Thursday, 5 January 2017

स्वयं को प्रकृति के निकट पाएंगे रानीखेत में


डॉ. अरूण जैन
रानीखेत को पहाड़ों की रानी भी कहा जाता है। प्रकृति का अनुपम सौंदर्य रानीखेत के कण-कण में बिखरा पड़ा है। यहां पर दूर-−दूर तक फैली घाटियां, घने जंगल तथा फूलों से ढके रास्ते व ठंडी मस्त हवा पर्यटकों का मन बरबस ही मोह लेती है। रानीखेत की खास बात यह है कि यहां पर लोगों का कोलाहल व भीड़भाड़ बहुत कम है। यकीन जानिए यहां पहुंचने के बाद पर्यटक स्वयं को प्रकृति के निकट पाता है। अंग्रेजों के शासन के दौरान अंग्रेजी फौज की छावनी रहे इस क्षेत्र में कुमाऊं रेजीमेंट का मुख्यालय भी है। छावनी क्षेत्र होने के कारण एक तो यहां वैसे ही साफ−सफाई रहती है दूसरे यहां पर प्रदूषण की मात्रा भी अन्य जगहों की अपेक्षा बहुत कम है। चलिए सबसे पहले आपको लिए चलते हैं चौबटिया। चौबटिया में बहुत ही सुंदर बाग-बगीचे हैं। यहां पर स्थित सरकारी उद्यान व फल अनुसंधान केंद्र भी देखने योग्य हैं। यहां पर पास में ही एक जल प्रपात है, जिसके ऊंचाई से गिरते संगमरमर जैसे पानी का दृश्य आपका मन मोह लेगा।  द्वाराहाट रानीखेत से लगभग 32 किमी की दूरी पर स्थित है। द्वाराहाट पुरातात्विक दृष्टि से भी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। कभी कत्यूरी वंश के शासकों की राजधानी रहे इस स्थल पर पूरे 65 मंदिर हैं जोकि तत्कालीन कला के बेजोड़ नमूने के रूप में विख्यात हैं। बदरीकेदार मंदिर, गूजरदेव का कलात्मक मंदिर, पाषाण मंदिर और बावडिय़ां पर्यटकों को अपने अतीत की गाथा सुनाते हुए लगते हैं। यहां स्थित मंदिरों में से विमांडेश्वर महादेव का प्राचीन मंदिर एवं कुबेर की विशालकाय मूर्ति देखना न भूलें।  रानीखेत से 6 किमी की दूरी पर स्थित है उपत एवं कालिका। यहां पर गोल्फ का विशाल मैदान है। हरी−हरी घास से भरे इस मैदान में गोल्फ खेलने का आनंद ही कुछ और है। कालिका में कालीदेवी का प्रसिद्ध मंदिर भी है। अब आप दूनागिरी जा सकते हैं। द्वाराहाट से लगभग 14 किमी की दूरी पर स्थित दूनागिरी से आप हिमालय की बर्फ से ढकी चोटियों के मनोहारी दर्शन कर सकते हैं। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि यहां पर 1181 के शिलालेख भी पाए गए हैं। दूनागिरी में चोटी पर दुर्गा जी सहित अन्य कई मंदिर भी हैं जहां पर आसपास के लोग बड़ी संख्या में आते हैं। इस स्थान को पर्यटन के लिहाज से सर्वश्रेष्ठ भी कहा जा सकता है।  शीतलाखेत को आप पर्यटक गांव भी कह सकते हैं। यहां तक आने के लिए आप रानीखेत व अल्मोड़ा से सीधी बस सेवा का भी लाभ उठा सकते हैं। ऊंचाई पर शांत व खूबसूरत नजारों से भरे दृश्य पर्यटकों को भा जाते हैं। ट्रैकिंग की दृष्टि से भी यह अच्छा स्थल है। आप चिलियानौला भी घूमने जा सकते हैं। यहां पर हेड़ाखान बाबा का भव्य मंदिर है। कहते हैं कि इस आधुनिक मंदिर में देवी−देवताओं की कलात्मक मूर्तियां देखने लायक हैं। द्योलीखेत का मैदान तीन ओर से पर्वतों से घिरा हुआ है। इसके एक ओर देवदार तथा चीड़ के वृक्ष इस स्थल की सुंदरता में चार चांद लगा देते हैं। खड़ी बाजार रानीखेत का मुख्य बाजार है। एक ओर से उठे होने के कारण ही शायद इसका नाम खड़ी बाजार पड़ा। इस बाजार के दोनों ओर दुकानें हैं जहां से आप रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने वाले सामानों के साथ ही स्थानीय काष्ठकला की वस्तुएं भी खरीद सकते हैं। ट्रैकिंग में दिलचस्पी रखने वाले पर्यटकों के लिए रानीखेत के आसपास कई ऐसे स्थान हैं जहां पर ट्रैकिंग करके आप अपनी यात्रा को रोमांचक बनाने के साथ ही यादगार भी बना सकते हैं।  आसपास के दर्शनीय स्थानों की सैर पर जाने के लिए आपको यहां से निर्धारित दरों पर टैक्सी मिल सकती हैं। यदि आप भारवाहकों की सेवा लेने चाहें तो दाम पहले ही तय कर लें। अप्रैल व जून तथा सितंबर से नवंबर के बीच आप जब भी चाहें, रानीखेत घूमने जा सकते हैं क्योंकि यह माह यहां की सैर के लिए सर्वाधिक उपयुक्त समय है। हां, रानीखेत आप जब भी जाएं, ऊनी कपड़े साथ रखना न भूलें।

पूँजीवाद के विरुद्ध लड़ाई में सदा अग्रण्य रहे फिदेल कास्त्रो

डॉ. अरूण जैन
जब 20वीं शताब्दी का विश्व इतिहास लिखा जाएगा तो उसमें क्यूबा के पूर्व प्रधानमंत्री एवं राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो का नाम सबसे ऊपर होगा। यह केवल इसलिए नहीं कि उन्होंने क्यूबा जैसे छोटे देश में साम्यवादी क्रांति की थी, इसका सबसे बड़ा कारण यह होगा कि क्यूबा की क्रांति चीन एवं सोवियत संघ से बिल्कुल अलग थी, जो न तो लेनिनवादी क्रांति थी न ही माओवादी क्रांति। फोकोवाद के माध्यम से मुक्ति आंदोलन चलाया गया तथा बिल्कुल एक नया विकल्प रखा। क्यूबा ने सोवियत संघ से बड़ी सहायता ली, परंतु अपनी स्वाधीनता के साथ कभी कोई समझौता नहीं किया। नन्हें क्यूबा ने जिस  प्रकार विश्व शक्ति पूँजीवादी अमेरिका के विरुद्ध विरोध का बिगुल फूँका, वह भी विश्व इतिहास में एक चिरस्मरणीय घटना रही। भारत के साथ उनके संबंध बहुत बेहतर थे, विशेषकर नेहरु जी के साथ। भारतीय गुटनिरपेक्ष आंदोलन के विशिष्ट समर्थकों में फिदेल कास्त्रो का नाम भी उल्लेखनीय है। यही कारण है कि आज भी भारत और क्यूबा के संबंध काफी मधुर हैं। ये संबंध इतने घनिष्ठ हैं कि राजनीति से लेकर खेल के मैदान तक देखे जा सकते हैं। भारत को बॉक्सिंग के क्षेत्र में आगे बढ़ाने में क्यूबा का महत्वपूर्ण योगदान है। फिदेल कास्त्रो ने ही भारतीय बॉक्सर को क्यूबा में उच्चस्तरीय प्रशिक्षण की व्यवस्था की थी। ऐसे में 26 नवंबर को उनके निधन की सूचना से न केवल भारत में फिदेल कास्त्रो के समर्थक दुखी हुए हैं अपितु समतावादी समाज की इच्छा रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति दुखी हुआ है। उनके निधन से विश्व में वंचित वर्गों के हितों का ध्यान रखने वाले एवं साम्यवाद के आखिरी क्रांतिकारी का युग समाप्त हुआ है।  अमेरिका ने सदैव फिदेल को मारने या अपदस्थ करने की कोशिश की, परंतु उनकी अति कुशाग्र नीतियों के कारण अमेरिका कभी इसमें सफल नहीं रहा। मगर दुर्भाग्य कहें कि क्यूबा में फिदेल कास्त्रो का युग आज से 10-15 वर्ष पूर्व तब समाप्त हो गया था, जब अमेरिका से क्यूबा के संबंध क्रमश: धीरे -धीरे ठीक हो गए। उनके भाई राउल कास्त्रो के पूँजीवादी मार्ग की ओर आने से भी यह स्पष्ट हो गया था कि फिदेल का युग समाप्त हो गया है। दरअसल उनके भाई यह समझ गए थे कि विश्व में साम्यवादी युग समाप्त हो चुका है जो भी साम्यवादी विकल्प थे, वे चाहे माओवादी हों या अल्बेनिया वाला, या चेकोस्लावाकिया वाला या पोलैंड, सारे अलग-अलग संस्करण अप्रासंगिक हो चुके हैं। ऐसे में राउल कास्त्रो ने संशोधित उदारवाद को क्रमश: स्वीकार किया। उग्रवामपंथी से लेकर साम्यवाद तक जितने भी लैटिन अमेरिकी साम्यवादी विकल्प थे, उसमें क्यूबा के फिदेल कास्त्रो का विकल्प काफी अनोखा व अति महत्वपूर्ण था। वहाँ शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाओं की नई एवं मजबूत पद्धति का विकल्प भी रखा जो आज भी संपूर्ण विश्व के लिए एक अनुकरणीय मॉडल है। जो लोग भी वंचित वर्ग या अथवा समतामूलक समाज में विश्वास रखते हैं, उन्हें बड़ी ही निराशा होगी फिदेल के इस युग समाप्ति से क्योंकि इस मॉडल को इतने सफलता के साथ कहीं पुन: स्थापित नहीं किया जा सकेगा। मगर एक प्रेरणादायक नेतृत्व के रूप में फिदेल कास्त्रो सदैव अमर रहेंगे। पूँजीवाद के विरुद्ध लड़ाई में वे अग्रगण्य रहे। शीत युद्ध से जारी अमेरिकी वर्चस्व की चुनौती देने की फिदेल कास्त्रो की नीति शीतयुद्धोत्तर युग में भी अकेले दम पर जारी रही। बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद ही क्यूबा एवं अमेरिका के रिश्ते सुधर सके। क्यूबा की अर्थव्यवस्था सोवियत संघ पर निर्भर थी लेकिन सोवियत यूनियन के विघटन ने क्यूबा को बुरी तरह प्रभावित किया था। एक समय ऐसा था कि क्यूबा ने नाभीकीय हथियार प्राप्त करने की कोशिश की थी, सोवियत संघ ने भी उसे नाभीकीय शक्ति बना दिया था, लेकिन सोवियत संघ के विघटन एवं अमेरिकी वर्चस्व स्थापित होने के बाद सोवियत संघ ने अपने हाथ पीछे खींच लिए। एक तरह से शीत युद्ध में क्यूबा नाभीकीय हथियार के मुहाने पर खड़ा था। यही सब कारण था कि अंत तक फिदेल कास्त्रो क्यूबा की जनता में अपनी अतिलोकप्रियता बरकरार रख पाए। भूमि सुधार हो या किसानों को सत्ता की मुख्य धारा में लाने का कार्य, वह सभी में सफल रहे। क्यूबा के विकास एवं पूँजीवाद के विरुद्ध संघर्ष में वे सदैव गतिशील रहे।  गन्ने के खेतों में हैती के मजदूरों से हो रहे अन्यायों ने ही फिदेल कास्त्रो को क्रांति की ओर खींचा। कास्त्रो ने 1953 में तानाशाह बतिस्ता के विरुद्ध क्रांति का बिगुल फूँका, क्रांति असफल रही तथा उन्हें 15 वर्षों के लिए जेल की सजा दी गई, लेकिन 2 वर्ष बाद ही रिहा कर दिया गया। जेल से छूटने के बाद ही अपने भाई राउल कास्त्रो के साथ वह मैक्सिको चले गए। यहीं से उन्होंने चे ग्वारा के साथ मिलकर बतिस्ता के खिलाफ गुरिल्ला लड़ाई शुरु की। 1959 में उन्होंने बतिस्ता को अपदस्थ कर खदेड़ दिया तथा क्यूबा के प्रधानमंत्री बने। बाद में 1976 में क्यूबा के राष्ट्रपति बने। 2008 में वे पद से हट गए और राउल कास्त्रो को सत्ता सौंप दी। पूरे विश्व से साम्यवाद की समाप्ति के बाद भी फिदेल कास्त्रो क्यूबा में साम्यवाद का झंडा लहराते रहे। मार्क्स ने जहाँ धर्म को अफीम की संज्ञा दी, वहीं फिदेल का धर्म को लेकर काफी उदारवादी रवैया था। इस तरह उन्होंने धर्म को लेकर भी साम्यवाद को नवीन आयाम से विभूषित किया। न केवल क्यूबा अपितु संपूर्ण लैटिन अमेरिकी देशों का नेतृत्व किया। फिदेल ने संपूर्ण संपत्तियों का राष्ट्रीरकरण किया था, साथ ही श्रमिक कानून लागू किए, ससे वास्तव में श्रमिकों के हितों का संरक्षण हो सका। आज जिस तरह उदारीकरण एवं वैश्वीकरण की असफलता से दुनिया की एक बड़ी आबादी मुख्य धारा से बाहर हो रही है तथा कहीं ब्रेक्सिट तो कहीं ट्रंप जैसे राष्ट्रपति का चयन कर संरक्षणवादी नीतियों को प्रोत्साहन दे रही है, ऐसे में फिदेल कास्त्रो जैसे साम्यवादी आंदोलन के पुरोधा का हमें छोडक़र जाना सचमुच काफी एक युग की दुखद समाप्ति है। उनका व्यक्तित्व स्मरणीय है, जो सदैव 20वीं शताब्दी के विश्व इतिहास को नए रूप और स्वरूप के साथ परिभाषित करेगा। हमारे नीति निर्माता यदि क्यूबा के शिक्षा एवं चिकित्सा मॉडल को भारत में क्रियान्वित कर सकें तो यही फिदेल कास्त्रो को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
सिंधिया होंगे सीएम उम्मीदवार कमलनाथ पीसीसी चीफ-प्रशांत किशोर, राहुल गांधी का मिशन म प्र 2018
डॉ. अरूण जैन
रकार बनाने के लिये कांग्रेस हाईकमान ने प्रशांत किशोर की सेवाएं लेना शुरू कर दी हे। प्रशांत किशोर ने काँग्रेस को अपनी राय दी हे कि़ यदि सिंधिया को  प्रोजेक्ट करे एवं कमलनाथ को प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाये । तो मध्य प्रदेश में कांग्रेस ऐतिहासिक विजय हासिल करेगी । टीम प्रशांत किशोर ने प्रदेश में कांग्रेस की जित पर राहुल को आश्वस्त करते बताया की प्रदेश में भाजपा द्वारा कांग्रेस की जित को रोक पाना गली की हड्डी साबित होगा अगर कांग्रेस इस फार्मूले पर चलती है । क्या हे प्रशांत किशोर का फार्मूला प्रशांत किशोर के अनुसार प्रदेश में कांग्रेस को एकसुत्र में पिरोने के लिए प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं राज्य सभा सांसद दिग्विजय सिंह और पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरेश पचोरी को प्रदेश समन्वयन समिति की जिम्मेदारी सोपी जाए । गुना सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया को सीएम उम्मीदवार और छिंदवाड़ा के सांसद कमलनाथ को पीसीसी चीफ बनाया जाये । इस फार्मूले पर अगर कांग्रेस चलती है तो कांग्रेस आसानी से शिवराज का किला ढहा सकती है । युवा चेहरा दिलाएगा जित सिंधिया के ष्टरू प्रोजेक्ट करने पर खास कर युवाओ में उनका बढ़ती लोकप्रियता का फायद कांग्रेस को मिलेगा । दिल्ली की संसद हो या कोई रैली हर जगह जनता उनको व्यक्तव्य को बड़े गौर से सुनती है । और पसन्द भी करती है । साफ बेदाग छवि के चलते उनका विरोध कर पाना भाजपा के लिए कड़ी चुनोती साबित होगा ।  कमलनाथ का माइंड गेम राष्ट्रिय राजनीती में अपनी गहरी छाप रखने वाले कांग्रेस के दिग्गज नेताओ में शामिल कमलनाथ का माइंड गेम कांग्रेस के लिए संजीवनी का काम कर सकता है । वेंटिलेटर पर पड़ी कांग्रेस में जान फूकने के लिए प्रशांत किशोर ने कमलनाथ का नाम पीसीसी चीफ के तौर पर राहुल को दिया है । उनका मानना है की कमलनाथ एक सीनियर लीडर हे जिसका फायदा प्रदेश में कांग्रेस को उठाना चाहिए है । राज्यसभा के चुनाव में उन्होंने जिस प्रकार विवेक तनख्वा को जित दिलाई उनकी नेतृत्व क्षमता को भी दरकिनार नही किया जाना चाहिए । पीसीसी की जिम्मेदारी कमलनाथ जैसे अनुभवी लीडर के हाथ में होना चाहिए । दिग्विजय और पचोरी प्रभाव का लाभ प्रदेश में कांग्रेस को अधिक सशक्त बनाने के लिए प्रशांत किशोर ने म प्र के पूर्व मुख्यमंत्री वर्तमान राज्यसभा सांसद दिग्विजय सिंह और पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरेश पचोरी को प्रदेश की समन्वय समिति के चीफ की जिम्मेदारी देने की बात रखी । टीम प्रशांत किशोर के अनुसार दिग्विजय सिंह व् सुरेश पचोरी का प्रदेश की राजनीती में बड़ा प्रभाव है । जिसका लाभ अगर कांग्रेस लेती है तो कांग्रेस एक नई ऊर्जा के साथ प्रदेश में खड़ी हो सकती है । टीम प्रशांत किशोर के इस फार्मूले पर अगर सहमती बन जाती है । बीजेपी सोचने पर मजबूर हो सकती है । यूपी में खाट सभा और रेलियो के माध्यम से चर्चा में आये प्रशांत किशोर के फार्मूले पर राहुल का फैसला जल्द आने वाला है । जिस प्रकार पीके ने यूपी में शीला दीक्षित को सीएम उम्मीदवार व् राज बब्बर को पीसीसी चीफ बनाकर यूपी कांग्रेस में जान फूंकी है ।उसी पर चलते म प्र में भी यह प्रोयोग किया जा रहा है। जिस पर अब मध्य प्रदेश की राजनीतीक सरगर्मी तेज होती दिखाई दे रही है । जिसके चलते प्रदेश कांग्रेस के कई नेताओ ने आल इंडिया कांग्रेस कमिटी के सामने अपनी उपस्तिथि दिखाने के लिए प्रदेश में गुट बाजी को हवा देना शुरू कर दी है । प्रदेश में जोड़ तोड़ की राजनीती शुरू हो गई है । वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव और गोविन्द सिंह को सिंधिया सक्रियता खल रही हे । जिसके चलते मिडिया में सिंधिया के खिलाफ बयान बाजी तेज हो गयी है । प्रदेश कांग्रेस में फि़लहाल कुछ भी ठीक नही चल रहा है । कांग्रेस आईटी सेल के 6 कार्यकर्ताओ ने अरुण यादव से नाराज होकर पार्टी पद से स्तीफा दे दिया है बताया जा रहा है को अरुण यादव ने अपने समर्थको को ही दिल्ली आईटी सेल की मीटिंग में भेज कर प्रदेश में सिर्फ अरुण यादव सक्रीय हे जेसी वाह वाही लूटने के प्रयास से यह किया है जिससे नाराज कार्यकर्ताओ ने ये कदम उठाया है । एक गुमनाम पत्र सोशल मिडिया पर वायरल किया अरुण यादव द्वारा कार्यकर्ता को प्रदेश के अन्य नेताओ का प्रचार करने पर रोक टोक की जा रही है । जिसके कारन अब कांग्रेस आईटीसेल भी भिखर चूकी है । सूत्रो से प्राप्त जानकारी के अनुसार हाल में अरुण यादव की समर्थक विभा बिंदु डोंगरे ने सोशल मिडिया पर समर्थक एक गुमनाम पत्र सोशल मिडिया पर वायरल किया जिसमे कमलनाथ दिग्विजय और सिंधिया के नाम देकर प्रदेश में पार्टी की बैठको में शामिल नहीं होने की बात कही गयी साथ साथ अरुण यादव के प्रति आम जन से सहानुभूति प्राप्त करने के लिए प्रदेश के वरिष्ठ नेताओ पर तंज कसते हुवे उन्हें बदनाम करने की भी कोशिश की गयी । शुरू कर दिए राजनितीक गणित प्रदेश में जब से सिंधिया के सीएम उम्मुद्वार की खबर बहार आई है प्रदेश के नेताओ ने अपने अपने स्तर से अपने राजनितीक गणित बेठने शुरू कर दिए है । जीतू पटवारी सज्जन सिंह वर्मा और अब विवेक त्नख्या के बयांन मिडिया में आने के बाद से स्पष्ट रहा हे की प्रदेश में कांग्रेस के कुछ नेता अपना रुतबा बचाने के लिए बड़े नेताओ के खिलाफ केम्पनिंग शुरू कर दी है । इन सबके बिच राहुल अब प्रशांत किशोर के भरोसे प्रदेश में कांग्रेस का किला लड़ाने के लिए तैय्यर हो चुके है । अब देखाना ये ही की राहुल गांधी और प्रशांत किशोर के प्लान को प्रदेश कांग्रेस के छुटभैया नेता अपनी साख बचाने के लिए रोकने में कामयाब हो पाते है की नही । राजनितिक विश्लेषकों का मानना है की दीवाली तक पीसीसी में बदलाव हो जाना चाहिए । कुछ विद्वानों के अनुसार यूपी चुनाव हे इसलिए यादव को अभी बनाये रखेगे । दमदार और प्रभावशाली नेता को पीसीसी का चेहरा मगर राजनीतक दृष्टिकोण कहता हे की अरुण यादव की यादव वोट पर भी प्रभाव नही है । घोडा डोंगरी उप चुनाव में 20 हजार यादव वोट थे मगर यादव उन्हें भी नहीं साध पाये । तो यूपी चुनाव के लिए उनकी उपयोगिता के कोई मायने नहीं है । नहीं उनसे यूपी में किसी प्रकार का पार्टी को लाभ हुवा है । इसके उलट प्रदेश में गुडबाजी को हवा देने में अधिक कामयाब नजर आये यादव ।इन सब विवादों और रिपोर्ट के बाद अब पार्टी एक दमदार और प्रभावशाली नेता को पीसीसी का चेहरा बनाने जा रही है । जिससे प्रदेश में 2018 में कांग्रेस का क्या भविष्य होगा तय हो जायेगा।

ब्रिक्स की अहमियत और अंतर्विरोध

डॉ. अरूण जैन
भारत ने न सिर्फ विश्व मंच पर अपनी मजबूत स्थिति दर्ज करवाई है, बल्कि वैश्विक संगठनों में उसकी भूमिका और प्रभाव में वृद्धि हुई है। वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में भारत ने न सिर्फ विश्व मंच पर अपनी मजबूत स्थिति दर्ज करवाई है, बल्कि वैश्विक संगठनों में उसकी भूमिका और प्रभाव में वृद्धि हुई है। यह बात ब्रिक्स के परिप्रेक्ष्य में भी लागू होती है। आगामी पंद्रह-सोलह अक्टूबर को भारत की अध्यक्षता में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन का गोवा में आयोजन वैश्विक स्तर पर भारत के बढ़ते कूटनीतिक प्रभाव को ही प्रतिबिंबित करता है। उड़ी हमले के बाद ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ से जहां भारत की ‘सॉफ्ट स्टेट’ (नरम राज्य) की छवि परिवर्तित हुई है, वहीं ब्रिक्स में भी आतंकवाद के मुद््दे पर गंभीर विमर्श संभावित है। पाकिस्तान की पहले से ही अंतरराष्ट्रीय घेराबंदी हो चुकी है। भारत गोवा ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में भी पाकिस्तान को कड़ा कूटनीतिक जवाब देगा। विश्व-व्यवस्था को बहुध्रुवीय बनाने के लिए प्रमुख गैर-पश्चिमी राष्ट्रों में एकजुटता की भावना प्रबल हुई है। चीन जहां आर्थिक व सैनिक दृष्टि से अमेरिका की बराबरी में आने की राह पर है, वहीं पुतिन के नेतृत्व में रूस अपना खोया हुआ गौरव पाने को लालायित है। दक्षिण एशिया में एक सैनिक एवं आर्थिक महाशक्ति के रूप में भारत की पहचान भी असंदिग्ध है। लातिन अमेरिकी राष्ट्रों में जहां अमेरिका-विरोधी स्वर तेज हुए हैं, वहीं इन राष्ट्रों के बीच उभरती अर्थव्यवस्था वाले ब्राजील की स्वीकार्यता बढ़ी है। अफ्रीका महाद्वीप के देशों में दक्षिण अफ्रीका अपनी नई पहचान बना रहा है। विश्व की इन्हीं उभरती आर्थिक शक्तियों- ब्राजील, रूस, भारत व दक्षिण अफ्रीका- की सदस्यता वाले अंतरराष्ट्रीय समूह ‘ब्रिक्स’ की प्रगति को वैश्विक शक्ति संतुलन के अंतर्गत महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम माना जा रहा है। ब्रिक्स की संकल्पना सर्वप्रथम गोल्डमैन सैश बैंक के अर्थशास्त्रियों द्वारा वर्तमान शताब्दी के प्रारंभ में आगामी अर्द्धशताब्दी में वैश्विक आर्थिक प्रवृत्तियों के अध्ययन के संदर्भ में प्रस्तुत की गई थी। वर्ष 2003 में इस निवेश बैंक के अर्थशास्त्री जिम ओ’ नील द्वारा प्रस्तुत थीसिस ‘ड्रमिंग विद ब्रिक्स: द पाथ टू 2050’ में कहा गया था कि ब्राजील, रूस, भारत व चीन की संभाव्य आर्थिक क्षमता इतनी अधिक है कि ये चारों वर्ष 2050 तक विश्व की सर्वाधिक प्रभुत्वशाली अर्थव्यवस्थाओं वाले देश बन सकते हैं।ब्रिक्स दुनिया की पांच उभरती अर्थव्यवस्थाओं का समूह है। एक समूह के रूप में इसकी स्थापना वर्ष 2009 में हुई थी। तब इसमें चार ही देश- ब्राजील, रूस, भारत और चीन- शामिल थे और इसे ‘ब्रिक’ नाम दिया गया था। यह वह समय था जब पूरा विश्व आर्थिक मंदी से जूझ रहा था। इस काल में जहां विश्व के सभी बड़े देश वित्तीय संकट से ग्रस्त थे, वहीं ब्राजील, रूस, भारत व चीन जैसे देश न सिर्फ इस वैश्विक समस्या से अछूते रहे बल्कि एक नए आर्थिक संगठन की स्थापना भी कर दी। अप्रैल 2011 में चीन में इस संगठन का तीसरा सम्मेलन हुआ, जिसमें दक्षिण अफ्रीका को औपचारिक रूप से संगठन का सदस्य बनाया गया और यह ‘ब्रिक’ से ‘ब्रिक्स’ हो गया। ऐसा माना जा रहा है कि वर्ष 2050 तक ब्रिक्स के सदस्य-देश विश्व की अग्रणी अर्थव्यवस्थाओं के रूप में जाने जाएंगे। आज विश्व की तैंतालीस प्रतिशत जनसंख्या व कुल वैश्विक जीडीपी में अठारह प्रतिशत हिस्सेदारी वाला यह समूह तेजी से उभर रही अर्थव्यवस्थाओं वाला समूह है। भारत को पंद्रह फरवरी को रूस से इसकी अध्यक्षता मिली थी। भारत इकतीस दिसंबर 2016 तक ब्रिक्स का अध्यक्ष रहेगा। भारत की अध्यक्षता में आयोजित होने वाले ब्रिक्स शिखर सम्मेलन का ध्येय-वाक्य होगा- ‘उत्तरदायी, समावेशी व सामूहिक समाधान विकसित करना’। भारत अपनी ब्रिक्स अध्यक्षता के दौरान पंचमुखी दृष्टिकोण अपनाएगा। प्रथम, ब्रिक्स सहयोग को प्रगाढ़ बनाने तथा इसे बरकरार रखने के लिए संस्थागत व्यवस्था करना। दूसरा, पूर्व शिखर सम्मेलनों में लिए गए निर्णयों का कार्यान्वयन। तीसरा, मौजूदा सहयोग तंत्रों का एकीकरण। चौथा, नवाचार अर्थात स्तरीय नए सहयोग तंत्र विकसित करना। और पांचवां, निरंतरता अर्थात परस्पर सम्मत मौजूदा ब्रिक्स सहयोग तंत्रों को जारी रखना।  भारत की अध्यक्षता में होने वाले ब्रिक्स शिखर सम्मेलन का फोकस ब्रिक्स के सदस्य-राष्ट्रों के लोगों विशेषत: युवाओं के बीच आपसी संपर्क बढ़ाने पर केंद्रित होगा। इस संदर्भ मेंअंडर-17 फुटबॉल टूर्नामेंट, युवा शिखर सम्मेलन, मैत्री शहर कॉनक्लेव: युवा राजनयिक मंच, फिल्म महोत्सव जैसे कार्यकलापों का आयोजन किया जा रहा है। विदेशमंत्री सुषमा स्वराज के अनुसार ब्रिक्स की अध्यक्षता के दौरान मंत्री, आधिकारिक, तकनीकी और ट्रैक-2 स्तर की पचास से अधिक बैठकें आयोजित की गर्इं। उन्होंने कहा कि ब्रिक्स की अध्यक्षता के लिए भारत का विषय ‘बिल्डिंग रिस्पांसिव, इनक्लूसिव एंड कलेक्टिव सॉल्यूशंस’ (ब्रिक्स) है। ब्रिक्स नेताओं ने 4 सितंबर 2016 को हांगझाऊ में जी-20 शिखर सम्मेलन के बाद मुलाकात की। नेताओं ने वैश्विक राजनीति, सुरक्षा, आर्थिक और वैश्विक शासन और आपसी हितों के महत्त्वपूर्ण मुद््दों पर विस्तृत विचार-विमर्श किया। इसके अलावा नेताओं ने ब्रिक्स में आपसी व्यापार, पर्यटन और यात्रा संबंधों को मजबूत बनाने पर भी विचार किया। साथ ही ब्रिक्स के नेताओं ने भारत की ब्रिक्स की अध्यक्षता और कार्यान्वयन की अच्छी गति तथा भारत की अध्यक्षता में भारत के शहरों व प्रांतों में आयोजनों के माध्यम से ब्रिक्स में लोगों के बीच आदान-प्रदान के सुदृढ़ीकरण सहित ब्रिक्स सहयोग एजेंडे के विस्तार की सराहना की। सूचना तकनीक, अंतरिक्ष अनुसंधान, सामरिक तथा परमाणु क्षेत्र में अनेक उपलब्धियां हासिल कर भारत ने अपनी महत्त्वपूर्ण स्थिति बनाई है। वैश्विक मंदी में जब अमेरिका जैसे देशों की आर्थिक संस्थाएं दिवालिया हो रही थीं, तब भी भारत के वाणिज्यिक संस्थान पूरी गति से काम कर रहे थे। इस अवधि में देश की विकास दर की गति थोड़ी धीमी जरूर पड़ी, पर आज हम पुन: नौ-दस फीसद की विकास दर प्राप्त करने की ओर अग्रसर हैं। वर्तमान में विश्व के तीस तेजी से विकसित होते शहरों में से दस शहर भारत में हैं। भारत से जुड़ी ये स्थितियां ब्रिक्स के लिए लाभप्रद हैं। ब्रिक्स के संदर्भ में भारत के अन्य सदस्य देशों से द्विपक्षीय संबंध को देखें तो भारत और ब्राजील के मध्य अस्सी लाख डॉलर का वार्षिक व्यापार होता है। कुछ समय पहले भारत तथा ब्राजील के मध्य सूचना प्रौद्योगिकी, नैनो प्रौद्योगिकी, शिक्षा तथा द्विपक्षीय व्यापार के क्षेत्र में समझौते हुए हैं, जिससे दोनों देश लाभान्वित हुए हैं। इसी प्रकार ब्रिक्स का नया सदस्य दक्षिण अफ्रीका भी भारत का प्रमुख वाणिज्यिक सहयोगी है। जहां तक चीन का प्रश्न है, भारत तथा चीन के बीच लगभग तीन सौ वस्तुओं का व्यापार होता है। दक्षिण एशिया में दोनों देशों की स्थिति बराबर मजबूत हुई है और इसी कारण दोनों कई मायनों में प्रतिस्पर्धी भी हैं। सीमा संबंधी विवाद, पाकिस्तान से चीन की मित्रता तथा रूस और अमेरिका से भारत की मित्रता आदि कुछ ऐसी स्थितियां हैं जिनके कारण भारत और चीन के मध्य विश्वास का रिश्ता कायम नहीं हो पा रहा है। फिर भी दोनों देश व्यापारिक हितों को लेकर सजग हैं और इस पर किसी भी प्रकार की आंच नहीं आने दे रहे हैं। रूस के साथ तो हमारे संबंध जगजाहिर हैं। इससे दोनों देशों के बीच लाभकारी स्थितियां निर्मित हो रही हैं। ब्रिक्स के गोवा शिखर सम्मेलन पर दुनिया की नजरें टिकी हुई हैं। इसके कई कारण हैं। सकल राष्ट्रीय उत्पाद की दृष्टि से भारत ब्रिक्स-सदस्यों में दूसरे स्थान पर है, जबकि चीन प्रथम स्थान पर। रूस जहां क्षेत्रफल की दृष्टि से विश्व में प्रथम स्थान पर है, वहीं जनसंख्या की दृष्टि से चीन और भारत क्रमश: पहले और दूसरे स्थान पर हैं। ब्रिक्स देशों की सामूहिक शक्ति सदस्य-राष्ट्रों की अपनी-अपनी क्षमता का परिणाम है। सदस्य देशों की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इनकी अर्थव्यवस्थाएं एक दूसरे की पूरक हैं। जहां भारत और चीन ऊर्जा के सबसे बड़े उपभोक्ता देश हैं, वहीं रूस व ब्राजील ऊर्जा के सबसे बड़े उत्पादक राष्ट्र हैं। ब्राजील व रूस जहां खनिज और कच्चे माल के संदर्भ में समृद्ध हैं, वहीं चीन और भारत सेवा तथा विनिर्माण क्षेत्र में आगे हैं। भारत और ब्राजील जहां कृषि उत्पादन में अग्रणी राष्ट्र हैं, वहीं रूस तेल और प्राकृतिक गैस उत्पादन में अग्रणी है। ये सारी बातें ब्रिक्स के उज्ज्वल भविष्य की ओर संकेत कर रही हैं। यहां यह बताना भी महत्त्वपूर्ण होगा कि ब्रिक्स देशों की सम्मिलित जनसंख्या विश्व की कुल जनसंख्या का लगभग चौवालीस प्रतिशत है। ब्रिक्स देशों का कुल क्षेत्रफल विश्व का छब्बीस प्रतिशत है। विश्व के कुल जीडीपी में लगभग बीस प्रतिशत भागीदारी ब्रिक्स देशों की है तथा वर्ष 2020 तक इनका कुल जीडीपी पचास खरब डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है। ब्रिक्स ने अपने दो नए वित्तीय संस्थानों ‘न्यू डेवलपमेंट बैंक’ व ‘आकस्मिक रिजर्व व्यवस्था’ को आकार देना शुरू कर दिया है। न्यू डेवलपमेंट बैंक का मुख्यालय शंघाई में स्थापित किया जा चुका है, जिसका प्रथम अध्यक्ष बनने का गौरव प्रख्यात बैंकर केवी कामथ को प्राप्त हुआ है। आपसी सामंजस्य ब्रिक्स के स्वर्णिम भविष्य की ओर संकेत करता है। ब्रिक्स के सभी पांच सदस्य-देश जी-20 के भी सदस्य हैं और वैश्विक आर्थिक मंदी के प्रभावों को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। ब्रिक्स के सदस्य राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय मुद्र्राकोष तथा विश्व बैंक में भी लोकतंत्रीकरण के लिए प्रतिबद्ध हैं। पर ब्रिक्स के कुछ अंतर्विरोध भी हैं, जो इसे राजनीतिक व कूटनीतिक रूप से कमजोर करते हैं। भारत-चीन के बीच सीमा विवाद व पाकिस्तान के आतंकवाद के प्रति चीन का दोहरा रवैया तथा रूस-चीन के बीच विभिन्न मुद््दों पर मतभेद ब्रिक्स के भविष्य को प्रभावित कर सकते हैं।

संघ मुक्त भारत का आह्वान दिवास्वप्न है

डॉ. अरूण जैन
प्रधानमंत्री मोदी ने जब से कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया, बिहार के मुख्यमंत्री और मोदी के धुर विरोधी नीतीश कुमार ने भी राग अलापा संघ मुक्त भारत का। साथ ही जोड़ दिया नशा मुक्त बिहार। अब नीतीश कुमार जी से कोई पूछे कि नशा मुक्त बिहार बनाने के चक्कर में उन्होंने बिहार में शराब पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया, हजारों करोड़ की राजस्व की हानि तो हुई ही साथ ही बिहार में जहां अधिकांश लोग पान, तम्बाकू, बीड़ी व चबाने वाले तम्बाकू के बिना रह ही नहीं सकते वहां शराब बन्दी का क्या और कितना फायदा होगा। एक सूचना के अनुसार बिहार में शराब बन्दी के बाद से ही ड्रग्स व अन्य प्रकार के नशे का अवैध कारोबार खूब फलफूल रहा है। हो सकता है कि इसमें सरकार में सम्मिलित सफेदपोश लोग भी शामिल हों किन्तु कहा तो यही जायेगा कि कुएं से निकले, खाई में गिरे। खैर, अब मूल विशय पर आते हैं। सन् 1925 में जब डॉ. केशव बलिराव हेडगेवार ने विजयदशमी के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी, तब से लेकर अब तक संघ की इतनी शाखाएं हो गयी हैं कि एक विशाल वट वृक्ष की तरह कौन सी मूल शाखा है, पहचानना ही मुश्किल है। संघ मूलत: एक सामाजिक संघटन है जिसमें सदस्य स्वयं की प्रेरणा से बनते हैं, किसी प्रलोभन अथवा लालच के कारण नहीं। एक बार संघ की शाखा में जाकर ध्वज प्रणाम करके कोई भी स्वयंसेवक बन सकता है, बशर्ते वो भारत माता से प्रेम करता हो, भारत माता की जय और वन्दे मातरम बोलता हो, आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त न हो और समाज सेवा की भावना से ओतप्रोत हो। संघ मुक्त भारत की परिकल्पना करना ही ऐसा कार्य है मानो दिन में जागते हुए स्वप्न देखना। संघ भारत की आत्मा है, कोई भी कैसे आत्मा को शरीर से अलग करने की सोच सकता है। संघ आत्मा है और भारत शरीर है, जब आत्मा शरीर से पृथक होती है तो निष्प्राण शरीर रह जाता है। भारत में शिक्षा के क्षेत्र में अनेकों शिक्षाविद् संघ से जुड़े हैं अथवा संघ ने दिये हैं। अनेकों वरिष्ठ चिकित्सक, अभियन्ता, अधिवक्ता, न्यायाधीश, समाज सुधारक, चिन्तक, विचारक, सैनिक, मजदूर और भारत के सभी वर्गों में, सभी प्रकार की विधाओं में संघ के स्वयंसेवक हैं और अपना कार्य पूरी निष्ठा के साथ कर रहे हैं। जब भी देश में कोई दैवीय आपदा अथवा दुर्घटना की स्थिति होती है, सर्वप्रथम संघ का स्वयंसेवक तैयार होता है सहायता के लिये। चाहे उत्तराखण्ड की आपदा हो, भूकम्प हो, बाढ़ हो, संघ सदैव सहायता के लिये सर्वप्रथम आगे आया। देश ही नहीं विदेशों में भी संघ विभिन्न नामों से सेवा के कार्य कर रहा है। इस देश को दो ऊर्जावान प्रधानमंत्री संघ की ही देन है, दर्जनों मुख्यमंत्री, राज्यपाल व मंत्री प्रत्यक्ष रूप से संघ से जुड़े हैं। इन सबकी प्राथमिक पाठशाला संघ की शाखा है। संघ मात्र एक संघटन का नाम ही नहीं अपितु भारत का तंत्रिका तंत्र है।  संघ का मानना है कि देश मात्र कानूनों से नहीं चलता, देश को चलाने के लिये संस्कारों की आवश्यकता होती है और संस्कार देश के प्रत्येक देशवासी में होना आवश्यक है। संस्कार धर्म से आते हैं, धर्म मानव की जीवन पद्धति का द्योतक होता है। संघ के प्रचारक व मनीशी स्व. पं. दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार प्रत्येक मानव जीवन को पेट भरने के लिये अन्न, मस्तिष्क के लिये विचार व शरीर के लिये वस्त्रों की आवश्यकता होती है। इन सबकी भरपाई व्यक्ति कुसंस्कारों के द्वारा भी कर सकता है अर्थात छीन कर खाना, मस्तिष्क में कुविचारों का होना तथा संस्कारहीन वस्त्रों का प्रयोग। इसके विपरीत यदि कोई जीवन के चार पुरुषार्थों- धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को अपने जीवन का आधार मान कर जीवन यापन करना सीख ले तो उसके जीवन में कभी भी कोई कमी नहीं आ सकती, इसी मार्ग से उसकी आत्मा को संस्कार, पेट को भोजन व मस्तिष्क को विचार मिल सकेंगे। इसके विपरीत यदि व्यक्ति कामनाओं के वशीभूत होकर काम, क्रोध, लोभ व मोह के प्रति आसक्त हो जाये तो जीवन के साथ संस्कारों का नष्ट होना निश्चित है। प्रत्येक कर्म का आधार धर्म ही होना चाहिये तभी संस्कार जीवित रहेंगे तथा मानव जीवन परहित के काम आ सकता है। किन्तु संघ रहित भारत की परिकल्पना करने वाले नीतीश कुमार सम्भवत: अल्पज्ञानी होने के साथ राजनीति के भी कच्चे खिलाड़ी ही साबित होन के कगार पर हैं। महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबन्ध लगा, इन्दिरा गांधी ने आपातकाल में संघ पर प्रतिबंध लगाया, रामजन्म भूमि आन्दोलन में संघ पर प्रतिबन्ध लगा किन्तु प्रत्येक बार संघ नई ऊर्जा, नई ताकत के साथ उभरा और संघ विरोधियों को मुंह की खानी पड़ी, यही हश्र नीतीश कुमार का भी होगा।

विश्व भर के सैलानियों को आकर्षित करता है ज्यूरिख


डॉ. अरूण जैन
कुदरत ने ज्यूरिख को प्राकृतिक सौंदर्य का वरदान तो दिया ही है, साथ ही यहां के रखरखाव व पर्यटकों की सुविधा के लिए कुशल प्रबंधन का योगदान भी कम नहीं है। तभी तो स्विट्जरलैंड का यह शहर विश्व भर के सैलानियों के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ है तथा पर्यटन यहां एक उद्योग की तरह फलफूल रहा है। यहां का मुख्य आकर्षण ज्यूरिख झील है। यहां तक आने के लिए आप नदी मार्ग का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। नदी के किनारे खरीदारी के लिए बड़ी-बड़ी दुकानें, खाने-पीने के लिए रेस्तरां तथा रहने के लिए होटल और दूसरे किनारे पर मछुआरों के साफ-सुथरे रंगरोगन किए घर भी हैं। नदी में पारदर्शी छतों व दीवारों वाली तैरती नावें पर्यटकों को घुमाती हैं व गाइड शहर का इतिहास बताता है।  शॉपिंग माल के बाद सबसे अधिक पर्यटक झील पर ही दिखाई देते हैं। यह यहां की तीसरी सबसे बड़ी झील है। इसमें बत्तखें तथा जलमुर्गियां अठखेलियां करती रहती हैं। कितना भी समय झील के किनारे बिताओ, प्राकृतिक सौंदर्य देखकर मन ही नहीं भरता। पर्यटकों को चाहे ज्यूरिख के आसपास के शहरों की यात्रा करनी हो या आल्पस की बर्फ से ढकी चोटियों को करीब से देखना हो या इंटरलेकन के प्राकृतिक सौंदर्य का दर्शन करना हो अथवा फिर जुंगफ्रा की घाटियों के ऊपर हवा में तैरती ट्रालियों में सैर करनी हो, हर जगह के लिए तीव्र व सुविधाजनक तथा आरामदेह लेकिन महंगी रेल सेवा उपलब्ध है। ज्यूरिख से लूसर्न तक का मार्ग बेहद सुंदर है। स्विट्जरलैंड में किसी भी पहाड़ की चोटी तक जाना हो, किसी भी शहर में पहुंचना हो तो यातायात के साधन उपलब्ध हैं, जोकि आरामदायक और तेज हैं। कहीं भी पैदल आने-जाने में समय बरबाद करने की आपको जरूरत नहीं पड़ेगी। पितालुस पर्वत की चोटियों के नीचे खुले मुंह वाली गुफाएं बनी हुई हैं। यहां से चारों ओर का सुंदर दृश्य देखा जा सकता है।  स्विट्जरलैंड में पर्यटन का विस्तार एक फलते−फूलते उद्योग की तरह हुआ है जो दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा है। हर होटल और टूरिस्ट सेंटर पर रंग-बिरंगे ब्रोशर और नक्शे पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं तथा पहाड़ की चोटी तक पहुंचाने के लिए यातायात के साधन उपलब्ध हैं। समूचे यूरोप में हर सार्वजनिक स्थान पर चाहे वह स्टेशन हो या पार्क, पहाड़ हो या रेस्तरां, साफ-सुथरे सुलभ शौचालयों की व्यवस्था है। प्राकृतिक सौंदर्य की छवि को बनाए रखने में यहां के निवासियों का कम योगदान नहीं है। इस शहर में होटलों की अच्छी भरमार है। पांच सितारा से लेकर एक सितारा तक और अपार्टमेंट होटल से लेकर बोर्डिंग हाऊस तक यहां आसानी से उपलब्ध हैं। इन होटलों में आरक्षण करवा कर स्विट्जरलैंड आना सुविधाजनक रहता है।

विकास का पैमाना क्या हो

डॉ. अरूण जैन
केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें, आजकल सभी विकास का राग अलाप रही हैं। लेकिन इस विकास का लाभ आम आदमी को कितना मिल रहा है यह विचारणीय विषय है। विकास का पैमाना क्या हो? यह शुरू से ही विवाद का विषय रहा है। पर आज देश या प्रदेश के विकास का पता उस देश या प्रदेश की दौलत, उसके लोगों की खुशहाली और अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसकी हैसियत से चलता है। कोई देश या प्रदेश कितना दौलतमंद है, इसका पता उसके कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी), भुगतानों की बकाया रकम, विदेशी-विनियिम-मुद्रा की सुरक्षित निधि, आर्थिक विकास की दर और प्रतिव्यक्ति आय से भी चलता है। इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय व्यापार में उसकी हिस्सेदारी और इन दोनों क्षेत्रों में उसके विकास की दर भी यह संकेत देती है कि उसकी आर्थिक स्थिति कितनी मजबूत है और उसमें कमाई हुई दौलत को संभाले रखने और उसे लगातार बढ़ाते रहने की सामर्थ्य है या नहीं। ये आर्थिक संकेत वैसे अपने आप में काफी अहमियत रखते हैं, लेकिन ये काफी कुछ छिपा जाते हैं, जैसे देश या प्रदेश के आम आदमी की दशा और बेरोजगारी का इन संकेतकों से कुछ पता नहीं चलता है। ‘प्रतिव्यक्ति आय’ लोगों की औसत आय को बताती है। लेकिन वह यह नहीं बताती कि हर देशवासी के पास उतना धन है। इसका आंकड़ा अमीरों और गरीबों, दोनों की आमदनियों के औसत से निकाला जाता है। इससे यह भी नहीं पता चलता कि किसी एक देश या एक राज्य या एक क्षेत्र की खुशहाली दूसरे देशों की तुलना के लिए एक जैसी है। आजकल एक नया मानदंड अपनाया जाने लगा है। खरीद-क्षमता में समानता। इस कार्य के लिए कई इससे भी ज्यादा पेचीदा तरीके अपनाए जाने लगे हैं। पर ये सब मिल कर भी आम आदमी के दैनिक जीवन के चंद पहलुओं को ही दर्शा पाते हैं। ये आंकड़े इस बात पर बिल्कुल प्रकाश नहीं डालते कि लोगों ने जो जीवन-स्तर प्राप्त कर लिया है, उसे वे बनाए रख सकते हैं या नहीं। भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश में जहां मजदूरों, किसानों, बुनकरों और तमाम छोटे-मोटे कारीगरों की संख्या कुल जनसंख्या का दो तिहाई से भी अधिक हो, वहां जीडीपी या प्रतिव्यक्ति आय के पैमाने से उनकी दशा को नहीं जाना जा सकता है। इस बहुसंख्यक आबादी के जीवन से जुड़े मुद््दों की पहचान करने के लिए जो मानदंड अपनाए जा सकते हैं वे हैं- इन लोगों को किस प्रकार का भोजन मिलता है और उसकी पौष्टिकता की स्थिति क्या है? शिशुओं की मृत्यु दर, पीने के पानी की सुलभता और गुणवत्ता, रहने की जगह, लोगों के आवासों की श्रेणियां, रोग के आक्रमण उसके दुष्प्रभाव, असमर्थताएं और गड़बडिय़ां, चिकित्सा सुविधाओं की सुलभता, साक्षरता, प्राथमिक स्कूलों की संख्या और पढ़ाई का स्तर, आवागमन की सुविधा, बिजली की उपलब्धता और तेजी से बदलते आर्थिक माहौल में समाज की मांगों के हिसाब से युवाओं को तरह-तरह के कारीगरी व हुनर को सिखाने और प्रशिक्षित करने के केंद्रों की संख्या बेरोजगारी की तुलना में कितनी है। आम जनता के जीवन में सुधार लाने के लिए जरूरी कई और सुझावों का जिक्र भी किया जा सकता है। महात्मा गांधी का कहना था कि देश के लिए किए गए हर काम की कसौटी यह होनी चाहिए कि उसके द्वारा सबसे गरीब और पिछड़े आदमी की आंखों के आंसू पोंछे जा सकते हैं या नहीं। उनका मानना था कि जब ऐसा दिन आएगा तभी यह माना जाएगा कि हमारा राष्ट्र सुखी राष्ट्र हो गया है। गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी, अज्ञान के निराकरण के साथ-साथ जब तक हर नागरिक को आगे बढऩे का अवसर नहीं मिलेगा तब तक देश की प्रगति अवरुद्ध रहेगी। पर सामाजिक और आर्थिक विकास को देखें तो बड़ी भयानक तस्वीर सामने आएगी। जनसंख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है, बेरोजगारी और गरीबी बढ़ रही है। देश की एक चौथाई जनता गरीबी रेखा के नीचे है। भोजन, वस्त्र के अलावा पेयजल, मनुष्य के रहने लायक मकान, चिकित्सा सेवा, आवागमन की सामान्य सुविधा जैसी न्यूनतम आवश्यकताएं भी पूरी नहीं हो पा रही हैं। अब सवाल यह उठता है कि प्रचलित लोकतांत्रिक प्रक्रिया से क्या यह तस्वीर बुनियादी रूप से बदल सकती है। क्या केंद्र और राज्य सरकारें इसके लिए कोई ठोस उपाय कर रही हैं। हमारी संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार, जनकल्याण के लिए तमाम योजनाओं के मद में केंद्र सरकार राज्य सरकारों को सिर्फ धन मुहैया कराती है। इन योजनाओं को लागू करने का जिम्मा राज्य सरकारों का है। लेकिन इन योजनाओं का लाभ वास्तविक जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच पा रहा है। कई राज्यों में इस कदर लूट चल रही है लोकतांत्रिक सत्ता का मतलब ही हो गया है अपना और अपने लोगों को दौलतमंद बनाना। उनकी दौलत तो दिन दूनी रात चौगुनी की रफ्तार से बढ़ जाती है, पर आम जनता गरीबी व बेबसी में पिसती रहती है। आखिर हमारी प्रचलित व्यवस्था और उसका दर्शन क्या है? यह एक बुनियादी सवाल है, क्योंकि पहली बात यह है कि क्या कोई प्रचलित व्यवस्था भी है? देश की पैंसठ फीसद आबादी गांवों में रहती है और पैंतीस फीसद शहरों में। इस पैंतीस फीसद का एक तिहाई हिस्सा औद्योगिक मजदूर है और कुछ चौथे या तीसरे वर्ग के कर्मचारी हैं। इसके अलावा छोटे-मोटे कारोबारी और उनसे जुड़े हुए लोग हैं। इनमें टैक्सी, टैम्पो और रिक्शाचालक आदि हैं। शहरी क्षेत्रों में भी गरीबी और गंदगी है, गंदी बस्तियां हैं, फिर भी गांव से शहर की ओर लगातार पलायन हो रहा है। इस आबादी के एक छोटे-से हिस्से को वहां रोजगार मिल जाता है। शहरों की ओर ग्रामीण आबादी के पलायन की प्रमुख वजह यही है। शहरों में एक छोटा-सा हिस्सा पाश्चात्य रहन-सहन की दृष्टि से काफी सुखी है। इनमें सरकारी अधिकारी, कर्मचारी और विश्वविद्यालयों, विद्यालयों के शिक्षक, कर्मचारी, कुछ व्यापारी और उद्यमी भी शामिल हैं। राजधानियों में सरकारी अधिकारी और मंत्री भी रहते हैं। इसलिए अगर कोई व्यवस्था है तो वह इन्हीं लोगों से बनी है, जिनका हर दस साल बाद वेतन लगभग दोगुना हो जाता है। सांसद और विधायक तो खुद अपना वेतन-भत्ता मनमाने ढंग से बढ़ा लेते हैं। इस व्यवस्था का दर्शन शिक्षित और आर्थिक दृष्टि से संपन्न वर्ग का दर्शन है। ग्रामीण क्षेत्रों का भी जो विशिष्ट वर्ग है वह लगातार शहरी क्षेत्रों की ओर खिंचा जा रहा है। इस व्यवस्था का दर्शन यही है कि जितना हमारे पास हो, उससे हम ऊपर उठें। परिवर्तनकारी जमातों का कहना है कि जो उपलब्ध है, वह और भी अधिक लोगों को उपलब्ध कराया जाए अर्थात लाभों का वितरण हो। सारी राजनीति, सारे विशेषाधिकार एक छोटे तबके तक सीमित है। यह आवश्यक नहीं है कि ये सभी पूंजीपति हों। पर सबके सब विशेषाधिकार-युक्त हैं और सार्वजनिक क्षेत्र ही औद्योगिक संरचना का सबसे बड़ा हिस्सा है। देश का विशिष्ट वर्ग चाहता है कि तकनीक और भी अधिक आधुनिक हो, औद्योगीकरण बढ़े तथा कृषि का अधिक से अधिक यंत्रीकरण हो। आज भारत की आधुनिकता का मर्म यही है। गांधीजी की कल्पना इससे बिल्कुल भिन्न थी। पर जवाहरलाल नेहरू के जमाने में इन्हीं विद्वानों ने या इनके ही जैसे विद्वानों ने गांधीजी के मार्ग को दकियानूस माना और जवाहरलाल की आधुनिक दृष्टि के प्रशंसक बने रहे। परिणाम सामने है। गरीबी बढ़ती जा रही है। अगर वास्तविक आकलन हो तो कम से कम चालीस प्रतिशत जनता आज भी गरीबी रेखा के नीचे जी रही है। बेकारी भी बढ़ती जा रही है। साथ-साथ विषमता भी कम होने के बदले बढ़ ही रही है। इसीलिए अब सबका ध्यान फिर से गांधीजी के विचारों की ओर जाने लगा है। उच्च वर्ग के बहुत-से विद्वानों को भी ऐसा महसूस होने लगा है कि गांधीजी के दिखाए रास्ते को छोड़ कर भारत ने बहुत गलती की है। अत: ये सब लोग भी गांधीजी की विचारधारा से मिलते-जुलते विचार रखने लगे हैं। जैसे कि कृषि-विकास हमारी विकास योजना का मुख्य आधार बनना चाहिए। इसकी बुनियाद पर ही गृह उद्योगों और ग्रामोद्योगों की एक रूपरेखा गांवों के विकास के लिए बनानी चाहिए। उसमें बिजली, परिवहन और बाजार आदि की सुविधाएं भी उपलब्ध कराई जाएं। बड़े उद्योगों की उपेक्षा करने की बात नहीं है, पर अपने देश में जहां पूंजी की बहुत कमी हो और मानव-शक्ति बड़े पैमाने पर बेकार पड़ी हो तथा देश की अधिकांश आबादी गांवों में बसती हो, वहां योजना की बुनियाद ही बदलनी चाहिए। मगर यह बात खासतौर पर ध्यान में रखनी चाहिए कि आज भी हमारे उच्चवर्गीय और सत्ताधारी लोग आवश्यकताओं को निरंतर बढ़ाते जाने, अधिकाधिक प्राप्त करने की होड़ में लगे रहने की ‘विकास’ और ‘प्रगति’ की पश्चिम की पुरानी अवधारणाओं पर मोहित हैं। यही वजह है कि हमारी योजनाएं तथा विकास के सारे कार्यक्रम उलटे हमारी समस्याओं को अधिक पेचीदा बना रहे हैं। जरूरत इस बात की है कि सभी देशवासियों को सुरक्षित और सुखद वर्तमान तो मिले ही, बेहतर भविष्य भी मिले। यह तभी संभव है जब देश की जनता में भी अपने देश को बेहतर बनने की प्रबल भावना जगे। दुनिया के जो देश विकसित बने हैं, उसमें वहां की जनता का भी योगदान है। अमेरिका, जापान, चीन, दक्षिण कोरिया आदि देश जिस प्रकार कार्य योजना बना कर आगे बढ़े हैं, हम भी उसी प्रकार कार्य योजना बना कर और लागू करके आगे बढ़ सकते हैं।
लालबत्ती का मोह नहीं छोड़ पाता कोई भी राजनेता

डॉ. अरूण जैन
भारत में वाहनों पर लाल बत्ती का उपयोग रौब और हैसियत जताने के लिए किया जाता है। बताया जाता है कि ब्रिटिश राज में लाट साहब, राय बहादुर और अंग्रेज हुक्मरान लालबत्ती के वाहनों में आवाजाही करते थे। उनको वहां देखते ही सडक़ों पर सन्नाटा छा जाता और लोग फुटपाथों पर सर झुका कर उन्हें निर्बाध रास्ता देते थे। आजाद भारत में भी लालबत्ती का मोह हमने अभी छोड़ा नहीं है। विशेषकर सरकारी अफसर और नेता स्वयं को किसी अंग्रेज हुक्मरान से कम नहीं समझते। सरकार ने संवैधानिक पदों पर विराजमान कुछ लोगों के लिए इस महत्वपूर्ण सुविधा का इंतजाम किया है जिसका सरेआम दुरुपयोग होता देखा जा सकता है। अनधिकृत सरकारी अफसर और जन प्रतिनिधि अपने घरेलू कार्यों तक में इसका उपयोग करते हैं। आजाद भारत के इन बेताज बादशाहों को कोई रोकने टोकने वाला नहीं है। यहाँ तक कि उनके बेटे, रिश्तेदारों और नौकरों को भी धड़ल्ले से लालबत्ती के वाहनों में घूमते देखा जा सकता है। लालबत्ती स्टेटस सिम्बल के रूप में जानी−पहचानी जाती है। वाहनों पर लालबत्ती लगाने के सम्बन्ध में केन्द्रिय मोटर यान के नियम और कानून−कायदे बिलकुल साफ हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने लालबत्ती के उपयोग के सम्बन्ध में कई बार अपनी तल्ख टिप्पणियाँ दी हैं। मगर लालबत्ती की महिमा अपरमपार है। धनसुख और सत्तासुख की तरह लालबत्ती का सुख निराला है। यह मानव को आत्मिक और सांसारिक दोनों सुख प्रदान करता है। लालबत्ती केवल उन्हीं वाहनों पर लगायी जा सकती है जिसके लिये वे अधिकृत हैं। भारत के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्रीमंडल के सदस्य, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, सेनाध्यक्ष नीति आयोग के अध्यक्ष, पूर्व प्रधानमंत्री, लोकसभा और राज्य सभा में नेता प्रतिपक्ष, राजदूत और हाई कमिश्नर आदि। इन सभी को चमकने वाली लाल बत्ती लगने का अधिकार है। बिना चमकने वाली लाल बत्ती के लिए मुख्या चुनाव आयुक्त, आडिटर जनरल, राज्य सभा उप सभापति, लोकसभा उपाध्यक्ष, केंद्र के राज्य मंत्री, नीति आयोग के सदस्य, अल्पसंख्यक, अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष, अटॉर्नी जनरल, केबिनेट सचिव, तीनों सेनाओं के प्रमुख, सेंट्रल एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष, लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष, हाई कोर्ट के मुख्या न्यायाधीश, सॉलिसिटर जनरल आदि अधिकृत है। राज्यों में चमकने वाली लालबत्ती लगाने का अधिकार राज्यपाल, मुख्यमंत्री, विधानसभाध्यक्ष, कैबिनेट के सदस्य, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, न्यायाधीशगण आदि को है। इसके अलावा मुख्य सचिव, पुलिस महानिदेशक, एडवोकेट जनरल, लोकायुक्त, नेता प्रतिपक्ष, राज्य मंत्री स्तर के दर्जे के जन प्रतिनिधि, मानवाधिकर आयोग के अध्यक्ष, रजिस्ट्रार जनरल, राज्य लोक सेवा आयोग अध्यक्ष आदि लालबत्ती का उपयोग करने के लिये अधिकृत हैं। लालबत्ती स्टेट्स सिम्बल की प्रतीक है। महत्वपूर्ण व्यक्तियों को अपने वाहनों पर निर्बाध रूप से आवागमन के लिये लालबत्ती के प्रयोग की अनुमति दी गई है। मगर आजकल हर चौराहों व रास्तों पर लालबत्ती लगी गाडिय़ाँ सरे आम मिल जायेंगीं। जितने लोगों को यह सुविधा प्रदान की गई है उससे कई गुना अधिक वाहन आपको सडक़ों पर दौड़ते मिल जायेंगे। ट्रैफिक सिग्नल पर सिपाही के हाथ लालबत्ती को देखकर सलामी की मुद्रा में अपने−आप आ जाते हैं। चाहे कोई गुण्डा बदमाश ही उस गाड़ी में क्यों नहीं बैठा हो। राजस्थान में लालबत्ती गाडिय़ों की सुविधा सीमित महत्वपूर्ण जन प्रतिनिधियों और उच्च पदस्थ लोगों को है। लेकिन देखा यह गया है कि जिन लोगों को लालबत्ती मिली है उनके परिजन इस सुविधा का दुरुपयोग करते आपको हर समय मिल जायेंगे। बड़े सवेरे स्कूल−कॉलेजों में बच्चों को छोडऩे का कार्य इन वाहनों के जिम्मे है। यहाँ तक कि सब्जी बाजार, ब्यूटी पार्लर और मनोरंजन स्थलों के बाहर भी आपको बिना रोक−टोक के लालबत्ती लगी गाडिय़ाँ मिल जायेंगी। प्रदेश में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी लालबत्ती को अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं। राजस्थान प्रशासनिक और पुलिस सेवा के अधिकारी भी लालबत्ती का मोह पाले हुए हैं। विभागाध्यक्ष स्तर के अधिकारी भी लालबत्ती का प्रयोग करना अपना कर्तव्य व ड्यूटी समझते हैं। जन प्रतिनिधियों का शौक भी निराला है। वे बिना लालबत्ती के अपने घर से निकलना अपनी तौहीन समझते हैं। सांसदों और विधायकों का कार्य जनसेवा का है। उन्हें यह सुविधा उपलब्ध नहीं है। लेकिन वे इस सुविधा का धड़ल्ले से उपयोग करते मिल जायेंगे। पूर्व मंत्री, पूर्व सांसद और विधायकों तक को लालबत्ती का उपयोग करते देखा जा सकता है।

इंदिरा की तरह एक व्यक्ति का शासन है नरेंद्र मोदी का

डॉ. अरूण जैन
बहुत सारी भयंकर गलतियां सीधे अपराधकर्ताओं के पश्चाताप द्वारा शमित हुई हैं। युद्धोत्तरकाल के जर्मनी ने हिटलर के अत्याचारों के लिए माफी मांगी थी और यहां तक कि नुकसान की भरपाई के लिए कीमत भी चुकायी थी। ऐसा नहीं कि उसके पापों को भुला दिया गया लेकिन आमतौर पर लोगों ने महसूस किया कि उनके माता−पिता एवं दादा−दादी के बच्चों एवं पोते−पोतियों ने सुधार करने की कोशिश की। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ऑपरेशन ब्लूस्टार के लिए खेद प्रकट करने अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में गए। ऑपरेशन ब्लूस्टार के दौरान भारतीय सेना ने स्वर्ण मंदिर में घुसकर जरनैल सिंह भिंडरावाले समेत आतंकवादियों को मार डाला था। राज्य देश के अंदर कोई और राज्य बनने की इजाजत नहीं दे सकता था। लेकिन आपातकाल, जो कि कोई छोटा अपराध नहीं था, अब तक का सबसे काला अध्याय बना हुआ है। और कांग्रेस, विशेषकर राजवंश की ओर से इसके लिए खेद व्यक्त करते हुए एक शब्द भी नहीं कहा गया है। गैर कांग्रेस पार्टियां यदा−कदा बयान जारी करती रहती हैं और विरोध प्रदर्शन करती हैं। लेकिन कांग्रेस पार्टी, जो उस वक्त सत्ता में थी, ने अब तक मौन साध रखा है। आखिरकार आपातकाल क्यों लगा? दरअसल इसके पीछे इलाहाबाद हाईकोर्ट का वह फैसला था, जिसमें चुनावी अपराध के लिए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध करार दिया गया था। कोर्ट के फैसले को मानने की बजाय इंदिरा गांधी ने ऐसा आदेश देने संबंधी न्यायपालिका के अधिकारों को ही खत्म कर दिया था। संविधान गलत या सही के बारे में फैसला करने का अधिकार न्यायपालिका को देता है, लेकिन उन्होंने संविधान को ही निलंबित कर दिया था। अगर इंदिरा गांधी अपने प्रारंभिक निर्णय के अनुसार इस्तीफा देकर माफी मांगने के लिए जनता के पास जातीं तो वे अपार बहुमत से जीत सकती थीं। याद रखना होगा कि इंदिरा गांधी द्वारा पद छोडऩे के प्रारंभिक निर्णय का जगजीवन राम ने पुरजोर विरोध किया था। आपातकाल के दौरान की गई ज्यादतियों तथा जिस तरीके से वे तानाशाह बन गयी थीं, इसके कारण जनता गुस्से में थी। हालांकि उनके बेटे संजय गांधी एवं उनके चाटुकार बंसीलाल ने सरकार को अपनी जागीर की तरह चलाया और वे लोग किसी तरह की कोई आलोचना सुनने को तैयार नहीं थे। फिर भी जो कुछ भी हो रहा था उसके लिए आमतौर पर इंदिरा गांधी को निर्दोष और अनजान माना जाता रहा। स्थिति इस हद तक पहुंच चुकी थी कि पुलिस को ब्लैंक वारंट दे दिया गया था और पुलिस अपना व्यक्तिगत बदला साधने के लिए इस वारंट का इस्तेमाल कर रही थी। नतीजतन, बगैर सुनवाई के एक लाख से अधिक लोगों को गिरपफ्तार कर लिया गया था। राजनीतिक नेताओं समेत विरोधियों के घरों एवं व्यावसायिक परिसरों में छापा मारा जा रहा था। यहां तक कि एक तानाशाह शासक पर आधारित फिल्म आंधी पर भी रोक लगा दी गई थी, क्योंकि इसकी कहानी इंदिरा गांधी की भूमिका से मिलती−जुलती थी। अगर मुझे आज की पीढ़ी को आपातकाल के बारे में बताना हो तो मैं इस उक्ति को दुहराना चाहूंगा कि प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए निगरानी की जरूरत है। यह उक्ति 69 साल पहले भारत को मिली आजादी के वक्त से भी ज्यादा आज का सच है। किसी ने इस बात की कल्पना नहीं की थी कि हाईकोर्ट की निंदा के बाद प्रधानमंत्री संविधान को ही निलंबित कर देंगी जबकि उन्हें स्वेच्छा से पद छोड़ देना चाहिए था। पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री अपने सहयोगियों को अक्सर सलाह दिया करते थे: ढीले होकर बैठो, जकड़ कर नहीं। यही कारण था कि तमिलनाडु के अरियालूर में एक बड़ी रेल दुर्घटना होने के बाद उन्होंने रेल मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। जो कुछ भी हुआ था, उसकी नैतिक जिम्मेदारी उन्होंने स्वीकार की थी। इस बात की कल्पना करना मुश्किल है कि आज कोई भी इस परिपाटी का पालन करेगा। फिर भी दुनिया भारत को एक ऐसे देश के रूप में देखती है जहां मूल्य की व्यवस्था बरकरार है। संकीर्णता या शाही जीवन शैली इसका जवाब नहीं है। देश को आज उन बातों की ओर लौटना होगा जिसे महात्मा गांधी ने कहा था- असमानता लोगों को निराशा की ओर ले जाती है। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों को याद करने की जरूरत है। ब्रिटिश शासन को खत्म करने के लिए सभी साथ हो गए थे। मैं चाहता हूं उसी तरह की भावना गरीबी खत्म करने के लिए जगे। वरना, आजादी का मतलब कुछ अमीरों के लिए बेहतर जीवन बनकर रह जायेगा। अगर कुछ साल पहले इंदिरा गांधी का शासन एक व्यक्ति का शासन था तो आज नरेंद्र मोदी का है। अधिकांश अखबार और टेलीविजन चैनलों ने काम करने का वही तरीका अपना रखा है जो तरीका उन्होंने इंदिरा गांधी के शासनकाल के दौरान अपना रखा था। नरेंद्र मोदी का एक व्यक्ति का शासन अनिष्टसूचक है, क्योंकि भाजपा सरकार में किसी मंत्री की कोई हैसियत नहीं है और मंत्रिमंडल द्वारा साझा विचार−विमर्श की बात मात्र कागज पर है। आपातकाल जैसा शासन शुरू हो इसके पहले सभी राजनीतिक दलों को इसे रोकने के लिए एकजुट होना होगा। लेकिन अरूण जेटली जैसा व्यक्ति भी, जो आपातकाल से परिचित हैं और जेल भी गए थे, ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि ऐसा लगता है कि उनकी सोच संघ परिवार से निर्देशित नहीं है। मुझे नहीं लगता कि देश में फिर से आपातकाल लगाया जा सकता है क्योंकि जनता सरकार द्वारा संविधान में किये गये संशोधन ने इसे असंभव बना दिया है। फिर भी, ऐसी स्थितियां बनायी जा सकती हैं जो बगैर कानूनी स्वीकृति के आपातकाल जैसी हों। हालांकि जनमत इतना सशक्त हो चुका है कि ऐसा कदम उठाना संभव नहीं होगा। किसी भी तरह के तानाशाही एवं आपातकाल जैसी स्थिति के विरोध में जनता सडक़ पर उतर आयेगी। मूल रूप से संस्थाओं की शक्ति मायने रखती है। आपातकाल के पहले इनकी जो ताकत थी उसे फिर से नहीं हासिल कर पाने के बावजूद संस्थाएं इतनी सशक्त हैं कि अपनी आजादी पर किसी भी नियंत्रण की पहल का वे विरोध करेंगी। हाल के कई उदाहरण हैं, जिनसे ये उम्मीद बनती है। उत्तराखंड का मामला लें। सदन में शक्ति परीक्षण के एक दिन पहले विधानसभा निलंबित कर दी गयी। सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के आदेश को उनके अधिकार क्षेत्र के बाहर का करार दिया और विधानसभा को बहाल रखा। यहां तक कि महाराष्ट्र हाईकोर्ट ने भी संरक्षिका की तरह काम करने के बजाय दृश्यों को काटकर महज प्रमाण पत्र बांटने वाली एजेंसी की तरह काम करने के लिए सेंसर बोर्ड को फटकार लगायी। सेंसर बोर्ड ने फिल्म उड़ता पंजाब में 90 दृश्यों के आसपास काटने की अनुशंसा की थी जबकि हाईकोर्ट ने सिर्फ एक दृश्य काटने की अनुमति दी। ये उदाहरण इस बात को बल प्रदान करते हैं कि स्थितियां सुधर रही हैं और जल्द ही आपातकाल के पहले वाली सशक्तता फिर से लौटेगी। कोई भी शासक उन हरकतों को दुहराने का साहस नहीं करेगा जो इंदिरा गांधी ने की बल्कि उसे संविधान का सही अर्थों में पालन करना होगा। आपातकाल से मिला सबक खत्म नहीं हुआ है और जनता के बीच वही पुराना भरोसा बना हुआ है कि उनकी स्वतंत्रता पर रोक नहीं लगायी जा सकती और मतभिन्नता के उनके अधिकार में किसी तरह की कटौती नहीं की जा सकती।

एक साधारण भाषण से क्यों हीरो बना कन्हैया

डॉ. अरूण जैन
देशविरोधी नारे लगाने के आरोप में गिरफ्तार किए गए और अब जमानत पर छूटे देशद्रोह के आरोपी जेएनयूएसयू अध्यक्ष कन्हैया कुमार आज हीरो हैं। पर देश को ऐसे हीरोइन या हीरो की जरूरत नहीं है, क्योंकि यह क्षणिक है। यह नायकत्व व्यक्ति की शख्सीयत या उसके काम से उपजा नहीं है। यह नेताओं की ओछी राजनीति, मीडिया और हम-आप जैसे लोगों द्वारा थोपा गया नायकत्व है। कन्हैया को भी इसका अहसास है कि इस नायकत्‍व के दिन चार ही हैं। शायद तभी उन्होंने अपने भाषण में कहा भी कि भारत में लोग बातें जल्दी भूल जाते हैं। पॉलिटिक्स कन्हैया ने जेल से लौटने के बाद जेएनयू कैंपस में दिए गए अपने भाषण में ऐसा कुछ नहीं कहा जो क्रांतिकारी या नया हो। पर अरविंद केजरीवाल ने इसे जबरदस्त बताने में तनिक भी देर नहीं की। उधर, नीतीश कुमार भी पीछे नहीं रहे। उन्होंने भी कन्हैया को शुभकामनाएं दे डालीं। जाहिर है, कन्हैया की तारीफ या उनसे हमदर्दी के पीछे इन नेताओं का असल निशाना नरेंद्र मोदी ही हैं। असल में नेताओं ने (सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के) कन्‍हैया का मामला कानून तोडऩे का सामान्‍य मामला भर रहने ही नहीं दिया। इसे लेफ्ट बनाम राइट बना दिया गया। नेताओं की खेमेबंदी इसी रूप में हो गई और जो सीधे-सीधे लेफ्ट या राइट नहीं हैं, उन्होंने भी मुद्दे को छोडऩे के बजाय किसी एक खेमे की पूंछ पकड़ ली। मीडिया कन्हैया के मामले में एक तरह से मीडिया में भी साफ खेमेबंदी दिखी। पूरे एपिसोड को कवरेज भी जोरदार मिला। कन्हैया के करीब 50 मिनट के भाषण को टीवी चैनलों ने लाइव दिखाया। शायद पहली बार किसी जेएनयूएसयू अध्यक्ष का भाषण (और वह भी इतना लंबा) तमाम चैनलों पर एक साथ लाइव चला। लगभग तमाम अखबारों ने भी उसे ही पहली सुर्खी बनाया। और, सोशल मीडिया के बारे में तो कहना ही क्या! मीडिया (खास कर टीवी) और सोशल साइट्स के लिए आज कन्हैया का दिन था। उन्हें हीरो बनाने का। कुछेक दिन पहले यही उन्हें ‘देशद्रोही’ का तमगा देते नहीं थक रहे थे। जनमानस कन्हैया का भाषण अच्छा जरूर था, पर उसमें कुछ भी नया नहीं था। उन्होंने जो कहा वह वामपंथ की राजनीति का आधार रहा है। पर सोशल मीडिया पर तारीफों की बाढ़ आ गई। न केवल भाषण की, बल्कि कन्हैया की। कोई कहने लगा- ‘हाथी घोड़ा पालकी जय कन्हैया लाल की’, तो किसी ने लिखा- आज चुनाव लड़ें तो नरेंद्र मोदी भी कन्हैया से हार जाएंगे। यह हमारी आदत है कि हम किसी को जितनी जल्दी कन्हैया बनाते हैं, उतनी ही जल्दी कंस भी बना देते हैं। उदाहरणों की भरमार है। अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल इस कड़ी में ताजा नाम गिनाए जा सकते हैं। भाषण में क्या था कन्हैया के भाषण में सबक लेने लायक कोई बात थी तो वह वामपंथियों के लिए ही थी। उन्होंने कहा, ‘जेएनयू में हम सभी को सेल्फ क्रिटिसिज्म की जरूरत है क्योंकि हम जिस तरह से यहां बात करते हैं वो बात आम जनता को समझ में नहीं आती है। हमें इस पर सोचना चाहिए।’ देश में वामपंथ राजनीति सालों से इस समस्या से जूझ रही है। वह जनता के हितों की बात करती है, फिर भी जनता उनकी सुनती नहीं है। कन्हैया ने अपने जेल के अनुभव गिनाते हुए संकेत दिया कि वामपंथियों को दलितों को साथ लेकर चलना होगा। वामपंथी पार्टियां इस पर सोच सकती हैं।

Monday, 2 January 2017

भारतीय सेना के जूते की दास्तां
डॉ. अरूण जैन
जयपुर की कंपनी सेना के लिए जूते बनाती है, फिर वह जूते इस्राइल को बेचते थे, फिर इजराइल वहीँ जूते भारत को बेचते थे, और फिर वे जूते भारतीय सैनिकों को नसीब होते थे ! भारत एक नंग जूते के क्रह्य. 25,000/- देते थे। और यही सिलसिला कोंग्रेस द्वारा कई सालो से चल रहा था । जैसे ही वर्तमान रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर को यह पता चला, वो चोंके फिर आग बबूला हो गए ..। और तुरंत जयपुर कंपनी के ष्टश्वह्र को मिले, कारण पूछा, तो जवाब मिला भारत को डायरेक्ट जूते बेचने पर, भारत का सरकारी तंत्र सालो तक पेमेंट नहीं देती थी,। इसलिए हम दूसरे देशों में एक्सपोर्ट करने लगे मनोहर पर्रिकर ने कहा एक दिन, सिर्फ एक दिन भी पेमेंट लेट होता है तो आप मुझे तुरंत कॉल कीजिए, बस, आपको हमे डायरेक्ट जूते बेचना है, आप प्राइस बताएं और इस तरह आखिर पर्रिकर ने वहीँ जूते सिर्फ 2200/- में फाइनल किया! सोचिए.. जूते के *25,000/-* देकर कोंग्रेस ने सालों तक कितनी लूंट मचा रखी थी !! विश्वास नहीं हुआ ना?? कोई बात नहीं क्रञ्जढ्ढ लगाइए। 

कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विवि के मुताबिक भीख से चलते हैं मीडिया संस्थान!

डॉ. अरूण जैन
काठाडीह स्थित कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विवि एक बार फिर अपनी हरकतों से सुर्खियों में हैं। इस बार वजह बना है एक प्रश्नपत्र। रूस्ष्ट इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विभाग के थर्ड सेमेस्टर के क्वेश्चन् पेपर के सवाल नम्बर 5 में विवि ने पूछा है कि मीडिया संस्थान के लिए धन की व्यवस्था कैसे होती है? और जवाब के विकल्प में भीख और दान जैसे शब्द शामिल हैं। आपको बता दें इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पूर्व विभागाध्यक्ष नरेंद्र त्रिपाठी भी अपने चहेते छात्रों की फर्जी अटेंडेंस लगवाते कैमरे में कैद हुये थे जिसे न केवल खबर बनने से रोका गया बल्कि एक छात्र को गैर क़ानूनी तरीके से बिना कारण बताये मुख्य परीक्षा से वंचित भी कर दिया गया। यह मामला उच्च शिक्षा मंत्री प्रेमप्रकाश पांडे से लेकर शिक्षा विभाग और राज्यपाल तक पहुंचा लेकिन राजनीतिक ताकत के आगे छात्र की गुहार ने दम तोड़ दिया। और दोषियों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई जिसके बाद छात्र ने कोर्ट की शरण ली है। अब सवाल यह उठता है कि पत्रकार बनाने वाला एक तथाकथित पत्रकारिता विवि क्या इस तरह पत्रकार तैयार करेगा? या विवि की आड़ में सिर्फ शिक्षा की दलाली चल रही है? वो दलाली जो पूर्व वीसी सच्चिदानंद जोशी के समय से शुरु हुई। बहरहाल प्रश्नपत्र में ऐसा सवाल देखकर छात्र संघटन हृस्ढ्ढ ने इस पर कड़ा आक्रोश व्यक्त किया है। छात्र नेता हनी सिंह बग्गा ने इसे मीडिया संस्थानों की छवि से खिलवाड़ बताते हुये प्रश्नपत्र की छवि कई मीडिया संस्थानों को भेजी लेकिन विवि ने कई पत्रकारों को बड़े कोर्सेस में दाखिल दे रखा है, जिसके बदले वे विवि की ऐसी खबरें प्रकाशित होने से रोकते हैं। आपको बता दें कि नेताओं के विशेष संरक्षण में चलने वाला यह विवि आये दिन किसी न किसी स्कैंडल को अंजाम देता रहता है। यही वजह है कि विवि की छवि तार-तार हो चुकी है और इसने बेहद कम समय में बदनामी की दौड़ में खुद को काफी आगे पहुंचा लिया है। स्टाफ से लेकर कुलपति तक कोई पाक साफ़ नहीं... विवि के पूर्व कुलपति सच्चिदानंद जोशी ने अपने कार्यकाल में अपने पद का सिर्फ नाजायज फायदा उठाया। उसके राज में छात्रों की आवाज दबा दी जाती थी। ऐसे भी हालात बने कि कोई छात्र आत्महत्या करने तक मजबूर हुआ तो किसी ने प्रशासन के खिलाफ कोर्ट में केस दर्ज किया। इतना ही नहीं भ्रष्ट कुलपति को देख स्टाफ भी खुलकर मनमानी करता था। क्लास में पढ़ाई कराने की बजाय छात्रों से गाने गवाये जाते थे। यही वजह है कि जोशी के जाते ही छात्रों को लगा अब उनके भविष्य से खिलवाड़ बन्द हो जायेगा लेकिन हाल वही ढ़ाक के तीन पात। कभी डिग्री फर्जी तो कभी पैसा लेकर एग्जाम में पास किये छात्र...विवि के शिक्षकों के कारनामों की बात करें तो कई प्रोफेसर ऐसे हैं जिनकी डिग्री और नियुक्ति सन्देह के घेरे में है। कुछ तो कोर्ट के डर से तड़ीपार हुये घूम रहे हैं। इन सबके बीच पेपर में पास कराने के बदले पैसे मांगते बाबू का स्टिंग भी सामने आया लेकिन वह भी सिर्फ एक खबर बनकर रह गया। ऐसा नहीं कि प्रबन्धन के खिलाफ शिकायतें नहीं हुई लेकिन कान में बत्ती डालकर बैठे नेताओं तक पीडि़तों की आवाज पहुंचती नहीं।

शिवराज ने प्रदेश को तीन लाख करोड़ के कर्जे में डुबाया

डॉ. अरूण जैन
राज्य सरकार पर कर्ज का बोझ बढ़ता ही जा रहा है। पिछले चार सालों में यह कर्ज बढक़र 2 लाख 85 हजार करोड़ से अधिक हो गया है। जबकि वर्ष 2015-16 का राज्य का कर्ज अभी अधिकृत तौर पर उजागर नहीं हुआ है। वहीं केन्द्र सरकार से अनुदान की राशि में लगातार इजाफा हुआ है। राज्य शासन का तर्क है कि प्रदेश की विकासात्मक गतिविधियों के लिये कर्ज लिया जाता है। इसके तहत वर्ष 2011-12 में 61532 करोड़ रुपए का कर्ज लिया गया जो वर्ष 2014-15 में बढक़र 94979.16 करोड़ तक पहुंच गया। राज्य सरकार ने वर्ष 2015-16 में लिये गये कर्ज की जानकारी इसलिए ओपन नहीं किया है क्योंकि वित्त लेखे महालेखाकार से प्राप्त नहीं हुए हैं।
सरकार के अनुसार कर्ज मध्यप्रदेश राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन अधिनियम 2005 के अनुसार सकल राज्य घरेलू उत्पाद के निर्धारित प्रतिशत (3 से 3.5 प्रतिशत) के अनुसार लिया जाता है। दावा किया गया है कि विभिन्न माध्यमों से लिये गये कर्ज को समय-समय पर चुकाया जता है और इसकी जानकारी वित्त लेखे में दर्ज होती है। केंद्र ने दिया 51 हजार करोड़ से ज्यादा चार साल में केन्द्र सरकार ने राज्य को 51 हजार 300 करोड़ से अधिक राशि दी है। वर्ष 2011-12 में राज्य को 9928 करोड़ मिले थे जो कि वर्ष 2014-15 में बढक़र लगभग दो गुना यानि 17 हजार 500 करोड़ से अधिक पहुंच गया। ;

कालाधन के पक्ष में खड़े क्यों दिखाई दे रहे हैं कुछ नेता

डॉ. अरूण जैन
काले धन पर मोदी के बड़े कदम (500 और 1,000 हजार रुपए के नोट बंद करना) का सबसे पहला सियासी असर अगले वर्ष पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में देखने को मिल सकता है, जिसमें उत्तर प्रदेश प्रमुख है। शायद इसीलिये धनकुबेरों के अलावा माया-मुलायम मोदी के इस फैसले से सबसे अधिक बौखलाए हुए हैं। समझ में नहीं आ रहा है कि जब एक सुर में देश की जनता मोदी सरकार ती तारीफ कर रही है तब माया−मुलायम काला धन रखने वालों के पक्ष में क्यों खड़े दिखाई दे रहे हैं। करेंसी बदलने के मोदी सरकार के फैसले को लेकर यह नेता जनता की नब्ज भी नहीं पहचान पा रहे हैं। हिन्दुस्तान की राजनीति में ब्लैक मनी का इस्तेमाल हमेशा चिंता का विषय रहा है। यह वो पैसा होता है जो गलत तरीके से अर्जित किया जाता है और बेहिसाब तरीके से खर्च किया जाता है। भारतीय सियासत में कोई भी राजनैतिक पार्टी दावे के साथ यह नहीं कह सकती है कि वह नंबर एक के पैसे से ही चुनाव लड़ती और जीतती है। वामपंथी जरूर इससे अपने आप को इतर दिखाने की कोशिश करते मिल जाते हैं, लेकिन वह भी पूरी तरह से दूध के धुले नहीं हैं। हास्यास्पद बात यह है कि एक तरफ अन्ना हजारे जैसे समाज सेवी जो मोदी सरकार के कामकाज से ज्यादा खुश नहीं दिखते थे, वह तो उक्त फैसले का समर्थन कर रहे हैं, परंतु उनके शागिर्द और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल इस मुद्दे पर भी झूठ−फरेब और भ्रम फैलाने की राजनीति को आगे बढ़ाने के लिये घटिया तरीके अपना रहे हैं। एक चाय वाला प्रधानमंत्री नहीं बन सकता है, जैसे दावे करने वाले मोदी विरोधी तमाम दलों के भ्रष्ट नेता और मोदी विरोधी गैंग के कथित धर्मनिरपेक्ष सदस्य (जो पूर्व की मनमोहन सरकार में सरकारी धन की खूब बंदर बांट कर रह थे।) शायद ऐसे लोगों को ही पीएम मोदी के प्रत्येक फैसले से उलझन होती रहती है। यह वो लोग हैं जो मोदी को किसी भी तौर पर पीएम बनते नहीं देखना चाहते थे। इसी लिये मोदी को भाजपा द्वारा प्रधानमंत्री प्रत्याशी बनाये जाने के बाद से समय−समय पर अवार्ड लौटाने जैसे कृत्य करने वाले, आतंकी अफजल गुरु को फांसी दिये जाने पर विलाप करने वाले, आतंकवादियों के पक्ष में हुंकार भरने वाले, पाकिस्तान की भाषा बोलने वाले गैंग के सदस्य चाहते हैं कि गरीबों का खून चूसने वाले निजी अस्पतालों, जिसमें खासकर बड़े−बड़े राजनेताओं, नौकरशाहों, धन्नासेठों का काला धन लगा है, उनको भी मरीजों से पुराने नोट लेने की छूट मिल जाये, ताकि उक्त वर्ग के धन कुबेर मरीजों की आड़ में अपना काला धन सफेद कर सकें लेकिन केन्द्र सरकार इनके झांसे में आने वाली नहीं है। उसको पता है कि पहले भी यही लोग मोदी को लेकर शोर मचा रहे थे और आज भी यही लोग शोर मचा रहे हैं। आम जनता के साथ−साथ देश−विदेश के बड़े−बड़े अर्थशास्त्री, बुद्धिजीवी, अंतरराष्ट्रीय शख्सियतें यहां तक की पाकिस्तान की अवाम तक जब मोदी के इस प्रयास की तारीफ कर रही हो तब मु_ी भर नेताओं का विलाप करने का कोई मतलब नहीं बनता है। लब्बोलुआब यह है कि सियासत भी बड़ी मौका−परस्त चीज होती है। यहां नेताओं को नैतिकता, रंग और चोला बदलते देर नहीं लगती है। एक दिन जिनके साथ कंधे से कंधा और हाथ में हाथ डालकर खड़ा हुआ जाता है दूसरे ही दिन उसे दूध की मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया जाता है। कहने को तो सियासी कौमें समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, देशभक्ति आदि न जाने किस-किस तरह का मुखौटा लगाये रहती हैं, लेकिन इनका दूर−दूर तक इन चीजों से सरोकार नहीं होता है। आजकल एक और ट्रेंड चल पड़ा है। तमाम छोटे-बड़े नेता अपनी बात को सही साबित करने के लिये जनता का लबादा पहन लेते हैं। अरविंद केजरीवाल के देखा-देखी कुछ ऐसी ही शैली में कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी भी अपनी बात रखने लगे हैं। वह भी अपनी तमाम निजी और राजनैतिक समस्याओं को जनता से जोडऩे में लगे रहते हैं। काला धन के मामले में भी यही खेल खेला जा रहा है। आश्चर्य होता है कि बसपा सुप्रीमो मायावती, सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, आप नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाली की टीम के सदस्य और राहुल गांधी सहित कांग्रेसी नेताओं को इस बात का दुख तो है कि केन्द्र सरकार के पुराने नोट हटा कर नये नोट लाने की प्रकिया से देश की गरीब जनता परेशान हो रही है, लेकिन कोई अदालत का दरवाजा नहीं खटखटा रहा है। वह जानते हैं कि कोर्ट यह भी पूछ सकती है कि क्या आप लोग नहीं चाहते हैं कि काला धन बाहर आये। इन नेताओं को समझना होगा कि अब समय बदल रहा है। अब देश की सवा सौ करोड़ जनता देश के और अपने हितों की कुर्बानी देकर इन राजनेताओं को तिजोरी भरने और इस पर सियासत करने का मौका नहीं देने वाली है।

मोदी अब आंदोलन बन चुके हैं, जनता उनके साथ है

डॉ. अरूण जैन
सडक़ से संसद तक ये कौन लोग हैं जो नोटबंदी के विरोध में लामबंद हो रहे हैं ? ये कौन लोग हैं जिनको काले धन की जमाखोरी बहुत पसंद है ? ये कौन लोग हैं जिनको देश की सफाई ठीक नहीं लग रही ? ये कौन लोग हैं जो कोयला घोटाले से लेकर 2जी तक की करोड़ों की लूट के आरोप के चलते सत्ता से बाहर हुई कांग्रेस के साथ खड़े हो गए हैं ? ये कौन हैं जिन्हें लोकसभा और विधानसभा के चुनाव में टिकट की नीलामी नजऱ नहीं आती ? ये किसका विरोध कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं ? केवल कानाफूसी में करोड़ों करोड़ों की दलाली और जमाखोरी की चुगली करने वाले ये सभी लोग किसके खिलाफ लामबंद हुए हैं ? ममता बनर्जी तो गरीबों की मसीहा कही जाती रही हैं। वह सबसे पहले आवाज़ मुखर कराती हैं तो ताज्जुब होता है कि किस तरह वेश बना कर ये लोग सत्ता शीर्ष तक पहुंचते हैं। मायावती जी के बारे में लिखना जरूरी नहीं लगता क्योंकि उत्तर प्रदेश के हर आदमी की जबान पर इनके धन की चर्चा सामान्य तौर पर होती रहती है। इनके दल के टिकेट कैसे मिलते हैं और कितने में मिलते हैं इस बारे में इन्हीं के लोग सब कुछ मीडिया के सामने कई बार कह चुके हैं। मुलायम सिंह जी की पार्टी के बारे में भी कुछ छिपा नहीं है। कांग्रेस का तो बंटाधार ही भ्रष्टाचार के कारण हुआ है। जाहिर है इनकी इस बार की यह एकता बहुत कुछ उगल देगी, इसको ये अभी समझ नहीं रहे हैं। दरअसल इन्हें अभी भी आभास नहीं है कि नरेंद्र मोदी केवल भारत के प्रधानमन्त्री ही नहीं हैं बल्कि वह अब सचमुच एक आंदोलन बन चुके हैं। इस आंदोलन में देश उनके साथ है। नौजवान उनके साथ है। व्यवसायी उनके साथ है। गरीब उनके साथ है। जो लोग संसद से अब सडक़ पर आकर नोटबंदी के विरोध की जुगत में लगे हैं वे वास्तव में क्या करना चाह रहे हैं, यह बात देश भली प्रकार से समझ रहा है। देश को मालूम हो चुका है की प्रधानमन्त्री के इस फैसले ने उन लोगों की कमर तोड़ दी है जो रातोंरात करोड़पति बन जाते थे। देश को मालूम है की इस कदम ने आतंकवाद और अलगाववाद की सियासत करने वालो के सारे रास्ते बंद कर दिए हैं। ये वही लोग हैं जो इस मुद्दे पर जनता को बरगला कर, उकसा कर देश का माहौल अस्थिर करना चाहते हैं। इनमें कई ऐसी शक्तियां हैं जो इनको मोटी फंडिंग करने को तैयार हैं ताकि उनकी लूट खसोट और आपराधिक गतिनविधियों को रोक न लगने पाए।  सच तो यह है की यह पूरी सियासत एक ख़ास किस्म के तुष्टिकरण के लिए रची जा रही साजि़श है जो देश को झुलसा कर छोड़ेगी। अभी तक भ्रष्टाचार और काले धन पर सरकार को बार बार घेरने और विफल रहने की दलीलें देकर विरोध करने वाले सभी आज यदि एक साथ खड़े होकर काले धन पर रोक का विरोध कर रहे हैं तो जाहिर है इसके पीछे भी बड़ी शक्तियां काम कर रही होंगी। मायावती, ममता बनर्जी, मुलायम सिंह, राहुल गांधी और अरविन्द केजरीवाल सरीखे लोगों को जनता ठीक से समझती है। पश्चिम बंगाल का शारदा घोटाला अभी भी सभी को याद है। उत्तर प्रदेश में मायावती जी और मुलायम सिंह जी के बारे में भी जनता कुछ भूल नहीं पायी है। इस समय भी उत्तर प्रदेश में जो हालात हैं वह सभी के सामने हैं। नियुक्तियों से लेकर निर्माण कार्यों तक में रिश्वतखोरी और गड़बडिय़ों की भरमार है। उत्तर प्रदेश के हालात इन लोगों के कारण ही बदतर हो चुके हैं। आर्थिक कदाचार और जातिवाद से इतने बड़े प्रदेश को इन दोनों पार्टियों ने बर्बाद कर रखा है। यहाँ एक बड़ी मज़ेदार बात देखने को मिल रही है कि जिस जनता दल यू के नेता नीतीश कुमार ने मोदी के इस कदम का समर्थन किया है उसी के बाकी लोग भी इन तेरह पार्टियों में शामिल हैं जो नोटबंदी का विरोध कर रही हैं। इन लोगों को अभी भी समझ में यह बात क्यों नहीं आ रही कि इस नोटबंदी के बाद हुए उपचुनाव में जनता ने बीजेपी को ही बहुमत दिया है। फिर भी ममता बनर्जी का यह कहना कि देखें मोदी को कौन वोट देता है, समझ से पर है। इस पूरे विरोध के पीछे कोई न कोई ताकत तो जरूर है।

शिवराज सिंह चौहान ने दिए थे एनकाउंटर के आदेश

भाजपा प्रदेशाध्यक्ष नंदकुमार ने कहा
डॉ. अरूण जैन
मध्य प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष नंदकुमार ने एक सभा में कहा की आतंकवाद के कथित आरोपी , 8 सिमी सदस्यों के भोपाल जेल से भाग जाने के बाद , मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पुलिस को आदेश दिए थे की चाहे जिन्दा पकड़ो या मुर्दा, मुझे सभी कैदी वापिस चाहिए. 
नंदकिशोर का यह बयान मुख्यमंत्री शिवराज के लिए मुश्किलें पैदा कर सकता है.पहले भोपाल जेल से 8 सिमी सदस्यों का भागना फिर 10 घंटे के अन्दर इनका एनकाउंटर हो जाना, कई सवाल अपने पीछे छोड़ गया. कुछ सवालो का जवाब तो थोड़े दिनों बाद मिल ही जाएगा, लेकिन एक सवाल का जवाब मिल गया. सवाल ये की अगर सिमी सदस्यों के पास कोई हथियार नही था, फिर उनका एनकाउंटर करने का आदेश किसने दिया? मध्य प्रदेश के शहडोल में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष नंदकिशोर मुख्यमंत्री की तारीफ करते करते कब उनके लिए मुसीबत खडी कर गए, यह उनको भी नहीं पता. नंदकिशोर ने कहा की आतंकियों के जेल से फरार होने के बाद शिवराज सिंह ने पुलिस को साफ़ साफ़ कहा की मुझे किसी भी हालत में आतंकवादी वापिस चाहिए, चाहे जिन्दा पकड़ो या मुर्दा.गौरतलब है की दिवाली की रात को भोपाल जेल से फरार हुए सिमी के 8 सदस्यों को पुलिस ने 10 घंटो के अन्दर, एक एनकाउंटर में मार गिराया. इस एनकाउंटर के बाद भोपाल डीआईजी ने दावा किया था की सभी फरार कैदियों के पास हथियार थे, उन्होंने पुलिस पर फायरिंग की और पुलिस को आत्मरक्षा में जवाबी फायरिंग की जिसमे सभी कैदी मारे गए. इस एनकाउंटर के बाद से ही इस पर सवाल उठ रहे है. जैस ्रञ्जस् प्रमुख ने कहा की कैदियों के पास हथियार नही थे. अगर ऐसा था तो कैदियों ने पुलिस पर कोई हमला नही किया होगा. फिर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार करने की बजाय , उनको क्यों मार गिराया? इसके अलवा वो जेल से कैसे भागे, हवालदार रमाशंकर यादव को उन्होंने कैसे मारा? ये सभी सवाल है जिसका सवाल जांच के बाद ही दिया जा सकता है.
ईमानदारी हो तो अश्वनी लोहानी जैसी
डॉ. अरूण जैन
ईमानदारी ऐसी कि अशोका होटल में ढ्ढञ्जष्ठष्ट का अपना ऑफिस होने पर भी कभी बीवी-बच्चों संग सरकारी पैसे से इस दिल्ली के फाइव स्टार होटल मे एक कप चाय भी नहीं पी। खुद को पहले नजीर बनाकर स्टाफ को भी शाहखर्ची से रोकने में सफल हुए अश्वनी लोहानी ने जब घाटे में चल रही इंडियन टूरिज्म डेवलपमेंट कारपोरेशन (ढ्ढञ्जष्ठष्ट) को मुनाफे में पहुंचा दिया तो सब हैरान हो गए। इस बीच एमपी के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने लोहानी को अपने यहां बुलाकर खस्ताहाल मध्य प्रदेश पर्यटन विकास निगम को उबारने का जिम्मा सौंपा। यहां भी लोहानी ने ईमानदारी के दम पर कमाल कर दिखाया। घाटे में दम तोड़ते दो बड़े संस्थानों को इस रेलवे अफसर ने जब जिंदा कर दिखाया तो खबर मोदी तक पहुंची और उन्होंने अश्वनी को बड़ी जिम्मेदारी देने का मन बनाया। मोदी को लगा कि यूपीए राज में कंगाल हुए एयर इंडिया को संकट से उबारने के लिए  ईमानदार अफसर की तलाश पूरी हुई। बस फिर क्या था कि उन्होंने चौंकाने वाला फैसला लेते हुए इंडियन रेलवे इंजीनियरिंग सर्विस के इस अफसर को एयर इंडिया का सीएमडी बना दिया और कहा कि-एयर इंडिया को घाटे से उबार दो तो मैं जानूं। महज एक साल के भीतर अश्वनी ने दो हजार करोड़ से ज्यादा के घाटे में चल रही इस सरकारी नागर विमान सेवा कंपनी को 105 करोड़ के मुनाफे में पहुंचाकर एक बार फिर सबको हैरान करते हुए मोदी का भरोसा जीत लिया। अगर कोई  रेलवे का अफसर हवाई  जहाज वाली कंपनी की कायापलट कर दे तो हर किसी का चौंकना लाजिमी है। मिलिए इस ईमानदार अफसर से।  परंपरा तोडक़र मोदी ने अश्वनी को सौंपी जिम्मेदारी आमतौर पर एयर इंडिया का मुखिया यानी सीएमडी किसी सीनियर आईएएस को ही बनाया जाता है। भारतीय रेलवे इंजीनियरिंग सेवा (ढ्ढक्रश्वस्) के अफसर अश्वनी को हवाई सेवाओं का कोई अनुभव भी नहीं था। मगर जब मोदी तक खबर पहुंची कि देश में एक ऐसा इंजीनियर हैं, जिसने अपनी  ईमानदारी व जुदा शैली से काम करते हुए घाटे में चल रहे मध्य प्रदेश  टूरिज्म को भारी मुनाफे में पहुंचा दिया। इसके बाद यह अफसर आईटीडीसी यानी इंडियन टूरिज्म डेवलपमेंट कारपोरेशन का मुखिया रहा। अशोका जैसे फाइव स्टार होटल में ऑफिस होने के बाद भी कभी मुफ्त में न खुद या फिर यार-दोस्तों को कोई दावत कराने की बात छोडि़ए, एक चाय भी नहीं पी। इस पर मोदी ने आईआरईएस अफसर होने के बाद भी अश्वनी के कंधे पर संकट में फंसे एयर इंडिया की जिम्मेदारी डाल दी। कैसे अश्वनी ने एयर इंडिया को उबारा संकट से  अश्वनी ने जैसे ही अगस्त 2015 में एयर इंडिया के कुर्सी पर बैठे। सामने टेबल पर रिचर्ड बैंसन की लाइन फ्रेम कराकर रखी-यह लाइन है-क्लाइंड डोंट कम फर्स्ट, इम्प्लाइज कम फर्स्ट।"Clients do not come first. Employees come first. If you take care of your employees, they will take care of the clients."  यानी अश्वनी की नजर में किसी संस्थान की तरक्की में जब तक सभी स्टाफ का सौ प्रतिशत योगदान नहीं होगा तब तक वह संस्थान तरक्की नहीं कर सकता। यही वजह है कि ग्राहकों को भगवान मानने वाली धारणा से अलग हटकर अश्वनी ने स्टाफ से रोजाना संवाद कायम करना शुरू कर दिया। पायलट और एयर होस्टेस की वेतन और अन्य सुविधाओं से जुड़ी दिक्कतें दूर की। फालतू के सभी खर्चे बंद कर दिए। मीटिंग और टूर के नाम पर अफसरों की शाहखर्ची पर लगाम लगाई। यहां तक कह दिया कि कोई स्टाफ उन्हें कभी बुके आदि नहीं भेंट करेगा। ऐसे तमाम फैसलों से अश्ननी ने सभी स्टाफ का सहयोग लेते हुए एयर इंडिया की हालत सुधार दी। सादगी का आलम यह है कि अश्वनी आज भी सरदार पटेल मार्ग स्थित रेलवे कालोनी के मकान में रहते हैं। 

सिंधिया होंगे सीएम उम्मीदवार, कमलनाथ पीसीसी चीफ

प्रशांत किशोर, राहुल गांधी का मिशन म प्र 2018
डॉ. अरूण जैन
मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनाने के लिये कांग्रेस हाईकमान ने प्रशांत किशोर की सेवाएं लेना शुरू कर दी हे। प्रशांत किशोर ने काँग्रेस को अपनी राय दी हे कि़ यदि सिंधिया को ष्टरू प्रोजेक्ट करे एवं कमलनाथ को प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाये तो मध्य प्रदेश में कांग्रेस ऐतिहासिक विजय हासिल करेगी । टीम प्रशांत किशोर ने प्रदेश में कांग्रेस की जित पर राहुल को आश्वस्त करते बताया की प्रदेश में भाजपा द्वारा कांग्रेस की जित को रोक पाना गली की हड्डी साबित होगा अगर कांग्रेस इस फार्मूले पर चलती है। प्रशांत किशोर के अनुसार प्रदेश में कांग्रेस को एकसुत्र में पिरोने के लिए प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एवं राज्य सभा सांसद दिग्विजय सिंह और पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरेश पचोरी को प्रदेश समन्वयन समिति की जिम्मेदारी सोपी जाए । गुना सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया को सीएम उम्मीदवार और छिंदवाड़ा के सांसद कमलनाथ को पीसीसी चीफ बनाया जाये ।युवा चेहरा दिलाएगा जित सिंधिया के ष्टरू प्रोजेक्ट करने पर खास कर युवाओ में उनका बढ़ती लोकप्रियता का फायद कांग्रेस को मिलेगा । दिल्ली की संसद हो या कोई रैली हर जगह जनता उनको व्यक्तव्य को बड़े गौर से सुनती है । और पसन्द भी करती है । साफ बेदाग छवि के चलते उनका विरोध कर पाना भाजपा के लिए कड़ी चुनोती साबित होगा। कमलनाथ का माइंड गेम राष्ट्रिय राजनीती में अपनी गहरी छाप रखने वाले कांग्रेस के दिग्गज नेताओ में शामिल कमलनाथ का माइंड गेम कांग्रेस के लिए संजीवनी का काम कर सकता है । वेंटिलेटर पर पड़ी कांग्रेस में जान फूकने के लिए प्रशांत किशोर ने कमलनाथ का नाम पीसीसी चीफ के तौर पर राहुल को दिया है । उनका मानना है की कमलनाथ एक सीनियर लीडर हे जिसका फायदा प्रदेश में कांग्रेस को उठाना चाहिए है । राज्यसभा के चुनाव में उन्होंने जिस प्रकार विवेक तनख्वा को जित दिलाई उनकी नेतृत्व क्षमता को भी दरकिनार नही किया जाना चाहिए । पीसीसी की जिम्मेदारी कमलनाथ जैसे अनुभवी लीडर के हाथ में होना चाहिए । दिग्विजय और पचोरी प्रभाव का लाभ प्रदेश में कांग्रेस को अधिक सशक्त बनाने के लिए प्रशांत किशोर ने म प्र के पूर्व मुख्यमंत्री वर्तमान राज्यसभा सांसद दिग्विजय सिंह और पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरेश पचोरी को प्रदेश की समन्वय समिति के चीफ की जिम्मेदारी देने की बात रखी । टीम प्रशांत किशोर के अनुसार दिग्विजय सिंह व् सुरेश पचोरी का प्रदेश की राजनीती में बड़ा प्रभाव है । जिसका लाभ अगर कांग्रेस लेती है तो कांग्रेस एक नई ऊर्जा के साथ प्रदेश में खड़ी हो सकती है । टीम प्रशांत किशोर के इस फार्मूले पर अगर सहमती बन जाती है । बीजेपी सोचने पर मजबूर हो सकती है । यूपी में खाट सभा और रेलियो के माध्यम से चर्चा में आये प्रशांत किशोर के फार्मूले पर राहुल का फैसला जल्द आने वाला है । जिस प्रकार पीके ने यूपी में शीला दीक्षित को सीएम उम्मीदवार व् राज बब्बर को पीसीसी चीफ बनाकर यूपी कांग्रेस में जान फूंकी है ।उसी पर चलते म प्र में भी यह प्रोयोग किया जा रहा है । जिस पर अब मध्य प्रदेश की राजनीतीक सरगर्मी तेज होती दिखाई दे रही है । जिसके चलते प्रदेश कांग्रेस के कई नेताओ ने आल इंडिया कांग्रेस कमिटी के सामने अपनी उपस्तिथि दिखाने के लिए प्रदेश में गुट बाजी को हवा देना शुरू कर दी है । प्रदेश में जोड़ तोड़ की राजनीती शुरू हो गई है ।  अब देखाना ये ही की राहुल गांधी और प्रशांत किशोर के प्लान को प्रदेश कांग्रेस के छुटभैया नेता अपनी साख बचाने के लिए रोकने में कामयाब हो पाते है की नही । राजनितिक विश्लेषकों का मानना है की दीवाली तक पीसीसी में बदलाव हो जाना चाहिए । कुछ विद्वानों के अनुसार यूपी चुनाव हे इसलिए यादव को अभी बनाये रखेगे । 

सुप्रीम कोर्ट में जागरण मालिकों की 25 अक्टूबर को पेशी

डॉ. अरूण जैन
माननीय सुप्रीम कोर्ट के जिस रूख की हम कल्पना कर रहे थे, ठीक वैसा ही देखने को मिला। माननीय सुप्रीम कोर्ट को मीडिया मालिकों की पूरी कारस्तानी समझ में आ गई है। इसलिए उन्होंने मंगलवार को हुई सुनवाई में शुरू से ही मीडिया मालिकों की क्लास लगाना शुरू कर दिया। इस सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने तिहाड़ में अकेले बोर हो रहे सहाराश्री को सहारा देने के लिए कई मीडिया मालिकों की लिस्ट बना ली है। इसकी शुरूआत करते हुए दैनिक जागरण के मालिक संजय गुप्ता और महेन्द्र मोहन गुप्ता को अगली सुनवाई 25 अक्टूबर को कोर्ट में तलब कर लिया है। अब कोर्ट उनसे ही पूछेगा कि क्या वे स्वयं को कानून से बड़ा मानते हैं। विधि विशेषज्ञों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट अगली सुनवाई के दिन दैनिक जागरण के मालिकों को जेल भी भेज सकता है। क्योंकि, पिछली सुनवाई में उन्हें मजीठिया देने का आदेश दिया गया था। इसके बाद दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, अमर उजाला, दैनिक हिन्दुस्तान के मीडिया मालिकों का नम्बर आएगा। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने देशभर के श्रमायुक्तों को तीन माह में सभी कर्मचारियों की वसूली करने के आदेश दिए हैं। 25 अक्टूबर को राजस्थान आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु और कर्नाटक सहित पांच राज्यों की सुनवाई है। 25 अक्टूबर का दिन मीडिया मालिकों के लिए काली दीवाली पीडि़त कर्मचारियों के वकील कोलिन गोंसाल्विस ने माननीय सुप्रीम कोर्ट को बताया कि विभिन्न राज्यों से अभी तक जो श्रमायुक्तों की रिपोर्ट आई हैं, उनमें भी मजीठिया नहीं देने की बात है। ऐसे में मीडिया मालिक खुलेआम माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना कर रहे हैं। कोलिन ने इसके साथ ही राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, अमर उजाला, दैनिक हिन्दुस्तान के मालिकों की कारस्तानियों से भी कोर्ट को अवगत कराया। इस पर कोर्ट ने सख्त नाराजगी जताई। ऐसी उम्मीद की जा रही है कि 25 अक्टूबर को माननीय सुप्रीम कोर्ट दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, दैनिक हिन्दुस्तान, अमर उजाला के खिलाफ अवमानना का केस ठोक सकता है। इसमें सीधे जेल भेजे जाने का प्रावधान है। माननीय सुप्रीम कोर्ट के इस रूख को देखते हुए संभावना बन रही है कि 25 अक्टूबर का दिन मीडिया मालिकों के लिए काली दीवाली बन जाएगा। क्योंकि, इस दिन इन्हें जेल की भी हवा खिलवाई जा सकती है। अगली सुनवाई में भास्कर और पत्रिका के मालिकों को कोर्ट तलब कर सकता है। 20 जे पर अहम फैसला, मीडिया मालिकों ही हार वरिष्ठ वकील कोलिन गोंसाल्विस ने कोर्ट को बताया कि मीडिया मालिकों ने किस तरह 20 जे धारा की गलत व्याख्या कर रखी है। जबकि कानून में साफ लिखा है कि जो सैलेरी ज्यादा होगी, वही मान्य होगी। इस पर कोर्ट ने मौखिक कहा कि रिकवरी 20 जे कानून के अनुसार ही होगी। यानी मीडिया मालिकों जिसे ढाल बनाकर अब तक बच रहे थे, उसे एक ही झटके में सुप्रीम कोर्ट ने चकनाचूर कर दिया। इसी सुनवाई के लिखित आदेश में 20 जे पर भी अहम फैसला आएगा। ऐसे में अगली सुनवाई के दिन सभी मीडिया मालिकों पर अवमानना का केस लगना तय है। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वसूली के मामले में सारे अधिकार श्रमायुक्त के पास हैं। रिकवरी का कोई भी मामला श्रम कोर्ट में नहीं जाएगा। यानी जो श्रमायुक्त अभी तक मीडिया मालिकों का बचाव कर रहे थे, वे अब अपनी खाल बचाने के लिए मजीठया पीडि़त का साथ देंगे। बर्खास्त, तबादला और सस्पेंशन वाले मामले होंगे रद्द, पीडि़त साथियों को मिलेगी नौकरी वरिष्ठ वकील कोलिन गोंसाल्विस ने कोर्ट को इस तथ्य से भी अवगत कराया कि जिस कर्मचारी ने भी मजीठिया की मांग की। उसे तबादला, बर्खास्त और सस्पेंड कर दिया गया। श्रमायुक्तों की रिपोर्ट में भी इसका उल्लेख है, जिसमें हजारों की तादाद में पीडि़त कर्मचारियों ने शिकायत दी है और सुप्रीम कोर्ट में भी इस बारे में शपथ-पत्र दिया है। इस पर माननीय कोर्ट ने इस मामले में अलग से शिकायत मांगी और 25 अक्टूबर को इस बारे में आदेश जारी होगा। यानी अब मीडिया मालिकों को इस मुद्दे पर भी मुंह की खानी पड़ेगी और नौकरी से बाहर चल रहे सभी साथी बहाल होंगे। मीडिया मालिकों को उन्हें फिर से नौकरी पर रखना होगा।

भाजपा में जबरदस्त बेचैनी का आलम

डॉ. अरूण जैन
मध्यप्रदेश में 2018 के विधानसभा चुनाव के लिये जमावट शुरू हो चली है। सत्तारूढ़ दल के लिये जीत का चौका लगाना इस बार आसान नहीं लग रहा है। प्रतिपक्ष कांग्रेस में वैसी मुस्तैदी अभी दिखलाई नहीं पड़ रही है जिसकी सख्त जरूरत है। उधर, मध्यप्रदेश भाजपा में जबरदस्त बेचैनी का आलमज् स्पष्ट तौर पर नजर आ रहा है। बेचैनी आम कार्यकर्ता से लेकर आला नेताओं तक में है। जो हालात हैं उसे देखते हुए न केवल भोपाल से लेकर दिल्ली तक भाजपा बल्कि आरएसएस भी इस बात को लेकर खासा चिंतित है कि ‘बाउंड्री’ लगाने (चौथी जीत दर्ज करने) की बजाय, ‘कैच-आउट’ (सत्ता से बाहर) ना हो जाएं। मध्यप्रदेश में सत्ता के पांच साला ‘फायनल टूर्नामेंट’ के पहले फिलहाल दो छोटे मुकाबले नजदीक हैं। एक- शहडोल लोकसभा और दूसरा- बुरहानपुर जिले की नेपानगर सीट का उपचुनाव। ये दोनों ही सीटें भाजपा के पास थीं। शहडोल सीट, पार्टी सांसद दलपत सिंह परस्ते के बीमारी से निधन और नेपानगर सीट से भाजपा का विधानसभा में प्रतिनिधित्व करने वाले राजेन्द्र श्यामलाल दादू की सडक़ हादसे में मौत की वजह से रिक्त हुई है। उपचुनाव दिवाली के बाद संभावित है। प्रदेश में कांग्रेस के पास उपचुनाव में खोने के लिये बहुत ज्यादा नहीं है। विधानसभा के 2018 के चुनाव में सत्ता में वापसी उसका एकमात्र लक्ष्य है। पिछले तीन विधानसभा चुनावों की सतत हार से कांग्रेस भले ही सबक सीखती नहीं दिखी, मगर सरकार में वापसी के लिये इस गलती से बचने संबंधी उपायों की शुरूआत देश की इस सबसे पुरानी पार्टी की प्रदेश इकाई में कुछ-कुछ नजर आने लगी है। यह तय माना जा रहा है कि मिशन 2018 के लिये कांग्रेस आलाकमान मध्यप्रदेश में कई तरह के बहुतेरे प्रयोग करेगा। सूत्रों के अनुसार इनकी (लीक से हटके कुछ करने की) शुरुआत बहुत शीघ्र प्रदेश में होने वाली है। सूत्रों के दावों के अनुसार छिटपुट ‘श्रीगणेश’ दिखने भी लगा है। सत्तारूढ़ दल भाजपाज् मध्यप्रदेश में भी अब ‘पार्टी विद द डिफरेंस’ कतई नहीं रही है। अनेक उदाहरण इसके सामने हैं। कलह का कैक्टस बीजेपी में जमकर फूल रहा है। प्लस 75 फार्मूले के तहत शिवराज काबीना से बाहर किये गये बाबूलाल गौर और सरताज सिंह खासे भन्नाए हुए हैं। खासकर दोनों बुजुर्ग नेता जिन तबकों से आते हैं, वहां जबरदस्त नाराजगी है। आम वोटर को भी गौर की बेइज्जती पसंद नहीं आई है। प्रदेश में बहुत बड़ा या सरकार बनाने-बिगाडऩे में रोल अदा करने वाला जातीय आधार प्लस 75 के तहत हटाए गए इन नेताओं के तबकों का नही है, लेकिन नाराजगी तो नाराजगी है। भोपाल से लेकर दिल्ली तक समीकरण का गुणा-भाग हुआ है और जैसे-जैसे चुनाव पास आयेंगे, फिर नये सिरे से होगा। मध्यप्रदेश भाजपा में आम कार्यकर्ता से लेकर काफी संख्या में ‘खास’ नेता खफा हैं। व्यक्तिगत हित और हुकूक़ों को लेकर नाराजगियां हैं। कार्यकर्ता से लेकर नेताओं द्वारा अपनी नाराजगी का इजहार सरेआम करने (खुले मंचों पर पार्टी के विरोध में तल्ख तेवर और बयानबाजी) का सिलसिला तेज हुआ है। कई ताजा बयानों ने पार्टी और सरकार की किरकिरी की है। भाजपा में चल रही इस आपसी खींचतान का कांग्रेस भरपूर लुत्फ ले रही है। भाजपा में स्थितियां कांग्रेस के समान हो चली हैं। जैसे कांग्रेस को लेकर कहा जाता है कि कांग्रेस को खुद कांग्रेस हराती है। कुछ उसी तरह का माहौल भाजपा में बन रहा है।भाजपा प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान की स्थिति शोभा की सुपारी वाली है। मसलन जितनी चाबी भरी जाती है, उतना ही वे चल पाते हैं। सत्ता और संगठन का वैसा सेतु अभी नये संगठन महामंत्री नहीं बन पाये हैं, जो अरविंद मेनन के संगठन महामंत्री रहने के दौरान था। अरविंद मेनन की तरह शिवराज एंड कंपनी से नये संगठन महामंत्री की ट्यूनिंग नहीं हो पा रही है। सिरदर्द कम होने की बजाय बढ़ता चला जा रहा है। कथित खींचतान के बीच राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी मध्यप्रदेश को लेकर अपने तरीके से कदम बढ़ा रहा है। सत्तारूढ़ दल में नौकरशाही के रवैये को लेकर ‘बलवे’ के हालात हैं। कमीशनखोरी के खुले आरोप ब्यूरोक्रेसी पर लगाये गये हैं। मंत्री अपने अंदाज में सरकारी मशीनरी से पेश आ रहे हैं। सांसद-विधायकों के अलावा अदने कार्यकर्ता भी अफसरशाही के खिलाफ ‘एंग्री यंगमैन’ वाली भूमिका में हैं। हर धान को एक पसेरी तोलने से ब्यूरोक्रेसी में बड़ा तबका बेहद खफा है। अफसरों की कतिपय बिरादरियों ने तो कुछ मंत्रियों के खिलाफ खुलकर मोर्चा खोल रखा है। खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्री ओमप्रकाश धुर्वे का महकमा बिना देर किए बदलने की मांग मुख्यमंत्री से कर डाली गई है। वन मैन आर्मीज्शिवराज हालात पर काबू वन मैन आर्मीज् शिवराज को पाना है। संगठन में हालात ‘पहले’ वाले नहीं होने की वजह से उनकी कठिनाईयां बढ़ी हुई हैं। शिवराज ने हाल ही में नौकरषाही के खिलाफ सख्त रवैया दिखाने का प्रयास किया है। चूंकि मामला फिलहाल ‘जुबानी जमा खर्च’ तक सीमित था, लिहाजा सवाल उठाने वाले पार्टीजनों को ‘बहुत मजा’ नहीं आया है। शिवराज की अधिकारियों के साथ इनहाउस बैठकों का ब्यौरा मीडिया तक पहुंचने को सीएम की छवि सुधारने का सुनियोजित प्लॉन करार रहा है। पार्टीजन इस तरह के ‘एक्शन ‘ से आनंदित नहीं हैं। उधर वोटर भी अल्हादित नहीं है। नौकरषाही ज्यादा खफा हो गई है। प्रेक्षक से सत्तारूढ़ दल के लिये ‘बेड-साइन’ मान रहे हैं। गौर ने कसा था शिवराज पर तंज नौकरशाही पर मुख्यमंत्री की पकड़ को लेकर सवाल खड़े हुए हैं। पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर तो सार्वजनिक तौर पर तंज कस चुके हैं कि ‘घुड़सवार’ (निशाने पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान थे) सही नहीं है। उन्होंने नौकरशाही रूपी घोड़े की तुलना खुद के मुख्यमंत्रित्वकाल से की है। गौर ने कहा कि घोड़ा वही है, जिसकी कुशल घुड़सवारी (खुद के मुख्यमंत्री रहने की ओर इशारा) वे कर चुके हैं। संकेतों में गौर ने जता दिया कि शिवराज को घुड़सवारी नहीं आती।

सीएम के लिए सिंधिया के नाम की चर्चा


डॉ. अरूण जैन
मध्य प्रदेश में कांग्रेस नेताओं के बीच आपसी कलह उभरकर सामने आ गई है  अगले चुनाव में बीजीपी को उखाड़ फेंकने का इरादा रखने वाले कांग्रेसियों में फूट ऐसी उभर कर आई है, कि लगातार एक दूसरों का विरोध किया जा रहा है हाल ही में लहार विधायक ने सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया पर तंज कसते हुए बयान दिया था जिसका कई बड़े नेताओं ने विरोध किया विधायक रामनिवास रावत ने गोविन्द सिंह पर कार्रवाई करने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष को पत्र लिख दिया अब डबरा से विधायक इमरती देवी ने भी विधायक गोविन्द सिंह की खुले शब्दों में निंदा करते हुए प्रेस विज्ञप्ति जारी की है कांग्रेस पार्टी दो खेमों में बंट गई है, अब खुलकर एक दूसरे पर बयानों की बौछार की जा रही है, जिससे कांग्रेस में एकजुटता का दिखावा करने वाले नेताओं की पोल खुलकर सामने आ गयी है अब कांग्रेस की आपसी लड़ाई सडक़ पर उतर आई है प्रेस विज्ञप्ति जारी कर विधायक इमरती देवी ने जहां गोविन्द सिंह की खुले शब्दों में निंदा की है, वहीं ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस का सीएम उम्मीदवार होने का एलान भी कर दिया उन्होंने कहा सिंधिया को कांग्रेस की और से मुख्यमंत्री की तरह देखे जाने का विचार चल रहा है, इसलिए यह बात किसी को हजम नहीं हो रही है जिसका ताजा उदाहरण गोविन्द सिंह की यह हरकत है कांग्रेस के बड़े पदाधिकारी होने के बावजूद उन्होंने ओछी मानसिकता का परिचय दिया है विधायक इमरती देवी ने गोविन्द सिंह का विरोध करते हुए पार्टी से निकालने की मांग की है दरअसल, मुरैना जिले में युवा कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया के खिलाफ जमकर नारेबाजी की और काफिले को रोकते हुए उन्हें काले झंडे भी दिखाए थे इसके बाद विधायक गोविन्द सिंह का सिंधिया पर तंज कसने वाला बयान आने से कांग्रेस में हलचल मच गयी है इसी उथल पुथल के बीच कांग्रेस विधायकों का विरोध अब खुलकर सामने आ गया है और सिंधिया खेमे के विधायक लगातार गोविन्द सिंह का विरोध कर रहे हैं जहां एक तरफ कांग्रेस की परंपरा रही है कि वह सीएम उम्मीदवार के नाम की घोषणा किये वगैर चुनाव लड़ती आ रही है चुनाव जीतने के बाद सीएम का नाम सामने आता है, लेकिन इस परंपरा के उलट सिंधिया का नाम सीएम के लिए सामने आ रहा है, जिसके लिए दबी जुबान में सिंधिया खुद चेहरा दिखाकर चुनाव लडऩे की वकालत कर चुके हैं अब विधायक इमरती देवी ने भी अपनी पार्टी की परम्परा को तोड़ते हुए सिंधिया का नाम का एलान किया है

सरकारी दावे कुछ और, हकीकत कुछ और


डॉ. अरूण जैन
पिछले 69 साल से विकास और समृद्धि के जो दावे किए जा रहे हैं, उसके दो रूप आज सामने हैं और दोनों में गजब का विरोधाभास है, सरकार कहती है कि विकास हुआ है उसके लिए उसके पास आंकड़े हैं जिनकी बाजीगरी दिखाकर वह लोगों को लगातार बहलाती रही है। दूसरी तरफ सरकारी आंकड़े ही बताते हैं कि बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य व भोजन जैसी मूलभूत जरूरतों से वंचित लोगों की संख्या देश में अभी भी अच्छी खासी है। देश में करीब बीस करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके पास रेडियो, ट्रांजिस्टर, टीवी या किसी भी तरह का वाहन नहीं है। 36.8 फीसदी घरों में किसी तरह का फोन नहीं है न लैंडलाइन और न मोबाइल। किसी भी तरह का वाहन तो रोजमर्रा के जीवन के लिए जरूरी है। करीब आधे भारतीयों के पास किसी भी तरह का वाहन नहीं है। विकास के लिए आए दिन सरकारी योजनाएं बनती हैं। कितनी कागजों पर ही रह जाती हैं और कितनी क्रियान्वित हो पाती हैं, इसका लेखा-जोखा रखने का काम नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) का है। हालांकि यह एक सरकारी विभाग ही है और उसके आकलन थोड़ी बहुत राजनीतिक उथल-पुथल मचाने के बाद ठंडे बस्ते में चले जाते हैं। एक आकलन है कि देश में अवैध खनन का कारोबार एक लाख करोड़ रुपए से ज्यादा का है। विदेशी बैंकों में जमा काले धन की मात्रा का तो अभी तक ठीक से अनुमान भी नहीं लगाया जा सका है। घोटालों और उस पर आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति, सफाई और थोड़े शोर शराबे के बाद सब कुछ दबा दिए जाने की परंपरा ने कभी यह सुनिश्चित ही नहीं होने दिया है कि पैसा कहां से आया और कहा चला गया। 69 साल में जवाबदेही किसी ने स्वीकार नहीं की है। देश चल रहा है और विकास हो रहा है, सब यही मानकर मगन हैं। नेताओं की वैध-अवैध संपत्ति फल फूल रही है और दावा किया जा रहा है कि आम आदमी का जीवन स्तर सुधर रहा है, उसके लुभावने आंकड़े जुटाने और उन्हें चमकदार तरीके से परोसने में पूरी सरकारी मशीनरी लगी हुई है। लेकिन विकास कहां हुआ है इसकी पोल खुल जाती है आंकड़ों और सरकारी अध्ययनों से ही निकली जानकारी से। बुनियादी सुविधाओं की ही बात लें तो 2005 में गांव-गांव में बिजली पहुंचाने के लिए 27 हजार करोड़ रुपए की ग्रामीण विद्युतीकरण योजना शुरू की गई थी। दावा किया गया है कि 87 फीसदी गांव रोशन हो गए हैं। असलियत यह है कि देश के 11 लाख घरों में बिजली नहीं है बिहार के तो दस फीसदी गांवों में ही बिजली है। देश के 43 फीसदी ग्रामीण घरों में आज भी रोशनी के लिए लालटेन या कठकी का इस्तेमाल होता है। 85 फीसदी गांवों में खाना पकाने के लिए लकड़ी, फसल के अवशेष और उपलों को जलाया जाता है। रही पानी की बात तो बीस फीसदी भारतीयों को पीने का साफ पानी नहीं मिलता। 22 फीसदी ग्रामीण आबादी को पानी के लिए कई किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालाय ने भी इसे सबसे बड़ी समस्या माना है कि आधे से ज्यादा परिवारों को शौच के लिए खुले में जाना पड़ता है। झारखंड, ओडीशा और छत्तीसगढ़ में तो ऐसे परिवारों की संख्या वहां की आबादी को दो तिहाई है। दलितों और आदिवासियों के उत्थान के दावे किए जाते हैं और उन दावों के आधार पर सालों से वोट बटोरे जा रहे हैं। 2010-2011 में दलितों के लिए 23153 करोड़ और आदिवासियों के लिए 9221 करोड़ रुपए आवंटित हुए यह तो खर्च का हिसाब है लेकिन सरकारी लापरवाही की वजह से विभिन्न योजनाओं के तहत पहुंचने वाले 25274 करोड़ रुपए दलितों तक और 18004 करोड़ रुपए आदिवासियों तक पहुंच ही नहीं पाए। 2011-2012 में तो दलित 23890 करोड़ और आदिवासीय 12.87 करोड़ रुपए की मदद से वंचित रह गए। वजह जिन मंत्रालयों और विभागों को अपने कुल खर्च का जो हिस्सा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कल्याण पर अनिवार्य रूप से लगाना था, उसका उन्होंने समय पर आवंटन ही नहीं किया। इसी का नतीजा है कि गांवों में अनुसूचित जनजाति के 47.4 फीसदी और अनुसूचित जाति के 42.3 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं। और गरीबी रेखा भी क्या है। जून 2011 में योजना आयोग ने गांवों में प्रति व्यक्ति 26 रुपए और शहरों में 32 रुपए रोज को गरीबी रेखा मानक मानने का हलफनामा सुप्रीम कोर्ट में दिया था। इस पर काफी बवाल भी मचा था। गरीबी की नई हास्यास्पद परिभाषा भी की गई है जिसके मुताबिक गांव का एक व्यक्ति 22.43 रुपए रोज 672.8 रुपए मासिक और शहरी व्यक्ति 28.65 रुपए (859.6 रुपए मासिक) में मजे से गुजारा कर सकता है। सरकारी दावा है कि 2004-05 से 2009-10 के बीच के पांच सालों में गरीबों की संख्या 7.3 फीसदी घटकर 37.2 फीसदी से 29.8 फीसदी रह गई है। इस अरसे में गांवों में गरीब आठ फीसदी कम होकर 41.5 फीसदी से 33.8 फीसदी तक आ गए। लेकिन सरकारी आंकड़े ही बताते हैं कि सिर्फ बिहार और उत्तर प्रदेश में बारह करोड़ 80 लाख गरीब हैं जो देश की कुल गरीबों की संख्या का एक तिहाई है। शिक्षा पर 2009 से 2012 के बीच बजट दुगुना कर दिया गया है। 2009-2010 में प्राथमिक शिक्षा के विकास के लिए 26169 करोड़ रुपए आंवटित थे। जो 2011-12 में 55746 करोड़ रुपए हो गए यानी हर बच्चे पर 4269 रुपए। लेकिन छात्रों तक पहुंच पाया है इसका छह फीसदी हिस्सा ही। ये तो सिर्फ कुछ उदाहरण हैं। लालफीताशाही, अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार की वजह से विकास योजनाओं का लाभ जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच पा रहा है। ऐसे में विकास होगा तो कैसे?
मध्यप्रदेश में  प्रिंट मीडिया की तरह ही न्यूज़ वेबसाइटों पर नियंत्रण के लिए खेल बदस्तूर जारी है।
डॉ. अरूण जैन
खबर नेशन डॉट कॉम के अनुसार  मप्र के जनसंपर्क मंत्री नरोत्तम मिश्रा, सी.एम. के प्रमुख सचिव एस.के.मिश्रा ने फिर फर्जी वेबसाइट संचालकों को दिए विज्ञापन? जनसंपर्क आयुक्त ने रोके थे विज्ञापन, घोटाला सामने आने के बाद वजह फर्जी पत्रकारों के पति, पिता और बेटों की नियमित चापलूसी भरी हाजिरी सरकार ने पन्द्रह दिन इंतजार क्यों नहीं किया ? मध्यप्रदेश में बंद पड़ी वेबसाइट न्यूज पोर्टल को सरकार ने बाले वाले लगभग साढ़े बारह करोड़ रूपए बॉटकर घोटाला कर डाला था। नौ माह पूर्व जब विधानसभा में इस घोटाले की जानकारी सामने आई तो सरकार ने हल्ला मचने पर रक्षात्मक तेवर अपना लिए और समूची वेबमीडिया के विज्ञापन बंद कर दिए। वेबमीडिया के ईमानदारी पूर्वक काम करने वाले संचालकों ने जब सरकार से गुहार लगाई तो नए नवेले जनसंपर्क मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने सकारात्मक पहल करते हुए विज्ञापन जारी करने के निर्देश दिए। हाल ही में दो दिन पूर्व जनसंपर्क विभाग ने 179 वेब मीडिया संचालकों को विज्ञापन जारी किए हैं। जब घोटाला सामने आया था तब लगभग 230 वेबसाईट, न्यूज पोर्टल को चार साल मे सवा बारह करोड़ रूपए दिए गये थे। जिसमें से लगभग 90 प्रतिशत राशि प्रदेश के बड़े पत्रकारों की फर्जी वेबसाईट को दे दिए गये थे। इस मामले को सर्वप्रथम उठाने वाली एकमात्र न्यूज पोर्टल खबरनेशन डॉट कॉम थी। जिसके बाद इस घोटाले को अंजाम देने वाले बौखला उठे थे। तब इस प्रश्न को विधानसभा में उठाने वाले कांग्रेस विधायक बाला बच्चन ने यह आरोप लगाया था कि सरकार ने इस घोटाले के माध्यम से व्यापम घोटाले को दबाकर मीडिया की विश्वसनीयता पर चोट पहुँचाई। बाद में जनसंपर्क विभाग ने वेब मीडिया के लिए नई नीति बनाई। जब इस नीति के अनुरूप जनसंपर्क आयुक्त अनुपम राजन ने विज्ञापन जारी करने की कार्यवाही शुरू की तो जनसंपर्क विभाग में पुराने घोटाले के सरगना रहे अतिरिक्त संचालक स्तर के एक अधिकारी और उनके घोटालेबाज साथियों ने राजन के खिलाफ दुष्प्रचार अभियान छेड़ दिया। सूत्रों के अनुसार राजन कुल 81 वेबसाइट संचालकों को विज्ञापन देने के पक्ष में थे जो शासन द्वारा बनाई नीति के दायरे मे आ रहे हैं। लेकिन प्रमुख सचिव जनसंपर्क एस.के. मिश्रा जो खुद हाल ही में दलिया घोटालेबाजों के साथ आयकर विभाग की कार्यवाही की जद में आ रहे हैं और जनसंपर्क मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने वेबसाईट के लिए बनाई गई नीति को स्थगित रखते हुए 179 लोगों को इस शर्त पर विज्ञापन जारी कर दिए गये कि आगामी माह से जनसंपर्क द्वारा बनाई नीति का पालन करने वालों को ही विज्ञापन दिए जाएंगे। नियमानुसार किसी भी नीति को स्थगित करने का फैसला कैबिनेट की मंजूरी के बाद ही लिया जा सकता हैं। आखिर इतनी जल्दी क्या थी सरकार को ? महज इसलिए कि अब सिंहस्थ की गड़बडिय़ा मीडिया में प्रकाशित नहीं होने देना चाहती सरकार या फिर दलिया घोटाले पर बचाव की मुद्रा में हैं सरकार या फिर चापलूसी पत्रकारों के लिए सरकार पूरी मीडिया को बदनाम करने का षड्यंत्र रचती रहेगी।

यूपी में इस बार मुकाबला चौतरफा होने के आसार बढ़े

डॉ. अरूण जैन
चुनावी बेला में सभी सियासी जमात अपनी ताकत बढ़ाने के लिये हाथ−पैर मार रही हैं। सबके अपने−अपने दावे हैं। कुछ सवाल भी हैं जैसे कि कौन बाजी मारेगा? किसको हार का मुंह देखना पड़ेगा? कहां किसका किस पार्टी के साथ गठबंधन होगा? वैसे इस बार आसार मुकाबला चौतरफा होने के नजर आ रहे हैं। पिछले कई चुनावों में मुख्य मुकाबले में रहने वाली सपा-बसपा को इस बार कांग्रेस-भाजपा कड़ी टक्कर देने के लिये मशक्कत कर रहे हैं। कांग्रेस अपने रणनीतिकार प्रशांत किशोर (पीके) के बल पर ताल ठोंक रही है तो भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सहारे यूपी में अपनी नैया पार लगाना चाहती है। पार्टियां तो सभी ताल ठोंक रही हैं लेकिन इधर कांग्रेस की तेजी ने सबको अचंभित कर दिया है।  प्रदेश में कांग्रेस सशक्त हो रही है इस बात का कोई पुख्ता प्रमाण तो नहीं पेश किया जा सकता है। लोकतंत्र में अगर किसी पार्टी की सफलता-असफलता को भीड़तंत्र की कसौटी पर कसा जाता हो तो कांग्रेस का ग्राफ बढ़ता नजर आ रहा है। लोकसभा चुनाव से पूर्व भाजपा नेता और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता का पैमाना भी तो उनकी जनसभाओं और रोड शो में जुटने वाली भीड़ से ही लगाया जाता था। लखनऊ में कांग्रेस युवराज राहुल गांधी पॉलिटिकल रैंप पर चहल कदमी करते हुए कांग्रेसियों में नई जान फूंक गये। रिझझिम फुहारों के बाद हुई तेज बरसात भी कांग्रेसियों का हौसला पस्त नहीं कर पाई। घंटों मंच से लेकर मैदान तक कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता चट्टान की तरह सियासी मोर्चे पर डटे रहे। इन लोगों में जोश भरने का काम राहुल गांधी ने किया। पटकथा पहले से तैयार थी। राहुल नायक की तरह आये और अपना किरदार निभाकर चले गये। पीछे छोड़ गये तो सियासी चर्चाओं का अम्बार। यूपी में इससे पूर्व शायद ही राहुल का कोई कार्यक्रम इतना हिट रहा होगा। राहुल तय समय पर रमाबाई अंबेडकर मैदान पहुंचे। उन्होंने सबसे पहले फ्लाइंग किस कर कार्यकर्ताओं का अभिवादन किया। इससे कार्यकर्ता जोश से भर गए। पूरा कार्यक्रम स्थल कांग्रेस के जयघोष से गूंज उठा। राहुल ने बारिश से तरबतर कार्यकर्ताओं को देखा तो उनका दिल जीतने के लिए कहा, काश एक बार फिर जोर की बारिश आ जाए और मैं भी पूरी तरह भीग जाऊं। इस समय आप भीगे हुए हैं और मैं सूखा हूं। मेरी भी इच्छा आपकी तरह भीगने की है। नेता मंच पर बैठे थे। राहुल इसी रैंप पर चहलकदमी करते हुए पहली बार कार्यकर्ताओं के सवालों के जवाब दे रहे थे। कार्यकर्ताओं के उत्साह को देखते हुए राहुल ने गुलाम नबी आजाद और राज बब्बर को रैंप पर बुलाया। उन्होंने भी कुछ सवालों उत्तर दिये। बाद मे शीला दीक्षित, संजय सिंह व अन्य नेता भी रैंप पर आए। दो घंटे के इस शो के जरिए राहुल ने कई बार कार्यकर्ताओं के दिलों को छुआ। बार-बार तालियों की गडग़ड़ाहट बता रही थी कि राहुल उनका उत्साह बढ़ाने में कामयाब रहे हैं। जिस रैली स्थल के बारे में कहा जाता है कि इसे भरने की क्षमता सिर्फ बसपा प्रमुख मायावती के पास है, उसी रमाबाई अंबेडकर मैदान में कांग्रेसी झंडे लहरा रहे थे। कांग्रेसी राहुल के लखनऊ कार्यक्रम की सफलता से गद्गद हैं लेकिन विरोधी कुछ और ही कहानी बयां कर रहे हैं। पिछले पांच महीने के दौरन अलग-अलग मीटिंग में प्रशांत किशोर ने सभी टिकट चाहने वाले नेताओं से बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं की सूची मांगी थी। पीके ने सभी टिकट चाहने वालों से 15-15 कार्यकर्ताओं को लाने के लिए कहा था। इस समय यूपी में 9000 लोग कांग्रेस से टिकट मांग रहे हैं। इनमें से आधे भी यदि 15−15 कार्यकर्ताओं को लाये होंगे तो कार्यक्रम तो सफल हो ही जायेगा। विरोधी कुछ कहें लेकिन इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि पीके की भीड़ जुटाने की यह रणनीति पूरी सफल रही। लखनऊ कार्यक्रम की सफलता कांग्रेस नेताओं के सिर चढक़र बोल रही थी। कांग्रेस की मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार शीला दीक्षित, प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर से लेकर प्रभारी गुलाम नबी आजाद तक सब गद्गद थे तो कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर (पीके) के चेहरे पर सुकून देने वाले भाव थे। आखिर उनका पहला शो हिट रहा था। इस कामयाबी से पीके को ऊर्जा मिली जिसका नतीजा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में देखने को मिला। वाराणसी में लखनऊ से भी बड़ी कामयाबी कांग्रेस और पीके के हाथ लगी। लखनऊ में राहुल गांधी चेहरा थे तो वाराणसी में पीके ने कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी पर दांव लगाया था। वाराणसी में लखनऊ की तरह जनसभा नहीं रखी गई थी, यहां सोनिया गांधी का करीब छह किलोमीटर लम्बा रोड शो था। रोड शो में खूब भीड़ जुटी। सोनिया के रोड शो की तुलना मोदी के रोड शो से होने लगी। सोशल मीडिया पर भी सोनिया का रोड शो कांग्रेस की सोशल मीडिया टीम की वजह से पूरे दिन सोनिया इन काशी के नाम से टॉप पर ट्रेंड करता रहा। सोनिया भीड़ को देखकर गद्गद थीं, वह हाथ हिला−हिलाकर भीड़ का अभिवादन कर रही थीं, लेकिन अचानक उनकी तबीयत बिगडऩे लगी। एयरपोर्ट पर चार घंटे के इलाज के बाद उन्हें दिल्ली भेज दिया गया लेकिन तब तक कांग्रेस का काम हो चुका था। पीके की रणनीति यहां भी सफल रही थी। सोनिया की गैर−मौजूदगी में शीला दीक्षित और राज बब्बर ने रोड शो की कमान अपने हाथों में ले ली। शीला दीक्षित ने तो घोषणा भी कर दी कि अगर कांग्रेस की सरकार बनी तो पूर्वांचल को विशेष पैकेज दिया जायेगा। एक सप्ताह में दो बड़े और कामयाब कार्यक्रम। इससे पहले दिल्ली से कानपुर तक कांग्रेस की बस यात्रा 27 साल, यूपी बेहाल में भी खूब भीड़ देखने को मिली थी। वाराणसी में सोनिया की तबीयत खराब हो गई तो शीला दीक्षित को स्वास्थ्य कारणों से बस यात्रा बीच में ही छोडक़र वापस आना पड़ा था। इसी तरह से नई जिम्मेदारी संभालने के बाद जब शीला दीक्षित और राज बब्बर का प्रथम लखनऊ आगमन हुआ था, तब भी कांग्रेसियों के जोश ने काफी उफान मारा था। खैर, प्रथम दृष्टया यूपी में 27 वर्षों के बाद कांग्रेस के दिन बहुरते दिख रहे हैं लेकिन इसमें कितनी हकीकत है और कितना फसाना है यह अगले साल ईवीएम खुलने के बाद ही पता चलेगा। कांग्रेस की यूपी में क्या स्थिति है इसका बारीकी से विश्लेषण किया जाये तो साफ नजर आता है कि भले ही कांग्रेसी तमाम दावे कर रहे हों, लेकिन कांग्रेस के लिये यूपी में राह बहुत ज्यादा आसान नहीं है। सबसे बड़ी बात तो यही है कि 2017 में चुनाव उत्तर प्रदेश विधानसभा के होने हैं, लेकिन कांग्रेसी अखिलेश सरकार से ज्यादा हमले केन्द्र की मोदी सरकार पर करने में लगे हैं। मानो यह विधानसभा नहीं लोकसभा का चुनाव हो। काशी में रोड शो करके भले ही कांग्रेस ने अपनी ताकत दिखा दी हो, मगर यहां से जो संदेश निकला है वह लखनऊ नहीं दिल्ली ही गया है। बात यहीं खत्म नहीं होती है। कांग्रेस ने चुनावी बिगुल तो बजा दिया है लेकिन उसे अभी तक यह भी नहीं पता है कि किस पार्टी या नेता के ऊपर कितना हलका या तगड़ा हमला किया जाये। ऐसा लगता है कि भले ही कांग्रेसी एकला चलो की बात कर रहे हों, लेकिन कहीं न कहीं अंदरखाने में उनकी नजर छोटे-छोटे दलों के साथ गठबंधन पर भी लगी हुई है। सबसे बड़ी बात तो यही है कि फिलहाल कांग्रेसी अकेले ही ताल ठोंक रहे हैं, जब सपा-बसपा और भाजपा भी मैदान में कूदेंगे तब कांग्रेस की जमीनी स्थिति का सही-सही आकलन हो पायेगा। 

अमरीका ने भी माना मोदी का ‘लोहा’

डॉ. अरूण जैन
भारत की संसद में हाल में वस्तु एवं सेवाकर (जीएसटी) विधेयक का पारित होना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक बड़ी विधायी उपलब्धि है और इस बात को उनके बड़े आलोचक भी नहीं झुठला सकते हैं। एक प्रमुख विशेषज्ञ ने यह बात कही है।    अनुसंधान संगठन कारनेगी एंडावमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस के मिलान वैष्णव ने विदेश मामलों की पत्रिका में लिखा है, ‘‘मोदी सरकार जो कि इस आलोचना से हैरान थी कि उसने भारतीय अर्थव्यवस्था के स्वरूप में बदलाव के लिए कुछ खास नहीं किया है, अब उसे एक कानून पारित करने पर सराहना मिल रही है और यह उसकी ऐसी उपलब्धि है जिसे उसके कड़े विरोधी भी आसानी से खारिज नहीं कर सकते हैं।’’   उन्होंने कहा, ‘‘यह उपलब्धि उनकी सरकार के लिए सही समय पर आई है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार अभियान पहले ही शुरू हो चुका है। उत्तर प्रदेश की जनसंख्या 20 करोड़ के करीब है। उत्तर प्रदेश और कुछ अन्य राज्यों में चुनावों का समय और उसकी अहमियत को देखते हुए कई इन चुनावों को मोदी सरकार को लेकर मध्यावधि जनमत भी करार दे सकते हैं।’’   विशेषज्ञों का मानना है कि जीएसटी के लागू होने से एक ऐसी साझी कर प्रणाली अमल में आ जाएगी जिससे राज्यों और केन्द्र के स्तर पर अप्रत्यक्ष करों की मौजूदा व्यवस्था को बेहतर बनाया जा सकेगा। केंद्र के स्तर पर लगने वाले उत्पाद शुल्क और राज्य के स्तर पर लगने वाले मूल्य वर्धित कर, प्रवेश कर और विलासिता कर जैसे कई करों को इसमें समाहित कर दिया जाएगा।