Monday 2 January 2017

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को कुछ ठोस उपाय करने होंगे

डॉ. अरूण जैन

उत्तर प्रदेश में अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस की तेजी चौंकाने वाली है। कांग्रेस आलाकमान ने देश भर के अपने तमाम धुरंधरों को मिशन यूपी पर लगा दिया है। कांग्रेस से जुड़ी खबरें मीडिया में सबसे अधिक सुर्खियां बटोर रही हैं। शायद ही कोई ऐसा दिन जाता होगा जब कांग्रेस खेमे से कोई चौंका देने वाली खबर न आती हो। चुनावी रणनीतिकार प्रशांत कुमार (पीके) जब से कांग्रेस के साथ आये हैं तब से पार्टी में कुछ अधिक तेजी देखने को मिल रही है। इस पर गुलाम नबी आजाद को यूपी का प्रभारी बनाया जाना सोने पर सुहागा साबित हो रहा है। उम्मीद है कि देर−सबेर यूपी कांग्रेस को निर्मल खत्री की जगह नया प्रदेश अध्यक्ष भी मिल जायेगा। कांग्रेसियों की तरफ से माहौल कुछ ऐसे बनाया जा रहा है जैसे वह (कांग्रेस) सत्ता की सबसे बड़ी दावेदार हो। यह स्थिति तब है जबकि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के वादों-दावों को कोई ज्यादा गंभीरता से नहीं लेता है। इसकी वजह पर जाया जाये तो लगता है कि कांग्रेस आलाकमान में निर्णय लेने की क्षमता ही नहीं है। फैसले लेने की प्रक्रिया इतनी लंबी और सुस्त होती है कि जब तक फैसला लिया जाता है तब तक स्थितियां बहुत बदल जाती हैं। यूपी के प्रदेश अध्यक्ष निर्मल खत्री को हटाने के मामले में भी ऐसा ही हो रहा है। निर्मल खत्री जातीय समीकरण के हिसाब से कांग्रेस के लिये फायदेमंद नजर नहीं आ रहे हैं। कांग्रेस के भीतर इस बात पर सैद्धांतिक सहमति हो जाने के बाद भी दो साल से ज्यादा का वक्त गुजर गया लेकिन नये प्रदेश अध्यक्ष की तलाश अभी तक नहीं पूरी हो पाई है। एक तरफ निर्णय लेने में देरी और उस पर कांग्रेस के पास जनाधर वाले नेताओं की कमी पार्टी के लिये स्थायी समस्या बनती जा रही है। जो नेता बचे भी हैं, वे आपस में ही सिर फुटव्वल करे हैं। यूपी में तो कांग्रेस के कई प्रभारियों ने ही जिन्हें पार्टी की दिशा-दशा सुधारने के लिये भेजा गया था, पार्टी के भीतर अपने स्तर पर गुटबाजी को हवा देने का काम किया है तो कुछ प्रभारी पहले से चली आ रही गुटबाजी को खत्म करने में नाकाम रहे हैं। हाल ही में प्रदेश प्रभारी पद से हटाये गये मधुसूदन मिस्त्री इसकी मिसाल थे। नेताओं के अभाव के कारण संगठन भी कमजोर होता जा रहा है। किसी भी संगठन के लिए जो बूथ स्तर का संगठनात्मक ढांचा होता है, वह एक तरह से पार्टी या संगठन की जान होता है। कांग्रेस में यह दम तोड़ा चुका है। आज की तारीख में कांग्रेस के फ्रंटल संगठनों ने भी अपना औचित्य खो दिया है। वे जिस मकसद को लेकर बनाए गए हैं उसके अनुरूप काम ही नहीं कर रहे हैं। करीब तीन दशकों से यूपी की सियासत में हाशिये पर चल रही कांग्रेस कभी यूपी का सिरमौर हुआ करती थी। देश को कई प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री देने वाली पार्टी ने लम्बे समय तक प्रदेश पर राज किया। परंतु जब से यूपी में मंडल-कमंडल की राजनीति का उद्भव हुआ तब से कांग्रेस का रूतबा क्षेत्रीय दलों ने हासिल कर लिया। मंडल-कमंडल के दलदल से बड़ा-छोटा कोई नेता बच नहीं पाया। मंडल-कमंडल के अलावा भी 1984 से 1990 के दौरान ऐसे कई सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन हुए जिनकी वजह से कांग्रेस की जमीन खिसकती गई। कांग्रेस ने मंडल−कमंडल की राजनीति में अपने आप को फिट करने की काफी कोशिश की, मगर उसकी सियासी हांडी चढ़ नहीं पाई। वर्ष 1989 में भारतीय राजनीति में नए युग की शुरुआत हुई और कांग्रेस के कमजोर पडऩे और क्षेत्रीय दलों के उभार के बाद केन्द्र और राज्य की राजनीति में गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हो गया। मंडल-कमंडल की राजनीति में, मंडल की राजनीति के नायक तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह बने तो मंडल की काट के लिये कमंडल (अयोध्या में भगवान राम के मंदिर का मुद्दा) को हवा देने में भगवा खेमा आगे रहा। सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों के लिए वीपी सिंह ने मंडल आयोग की आरक्षण संबंधित सिफारिशें लागू करके भले ही नौकरियों में नए अवसरों के द्वार खोल दिये थे, परंतु वीपी सिंह के इस कदम पर ऊपरी जाति के लोगों ने तीखी प्रतिक्रिया दी। जगह-जगह माहौल हिंसक होने लगा। आरक्षण विरोधी सडक़ पर उतर आये। यही वजह थी कि बुद्धिजीवी कहने लगा कि सामाजिक न्याय के नाम पर वीपी सिंह ने सिर्फ जाति विभेदों को बढ़ावा दिया। देश भर में छिड़ी आरक्षण की बहस ने पिछड़े वर्ग को अपनी पहचान का एहसास दिलाया। इस पहचान के एहसास ने उन लोगों का काम आसान कर दिया जो इस वर्ग को राजनीति में लाना चाहते थे। पिछड़े वर्ग को अच्छी शिक्षा, रोजगार के वायदे के साथ कई नई नई पार्टियां इस दौर में अस्तित्व में आईं। नीतीश कुमार, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव आदि तमाम नेता इसी सियासत की देन थे। मंडल-कमंडल की सियासत में मंडल और कमंडल दोनों की ही राजनीति करने वालों को फायदा हुआ। सिर्फ कांग्रेस को ही नुकसान उठाना पड़ा। उसके पास इस स्थिति से मोर्चा लेने के लिये न तो इंदिरा गांधी मौजूद थीं, न संजय और राजीव गांधी। पार्टी का वोट बैंक तितर-बितर हो गया। मंडल कमंडल की काट कर सकने वाले नेताओं का पार्टी में अकाल पड़ गया। जब नेता नहीं बचे तो कार्यकर्ता भी मायूस होकर घरों में बैठ गया। यूपी में कांग्रेस को सबसे अधिक नुकसान हुआ। जिस पार्टी के 1980 में 309 और 1985 में 269 विधायक (425 में से) थे, 1989 में उनकी संख्या 94 पर सिमट गई। इसके बाद यूपी में कांग्रेस कभी उभर नहीं पाई। आज की तारीख में कांग्रेस के मात्र 28 (403 में से) विधायक हैं। बात वोट प्रतिशत की कि जाये तो 1993 में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को मात्र 15.1, 1996 में 29.1, 2002 में महज 08.9, 2007 में 08.8 और 2012 में 11.6 प्रतिशत मत ही मिले। 2012 में कांग्रेस की स्थिति में दो तीन प्रतिशत का सुधार तब आया था, जबकि राहुल गांधी ने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी। वह वन मैन आर्मी की तरह सूबे में प्रचार कर रहे थे। उन्हीं के इशारे पर चुनावी रणनीति बनाई जा रही थी और उनकी पसंद के मुद्दों को हवा दी जा रही थी।

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