Tuesday, 28 June 2016

गंगटोक को म्यूजियम में रखने लायक शहर भी कहा जाता है

डॉ. अरूण जैन
पर्वतराज हिमालय की गोद में बसा सिक्किम भारत के सुंदरतम राज्यों में से एक है। भारत में फूलों व पक्षियों की सर्वाधिक किस्में सिक्किम में ही पाई जाती हैं। आर्किड की विश्व भर में पाई जाने वाली लगभग पांच हजार प्रजातियों में से अकेले सिक्किम में 650 से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं।  सिक्किम के मूल निवासी लेपचा और भूटिया हैं लेकिन यहां बड़ी तादाद में नेपाली भी रहते हैं। अधिकांश सिक्किमवासी बौद्ध एवं हिन्दू धर्म को मानते हैं। सिक्किम उन कुछेक राज्यों में शुमार है, जहां अभी रेल सुविधा नहीं है। सिक्किम की राजधानी गंगटोक देश का एक खूबसूरत हिल स्टेशन भी है। गंगटोक की खूबसूरती का अंदाजा इसी बात से लग सकता है कि कुछ इतिहासकारों ने गंगटोक को म्यूजियम में रखने लायक शहर भी बताया है। गंगटोक शहर से आठ किलोमीटर दूर स्थित ताशी व्यू पाइंट से कंचनजंघा एवं सिनोलचू पर्वत शिखरों का बड़ा मनोहारी रूप दिखाई पड़ता है। बर्फ से ढकी इन चोटियों का धूप में धीरे−धीरे रंग बदलना भी एक अद्भुत समां बांधता है। सिक्किम के पूर्व राजाओं का राजमहल एवं परिसर में बने त्सुकलाखांग बौद्ध मंदिर की खूबसूरती देख कर पर्यटक अचंभित रह जाते हैं। यहां हर वर्ष भव्य मेले का भी आयोजन किया जाता है। शहर से तीन किलोमीटर दूर स्थित आर्किड सेंक्चुअरी में आर्किड की सैंकड़ों किस्में संरक्षित हैं। वसंत ऋतु में इस स्थान की शोभा निखरने लगती है। तिब्बती भाषा, संस्कृति व बौद्ध धर्म के शोधार्थियों के लिए रिसर्च इंस्टीट्यूट आफ तिब्बतोलोजी एक अद्वितीय संस्थान है। इसकी प्रसिद्धि विश्व भर में है। यहां संग्रहालय में दुर्लभ पांडुलिपियों, पुस्तकों, मूर्तियों, कलाकृतियों का अनूठा संग्रह है। विषेशकर थंका पेंटिंग का वृहदाकार रूप तो यहां के संग्रहालय की अनमोल धरोहर है। इस संस्थान की नींव 1957 में दलाई लामा ने डाली थी।  गंगटोक से लगभग सात किलोमीटर दूर गणेश टाक से गंगटोक के पूर्वी हिस्सों एवं कंचनजंघा पर्वतमाला का शानदार नजारा दिखता है। कुटीर उद्योग संस्थान हस्तनिर्मित वस्तुओं, विशेषकर शालों, गुडिय़ों, कालीनों आदि के लिए प्रसिद्ध हैं। उपहार में देने लायक अनेक सस्ती व उत्तम वस्तुओं की यहां से खरीदारी की जा सकती है। यह संस्थान मुख्य बाजार से केवल आधा किलोमीटर दूर है। पालजोर स्टेडियम के पास स्थित एक्वेरियम में सिक्किम में पाई जाने वाली मछलियों की खास−खास किस्में भी आप देख सकते हैं। गंगटोक से पैंतीस किलोमीटर दूर लगभग 12,120 फुट की ऊंचाई पर छंगु लेक है। अत्यंत पवित्र मानी जाने वाली यह झील लगभग एक किलोमीटर लंबी है। जाड़ों में जब यह झील पूरी तरफ से बर्फ से ढक जाती है तब इसकी खूबसूरती कई गुना बढ़ जाती है। ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों से घिरी यह झील प्रवासी पक्षियों की शरणगाह भी है। छंगु लेक के किनारे दुर्लभ याक की सवारी पर्यटकों के आकर्षण का मुख्य केन्द्र है। गंगटोक से छंगु तक जाने के लिए जीप या टैक्सियां उपलब्ध रहती हैं। छंगु जाने के लिए परमिट बनवाना आवश्यक है। यह काम टूर एजेंट आसानी से करवा देते हैं। आप स्वयं पुलिस अधिकारी से संपर्क कर भी परमिट बनवा सकते हैं। गंगटोक से चौबीस किलोमीटर दूरी पर है, रूमटेक मठ। यह बौद्ध धर्म की काग्युत शाखा का मुख्यालय है। पूरे विश्व में रूमटेक मठ की 200 शाखाएं हैं। इस मठ का अपना एक विद्यालय है और रंगबिरंगे पक्षियों से सुसज्जित पक्षीशाला भी। मठ में विश्व की कुछ अद्भुत धार्मिक कलाकृतियां भी संग्रहीत हैं। हर साल जून माह में इस स्थान पर धार्मिक समारोह का आयोजन भी किया जाता है। 51.76 वर्ग किलोमीटर में फैला फंबोंग लो वाइल्ड लाइफ सेंक्चुअरी गंगटोक से पच्चीस किलोमीटर दूर है। यहां रोडोडेंड्रोन, ओक, किंबू, फर्न, बांस आदि का घना जंगल तो है ही साथ ही यह दर्जनों पशुओं का आवास भी है। सेंक्चुअरी में पक्षियों एवं तितलियों की अनेकानेक प्रजातियां मौजूद हैं। गंगटोक सड़क मार्ग द्वारा सिलिगुड़ी, न्यू जलपाईगुड़ी, बागडोगरा, दार्जिलिंग, कलिंगपोंग आदि शहरों से जुड़ा हुआ है। सिलिगुड़ी114 किलोमीटर, न्यू जलपाईगुड़ी−125 किलोमीटर गंगटोक के दो निकटतम रेलवे स्टेशन हैं। बागडोगरा−124 किलोमीटर गंगटोक का निकटतम हवाई अड्डा है। बागडोगरा से पर्यटक हेलीकाप्टर द्वारा भी गंगटोक पहुंच सकते हैं। सिलिगुड़ी से गंगटोक जाने के लिए टैक्सियां एवं बसें आसानी से मिल जाती हैं। विदेशी पर्यटकों को सिक्किम में प्रवेश के लिए परमिट बनवाना आवश्यक है। विदेशियों के लिए अधिकतम पंद्रह दिन का परमिट बनता है। सिक्किम में पालीथीन नहीं मिलती। अगर आपको इनकी जरूरत हो तो अपने साथ ले कर जाएं।

तंत्र से नहीं होता किसी का अनिष्ट: कापालिक बाबा


डॉ. अरूण जैन
कापालिक महाकाल भैरवानंद सरस्वती ने गुप्त नवरात्रि को महत्वपूर्ण बताते हुए सभी साधकों को सलाह दी है है कि वे प्रतिदिन नियमित रूप से मां की आराधना करें, संभव हो तो अन्न ग्रहण न करें। साथ ही यदि हवन भी कर सके तो उत्तम होगा। आपने कहा कि यह एकदम मिथ्या-भ्रांति है कि गुप्त नवरात्रि में किसी अनिष्ट विशेष के लिए तंत्र साधना की जाती है। ऐसी कोई भी तंत्र साधना अथवा क्रिया नहीं होती ।
कापालिक बाबा ने गुप्त नवरात्रि के संदर्भ में इस प्रतिनिधि से चर्चा कर रहे थे। उन्होंने कहा कि वर्ष में चार नवरत्रियां होती है जो हर तीन माह में आती है। जिनमें से दो गुप्त नवरात्रि कहलाती है और दो सार्वजनिक नवरत्रि होती है लेकिन चारों ही नवरात्रियों में साधना की क्रियाएं एक ही होती है। साधक चाहे तो 9 दिन व्रत रख सकता है। यदि 9 दिन केवल फलाहार पर रहा जाए तो उत्तम है लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि अन्न खाने वाला साधना नहीं कर सकता। साधक को प्रतिदिन सबेरे नहा-धोकर मां की आराधना करना चाहिए। इस दौरान दुर्गा सप्तशती का पाठ आवयक रूप से करना चाहिए। इसके एक अध्याय का पाठ भी रोज किया जा सकता है अथवा पूरी दूर्गा सप्तशती भी प्रतिदिन पूरी की जा सकती है। इसके लिए कोई निर्धारित पैमाना नहीं है।
गुप्त नवरात्रि में कई तांत्रिकों द्वारा काले जादू के नाम से साधना की जाती है, इस प्रश्न पर कापालिक बाबा ने कहा कि ऐसी कोई साधना नहीं होती। कुछ लुच्चे-लफंगे किस्म के जो लोग तंत्र साधना के नाम पर व्यापार कर रहे है वे लोगों को इस दिशा में भरमाते है। ऐसी कोई भी साधना नहीं होती। साधना एक सामान्य आदमी द्वारा किस प्रकार की जाए, इस प्रश्न के उत्तर में कापालिक बाबा ने कहा कि जब व्यक्ति अपनी प्रातः की नित्य पूजा करता है तभी कम से कम 5 माला एक मंत्र की की जाना चाहिए। आपने कहा कि ये मंत्र है- ओम, एं ह्रीं क्लीं चामुण्डाये विच्छै । जरूरी नहीं है कि पांच माला जपी जाए, साधक समय और श्रद्धा के अनुरूप जितना चाहे इस मंत्र का जाप कर सकता है। इस जाप के समय मां के चित्र के सामने दीप जरूर जलना चाहिए और बैठने का आसन उन या घास का होना चाहिए। साधक अपना चेहरा पूर्व में या उत्तर में रखे। आपने कहा कि इस मंत्र के जाप से व्यक्ति को जन्म-मृत्यु के चक्र से छुटकारा मिल सकता है। माता के चित्र के समक्ष संध्या अथवा रात्रि को 10 से 15 मिनट हवन अवश्य करना चाहिए। तंत्र साधना को लेकर फैली भ्रांतियों का जिक्र करते हुए बाबा ने कहा कि कुछ ऐसे लोग जिन्हें तंत्र विद्या का रत्ती भर भी ज्ञान नहीं है, वे ही इन्हें जिंदा रखे हुए है लेकिन सामान्य जन को इससे भयभीत होने की आवश्यकता नही है। मूठ मारना, तंत्र क्रिया से फूंक मारना और किसी व्यक्ति विशेष्ज्ञ का अनिष्ट करना संभव ही नहीं है ये सब लोगों की धार्मिक आस्थाओं को ठगने का प्रयास है। लोगों को इससे बचना चाहिए। एक प्रश्न के उत्तर में आपने कहा कि गुप्त और सार्वजनिक नवरात्रियों में केवल इतना भर अंतर है कि बाद की नवरात्रियों पर समारोह किए जाते है।

जलती चिता पर सेंकी रोटियां और भूने आलू


डॉ. अरूण जैन
कापालिक महाकाल भैरवानंद सरस्वती ने बीती रात चक्रतीर्थ श्मशान पर मां काली की अनूठी आराधना की। जागृत चिता के समक्ष मंत्रोच्चार पूजा, प्रसादी निर्माण, भोग अर्पण और उज्जैन सिंहस्थ के लिए शांतिपूर्ण माहौल की प्रार्थना माता से की गई। शव साधना का यह अनोखा दृष्य था। जिस समय बाबा श्मशान पर साधना करने के लिए पहुंचे, उसी दौरान एक शव लेकर कुछ लोग वहां आ गए। हालांकि बाबा ने उस शव पर साधना नहीं की, अलबत्ता प्रज्जवलित हो रही एक चिता पर उन्होंने अपनी साधना प्रारंभ कर दी। लगभग 4 घंटे तक वे साधनारत रहे । इस दौरान चक्रतीर्थ पर कई लोग एकत्रित हो गए।
शाम 6 बजे:  कापालिक बाबा अंगारेश्वर महादेव के दर्शन के पश्चात अपनी कार में बैठे और अचानक आदेश हुवा चक्रतीर्थ श्मशान पर चलो। 15 मिनिट में चक्रतीर्थ के उपरी भाग पर स्थित शिव मंदिर जा पहुंचे। फिर आदेश हुवा-दिए, तेल, गेंहू का आटा, आलू, मसाले, फूल और अन्य सामग्री मंगाओ। तुरन्त पालन हुवा। समझ नही आ रहा था कि इन सबका क्या होगा ?
संध्या 7 बजे: बाबा एक खाली चिता स्थल पर जा बैठे। संकेत पर उनके शरीर से सारे वस्त्र उतारे गए। निर्वस्त्र कापालिक महाकाल ध्यान की मुद्रा में आलथी-पालथी मारकर बैठे। ठीक सामने एक चिता जागृत थी। इशारे से जागृत चिता की भस्म उठाकर शिष्यों ने बाबा के पूरे शरीर पर मली। और फिर शुरू हो गई मंत्रोच्चार के साथ मां काली की आराधना। मरघट में मंत्रों की आवाज अंधेरे में गूंज रही थी और सामने चिता धूं-धूं कर प्रज्जवलित थी। बाबा ने मंत्रोच्चार के साथ जल छिड़काव, मंदिरा छिड़काव किया। इसके पूर्व पांच दीप प्रज्जवलित कर चिता के चारों कोनों पर रख दिए गए थे। एक दीप मानव खोपड़ी के समक्ष प्रज्ज्वलित था। एक घंटे से अधिक समय तक जागृत चिता पर साधना चलती रही
रात्रि 8.30 बजे: आराधना पूरी कर बाबा ने जागृत चिता में, लाए हुए आलू भूनने के निर्देश दिए। चिता के अंगारो में आलू बूर दिए गए। फिर आटा गूंथने और टिक्कड़ बनाने के आदेश हुए। शिष्यों ने जैसे ही टिक्कड़ तैयार किए उन्हें जलती चिता पर सेंकने को कहा गया। आधे घंटे बाद आलू भुन चुके थे, टिक्कड सिक चुके थे। आलू छीलकर चूरा कर मसाला मिलाया गया और टिक्कड़ के साथ पूजा की थाल में रखकर मां काली का स्मरण करते हुए बाबा ने जागृत चिता में आहूति डाली। मां को भोग लगाने के बाद वही प्रसादी उपस्थित उन सैकड़ो भक्तों को भी दी गई जो पूजा आराधना देखने के लिए अब तक एकत्र हो चुके थे।
रात्रि 10.00 बजे: बाबा ने जागृत चिता के समक्ष स्वयं प्रसादी ग्रहण की। उसके बाद जागृत चिता की विधिवत परिक्रमा की गई और उसके समक्ष शीश नवाकर मां काली से सिंहस्थ में सुख-शांति की प्रार्थना की। आराधना पूरी होने पर बाबा ने अपने काले वस्त्र पुनः धारण किए और चक्रतीर्थ से वापस रवाना हो गए।

एक वो सिंहस्थ था, एक यह सिंहस्थ है

डॉ. अरूण जैन

वैसे तो देश के चार शहरों में प्रत्येक 12 वर्ष बाद कुंभ/सिंहस्थ होता है। लेकिन उज्जैन का यह अकेला महापर्व है जो सिंहस्थ के नाम से जाना जाता है। यहां मेष राशि में सूर्य और सिंह राशि में गुरू होने से (अप्रैल-मई) शिप्रा नदी पर कुंभ का योग बनता है। शेष तीनो स्थानों पर ये महापर्व कुंभ कहलाते हैं। हरिद्वार में मेष राशि में सूर्य और कुंभ राशि में गुरू आने पर (अप्रैल-मई) गंगा नदी तट पर कुंभ होता है। इलाहाबाद में मकर राशि में सूर्य और वृषभ राशि में गुरू (जनवरी-फरवरी) होने पर गंगा-जमुना-सरस्वती संगम पर कुंभ महापर्व होता है। नासिक में सिंह राशि में गुरू-चन्द्रमा और सूर्य (जुलाई-अगस्त) आने पर गोदावरी नदी तट पर कुंभ होता है। उज्जैन सिंहस्थ पर दस पुण्यप्रद योग भी बनते हैं, जो और कहीं नही बनते-अवंतिका नगरी, वैशाख मास, शुक्ल पक्ष, सिंह राशि में गुरू, मेष राशि में सूर्य, तुला राशि में चंद्र, स्वाति नक्षत्र, पूर्णिमा तिथि, व्यतिपात योग और सोमवार ।
प्राचीन उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार सन् 1732 में उज्जैन में पहला सिंहस्थ हुवा था, जब मराठों का मालवा क्षेत्र पर अधिपत्य था। प्रत्येक सिंहस्थ, कुंभों की तरह किसी न किसी कारण के लिए जाना जाता है। वैसे मुझे 1968 और 1969 के, दो वर्ष लगातार हुए सिंहस्थ से महापर्व का आंखो देखा ज्ञान है। ग्रह योग और तिथियों को लेकर शैव और वैष्णव अखाड़ो में विवाद की स्थिति बन गई थी। वैष्णव अखाड़ों ने सन् 1968 मंे सिंहस्थ मनाया। शैव अखाड़ो ने आने से इंकार कर दया। 1969 में शैव अखाड़ो में सिंहस्थ महापर्व मनाया। 1968 के महापर्व पर 48.50 लाख रूपए व्यय हुए और 69 के सिंहस्थ पर 20 लाख रूपए मंजूर हुए थे। सन् 1980 का सिंहस्थ कई मानों में उल्लेखनीय था। एक तो उज्जैन नया-नया संभागीय मुख्यालय बना था और संभागआयुक्त पद पर संतोष कुमार शर्मा जैसे आयएएस अधिकारी आये थे, जो प्रशासनिक कम, धार्मिक ज्यादा थे। उन्होने शहर में पौराणिक नामों की कई कॉलोनियां विकसित करवाई। उस सिंहस्थ में रिकांडो कंपनी द्वारा बनाई गई सड़के अगले दो सिहंस्थ तक याद की जाती रही, जिन पर पेट का पानी तक नहीं हिलता था। इस सिंहस्थ का सर्वाधिक काला पक्ष था मंगलनाथ क्षेत्र में संतों का आपसी विवाद। संतो ने अंकपात चौराहे पर प्रदर्शन किया। विवाद बढने पर पुलिस ने डंडे चलाए और बैरागी संतों को गिरफ्तार कर भेरूगढ़ जेल भेज दिया। आग की तरह खबर दिल्ली पहुंची और तत्कालीन केन्द्रीय गृह मंत्री ज्ञानी जेलसिंह आनन-फानन में विशेष वायुयान से उज्जैन पहुंचे। सभी संतों को छुड़वाया गया और ज्ञानीजी ने उनसे प्रत्यक्ष जाकर क्षमा याचना की, तब मामला शांत हुवा। इसके पहले और बाद में कभी सिंहस्थ में ऐसी स्थिति निर्मित नही हुई। तीन शाही स्नानों को लेकर शैव और वैष्णव अखाड़ों के मध्य एक और विवाद हुवा था, पर वरिष्ठ धर्माचार्यों ने उसे सुलझा लिया। इस महापर्व का उजला पक्ष था स्थायी प्रकृति के सर्वाधिक कार्य होना। 10 करोड़ में से 9 करोड़ रूपए इन कामों पर खर्च हुए जिसमें माधवनगर ओवरब्रिज का 12 फीट चौड़ीकरण, बड़नगर रपट का 10 फीट चौड़ीकरण, गंभीर जल प्रदाय योजना, जीवाजीगंज अस्पताल, रिकांडो की सड़के और खान नदी प्रदूषण पर नियंत्रण। सन् 1992 का सिंहस्थ शताब्दी का अंतिम सिंहस्थ था। मेला क्षेत्र दुगुना हो गया। 100 करोड़ रूपए से भी ज्यादा खर्चा सरकार ने किया। स्थायी प्रकृति के काफी काम हुए। भूमि आवण्टन, समतलीकरण और जन सुविधा केन्द्र व्यवस्थित न होने से विवाद हुए। अंतिम शाही स्नान के दूसरे ही दिन अखाड़ों के नलों में पानी बंद हो गया, शौचालय उखाड़े जाने लगे। दूध का वितरण बंद हो गया। अग्नि अखाड़े के पीठाधीश्वर प्रकाशानंद जी के शिविर में बम मिला, पर इन सब विवादों पर प्रशासन ने सूझबूझ से नियंत्रण कर लिया। इस महापर्व पर सबसे बड़ी भद्द सरकार की हुई, संत आसाराम को लेकर। ग्वालियर राज्य की महारानी रही श्रीमती विजयाराजे सिंधिया सिंहस्थ समिति की अध्यक्ष थी। समापन पर संतों के सम्मान में आसाराम को मंच पर बिठा दिया गया। सारे अखाड़े उन्हे संत मानने पर उखड़कर मंच से उतर गए। श्रीमती सिंधिया दौड़कर रोते हुए मंच से उतरी और संतों से हाथ जोड़कर माफी मांगी। आसाराम को मंच से उतारकर वापस भेजने के बाद संत शांत हुए। इस महापर्व में हुई दो आगजनी में ढाई करोड़ की संपत्ति नष्ट हो गई। सन् 2004 के सिंहस्थ की शुरूआती तैयारी कांग्रेस सरकार ने दिग्विजय सिंह के मुख्यमंत्री रहते की, 217 करोड़ रूपए स्वीकृत हुए। आरोपित है कि उन्होने पूरे मेला क्षेत्र को लिंटरलेंड नामक बहुराष्ट्रीय कंपनी को 7 करोड़ रूपए में बेच दिया और एक पुस्तक लिखने का अनुबंध भी एक करोड़ रूपए में विदेशी प्रकाशक हेडन से कर लिया। लेकिन सिंहस्थ प्रारंभ होने के पूर्व हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा अस्तित्व में आ गई और उमाश्री भारती ने मुख्यमंत्री बनकर महापर्व करवाया। सारे विदेशी अनुबंध निरस्त किए गए। उमाश्री भारती के शासन ने दो गंभीर चूकें कर दी। महापर्व के तीन माह पूर्व संड़क चौड़ीकरण का अध्याय खोल दिया गया। शहर धूल धूसरित हो गया। ज्योतिर्विद पं. आनंदशंकर व्यास और पद्मभूषण सूर्यनारायण व्यास के मकान के हिस्से भी तोड़े गए। दूसरे चामुंडा माता चौराहे की एक मस्जिद पुलिस और प्रशासन नही हटा पाया। विरोध प्रदर्शन और पत्थरबाजी में आईजी सरबजीतसिंह घायल हुए, शहर कर्फ्यू के आगोश में चला गया। पहली बार सिंहस्थ का राजनीतिकरण हुवा। संतों ने ही संतों को शिप्रा स्नान से वंचित कर दिया। मेला प्रशासन के कई आवण्टन अखाड़ा परिषद ने निरस्त कर दिए। मुख्यमंत्री भी परिषद की गोद में बैठ गई। 40 खालसाओं के पांच हजार संत शाही स्नान के एक दिन पूर्व उज्जैन छोड़ गए। इसके पूर्व कलेक्टर राजेश राजौरा की संतों द्वारा मारपीट की घटना भी हुई।

विदेशी पूंजी का स्वागत है, पर सतर्कता बरतना जरूरी

डॉ. अरूण जैन
विदेशी पूंजी के सीधे निवेश पर भारत सरकार ने बहुत साहसिक निर्णय किया है। स्वयं भाजपा जिन क्षेत्रों में विदेशी पूंजी का डटकर विरोध करती रही है, सरकार ने लगभग वे सारे क्षेत्र खोल दिए हैं। कई क्षेत्र ऐसे हैं, जिनमें विदेशी कंपनियां शत प्रतिशत पैसा लगा सकती हैं और उसके लिए उन्हें रिजर्व बैंक की अनुमति लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी। इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि भारतीय कंपनियों का जो अरबों-खरबों रुपया विदेशी बैंकों में दबा पड़ा है, अब देश के काम आएगा। अभी स्थिति यह है कि देश में विदेशी पूंजी लगाने वालों को भी नौकरशाही जाल काटने में बड़ी ताकत लगानी पड़ती थी और ऊपर से रिश्वत अलग देनी पड़ती थी। विश्व-बैंक की रपट का कहना है कि इस समय चीन और अमेरिका से भी ज्यादा विदेशी पूंजी भारत में आने को तैयार बैठी है। 2015-16 में 55.5 बिलियन डालर का निवेश भारत में हो चुका है। यदि अगले दो-तीन वर्षों में 5 ट्रिलियन डालर तक की पूंजी भारत आ जाए तो भारत का नक्शा ही बदल जाएगा। हर क्षेत्र में लाखों छोटे-बड़े रोजगार पैदा हो जाएंगे। भारत में बनी चीजें सस्ती पड़ेंगी और वे एशिया-अफ्रीका ही नहीं, यूरोप और अमेरिका के बाजारों में भी छा जाएंगी। यदि आधुनिकतम हथियार भारत में बनने लगें तो भारत का निर्यात तो बढ़ेगा ही, भारत कई नई मौलिक तकनीकों का स्वामी भी बन जाएगा। लेकिन विदेशी पूंजी या बड़ी पूंजी अपने साथ कई बुराइयां भी ले आती है। हम जरा चीन से कुछ सीखें। पिछले 25 साल में विदेशी पूंजी ने चीन के चरित्र को ही बदल दिया। उसे एक उपभोक्तावादी समाज बना दिया। शांघाई और पेइचिंग की चमक-दमक लंदन और न्यूयार्क से ज्यादा हो गई है लेकिन लोग गांवों में भूखे मरते हैं, गंदगी के नरक में सड़ रहे हैं और अपराधों के मारे बड़े-बड़े शहर कांप रहे हैं। अब वहां विदेशी पूंजी भी ठिठक गई है। वह आपका भला करने नहीं अपना फायदा करने आती है। यदि हमारे नेता भी चीन की-सी चकाचौंध में फंस गए तो भारत का बेड़ा गर्क होने से कोई रोक नहीं सकता। विदेशी पूंजी का स्वागत करने वाली सरकार को 'दाम बांधोÓ नीति बनानी होगी, रोजगार नीति लागू करनी होगी, मुनाफे की सीमा बांधनी होगी और हथियार-निर्माण पर विशेष निगरानी रखनी होगी। भारतीय किसानों, मजदूरों और कारखानेदारों का विशेष ध्यान रखना होगा। यदि इन सब बातों का ध्यान नहीं रखा गया और हमारे पांव उखड़ गए तो भारतीय संस्कृति और जीवन-पद्धति की हानि काफी गहरी होगी।

 शिवराज सरकार के मंत्रीमंडल का विस्तार लगभग तय


डॉ. अरूण जैन
सुत्रो के हवाले से खबर 27 जुन को मप्र शिवराज सरकार के मंत्री मंडल का विस्तार लगभग तय , एंव सुत्रो को मिली जानकारी के अनुसार इन चार विधायको का तो मंत्री बनना लगभग तय अंतिम मुहर  लगना बाकी । एंव सुत्रो के मुताबिक इनके मंत्री पद भी लगभग तय । 1) मल्हारगढ विधानसभा से पुर्व मंत्री जगदिश देवडा , को गृहमंत्री बनाया जा सकता है  2)नारेला विधानसभा से विश्वास सांरग  को जैल मंत्री बनाया जा सकता है  3 ) इंदौर2 विधानसभा से रमेश मेंदौला को श्रम मंत्री बनाया जा सकता है  4) भोपाल से रामेश्वर शर्मा  को राज्यमंत्री बनाया जा सकता है । इन पर लग सकती है अंतिम मुहर । मध्यप्रदेश मंत्री मंडल विस्तार भ्रष्ट मंत्रियों के बदलेगे विभाग...मध्यप्रदेश मे मंत्री मंडल के विस्तार की चर्चाओं की पुष्टि होते ही जहां दावेदार की सक्रीयता बढ गई है।वही वर्षों से सरकार मे जमे कुछ मंत्रियों को हटाकर संघठन के काम मे लगाया जा सकता है। भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे कुछ मंत्रियों के विभागों मे फेरबदल किए जाने के संकेत है। शिवराज सरकार के इस विस्तार को मंत्री मंडल का 2018 चुनाव तक का अंतिम विस्तार माना जा रहा है।वर्तमान मंत्री मंडल मे एक दशक से ज्यादा समय से सरकार मे शामिल रहे है उनकी बायोग्राफी प्रदेश का खूफिया तंत्र लिखने मे जुटा है।सूत्र बताते है कि एक मंत्री अपने विभागों को बचाने की जुगत लगाने मे जुटे है वे अपने को मुख्यमंत्री के पसंदीदा मंत्री मे गिनवा कर खुद ही सौशल मीडिया मे संक्रीय बार लिखवा भी रहे है अच्छे प्रोफारमेंस के कारण विभागों मे फेरबदल संभव है लगातार चौथी बार प्रदेश की सरकार बनाने के लिए भाजपा संघठन को सत्ता विरोधी लहर चिंता सता रही है।प्रदेश संघठन उन मंत्रियों को लेकर उहापोह की स्थिति मे है जो सरकार मे मठाधीश बन चुके है।एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार कुछ मंत्री अपना क्षेत्र सुरक्षित कर अपने जिले मे केवल हम जीते की बिसात बिछाने मे जुटे है।सूत्रों की माने तो चंबल क्षेत्र से नरोत्तम मिश्रा को संसदीय कार्य मे सफल माना जा रहा है वही स्वास्थ्य विभाग बदनामी झेल रहा है।मालवा मे दीपक जोशी का कद बढाया जा रहा है।बुन्देलखंड मे कुसुम मेहदेले,जयंत मलैया,गोपाल भार्गव,भूपेन्द्र सिंह बडे चेहरे है।इन मंत्रियों मे मलैया और भार्गव के पास भारी भरकम विभाग है।मलैया के विभाग का जनता से सीधा जुडाव नही है ऐसी स्थिति मे पंचायत, ग्रामीण विकास, सहकारिता, समाजिक न्याय यह विभाग संघठन और सरकार की नजरों मे प्रमुखता से है।पंचायत और सहकारिता विभाग मे हुए घौटालो की चर्चाए दिल्ली के गलियारों मे भी चर्चित है। 

मोदी की सफल अमेरिकी यात्रा से चीन को चिंतित होना ही था

डॉ. अरूण जैन
अमेरिका के लिए नए संबंधों की वर्णमाला नरेंद्र मोदी ने रची है। यह वर्णमाला है भारत के हित साधने के लिए अंतरराष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन जिसे देखकर चीन का चिन्तित होना स्वाभाविक ही था। अमेरिकी संसद में भारतीय प्रधानमंत्री का शानदार संबोधन और अमेरिकी सांसदों को उनके भाषण के हर मिनट पर जोरदार करतल ध्वनि से स्वागत हर भारतीय के लिए सुखद, गर्वीली अनुभूति का कारण होना चाहिए। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता और विपक्षी तेवर के विरोधी पहलू ऐसे मौकों पर भूल जाने चाहिए। खाड़ी के देशों और सऊदी अरब के सुन्नी क्षेत्रों के बाद शिया इरान की सफल यात्रा के भारत के प्रतिद्वंद्वी देशों की नींद उड़ा दी है। वे मानते थे कि हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा को मानने वाले जब सत्ता में आएंगे तो उनका न तो स्वदेश के विविध मतावलम्बी समुदायों के साथ सामंजस्य बैठेगा और न ही अतिरेकी तथा तीव्र वैचारिक भिन्नताओं वाले देशों से पट पाएगी। मुस्लिम देश और नरेंद्र मोदी? तौबा ही मानिए। अमेरिकी तथा यूरोपीय देशों के साथ मोदी का तालमेल? कोई कारण ही नहीं कि दोनों साथ जम पाएं। लेकिन यह भारत का बदलता मिजाज और बढ़ती धमक का ही नतीजा है कि न केवल लाहौर अचानक मोदी के आने से हक्का-बक्का रह गया बल्कि सऊदी अरब में भारतीयों ने भारत माता की जय के नारे लगाकर यह अंदाज बता दिया। अब अमेरिकी संसद में यदि वहां के सांसद चालीस बार तालियों से भारत के प्रधानमंत्री का स्वागत करते हैं तो यह मामला भाजपा-सपा-जद-कांग्रेस का नहीं बल्कि हिंदुस्तान को हो जाता है। दिलचस्प रहा चीन का खीझाकर बयान देना और भारत-अमेरिकी मैत्री के नए आयामों पर नकारात्मक बयान देना। क्यों? क्योंकि यह वह सहन नहीं कर पाया कि दो बड़े लोकतांत्रिक देश परमाणु शक्ति के क्षेत्र में सहयोग के लिए वचनबद्ध होकर चीन की परमाणु क्षेत्र में बढ़त को कम कर रहे हैं। परमाणु आपूर्ति समूल (एनएसजी) की सदस्यता भारत को मिले और वह विश्व की जिम्मेदार परमाणु शक्ति के रूप में उभरे यह चीन कतई नहीं चाहता। इसके पहले लखवी और मसूद अजहर के मामलों में भी चीन ने भारत का साथ नहीं दिया गया था विश्व-कुख्यात आतंकवादियों को कूटनीतिक रक्षा कवच प्रदान किया। ईरान के चाबहार बंदरगाह को विकसित करने, अफगानिस्तान की संसद के नए भवन और सलमा बांध के पूरे होने पर किए गए शानदार उद्घाटन का भी चीन और पाकिस्तान में दर्द भरा असर हुआ। भारतीय उपमहाद्वीप, जिसे अब सार्क या दक्षेस कहा जाने लगा है। चीन और पाकिस्तान भारत का बढ़ते देखना ही नहीं चाहते। जबकि इस क्षेत्र के साथ-साथ पूर्वी एशिया, दक्षिणपूर्वी एशिया एवं सुदूर पूर्व में भारत एक मैत्रीपूर्ण नेतृत्व की स्थिति रखता है। इसे अमेरिका, आस्ट्रेलियां, जापान, सिंगापुर, फिलीपीन्स, वियतनाम जैसे देश पूरी तरह समर्थन देते हैं जबकि चीन की प्रसारवादी नीतियों से उन्हें सदा आशंका रहती है। पिछले पखवाड़े शंगरीला संवाद में रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर के भाषण तथा वियतनाम को ब्रह्मोस प्रक्षेपास्त्र देने की पेशकश ने पूर्वी देशों को भारत की बढ़ती समुद्रीय आकांक्षाओं से आश्वस्त किया है। इस सभी देशों के साथ भारत के सैकड़ों वर्ष पुराने सांस्कृतिक सभ्यतामूलक मैत्री संबंध रहे हैं और इस कारण वहां के नेतृत्व और समाज में भारत के प्रति एक सहज आत्मीयता का भाव देखने को मिलता है। कांग्रेस के दो प्रधानमंत्रियों श्री नरसिंहाराव तथा डा. मनमोहन सिंह ने इसी वातावरण का भारत का हित में उपयोग किया तथा लुक-ईस्ट पालिसी अर्थात पूर्वोन्मुखी नीति का श्रेय उनको ही देना होगा। यह विडंबना ही है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने के बावजूद न तो भारत को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता और वीटो शक्ति संपन्न राष्ट्रसंघ में स्थिति मिली और न ही परमाणु आपूर्ति समूह की सदस्यता सरलता से मिलती दिख रही है। जबकि चीन, जो दुनिया में परमाणु बम के भय का विस्तार करने वाला सबसे कुख्यात परमाणु प्रसारक देश है- दोनों स्थितियों का प्रभुत्व प्राप्त आक्रामक विदेश नीति का देश बना है। उसने ही पाकिस्तान, ईरान, अरब जैसे देशों को परमाणु तकनीक दी। उत्तरी कोरिया जैसे देश के सर्वाधिक निकट चीन ही माना जाता है और एशिया में अपनी हमलावर कूटनीति से उसने ऐसा वातावरण बना दिया है कि विश्लेषक मानने लगे हैं कि मध्य एशिया के तनाव अब पूर्वी एशिया के दक्षिण चीन सागर क्षेत्र में स्थानांतरित हो रहे हैं। इस परिदृश्य में भारत का क्षेत्रीय शक्ति की धुरी बनना अपने लिए ही नहीं बल्कि आसपास के विश्व के लिए जरूरी है। यह अनिवार्य है कि भारत के राजनीतिक दल देश की मजबूती का एजेंडा जाति और निजी स्वार्थों की पूर्ति से बड़ा बने। पारिवारिक तथा अहंकार की निजी नेतृत्व केंद्रित राजनीति ने देश को बीस साल पीछे धकेल दिया। हममें सीना होना चाहिए कि मोदी की सफल विदेश नीति का गौरव मानने के साथ-साथ शिवराज सिंह चौहान, नीतिश कुमार, ममता और महबूबा की भी अच्छी नीतियों की प्रशंसा करें। दल और उनका रंग कोई भी हो, तिरंगे का मान और सम्मान बढ़े तो उसमें हर दल की इज्जत ही बढ़ती है। मोदी की सफल नीतियों, अमेरिका में मिला उनको सम्मान देश के लिए अच्छा ही मानना चाहिए। यह कह कर किसी का रूतबा कम नहीं होगा। परमाणु आपूर्ति समूह की सदस्यता का भारत के अनेकविध क्षेत्रों में व्यापक असर पड़ेगा। दवाओं के अनुसंधान के लिए आवश्यक सामग्री और उपकरण रक्षा निर्माण एवं चिकित्सा और संचार क्षेत्र में नवीनतम उपकरणों के आयात से बंधन हट जाएंगे और सामान्य गरीब लोगों की चिकित्सा एवं युवाओं के लिए नये कॅरियर विकल्प खुल जाएंगे। इसी कारण चीन भारत की बढ़त और इस नयी संभावना से परेशान है। जबकि भारत से किसी भी प्रकार के खतरे की आशंका होनी ही चाहिए। खतरा तो चीन से भारत को है इसलिए श्री नरेन्द्र मोदी की सफल अमेरिका यात्रा कई अर्थों के लिए महत्वपूर्ण सिद्ध हुई है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा बहुत सार्थक रही

डॉ. अरूण जैन
अमेरिका-यात्रा सबसे अधिक सार्थक रही। कोरी भाषणबाजी और नौटंकी तो पिछले दो साल से चलती रही है। हालांकि इस छवि-निर्माण का भी कम महत्व नहीं है लेकिन अमेरिका के साथ घनिष्टता के जो बीज अटलबिहारी वाजपेयी सरकार ने बोए थे और मनमोहन सरकार के दिनों में जो अंकुरित हुए थे, वे अब पुष्पित और फलित हो रहे हैं। इस प्रक्रिया में मोदी के नौटंकीपूर्ण व्यक्तित्व का भी कुछ न कुछ योगदान जरूर है। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के साथ उनके व्यक्तिगत समीकरणों और हमारे विदेश सचिव जयशंकर (अमेरिका में रहे हमारे पूर्व राजदूत) के व्यक्तिगत संबंधों ने अमेरिकी नीति-निर्माताओं को मजबूर किया कि वे भारत के बारे में खुली घोषणा कर दें। तभी ओबामा ने कह दिया कि परमाणु सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी) में भारत की सदस्यता का अमेरिका डटकर समर्थन करेगा। इसके अलावा जो ठोस उपलब्धि हुई है, वह यह कि 'प्रक्षेपास्त्र तकनीक नियंत्रण संगठनÓ (एमटीसीआर) की सदस्यता भी भारत को मिल गई है। बस उसकी औपचारिक घोषणा बाकी है। भारत की सदस्यता पर कुछ देशों ने आपत्ति की थी। उस आपत्ति को जताने की अंतिम तिथि 6 जून को पूरी हो गई है। 34 में से एक भी देश भारत के विरुद्ध नहीं गया। अब भारत को सर्वश्रेष्ठ मिसाइल और तकनीकों को खरीदने और अपने सुपरसोनिक क्रूज और ब्राह्मोज़ मिसाइल बेचने की सुविधा मिल जाएगी। जाहिर है कि यह सुविधा अमेरिकी समर्थन के बिना नहीं मिल सकती थी। इसके साथ-साथ 2008 में हुआ भारत-अमेरिकी परमाणु-सौदा अधर में लटका हुआ था। अब उसके तहत आंध्र में छह परमाणु-भट्टियों पर काम शुरु हो जाएगा। जहां तक 'परमाणु सप्लायर्स ग्रुपÓ की सदस्यता का सवाल है, अब सिर्फ चीन का अड़ंगा बना रह सकता है लेकिन अब चीन ने भी मीठे-मीठे संकेत भेजने शुरू कर दिए हैं।  चीन को लगने लगा है कि ओबामा की प्रारंभिक चीनीपरस्त नीति का समापन भारतपरस्ती से होने वाला है। अब चीन भी एनएसजी में कितने दिन अडंगा लगाएगा? मोदी और ओबामा ने जलवायु संबंधी पेरिस समझौते पर सहमति व्यक्त की है। सैन्य-सुविधाओं के लिए सहयोग समझौता भी तैयार है। हमारे विदेश मंत्रालय के अफसरों ने सही ज़मीन तैयार की है। वे बधाई के पात्र हैं लेकिन मोदी नेता हैं। उन्हें बोलने का शौक है। उन्हें ध्यान रखना होगा कि वे अपने मुंह से कोई ऐसी बात न बोलें, जिससे चीन और पाकिस्तान के इन ताजा घावों पर नमक छिड़का जाए। वे तो पहले से ही परेशान हैं। यदि चीन हमें अब चीनी परोस रहा है तो मिश्री घोलने में हमारा क्या बिगड़ रहा है?

नवविवाहितों के घूमने के लिए ऊटी बढिय़ा जगह


डॉ. अरूण जैन
दक्षिण भारत में ऊटी से सुंदर कोई पर्यटन स्थल नहीं है। इस सुरम्य स्थल से बहुत सी ऐतिहासिक कथाएं भी जुड़ी हैं। ऊटी पहुंचने के लिए मेट्टावलयम से छोटी पहाड़ी रेल से जाना चाहिए जोकि पहाड़ों के बीच से होती हुई गुजरती है। यहां पहाड़ी क्षेत्रों में चलने वाली खिलौना गाड़ी दिखाई नहीं देगी। ऊटी भारत का एकमात्र मीटर गेज पहाड़ी रेल मार्ग है। मद्रास के तत्कालीन राज्यपाल लार्ड वैनलॉक की देखरेख में स्विस तकनीक द्वारा इस रेल मार्ग का निर्माण कराया गया था। ऊटी का वनस्पति उद्यान पर्यटकों के लिए विशेष आकर्षण का केन्द्र है। इस वनस्पति उद्यान की नींव क्यू गार्डन के श्री जॉनसन ने रखी थी। वह अपने साथ इंग्लैण्ड से नाव में जितनी भी किस्मों व जातियों के पेड़−पौधे ला सकते थे, लाये व इस उद्यान को हर प्रकार से विकसित किया। यहां की लाल मिट्टी अत्यंत समृद्ध है तभी तो यहां किसी भी किस्म या जाति का पौधा पनप जाता है साथ ही विभिन्न प्रकार के फल-फूल भी पैदा किए जा सकते हैं। बीते दिनों की यादें ऊटी क्लब में जीवंत हो उठती हैं। ऊटी क्लब में कदम रखना विक्टोरियन इंग्लैण्ड की टाइम मशीन में सवार होने की भांति है। ताश खेलने की मेजों से सजा रमी रूम, आखेट ट्राफियों से भरा बार, ऊटी के जंगलों में शिकार की तस्वीरों से सुसज्जित कक्ष और एकमात्र बिलिर्यड कक्ष जहां पर स्नूकर खेलने के नियम लिखे हुए हैं। यही नहीं यहां की गतिविधियों पर निगाह रखती सूलीवन की तस्वीर भी यहीं पर मौजूद है। दक्कन में दोड्डा-बेट्टा सबसे ऊंची चोटी है जिसकी ऊंचाई 8000 फुट है। यह स्थान शिकार के लिए आरंभ बिंदु है। किसी समय परी कथाओं की तरह यह स्थान वाइल्ड लाइफ सेन्चुरी था लेकिन शिकारियों की बढ़ती संख्या ने सब खत्म कर दिया। अब यहां कुछ भी नहीं है। दोड्डा-बेट्टा ऊटी से 10 किलोमीटर दूर है। नवविवाहितों के घूमने के लिए ऊटी बढिय़ा जगह है। यदि आप ऑफ सीजन अर्थात सर्दियों में पहाड़ पर जाना पसंद करते हैं तो भी यहां का प्राकृतिक सौंदर्य अलग ही सुरम्यता व आकर्षण लिए हुए दिखाई देगा। सर्दियों में यहां भीड़-भाड़, शोरगुल व पर्यटकों का आना भी कम होता है। दूसरे उस मौसम में प्रकृति का छिपा हुआ सौंदर्य वादियों में अलग ही छटा बिखेरता हुआ दिखाई देता है। चारों ओर हरीतिमा ही हरीतिमा और विभिन्न प्रकार के देशी−विदेशी पेड़-पौधे पर्यटकों को मुग्ध कर देते हैं और यदि आप यहां थोड़ी देर के लिए रुकेंगे तो हर झाड़ी, हर पेड़ में से पहाड़ी बुलबुल की मीठी−मीठी आवाज आपको सुनाई देगी। शायद ही ऐसा कोई पेड़ होगा जहां कि बुलबुल का जोड़ा न बैठा हो। ऊटी आने के लिए निकटतम हवाई अड्डा कोयम्बटूर है। यहां से बस, रेल और कार द्वारा ऊटी पहुंचा जा सकता है। ऊटी रेल मार्ग से भी आया जा सकता है यदि आप यहां बस से आना चाहें तो कोयम्बटूर, मैसूर, बैंगलोर और आसपास के दूसरे शहरों से बस सेवाएं भी उपलब्ध हैं।

आस्ट्रेलियाई शहर गोल्ड कोस्ट में पर्यटकों के लिए बहुत कुछ

डॉ. अरूण जैन
आस्ट्रेलिया का गोल्ड कोस्ट शहर एक मायने में अन्य शहरों से अलग है क्योंकि यहां मनोरंजन, खरीदारी तथा खेलकूद के साधन अन्य जगहों की अपेक्षा अधिक हैं। आस्ट्रेलिया के अन्य शहरों के मुकाबले यहां पर होटलों तथा रेस्तराओं की संख्या भी ज्यादा है। गोल्ड कोस्ट की सैर के दौरान सबसे पहले आपको लिए चलते हैं सर्फर्स पैराडाइज पर। यह गोल्ड कोस्ट की सबसे प्रसिद्ध जगह है। यहां के समुद्र तट पर उठती विशालकाय लहरों पर सर्फिंग करते सैलानियों की संख्या को देखकर ही आप इस जगह की लोकप्रियता का अंदाजा लगा सकते हैं। गोल्ड कोस्ट उत्तर में साउथपोर्ट से लेकर दक्षिण में कूलंगाटा तक फैला हुआ एक विशाल समुद्रतट है जिसके किनारे-किनारे सैलानियों के मनोरंजन के लिए विभिन्न साधन जुटाए गए हैं। इस क्षेत्र में अवाकाडो बहुत होते हैं इसलिए इसे अवाकाडो लैंड भी कहा जाता है। यहां से 6 किलोमीटर दूर करुंबिन नामक खाड़ी है जहां का राष्ट्रीय उद्यान अपने वन्य जीवों के लिए जग प्रसिद्ध है। साउथपोर्ट पर्यटन के साथ ही व्यावसायिक केंद्र भी है। यह स्थान अपने वाटर पार्क तथा वाटर स्लाइड्स के लिए प्रसिद्ध है। साउथपोर्ट के उत्तर में 'सी वर्ल्डÓ स्थित है जोकि आस्ट्रेलिया का सबसे विशाल मैरीन पार्क है। यहां का डाल्फिन एवं सी लायन शो भी देखने लायक है। यहां स्थित बंदरगाह से आप नाव द्वारा ड्रीम वर्ल्ड व कोआला पार्क आदि मनोरंजक स्थानों पर जा सकते हैं। सर्फर्स पैराडाइज के ब्राड बीच नामक स्थान पर कई छोटी-बड़ी दुकानें तथा होटल हैं। यहां से आप मोनो रेल द्वारा जुपीटर्स पहुंच सकते हैं जो आस्ट्रेलिया का सबसे बड़ा कैसिनो है। इसके पास ही एक विशाल क्षेत्र में फैला हुआ वार्नर ब्रदर्स का मूवी वर्ल्ड है जो देखने में अमेरिका के यूनिवर्सल स्टूडियो की एक अनुकृति जैसा ही लगता है। ड्रीम वर्ल्ड में दुनिया की सबसे ऊंची, खतरनाक तथा रोमांचक राइड बनाई गई है। एक ट्राली में बैठ कर आप 38 मंजिला इमारत को देख सकते हैं। 30 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला यह थीम पार्क डिजनीलैंड की तरह के विभिन्न आकर्षणों से भरा पड़ा है। सनशाइन कोस्ट भी दर्शनीय जगह है। अनेक सैलानी गोल्ड कोस्ट की बजाय सनशाइन कोस्ट में ही ठहरना पसंद करते हैं क्योंकि यहां पर भीड़भाड़ व शोरगुल कम है। नूसा यहां का प्रसिद्ध स्थल है यहां अब सर्फर्स पैराडाइज जैसे ऊंचे-ऊंचे होटलों का निर्माण हो रहा है। सनशाइन कोस्ट में प्रसिद्ध दैत्याकार अनानास भी हैं जिसे लोग दूर-दूर से देखने आते हैं। गोल्ड कोस्ट तथा सनशाइन कोस्ट दुनिया के उन गिने-चुने स्थानों में से हैं जहां पहुंच कर आप स्वयं को प्रकृति के बहुत निकट पाएंगे और यहां आकर निश्चय ही आप जमाने भर की भागदौड़ व शोरगुल को भूलकर प्रकृति के सौंदर्य का आनंद लेंगे।

तो क्या तुष्टीकरण की राजनीति इतिहास हो गई?


डॉ. अरूण जैन
भारतीय राजनीति में नये चाणक्य बन कर उभर रहे प्रशांत किशोर (पीके) साबित करना चाहते हैं कि वो किसी को भी चंद्रगुप्त बना सकते हैं। लोकसभा चुनाव में लुढ़क कर 44 सीटों के निचले स्तर पर पहुंची कांग्रेस, पांच राज्यों में चुनावी हार के बाद आजाद भारत में सबसे ज्यादा हताशा के दौर से गुजर रही है। उसी हताशा के वक्त, सोशल मीडीया पर कांग्रेस मुक्त भारत के हल्ला बोल ने उसे अंदर तक हिला रखा है। ऐसे में खुद को किसी विचारधारा में न बांधकर नए नए चंद्रगुप्त पैदा करने का दांव खेल रहे पीके यह साबित करना चाहते हैं कि वो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को जिंदा कर फिर से उसका पुराना अतीत लौटा सकते हैं। कांग्रेस पीके के दो सुझाव, राहुल या प्रियंका की अगुआई में उत्तर प्रदेश का चुनाव लडऩे की बात तो सिरे से खारिज कर चुकी है। लेकिन मुलसमानों की राजनीति फिलहाल ठंढे बस्ते में डाल, ब्राह्मणवाद की राजनीति पर लोटने के पीके के सुझाव पर पार्टी में गहन चर्चा हो रही है। 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान जब मोदी का कद बढऩे लगा तो राजनेताओं के सिर से स्कल टोपी और इफ्तार पार्टी नदारद हो गए। पिछले दो साल में किसी नेता की ऐसी तस्वीर या इफ्तार पार्टी आपको नहीं दिखी होगी। मोदी के बाद, संघ मुक्त भारत की बात करने वाले नीतीश भी बनारस घाट पर तृपुंड के साथ फोटो सेशन करते देखे गए। यह सब भारतीय राजनीति में पहली बार हुआ। न कभी कोई प्रधानमंत्री इस रूप में दिखा न किसी राज्य का मुखिया या बड़ा नेता। भारतीय राजनीति में यह एक बड़ा बदलाव है। जो राजनीतिक दल खुलकर मुसलिम परस्त राजनीति कर रहे हैं मुसलमान लगातार चुनाव के समय उससे दूर भाग रहे हैं। दरअसल वो भाजपा को उम्मीद भरी नजर से देख रहे हैं। दूसरी ओर लोकसभा चुनाव से कुछ ही माह पहले प्राकृतिक संसाधनों पर मुसलमानों का पहला हक कहने वाली देश की सबसे पुरानी पार्टी किसी भी हालत में मुसलिम परस्त दिखना नहीं चाहती है।

उप्र में भाजपा आलाकमान के सामने चुनौतियों का पहाड़

डॉ. अरूण जैन
उत्तर प्रदेश फिर से चुनावी मुहाने पर खड़ा है। राजनीति के गलियारों से लेकर गाँव की चौपालों, शहरों के नुक्कड़ों तक पर हर कोई यही सवाल पूछ रहा है कि कौन होगा यूपी का अगला मुख्यमंत्री? मुख्यमंत्री पद की दौड़ में कुछ पुराने चेहरे हैं तो कुछ नये चेहरों को भी संभावित दावेदार समझा जा रहा है। सपा की तरफ से अखिलेश यादव और बसपा की ओर से मायावती की दावेदारी तो पक्की है ही इसलिये सपा और बसपा में कहीं कोई उतावलापन नहीं है। चुनौती है तो भाजपा और कांग्रेस के सामने। इसमें भी भाजपा के बारे में ज्यादा पशोपेश है। सीएम की कुर्सी के लिये भाजपा के संभावित दावेदारों में कई नाम शामिल हैं। दोनों ही दलों ने अभी तक मुख्यमंत्री उम्मीदवार की घोषणा नहीं की है। कांग्रेस तो शायद ही मुख्यमंत्री उम्मीदवार के नाम की घोषणा करे, लेकिन भाजपा के बारे में कयास लगाया जा रहा है कि असम के नतीजों से उत्साहित पार्टी आलाकमान इलाहाबाद में 12−13 जून को होने वाली कार्यसमिति की बैठक में उत्तर प्रदेश के लिये मुख्यमंत्री का चेहरा सामने ला सकती है। भाजपा की तरफ से करीब आधा दर्जन नेताओं के नाम बतौर मुख्यमंत्री उम्मीदवार चर्चा में हैं लेकिन अंतिम फैसला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को ही लेना है। इतना तय है कि भाजपा किसी विवादित छवि वाले नेता को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट नहीं करेगी। इस बात का भी ध्यान रखा जायेगा कि मुख्यमंत्री की दौड़ में कोई ऐसा नेता भी आगे न किया जाये जिसके चलते एक वर्ग विशेष के वोटर पार्टी के खिलाफ लामबंद हो जायें। दिल्ली चुनावों से सबक लेकर आलाकमान पार्टी से बाहर का कोई चेहरा शायद सामने नहीं लायेगा।  भाजपा 14 वर्षों के अम्बे अंतराल के बाद पहली बार यूपी के विधानसभा चुनावों को लेकर उत्साहित दिखाई दे रही है। 2014 के लोकसभा चुनाव के नतीजे आने से पहले तक गुटबाजी और टांग खिंचाई में जुटे प्रदेश नेताओं पर जब से दिल्ली आलाकमान की मजबूत पकड़ हुई है तब से हालात काफी बदल गये हैं। पार्टी के प्रदेश नेताओं की हठधर्मी पर लगाम लगा दी गई है। सारे फैसले अब दिल्ली से लिये जा रहे हैं। बात-बात पर लडऩे वाले यूपी के नेतागण दिल्ली के फैसलों के खिलाफ चूं भी नहीं कर पाते हैं। आलाकमान प्रदेश स्तर के नेताओं की एक−एक गतिविधि पर नजर जमाये रहता है। कौन क्या कर रहा है। पल−पल की जानकारी दिल्ली पहुंच जाती है। असम क तरह यूपी में भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) विधानसभा चुनाव के लिये सियासी जमीन तैयार करने में जुटा है। भाजपा नेताओं को बस इसी जमीन पर चुनावी फसल उगानी और काटनी होगी।
 बात 2012 के विधानसभा चुनाव की कि जाये तो उस समय समाजवादी पार्टी को 29.13, बहुजन समा पार्टी को 25.91, भारतीय जनता पार्टी को 15 और कांग्रेस को 11.65 प्रतिशत वोट मिले थे। इन वोटों के सहारे समाजवादी पार्टी 224, बसपा 80, भाजपा 47 और कांग्रेस 28 सीटों पर जीतने में सफल रही थी। दो वर्ष बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में स्थिति काफी बदल गई। मोदी लहर में सपा−बसपा और कांग्रेस सब उड़ गये। विधानसभा चुनाव के मुकाबले भाजपा के वोट प्रतिशत में 27 प्रतिशत से अधिक का इजाफा हुआ और उसको 42.63 प्रतिशत वोट मिले। वहीं सपा के वोटों में करीब 07 प्रतिशत और बसपा के वोटों में 06 प्रतिशत गिरावट दर्ज की गई। कांग्रेस की स्थिति तो और भी बदतर रही उसे 2012 के विधानसभा चुनावों में मिले 11.65 प्रतिशत वोटों के मुकाबले मात्र 7.58 प्रतिशत वोटों पर ही संतोष करना पड़ा। वोट प्रतिशत में आये बदलाव के कारण बसपा का खाता नहीं खुला वहीं समाजवादी पार्टी 05 और कांग्रेस 02 सीटों पर सिमट गई थी। भाजपा गठबंधन के खाते में 73 सींटे आईं जिसमें 71 भाजपा की थीं और 02 सीटें उसकी सहयोगी अपना दल की थीं। इसी के बाद से भाजपा के हौसले बुलंद हैं और वह यूपी में सत्ता हासिल करने का सपना देखने लगी है। पहले तो भाजपा आलाकमान मोदी के चेहरे को आगे करके यूपी फतह करने का मन बना रहा था परंतु बिहार के जख्मों ने उसे ऐसा करने से रोक दिया और असम की जीत ने भाजपा को आगे का रास्ता दिखाया। यह तय माना जा रहा है कि यूपी चुनाव में मोदी का उपयोग जरूरत से अधिक नहीं किया जायेगा। इसकी जगह स्थानीय नेताओं को महत्व दिया जायेगा। असम में मुख्यमंत्री पद का चेहरा प्रोजक्ट करके मैदान मारने और यूपी में भी इसी तर्ज पर आगे बढऩे की भाजपा आलाकमान की मंशा को भांप कर यूपी भाजपा नेताओं के बीच यह चर्चा शुरू हो गई कि पार्टी किसे मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करेगी। कई नाम सामने भी आये हैं। मगर आलाकमान फूंक-फूंक कर कदम रख रहा है। उसे डर भी सता रहा है कि जिसको मुख्यमंत्री प्रत्याशी घोषित नहीं किया जायेगा वह विजय अभियान में रोड़ा बन सकता है। पार्टी के भीतर मौजूद तमाम तरह के सियासी समीकरण भाजपा नेतृत्व को इस मामले में आगे बढऩे से रोक रहे हैं तो आलाकमान की बाहरी चिंता यह है कि वह चाहता है कि मुख्यमंत्री उम्मीदवार का चेहरा ऐसा होना चाहिए जो बसपा सुप्रीमो मायावती, सपा नेता और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से 19 न हो, लेकिन यूपी की सियासत में ऐसा कोई चेहरा दिख नहीं रहा है। यूपी में जो दमदार चेहरे थे उसमें से कुछ उम्रदराज हो गये हैं तो कुछ दिल्ली की सियासत छोड़कर यूपी के दंगल में कूदने को तैयार नहीं हैं। भाजपा की तरफ से जब मुख्यमंत्री का चेहरा आगे करने की बात सोची जाती है तो पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह और राजनाथ सिंह का नाम सबसे पहले दिमाग में आता है। परंतु कल्याण सिंह के सक्रिय राजनीति से कट जाने और राजनाथ के मोदी सरकार में नंबर दो की हैसियत पर होने के कारण यूपी वापस आने की संभावनाएं बिल्कुल खत्म हो जाती हैं। मोदी सरकार के एक और मंत्री कलराज मिश्र भी दिल्ली छोड़कर यूपी नहीं आना चाह रहे हैं। इसके बाद जो नाम बचते हैं उनको लेकर नेतृत्व के भीतर ही असमंजस है।

अपनी उपलब्धियां गिनाने में लगे शिवराजसिंह !!


डॉ. अरूण जैन
देश के साथ-साथ प्रदेश में इन दिनों भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों और उनके नेताओं द्वारा देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दो साल की कार्यकाल की उपलब्धियों के गिनाने का सिलसिला जोरों पर जारी है। यही नहीं इस उपलब्धि गिनाओ दिवस के दौरान जहां समाचार पत्रों में मोदी की सरकार की उपलब्धियों की जानकारी के साथ-साथ तमाम विज्ञापन दिये जा रहे हैं तो वहीं पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं द्वारा राज्यों में जाकर मोदी के दो साल की उपलब्धियों से लोगों को अवगत कराने का काम किया जा रहा है लेकिन मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान द्वारा इन्हीं दिनों राज्य के समाचार पत्रों में हाल ही में सम्पन्न हुए सिंहस्थ के आयोजन की उपलब्धियों के गुणगान करते हुए दो-दो पेज के विज्ञापन देकर समाचार पत्रों में अपनी उपलब्धियां बढ़-चढकऱ गिनाने का काम किया जा रहा है। इस दौरान मुख्यमंत्री के दो-दो पेज के गुणगान भरे विज्ञापनों के सामने नरेन्द्र मोदी की उपलब्धियों का प्रचार कुछ क्षीण सा होता दिखाई दे रहा है। इसको लेकर लोगों में यह चर्चा आम है कि जैसा कि नरेन्द्र मोदी ने सिंहस्थ के दौरान अपने संबोधन में शिवराज को "अति" लोकप्रिय मुख्यमंत्री के नाम से संबोधित किया था लगता है वह "अति" लोकप्रिय बनने की अभिलाषा आज भी पाले हुए हैं शायद यही वजह है कि सिंहस्थ के बहाने मध्यप्रदेश सरकार द्वारा जारी किए गए देश विदेश के विज्ञापनों के माध्यम से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की छवि बनाने का जो काम उनके रणनीतिकारों द्वारा किया जा रहा है वह आज भी जारी है और यह टसल लगता है, लोकसभा चुनाव के पूर्व से आज तक चली आ रही है। ऐसे समय में जब सारे देश में प्रधानमंत्री की दो साल की उपलब्धियों का गुणगान का दौर चल रहा हो और उसी समय मध्यप्रदेश सरकार द्वारा सिंहस्थ के नाम पर मुख्यमंत्री की उपलब्धि की दो-दो पेज के विज्ञापन जारी करना इस बात के के संकेत दे रहे हैं कि शायद मुख्यमंत्री को अपनी तारीफ के आगे उनके प्रदेश में नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा की जाए यह शायद मुख्यमंत्री शिवराज को कतई पसंद नहीं है। जबकि भाजपा के नेताओं सहित लोगों का कहना है कि सिंहस्थ की उपलब्धि को लेकर जो विज्ञापन इन दिनों सरकार द्वारा जारी किये जा रहे हैं वह दो दिन बाद भी जारी किये जा सकते थे। लेकिन मोदी की उपलब्धियों के कार्यक्रम के साथ-साथ इस तरह के विज्ञापन जारी करना लोग उचित नहीं मान रहे हैं तो वहीं भाजपा के नेता इस तरह के विज्ञापन जारी कर अपनी स्वयं की पीठ थपथपाने की संज्ञा देते नजर आ रहे हैं, कुल मिलाकर भाजपा में जो उठापटक का दौर लोकसभा चुनाव के पूर्व से चला आ रहा है लगता है वह आज भी जारी है और आज भी मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान प्रधानमंत्री पद की लालसा पाले हुए हैं तभी तो इस तरह की खीझ मोदी की उपलब्धियों के अवसर पर विज्ञापनों से जारी कर प्रगट करते दिखाई दे रहे हैं। मामला श्रेष्ठता दिखाने का जो भी है लेकिन इस समय लोग इन विज्ञापनों को जारी किये जाने को लेकर तरह-तरह की चर्चाएं करते नजर आ रहे हैं !!

कश्मीरियों की आकांक्षा को समझे नरेंद्र मोदी सरकार


डॉ. अरूण जैन
इस मामले में कश्मीर में हालात सामान्य हैं कि वहां पत्थर फेंकने की घटनाएं नहीं हो रही हैं। उग्रवाद भी अपने अंतिम दौर में है। फिर भी घाटी असंतोष से उबल रही है। इस स्थिति के पीछे कोई एक कारण बताना मुश्किल है। इसके लिए कई कारण जिम्मेदार हैं। इसका सबसे प्रमुख कारण यह आम भावना है कि कश्मीर ने भारत को सिर्फ रक्षा, विदेशी मामले और संचार पर नियंत्रण का अधिकार दिया था, लेकिन हर जगह भारत है। शिकायत वाजिब है कि कोई इकाई ही तय कर सकती है कि उसे अपनी संप्रभुता का कितना हिस्सा सौंपना है। कोई भी संघ खुद ही ज्यादा विषय हथिया नहीं सकता। लेकिन नई दिल्ली ने ठीक वही किया। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला जो आपस में गहरे दोस्त थे के बीच यही बात आ गई। शेख ने 12 साल नजरबंदी में बिताए। नेहरू ने अपनी गलती महसूस की और इसे सुधारने के लिए शेख को प्रधानमंत्री आवास में ठहराया। ऐसी ही समस्या नई दिल्ली और श्रीनगर के बीच संबंधों में तकलीफ पैदा कर रही है। यह कैसे हो सकता है कि एक मुख्यमंत्री केंद्र से अच्छा संबंध रखेगा और घाटी में स्वतंत्र छवि की धारणा बनाए? राज्य की हर राजनीतिक पार्टी को हरदम यही चिंता लगी रहती है। कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानने वाले लोग इसे विशेष दर्जा देने वाली धारा 370 को खत्म करना चाहते हैं। वे एक ओर संविधान, दूसरी ओर कश्मीरियों के विश्वास के साथ धोखा कर रहे हैं। दुर्भाग्य से, सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी की अलग राय है, हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोई ऐसा काम नहीं किया है जिससे कश्मीर की स्वायत्तता कम होने वाली हो। लेकिन घाटी में यह डर फैला हुआ है। यही मुख्य वजह है कि कश्मीर के भारत में विलय पर गंभीरता से सवाल उठाए जाने लगे हैं। अतीत में उन लोगों को शायद ही समर्थन मिलता थ जो आजाद कश्मीर का नारा लगाते थे, लेकिन आज उन्हें सुनने वाल बहुत लोग हो गए हैं। यह अचरज की बात नहीं है कि ऐसे लोगों की संख्या रोज बढ़ रही है। नई दिल्ली को यह समझना होगा कि नई दिल्ली से श्रीनगर को सार्थक रूप से अधिकार हस्तांतरित करने में कश्मीरियों की नई दिल्ली से दूरी बनाने की इच्छा पर विचार नहीं हो सकता है। लेकिन यह भावना कायम रखनी पड़ेगी कि कश्मीरी अपना शासन खुद चलाते हैं। नेशनल कांफ्रेंस ने महाराजा हरि सिंह से मुक्ति पाने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी और राज्य को एक सेकुलर ओर लोकतांत्रिक शासन देने के लिए उसके पास शेख अब्दुल्ला जैसी हस्ती थी। लेकिन पार्टी को विधानसभा चुनावों में हार का सामना करना पडा़ क्योंकि इसे नई दिल्ली के नजदीक माना जाता था। पीपुल्स डेमोक्रटिक पार्टी (पीडीपी) इसलिए जीती कि इसके संस्थापक मुफ्ती मोहम्मद सईद ने नई दिल्ली से दूरी बनाए रखी, हालांकि इससे अलगाव नहीं रखा। कश्मीरियों ने इसे इसलिए वोट दिया कि पीडीपी ने लोगों को विद्रोह की भावना का अहसास कराया। उमर फारुख अब्दुल्ला को नेशनल कांफ्रेंस के नई दिल्ली समर्थक होने की छवि की कीमत चुकानी पड़ी। कश्मीर का भारत के साथ इतने नजदीकी संबंध हैं कि एक सीमा से ज्यादा इसे चुनौती नहीं दी जा सकती। फिर भी, चाहे जितना भी छोटा विरोध क्यों न हो, लोगों को यह नई दिल्ली के खिलाफ विद्रोह का एक काल्पनिक संतोष देता है। लार्ड सिरिल रेडक्लिफ ने कश्मीर को को महत्व नहीं दिया। वह लंदन में न्यायाधीश थे जिन्होंने दो अलग देश बनाने के लिए भारत और पाकिस्तान के बीच विभाजन की रेखा खींची। सालों बाद उन्होंने एक इंटरव्यू के दौरान मुझसे कहा कि उन्होंने कल्पना नहीं की थी कि कश्मीर वैसा महत्व हासिल कर लेगा जैसा उसने आज पा लिया है। मैंने इस उदाहरण को उस समय याद किया जब मैं एक उर्दू पत्रिका की पहली सालगिरह की अध्यक्षता करने कुछ सप्ताह पहले श्रीनगर गया। उर्दू को हर राज्य से खामोशी से बाहर निकला जा रहा है इसमें पंजाब भी शामिल है जहां कुछ साल पहले तक यह मुख्य भाषा थी। वास्तव में इसने भारत में उस समय अपना महत्व खो दिया जब पाकिस्तान ने इसे अपनी राष्ट्रभाषा बना लिया। उर्दू के प्रति नई दिल्ली के सातैले व्यवहार को लेकर कश्मीर में तीव्र भावना है और यह आम धारणा है कि उर्दू की उपेक्षा की जा रही है क्योंकि लोग इसे मुसलमानों की भाषा समझते हैं। अगर नई दिल्ली अपनी ओर से उर्दू को प्रोत्साहित करे तो कम से कम कश्मीरियों को दुख देने वाले कारणों में से एक कारण तो कम हो जाएगा। देश के बाकी हिस्सों की तरह यहां भी आमतौर पर लोग गरीब हैं और वे नौकरी चाहते हैं जो, उन्हें लगता है कि सिर्फ विकास से आ सकती है। इसमें पर्यटन शामिल है लेकिन वे उगव्रादियों को भगाने के लिए बंदूक या कोई अन्य हथियार नहीं उठा रहे हैं। एक तो वे उनसे डरते हैं, दूसरा यह धारणा है कि उग्रवादी जो कर रहे हैं उससे उन्हें पहचान मिलती है। इसलिए यह आलोचना कि उग्रवादियों के खिलाफ घाटी के अंदर से कोई प्रतिरोध नहीं है समझने लायक है क्योंकि यह अलगाव का हिस्सा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि नई दिल्ली ने वह पैकेज नहीं दिया जो इसने कश्मीर की बाढ़ के समय घोषित किया था। इस वायदे का पालन नहीं करने को लेकर मीडिया में कोई आलोचना नहीं हुई। किसी भारतीय नेता ने भी नई दिल्ली के ध्यान में नहीं लाया कि यह यह वायदे से मुकरना है कश्मीर में इन सब चीजों का यही मायने लगाया जाता है कि यह सतही होने की सोचा−समझा संकेत है। मैं अभी भी मानता हूँ कि 1953 की संधि, जिसने भारत को प्रतिरक्षा, विदेशी मामलों और संचार का नियंत्रण दिया, राज्य में स्थिति सुधार सकती है। कश्मीरी युवक जो राज्य की हैसियत और हालात को लेकर गुस्सा हैं, को यह भरोसा देकर जीता जा सकता है कि पूरे देश का बाजार और उसकी सेवाएं उनके लिए उपलब्ध हैं। लेकिन सिर्फ इससे काम नहीं चलेगा। नई दिल्ली को प्रतिरक्षा, विदेशी मामलों और संचार को छोड़ कर बाकी सभी क्षत्रों से अपने को हटाना पड़ेगा। आर्म्ड फोर्मेस (स्पेशल पावर्स) एक्ट जिसे 25 साल पहले असाधारण परिस्थितियों से निबटने के लिए लागू किया गया था, राज्य में अभी लागू है। सरकार अगर इस कानून को वापस ले ले तो यह एक ओर कश्मीरियों को संतुष्ट करेगा आरै दूसरी ओर सुरक्षा बलों को ज्यादा जिम्मेदार बनाएगा। सामान्य हालात मन की एक स्थिति भी है। यह जरूरी है कि कश्मीरी महसूस करें कि उनकी पहचान खतरे में नहीं है और नई दिल्ली समझे कि कश्मीरियों की आकांक्षा क्या है। नई दिल्ली को सिर्फ तीन विषयों का अधिकार देने वाली 1953 की संधि फिर से बहाल करने से परिस्थिति ठीक की जा सकती है। ध्यान नहीं देने पर परिस्थिति बिगड़ भी सकती है।

पत्रकारों से खबर तो चाहिए पर उनकी कोई खबर नहीं लेता


डॉ. अरूण जैन
दुनिया भर में जो पत्रकार, लोगों की खबर लेते और देते रहते हैं वो कब खुद खबर बन जाते हैं इसका पता नहीं चलता है। पत्रकारिता के परम्परगत रेडियो, प्रिंट और टीवी मीडिया से बाहर, ख़बरों के नए आयाम और माध्यम बने हैं। जैसे जैसे ख़बरों के माध्यम का विकास हो रहा है, ख़बरों का स्वरूप और पत्रकारिता के आयाम भी बदल रहे हैं। फटाफट खबरों और 24 घंटे के चैनल्स में कुछ एक्सक्लूसिव दे देने की होड़, इतनी बढ़ी हैं कि ख़बरों और विडियो फुटेज के संपादन से ही खबर का अर्थ और असर दोनों बदल जा रहा है। पत्रकारों और पत्रकारिता में रूचि रखने वालों के लिए ब्लॉग, वेबसाइट, वेब पोर्टल, कम्युनिटी रेडियो, मोबाइल न्यूज़, एफएम, अख़बार, सामयिक और अनियतकालीन पत्रिका समूह के साथ-साथ आज विषय विशेष के भी चैनल्स और प्रकाशन उपलब्ध हैं। कोई ज्योतिष की पत्रिका निकल रहा है तो कोई एस्ट्रो फिजिक्स की, कोई यात्रा का चैनल चला रहा है तो कोई फैशन का। फिल्म, संगीत, फिटनेस, कृषि, खान-पान, स्वास्थ्य, अपराध, निवेश और रियलिटी शो के चैनल्स अलग-अलग भाषा में आ चुके हैं। धर्म आधारित चैनल्स के दर्शकों की संख्या बहुतायत में होने का परिणाम ये हुआ कि पिछले 10-15 वर्षों में, दुनिया के लगभग सभी धर्मों के अपने अपने चैनल्स की बाढ़ आ गई। जैसे-जैसे दर्शक अपने पसंद के चैनल्स की ओर गए, जीवन में इस्तेमाल होने वाली वस्तुओं के विज्ञापन भी उसी तजऱ् पर अलग-अलग चैनल्स और भाषा बदल कर उन तक पहुँच गए। संचार क्रांति के आने और मोबाइल के प्रचार-प्रसार से ख़बरों का प्रकाश में आना आसान हो गया है। सोशल मीडिया के आने से एक अच्छी शुरुआत ये हुयी है कि ख़बरों को प्रसारित करने के अख़बार  समूहों और चैनल्स के सीमित स्पेस के बीच आम लोगों को असीमित जगह मिली है। ख़बरें अब देश की सीमाओं की मोहताज नहीं रही हैं। ख़बरों की भरमार है। मोबाइल ने सिटीजन जर्नलिज्म को बढ़ावा दिया है और आज मोबाइल रिकॉर्डिंग और घटना स्थल का फोटो, ख़बरों की दुनिया में महत्वपूर्ण दस्तावेज़ की तरह उपयोग में आ रहा है। लेकिन मीडिया की इस विकास यात्रा में, पत्रकारों के  जीवन में क्या बदलाव आया है? दुनिया के स्तर पर सबके अधिकारों की बात करने वाले, पत्रकारों पर हमले की घटनाएं बढ़ी हैं। जर्नलिस्ट्स विदाउट बॉर्डर की रिपोर्ट के मुताबिक 2014 में 66 पत्रकार मारे गए थे और इस तरह पिछले एक दशक में मारे जाने वाले पत्रकारों की संख्या 700 से ऊपर बताई जाती है। 66 मारे गए पत्रकारों में, बड़ी संख्या सीरिया, उक्रेन, इराक़, लीबिया जैसे देशों में मारे गए नागरिक पत्रकार और मीडिया कर्मियों की थी। ब्लॉग ख़बरों और विचार अभिव्यक्ति के एक नए मॉडल के रूप में उभर रहा है। 2015-2016 में बांग्लादेश से कई ब्लॉगर्स की हत्या की खबरें आई हैं जो चिंताजनक हैं।  कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स के अनुसार, 70 रिपोर्टर/कैमरा मैन, युद्ध और हिंसा की खबर कवर करने के दौरान मारे जाते हैं। साहसिक कार्य के दौरान हुयी हिंसा के शिकार जय़ादातर पत्रकार किसी एक अख़बार या चैनल्स के नहीं होते हैं। कभी स्ट्रिंगर तो कभी छोटे समूह के लिए काम करने वाले पत्रकारों की मौत के बाद उनके परिवार की सामाजिक सुरक्षा एक बड़ी चुनौती बन जाती है। अपने देश में भी समय-समय पर पत्रकारों के उत्पीडऩ की ख़बरें आती रहती हैं, कई बार घटना की सत्यता आरोप-प्रत्यारोप में दब जाती है।  पत्रकार की नौकरी जहाँ असुरक्षा की भावना से घिरी रहती है वहीँ पूरी दुनिया के स्तर पर राजनीतिक और संवेदनशील मुद्दों की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों की सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा है। रिपोर्टिंग के दौरान मारे जाने के साथ साथ, सोशल मीडिया पर उनको गाली और धमकी आम होती जा रही है। महिला पत्रकारों का काम और कठिन हो रहा है। उनके साथ सोशल मीडिया पर गाली और चरित्र हनन की घटनाएं बढ़ रही हैं। पत्रकारिता के प्रमुख सिद्धांतों का पालन, जिसमें निष्पक्षता और सत्य उजागर करना प्रमुख सिद्धांत में से है, चुनौती बनता जा रहा है। ईमानदार पत्रकारिता, इस बदले समय में काफी चुनौतीपूर्ण लग रही है। ये भी सच है कि पत्रकारों में भी एक वर्ग, अपने राजनीतिक और आर्थिक हितों के लिए ख़बरों और अपने रसूख का इस्तेमाल करता है और जनता को गुमराह करता है। क्या पत्रकारों की सुरक्षा और उनके अपने अधिकार की आवाज सुनी जाएगी? क्या महिला पत्रकारों को निर्भीक होकर अपना काम करने दिया जायेगा? अपहरण, हत्या, हिंसा का जोखिम लेकर दुनिया भर के पत्रकार तो ख़बरें हमारे बीच लाते हैं लेकिन उनकी खबर कौन लेगा?

संदेह से भरा हेलिकॉप्टर सौदा, जांच और कार्रवाई जरूरी

डॉ. अरूण जैन
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का अतीत काफी तेजी से उनके नजदीक आ रहा है। इस बार तत्कालीन कांग्रेस सरकार की आरामदायक यात्रा के लिए खरीदे जा रहे अगस्तावेस्टलैंड हेलिकॉप्टर की खरीद से संबंधित मुकदमे में उनका नाम लिया जा रहा है। वे उस सरकार में वित्त मंत्री थे। उनकी भूमिका के बारे में मिलान की इतालवी अदालत में बताया गया है, सीबीआई की ओर से नहीं जो पिछले तीन सालों से मामले की जांच कर रही है। साफ है केंद्र सरकार की एजेंसी सीबीआई स्वतंत्र नहीं हो सकती है। फिर भी इससे उम्मीद की जाती है कि अपनी कमजोरियों के बावजूद यह सच बताएगी। अगर एजेंसी संसद को अपनी रिपोर्ट सौंप रही होती तो हेलिकॉप्टर सौदे की जानकारी अभी सार्वजनिक होती। कोई भी सरकार इस एजेंसी को स्वतंत्रता नहीं देना चाहती है यह इसी से जाहिर होता है कि शासन करने वाले इस पर अपनी पकड़ तक ढीली नहीं होने देना चाहते हैं। इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि भारत के लोगों को रिश्वत और भ्रष्टाचार की जानकारी उस समय मिलती है जब कोई विदेशी एजेंसी उनके बारे में खबर देती है। यह हेलिकॉप्टर सौदा इसका सिर्फ एक उदाहाण है।  अतीत में कई घोटाले प्रकाश में आए हैं जब किसी विदेशी एजेंसी के जरिये वह सामने आये। यह उसी समय होगा जब मिलान जैसी कोई मेहनती अदालत ऐसा करती है। सीबीआई या किसी और एजेंसी ने अगस्तावेस्टलैंड की भारतीय बिक्री शाखा के अध्यक्ष पीटर हेलेट को जेम्स क्रिश्चियन मिशेल ने जो पत्र लिखा था उसे सार्वजनिक क्यों नहीं किया? अपने पत्र में उसने कहा है कि 'श्रीमति गांधी वीआईपी खरीद को संचालित करने वाली ताकत हैं, इसलिए वह अब एमआई−8 से उड़ान नही भरेंगी.. श्रीमति गांधी और उनके एकदम नजदीकी सलाहकार ब्रिटिश उच्चायुक्त के निशाने हैं.... मनमोहन सिहं प्रधानमंत्री हैं... अहमद पटेल...प्रणब मुखर्जी उस समय वित मंत्री थे.... वह भारत के वर्तमान राष्ट्रपति हैं। आस्कर फर्नांडीस... स्थानीय राजनेता हैं।  यह विश्वास करना मुश्किल है कि सीबीआई को यह पता नहीं था। एजेंसी अपनी खामोशी के कारण लोगों की नजर में आ रही है। हेलिकॉप्टर सौदे का सबसे दुखद हिस्सा यह है कि रक्षा मंत्रालय ऐसा हेलिकॅाप्टर चाहता था जो एक खास ऊंचाई तक पहुंच सके। एक फ्रेंच हेलिकॉप्टर मिल रहा था जो इस जरूरत को पूरा करता था। फिर भी अगस्तावेस्टलैंड को प्राथमिकता दी गई जबकि वह उस ऊंचाई पर उड़ान नहीं भर सकता था। उसकी मदद करने के लिए सरकार ने ऊंचाई कम कर दी। राजनीतिक स्तर पर और नौकरशाही में जो भी जिम्मेदार हो उसका नाम लिया जाना चाहिए। अतीत में बहुत कम बार जिम्मेदारी तय की गई है। यह तरीका देशहित में नहीं है क्योंकि उनका नाम नहीं लिया जाता है या उन्हें लज्जित नहीं किया जाता है। सोनिया गांधी ने अपनी भूमिका से सीधे इंकार कर दिया है। यह ध्यान देने वाली बात है कि राजनीतिक सचिव अहमद पटेल सोनिया गांधी को बचाने के लिए खुद सामने आए हैं क्योंकि आमतौर पर एक प्रवक्ता ही कांग्रेस अध्यक्ष के नजरिए के बारे में बोलता है। यह अलग बात है कि उन्होंने इस अवसर का इस्तेमाल खुद के बचाव के लिए भी किया है क्योंकि क्रिश्चियन मिशेल ने उनका भी नाम लिया है।  अगस्तावेस्टलैंड हेलिकॉप्टर सौदे पर आएं तो मिलान की अदालत ने रिश्वत देने वालों को सजा दी है, रिश्वत लेने वालों के खिलाफ कुछ करने में वह असमर्थ थी। यहीं से भारतीय किरदारों का खेल शुरू होता है। अभी जब भाजपा देश में शासन कर रही है तो सीबीआई उन सभी सामग्रियों को सार्वजनिक कर सकती है जो इसने जमा किए थे लेकिन कांग्रेस शासन के दौरान सार्वजनिक करने से डर रही थी। कम से कम नाम तो सामने आना चाहिए। कांग्रेस सदस्यों के हंगामे के कारण संसद चल नहीं पाई, इससे संकेत मिलता है कि पार्टी नेताओं के खिलाफ आरोप में कुछ सच्चाई है। यह मुझे बोफोर्स तोप सौदे की याद दिलाता है। यहां तक कि कांग्रेस के बड़े नेता भी अंदरुनी कहानी नहीं जानते थे क्योंकि राजीव गांधी ने एक अलग खाता खोला था जिससे इटली के संबंधित लोगों को फायदा मिला। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कमलनाथ को पूरी कहानी मालूम है लेकिन पार्टी से वफादारी के कारण वह इसे नहीं बताएंगे। दूसरा आदमी जो तस्वीर में था वह था आटोवियो क्वात्रोची। लेकिन उसे भारत छोडऩे की इजाजत दी गई जबकि यह सिद्ध हो चुका था कि सौदे में वह बिचौलिया था। केंद्र में कांग्रेस शासन कर रही थी इसलिए उसके देश छोडऩे पर कोई पाबंदी नहीं लगाई गई। उस समय भी सोनिया गांधी का नाम लिया गया था जैसा मामला अभी है। सीबीआई को पूर्व प्रतिरक्षा मंत्री एके एंटोनी की टिप्पणियों से धागा पकडऩा चाहिए कि हेलिकॉप्टर सौदे में घूसखोरी हुई इसमें कोई संदेह नहीं है। एंटोनी ने कहा, हम लोगों ने अगस्तावेस्टलैंड, इसकी मूल कंपनी फिनमेकानिका तथा उसकी सभी सहायक कंपनियों, को काली सूची में डालने की प्रकिया शुरू कर दी थी। हमने बैंक−गारंटी को नकद में बदलने के खिलाफ भी कार्यवाही की और 2068 करोड़ रुपए की वसूली भी। अगस्तावेस्टलैंड के तीन हेलिकॉप्टर भी हमारे पास जब्त रहे। लेकिन एंटोनी के अनुसार मोदी सरकार ने कंपनी को मेक इन इंडिया कार्यक्रम में आमंत्रित कर और ठेका लेने के लिए निविदाओं में हिस्सा लेने की इजाजत देकर इसके साथ रिश्तों में गर्माहट ले आई। अगर मैं जवाहरलाल नेहरु सरकार की याद दिलाऊं तो जगजीवन राम पर शक जाता था, इसके बावजूद कि उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं था। 1990 के दशक में जैन हवाला केस ने कई नाम सामने लाए जिसमें देश के शीर्ष नेता एलके आडवाणी भी थे। जैन बंधुओं के पास से मिली डायरी ने कई फायदा पाने वालों का उल्लेख किया था। लेकिन शायद ही किसी नेता, चाहे भाजपा या कांग्रेस को सजा मिली। अभी चीजें अलग हैं, क्योंकि मीडिया खासकर टेलीविजन ज्यादा सजग और शक्तिशाली हो गया है। यह कल्पना करना कठिन है कि आखिरकार इतना प्रचार पाने के बाद हेलिकॉप्टर सौदे को बिना किसी कार्रवाई के गुमनामी में खोने दिया जाएगा। संसद के सदस्य समझते हैं कि आम लोगों को बिना महत्व का नहीं माना जा सकता है क्योंकि लोग अब वोट का महत्व जानते हैं। राजनीतिक पार्टियां एक दूसरे पर आरोप लगा सकती हैं, लेकिन उस गुस्से को नजरअंदाज नहीं कर सकती हैं जो इस तरह के बेईमानी वाले सौदे से पैदा होते हैं। इसलिए कांग्रेस का इंकार कितनी भी ऊंची आवाज में हो, हेलिकॉप्टर सौदे में घूस देने वाले और लेने वालों के खिलाफ कार्रवाई पक्की है। यह एक अच्छी प्रगति है।

संघ मुक्त भारत का आह्वान यानि चुनावी तैयारी का शंखनाद

डॉ. अरूण जैन
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का संघ मुक्त भारत का आह्वान दरअसल 2019 के लोकसभा चुनावों की तैयारी का शंखनाद है। नीतीश की इच्छा वैसे तो 2014 में भी प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने की थी लेकिन तब वह कामयाब नहीं हो पाये या राजनीतिक परिस्थितियों ने उनको इसकी इजाजत नहीं दी थी। नीतीश अब ज्यादा अनुभव और तैयारी के साथ मैदान में हैं। उन्होंने बिहार में पूर्ण शराबबंदी लागू कर ना सिर्फ राज्य में अपना एक अहम चुनावी वादा पूरा किया बल्कि देश में अपनी साफ सुथरी नेता की छवि और मजबूत की। अब इस मुद्दे पर वह जनमत बनाने के लिए देश के दूसरे राज्यों का दौरा शुरू करेंगे।  देश का दौरा एक मुख्यमंत्री के रूप में करने से ज्यादा तवज्जो शायद नहीं मिलती इसलिए वह जनता दल युनाइटेड के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी चुन लिये गये। माना यही जाता रहा है कि भले शरद यादव या उनसे पहले जॉर्ज फर्नांडिस पार्टी अध्यक्ष थे लेकिन सभी अहम फैसले नीतीश की मर्जी से ही होते थे। अब नीतीश ने औपचारिक रूप से पार्टी की कमान संभाल ली है। वह चाहते तो एक व्यक्ति एक पद के सिद्धांत का पालन करते हुए यह पद पार्टी में किसी अन्य को भी दिलवा सकते थे। लेकिन ऐसा इसलिए नहीं हुआ क्योंकि नीतीश और नरेंद्र मोदी के चुनावी रणनीतिकार एक ही हैं। वह प्रशांत किशोर जो लोकसभा चुनावों से पहले नरेंद्र मोदी के साथ थे, बिहार चुनावों से पहले नीतीश के साथ जुड़ गये थे। लोकसभा चुनावों से पहले जब मोदी को भाजपा चुनाव प्रचार समिति का प्रमुख बना कर राज्यों का दौरा कराया गया था तो उन्हें मीडिया ने खासी तवज्जो दी थी और माना यही गया था कि वह ही प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। अब नीतीश भी जदयू अध्यक्ष और मुख्यमंत्री के रूप में राज्यों का दौरा कर अपने प्रति क्षेत्रीय दलों को आकर्षित करने और राष्ट्रीय स्तर पर अपना जनाधार बढ़ाने का प्रयास करेंगे। नीतीश ने जदयू अध्यक्ष के तौर पर पार्टी की ताकत बढ़ाने के लिए कुछ क्षेत्रीय दलों को विलय करने का सुझाव भी दिया है। माना जा रहा है कि जल्द ही झारखंड विकास पार्टी (प्रजातांत्रिक), राष्ट्रीय लोक दल तथा एक और दल का जदयू में विलय हो सकता है। झारखंड में नीतीश बाबूलाल मरांडी के साथ आगे बढऩा चाहते हैं जबकि उत्तर प्रदेश में वह अजित सिंह को आगे रखना चाहते हैं। प्रयास तो उनका मुलायम सिंह यादव के साथ आगे बढऩे का था लेकिन जनता परिवार के एकीकरण के प्रयासों को जिस तरह मुलायम सिंह ने धक्का पहुँचाया और बिहार में महागठबंधन के प्रयोग से अलग होकर चुनाव लड़ा उससे अब उनकी राहें जुदा हो चुकी हैं। अजीत सिंह को मनाना भी नीतीश के लिए आसान नहीं होगा क्योंकि उन्होंने अपने लिए पार्टी में अहम पद, राज्यसभा की सीट और अपने बेटे को उत्तर प्रदेश में पार्टी का चेहरा बनाने की शर्त रखी है।  नीतीश ने संघ मुक्त भारत का जो आह्वान किया उसकी सराहना कांग्रेस, राजद सहित कुछ अन्य क्षेत्रीय दलों ने की जरूर लेकिन नीतीश के साथ खड़े नहीं हुए। बहुत से क्षेत्रीय दलों ने तो नीतीश के आह्वान पर प्रतिक्रिया तक नहीं दी क्योंकि उनका अपने राज्यों में मुख्य मुकाबला कांग्रेस के साथ है और वह जानते हैं कि नीतीश फिलहाल कांग्रेस के साथ खड़े हैं। लेकिन नीतीश को यह जान लेना चाहिए कि वह जिस कांग्रेस के सहारे बड़ा सपना देख रहे हैं वह कभी भी क्षेत्रीय दल के नेता का नेतृत्व स्वीकार नहीं करेगी। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने जब आम चुनावों में नीतीश के साथ चुनाव लडऩे की बात कही तो पार्टी की ओर से साफ कर दिया गया कि यह समय से पहले का सवाल है। संप्रग-1 और संप्रग-2 का प्रयोग यह बताता है कि कांग्रेस क्षेत्रीय दलों को उनकी भागीदारी दे सकती है पर नेतृत्व वही करेगी। नीतीश के रणनीतिकार प्रशांत किशोर कांग्रेस के भी साथ जुड़ गये हैं इसलिए कांग्रेस के लिए नीतीश के अगले कदम को भांपना आसान होगा। नीतीश भी चूँकि राजनीति के पुराने और सफल खिलाड़ी हैं इसलिए उनका यह प्रयास है कि राष्ट्रीय स्तर पर एक मोर्चा खड़ा किया जाये जो वक्त पडऩे पर वैकल्पिक नेतृत्व प्रदान कर सके। नीतीश को हालाँकि अपने मोर्चे में दलों को शामिल कराने के लिए कड़ी मशक्कत करनी होगी। जम्मू-कश्मीर से शुरुआत करें तो वहाँ पीडीपी भाजपा के साथ है जबकि नेशनल कांफ्रेंस जरूरत पडऩे पर कांग्रेस के साथ जाना पसंद करेगी। पंजाब में अकाली दल भाजपा का पुराना साथी है। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की पार्टी नीतीश के साथ तो है लेकिन केजरीवाल भी खुद को भविष्य में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार देखते हैं इसलिए वह इस मुद्दे पर नीतीश के साथ होंगे या नहीं यह तो वक्त ही बताएगा। हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल का साथ नीतीश को मिल सकता है लेकिन यह पार्टी इस छोटे से राज्य में दूसरे या तीसरे नंबर पर ही रहती है। उत्तर प्रदेश में रालोद का विलय कराकर और कुछ अन्य छोटे दलों मसलन अपना दल आदि से गठबंधन संभव है। बिहार में पहले ही महागठबंधन बना हुआ है। झारखंड में बाबूलाल मरांडी साथ आ ही रहे हैं। वहाँ जदयू और राजद साथ हैं। झामुमो भी इनके साथ आ सकता है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने यदि समर्थन दिया तो बहुत सख्त शर्तें भी रखेगी। ओडिशा में नवीन पटनायक नीतीश के पहले से ही मित्र हैं। महाराष्ट्र में कुछ छोटे दलों का साथ संभव है तो कर्नाटक में जद-सेक्युलर साथ आ सकता है। आंध्र प्रदेश से चंद्रबाबू नायडू का साथ मुश्किल ही मिले लेकिन तेलंगाना से के. चंद्रशेखर राव साथ आ सकते हैं। तमिलनाडु से जिसका भी साथ मिलेगा वही बदले में ज्यादा की चाहत रखेगा। केरल, त्रिपुरा और पूर्वोत्तर राज्यों में जो भी दल साथ आएगा उसका ज्यादा लाभ नीतीश को संभव नहीं है क्योंकि निर्णायक संख्या में सीटें यहाँ नहीं हैं। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, उत्तराखंड, हिमाचल, गुजरात आदि में कोई तीसरी बड़ी शक्ति है नहीं जो नीतीश को कुछ लाभ या साथ मिल सके। नीतीश ने संघ मुक्त भारत की बात तो कह दी है लेकिन वह शायद यह भूल गये कि यह संघ की ही ताकत का कमाल था जो पूरे देश में भाजपा और खासकर नरेंद्र मोदी के पक्ष में लहर पैदा की गयी और प्रत्येक मतदान स्थलों के लिए कार्यकर्ताओं की टोली बनाकर सभी के लिए जिम्मेदारी तय की गई। 

जल्द ही देश में पानी सबसे बड़ी समस्या बनने वाली है


डॉ. अरूण जैन
मैंने एक अमेरिकी नोबेल पुरस्कार विजेता से कहा था कि हमारी असली समस्या जनसंख्या है। उसने इसका खंडन किया और कहा पानी आपकी बड़ी समस्या बनने वाली है। हम लोग आने वाले सालों में भारत के सामने आने वाली तकलीफों पर चर्चा कर रहे थे। काफी लंबी बहस के बाद भी हमारे बीच सहमति नहीं हो पाई। महाराष्ट्र जैसे संपन्न राज्य के लातूर में जो हुआ उसने उस अमेरिकी की चेतावनी दोहरा दी है। घड़ों और बर्तनों को लाइन में रखवाने के लिए धारा 144 लगानी पड़ी और इसने मुझे उस चेतावनी की याद दिला दी। लेकिन उस अमेरिकी ने मुझे एक आशावादी पक्ष भी दिखाया था कि यमुना−गंगा योजना में पानी का समंदर है जो निकाले जाने का इंतजार कर रहा है। मुझे पता नहीं कि यह कितना सच है। अगर ऐसा होता तो सरकार ने इस जमा पानी को नापने के लिए वैज्ञानिक अध्ययन कराया होता। मैंने ऐसी किसी योजना के बारे में अभी तक नहीं सुना है। शायद इस साल महाराष्ट्र सबसे पीडि़त राज्य है। पिछले साल कुछ दूसरे राज्यों की हालत ऐसी ही थी। ज्यादातर राज्य या जहां तक इसका सवाल है, देश की अर्थव्यवस्था मानसून पर काफी निर्भर है। हम आकाश में काले बादल ढूंढ़ते रहना पड़ेगा। पानी हमारे लिए बहुत मायने रखता है− अनाज उगाने और पीने के लिए।  पंजाब−हिमाचल प्रदेश में भाखड़ा बांध ने हरियाणा समेत पूरे क्षेत्र को भारत के अनाज भंडार के रूप में बदल दिया है। भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु भाखड़ा बांध को मंदिर कहते थे। उन्होंने उस समय कहा था कि भारत के परंपरागत मंदिर रहेंगे, लेकिन आर्थिक विकास के लिए हमें नए मंदिरों, जिसका अर्थ था बांध और औद्योगिक परियोजनाएं, का निर्माण करना होगा। यह भाखड़ा बांध पूरे देश को खिला सकता है। लेकिन बड़े बांध बनाना जरूरी नहीं है क्योंकि ये घर−द्वार और चूल्हा−चक्की से उजाड़ दिए लोगों को बसाने की समस्या पैदा करते हैं। छोटे और अलग−अलग जगहों पर बने बांध उतने ही काम के हो सकते हैं, भले ही उनसे बेहतर न हों। नर्मदा बांध की ऊंचाई को लेकर मेधा पाटकर के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन का यही निष्कर्ष था। वह सफल नहीं हो पाईं, हालांकि तत्कालीन सरकार की ओर से तैयार कराई हुई जल संसाधन मंत्री सैफुद्दीन सोज की रिपोर्ट ने कहा था कि बांध से होने वाला फायदा सालों से रहने वाले लोगों को उजाडऩे से होने वाले घाटे के मुकाबले बहुत कम है। लेकिन कई साल बाद बांध बनाया जाने लगा, जब गुजरात ने यह वायदा किया कि उजाड़े गए किसानों और अन्य लोगों की भरपाई के लिए वह जमीन देगी। यह अलग बात है कि राज्य सरकार अपना वायदा पूरा नहीं कर पाई क्योंकि वह उतनी जमीन ढूंढ़ ही नहीं पाई।  भारत में सात बड़ी नदियां गंगा, ब्रह्मपुत्र, सिंधु, नर्मदा, कृष्णा, गोदावरी, कावेरी, और इन नदियों में जल पहुंचाने वाली अनेक छोटी नदियां हैं। इन नदियों के इस्तेमाल ही नहीं, बल्कि उनसे बिजली पैदा करने के लिए नई दिल्ली ने केंद्रीय जल और बिजली आयोग बना रखा है। इसने बहुत हद तक काम भी किया है। लेकिन भारत के कई हिस्सों में इससे ऐसे गंभीर विवाद पैदा हुए हैं जो दशकों से सुलझाए नहीं जा सके हैं।  इस स्थिति ने एक राज्य से दूसरे राज्य के लोगों के बीच दूरी भी बना दी है। उदाहरण के लिए, कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी जल के बंटवारे का मामला सालों से लटका हुआ है। तमिलनाडु को कुछ क्यूसेक (जल की मात्रा मापने का पैमाना) पानी देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद ऐसी हालत है। पास में ही, पंजाब ने राजस्थान को पानी देने से मना कर दिया है। यह सिंधु जल समझौते के समय अपनाई गई नई दिल्ली की दृष्टि के खिलाफ है। उस समय, परियोजना को धन दे रहे विश्व बैंक के सामने भारत ने दलील दी थी कि राजस्थान के बलुआही इलाकों को सींचने के लिए उसे बहुत ज्यादा पानी चाहिए।  यह हास्यास्पद है कि नई दिल्ली की ओर से राजस्थान के पक्ष में फैसला होने के बाद भी पंजाब ने अब उसे पानी देने से मना कर दिया है। विश्व बैंक ने उस समय भारत की यह दलील स्वीकार कर ली थी कि भारत पाकिस्तान को पानी नहीं दे सकता क्योंकि उसे राजस्थान के बालू के टीलों वाली जमीन वापस पाने के लिए पानी की जरूरत है। हमारे पास इसका क्या जबाब है जब राजस्थान को पानी देने के अपने वायदे से पंजाब मुकर जाता है? यह माना जाता है कि राजस्थान पहुंचने वाले पानी से वहां कई अनाज पैदा किए जा सकते हैं, लेकिन पंजाब और हरियाणा के कुछ इलाकों को जो पहले से सिंचित हैं, को पानी नहीं मिलेगा। यही विसंगतियां अन्तर्राज्यीय जल−विवादों के लिए जिम्मेदार हैं। आजादी के सत्तर साल बाद भी इन विवादों को सुलझाया नहीं जा सका है। जब केंद्र और राज्यों, दोनों में कांग्रेस शासन कर रही थी तो समस्या ने इतना भद्दा रूप नहीं लिया था। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पास उस समय कुछ लोकसभा सीटें थीं और उसकी कोई ज्यादा गिनती नहीं करता था। आज हालात एकदम अलग हैं। अभी जब संसद में इसका बहुमत है तो वह चाहती है कि इसके शासन वाले राज्यों को ज्यादा फायदा मिले, नियम से, बिना नियम से।  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले के प्राचीर से यह घोषणा जरूर की थी भारत एक है और दूसरी पार्टियों के शासन वाले राज्यों के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जायगा। लेकिन जमीन का सच यह नहीं है। कांग्रेस पार्टी भी, जो अब विपक्ष में है, संसद तक को चलने नहीं दे रही है। राज्य सभा कई सत्रों तक स्थगित होती रही जब तक पार्टी ने खुद ही यह महसूस नहीं किया कि सदन में बहस के जरिए वह सरकार से अपने मतभेदों को ज्यादा बेहतर ढंग से सामने ला सकती है।  अभी ऐसा लगता है कि पार्टियों के बीच यह समझ बन गई है कि संसद को चलने दिया जाए। यह उम्मीद करनी चाहिए कि पार्टियां अपने बीच बनी इस आम सहमति पर कायम रहेंगी और पहले की तरह गंभीरता से मुद्दों पर बहस करेंगी। अगर इस भावना के अनुसार काम होता है तो संसद में कोई बाधा नहीं पैदा होगी और चुने हुए प्रतिनिधि, जिन्होंने अपने हंगामे वाले व्यवहार से जनता को हताश कर दिया है, अपना ध्यान देश की बीमारियों पर लगाएंगे। तब कोई भी विवाद सत्र को नहीं रोकेगा चाहे वह जल का हो या और किसी समस्या से संबंधित।

कुछ भी हो काला धन तो अपना रास्ता तलाश ही लेता है


डॉ. अरूण जैन
भारतीयों ने अपना धन विदेश में जमा कर रखा है, यह बात उस समय भी लोगों को मालूम थी जब साठ साल पहले मैंने पत्रकारिता शुरू की थी। पश्चिम जर्मनी ने एक बार हमें धन जमा करने वालों की सूची दी थी। लेकिन इसमें कुछ निकला नहीं क्योंकि इससे जुड़े लोगों को राजनीतिक संरक्षण मिला हुआ था। जब आधिकारिक तौर पर आग्रह किया गया तो काफी गोपनीय स्विस खाते भी सरकार को दिए गए थे। लेकिन इस पर कार्रवाई नहीं हुई क्योंकि एक बार फिर दिखाई दिया कि पैसा जमा करने वाले प्रभावशाली हैं। मुझे याद है कि संसद में हंगामे के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने एक बार राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले धन की जांच कराई थी। इसकी रिपोर्ट कभी सार्वजनिक नहीं की गई। लेकिन गैर सरकारी तौर पर बताया गया कि वामपंथी दल समेत सभी राजनीतिक पार्टियों के खाते पश्चिम जर्मनी या स्विट्जरलैंड में हैं।  विदेशों में भारतीय व्यापारियों और उद्योगपतियों के निवेश के बारे में अभी आया हुआ खुलासा भी इसी श्रेणी में आता है। इसके लिए निडर पत्रकारों को बधाई देनी चाहिए। इन पत्रकारों से बातचीत में मुझे पता चला कि जानकारी इक_ा करने और कई स्थानों पर जमा पैसों का मिलान करने में छह महीने का समय लगा है। जाहिर है मामले की जांच और जिम्मेदारी तय करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आयकर विभाग, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया और प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारियों का एक दल बनाया है। फिर भी इससे कुछ ठोस निकल कर नहीं आएगा क्योंकि इस लेन−देन से जुड़े लोगों का राजनीतिक प्रभाव है। संसद इस मामले को हाथ में ले सकता है क्योंकि खुलासे से पूरा राष्ट्र डरा हुआ है। एक बार फिर मामला आरोप−प्रत्यारोप से आगे जाने वाला नहीं है क्योंकि सभी पार्टियां किसी न किसी तरह इससे जुड़ी हैं। पार्टियों को अपनी व्यवस्था ठीक करनी पड़ेगी और यह करने के लिए उन्हें कुछ स्त्रोत रखना होगा। इस समस्या की तकलीफ यह है कि चुनावों के लिए धन की जरूरत है। विधानसभा के चुनावों में दस हजार करोड़ रुपए का खर्च होता है। स्वाभाविक है कि लोकसभा चुनावों के लिए कई और करोड़ रुपयों की जरूरत होगी। यहां तक कि मतदाता को फुसलाने के लिए उसे राजनीतिक पार्टियों को ओर से नगद या सामान दिया जाता है। उदाहरण के लिए, अगले महीने चुनाव में जा रहे तमिलनाडु में अब तक सबसे ज्यादा संख्या में ऐसी गिरफ्तारियां हुई हैं जो चुनाव से पहले के बिना हिसाब−किताब वाले पैसों से संबंधित हैं। राजनीतिक पार्टियों के कोष के बारे में कई संसदीय समितियों ने विचार किया है ताकि खर्च में कमी आए। चुनाव आयोग ने चुनाव प्रचार के दौरान पब्लिसिटी और नजर में आने वाली दूसरी बुराइयों पर पाबंदी लगा दी है। लेकिन कुल मिला कर हालत सुधरने के बदले और भी खराब हुई है। वास्तव में सभी राजनीतिक दल, खासकर सत्ताधारी पार्टी, चुनाव जीतने के लिए हर तरह का तरीका अपनाती हैं। कार्यकर्ताओं के लिए सत्ता का मतलब सिर्फ अधिकार नहीं, पैसा भी हो गया है। इसलिए चुनाव जीतने के लिए कोई भी तरीका बुरा नहीं माना जाता है। जाति का जिस तरह इस्तेमाल होता है वह स्वतंत्र मतदान की हंसी उड़ाने के समान है। संविधान ने इन सारी गड़बडियों पर पाबंदी लगा रखी है, लेकिन फिर भी पार्टियां जातियों और उपजातियों का इस्तेमाल करती हैं क्योंकि पैसों के अलावा मतदाताओं पर सबसे ज्यादा असर इसी का होता है। वित्त मंत्री अरुण जेटली का यह बयान है कि किसी को भी नहीं बख्शा जाएगा। लेकिन उन्हें पता है कि राजनीतिक पार्टियों को चंदा देने वालों के खिलाफ कुछ नहीं किया जा सकता है क्योंकि उन्होंने ही पार्टियों को जीवित रखा हुआ है। कोई राजनीतिक पार्टी उसी हाथ को कैसे काट सकती है जो उन्हें खाना खिलाता है? चुनाव आयोग ने अपनी विभिन्न रिपोर्टों में यह शिकायत की है कि उम्मीदवार तय सीमा से ज्यादा खर्च करते हैं। तय की गई सीमा के अनुसार विधानसभा सीट का एक उम्मीदवार 28 लाख रुपये और लोकसभा सीट का उम्मीदवार 70 लाख रुपए खर्च कर सकता है। लेकिन, उम्मीदवार इससे कई गुणा ज्यादा खर्च करते हैं। राजनीतिक पार्टियों के खर्च पर कोई सीमा नहीं होने के कारण, विधानसभा या लोकसभा के उम्मीदवार को सीमा के भीतर खर्च नहीं करता हुआ पाने पर भी चुनाव आयोग कार्रवाई करने में असमर्थ है। संसद या विधानमंडल के सदस्य चुनाव आयोग को झूठा हिसाब−किताब देते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि नियमों का पालन कर वे पूरे चुनाव−क्षेत्र में प्रचार−कार्य पूरा नहीं कर सकते। क्षेत्र के हर हिस्से में पहुँचने के लिए बहुत सी गाडिय़ों और स्वयंसेवकों की जरूरत होती है, फिर भी सभी जगह पहुंचना उन्हें कठिन मालूम होता है। टेलीविजन माध्यम ने चीजें आसान कर दी हैं। लेकिन कोई उम्मीदवार नहीं चाहता कि उसका संदेश विज्ञापन के रूप में जाए। एक तो यह खर्चीला होता है, दूसरा, दर्शक विज्ञापनों के जरिए चुनाव प्रचार पसंद नहीं करता है। अगर प्रधानमंत्री फर्जी चुनाव खर्च को स्वीकार कर सकते हैं तो वह विदेशों में निवेश, जो अनैतिक है, लेकिन गैर−कानूनी नहीं, को अच्छी तरह स्वीकार कर सकते हैं। आखिरकार भारत के ऊंचे कर से बचने का उनका यही तरीका है। देश में ज्यादा टैक्स के कारण व्यापारी और दूसरे लोग अपना पैसा विदेशों में रखना पसंद करते हैं। सरकार ने कई बार माफी की घोषणा की है और इसे व्यापारियों और उद्योगपतियों के लिए आकर्षक बनाया ताकि वह विदेशों में जमा अपनी संपत्ति की घोषणा कर सकें। लेकिन समस्या यह है कि किस तरह उनसे देश में पैसा रखवाया जाए और टैक्स दिलाया जाए। मुझे याद है कि मैं जब 1990 में लंदन में हाई कमिश्नर था तो देश विदेशी मुद्रा के भारी संकट का सामना कर रहा था। मैंने वहां रहने वाले भारतीय मूल के लोगों से व्यक्तिगत अपील की कि देश, जिसे आप भारत माता कहते हैं, को उनकी तत्काल मदद की जरूरत है। लेकिन अपील का कुछ असर नहीं हुआ। वे अच्छा फायदा चाहते थे। जब उन्हें बान्ड आफर किया गया, जो विदेशी मुद्रा में अच्छा फायदा सुनिश्चित करने वाला था, तो वे निवेश के लिए बहुत इच्छुक हो गए। वे चाहते थे कि देश के प्रति प्यार धन में तब्दील किया जाए।
असम-बंगाल चुनाव के बाद भाजपा में बड़ा उलटफेर

दो सीएम बदल सकते हैं 


डॉ. अरूण जैन
असम और बंगाल चुनाव के बाद भाजपा बड़े उलटफेर के मूड में है। इसके संकेत भाजपा ने एक प्रदेश के संगठन मंत्री को बदलकर दे दिये हैं, जिसका आदेश रातोंरात ईमेल द्वारा भेजकर अमित शाह ने सबको चकित कर दिया। गौरतलब है कि अभी असम, बंगाल और केरल में चुनाव चल रहे हैं। इन चुनावों में बंगाल और केरल की तुलना में भाजपा को सबसे ज्यादा उम्मीदें असम से हैं। यदि असम में भाजपा सरकार बना लेती है तो मोदी शाह की जोड़ी विहार की हार से उबरकर ताकतवर बनकर उभरेगी। ऐसे में उन मुख्यमंत्रियों की कुर्सी खतरे में पड़ सकती है जो आये दिन आलाकमान को चुनौती देते रहते हैं। इनमें पहला नाम राजस्थान की मुख्यमंत्री बसुंधरा राजे का आता है जो शुरू से ही मोदी और शाह की आँख की किरकिरी बनी हुई हैं। बसुंधरा को हटाकर आलाकमान वहां ओम माथुर या कोई अन्य अपनी पसंद का चेहरा बिठा सकता है। दूसरे नंबर पर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का नाम आता है। कमजोर प्रशासनिक पकड़ और व्यापमं घोटाले के कारण शिवराज की कुर्सी भी जाना तय है। अभी हाल ही में शिवराज की पसंद माने जाने वाले प्रदेश के संगठन मंत्री अरविन्द मेनन को अमित शाह ने रातों रात हटा दिया जो शिवराज को बहुत बड़े झटके के रूप में देखा जा रहा है। शिवराज की जगह प्रदेश के ही किसी बड़े नेता को कमान सौंपी जा सकती है। नरेंद्र सिंह तोमर शिवराज से नजदीकी के कारण पहले ही रेस से बाहर हो चुके है, वहीं कैलाश विजयवर्गीय की छवि भी ईमानदार राजनेता की नहीं है। सुगनी देवी ज़मीन घोटाले और सिंघस्थ घोटाले में नाम आने के कारण कैलाश का नाम भी रेस से बाहर बताया जा रहा है। ऐसे में राज्य की कैबिनेट मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया आलाकमान की पसंद हो सकती हैं। अपनी ईमानदार छवि और कड़क प्रशासनिक क्षमता के चलते यशोधरा राजे को मध्यप्रदेश की कमान सौंपी जा सकती है। आलाकमान यशोधरा के जरिये एक तीर से दो निशान साधना चाहता है। एक तो उनकी बहन वसुंधरा राजे को सीएम पद से हटाने के कारण उनकी नाराजगी कुछ हद तक दूर होगी वहीं कांग्रेस भी उनके भतीजे और गुना से सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया को अगले चुनाव में मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करने पर विचार कर रही है। ज्योतिरादित्य मध्यप्रदेश के सबसे ज्यादा जनाधार वाले कांग्रेसी नेताओं में सुमार हैं, और कांग्रेस की नैया पार लगाने की क्षमता रखते हैं। ऐसे में यशोधरा का नाम आगे कर भाजपा कांग्रेस को बैकफुट पर धकेल देगी। जो भी हो लेकिन आने वाले दिन भाजपा की राजनीति में काफी उथल-पुथल भरे रहने वाले हैं।

दम तोड़ती नदियां

डॉ. अरूण जैन
देश में अभी पूरी तरह गरमी शुरू भी नहीं हुई कि नदियों में पानी की कमी दिखने लगी है। हालांकि यह कोई नई बात नहीं है, बीते पंद्रह वर्षों से नदियों में पानी हर साल कम होता जा रहा है। वैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि नदियों में पानी की मात्रा आगामी पच्चीस वर्षों तक यों ही घटती रही, तो देश में जलक्रांति की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। दरअसल, मौसम चक्र में हो रहे बदलाव के कारण बर्फ और ग्लेशियर से निकलने वाले पानी की मात्रा नदियों में कम हो रही है। वैज्ञानिकों ने एक नए शोध में खुलासा किया है कि गंगा नदी के कानपुर और इलाहाबाद तक पहुंचते-पहुंचते हिमालयी ग्लेशियर और बर्फ के पानी की मात्रा 9 से 4 फीसद तक रह जाती है। भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला अमदाबाद, आइआइटी रुड़की और वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान, देहरादून के वैज्ञानिकों ने संयुक्त रूप से उत्तराखंड के ऋषिकेश में गंगा के पानी की पड़ताल की, तो मालूम हुआ कि बर्फ और ग्लेशियर के पानी का हिस्सा अठारह से दो फीसद रह गया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि बर्फ और ग्लेशियर के पानी का प्रतिशत शुरू में 54 फीसद से ज्यादा रहा करता था। वैज्ञानिक अब नए सिरे से इजराइल की तर्ज पर मेल्टिंग वाटर का प्रतिशत निकालने के बाद अलग-अलग जलस्रोतों को एक-दूसरे से जोड़ कर पानी की बचत का फार्मूला निकालने में जुटे हैं। वे इस बात से ज्यादा चिंतित हैं कि केंद्र सरकार नदियों को जोडऩे और नदियों की सफाई को लेकर कई तरह की योजना बना रही है, पर इन योजनाओं को अमल में लाने से पहले नदी में जल की मात्रा और प्रवाह कैसे बढ़े, इसका कोई ठोस प्रयास नहीं किया जा रहा है। बीते पंद्रह सालों में वैज्ञानिकों ने कम से कम चार प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजे हैं। इन प्रस्तावों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। जबकि नदी में निर्धारित मानकों के मुताबिक पानी की मात्रा बरकरार रखी जाए, तभी नदी जोड़ जैसी योजनाएं पूरी हो पाएंगी। जलवायु परिवर्तन की वजह से माउंट एवरेस्ट का दक्षिणी ग्लेशियर पिछले चार साल में उनतीस फीसद से ज्यादा सिकुड़ चुका है। यह ग्लेशियर ब्रह्मपुत्र जैसी बड़ी नदियों का बड़ा स्रोत है। गोमुख में हर साल बर्फबारी घट रही है। हिम और हिमस्खलन अध्ययन प्रतिष्ठान, चंडीगढ़ के वैज्ञानिकों का कहना है कि गोमुख ग्लेशियर के अधिकतम तापमान में 0.9 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो रही है और बर्फबारी में हर साल 37 से 39 सेंटीमीटर की कमी। रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन के वैज्ञानिकों ने यह अध्ययन किया है। वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि एक दशक के दौरान गोमुख क्षेत्र में अधिकतम तापमान में 0.9 डिग्री सेल्सियस और न्यूनतम तापमान में 0.05 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है। गंगा में बांधों के निर्माण से गंगा की धारा काफी पतली हो गई है। गंगा की जलधारा को अविरल बनाए रखने के लिए जरूरी है कि बांध जितना पानी लेते हैं उसका चार फीसद छोड़ते रहें। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के आदेश का भी पालन नहीं किया जा रहा है। असल में नदी पर रिवर फ्रंट बनाने की योजना भी भविष्य के लिए घातक साबित हो सकती है। जिस नदी पर रिवर फ्रंट बनेगा उसका हाइड्रोलिक सिस्टम बिगड़ जाएगा। जो जलचर नदी के कच्चे किनारे पर आते-जाते, अंडे देते हैं वे सब समाप्त हो जाएंगे। नदी अपने आप को रिचार्ज करने के लिए जो पानी कच्चे किनारों से बरसात में लेती है, वह व्यवस्था पूरी तरह से खत्म हो जाएगी। साफ पानी कम मिलेगा। सीवेज का पानी ज्यादा मिलेगा। इतना ही नहीं, आने वाले दिनों में पानी का संकट भी बढ़ेगा। उदाहरण के तौर पर साबरमती को देखा जा सकता है। साबरमती की औसत चौड़ाई 1,253 फुट थी, जो रिवर फ्रंट योजना के बाद अब महज 92 फुट बची है। यह जो कटौती हुई है उस पर रिवर फ्रंट बना है। गोमती हो, हिंडन या फिर यमुना हो, जहां रिवर फ्रंट बनेगा, नदी की चौड़ाई कम करके ही बनेगा। नदी अपने भूजल से ही अपने आप को रिचार्ज करती है। अगर वाकई देश की नदियों पर रिवर फ्रंट बनाना है, तो चीन से सबक लेना चाहिए। चीन के शंघाई में ह्यंगपू रिवर फ्रंट पार्क इसका बेहतरीन उदाहरण है। जहां नदी के किनारे सरिया-सीमेंट के दीवार बिना बनाए प्राकृतिक ढंग से रिवर फ्रंट बनाए गए हैं, ताकि इस व्यवस्था से नदी का पानी भी साफ रहे और उसके पर्यावरण को कोई नुकसान नहीं पहुंचे। नदी समय-समय पर अपने को रिचार्ज भी करती रहे। देश में इस साल सूखे की मार भी किसानों को झेलनी पड़ रही है। खुद टिहरी हाइड्रो डेवलपमेंट कॉरपोरेशन ने स्वीकार किया है कि गंगा में पिछले साल के मुकाबले बयालीस क्यूमैक्स पानी कम है। क्योंकि इस साल 5.04 मिमी बारिश हुई है। जबकि बीते साल 54 .05 मिमी बारिश हुई थी। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उत्तराखंड में 968 ग्लेशियरों में से भागीरथी में योगदान देने वाले 238 ग्लेशियर हैं, जिनमें अभी आधे से अधिक बिना बर्फ के हैं। वहीं, जम्मू-कश्मीर के 5,262, हिमाचल के 2,735, सिक्किम के 449 और अरुणाचल के 162 ग्लेशियरों में बर्फ की मात्रा लगातार घट रही है। पहले से ही जहां ग्लेशियरों के पिघलने की दर मात्र 17 मीटर प्रति वर्ष है, वहां इस साल बर्फ नहीं पडऩे से हिमपोषित नदियों के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है। गंगा में लगभग चौदह हजार घन मीटर पानी छोड़े जाने की जरूरत है, लेकिन मौजूदा समय में यह केवल नौ हजार घन मीटर है। उज्जैन में चल रहे सिंहस्थ कुंभ के लिए क्षिप्रा नदी में आवश्यक जलप्रवाह और जल उपलब्ध नहीं है। यहां पर सरकार ने नर्मदा-क्षिप्रा सिंहस्थ लिंक परियोजना शुरू की है, जिससे नर्मदा की ओंकारेश्वर सिंचाई परियोजना के सिसलिया तालाब से जल शिप्रा के उद्गम स्थल से छोड़ा जा रहा है। वहां से यह जल क्षिप्रा में प्रवाहित होकर उज्जैन तक पहुंचेगा। हालांकि मध्यप्रदेश में 2006-07 और 2009-10 में 5,186 करोड़ की लागत से जल संरक्षण और संवर्द्धन कार्य करने का दावा सरकार ने किया था। बावजूद इसके सिंहस्थ कुंभ के लिए परियोजना शुरू करनी पड़ी है।

उज्जैन के कुंभ और महाकाल भस्मार्ती के लिए थाईलेंड के भारतवासियों में विशेष आकर्षण


(बैंकाक से डॉ. अरूण जैन)
पूर्वी एशियाई देशों में थाईलेंड का अपना एक आकर्षण है। न केवल भारतीय बल्कि विश्व के अन्य देशों से भी पर्यटक बड़ी संख्या में यहां आते हैं। इसमें कोई दो राय नही कि ‘‘सेक्स वर्कर’’ को उद्योग का दर्जा देकर इस देश ने पूरे विश्व में अपनी अलग पहचान कायम कर ली है और शायद इसी का प्रभाव है कि यहां संबद्ध उद्योग-धंधे बहुत बड़ी संख्या में विकसित हो गए हैं। संभवतः इसी आकर्षण से पर्यटकों की संख्या भी यहां पर अन्य देशों से अधिक है। 
थाईलेंड की कुल जनसंख्या का एक तिहाई हिस्सा भारतीयों का है जो या तो होटल और रेस्टोरेंट व्यवसाय स्थापित कर यहां बस गए हैं अथवा वे यहां पर्यटन और होटल व्यवसाय में कार्य कर रहे हैं। होटल और रेस्टोरेंट व्यवसाय तो यहां अत्याधिक फला-फूला है। मध्यप्रदेश से गए पत्रकारों के एक दल, जिसमें मैं भी शामिल था, ने बैंकाक, पर्यटक एवं मनोरंजन स्थल पटाया और अन्य शहरों में पाया कि यहां रहने वाले भारतीय उज्जैन के सिंहस्थ को कुंभ के नाम से जानते हैं। उनकी शिप्रा नदी स्नान के प्रति भी अगाध श्रद्धा है। पत्रकारों के दल ने पृथक-पृथक समूह चर्चाओं में इन भारतीयों को सिंहस्थ में अगले माह उज्जैन आने का निमंत्रण देते हुए बताया कि इस बार 22 अप्रैल से 21 मई तक उज्जैन में सिंहस्थ महापर्व है। पहली बार मध्यप्रदेश सरकार ने उज्जैन में इस महाआयोजन की तैयारी पर पांच हजार करोड़ रूपए खर्च किए हैं। यह राशि अब तक हुई महापर्वों की तुलना में 20 गुना अधिक है। इस राशि से मुख्य रूप से 14 नए ओवर ब्रिज, फोरलेन सड़कें, रिंग रोड, आठ किलोमीटर लंबाई के नदी घाट बनाए गए हैं। इसके अलावा पहली बार ही पूरे महापर्व को हाईटेक व्यवस्थाओं से सुसज्जित किया गया है। बाहर से आने वाले प्रत्येक श्रद्धालु को पार्किंग स्थल, मेला क्षेत्र, साधुओं के साधना स्थल, घाटों पर जाने वाले मार्ग, आदि की जानकारी एक ही मोबाइल एप पर उपलब्ध हो जाएगी। भीड़ नियंत्रण की सर्वाधिक बेहतर व्यवस्थाएं की गई हैं, जिसमें न भटकने का खतरा है, न बच्चों को गुम होने का। थाईलेंड के कई भारतीयों ने अगले माह कुंभ में उज्जैन आने की इच्छा व्यक्त की। मैने उन्हे बताया कि दिल्ली से इन्दौर की सीधी वायु सेवा उपलब्ध है। रेल मार्ग पर भी उज्जैन, दिल्ली से सीधा जुड़ा हुवा है। वायु सेवा से इन्दौर पहुंचने पर वहां से अच्छी पब्लिक ट्रांसपोर्ट उपलब्ध होगी, जो मात्र 40-45 मिनिट में उज्जैन पहुंचा देगी। सरकार और समाजसेवी संगठनों ने भी सिंहस्थ (कुंभ) में आने वालों की हर मदद के साधन जुटाएं हैं। होटल व्यवसाय में लगे पंजाबी, पर्यटन-रेस्टोरेंट व्यवसाय में कार्यरत बिहार, उत्तरप्रदेश के रहवासियों ने पत्रकारों के दल को आश्वस्त किया कि वे अवश्य आएंगे।
महाकाल मंदिर और उसमें होने वाली भस्मार्ती को लेकर भी थाईलेंड भारतीय बहुत उत्सुक हैं। सभी का कहना है कि महाकाल को प्रतिदिन ताजा चिता की भस्म से लेप किया जाता है। वे उसे प्रत्यक्ष देखना चाहते हैं। केवल चर्चा से ही वे रोमांचित हो जाते हैं। मैने उन्हें कहा कि वे आसानी से भस्मार्ती दर्शन कर सकेंगे।