Tuesday, 27 October 2015

RSS की पहली शाखा में सिर्फ 5 लोग हुए थे शामिल, आज यह बन गया दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन

डाॅ. अरूण जैन
       देश में हिंदू राष्ट्रवाद की पताका फहरा रहे राष्ट्रीय स्वयं सेवक की स्थापना के 90 साल पूरे हो रहे हैं. देश में कई मुद्दों पर अपनी राय बेबाकी से रखने वाले इस संगठन के नेताओं का नाता हमेशा से विवादों से जुड़ा रहा है. इस संगठन पर महात्मा गांधी की हत्या की साजिश रचने का भी आरोप लगा था. वहीं भारत-चीन युद्ध में सैनिकों की मदद करने पर देश के पहले प्रधानमंत्री ने गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल होने का भी न्यौता दिया था. लेकिन आरएसएस से जुड़ी कुछ और बातें हैं जिनको कई नहीं जानता है - 1- डॉक्टर केशवराव बलिराम हेडगेवार ने 27 सितंबर 1925 को संघ की स्थापना की थी. उस दिन विजयादशमी का त्योहार था. तिथि के हिसाब से इस संगठन की स्थापना के 90 साल पूरे हो जाएंगे. इसका मुख्यालय नागपुर में है. 2- संघ की पहली शाखा में सिर्फ 5 लोग शामिल हुए थे. जिसमें सभी बच्चे थे. उस समय में लोगों ने हेडगेवार का मजाक उड़ाया था कि बच्चों को लेकर क्रांति करने आए हैं. लेकिन अब संघ विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी और हिंदू संगठन है. 3- संघ की ओर से देश की लगभग हर गली-मुहल्ले में शाखाएं लगाई जाती हैं. जिसमें एक मुख्यशिक्षक होता है. शाखा में व्यायाम,खेलकूद के साथ बौद्धिक कार्यक्रम होता है. संघ के स्वयंसेवकों के लिए देश सेवा के लिए प्रेरित किया जाता है. 4- शाखा में भगवा रंग का झंडा फहराया जाता है. जो हिंदू धार्मिक मान्यताओं से जुड़ा है. संघ का उद्धेश्य देश को हिंदू राष्ट्र बनाना है. इस विचारधारा को लेकर ही संघ पर सांप्रदायिकता का आरोप लगता है. 5- संघ की प्रार्थना नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे...शाखा और हर बड़े कार्यक्रम में गायी जाती है. स्वयंसेवकों की ड्रेस सफेद शर्ट, काली टोपी और लाठी है. 6- संघ में प्रचारक होता है जो देश और संगठन की सेवा करता है. उसकी सेवाओं और अनुभव के हिसाब से उसे प्रमोशन भी मिलता रहा है. इनका काम संघ का विस्तार करना भी होता है. संघ का प्रचारक बनने के लिए ओटीसी यानी एक खास तरह की ट्रेनिंग करनी होती है. 7- संघ का सबसे बड़ा अधिकारी सरसंघचालक होता है जिस पद पर अभी मोहन भागवत हैं. इसके अलावा सरकार्यवाह यानी जनरल सेक्रेटी होते हैं. सर कार्यवाह की मदद के लिए सह सरकार्यवाह होते हैं. 8- संघ के कई अनुषांगिक संगठन जैसे सेवा भारती, एबीवीपी, मजदूर संघ, वीएचपी देश में सक्रिय हैं. इसके अलावा कई एनजीओ भी हैं जो वनवासी क्षेत्रों में काम कर रहे हैं. 9- संघ के दूसरे सरसंघचालक सदाशिवराव गोलवलकर की किताब बंच ऑफ थॉट विवादों में रही है. लेकिन इसको मानने वाले भी देश में करोड़ो की संख्या में है. 10- बीजेपी के सभी बड़े नेता जैसे अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, नरेंद्र मोदी संघ में प्रचारक रह चुके हैं. कहा जाता है कि बीजेपी की असली ऊर्जा संघ के स्वयंसेवक ही हैं. 11- आपातकाल में जयप्रकाश नारायण ने भी संघ की ताकत को समझा था और इसे अपने आंदोलन के साथ जोड़ लिया था. 12 संघ का दावा है कि आजादी के पहले उसके एक शिविर में महात्मा गांधी भी पहुंचे थे जो दलितों और उंची जाति के लोगों को एक साथ भोजन करता देख दंग रह गए थे. 13- हालांकि संघ की स्थापना से लेकर अब तक इस सगंठन का नाम विवादों से भी जुड़ा रहा है. हाल ही में दादरी कांड पर संगठन के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर में इस घटना को सही बताया गया था. हालांकि बाद में संघ की ओर इस पर सफाई भी दी गई थी. 14- 1990-92 में अयोध्या मे गिराई गई बाबरी मस्जिद मामले में संघ पर ही आरोप लगा था. हालांकि संघ इस आरोप को सिरे से खारिज करता रहा है. 15- आरएसएस के चौथे प्रचारक राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भैया की आत्मकथा में दावा किया गया है कि उत्तरप्रदेश में गौहत्या पर प्रतिबंध 1955 में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और तत्कालीन सीएम गोविंद वल्लभ पंत ने रज्जू भैया के कहने पर ही लगाया गया था.

पहली बार सिंहस्थ-16 में शामिल होंगे देश-विदेश से 10 हजार से ज्यादा किन्नर


डाॅ. अरूण जैन
मध्यप्रदेश की धार्मिक नगरी उज्जैन में अगले वर्ष अप्रैल माह में होने वाले सिंहस्थ-2016 कुंभ में किन्नर समुदाय भी शामिल होंगे और यहां किन्नरों का एक अलग अखाडा भी होगा। उज्जैन के प्रसिद्ध अध्यामिक गुरू रिषी अजयदास ने बताया, ''अगले वर्ष 22 अप्रैल से 21 मई तक होने वाले सिंहस्थ-2016 में देश और विदेश से करीब दस हजार किन्नरों के शामिल होने की आशा है।ÓÓउन्होंने बताया, ''हमारे आश्रम में 13 अक्तूबर से किन्नरों का अलग अखाडा शुरू कर दिया है। इसके उद्घाटन कार्यक्रम में करीब 17 राज्यों के किन्नर शामिल हुए थे।ÓÓ आध्यात्मिक गुरू ने बताया, ''बैंकाक के किन्नरों से भी हमारी चर्चा हुई है, वे भी सिंहस्थ में आने के लिये बेहद उत्सुक हैं।ÓÓ  रिषी अजयदास ने कहा, ''मैं पिछले सात साल से किन्नरों के उत्थान के लिये काम कर रहा हूं। हमने इस वर्ग में शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य मामलों में जागरूकता लाने की कोशिश की है।ÓÓ उन्होंने कहा कि दुनिया में किन्नरों की तादाद लगभग 1.25 करोड़ है और विश्व भर में मेरे कई शिष्य फैले हुए हैं। अब तक सिंहस्थ में पंरम्परागत तौर पर 13 अखाड़े शामिल होते हैं। कुछ श्रद्धालुओं को लगता है कि रूढि़वादी संतो द्वारा कुंभ में किन्नरों के भाग लेने का विरोध किया जायेगा। 

रूस पड़ रहा है अमेरिका पर भारी


अरूण जैन
इस्लामिक स्टेट के मुकाबले पिछले कई महीनों में जो काम अमेरिका नहीं कर पाया वो रूसी सेना ने कुछ ही हफ्तों में कर दिखाया। रूस सीरिया में जबरदस्त हवाई हमले कर रहा है। रूस के इस आक्रमक रुख ने पश्चिमी देशों के सैन्य विशेषज्ञों को सकते में डाल दिया है। इस लड़ाई को गौर से देख रहे पर्यवेक्षकों का मानना है कि सीरिया में पुतिन की सैन्य रणनीति के सामने ओबामा का संशयभरे फैसले कही नहीं टिक पा रहे हैं। अमेरिका का रुख इस लड़ाई के माध्यम से असद सरकार को हटाना मात्र है, आईएस को रोकना महज बहाना दिख रहा है। इस्लामिक स्टेट के कहर से मासूस लोगों को बचाने के नाम पर अमेरिका ने सीरियाई विद्रोहियों को प्रशिक्षण और हथियार देने के अलावा ज्यादा कुछ नहीं किया। दरअसल अफगानिस्तान और इराक में उलझे अमेरिकी नेतृत्व का मानना था कि मध्य-पूर्व में एक और मोर्चा खोलने से कोई फायदा नहीं होने वाला लेकिन सऊदी अरब में आईएस की आमद के साथ ही इस मामले पर अमेरीका पर सऊदी सरकार ने दबाव बनाना शुरू कर दिया था। नतीजतन अमेरिका ने अधूरे मन से आईएस के खिलाफ हवाई कार्यवाही आरंभ की। रूस इस मुद्दे पर शुरू से ही असद सरकार का हिमायती रहा है। असद के विरोधियों को सीआईए द्वारा प्रशिक्षण और हथियारों की मदद के बाद असद सरकार समर्थित फौजों को विद्रोहियों और इस्लामिक स्टेट से दो मोर्चों पर लडऩा पड़ रहा है। लेकिन रूस ने देर आया पर दुरुस्त आए की तर्ज पर पूरी ताकत से आईएस पर हमला बोल दिया है। अमेरिका का आरोप है कि रूस आईएस के बहाने सीरियाई विद्रोहियों को भी निशाना बना रहा है लेकिन रूस इस ओर कोई ध्यान दिए बिना सीरिया में अपना काम जारी रखे हुए है।  रूस से हवाई हमले के अलावा अब सीरिया में मिलिट्री ऑपरेशन में सबसे घातक हथियारों को भी शामिल किया है। रूसी सेना का मोबाइल मल्टिपल रॉकेट लॉन्चर (टीओएस-1ए) थर्मोबैरिक जो एक साथ कई निशानों को तबाह करने की ताकत रखता है सीरिया में तैनात है। टीओएस-1ए सिस्टम से एक बार में 24 से 30 बैरल मल्टिपल रॉकेट लॉन्च किए जा सकते हैं।यह टी-72 टैंक चैसिस पर लगाया जाता है। अपनी ताकत और तेजी से यह मिसाइल सिस्टम अमेरिका के मिसाइल तंत्र से अधिक परिष्कृत और खतरनाक है। सूत्रों के अनुसार इसे आईएस के प्रमुख सीरियाई शहरों पर हमले की आशंका के चलते तैनात किया गया है।  इसके अलावा रूस ने आईएसआईएस के 40 ठिकानों पर हवाई हमले किए थे जिन्होंने इस खतरनाक आतंकी संगठन की कमर तोड़ दी है। पश्चिमी खुफिया तंत्र और सैन्य रणनीतिकार भी रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की इस आक्रमक कार्यवाही से प्रभावित है और मानते हैं कि इस कार्यवाही से रूस की फीकी पड़ चुकी फौजी प्रतिष्ठा को पाने में बेहद मदद मिलेगी। पुतिन ने इस ऑपरेशन में कई कड़े कदम उठाए हैं जैसे सुखोई स्ह्व-34 स्ट्राइक फाइटर जो पहली बार किसी लड़ाई में शामिल हुआ है। इसके अलावा रूसी नौसेना ने 1500 किमी. की दूरी से सीरिया में आईएस के ठिकानों पर क्रूज मिसाइल से हमला कर नाटो को सख्त संदेश दे दिया है। रूसी सेना के दमखम को देखकर सैन्य विशेषज्ञ मान रहे हैं कि कई क्षेत्रों में रूस की टेक्नोलॉजी कई मायनों में अमेरिका से बेहतर है।  जहां एक ओर अमेरिका सीरिया में रूस के बढ़ते दखल से परेशान है वहीं ईरान ने असद सरकार के समर्थन में अपने सैकड़ों सैनिकों को उत्तरी और मध्य सीरिया में तैनात कर दिया है। ईरान के उच्च प्रशिक्षित कंमाडों विद्रोहियों खिलाफ असद समर्थित सेना को ग्राउंड कवर देंगे। सऊदी अरब के एक सैन्य विशेषज्ञ के अनुसार पिछले 4 सालों में पहली बार ईरान ने सीरियाई गृहयुद्ध में अपनी उपस्थिति दर्ज की है। हालांकि, न्यूज एजेंसी एपी के अनुसार ईरानी सैनिक रूसी हवाई हमले के कुछ दिन बाद ही सीरिया पहुंच गए थे।  दरअसल रूस और ईरान दोनों ही इस क्षेत्र में इस्लामिक स्टेट का प्रभाव बढऩे से रोकना चाहते हैं क्योंकि अमेरिका के बनिस्बत दोनों ही देशों की सीमाएं और हित सीरिया से जुड़े हैं और यदि इस्लामिक स्टेट को रोका नहीं गया तो उनका अगला निशाना शिया बहुल ईरान और रूस का मुस्लिम बहुल क्षेत्र होगा जो मध्यपूर्व के अलावा एशिया में भी अशांति ला सकता है। 
सिंहस्थ स्नान का पुण्य लाभ शिप्रा नदी में नहाने से है, रामघाट पर नही
अरूण जैन
सिंहस्थ के समय शासन, प्रशासन और पुलिस से समक्ष सबसे बड़ी समस्या है कि हर व्यक्ति रामघाट पर ही स्नान करना चाहता है। अभी तक किसी ने भी इस बात को ठीक से प्रचारित नही किया  कि सिंहस्थ का पुण्य लाभ शिप्रा नदी में स्नान करने से ही मिलेगा, केवल रामघाट पर नही। नदी के किसी भी घाट पर स्नान करने से पुण्य लाभ प्राप्त होगा! प्रशासन, पुलिस समस्त प्रचार साधनों में इसे भली प्रकार प्रचारित करे तो भीड़ नियंत्रण स्वतः आसान हो जाएगा। 
अभी तक के हुए सभी सिंहस्थ और कुंभ महापर्वो पर एक नजर डाले तो एक बात बहुत स्पष्ट है कि इस महापर्व स्नान का पुण्य लाभ उन निश्चित तिथियों अथवा ग्रह युति में गंगा, गोदावरी अथवा शिप्रा नदी में स्नान करने से प्राप्त होगा। पुराणों में भी इन नदियों में स्नान करने का उल्लेख है, किसी घाट विशेष का कहीं भी जिक्र नही है।
यह ठीक है कि साधु जमातें और अखाड़े शाही निकाल कर संयुक्त रूप से रामघाट पर आते है और वहां स्नान करते हैं। यहां भी रामघाट और सामने का दत्त अखाड़ा घाट जमातों के लिए तय किया हुवा है। पर इसका यह अर्थ भी नही है कि शिप्रा नदी में विस्तार से फैले अन्य घाटों पर स्नान करने से धर्मालुओं को महापर्व का पुण्यलाभ नही मिलेगा, देखा जाए तो शिप्रा नदी का पाट शनि मंदिर, त्रिवेणी से लेकर नृसिंह घाट, रामघाट, रेतीघाट, गढ़कालिका से होकर कालियादेह महल तक फैला हुवा है। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि ग्रहों की युति उस समय उज्जैन पर निर्मित होती है, किसी घाट विशेष पर नही। शासन ने समस्त प्रचार कार्य भोपाल में केन्द्रित कर रखा है। वहां बैठे प्रशासनिक अधिकारियों को इस बात को विस्तार और व्यापकता से प्रत्येक विज्ञापन, वेबसाइट, समाचारों में स्थायी रूप से प्रचारित करना चाहिए कि प्रशासन द्वारा शिप्रा नदी पर जो विस्तारित घाट बनाए गए है, धर्मालु वहीं पर नदी स्नान का पुण्यलाभ लें। इसमें कोई दो राय नही कि महापर्व के दौरान प्रशासन को भीड़ नियंत्रण में इस प्रचार से बेहद मदद मिलेगी।

Thursday, 15 October 2015

अगर हार्ट अटैक आया तो नीला क्यों पड़ गया था शास्त्री जी का शरीर!


डॉ. अरूण जैन
1965 का युद्ध खत्म होने के बाद 10 जनवरी 1966 को पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने पाकिस्तान के सैन्य शासक जनरल अयूब के साथ तत्कालीन सोवियत रूस के ताशकंद में शांति समझौता किया था। समझौते के बाद भी शास्त्री जी अपने कमरे में बेचैनी से टहलते हुए देखे गए थे। शास्त्री जी के साथ गए भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने भी महसूस किया था कि शास्त्री जी परेशान हैं। इस प्रतिनिधिमंडल में वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर भी थे, जो उस वक्त शास्त्री जी के सूचना अधिकारी थे। कुलदीप नैय्यर उन चंद पहले लोगों में थे जिन्होंने शास्त्री जी की मौत के फौरन बाद उनके पार्थिव शरीर को देखा था। शास्त्री जी के सूचना अधिकारी कुलदीप नैय्यर बताते हैं कि उस रात मैं सो रहा था। तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया। एक कोई रूसी महिला थी। उसने कहा कि योर पीएम एज डाइंग, तो मैं जल्दी से पहुंचा। वहां कोसीगन थे। उन्होंने देखकर ऐसे हाथ हिलाया कि नो मोर। मैं कमरे में आया तो मैंने देखा कि वहां इतना बड़ा कमरा था। बड़े कमरे में बेड पर एक छोटा सा आदमी था। हमने नेशनल फ्लैग ओढ़ाया और फूल चढ़ा दिया। लाल बहादुर शास्त्री का देहांत 10 और 11 जनवरी 1966 की दरमियानी रात को करीब डेढ़ बजे हुआ था। आधी रात से करीब दो घंटे बाद एक विदेशी मुल्क में देश के प्रधानमंत्री की मौत से भारतीय प्रतिनिधि मंडल में मौजूद सभी लोग सन्नाटे में आ गए थे। जिस प्रधानमंत्री ने चंद घंटे पहले पड़ोसी मुल्क के साथ मशहूर ताशकंद समझौता किया था, उसकी अचानक मौत से पूरा देश सकते में आ गया। बाद में जो बातें सामने आईं, उसके मुताबिक आधी रात के बाद शास्त्री जी खुद चलकर अपने सेक्रेटरी जगन्नाथ के कमरे तक पहुंचे थे, क्योंकि उनके कमरे में न घंटी थी-ना टेलीफोन। शास्त्री जी ने दरवाजा खटखटा कर अपने सेक्रेटरी को उठाया। वो छटपटा रहे थे। उन्होंने डॉक्टर बुलाने को कहा। सेक्रेटरी ने उन्हें पानी पिलाया और बिस्तर पर लेटा दिया। ताशकंद से 20 किलोमीटर दूर बने गेस्ट हाउस में ठहराए गए शास्त्री जी को वक्त पर डॉक्टरी मदद नहीं मिली और वो फिर कभी नहीं उठे। सच ये भी है कि जिस रात शास्त्री जी की मौत हुई, उस रात खाना उनके घरेलू नौकर रामनाथ ने नहीं बनाया था। उस रात खाना सोवियत संघ में भारत के राजदूत टीएन कौल के रसोइए जान मोहम्मद ने बनाया था। शास्त्री जी ने आलू पालक और सब्जी खाई थी। फिर वो सोने चले गए थे। मौत के बाद उनका शरीर नीला पड़ गया था। लिहाजा सवाल ये भी है कि क्या शास्त्री जी को खाने में या किसी और तरीके से जहर दे दिया गया था। शास्त्री जी के पुत्र अनिल शास्त्री का कहना है कि उनकी मृत्यु प्राकृतिक नहीं थी। उनका चेहरा नीला पड़ गया था। यहां वहां चकत्ते पड़ गए थे। शास्त्री जी की मौत का सच फौरन सामने आ जाता, अगर उनका पोस्टमार्टम कराया गया होता। लेकिन ये ताज्जुब की बात है कि एक प्रधानमंत्री की रहस्यमय हालात में मौत हो गई और उनका पोस्टमार्टम नहीं कराया गया।

Wednesday, 14 October 2015

बेरोजगारी की डराती तस्वीर


अरूण जैन
भारत को वैश्विक आर्थिक महाशक्ति बना देने का सपना दिखाने वालों की नींद अब टूटनी चाहिए। जिस युवा जनसंख्या के बूते इक्कीसवीं शताब्दी के भारतीय युवाओं की शताब्दी होने का दंभ भरा जा रहा है, उसे उत्तर प्रदेश में खड़ी शिक्षित बेरोजगारों की फौज ने आईना दिखा दिया है, जहां विधानसभा सचिवालय में चपरासी के महज तीन सौ अड़सठ पदों के लिए तेईस लाख आवेदन प्राप्त हुए हैं। औसतन एक पद के लिए छह हजार अर्जियां! इस सच्चाई को अगर नजरअंदाज किया गया तो अराजकता के हालात बनने में देर नहीं लगेगी। किसी भी विकासशील देश के लिए यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि उसकी युवा पीढ़ी उच्चशिक्षित होने के बावजूद आत्मनिर्भरता के लिए चपरासी जैसी सबसे छोटी नौकरी के लिए लालायित है। इक्कीस करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में चपरासी के लिए जो तेईस लाख अर्जियां आई हैं, उनमें चाही गई न्यूनतम शैक्षिक योग्यता पांचवीं पास तो केवल 53,426 उम्मीदवार हैं, लेकिन छठी से बारहवीं पास उम्मीदवारों की संख्या बीस लाख के ऊपर है। इनमें 7.5 लाख इंटर पास हैं। इनके अलावा 1.52 लाख उच्चशिक्षित हैं। इनमें विज्ञान, वाणिज्य और कला से उत्तीर्ण स्नातक और स्नातकोत्तर तो हैं ही, इंजीनियर और एमबीए भी हैं। साथ ही दो सौ पचपन अभ्यर्थी पीएचडी हैं। शिक्षा की यह सर्वोच्च उपाधि इस बात का प्रतीक मानी जाती है कि जिस विषय में छात्र ने पीएचडी की है, उस विषय का वह विशेषज्ञ है। यह उपाधि महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में भर्ती किए जाने वाले सहायक प्राध्यापकों की वांछित योग्यता में जरूरी है। जाहिर है, सरकार के समक्ष यह संकट खड़ा हो गया है कि वह आवेदनों की छंटनी का आधार क्या बनाए और परीक्षा की ऐसी कौन-सी तरकीब अपनाए कि प्रक्रिया पूरी हो जाए? क्योंकि जिस बड़ी संख्या में आर्जियां आई हैं, उनके साक्षात्कार के लिए दस सदस्यीय दस समितियां बना भी दी जाएं तो परीक्षा निपटाने में चार साल से भी ज्यादा का समय बीत जाएगा। सरकारी नौकरियों में आर्थिक सुरक्षा की वजह से उनके प्रति युवाओं का आकर्षण लगातार बढ़ रहा है। दुनिया में आई आर्थिक मंदी के चलते भी इंजीनियरिंग और एमबीए के डिग्रीधारियों को संतोषजनक रोजगार नहीं मिल रहे हैं। भारत में औद्योगिक और प्रौद्योगिक क्षेत्रों में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। यही वजह है कि उत्तर प्रदेश में कुछ दिन पहले लेखपाल के चौदह सौ पदों के लिए सत्ताईस लाख युवाओं ने आवेदन किए थे। छत्तीसगढ़ में चपरासी के तीस पदों के लिए पचहत्तर हजार अर्जियां आई थीं। केरल में क्लर्क के साढ़े चार सौ पदों के लिए ढाई लाख आवेदन आए। कोटा में सफाईकर्मियों की भर्ती के लिए डिग्रीधारियों की फौज कतार में खड़ी हो गई थी। मध्यप्रदेश में भृत्य पदों की भरती के लिए आयोजित परीक्षा में भी उच्चशिक्षितों ने भागीदारी की थी। केंद्र सरकार की नौकरियों में भी कमोबेश यही स्थिति बन गई है। कर्मचारी चयन आयोग की 2013-14 की छह परीक्षाओं में भागीदारी करने वाले अभ्यर्थियों की संख्या एक करोड़ से ज्यादा थी। निजी कंपनियों में अनिश्चितता और कम पैकेज के चलते, सरकारी नौकरी की चाहत युवाओं में इस हद तक बढ़ गई है कि पिछले पांच साल में अभ्यर्थियों की संख्या में दस गुना वृद्धि हुई है। वर्ष 2008-09 में यह परीक्षा 10.27 लाख आवेदकों ने दी। वहीं 2011-12 में यह संख्या बढ़ कर 88.65 लाख हो गई और 2012-13 में यह आंकड़ा एक करोड़ की संख्या को पार कर गया। एनएसएसओ की रिपोर्ट बताती है कि अकेले उत्तर प्रदेश में एक करोड़ बत्तीस लाख बेरोजगारों की फौज आजीविका के लिए मुंह बाए खड़ी है। जाहिर है, हमारी शिक्षा पद्धति में खोट है और वह महज डिग्रीधारी निठल्लों की संख्या बढ़ाने का काम कर रही है। अगर वाकई शिक्षा गुणवत्तापूर्ण और रोजगारमूलक होती तो उच्चशिक्षित बेरोजगार एक चौथे दर्जे की नौकरी के लिए आवेदन नहीं करते। ऐसे हालात से बचने के लिए जरूरी है कि हम शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन कर इसे रोजगारमूलक और लोक-कल्याणकारी बनाएं। बेरोजगारों की इस फौज ने दो बातें एक साथ सुनिश्चित की हैं। एक तो हमारे शिक्षण संस्थान समर्थ युवा पैदा करने के बजाय, ऐसे बेरोजगारों की फौज खड़ी कर रहे हैं, जो योग्यता के अनुरूप नौकरी की लालसा पूरी नहीं होने की स्थिति में कोई भी नौकरी करने को तत्पर हैं। दूसरे, सरकारी स्तर की छोटी नौकरियां तत्काल भले ही पद और वेतनमान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण न हों, लेकिन उनके दीर्घकालिक लाभ हैं। उत्तरोत्तर वेतनमान और सुविधाओं में इजाफा होने के साथ आजीवन आर्थिक सुरक्षा है। स्वायत्त निकायों में तो चपरासियों को भी अधिकारी बनने के अवसर सुलभ हैं। इनमें कामचोर और झगड़ालू प्रवृत्ति के कर्मचारियों को भी सम्मानपूर्वक तनखा मिलती रहती है। अगर आप में थोड़े-बहुत नेतृत्व के गुण हैं तो कर्मचारी संगठनों की मार्फत नेतागिरी करने के बेहतर वैधानिक अधिकार भी उपलब्ध हैं। रिश्वतखोरी की गुंजाइश वाला पद है तो आपकी आमदनी में दूज के चांद की तरह श्रीवृद्धि होती रहती है। इसीलिए उज्जैन नगर निगम के एक चपरासी के पास से लोकायुक्त की पुलिस ने करोड़ों की संपत्ति बरामद की है। बर्खास्त कर्मचारियों की सेवाएं बीस-पचीस साल बाद भी समस्त स्वत्वों के साथ बहाल कर दी जाती हैं। लिहाजा, हैरत की बात नहीं कि आइटी क्षेत्र में गिरावट के बाद तकनीक में दक्ष युवा भी चपरासी और क्लर्क बनने को छटपटा रहे हैं। छठा वेतनमान लागू होने के बाद सरकारी नौकरियों के प्रति आकर्षण और भी बढ़ा है। इसके चलते साधारण शिक्षक को चालीस-पैंतालीस हजार और महाविद्यालय के प्राध्यापक को एक-सवा लाख वेतन मिल रहा है। सेवानिवृत्त प्राध्यापक को बैठे-ठाले साठ-सत्तर हजार रुपए तक पेंशन मिल रही है। ऐसी पौ-बारह सरकारी नौकरियों में ही संभव है। अगर इन कर्मचारियों को सातवां वेतनमान और दे दिया जाता है, तो बाकी लोगों से उनकी प्राप्तियों की खाई और भी चौड़ी हो जाएगी। इससे सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक विसंगतियां बढ़ेंगी। इसलिए क्या यह अच्छा नहीं होगा कि सरकार सातवें वेतनमान की सौगात देने से पहले समाज पर पडऩे वाले इसके दुष्प्रभावों की पड़ताल करे? आज चालीस प्रतिशत से भी ज्यादा खेती-किसानी से जुड़े लोग वैकल्पिक रोजगार मिलने की स्थिति में खेती छोडऩे को तैयार हैं। किसानी और लघु-कुटीर उद्योग से जुड़ा युवक, जब इस परिवेश से कट कर डिग्रीधारी हो जाता है तो अपनी आंचलिक भाषा के ज्ञान और स्थानीय रोजगार की समझ से भी अनभिज्ञ होता चला जाता है। लिहाजा, नौकरी नहीं मिलने पर पारंपरिक रोजगार और ग्रामीण समाज की संरचना के प्रति भी उदासीन हो जाता है। ये हालात युवाओं को कुंठित, एकांगी और बेगानों की तरह निठल्ले बना रहे हैं। अक्सर कहा जाता है कि शिक्षा व्यक्तित्व के विकास के साथ-साथ रोजगार का मार्ग भी खोलती है। लेकिन चपरासी की नौकरी के परिप्रेक्ष्य में डिग्रीधारी बेरोजगारों की जो तस्वीर पेश हुई है, उसने समस्त शिक्षा प्रणाली को कठघरे में ला खड़ा किया है। अच्छी और सुरक्षित नौकरी के जरिए खुशहाल जीवन का सपना देखने वाले युवा और उनके अभिभावक सशंकित हैं कि उनका सपना कहीं चकनाचूर न हो जाए। भारत की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और भौगोलिक परिस्थितियों और विशाल जनसमुदाय की मानसिकता के आधार पर अगर सार्थक शिक्षा के बारे में किसी ने सोचा था तो वे महात्मा गांधी थे। उनका कहना था, 'बुद्धि की सच्ची शिक्षा हाथ, पैर, कान, नाक आदि शरीर के अंगों के ठीक अभ्यास और शिक्षण से ही हो सकती है। यानी इंद्रियों के बुद्धिपरक उपयोग से बालक की बुद्धि के विकास का उत्तम मार्ग मिलता है। पर जब मस्तिष्क और शरीर का विकास साथ-साथ न हो और उसी प्रमाण में आत्मा की जगृति न होती रहे तो केवल बुद्धि के एकांगी विकास से कुछ लाभ नहीं होगा।Ó आज हम बुद्धि के इसी एकांगी विकास की गिरफ्त में आ गए हैं। सरकारी नौकरी पाने को आतुर इस सैलाब को रोकने के लिए जरूरी है कि इन नौकरियों के वेतनमान तो कम किए ही जाएं, अकर्मण्य सेवकों की नौकरी की गारंटी भी खत्म की जाए। अन्यथा ये हालात उत्पादक किसानों और नवोन्वेषी उद्यमियों को उदासीन बनाने का काम करेंगे। साथ ही शिक्षा के महत्त्व को श्रम और उत्पादन से जोड़ा जाए। ऐसा हम युवाओं को खेती-किसानी और लघु-कुटीर उद्योगों की ज्ञान-परंपराओं से जोड़ कर कर सकते हैं। यह इसलिए जरूरी है कि एक विश्वसनीय अध्ययन के मुताबिक सूचना तकनीक के क्षेत्र में तीस लाख लोगों को रोजगार मिला है, वहीं हथकरघा दो करोड़ से भी ज्यादा लोगों की रोजी-रोटी का जरिया है। इस एक उदाहरण से पता चलता है कि लघु उद्योग आजीविका के कितने बड़े साधन बने हुए हैं। प्रधानमंत्री मोदी के 'मेक इन इंडियाÓ और 'स्किल इंडियाÓ का अर्थ व्यापक ग्रामीण विकास में ही निहित है। क्योंकि मौजूदा शिक्षा रोजगार के विविध वैकल्पिक आधार उपलब्ध कराने में अक्षम साबित हो रही है। यह शिक्षा समाज को युगीन परिस्थितियों के अनुरूप ढाल कर सामाजिक परिवर्तनों की वाहक नहीं बन पा रही है। इस शिक्षा-व्यवस्था से क्या यही अपेक्षा है कि वह ऐसे सरकारी संस्थागत ढांचे खड़े करती चली जाए, जिसके राष्ट्र और समाज के लिए हित क्या हैं, यह तो स्पष्ट न हो, लेकिन नौकरी और ऊंचे वेतनमान की गारंटी हो? 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क्या नदियों को जोडऩा जरूरी है?


अरूण जैन
नदियों को जोडऩे की महत्त्वाकांक्षी योजना के अंतर्गत एक और कामयाबी मिली। कृष्णा और गोदावरी नदियों के मिलन के साथ ही आंध्र प्रदेश का दशकों पुराना सपना साकार हो गया है। माना जा रहा है कि इन दोनों नदियों के आपस में जुडऩे से तकरीबन साढ़े तीन लाख एकड़ के भूक्षेत्र को फायदा होगा और अन्य नदियों को भी आपस में जोडऩे की योजना को गति मिलेगी। दरअसल, भारत विविधताओं से परिपूर्ण राष्ट्र है और यहां सांस्कृतिक विविधता तो खूब है ही, भौगोलिक विविधता भी कम नहीं है। पूरे देश में नदियों का जाल है। लेकिन नदियों का स्वरूप अलग है। प्रथम प्रकार की नदियां हिमालय के ग्लेशियरों से निकलती हैं जिनमें वर्ष भर जल की आपूर्ति सुगमतापूर्वक होती है। ये नदियां अपने आसपास के क्षेत्रों को हरा-भरा रखती हैं और पेयजल, जल विद्युत आदि अनेक प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध कराती हैं। हालांकि इन नदियों में गर्मी के मौसम में पानी की कुछ कमी हो जाती है, पर इतनी अधिक कमी नहीं होती कि इनका पानी सूख जाए। बारिश के मौसम में इन नदियों के किनारे के शहर बहुत बड़ी विभीषिका झेलते हैं और यह विभीषिका बाढ़ की होती है। बाढ़ के कारण अपार धन-जन की हानि होती है। हालांकि सरकार राहत-कार्य द्वारा इस विभीषिका को कम करने का प्रयास करती है, पर नुकसान अनुमान से अधिक होता है। हिमालय से निकली नदियों में एक ही मौसम में बाढ़ आना इन विभीषिकाओं को और बढ़ा देता है और धन-जन की अपार हानि होती है। दूसरे प्रकार की नदियों में प्रायद्वीपीय नदियां आदि हैं जिनका उद्गम किसी पहाड़ी प्रदेश से होता है और ये मुख्य रूप से दक्षिण भारत में बहती हैं। इन नदियों में गर्मी के मौसम में पानी की बहुत कमी होती है और यही नदियां बरसात के समय विशाल स्वरूप ग्रहण करके अपने आसपास के क्षेत्रों को जलमग्न कर देती हैं तथा फसलों को बरबाद कर देती हैं। मिट्टी का क्षरण बहुत बड़े पैमाने पर होने के कारण भी क्षति अधिक होती है। प्रायद्वीपीय नदियों में कुछ में नौ परिवहन होता है, लेकिन सीमित मात्रा में। इस प्रकार, इन नदियों में पानी बहुत रहता है लेकिन उसका उपयोग ठीक ढंग से नहीं हो पाता है। बरसात के समय यह पानी फालतू बह कर समुद्र में चला जाता है और मनुष्य को दो तरफ से क्षति होती है। पहले तो धन, जन की हानि, और दूसरे प्रकार से जल की हानि। इसी के मद््देनजर भारत सरकार ने एक महत्त्वाकांक्षी परियोजना का शुभारंभ 13 अक्तूबर 2002 को किया था। अमृत क्रांति के रूप में भारत सरकार ने नदी संपर्क योजना का प्रस्ताव पारित किया जिसमें लगभग सैंतीस नदियों को जोडऩे की बात कही गई। यह केवल नदियों को जोडऩे या उन्हें आपस में मिला देने की परियोजना नहीं है। नदियों को नहरों के माध्यम से जोड़ा जाएगा और जगह-जगह पर बांध और जल संरक्षण के लिए जल भंडार बनाए जाएंगे। मानसून के दिनों में जरूरत से ज्यादा पानी को इसमें सुरक्षित कर लिया जाएगा और बाद में जिस राज्य को आवश्यकता होगी, उसे नहरों के जरिए उसी सुरक्षित पानी से आपूर्ति की जाएगी। यह देखा गया है कि मानसून के समय बाढ़ आ जाती है, लेकिन मानसून के बाद गंगा जैसी बड़ी नदी में भी पानी का स्तर काफी गिर जाता है। परियोजना के तहत बनाए जाने वाले बांध और स्टोरेज न सिर्फ बाढ़ के प्रकोप को कम करेंगे, बल्कि मानसून के बाद सूखे के दिनों में भी लोगों की जरूरत के मुताबिक पानी उपलब्ध कराएंगे। परियोजना के जरिए चौंतीस हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन होगा और साढ़े तीन करोड़ हेक्टेयर जमीन पर बेहतर सिंचाई सुविधा उपलब्ध होगी। साथ ही परियोजना द्वारा नहरों केविस्तार से कृषि की समस्या को भी सुलझाया जाएगा। नौपरिवहन के साथ-साथ पर्यटन की दृष्टि से भी इस योजना का भविष्य में लाभ उठाया जा सकता है। नदी जोड़ योजना की जोर-शोर से चर्चा भले वाजपेयी सरकार के समय हुई हो, इसका प्रस्ताव और पहले से बीच-बीच में आता रहा। वर्ष 1971-72 में तत्कालीन सिंचाई मंत्री केएल राव ने एक लंबी नहर के जरिए गंगा और कावेरी को जोडऩे का प्रस्ताव रखा था। वर्ष 1980 के दशक में राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी ने इंटरलिंकिंग ऑफ रीवर्स प्लान यानी नदी जोड़ योजना का खाका तैयार किया। पर हुआ कुछ नहीं। दरअसल, यह योजना हमेशा इतनी भारी लागत वाली और इतने विवादों को जन्म देने वाली रही कि प्रस्ताव कुछ समय की चर्चा के बाद ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता रहा। वाजपेयी सरकार ने इसे अपनी एक महत्त्वाकांक्षी योजना के रूप में पेश किया और इसका खाका बनाने के लिए सुरेश प्रभु की अध्यक्षता में एक आयोग गठित किया। लेकिन 2001 की कीमत पर भी कई लाख करोड़ रुपए की लागत बैठने, बड़े पैमाने पर विस्थापन और पर्यावरणीय तोड़-फोड़ के अंदेशों ने इस परियोजना को काफी विवादास्पद बना दिया और वाजपेयी सरकार ने इस पर चुप्पी साध ली। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में वाजपेयी सरकार की विदाई हो गई। उसके बाद आई यूपीए सरकार को लगा कि इस योजना की बात छेडऩा बर्र के छत्ते में हाथ डालना होगा। लिहाजा, वह इस पर खामोश रही। लेकिन कृष्णा और गोदावरी के जुडऩे से अब नए सिरे से यह योजना चर्चा का विषय बनी है। इससे पहले मध्यप्रदेश में नर्मदा और क्षिप्रा को जोड़ा गया था। पर्यावरणविद इस पूरी कवायद को पर्यावरण-हितैषी नहीं मानते। उनका कहना है कि नदियों का कुदरती स्वरूप बने रहने देना चाहिए, इससे छेड़छाड़ ठीक नहीं है, यह हमें बहुत महंगी पड़ेगी। पर इस योजना के पैरवीकार कहते हैं कि नदियों का बहुत सारा पानी समुद्र में बेकार चला जाता है। नदियों को जोड़ देने से सूखा और बाढ़, दोनों से स्थायी निजात मिलेगी और इनके कारण हर साल राहत के तौर पर खर्च होने वाली हजारों करोड़ रुपए की राशि बचेगी। दूसरी ओर, बिजली उत्पादन में भी काफी इजाफा होगा। हालांकि इस योजना को प्रारंभिक तौर पर देखने से यह बहुत ही विकासोन्मुख दिखती है, पर इससे उत्पन्न होने वाली हानियों को भी रेखांकित करना आवश्यक है। हमें हमेशा यह प्रयास करना चाहिए कि विकास के अनुपात में उसकी खातिर चुकाई जाने वाली कीमत को न्यूनतम किया जा सके। नदी जोड़ योजना में कई समस्याएं और जटिलताएं भी हैं। बहुत बड़े स्तर पर और बड़े क्षेत्र में नहरों का निर्माण होने से विस्थापन की समस्या विकराल रूप में उपस्थित होती है। भारत सरकार पूर्व की अनेक योजनाओं में विस्थापितों की समस्या को आज तक पूर्ण रूप से हल नहीं कर सकी, चाहे वह सरदार सरोवर बांध के निर्माण में हो या टिहरी के संदर्भ में। उचित मुआवजा न मिलने से विरोध के स्वर अब भी मुखर होते हैं। लिहाजा, परियोजना में प्रारंभ से ही विस्थापितों के पुर्नवास के लिए एक पारदर्शीनीति बनाई जाए जिसका कड़ाई से पालन हो। ब्रह्मपुत्र और दूसरी नदियों को आपस में जोडऩे की सरकार की विशालकाय योजना से भविष्य में पर्यावरणीय महाविपदा से इनकार नहीं किया जा सकता। किसी भी स्थान पर नहरों द्वारा पानी लाने के बारे में पर्यावरणाविद मानते हैं कि पर्यावरण पर इसके असर के बारे में पहले से अध्ययन जरूरी है। कुछ तरह की भूमि और मिट्टी को नहरों से लाभ हो सकता है तो कुछ अन्य तरह की भूमि व मिट्टी को बहुत नुकसान हो सकता है। कहीं भू-जल उपलब्धि बढ़ सकती है तो कहीं दलदलीकरण की समस्या भी विकट हो सकती है। पानी और दलदल में पलने वाले मच्छर और जीव नए इलाके में प्रवेश कर कई ऐसी बीमारियां फैला सकते हैं जिनसे वहां के लोग अनभिज्ञ रहे हों और जिनके लिए उनमें कोई प्रतिरोधक शक्ति भी नहीं है। अत: इस प्रकार से उत्पन्न समस्याओं को दूर करने के लिए अग्रिम अध्ययन के जरिए प्रयास करना चाहिए। हर क्षेत्र के विशेषज्ञों की राय इसमें बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। पर्यावरण प्रदूषण के कारण हिमालय से नदियों में पानी कम आने का एक दुष्परिणाम यह भी होगा कि ये समुद्र में जिस स्थान पर मिलती हैं वहां का पर्यावरणीय संतुलन बुरी तरह बिगड़ जाएगा। इस परियोजना से एक खतरा कृषि की जैव विविधता के लिए भी है। यह परियोजना जैव विविधता को खत्म करेगी और गैर-टिकाऊ जल उपयोगिता को बढ़ावा देगी। पानी के गैर-टिकाऊ इस्तेमाल में ऐसी खेती सबसे बड़ा कारक है, जो पानी की बर्बादी करती है। असली अमृत क्रांति तो तब होगी, जब जैव विविधता का संरक्षण किया जाएगा, पानी बचाने के तरीके लागू किए जाएंगे, जैविक कृषि को अपनाया जाएगा और जल-स्रोतों में नई जान फूंकी जाएगी। नदी जोड़ के छद्म विज्ञान की जगह अपनी जल प्रणालियों के साथ सामंजस्य से जीने का विज्ञान लागू होना चाहिए। दूर-दूर की नदियों को जोड़ देने भर से पानी का गलत इस्तेमाल, टिकाऊ इस्तेमाल में नहीं बदल जाएगा, बल्कि इससे पानी के दुरुपयोग की आशंका और भी बढ़ जाएगी। फिलहाल सरकार नई ऊर्जा और दृढ़ निश्चय के साथ इस महत्त्वाकांक्षी योजना को शुरू करने पर आमादा है। सरकार को चाहिए कि लाभ और हानि के सभी पहलुओं की गहन पड़ताल कर अपनी योजना के केंद्र में मानवीय पक्ष को रखे।