तेजी से बदल रही यूपी की राजनीतिक तस्वीर
डॉ. अरूण जैन
देश के सबसे बड़े सियासी सूबे उत्तर प्रदेश में राजनीतिक परिदृश्य बड़ी तेजी से बदल रहा है। जोड़−तोड़, सेंधमारी और पाला बदल की कवायदें उफान पर हैं। ताजा घटनाक्रम में पहला जेल में बंद माफिया डॉन मुख्तार अंसारी के कौमी एकता दल का सपा में विलय और फिर विलय का रद्द होना है। दूसरा पिछले दो दशकों से ज्यादा तक बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती के सिपाहसालार स्वामी प्रसाद मौर्य का पार्टी को अलविदा कहना है। वैसे तो राजनीति में कभी भी, कुछ भी संभव होता है। पर जिस तेज गति और उम्मीद से परे का राजनीतिक वातावरण उत्तर प्रदेश का बन रहा है, उससे आने वाले दिनों का आभास हो रहा है। असल में सत्तारूढ़ समाजवादी पाटी, बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस और यूपी की सत्ता का सपना पाले बैठी भारतीय जनता पार्टी सब के लिये विधानसभा चुनाव करो या मरो का सवाल बन गये हैं। किसी को अपनी प्रतिष्ठा बचानी है तो किसी को अपना अस्तित्व। किसी को 2019 का लोकसभा चुनाव दिख रहा है तो किसी के लिए ये चुनाव डूबते को तिनके का सहारा लग रहे हैं। वोटों के मंडी में सबसे ज्यादा मांग दलित, पिछड़े और मुस्लिम की है। भाजपा दलित व पिछड़ों को रिझाने में लगी है। बसपा अपना घर बचाने में लगी है। सपा नेतृत्व तो यह मानकर बैठा है कि वो दोबारा सरकार बनाने जा रहा है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी इन दिनों यूपी में सक्रिय हैं। वो 2019 के लोकसभा चुनाव की जमीन तैयार करने में जुटे हैं। उत्तर प्रदेश की सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव इन दिनों बहुत परेशान हैं। उनके परिवार में घमासान छिड़ा हुआ है। कौमी एकता दल के समाजवादी पार्टी में विलय से मुख्यमंत्री अखिलेश यादव बहुत भडक़े हैं। उन्होंने 2014 में लोकसभा चुनाव से ठीक पहले बाहुबली अतीक अहमद को सपा में शामिल होने से रोका था। उससे पहले 2012 के विधानसभा चुनाव से पहले अखिलेश ने डीपी यादव को पार्टी में शामिल होने के बाद निकलवा दिया था। तब उनको इसका बहुत फायदा मिला था और उनकी सपा के पारंपरिक नेताओं से अलग ब्रांडिंग हुई थी। लेकिन कौमी एकता दल के विलय से उनकी यह छवि प्रभावित हुई। हालांकि जेल में बंद मुख्तार अंसारी सपा में शामिल नहीं हुए, लेकिन अफजल अंसारी और शिबकतुल्ला अंसारी सपा में आ गए। शिवपाल यादव ने यह विलय कराया। इसमें पार्टी के वरिष्ठ नेता बलराम यादव भी शामिल थे। इससे नाराज अखिलेश ने बलराम यादव को तत्काल अपनी सरकार से निकाल दिया। मामला गरमाया तो बीच का रास्ता निकाला गया जिसके तहत कौमी एकता दल का विलय रद्द हुआ और बलराम यादव की मंत्री पद पर वापसी हुई। दूसरी ओर मुलायम सिंह की छोटी बहू अपर्णा यादव ने केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह के साथ एक इफ्तार दावत में हिस्सा लिया और उनके पैर छुए। कुछ दिन पहले मुलायम सिंह ने अखिलेश के करीबी कुछ नेताओं को पार्टी से निकाला था, लेकिन अखिलेश की नाराजगी के बाद उनको वापस लेना पड़ा था। भारतीय जनता पार्टी अपने आपको यूपी की सत्ता का सबसे प्रबल दावेदार मान रही है। इसके लिये पार्टी जातीय गुणा−भाग ठीक करने में जुटी है। भाजपा आलाकमान के सामने सबसे बड़ी समस्या प्रदेश नेताओं के बीच बढ़ती गुटबाजी को रोकने की है। वहीं भाजपा के आधा दर्जन से ज्यादा नेता स्वयं को मुख्यमंत्री के तौर पर पेश करने में ताकत झोंक रहे हैं। सुलतानपुर के सांसद और मुख्यमंत्री पद के अघोषित दावेदार वरुण गांधी शांत होकर बैठ गए हैं। इलाहाबाद की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में उन्होंने पार्टी नेताओं का मूड भांप लिया और उसके बाद अपनी दावेदारी को आगे बढ़ाने या उस पर जोर देने का इरादा थोड़े समय के लिए छोड़ा है। केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के समर्थक भी चुप हैं। पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की ओर से प्रदेश के नेताओं को निर्देश दिया गया है कि वे अपनी महत्वाकांक्षाओं को काबू में रखें और उसका सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं करें। लेकिन ऐसा लगता है कि वरुण गांधी और स्मृति ईरानी को छोड़ कर दूसरा कोई नेता इसे गंभीरता से नहीं ले रहा है। भाजपा प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य के समर्थक उनको लगातार मुख्यमंत्री पद के संभावित दावेदार के तौर पर पेश कर रहे हैं। इसी तरह गोरखपुर के सांसद योगी आदित्यनाथ के समर्थक भी चुप नहीं बैठे हैं। योगी खुद हर कार्यक्रम और सभा में ध्रुवीकरण कराने वाले बयान दे रहे हैं। उनके समर्थकों ने सोशल मीडिया पर उनकी कट्टरपंथी छवि चमकाने की मुहिम छेड़ी है। इसी बीच पार्टी के एक और सांसद साक्षी महाराज ने अपनी दावेदारी पेश कर दी है। उनके समर्थकों का कहना है कि जब भाजपा गैर यादव पिछड़ा नेतृत्व पेश करना चाहती है तो साक्षी महाराज से बेहतर कोई नहीं हो सकता है। पार्टी के सवर्ण नेताओं में महेश शर्मा, दिनेश शर्मा और मनोज सिन्हा के समर्थक भी खूब सक्रिय हैं। उन्होंने स्थानीय स्तर पर और सोशल मीडिया पर अपने नेताओं के समर्थन में मुहिम छेड़ी है। इसका नतीजा यह हुआ है कि करीब एक दर्जन नेताओं के अलग अलग खेमे बन गए हैं और पार्टी के कार्यकर्ता भी इन खेमों में बंट गए हैं। पार्टी के शीर्ष नेता मान रहे हैं कि विधानसभा चुनाव में इसका नुकसान पार्टी को हो सकता है। अगले कुछ दिनों में मोदी मंत्रिमंडल के संभावित विस्तार में यूपी चुनाव के मद्देनजर यहां के नेताओं का कद बढ़ सकता है। सूबे में भले ही कांग्रेस के नए बने प्रभारी महासचिव गुलाम नबी आजाद और चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने कांग्रेस की जोर शोर से चर्चा करा दी है और सीएम पद के दावेदार के नाम पर अटकलें लग रही हैं, लेकिन इस बारे में फिलहाल कोई फैसला अभी नहीं होगा। असल में भाजपा सीएम का दावेदार पेश करती है या नहीं और अगर करती है तो किसे चेहरा बनाती है। यह देख कर ही कांग्रेस नेतृत्व कोई फैसला लेगा। कांग्रेस के नेता सपा और बसपा दोनों के साथ तालमेल की बात कर रहे हैं। इसके अलावा एक तीसरे मोर्चे की संभावना पर भी बात हो रही है। लेकिन इस बारे में भी कोई फैसला नहीं होगा। इसका कारण यह है कि कांग्रेस में अब इस बात पर गंभीरता से विचार हो रहा है कि गांधी परिवार से किसी व्यक्ति को उत्तर प्रदेश में पेश किया जाए। अगर भाजपा के फैसले के बाद कांग्रेस प्रियंका गांधी को उतारने का फैसला करती है तो फिर कोई भी गठबंधन नहीं होगा और कांग्रेस अकेले चुनाव मैदान में उतरेगी। इसके लिए जमीनी स्तर पर तैयारी हो रही है। यूपी में जोड़−तोड़ के साथ तोड़−फोड़ और आया राम−गया राम की राजनीति उफान पर है। सपा ने कुछ दिन पहले 146 सीटों पर उम्मीदवारों की घोषणा कर दी थी। उसके बाद दस और उम्मीदवारों की एक सूची जारी हुई है। लेकिन मौजूदा 229 विधायकों के बारे में कुछ नहीं कहा जा रहा है। सिर्फ उन सीटों के उम्मीदवार घोषित किए जा रहे हैं, जहां पार्टी पिछली बार चुनाव हारी थी। जीती हुए सीटों को लेकर सपा की अलग रणनीति है, जिसके बारे में नहीं बताया जा रहा है। सपा से उलट मुख्य विपक्षी बसपा ने अपने विधायकों को संकेत दे दिए हैं उनकी टिकट नहीं कटेगी। यानी बसपा के 79 विधायकों की टिकट सुरक्षित है। इसी तरह भाजपा ने भी अपने 41 और कांग्रेस ने 29 विधायकों को भरोसा दे दिया है कि उनको लडऩा है। इस लिहाज से बसपा, कांग्रेस और भाजपा के विधायकों ने अपने क्षेत्र में काम शुरू कर दिया है। पर सपा के विधायक चिंता में हैं।
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