डाॅ. अरूण जैन
हिमाचल में बगावत की मार झेल रही कांग्रेस को आखिरकार राजा की जिद्द के आगे झुकना ही पड़ा है। अगर कहा जाये कि राजहठ के आगे कांग्रेस ने सरेंडर कर दिया है तो भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह इस तथ्य के बावजूद है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुक्खू राहुल गांधी के खासमखास हैं। मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह तो सुक्खू को प्रदेश अध्यक्ष पद की कुर्सी से हटाने की मांग पर अड़े थे लेकिन बीच बचाव का रास्ता निकाल लिया गया है। पार्टी के अंदरखाने से छनकर आ रही खबरों पर यकीन करें तो कांग्रेस ने मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह को फ्रीहैंड दे दिया है। इसका मतलब यह कि वे जैसे चाहें पार्टी को व सरकार को चलाएं, उनके किसी भी निर्णय पर पार्टी कोई सवाल नहीं उठाएगी। विधानसभा चुनाव में टिकट देने से लेकर तमाम फैसले उन्हीं की मर्जी से होंगे। इसी के साथ यह भी साफ कर दिया गया है कि राज्य में अगर कांग्रेस दोबारा जीतकर आती है तो मुख्यमंत्री भी वीरभद्र सिंह ही बनेंगे। इसे बीजेपी के हाथों एक के बाद एक राज्य गंवाती जा रही कांग्रेस की मजबूरी ही कही जाएगी। कांग्रेस से भी अधिक राहुल गांधी की क्योंकि सुक्खू कांग्रेस उपाध्यक्ष के कृपापात्र रहे हैं। इसके अलावा इसे भी नहीं भूलना चाहिए कि राहुल गांधी की आलोचना के जुर्म में कई वरिष्ठ कांग्रेसजनों को बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका है। लेकिन शीर्ष नेतृत्व पर तल्ख टिप्पणी करने के बावजूद अगर वीरभद्र सिंह की शर्तें मानने पर कांग्रेस व राहुल गांधी सहमत हुए हैं तो इसमें छिपी उनकी सियासी मजबूरियों को साफ महसूस किया जा सकता है। वैसे कांग्रेस पार्टी यह दलील देकर खुद को तुष्ट कर सकती है कि इस सरेंडर के बावजूद प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुक्खू को बलि का बकरा नहीं बनने दिया गया है। वीरभद्र सिंह के लाख चाहने के बावजूद उन्हें नहीं हटाया गया। हालांकि यह अर्द्धसत्य ही है क्योंकि कांग्रेस ने उनके सारे अधिकार मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के यहां गिरवी रख दिये हैं। अब देखना है कि दोबारा सूबे की सत्ता में आने की जद्दोजहद में जुटी कांग्रेस को इससे संजीवनी मिलती है या इसके साइड इफेक्ट उसकी संभावनाओं पर पलीता लगाते हैं। सूत्रों की मानें तो राजा वीरभद्र सिंह के सामने कांग्रेस के इस सरेंडर से सुक्खू समर्थकों में घोर बेचैनी है क्योंकि सुक्खू के नेतृत्व में संगठन की हालत पहले से बहुत बेहतर हुई है। हालांकि कांग्रेस नेतृत्व के इस फैसले के खिलाफ खुलकर बोलने की हिम्मत कोई नहीं कर रहा है। गौरतलब है कि इस पर्वतीय राज्य में इसी साल विधानसभा चुनाव होने हैं लेकिन यहां सत्ताधारी कांग्रेस सत्ताविरोधी लहर के अलावा आपसी बगावत से भी जूझ रही है। गुटबाजी चरम पर है। हद तो यह कि यह गुटबाजी निचले स्तर के बजाय राज्य के शीर्ष नेतृत्व स्तर पर है। मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुक्खू के बीच जारी नाक की लड़ाई कांग्रेस की संभावनाओं को और अधिक धूमिल कर रही थी। यहां तक कि राज्य के मुख्यमंत्री व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के बीच जारी रस्साकसी की जद में आलाकमान भी आ गया था। वीरभद्र सिंह ने सुक्खू को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाने को नाक की लड़ाई बना लिया था और हाईकमान को अल्टीमेटम दे दिया था कि अगर सुक्खू पद पर बने रहे तो वे चुनाव से अलग हो जाएंगे। अपनी मांगें न माने जाने से वे और अधिक उग्र हो गये थे। यही कारण है कि अभी हाल ही में उन्होंने कांग्रेस हाईकमान पर तीखा हमला बोलते हुए कहा था कि पार्टी अपनी पूर्व की नीतियों से श्अलग दिशा की ओर बढ़ रही हैश् और श्मनमाफिक तरीके से चयनश् करने का तरीका इसकी अच्छी संस्कृति का खात्मा कर देगा। वीरभद्र ने कहा था कि पार्टी नेतृत्व के सोचने और कामकाज के तरीके में बदलाव लाने की जरूरत है क्योंकि कांग्रेस कोई श्कारोबारियों की पार्टीश् नहीं है बल्कि यह उन लोगों से संबंधित है जिन्होंने देश की श्आजादीश् के लिये अपना जीवन कुर्बान किया। साथ ही वह श्अपमानित नहीं होते रहेंगेश् और किसी के श्मातहतश् चुनाव में नहीं जाएंगे। किसी से उनका तात्पर्य प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष से था। जाहिर है वीरभद्र को फ्री हैंड देकर कांग्रेस राहत की सांस ले रही है लेकिन डर है कि कहीं यह उसकी खुशफहमी न साबित हो जाए।
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