Thursday 5 January 2017

पूँजीवाद के विरुद्ध लड़ाई में सदा अग्रण्य रहे फिदेल कास्त्रो

डॉ. अरूण जैन
जब 20वीं शताब्दी का विश्व इतिहास लिखा जाएगा तो उसमें क्यूबा के पूर्व प्रधानमंत्री एवं राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो का नाम सबसे ऊपर होगा। यह केवल इसलिए नहीं कि उन्होंने क्यूबा जैसे छोटे देश में साम्यवादी क्रांति की थी, इसका सबसे बड़ा कारण यह होगा कि क्यूबा की क्रांति चीन एवं सोवियत संघ से बिल्कुल अलग थी, जो न तो लेनिनवादी क्रांति थी न ही माओवादी क्रांति। फोकोवाद के माध्यम से मुक्ति आंदोलन चलाया गया तथा बिल्कुल एक नया विकल्प रखा। क्यूबा ने सोवियत संघ से बड़ी सहायता ली, परंतु अपनी स्वाधीनता के साथ कभी कोई समझौता नहीं किया। नन्हें क्यूबा ने जिस  प्रकार विश्व शक्ति पूँजीवादी अमेरिका के विरुद्ध विरोध का बिगुल फूँका, वह भी विश्व इतिहास में एक चिरस्मरणीय घटना रही। भारत के साथ उनके संबंध बहुत बेहतर थे, विशेषकर नेहरु जी के साथ। भारतीय गुटनिरपेक्ष आंदोलन के विशिष्ट समर्थकों में फिदेल कास्त्रो का नाम भी उल्लेखनीय है। यही कारण है कि आज भी भारत और क्यूबा के संबंध काफी मधुर हैं। ये संबंध इतने घनिष्ठ हैं कि राजनीति से लेकर खेल के मैदान तक देखे जा सकते हैं। भारत को बॉक्सिंग के क्षेत्र में आगे बढ़ाने में क्यूबा का महत्वपूर्ण योगदान है। फिदेल कास्त्रो ने ही भारतीय बॉक्सर को क्यूबा में उच्चस्तरीय प्रशिक्षण की व्यवस्था की थी। ऐसे में 26 नवंबर को उनके निधन की सूचना से न केवल भारत में फिदेल कास्त्रो के समर्थक दुखी हुए हैं अपितु समतावादी समाज की इच्छा रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति दुखी हुआ है। उनके निधन से विश्व में वंचित वर्गों के हितों का ध्यान रखने वाले एवं साम्यवाद के आखिरी क्रांतिकारी का युग समाप्त हुआ है।  अमेरिका ने सदैव फिदेल को मारने या अपदस्थ करने की कोशिश की, परंतु उनकी अति कुशाग्र नीतियों के कारण अमेरिका कभी इसमें सफल नहीं रहा। मगर दुर्भाग्य कहें कि क्यूबा में फिदेल कास्त्रो का युग आज से 10-15 वर्ष पूर्व तब समाप्त हो गया था, जब अमेरिका से क्यूबा के संबंध क्रमश: धीरे -धीरे ठीक हो गए। उनके भाई राउल कास्त्रो के पूँजीवादी मार्ग की ओर आने से भी यह स्पष्ट हो गया था कि फिदेल का युग समाप्त हो गया है। दरअसल उनके भाई यह समझ गए थे कि विश्व में साम्यवादी युग समाप्त हो चुका है जो भी साम्यवादी विकल्प थे, वे चाहे माओवादी हों या अल्बेनिया वाला, या चेकोस्लावाकिया वाला या पोलैंड, सारे अलग-अलग संस्करण अप्रासंगिक हो चुके हैं। ऐसे में राउल कास्त्रो ने संशोधित उदारवाद को क्रमश: स्वीकार किया। उग्रवामपंथी से लेकर साम्यवाद तक जितने भी लैटिन अमेरिकी साम्यवादी विकल्प थे, उसमें क्यूबा के फिदेल कास्त्रो का विकल्प काफी अनोखा व अति महत्वपूर्ण था। वहाँ शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाओं की नई एवं मजबूत पद्धति का विकल्प भी रखा जो आज भी संपूर्ण विश्व के लिए एक अनुकरणीय मॉडल है। जो लोग भी वंचित वर्ग या अथवा समतामूलक समाज में विश्वास रखते हैं, उन्हें बड़ी ही निराशा होगी फिदेल के इस युग समाप्ति से क्योंकि इस मॉडल को इतने सफलता के साथ कहीं पुन: स्थापित नहीं किया जा सकेगा। मगर एक प्रेरणादायक नेतृत्व के रूप में फिदेल कास्त्रो सदैव अमर रहेंगे। पूँजीवाद के विरुद्ध लड़ाई में वे अग्रगण्य रहे। शीत युद्ध से जारी अमेरिकी वर्चस्व की चुनौती देने की फिदेल कास्त्रो की नीति शीतयुद्धोत्तर युग में भी अकेले दम पर जारी रही। बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद ही क्यूबा एवं अमेरिका के रिश्ते सुधर सके। क्यूबा की अर्थव्यवस्था सोवियत संघ पर निर्भर थी लेकिन सोवियत यूनियन के विघटन ने क्यूबा को बुरी तरह प्रभावित किया था। एक समय ऐसा था कि क्यूबा ने नाभीकीय हथियार प्राप्त करने की कोशिश की थी, सोवियत संघ ने भी उसे नाभीकीय शक्ति बना दिया था, लेकिन सोवियत संघ के विघटन एवं अमेरिकी वर्चस्व स्थापित होने के बाद सोवियत संघ ने अपने हाथ पीछे खींच लिए। एक तरह से शीत युद्ध में क्यूबा नाभीकीय हथियार के मुहाने पर खड़ा था। यही सब कारण था कि अंत तक फिदेल कास्त्रो क्यूबा की जनता में अपनी अतिलोकप्रियता बरकरार रख पाए। भूमि सुधार हो या किसानों को सत्ता की मुख्य धारा में लाने का कार्य, वह सभी में सफल रहे। क्यूबा के विकास एवं पूँजीवाद के विरुद्ध संघर्ष में वे सदैव गतिशील रहे।  गन्ने के खेतों में हैती के मजदूरों से हो रहे अन्यायों ने ही फिदेल कास्त्रो को क्रांति की ओर खींचा। कास्त्रो ने 1953 में तानाशाह बतिस्ता के विरुद्ध क्रांति का बिगुल फूँका, क्रांति असफल रही तथा उन्हें 15 वर्षों के लिए जेल की सजा दी गई, लेकिन 2 वर्ष बाद ही रिहा कर दिया गया। जेल से छूटने के बाद ही अपने भाई राउल कास्त्रो के साथ वह मैक्सिको चले गए। यहीं से उन्होंने चे ग्वारा के साथ मिलकर बतिस्ता के खिलाफ गुरिल्ला लड़ाई शुरु की। 1959 में उन्होंने बतिस्ता को अपदस्थ कर खदेड़ दिया तथा क्यूबा के प्रधानमंत्री बने। बाद में 1976 में क्यूबा के राष्ट्रपति बने। 2008 में वे पद से हट गए और राउल कास्त्रो को सत्ता सौंप दी। पूरे विश्व से साम्यवाद की समाप्ति के बाद भी फिदेल कास्त्रो क्यूबा में साम्यवाद का झंडा लहराते रहे। मार्क्स ने जहाँ धर्म को अफीम की संज्ञा दी, वहीं फिदेल का धर्म को लेकर काफी उदारवादी रवैया था। इस तरह उन्होंने धर्म को लेकर भी साम्यवाद को नवीन आयाम से विभूषित किया। न केवल क्यूबा अपितु संपूर्ण लैटिन अमेरिकी देशों का नेतृत्व किया। फिदेल ने संपूर्ण संपत्तियों का राष्ट्रीरकरण किया था, साथ ही श्रमिक कानून लागू किए, ससे वास्तव में श्रमिकों के हितों का संरक्षण हो सका। आज जिस तरह उदारीकरण एवं वैश्वीकरण की असफलता से दुनिया की एक बड़ी आबादी मुख्य धारा से बाहर हो रही है तथा कहीं ब्रेक्सिट तो कहीं ट्रंप जैसे राष्ट्रपति का चयन कर संरक्षणवादी नीतियों को प्रोत्साहन दे रही है, ऐसे में फिदेल कास्त्रो जैसे साम्यवादी आंदोलन के पुरोधा का हमें छोडक़र जाना सचमुच काफी एक युग की दुखद समाप्ति है। उनका व्यक्तित्व स्मरणीय है, जो सदैव 20वीं शताब्दी के विश्व इतिहास को नए रूप और स्वरूप के साथ परिभाषित करेगा। हमारे नीति निर्माता यदि क्यूबा के शिक्षा एवं चिकित्सा मॉडल को भारत में क्रियान्वित कर सकें तो यही फिदेल कास्त्रो को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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