Tuesday 28 June 2016

पत्रकारों से खबर तो चाहिए पर उनकी कोई खबर नहीं लेता


डॉ. अरूण जैन
दुनिया भर में जो पत्रकार, लोगों की खबर लेते और देते रहते हैं वो कब खुद खबर बन जाते हैं इसका पता नहीं चलता है। पत्रकारिता के परम्परगत रेडियो, प्रिंट और टीवी मीडिया से बाहर, ख़बरों के नए आयाम और माध्यम बने हैं। जैसे जैसे ख़बरों के माध्यम का विकास हो रहा है, ख़बरों का स्वरूप और पत्रकारिता के आयाम भी बदल रहे हैं। फटाफट खबरों और 24 घंटे के चैनल्स में कुछ एक्सक्लूसिव दे देने की होड़, इतनी बढ़ी हैं कि ख़बरों और विडियो फुटेज के संपादन से ही खबर का अर्थ और असर दोनों बदल जा रहा है। पत्रकारों और पत्रकारिता में रूचि रखने वालों के लिए ब्लॉग, वेबसाइट, वेब पोर्टल, कम्युनिटी रेडियो, मोबाइल न्यूज़, एफएम, अख़बार, सामयिक और अनियतकालीन पत्रिका समूह के साथ-साथ आज विषय विशेष के भी चैनल्स और प्रकाशन उपलब्ध हैं। कोई ज्योतिष की पत्रिका निकल रहा है तो कोई एस्ट्रो फिजिक्स की, कोई यात्रा का चैनल चला रहा है तो कोई फैशन का। फिल्म, संगीत, फिटनेस, कृषि, खान-पान, स्वास्थ्य, अपराध, निवेश और रियलिटी शो के चैनल्स अलग-अलग भाषा में आ चुके हैं। धर्म आधारित चैनल्स के दर्शकों की संख्या बहुतायत में होने का परिणाम ये हुआ कि पिछले 10-15 वर्षों में, दुनिया के लगभग सभी धर्मों के अपने अपने चैनल्स की बाढ़ आ गई। जैसे-जैसे दर्शक अपने पसंद के चैनल्स की ओर गए, जीवन में इस्तेमाल होने वाली वस्तुओं के विज्ञापन भी उसी तजऱ् पर अलग-अलग चैनल्स और भाषा बदल कर उन तक पहुँच गए। संचार क्रांति के आने और मोबाइल के प्रचार-प्रसार से ख़बरों का प्रकाश में आना आसान हो गया है। सोशल मीडिया के आने से एक अच्छी शुरुआत ये हुयी है कि ख़बरों को प्रसारित करने के अख़बार  समूहों और चैनल्स के सीमित स्पेस के बीच आम लोगों को असीमित जगह मिली है। ख़बरें अब देश की सीमाओं की मोहताज नहीं रही हैं। ख़बरों की भरमार है। मोबाइल ने सिटीजन जर्नलिज्म को बढ़ावा दिया है और आज मोबाइल रिकॉर्डिंग और घटना स्थल का फोटो, ख़बरों की दुनिया में महत्वपूर्ण दस्तावेज़ की तरह उपयोग में आ रहा है। लेकिन मीडिया की इस विकास यात्रा में, पत्रकारों के  जीवन में क्या बदलाव आया है? दुनिया के स्तर पर सबके अधिकारों की बात करने वाले, पत्रकारों पर हमले की घटनाएं बढ़ी हैं। जर्नलिस्ट्स विदाउट बॉर्डर की रिपोर्ट के मुताबिक 2014 में 66 पत्रकार मारे गए थे और इस तरह पिछले एक दशक में मारे जाने वाले पत्रकारों की संख्या 700 से ऊपर बताई जाती है। 66 मारे गए पत्रकारों में, बड़ी संख्या सीरिया, उक्रेन, इराक़, लीबिया जैसे देशों में मारे गए नागरिक पत्रकार और मीडिया कर्मियों की थी। ब्लॉग ख़बरों और विचार अभिव्यक्ति के एक नए मॉडल के रूप में उभर रहा है। 2015-2016 में बांग्लादेश से कई ब्लॉगर्स की हत्या की खबरें आई हैं जो चिंताजनक हैं।  कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स के अनुसार, 70 रिपोर्टर/कैमरा मैन, युद्ध और हिंसा की खबर कवर करने के दौरान मारे जाते हैं। साहसिक कार्य के दौरान हुयी हिंसा के शिकार जय़ादातर पत्रकार किसी एक अख़बार या चैनल्स के नहीं होते हैं। कभी स्ट्रिंगर तो कभी छोटे समूह के लिए काम करने वाले पत्रकारों की मौत के बाद उनके परिवार की सामाजिक सुरक्षा एक बड़ी चुनौती बन जाती है। अपने देश में भी समय-समय पर पत्रकारों के उत्पीडऩ की ख़बरें आती रहती हैं, कई बार घटना की सत्यता आरोप-प्रत्यारोप में दब जाती है।  पत्रकार की नौकरी जहाँ असुरक्षा की भावना से घिरी रहती है वहीँ पूरी दुनिया के स्तर पर राजनीतिक और संवेदनशील मुद्दों की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों की सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा है। रिपोर्टिंग के दौरान मारे जाने के साथ साथ, सोशल मीडिया पर उनको गाली और धमकी आम होती जा रही है। महिला पत्रकारों का काम और कठिन हो रहा है। उनके साथ सोशल मीडिया पर गाली और चरित्र हनन की घटनाएं बढ़ रही हैं। पत्रकारिता के प्रमुख सिद्धांतों का पालन, जिसमें निष्पक्षता और सत्य उजागर करना प्रमुख सिद्धांत में से है, चुनौती बनता जा रहा है। ईमानदार पत्रकारिता, इस बदले समय में काफी चुनौतीपूर्ण लग रही है। ये भी सच है कि पत्रकारों में भी एक वर्ग, अपने राजनीतिक और आर्थिक हितों के लिए ख़बरों और अपने रसूख का इस्तेमाल करता है और जनता को गुमराह करता है। क्या पत्रकारों की सुरक्षा और उनके अपने अधिकार की आवाज सुनी जाएगी? क्या महिला पत्रकारों को निर्भीक होकर अपना काम करने दिया जायेगा? अपहरण, हत्या, हिंसा का जोखिम लेकर दुनिया भर के पत्रकार तो ख़बरें हमारे बीच लाते हैं लेकिन उनकी खबर कौन लेगा?

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