहीं हों। फोतेदार ने कहा कि 1998 में सोनिया जब पार्टी प्रमुख बनी थीं तो पार्टी टूटने की कगार पर थी और उन्होंने पार्टी को वहां से खडा किया जब पार्टी के सीटों की संख्या घटकर 116 रह गई थी.कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ने कहा कि दुखद बात है कि 16 वर्ष बाद पार्टी फिर बिखरने की तरफ है. ''बहरहाल इस बार कोई बचाने वाला नहीं है. वह अब भी सीडब्ल्यूसी के सदस्य हैं.फोतेदार की किताब में इस बात को उजागर किया गया है कि किस तरह से राजीव गांधी के विपरीत राहुल में उस तरह का अनुभव नहीं है.उन्होंने कहा, ''राहुल को ज्यादा काम करने की जरुरत है और शीर्ष पद के लिए मेहनत करना होगा. राहुल को सिखाने के लिए भी कोई नहीं है. सोनिया गांधी इंदिरा गांधी नहीं हैं और उन्हें क्या करना चाहिए इसके लिए वह खुद ही कई लोगों पर निर्भर हैं. उनको सलाह देने वाले कई लोग कई मुद्दों पर उतने ही अनभिज्ञ हैं जितना वह खुद हैं। फोतेदार ने लिखा है, ''राहुल में कुछ अडियलपन है और नेता बनने की उनकी इच्छा मजबूत नहीं है. सोनिया जी के आसपास के लोग गुपचुप तरीके से नहीं चाहते कि वह सफल हों क्योंकि उनका मानना है कि अगर राहुल नेता बन गए तो वे खुद ही अप्रासंगिक हो जाएंगे। 

Tuesday, 1 December 2015

सिंहस्थ महापर्व अस्त-व्यस्त भौगोलिक स्थिति में ही होगा ।


डॉ. अरूण जैन
सिंहस्थ मेला क्षेत्र ‘‘उखाड़-पछाड़ की स्थिति में अब तक बेहद अस्तव्यस्त है और लगता नही कि मेला प्रारंभ होने तक समेटा-समेटी हो पाएगी । मेला इसी अस्त-व्यस्त भूमि पर अव्यस्थाओं के बीच ही होगा। अधिकारी भी लगता है बेशर्म हो गए है। इधर संतो की अग्रिम टुकडियों का आगमन और उनकी गतिविधिया अभी से शुरू हो गई हैं।
उच्च प्रशासनिक अधिकारी, मंत्री चाहे जितने पापड़ बेल लें, पर निर्माण कार्यों से जुड़े अधिकारियों ने शर्म तो ताक पर रख दी है। निश्चित ही ठेकेदार को तो शह मिल रही है। वरना प्रदेश का मुखिया बार-बार दिसम्बर तक काम पूरा करने के निर्देश दे जाएं, संभागायुक्त और अन्य उच्चाधिकारी आए दिन मैदानी बैठक में सटकाएं, उसके बाद भी ढाक के तीन पान का क्या अर्थ लगाया जाए? शायद यही कारण है कि एक निर्माण अधिकारी ने उच्च अधिकारी को मुंह पर कह दिया कि सर यह रोटी नही है कि बनाई और खा ली। काम तो अपने समय से होगा।
निर्माण कार्यों की गंभीरता का अंदाजा कुछ बातों से लगा सकते हैं। हरिफाटक ओवरब्रिज का इन्दौर गेट वाला सिरा देखिए, इसकी चौड़ीकरण की डिजाइन ही अभी तक भोपाल सें स्वीकृत नहीं हुई है। इधर ठेकेदार ने पिछले आठ महीने से उस हिस्से को बंद कर तोड़ा-ताड़ी कर रखी है । पूरा शहर परेशान है, पर किसे परवाह है। जीरो पाइंट ओवरब्रिज डिजाइन के पचड़ों में पड़कर देरी से शुरू हुवा, सो पूरा होने के आसार नहीं दिखते। चिंतामन ओवरब्रिज के दोनों सिरे अभी तक पूरे नहीं हुए हैं। चिंतामन, हासामपुरा, बड़नगर की ओर जाने वाले वाहन अभी भी रेलवे क्रॉसिंग पर कतार लगाकर खड़े रहते हैं । ओवरब्रिज के चक्कर में नीचे की सड़क बदहाल और निहायत टूटी-फूटी अवस्था में है, सो वहां से गुजरने वाले भारी वाहन परेशानी में है ही। मंगलनाथ क्षेत्र में भी सड़कों के हाल अच्छे नही हैं। साधु-संत भी अपनी नाराजी लगातार जाहिर कर रहे हैं। अब देखिए मेला तो तय तिथियों पर होगा ही, चाहे काम पूरे हों या नही। अब यह बात जुदा है कि आने-वाले धर्मालुजन कैसे मेला क्षेत्र में घूमेंगे। इसकी परवाह शायद प्रशासन को भी नहीं है।

Tuesday, 27 October 2015

RSS की पहली शाखा में सिर्फ 5 लोग हुए थे शामिल, आज यह बन गया दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन

डाॅ. अरूण जैन
       देश में हिंदू राष्ट्रवाद की पताका फहरा रहे राष्ट्रीय स्वयं सेवक की स्थापना के 90 साल पूरे हो रहे हैं. देश में कई मुद्दों पर अपनी राय बेबाकी से रखने वाले इस संगठन के नेताओं का नाता हमेशा से विवादों से जुड़ा रहा है. इस संगठन पर महात्मा गांधी की हत्या की साजिश रचने का भी आरोप लगा था. वहीं भारत-चीन युद्ध में सैनिकों की मदद करने पर देश के पहले प्रधानमंत्री ने गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल होने का भी न्यौता दिया था. लेकिन आरएसएस से जुड़ी कुछ और बातें हैं जिनको कई नहीं जानता है - 1- डॉक्टर केशवराव बलिराम हेडगेवार ने 27 सितंबर 1925 को संघ की स्थापना की थी. उस दिन विजयादशमी का त्योहार था. तिथि के हिसाब से इस संगठन की स्थापना के 90 साल पूरे हो जाएंगे. इसका मुख्यालय नागपुर में है. 2- संघ की पहली शाखा में सिर्फ 5 लोग शामिल हुए थे. जिसमें सभी बच्चे थे. उस समय में लोगों ने हेडगेवार का मजाक उड़ाया था कि बच्चों को लेकर क्रांति करने आए हैं. लेकिन अब संघ विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी और हिंदू संगठन है. 3- संघ की ओर से देश की लगभग हर गली-मुहल्ले में शाखाएं लगाई जाती हैं. जिसमें एक मुख्यशिक्षक होता है. शाखा में व्यायाम,खेलकूद के साथ बौद्धिक कार्यक्रम होता है. संघ के स्वयंसेवकों के लिए देश सेवा के लिए प्रेरित किया जाता है. 4- शाखा में भगवा रंग का झंडा फहराया जाता है. जो हिंदू धार्मिक मान्यताओं से जुड़ा है. संघ का उद्धेश्य देश को हिंदू राष्ट्र बनाना है. इस विचारधारा को लेकर ही संघ पर सांप्रदायिकता का आरोप लगता है. 5- संघ की प्रार्थना नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे...शाखा और हर बड़े कार्यक्रम में गायी जाती है. स्वयंसेवकों की ड्रेस सफेद शर्ट, काली टोपी और लाठी है. 6- संघ में प्रचारक होता है जो देश और संगठन की सेवा करता है. उसकी सेवाओं और अनुभव के हिसाब से उसे प्रमोशन भी मिलता रहा है. इनका काम संघ का विस्तार करना भी होता है. संघ का प्रचारक बनने के लिए ओटीसी यानी एक खास तरह की ट्रेनिंग करनी होती है. 7- संघ का सबसे बड़ा अधिकारी सरसंघचालक होता है जिस पद पर अभी मोहन भागवत हैं. इसके अलावा सरकार्यवाह यानी जनरल सेक्रेटी होते हैं. सर कार्यवाह की मदद के लिए सह सरकार्यवाह होते हैं. 8- संघ के कई अनुषांगिक संगठन जैसे सेवा भारती, एबीवीपी, मजदूर संघ, वीएचपी देश में सक्रिय हैं. इसके अलावा कई एनजीओ भी हैं जो वनवासी क्षेत्रों में काम कर रहे हैं. 9- संघ के दूसरे सरसंघचालक सदाशिवराव गोलवलकर की किताब बंच ऑफ थॉट विवादों में रही है. लेकिन इसको मानने वाले भी देश में करोड़ो की संख्या में है. 10- बीजेपी के सभी बड़े नेता जैसे अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, नरेंद्र मोदी संघ में प्रचारक रह चुके हैं. कहा जाता है कि बीजेपी की असली ऊर्जा संघ के स्वयंसेवक ही हैं. 11- आपातकाल में जयप्रकाश नारायण ने भी संघ की ताकत को समझा था और इसे अपने आंदोलन के साथ जोड़ लिया था. 12 संघ का दावा है कि आजादी के पहले उसके एक शिविर में महात्मा गांधी भी पहुंचे थे जो दलितों और उंची जाति के लोगों को एक साथ भोजन करता देख दंग रह गए थे. 13- हालांकि संघ की स्थापना से लेकर अब तक इस सगंठन का नाम विवादों से भी जुड़ा रहा है. हाल ही में दादरी कांड पर संगठन के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर में इस घटना को सही बताया गया था. हालांकि बाद में संघ की ओर इस पर सफाई भी दी गई थी. 14- 1990-92 में अयोध्या मे गिराई गई बाबरी मस्जिद मामले में संघ पर ही आरोप लगा था. हालांकि संघ इस आरोप को सिरे से खारिज करता रहा है. 15- आरएसएस के चौथे प्रचारक राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भैया की आत्मकथा में दावा किया गया है कि उत्तरप्रदेश में गौहत्या पर प्रतिबंध 1955 में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और तत्कालीन सीएम गोविंद वल्लभ पंत ने रज्जू भैया के कहने पर ही लगाया गया था.

पहली बार सिंहस्थ-16 में शामिल होंगे देश-विदेश से 10 हजार से ज्यादा किन्नर


डाॅ. अरूण जैन
मध्यप्रदेश की धार्मिक नगरी उज्जैन में अगले वर्ष अप्रैल माह में होने वाले सिंहस्थ-2016 कुंभ में किन्नर समुदाय भी शामिल होंगे और यहां किन्नरों का एक अलग अखाडा भी होगा। उज्जैन के प्रसिद्ध अध्यामिक गुरू रिषी अजयदास ने बताया, ''अगले वर्ष 22 अप्रैल से 21 मई तक होने वाले सिंहस्थ-2016 में देश और विदेश से करीब दस हजार किन्नरों के शामिल होने की आशा है।ÓÓउन्होंने बताया, ''हमारे आश्रम में 13 अक्तूबर से किन्नरों का अलग अखाडा शुरू कर दिया है। इसके उद्घाटन कार्यक्रम में करीब 17 राज्यों के किन्नर शामिल हुए थे।ÓÓ आध्यात्मिक गुरू ने बताया, ''बैंकाक के किन्नरों से भी हमारी चर्चा हुई है, वे भी सिंहस्थ में आने के लिये बेहद उत्सुक हैं।ÓÓ  रिषी अजयदास ने कहा, ''मैं पिछले सात साल से किन्नरों के उत्थान के लिये काम कर रहा हूं। हमने इस वर्ग में शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य मामलों में जागरूकता लाने की कोशिश की है।ÓÓ उन्होंने कहा कि दुनिया में किन्नरों की तादाद लगभग 1.25 करोड़ है और विश्व भर में मेरे कई शिष्य फैले हुए हैं। अब तक सिंहस्थ में पंरम्परागत तौर पर 13 अखाड़े शामिल होते हैं। कुछ श्रद्धालुओं को लगता है कि रूढि़वादी संतो द्वारा कुंभ में किन्नरों के भाग लेने का विरोध किया जायेगा। 

रूस पड़ रहा है अमेरिका पर भारी


अरूण जैन
इस्लामिक स्टेट के मुकाबले पिछले कई महीनों में जो काम अमेरिका नहीं कर पाया वो रूसी सेना ने कुछ ही हफ्तों में कर दिखाया। रूस सीरिया में जबरदस्त हवाई हमले कर रहा है। रूस के इस आक्रमक रुख ने पश्चिमी देशों के सैन्य विशेषज्ञों को सकते में डाल दिया है। इस लड़ाई को गौर से देख रहे पर्यवेक्षकों का मानना है कि सीरिया में पुतिन की सैन्य रणनीति के सामने ओबामा का संशयभरे फैसले कही नहीं टिक पा रहे हैं। अमेरिका का रुख इस लड़ाई के माध्यम से असद सरकार को हटाना मात्र है, आईएस को रोकना महज बहाना दिख रहा है। इस्लामिक स्टेट के कहर से मासूस लोगों को बचाने के नाम पर अमेरिका ने सीरियाई विद्रोहियों को प्रशिक्षण और हथियार देने के अलावा ज्यादा कुछ नहीं किया। दरअसल अफगानिस्तान और इराक में उलझे अमेरिकी नेतृत्व का मानना था कि मध्य-पूर्व में एक और मोर्चा खोलने से कोई फायदा नहीं होने वाला लेकिन सऊदी अरब में आईएस की आमद के साथ ही इस मामले पर अमेरीका पर सऊदी सरकार ने दबाव बनाना शुरू कर दिया था। नतीजतन अमेरिका ने अधूरे मन से आईएस के खिलाफ हवाई कार्यवाही आरंभ की। रूस इस मुद्दे पर शुरू से ही असद सरकार का हिमायती रहा है। असद के विरोधियों को सीआईए द्वारा प्रशिक्षण और हथियारों की मदद के बाद असद सरकार समर्थित फौजों को विद्रोहियों और इस्लामिक स्टेट से दो मोर्चों पर लडऩा पड़ रहा है। लेकिन रूस ने देर आया पर दुरुस्त आए की तर्ज पर पूरी ताकत से आईएस पर हमला बोल दिया है। अमेरिका का आरोप है कि रूस आईएस के बहाने सीरियाई विद्रोहियों को भी निशाना बना रहा है लेकिन रूस इस ओर कोई ध्यान दिए बिना सीरिया में अपना काम जारी रखे हुए है।  रूस से हवाई हमले के अलावा अब सीरिया में मिलिट्री ऑपरेशन में सबसे घातक हथियारों को भी शामिल किया है। रूसी सेना का मोबाइल मल्टिपल रॉकेट लॉन्चर (टीओएस-1ए) थर्मोबैरिक जो एक साथ कई निशानों को तबाह करने की ताकत रखता है सीरिया में तैनात है। टीओएस-1ए सिस्टम से एक बार में 24 से 30 बैरल मल्टिपल रॉकेट लॉन्च किए जा सकते हैं।यह टी-72 टैंक चैसिस पर लगाया जाता है। अपनी ताकत और तेजी से यह मिसाइल सिस्टम अमेरिका के मिसाइल तंत्र से अधिक परिष्कृत और खतरनाक है। सूत्रों के अनुसार इसे आईएस के प्रमुख सीरियाई शहरों पर हमले की आशंका के चलते तैनात किया गया है।  इसके अलावा रूस ने आईएसआईएस के 40 ठिकानों पर हवाई हमले किए थे जिन्होंने इस खतरनाक आतंकी संगठन की कमर तोड़ दी है। पश्चिमी खुफिया तंत्र और सैन्य रणनीतिकार भी रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की इस आक्रमक कार्यवाही से प्रभावित है और मानते हैं कि इस कार्यवाही से रूस की फीकी पड़ चुकी फौजी प्रतिष्ठा को पाने में बेहद मदद मिलेगी। पुतिन ने इस ऑपरेशन में कई कड़े कदम उठाए हैं जैसे सुखोई स्ह्व-34 स्ट्राइक फाइटर जो पहली बार किसी लड़ाई में शामिल हुआ है। इसके अलावा रूसी नौसेना ने 1500 किमी. की दूरी से सीरिया में आईएस के ठिकानों पर क्रूज मिसाइल से हमला कर नाटो को सख्त संदेश दे दिया है। रूसी सेना के दमखम को देखकर सैन्य विशेषज्ञ मान रहे हैं कि कई क्षेत्रों में रूस की टेक्नोलॉजी कई मायनों में अमेरिका से बेहतर है।  जहां एक ओर अमेरिका सीरिया में रूस के बढ़ते दखल से परेशान है वहीं ईरान ने असद सरकार के समर्थन में अपने सैकड़ों सैनिकों को उत्तरी और मध्य सीरिया में तैनात कर दिया है। ईरान के उच्च प्रशिक्षित कंमाडों विद्रोहियों खिलाफ असद समर्थित सेना को ग्राउंड कवर देंगे। सऊदी अरब के एक सैन्य विशेषज्ञ के अनुसार पिछले 4 सालों में पहली बार ईरान ने सीरियाई गृहयुद्ध में अपनी उपस्थिति दर्ज की है। हालांकि, न्यूज एजेंसी एपी के अनुसार ईरानी सैनिक रूसी हवाई हमले के कुछ दिन बाद ही सीरिया पहुंच गए थे।  दरअसल रूस और ईरान दोनों ही इस क्षेत्र में इस्लामिक स्टेट का प्रभाव बढऩे से रोकना चाहते हैं क्योंकि अमेरिका के बनिस्बत दोनों ही देशों की सीमाएं और हित सीरिया से जुड़े हैं और यदि इस्लामिक स्टेट को रोका नहीं गया तो उनका अगला निशाना शिया बहुल ईरान और रूस का मुस्लिम बहुल क्षेत्र होगा जो मध्यपूर्व के अलावा एशिया में भी अशांति ला सकता है। 
सिंहस्थ स्नान का पुण्य लाभ शिप्रा नदी में नहाने से है, रामघाट पर नही
अरूण जैन
सिंहस्थ के समय शासन, प्रशासन और पुलिस से समक्ष सबसे बड़ी समस्या है कि हर व्यक्ति रामघाट पर ही स्नान करना चाहता है। अभी तक किसी ने भी इस बात को ठीक से प्रचारित नही किया  कि सिंहस्थ का पुण्य लाभ शिप्रा नदी में स्नान करने से ही मिलेगा, केवल रामघाट पर नही। नदी के किसी भी घाट पर स्नान करने से पुण्य लाभ प्राप्त होगा! प्रशासन, पुलिस समस्त प्रचार साधनों में इसे भली प्रकार प्रचारित करे तो भीड़ नियंत्रण स्वतः आसान हो जाएगा। 
अभी तक के हुए सभी सिंहस्थ और कुंभ महापर्वो पर एक नजर डाले तो एक बात बहुत स्पष्ट है कि इस महापर्व स्नान का पुण्य लाभ उन निश्चित तिथियों अथवा ग्रह युति में गंगा, गोदावरी अथवा शिप्रा नदी में स्नान करने से प्राप्त होगा। पुराणों में भी इन नदियों में स्नान करने का उल्लेख है, किसी घाट विशेष का कहीं भी जिक्र नही है।
यह ठीक है कि साधु जमातें और अखाड़े शाही निकाल कर संयुक्त रूप से रामघाट पर आते है और वहां स्नान करते हैं। यहां भी रामघाट और सामने का दत्त अखाड़ा घाट जमातों के लिए तय किया हुवा है। पर इसका यह अर्थ भी नही है कि शिप्रा नदी में विस्तार से फैले अन्य घाटों पर स्नान करने से धर्मालुओं को महापर्व का पुण्यलाभ नही मिलेगा, देखा जाए तो शिप्रा नदी का पाट शनि मंदिर, त्रिवेणी से लेकर नृसिंह घाट, रामघाट, रेतीघाट, गढ़कालिका से होकर कालियादेह महल तक फैला हुवा है। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि ग्रहों की युति उस समय उज्जैन पर निर्मित होती है, किसी घाट विशेष पर नही। शासन ने समस्त प्रचार कार्य भोपाल में केन्द्रित कर रखा है। वहां बैठे प्रशासनिक अधिकारियों को इस बात को विस्तार और व्यापकता से प्रत्येक विज्ञापन, वेबसाइट, समाचारों में स्थायी रूप से प्रचारित करना चाहिए कि प्रशासन द्वारा शिप्रा नदी पर जो विस्तारित घाट बनाए गए है, धर्मालु वहीं पर नदी स्नान का पुण्यलाभ लें। इसमें कोई दो राय नही कि महापर्व के दौरान प्रशासन को भीड़ नियंत्रण में इस प्रचार से बेहद मदद मिलेगी।

Thursday, 15 October 2015

अगर हार्ट अटैक आया तो नीला क्यों पड़ गया था शास्त्री जी का शरीर!


डॉ. अरूण जैन
1965 का युद्ध खत्म होने के बाद 10 जनवरी 1966 को पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने पाकिस्तान के सैन्य शासक जनरल अयूब के साथ तत्कालीन सोवियत रूस के ताशकंद में शांति समझौता किया था। समझौते के बाद भी शास्त्री जी अपने कमरे में बेचैनी से टहलते हुए देखे गए थे। शास्त्री जी के साथ गए भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने भी महसूस किया था कि शास्त्री जी परेशान हैं। इस प्रतिनिधिमंडल में वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर भी थे, जो उस वक्त शास्त्री जी के सूचना अधिकारी थे। कुलदीप नैय्यर उन चंद पहले लोगों में थे जिन्होंने शास्त्री जी की मौत के फौरन बाद उनके पार्थिव शरीर को देखा था। शास्त्री जी के सूचना अधिकारी कुलदीप नैय्यर बताते हैं कि उस रात मैं सो रहा था। तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया। एक कोई रूसी महिला थी। उसने कहा कि योर पीएम एज डाइंग, तो मैं जल्दी से पहुंचा। वहां कोसीगन थे। उन्होंने देखकर ऐसे हाथ हिलाया कि नो मोर। मैं कमरे में आया तो मैंने देखा कि वहां इतना बड़ा कमरा था। बड़े कमरे में बेड पर एक छोटा सा आदमी था। हमने नेशनल फ्लैग ओढ़ाया और फूल चढ़ा दिया। लाल बहादुर शास्त्री का देहांत 10 और 11 जनवरी 1966 की दरमियानी रात को करीब डेढ़ बजे हुआ था। आधी रात से करीब दो घंटे बाद एक विदेशी मुल्क में देश के प्रधानमंत्री की मौत से भारतीय प्रतिनिधि मंडल में मौजूद सभी लोग सन्नाटे में आ गए थे। जिस प्रधानमंत्री ने चंद घंटे पहले पड़ोसी मुल्क के साथ मशहूर ताशकंद समझौता किया था, उसकी अचानक मौत से पूरा देश सकते में आ गया। बाद में जो बातें सामने आईं, उसके मुताबिक आधी रात के बाद शास्त्री जी खुद चलकर अपने सेक्रेटरी जगन्नाथ के कमरे तक पहुंचे थे, क्योंकि उनके कमरे में न घंटी थी-ना टेलीफोन। शास्त्री जी ने दरवाजा खटखटा कर अपने सेक्रेटरी को उठाया। वो छटपटा रहे थे। उन्होंने डॉक्टर बुलाने को कहा। सेक्रेटरी ने उन्हें पानी पिलाया और बिस्तर पर लेटा दिया। ताशकंद से 20 किलोमीटर दूर बने गेस्ट हाउस में ठहराए गए शास्त्री जी को वक्त पर डॉक्टरी मदद नहीं मिली और वो फिर कभी नहीं उठे। सच ये भी है कि जिस रात शास्त्री जी की मौत हुई, उस रात खाना उनके घरेलू नौकर रामनाथ ने नहीं बनाया था। उस रात खाना सोवियत संघ में भारत के राजदूत टीएन कौल के रसोइए जान मोहम्मद ने बनाया था। शास्त्री जी ने आलू पालक और सब्जी खाई थी। फिर वो सोने चले गए थे। मौत के बाद उनका शरीर नीला पड़ गया था। लिहाजा सवाल ये भी है कि क्या शास्त्री जी को खाने में या किसी और तरीके से जहर दे दिया गया था। शास्त्री जी के पुत्र अनिल शास्त्री का कहना है कि उनकी मृत्यु प्राकृतिक नहीं थी। उनका चेहरा नीला पड़ गया था। यहां वहां चकत्ते पड़ गए थे। शास्त्री जी की मौत का सच फौरन सामने आ जाता, अगर उनका पोस्टमार्टम कराया गया होता। लेकिन ये ताज्जुब की बात है कि एक प्रधानमंत्री की रहस्यमय हालात में मौत हो गई और उनका पोस्टमार्टम नहीं कराया गया।

Wednesday, 14 October 2015

बेरोजगारी की डराती तस्वीर


अरूण जैन
भारत को वैश्विक आर्थिक महाशक्ति बना देने का सपना दिखाने वालों की नींद अब टूटनी चाहिए। जिस युवा जनसंख्या के बूते इक्कीसवीं शताब्दी के भारतीय युवाओं की शताब्दी होने का दंभ भरा जा रहा है, उसे उत्तर प्रदेश में खड़ी शिक्षित बेरोजगारों की फौज ने आईना दिखा दिया है, जहां विधानसभा सचिवालय में चपरासी के महज तीन सौ अड़सठ पदों के लिए तेईस लाख आवेदन प्राप्त हुए हैं। औसतन एक पद के लिए छह हजार अर्जियां! इस सच्चाई को अगर नजरअंदाज किया गया तो अराजकता के हालात बनने में देर नहीं लगेगी। किसी भी विकासशील देश के लिए यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि उसकी युवा पीढ़ी उच्चशिक्षित होने के बावजूद आत्मनिर्भरता के लिए चपरासी जैसी सबसे छोटी नौकरी के लिए लालायित है। इक्कीस करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में चपरासी के लिए जो तेईस लाख अर्जियां आई हैं, उनमें चाही गई न्यूनतम शैक्षिक योग्यता पांचवीं पास तो केवल 53,426 उम्मीदवार हैं, लेकिन छठी से बारहवीं पास उम्मीदवारों की संख्या बीस लाख के ऊपर है। इनमें 7.5 लाख इंटर पास हैं। इनके अलावा 1.52 लाख उच्चशिक्षित हैं। इनमें विज्ञान, वाणिज्य और कला से उत्तीर्ण स्नातक और स्नातकोत्तर तो हैं ही, इंजीनियर और एमबीए भी हैं। साथ ही दो सौ पचपन अभ्यर्थी पीएचडी हैं। शिक्षा की यह सर्वोच्च उपाधि इस बात का प्रतीक मानी जाती है कि जिस विषय में छात्र ने पीएचडी की है, उस विषय का वह विशेषज्ञ है। यह उपाधि महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में भर्ती किए जाने वाले सहायक प्राध्यापकों की वांछित योग्यता में जरूरी है। जाहिर है, सरकार के समक्ष यह संकट खड़ा हो गया है कि वह आवेदनों की छंटनी का आधार क्या बनाए और परीक्षा की ऐसी कौन-सी तरकीब अपनाए कि प्रक्रिया पूरी हो जाए? क्योंकि जिस बड़ी संख्या में आर्जियां आई हैं, उनके साक्षात्कार के लिए दस सदस्यीय दस समितियां बना भी दी जाएं तो परीक्षा निपटाने में चार साल से भी ज्यादा का समय बीत जाएगा। सरकारी नौकरियों में आर्थिक सुरक्षा की वजह से उनके प्रति युवाओं का आकर्षण लगातार बढ़ रहा है। दुनिया में आई आर्थिक मंदी के चलते भी इंजीनियरिंग और एमबीए के डिग्रीधारियों को संतोषजनक रोजगार नहीं मिल रहे हैं। भारत में औद्योगिक और प्रौद्योगिक क्षेत्रों में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। यही वजह है कि उत्तर प्रदेश में कुछ दिन पहले लेखपाल के चौदह सौ पदों के लिए सत्ताईस लाख युवाओं ने आवेदन किए थे। छत्तीसगढ़ में चपरासी के तीस पदों के लिए पचहत्तर हजार अर्जियां आई थीं। केरल में क्लर्क के साढ़े चार सौ पदों के लिए ढाई लाख आवेदन आए। कोटा में सफाईकर्मियों की भर्ती के लिए डिग्रीधारियों की फौज कतार में खड़ी हो गई थी। मध्यप्रदेश में भृत्य पदों की भरती के लिए आयोजित परीक्षा में भी उच्चशिक्षितों ने भागीदारी की थी। केंद्र सरकार की नौकरियों में भी कमोबेश यही स्थिति बन गई है। कर्मचारी चयन आयोग की 2013-14 की छह परीक्षाओं में भागीदारी करने वाले अभ्यर्थियों की संख्या एक करोड़ से ज्यादा थी। निजी कंपनियों में अनिश्चितता और कम पैकेज के चलते, सरकारी नौकरी की चाहत युवाओं में इस हद तक बढ़ गई है कि पिछले पांच साल में अभ्यर्थियों की संख्या में दस गुना वृद्धि हुई है। वर्ष 2008-09 में यह परीक्षा 10.27 लाख आवेदकों ने दी। वहीं 2011-12 में यह संख्या बढ़ कर 88.65 लाख हो गई और 2012-13 में यह आंकड़ा एक करोड़ की संख्या को पार कर गया। एनएसएसओ की रिपोर्ट बताती है कि अकेले उत्तर प्रदेश में एक करोड़ बत्तीस लाख बेरोजगारों की फौज आजीविका के लिए मुंह बाए खड़ी है। जाहिर है, हमारी शिक्षा पद्धति में खोट है और वह महज डिग्रीधारी निठल्लों की संख्या बढ़ाने का काम कर रही है। अगर वाकई शिक्षा गुणवत्तापूर्ण और रोजगारमूलक होती तो उच्चशिक्षित बेरोजगार एक चौथे दर्जे की नौकरी के लिए आवेदन नहीं करते। ऐसे हालात से बचने के लिए जरूरी है कि हम शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन कर इसे रोजगारमूलक और लोक-कल्याणकारी बनाएं। बेरोजगारों की इस फौज ने दो बातें एक साथ सुनिश्चित की हैं। एक तो हमारे शिक्षण संस्थान समर्थ युवा पैदा करने के बजाय, ऐसे बेरोजगारों की फौज खड़ी कर रहे हैं, जो योग्यता के अनुरूप नौकरी की लालसा पूरी नहीं होने की स्थिति में कोई भी नौकरी करने को तत्पर हैं। दूसरे, सरकारी स्तर की छोटी नौकरियां तत्काल भले ही पद और वेतनमान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण न हों, लेकिन उनके दीर्घकालिक लाभ हैं। उत्तरोत्तर वेतनमान और सुविधाओं में इजाफा होने के साथ आजीवन आर्थिक सुरक्षा है। स्वायत्त निकायों में तो चपरासियों को भी अधिकारी बनने के अवसर सुलभ हैं। इनमें कामचोर और झगड़ालू प्रवृत्ति के कर्मचारियों को भी सम्मानपूर्वक तनखा मिलती रहती है। अगर आप में थोड़े-बहुत नेतृत्व के गुण हैं तो कर्मचारी संगठनों की मार्फत नेतागिरी करने के बेहतर वैधानिक अधिकार भी उपलब्ध हैं। रिश्वतखोरी की गुंजाइश वाला पद है तो आपकी आमदनी में दूज के चांद की तरह श्रीवृद्धि होती रहती है। इसीलिए उज्जैन नगर निगम के एक चपरासी के पास से लोकायुक्त की पुलिस ने करोड़ों की संपत्ति बरामद की है। बर्खास्त कर्मचारियों की सेवाएं बीस-पचीस साल बाद भी समस्त स्वत्वों के साथ बहाल कर दी जाती हैं। लिहाजा, हैरत की बात नहीं कि आइटी क्षेत्र में गिरावट के बाद तकनीक में दक्ष युवा भी चपरासी और क्लर्क बनने को छटपटा रहे हैं। छठा वेतनमान लागू होने के बाद सरकारी नौकरियों के प्रति आकर्षण और भी बढ़ा है। इसके चलते साधारण शिक्षक को चालीस-पैंतालीस हजार और महाविद्यालय के प्राध्यापक को एक-सवा लाख वेतन मिल रहा है। सेवानिवृत्त प्राध्यापक को बैठे-ठाले साठ-सत्तर हजार रुपए तक पेंशन मिल रही है। ऐसी पौ-बारह सरकारी नौकरियों में ही संभव है। अगर इन कर्मचारियों को सातवां वेतनमान और दे दिया जाता है, तो बाकी लोगों से उनकी प्राप्तियों की खाई और भी चौड़ी हो जाएगी। इससे सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक विसंगतियां बढ़ेंगी। इसलिए क्या यह अच्छा नहीं होगा कि सरकार सातवें वेतनमान की सौगात देने से पहले समाज पर पडऩे वाले इसके दुष्प्रभावों की पड़ताल करे? आज चालीस प्रतिशत से भी ज्यादा खेती-किसानी से जुड़े लोग वैकल्पिक रोजगार मिलने की स्थिति में खेती छोडऩे को तैयार हैं। किसानी और लघु-कुटीर उद्योग से जुड़ा युवक, जब इस परिवेश से कट कर डिग्रीधारी हो जाता है तो अपनी आंचलिक भाषा के ज्ञान और स्थानीय रोजगार की समझ से भी अनभिज्ञ होता चला जाता है। लिहाजा, नौकरी नहीं मिलने पर पारंपरिक रोजगार और ग्रामीण समाज की संरचना के प्रति भी उदासीन हो जाता है। ये हालात युवाओं को कुंठित, एकांगी और बेगानों की तरह निठल्ले बना रहे हैं। अक्सर कहा जाता है कि शिक्षा व्यक्तित्व के विकास के साथ-साथ रोजगार का मार्ग भी खोलती है। लेकिन चपरासी की नौकरी के परिप्रेक्ष्य में डिग्रीधारी बेरोजगारों की जो तस्वीर पेश हुई है, उसने समस्त शिक्षा प्रणाली को कठघरे में ला खड़ा किया है। अच्छी और सुरक्षित नौकरी के जरिए खुशहाल जीवन का सपना देखने वाले युवा और उनके अभिभावक सशंकित हैं कि उनका सपना कहीं चकनाचूर न हो जाए। भारत की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और भौगोलिक परिस्थितियों और विशाल जनसमुदाय की मानसिकता के आधार पर अगर सार्थक शिक्षा के बारे में किसी ने सोचा था तो वे महात्मा गांधी थे। उनका कहना था, 'बुद्धि की सच्ची शिक्षा हाथ, पैर, कान, नाक आदि शरीर के अंगों के ठीक अभ्यास और शिक्षण से ही हो सकती है। यानी इंद्रियों के बुद्धिपरक उपयोग से बालक की बुद्धि के विकास का उत्तम मार्ग मिलता है। पर जब मस्तिष्क और शरीर का विकास साथ-साथ न हो और उसी प्रमाण में आत्मा की जगृति न होती रहे तो केवल बुद्धि के एकांगी विकास से कुछ लाभ नहीं होगा।Ó आज हम बुद्धि के इसी एकांगी विकास की गिरफ्त में आ गए हैं। सरकारी नौकरी पाने को आतुर इस सैलाब को रोकने के लिए जरूरी है कि इन नौकरियों के वेतनमान तो कम किए ही जाएं, अकर्मण्य सेवकों की नौकरी की गारंटी भी खत्म की जाए। अन्यथा ये हालात उत्पादक किसानों और नवोन्वेषी उद्यमियों को उदासीन बनाने का काम करेंगे। साथ ही शिक्षा के महत्त्व को श्रम और उत्पादन से जोड़ा जाए। ऐसा हम युवाओं को खेती-किसानी और लघु-कुटीर उद्योगों की ज्ञान-परंपराओं से जोड़ कर कर सकते हैं। यह इसलिए जरूरी है कि एक विश्वसनीय अध्ययन के मुताबिक सूचना तकनीक के क्षेत्र में तीस लाख लोगों को रोजगार मिला है, वहीं हथकरघा दो करोड़ से भी ज्यादा लोगों की रोजी-रोटी का जरिया है। इस एक उदाहरण से पता चलता है कि लघु उद्योग आजीविका के कितने बड़े साधन बने हुए हैं। प्रधानमंत्री मोदी के 'मेक इन इंडियाÓ और 'स्किल इंडियाÓ का अर्थ व्यापक ग्रामीण विकास में ही निहित है। क्योंकि मौजूदा शिक्षा रोजगार के विविध वैकल्पिक आधार उपलब्ध कराने में अक्षम साबित हो रही है। यह शिक्षा समाज को युगीन परिस्थितियों के अनुरूप ढाल कर सामाजिक परिवर्तनों की वाहक नहीं बन पा रही है। इस शिक्षा-व्यवस्था से क्या यही अपेक्षा है कि वह ऐसे सरकारी संस्थागत ढांचे खड़े करती चली जाए, जिसके राष्ट्र और समाज के लिए हित क्या हैं, यह तो स्पष्ट न हो, लेकिन नौकरी और ऊंचे वेतनमान की गारंटी हो? 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क्या नदियों को जोडऩा जरूरी है?


अरूण जैन
नदियों को जोडऩे की महत्त्वाकांक्षी योजना के अंतर्गत एक और कामयाबी मिली। कृष्णा और गोदावरी नदियों के मिलन के साथ ही आंध्र प्रदेश का दशकों पुराना सपना साकार हो गया है। माना जा रहा है कि इन दोनों नदियों के आपस में जुडऩे से तकरीबन साढ़े तीन लाख एकड़ के भूक्षेत्र को फायदा होगा और अन्य नदियों को भी आपस में जोडऩे की योजना को गति मिलेगी। दरअसल, भारत विविधताओं से परिपूर्ण राष्ट्र है और यहां सांस्कृतिक विविधता तो खूब है ही, भौगोलिक विविधता भी कम नहीं है। पूरे देश में नदियों का जाल है। लेकिन नदियों का स्वरूप अलग है। प्रथम प्रकार की नदियां हिमालय के ग्लेशियरों से निकलती हैं जिनमें वर्ष भर जल की आपूर्ति सुगमतापूर्वक होती है। ये नदियां अपने आसपास के क्षेत्रों को हरा-भरा रखती हैं और पेयजल, जल विद्युत आदि अनेक प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध कराती हैं। हालांकि इन नदियों में गर्मी के मौसम में पानी की कुछ कमी हो जाती है, पर इतनी अधिक कमी नहीं होती कि इनका पानी सूख जाए। बारिश के मौसम में इन नदियों के किनारे के शहर बहुत बड़ी विभीषिका झेलते हैं और यह विभीषिका बाढ़ की होती है। बाढ़ के कारण अपार धन-जन की हानि होती है। हालांकि सरकार राहत-कार्य द्वारा इस विभीषिका को कम करने का प्रयास करती है, पर नुकसान अनुमान से अधिक होता है। हिमालय से निकली नदियों में एक ही मौसम में बाढ़ आना इन विभीषिकाओं को और बढ़ा देता है और धन-जन की अपार हानि होती है। दूसरे प्रकार की नदियों में प्रायद्वीपीय नदियां आदि हैं जिनका उद्गम किसी पहाड़ी प्रदेश से होता है और ये मुख्य रूप से दक्षिण भारत में बहती हैं। इन नदियों में गर्मी के मौसम में पानी की बहुत कमी होती है और यही नदियां बरसात के समय विशाल स्वरूप ग्रहण करके अपने आसपास के क्षेत्रों को जलमग्न कर देती हैं तथा फसलों को बरबाद कर देती हैं। मिट्टी का क्षरण बहुत बड़े पैमाने पर होने के कारण भी क्षति अधिक होती है। प्रायद्वीपीय नदियों में कुछ में नौ परिवहन होता है, लेकिन सीमित मात्रा में। इस प्रकार, इन नदियों में पानी बहुत रहता है लेकिन उसका उपयोग ठीक ढंग से नहीं हो पाता है। बरसात के समय यह पानी फालतू बह कर समुद्र में चला जाता है और मनुष्य को दो तरफ से क्षति होती है। पहले तो धन, जन की हानि, और दूसरे प्रकार से जल की हानि। इसी के मद््देनजर भारत सरकार ने एक महत्त्वाकांक्षी परियोजना का शुभारंभ 13 अक्तूबर 2002 को किया था। अमृत क्रांति के रूप में भारत सरकार ने नदी संपर्क योजना का प्रस्ताव पारित किया जिसमें लगभग सैंतीस नदियों को जोडऩे की बात कही गई। यह केवल नदियों को जोडऩे या उन्हें आपस में मिला देने की परियोजना नहीं है। नदियों को नहरों के माध्यम से जोड़ा जाएगा और जगह-जगह पर बांध और जल संरक्षण के लिए जल भंडार बनाए जाएंगे। मानसून के दिनों में जरूरत से ज्यादा पानी को इसमें सुरक्षित कर लिया जाएगा और बाद में जिस राज्य को आवश्यकता होगी, उसे नहरों के जरिए उसी सुरक्षित पानी से आपूर्ति की जाएगी। यह देखा गया है कि मानसून के समय बाढ़ आ जाती है, लेकिन मानसून के बाद गंगा जैसी बड़ी नदी में भी पानी का स्तर काफी गिर जाता है। परियोजना के तहत बनाए जाने वाले बांध और स्टोरेज न सिर्फ बाढ़ के प्रकोप को कम करेंगे, बल्कि मानसून के बाद सूखे के दिनों में भी लोगों की जरूरत के मुताबिक पानी उपलब्ध कराएंगे। परियोजना के जरिए चौंतीस हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन होगा और साढ़े तीन करोड़ हेक्टेयर जमीन पर बेहतर सिंचाई सुविधा उपलब्ध होगी। साथ ही परियोजना द्वारा नहरों केविस्तार से कृषि की समस्या को भी सुलझाया जाएगा। नौपरिवहन के साथ-साथ पर्यटन की दृष्टि से भी इस योजना का भविष्य में लाभ उठाया जा सकता है। नदी जोड़ योजना की जोर-शोर से चर्चा भले वाजपेयी सरकार के समय हुई हो, इसका प्रस्ताव और पहले से बीच-बीच में आता रहा। वर्ष 1971-72 में तत्कालीन सिंचाई मंत्री केएल राव ने एक लंबी नहर के जरिए गंगा और कावेरी को जोडऩे का प्रस्ताव रखा था। वर्ष 1980 के दशक में राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी ने इंटरलिंकिंग ऑफ रीवर्स प्लान यानी नदी जोड़ योजना का खाका तैयार किया। पर हुआ कुछ नहीं। दरअसल, यह योजना हमेशा इतनी भारी लागत वाली और इतने विवादों को जन्म देने वाली रही कि प्रस्ताव कुछ समय की चर्चा के बाद ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता रहा। वाजपेयी सरकार ने इसे अपनी एक महत्त्वाकांक्षी योजना के रूप में पेश किया और इसका खाका बनाने के लिए सुरेश प्रभु की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया। लेकिन 2001 की कीमत पर भी कई लाख करोड़ रुपए की लागत बैठने, बड़े पैमाने पर विस्थापन और पर्यावरणीय तोड़-फोड़ के अंदेशों ने इस परियोजना को काफी विवादास्पद बना दिया और वाजपेयी सरकार ने इस पर चुप्पी साध ली। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में वाजपेयी सरकार की विदाई हो गई। उसके बाद आई यूपीए सरकार को लगा कि इस योजना की बात छेडऩा बर्र के छत्ते में हाथ डालना होगा। लिहाजा, वह इस पर खामोश रही। लेकिन कृष्णा और गोदावरी के जुडऩे से अब नए सिरे से यह योजना चर्चा का विषय बनी है। इससे पहले मध्यप्रदेश में नर्मदा और क्षिप्रा को जोड़ा गया था। पर्यावरणविद इस पूरी कवायद को पर्यावरण-हितैषी नहीं मानते। उनका कहना है कि नदियों का कुदरती स्वरूप बने रहने देना चाहिए, इससे छेड़छाड़ ठीक नहीं है, यह हमें बहुत महंगी पड़ेगी। पर इस योजना के पैरवीकार कहते हैं कि नदियों का बहुत सारा पानी समुद्र में बेकार चला जाता है। नदियों को जोड़ देने से सूखा और बाढ़, दोनों से स्थायी निजात मिलेगी और इनके कारण हर साल राहत के तौर पर खर्च होने वाली हजारों करोड़ रुपए की राशि बचेगी। दूसरी ओर, बिजली उत्पादन में भी काफी इजाफा होगा। हालांकि इस योजना को प्रारंभिक तौर पर देखने से यह बहुत ही विकासोन्मुख दिखती है, पर इससे उत्पन्न होने वाली हानियों को भी रेखांकित करना आवश्यक है। हमें हमेशा यह प्रयास करना चाहिए कि विकास के अनुपात में उसकी खातिर चुकाई जाने वाली कीमत को न्यूनतम किया जा सके। नदी जोड़ योजना में कई समस्याएं और जटिलताएं भी हैं। बहुत बड़े स्तर पर और बड़े क्षेत्र में नहरों का निर्माण होने से विस्थापन की समस्या विकराल रूप में उपस्थित होती है। भारत सरकार पूर्व की अनेक योजनाओं में विस्थापितों की समस्या को आज तक पूर्ण रूप से हल नहीं कर सकी, चाहे वह सरदार सरोवर बांध के निर्माण में हो या टिहरी के संदर्भ में। उचित मुआवजा न मिलने से विरोध के स्वर अब भी मुखर होते हैं। लिहाजा, परियोजना में प्रारंभ से ही विस्थापितों के पुर्नवास के लिए एक पारदर्शीनीति बनाई जाए जिसका कड़ाई से पालन हो। ब्रह्मपुत्र और दूसरी नदियों को आपस में जोडऩे की सरकार की विशालकाय योजना से भविष्य में पर्यावरणीय महाविपदा से इनकार नहीं किया जा सकता। किसी भी स्थान पर नहरों द्वारा पानी लाने के बारे में पर्यावरणाविद मानते हैं कि पर्यावरण पर इसके असर के बारे में पहले से अध्ययन जरूरी है। कुछ तरह की भूमि और मिट्टी को नहरों से लाभ हो सकता है तो कुछ अन्य तरह की भूमि व मिट्टी को बहुत नुकसान हो सकता है। कहीं भू-जल उपलब्धि बढ़ सकती है तो कहीं दलदलीकरण की समस्या भी विकट हो सकती है। पानी और दलदल में पलने वाले मच्छर और जीव नए इलाके में प्रवेश कर कई ऐसी बीमारियां फैला सकते हैं जिनसे वहां के लोग अनभिज्ञ रहे हों और जिनके लिए उनमें कोई प्रतिरोधक शक्ति भी नहीं है। अत: इस प्रकार से उत्पन्न समस्याओं को दूर करने के लिए अग्रिम अध्ययन के जरिए प्रयास करना चाहिए। हर क्षेत्र के विशेषज्ञों की राय इसमें बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। पर्यावरण प्रदूषण के कारण हिमालय से नदियों में पानी कम आने का एक दुष्परिणाम यह भी होगा कि ये समुद्र में जिस स्थान पर मिलती हैं वहां का पर्यावरणीय संतुलन बुरी तरह बिगड़ जाएगा। इस परियोजना से एक खतरा कृषि की जैव विविधता के लिए भी है। यह परियोजना जैव विविधता को खत्म करेगी और गैर-टिकाऊ जल उपयोगिता को बढ़ावा देगी। पानी के गैर-टिकाऊ इस्तेमाल में ऐसी खेती सबसे बड़ा कारक है, जो पानी की बर्बादी करती है। असली अमृत क्रांति तो तब होगी, जब जैव विविधता का संरक्षण किया जाएगा, पानी बचाने के तरीके लागू किए जाएंगे, जैविक कृषि को अपनाया जाएगा और जल-स्रोतों में नई जान फूंकी जाएगी। नदी जोड़ के छद्म विज्ञान की जगह अपनी जल प्रणालियों के साथ सामंजस्य से जीने का विज्ञान लागू होना चाहिए। दूर-दूर की नदियों को जोड़ देने भर से पानी का गलत इस्तेमाल, टिकाऊ इस्तेमाल में नहीं बदल जाएगा, बल्कि इससे पानी के दुरुपयोग की आशंका और भी बढ़ जाएगी। फिलहाल सरकार नई ऊर्जा और दृढ़ निश्चय के साथ इस महत्त्वाकांक्षी योजना को शुरू करने पर आमादा है। सरकार को चाहिए कि लाभ और हानि के सभी पहलुओं की गहन पड़ताल कर अपनी योजना के केंद्र में मानवीय पक्ष को रखे।