Thursday 5 January 2017

इंदिरा की तरह एक व्यक्ति का शासन है नरेंद्र मोदी का

डॉ. अरूण जैन
बहुत सारी भयंकर गलतियां सीधे अपराधकर्ताओं के पश्चाताप द्वारा शमित हुई हैं। युद्धोत्तरकाल के जर्मनी ने हिटलर के अत्याचारों के लिए माफी मांगी थी और यहां तक कि नुकसान की भरपाई के लिए कीमत भी चुकायी थी। ऐसा नहीं कि उसके पापों को भुला दिया गया लेकिन आमतौर पर लोगों ने महसूस किया कि उनके माता−पिता एवं दादा−दादी के बच्चों एवं पोते−पोतियों ने सुधार करने की कोशिश की। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ऑपरेशन ब्लूस्टार के लिए खेद प्रकट करने अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में गए। ऑपरेशन ब्लूस्टार के दौरान भारतीय सेना ने स्वर्ण मंदिर में घुसकर जरनैल सिंह भिंडरावाले समेत आतंकवादियों को मार डाला था। राज्य देश के अंदर कोई और राज्य बनने की इजाजत नहीं दे सकता था। लेकिन आपातकाल, जो कि कोई छोटा अपराध नहीं था, अब तक का सबसे काला अध्याय बना हुआ है। और कांग्रेस, विशेषकर राजवंश की ओर से इसके लिए खेद व्यक्त करते हुए एक शब्द भी नहीं कहा गया है। गैर कांग्रेस पार्टियां यदा−कदा बयान जारी करती रहती हैं और विरोध प्रदर्शन करती हैं। लेकिन कांग्रेस पार्टी, जो उस वक्त सत्ता में थी, ने अब तक मौन साध रखा है। आखिरकार आपातकाल क्यों लगा? दरअसल इसके पीछे इलाहाबाद हाईकोर्ट का वह फैसला था, जिसमें चुनावी अपराध के लिए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध करार दिया गया था। कोर्ट के फैसले को मानने की बजाय इंदिरा गांधी ने ऐसा आदेश देने संबंधी न्यायपालिका के अधिकारों को ही खत्म कर दिया था। संविधान गलत या सही के बारे में फैसला करने का अधिकार न्यायपालिका को देता है, लेकिन उन्होंने संविधान को ही निलंबित कर दिया था। अगर इंदिरा गांधी अपने प्रारंभिक निर्णय के अनुसार इस्तीफा देकर माफी मांगने के लिए जनता के पास जातीं तो वे अपार बहुमत से जीत सकती थीं। याद रखना होगा कि इंदिरा गांधी द्वारा पद छोडऩे के प्रारंभिक निर्णय का जगजीवन राम ने पुरजोर विरोध किया था। आपातकाल के दौरान की गई ज्यादतियों तथा जिस तरीके से वे तानाशाह बन गयी थीं, इसके कारण जनता गुस्से में थी। हालांकि उनके बेटे संजय गांधी एवं उनके चाटुकार बंसीलाल ने सरकार को अपनी जागीर की तरह चलाया और वे लोग किसी तरह की कोई आलोचना सुनने को तैयार नहीं थे। फिर भी जो कुछ भी हो रहा था उसके लिए आमतौर पर इंदिरा गांधी को निर्दोष और अनजान माना जाता रहा। स्थिति इस हद तक पहुंच चुकी थी कि पुलिस को ब्लैंक वारंट दे दिया गया था और पुलिस अपना व्यक्तिगत बदला साधने के लिए इस वारंट का इस्तेमाल कर रही थी। नतीजतन, बगैर सुनवाई के एक लाख से अधिक लोगों को गिरपफ्तार कर लिया गया था। राजनीतिक नेताओं समेत विरोधियों के घरों एवं व्यावसायिक परिसरों में छापा मारा जा रहा था। यहां तक कि एक तानाशाह शासक पर आधारित फिल्म आंधी पर भी रोक लगा दी गई थी, क्योंकि इसकी कहानी इंदिरा गांधी की भूमिका से मिलती−जुलती थी। अगर मुझे आज की पीढ़ी को आपातकाल के बारे में बताना हो तो मैं इस उक्ति को दुहराना चाहूंगा कि प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए निगरानी की जरूरत है। यह उक्ति 69 साल पहले भारत को मिली आजादी के वक्त से भी ज्यादा आज का सच है। किसी ने इस बात की कल्पना नहीं की थी कि हाईकोर्ट की निंदा के बाद प्रधानमंत्री संविधान को ही निलंबित कर देंगी जबकि उन्हें स्वेच्छा से पद छोड़ देना चाहिए था। पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री अपने सहयोगियों को अक्सर सलाह दिया करते थे: ढीले होकर बैठो, जकड़ कर नहीं। यही कारण था कि तमिलनाडु के अरियालूर में एक बड़ी रेल दुर्घटना होने के बाद उन्होंने रेल मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। जो कुछ भी हुआ था, उसकी नैतिक जिम्मेदारी उन्होंने स्वीकार की थी। इस बात की कल्पना करना मुश्किल है कि आज कोई भी इस परिपाटी का पालन करेगा। फिर भी दुनिया भारत को एक ऐसे देश के रूप में देखती है जहां मूल्य की व्यवस्था बरकरार है। संकीर्णता या शाही जीवन शैली इसका जवाब नहीं है। देश को आज उन बातों की ओर लौटना होगा जिसे महात्मा गांधी ने कहा था- असमानता लोगों को निराशा की ओर ले जाती है। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों को याद करने की जरूरत है। ब्रिटिश शासन को खत्म करने के लिए सभी साथ हो गए थे। मैं चाहता हूं उसी तरह की भावना गरीबी खत्म करने के लिए जगे। वरना, आजादी का मतलब कुछ अमीरों के लिए बेहतर जीवन बनकर रह जायेगा। अगर कुछ साल पहले इंदिरा गांधी का शासन एक व्यक्ति का शासन था तो आज नरेंद्र मोदी का है। अधिकांश अखबार और टेलीविजन चैनलों ने काम करने का वही तरीका अपना रखा है जो तरीका उन्होंने इंदिरा गांधी के शासनकाल के दौरान अपना रखा था। नरेंद्र मोदी का एक व्यक्ति का शासन अनिष्टसूचक है, क्योंकि भाजपा सरकार में किसी मंत्री की कोई हैसियत नहीं है और मंत्रिमंडल द्वारा साझा विचार−विमर्श की बात मात्र कागज पर है। आपातकाल जैसा शासन शुरू हो इसके पहले सभी राजनीतिक दलों को इसे रोकने के लिए एकजुट होना होगा। लेकिन अरूण जेटली जैसा व्यक्ति भी, जो आपातकाल से परिचित हैं और जेल भी गए थे, ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि ऐसा लगता है कि उनकी सोच संघ परिवार से निर्देशित नहीं है। मुझे नहीं लगता कि देश में फिर से आपातकाल लगाया जा सकता है क्योंकि जनता सरकार द्वारा संविधान में किये गये संशोधन ने इसे असंभव बना दिया है। फिर भी, ऐसी स्थितियां बनायी जा सकती हैं जो बगैर कानूनी स्वीकृति के आपातकाल जैसी हों। हालांकि जनमत इतना सशक्त हो चुका है कि ऐसा कदम उठाना संभव नहीं होगा। किसी भी तरह के तानाशाही एवं आपातकाल जैसी स्थिति के विरोध में जनता सडक़ पर उतर आयेगी। मूल रूप से संस्थाओं की शक्ति मायने रखती है। आपातकाल के पहले इनकी जो ताकत थी उसे फिर से नहीं हासिल कर पाने के बावजूद संस्थाएं इतनी सशक्त हैं कि अपनी आजादी पर किसी भी नियंत्रण की पहल का वे विरोध करेंगी। हाल के कई उदाहरण हैं, जिनसे ये उम्मीद बनती है। उत्तराखंड का मामला लें। सदन में शक्ति परीक्षण के एक दिन पहले विधानसभा निलंबित कर दी गयी। सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के आदेश को उनके अधिकार क्षेत्र के बाहर का करार दिया और विधानसभा को बहाल रखा। यहां तक कि महाराष्ट्र हाईकोर्ट ने भी संरक्षिका की तरह काम करने के बजाय दृश्यों को काटकर महज प्रमाण पत्र बांटने वाली एजेंसी की तरह काम करने के लिए सेंसर बोर्ड को फटकार लगायी। सेंसर बोर्ड ने फिल्म उड़ता पंजाब में 90 दृश्यों के आसपास काटने की अनुशंसा की थी जबकि हाईकोर्ट ने सिर्फ एक दृश्य काटने की अनुमति दी। ये उदाहरण इस बात को बल प्रदान करते हैं कि स्थितियां सुधर रही हैं और जल्द ही आपातकाल के पहले वाली सशक्तता फिर से लौटेगी। कोई भी शासक उन हरकतों को दुहराने का साहस नहीं करेगा जो इंदिरा गांधी ने की बल्कि उसे संविधान का सही अर्थों में पालन करना होगा। आपातकाल से मिला सबक खत्म नहीं हुआ है और जनता के बीच वही पुराना भरोसा बना हुआ है कि उनकी स्वतंत्रता पर रोक नहीं लगायी जा सकती और मतभिन्नता के उनके अधिकार में किसी तरह की कटौती नहीं की जा सकती।

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