यह असंतोष देश की सुरक्षा और छवि के लिए ठीक नहीं
डॉ. अरूण जैन
सेना और अर्धसैनिक बलों के जवानों की ओर से सुविधाओं की माँग और अपनी समस्याओं की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित करने के उद्देश्य से सोशल मीडिया का उपयोग करना चिंतनीय तो है लेकिन यहाँ यह सवाल भी खड़ा होता है कि ऐसी नौबत क्यों आन पड़ी? देश के बजट में सर्वाधिक हिस्सा रक्षा क्षेत्र के लिए होता है जोकि वैश्विक तथा क्षेत्रीय चुनौतियों को देखते हुए सही भी है। लेकिन ऐसे में भी यदि सेना या अर्धसैन्य बल से जुड़ा कोई जवान यह कहे कि वह कम गुणवत्ता वाला भोजन खाने को मजबूर है तो यह चौंकाने वाली बात है। हमारी सेना के जवान भूखे रहें, कम खाएं, खराब खाना खाएं, उन्हें या उनके परिवार को वांछित सुविधा नहीं मिले, सेना के पास आवश्यक उपकरण नहीं हों, ऐसी स्थिति किसी को भी स्वीकार नहीं होगी। उम्मीद है कि जो कुछ सामने लाया जा रहा है पूरी स्थिति वैसी नहीं है लेकिन फिर भी खामियों को अति शीघ्रता के साथ दुरुस्त करना बेहद आवश्यक है क्योंकि सुरक्षा बलों में असंतोष देश की सुरक्षा और देश की छवि के लिहाज से ठीक नहीं है। शीघ्र ही हम गणतंत्र दिवस पर हमारी सेना के और वीर जवानों की शौर्य गाथा के बारे में जानेंगे, उन्हें पुरस्कृत होते हुए देखेंगे, सेना तथा अर्धसैन्य बलों के जवानों के मार्च पास्ट और झांकियों के जरिये हमारी सामरिक ताकत से रूबरू होंगे। हमारे जवान सीना तान कर कदम से कदम मिलाते हुए देश को भरोसे का भाव देते दिखेंगे लेकिन क्या हमारा कर्तव्य नहीं बनता कि हम उनकी सभी परेशानियों का निदान खोजें? ऐसा नहीं है कि सेना तथा अर्धसैन्य बलों ने अपने जवानों की समस्याओं की ओर ध्यान नहीं दिया है, सेना के जवानों को तनाव मुक्त कराने के अभ्यास से लेकर उनके लिए तमाम सुविधाओं के इंतजाम के लिए सरकार बजट देती है लेकिन लगता है कि जवानों के लिए चलाई जाने वाली योजनाओं का ठीक तरह से क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है। सेवा में रत जवान तो शिकायत कर ही रहे हैं पूर्व सैनिकों की समस्याओं का तो अंत ही नहीं है। रक्षा मंत्री के स्तर पर भी शिकायत निवारण के तमाम इंतजामों के बावजूद यदि हालात में ज्यादा बदलाव नहीं आ पा रहा है तो यह चिंतनीय विषय है। विभिन्न शहरों में सेना में होने वाली भर्ती रैलियों में युवाओं की भीड़ मात्र रोजगार पाने की ललक लिए ही नहीं उमड़ती बल्कि उनमें सेवा भाव का जज़्बा भी होता है। कोई बचपन से देश के लिए कुछ करने का सपना लेकर बड़ा होता है तो कोई देश की सुरक्षा करते आने की अपने पूर्वजों की परम्परा को आगे बढ़ाने आता है। यदि इस तरह के असंतोष की खबरें आती रहीं तो भर्ती रैलियों के प्रति आकर्षण कम होगा। वैसे सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत ने सही कदम उठाते हुए एक शिकायत पेटी रखवाने का प्रबन्ध किया है जिसमें आने वाले पत्रों को वह खुद देखेंगे। उन्होंने जवानों से कहा है कि वह अधिकारियों पर भरोसा रखें और सोशल मीडिया पर शिकायत करने की बजाय सीधे उन्हें पत्र भेजें। पत्र भेजे जाने वाले की पहचान गुप्त रखी जाएगी। जाहिर है सेनाध्यक्ष की इस पहल से जवानों का हौसला बढ़ेगा और जवानों से निजी काम कराने वाले अधिकारियों के मन में भी भय पैदा होगा। सेना के एक जवान ने अधिकारियों पर जवानों से घर के काम कराये जाने के जो आरोप लगाये हैं उन्हें पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता। देश के किसी भी छावनी इलाके में यह दृश्य आम होता है जब सेना के जवान अधिकारियों के निजी कार्यों के उद्देश्य से बाजारों अथवा अन्य जगहों पर नजर आते हैं। यही नहीं जवानों में तनाव की समस्या का भी हल निकालना होगा। बिहार से खबर आई कि सीआईएसएफ के एक जवान ने छुट्टी मंजूर नहीं होने पर साथियों के तंज कसे जाने से परेशान होकर फायरिंग कर दी जिसमें चार जवानों की जान चली गयी। इस मामले में सीआईएसएफ का कहना है कि छुट्टी मुद्दा नहीं है क्योंकि वह पहले ही ढाई महीने से ज्यादा की छुट्टियां ले चुके हैं जोकि मंजूर छुट्टियों की संख्या से ज्यादा है। छुट्टी को लेकर इससे पहले भी जवानों की ओर से फायरिंग की घटनाएं सामने आई हैं। सेना में आत्महत्या के मामलों को भी कई बार छुट्टी नहीं मिलने की समस्या से जोड़ कर देख लिया जाता है। संप्रग-1 सरकार के कार्यकाल तक सेना में आत्महत्या की घटनाएं काफी थीं लेकिन बतौर रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी ने तमाम कार्यक्रमों और अभियानों के जरिये इस संख्या पर लगाम लगाने में सफलता पायी थी। दरअसल सीमा पर डटे जवान पर जिम्मेदारी का दोहरा बोझ होता है एक तो उसे अपने देश की रक्षा करनी है और दूसरे अपने परिवार के भविष्य की चिंता भी सता रही होती है। परिवार चाहता है जवान उसके साथ रहे लेकिन कार्यगत मजबूरी के चलते कई बार यह संभव नहीं होता। बात सिर्फ सेना तथा अर्धसैन्य बलों के जवानों की नहीं है आप ज्यादातर राज्यों में पुलिस के हालात भी कमोबेश खराब ही पाएंगे। काम के घंटों को लेकर पुलिस के जवान सदैव परेशान रहते हैं। पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाने का तो उनके पास अकसर समय का अभाव होता है। सरकारों ने पुलिस कालोनियां, पुलिस स्कूल जैसी कई सुविधाएं बनायी हैं लेकिन उक्त संसाधन सीमित होने से इनका लाभ सभी पुलिस कर्मियों को नहीं मिल पाता है। आप थानों के अंदर के हालात जाकर देख लीजिए। खस्ताहाल पलंगों, चारपाइयों पर गंदी सी चादर उनके लिए बिछी रहती है जिस पर उन्हें कुछ देर आराम करने के बाद फिर काम के लिए निकलना होता है। पुलिस की कार्यशैली की आलोचना से इतर यदि उन्हें सरकारी तौर पर मिलने वाली सुविधाओं को देखेंगे तो आपको उनसे सहानुभूति होने लगेगी। बहरहाल, बीएसएफ जवान तेज बहादुर यादव और उनके बाद जिन अन्य जवानों ने जो आवाज उठाई है उस पर सरकार ने गंभीरता दिखाते हुए हालात सुधारने के निर्देश दिये हैं। उम्मीद है अब कोई जवान भविष्य में एक ही परांठा खाने के लिए मिलने और पानी वाली दाल से रोटी खाने की मजबूरी की बात नहीं कहेगा। अधिकारियों को भी चाहिए कि जवानों ने जो आवाज उठाई है उसके लिए उन पर कोई ऐसी कार्रवाई नहीं करें जिससे गलत संदेश जाये। जवानों को भी सोशल मीडिया पर अपनी परेशानी रखने की बजाय आंतरिक मंचों पर आवाज उठानी चाहिए। साथ ही मीडिया को भी किसी संवेदनशील मुद्दे को सनसनी बचाने से बचना चाहिए। इस बीच गृह मंत्रालय ने प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) को सौंपी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि उसे बीएसएफ जवान की इस शिकायत में कोई दम नहीं नजर आया है कि सीमा पर तैनात सुरक्षाकर्मियों को घटिया राशन दिया जाता है और इस पर जोर दिया कि 'सुरक्षा बलों में खाने को लेकर कोई व्यापक असंतोष नहीं है। साथ ही मंत्रालय ने सभी अर्धसैनिक बलों को निर्देश दिया है कि जवानों की शिकायतों का तेजी से निवारण सुनिश्चित किया जाए।
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