Tuesday 18 April 2017

तीन तलाक मुद्दे पर मुस्लिम देशों से सबक ले भारत

डॉ. अरूण जैन
हमारे समाज में एक सोच बहुत ज्यादा प्रभावशाली है और वो है बिना सोचे-समझे किसी प्रथा को जन्म दे देना। संपूर्ण ज्ञान ना होते हुए भी लोग परम्पराओं को मान देने लगते हैं फिर चाहे वे किसी अन्य के लिए दुखदायी ही क्यों ना हो। कुछ इसी प्रकार की सोच का परिणाम है वर्तमान में प्रचलित 'तीन तलाकÓ की परम्परा। तीन तलाक की परम्परा आज मुस्लिम समाज की महिलाओं के लिए एक अभिशाप बन गई है। इस परम्परा ने ना जाने कितनी ही महिलाओं के जीवन को नरक बना दिया और 'तीन तलाकÓ की प्रथा ने न जाने कितने अनगिनत घर-परिवारों को नष्ट किया। आज अब धर्म और परम्परा के नाम पर सुधार की जरूरत एवं आवश्यकता है। सर्वोच्च अदालत की पांच जजों की संविधान पीठ मुस्लिम समाज में प्रचलित 'तीन तलाकÓ, 'निकाह हलालाÓ और 'बहु विवाहÓ की प्रथा को लेकर दायर याचिका पर सुनवाई करके इनका फैसला करेगी। सुप्रीम कोर्ट ने विवाद का मुद्दा बने तीन तलाक के मसले को संविधान पीठ को सौंपने का फैसला किया है। चीफ जस्टिस जगदीश सिंह खेहर, जस्टिस एनवी रमण और जस्टिस धनंजय वाई चंद्रचूड़ की तीन सदस्यों की खंडपीठ ने इन मामलों के विषय में संबंधित पक्षों की ओर से तैयार तीन तरह के मुद्दों को रिकार्ड पर लिया और कहा कि संविधान पीठ के विचार के लिए इन सवालों पर 30 मार्च 2017 को सुनवाई करेगी।  पीठ ने कहा है ये मुद्दे बहुत महत्वपूर्ण हैं और सभी संवैधानिक मुद्दों से संबंधित हैं और संविधान पीठ को ही इनकी सुनवाई करनी चाहिए। पीठ ने संबंधित पक्षों को अगली सुनवाई की तारीख पर सभी पक्षकारों को अधिकतम 15 पृष्ठ में अपना पक्ष पेश करने का निर्देश दिया। चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि संबंधित पक्षों के आप सभी वकील साथ बैठ कर उन मुद्दों को अंतिम रूप दें जिन पर हमें गौर करना है। पीठ ने संबंधित पक्षों को स्पष्ट कर दिया कि वह किसी खास मामले के तथ्यात्मक पहलुओं से नहीं निबटेगी, बल्कि वह इस कानूनी मुद्दे पर निर्णय करेगी।  जब एक महिला वकील ने प्रसिद्ध शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के हश्र का जिक्र किया तब पीठ ने कहा कि किसी भी मामले के हमेशा दो पक्ष होते हैं। हम 40 सालों से मामलों में फैसला करते रहे हैं। हमें कानून के अनुसार जाना होगा, हम कानून से परे नहीं जाएंगे। पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि वह इन मुद्दों को तय करने के लिए शनिवार और रविवार को भी बैठने के लिए तैयार है क्योंकि यह बहुत ही महत्वपूर्ण है।  कुरान का सहारा लेकर भी तीन तलाक प्रथा का बचाव नहीं किया जाना चाहिए। दरअसल, यह मामला पवित्र कुरान का नहीं, बल्कि उसकी अलग-अलग व्याख्याओं का है। यहां यह बताना जरूरी है कि इस्लाम धर्म के सबसे पवित्र ग्रंथ कुरान में तीन तलाक का जिक्र नहीं है। लेकिन पुरुषवादी सोच के चलते मुस्लिम समाज में यह कुरीति प्रचलित है। सरल भाषा में कहें तो धर्म की आड़ में किसी भी नागरिक के मौलिक अधिकारों का हनन अवैध है। कई इस्लामी या मुस्लिम बहुल देशों ने निजी कानूनों में फेरबदल किए हैं और सब के सब प्रावधान एकदम एक जैसे नहीं हैं। इसलिए इस्लाम की दुहाई देना या आड़ लेना एक दुराग्रह ही है। जो महिलाएं इस प्रथा के खिलाफ आंदोलन चला रही हैं वे भी इस्लाम और कुरान में आस्था रखती हैं, पर वे कहती हैं कि इस्लाम या कुरान ने उनके अधिकार छीनने या कम करने को नहीं कहा है। मुस्लिम पर्सनल लॉ में संशोधन से न तो कुरान की पवित्रता पर कोई आंच आएगी, न इस्लाम का कोई नुकसान होगा। हां, केवल पुरुष को विवेक-संपन्न मानने के एकतरफा वर्चस्ववाद को जरूर धक्का लगेगा।  'तलाक, तलाक, तलाकÓ किसी भी शादीशुदा मुस्लिम महिला के लिए ये ऐसे शब्द हैं जो एक ही झटके में उसकी जिंदगी को जहन्नुम बनाने की कुव्वत रखते हैं। पिछले दिनों एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट में देश की करीब 92 फीसदी महिलाओं ने मौखिक रूप से तीन बार तलाक बोलने से पति-पत्नी का रिश्ता खत्म होने के नियम को एकतरफा करार दिया है, जिस पर प्रतिबंध लगाने की मांग तक की गई। यही नहीं मुस्लिम समुदाय में स्काइप, ईमेल, मैसेज और वाट्सऐप के जरिये तीन बार तलाक बोलने की नई तकनीक ने महिलाओं की इन चिंताओं में इजाफा किया है। यह सर्वे मुस्लिम महिलाओं की आर्थिक और सामाजिक, शादी की उम्र, परिवार की आय, भरण-पोषण तथा घरेलू हिंसा जैसे पहलुओं के आधार पर किया गया है। इस अध्ययन में यह तथ्य भी सामने आए कि महिला शरिया अदालत में विचाराधीन तलाक के मामलों में 80 फीसदी मामले मौखिक तलाक वाले शामिल हैं।  भारत में भले ही इसे खत्म करने पर बहस अब चल रही हो पर पड़ोसी पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और श्रीलंका समेत 22 देश इसे कब का खत्म कर चुके हैं। दूसरी ओर भारत में मुस्लिम संगठन शरीयत का हवाला देकर तीन तलाक को बनाए रखने के लिए हस्ताक्षर अभियान से लेकर अन्य जोड़-तोड़ में लग गए हैं। जबकि मुस्लिम देशों में महिलाओं को तीन तलाक से मुक्ति पहले ही मिल चुकी है।  अब सुप्रीम कोर्ट के पूछने पर केंद्र सरकार ने साफ कर दिया है कि वो इस प्रथा का विरोध करती है और उसे जारी रखने देने के पक्ष में नहीं है। सरकार का दावा है कि उसका ये कदम देश में समानता और मुस्लिम महिलाओं को उनके संवैधानिक अधिकार दिलाने के लिए है। सरकार ये भी कह रही है कि ऐसी मांग खुद मुस्लिम समुदाय के भीतर से उठी है क्योंकि मुस्लिम महिलाएं लंबे समय से तीन तलाक के खिलाफ आवाज उठाती आ रही हैं। कुल मिलाकर सरकार तलाक के मुद्दे पर खुद को मुस्लिम महिलाओं के मसीहा के तौर पर प्रोजेक्ट कर रही है। लेकिन क्या मामला इतना सीधा है?  इस पर ऑल इंडिया मुस्लिम वीमेंस पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर का साफ कहना था कि तीन तलाक के मामले पर केंद्र सरकार मुसलमानों और देश को गुमराह कर रही है। हमारी लड़ाई यह है कि लगातार तीन बार बोले गए तलाक को एक माना जाए। शाइस्ता कहती हैं कि हम तीन तलाक के मामले में बदलाव तो चाहते हैं, लेकिन वो बदलाव शरीयत के दायरे में हो, कोर्ट या किसी सरकार से नहीं। सरकार बेवजह तीन तलाक के मामले में दखल दे रही है। मजहब के मामले में हमें किसी की भी दखलंदाजी पसंद नहीं।

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