तो क्या तुष्टीकरण की राजनीति इतिहास हो गई?
डॉ. अरूण जैन
भारतीय राजनीति में नये चाणक्य बन कर उभर रहे प्रशांत किशोर (पीके) साबित करना चाहते हैं कि वो किसी को भी चंद्रगुप्त बना सकते हैं। लोकसभा चुनाव में लुढ़क कर 44 सीटों के निचले स्तर पर पहुंची कांग्रेस, पांच राज्यों में चुनावी हार के बाद आजाद भारत में सबसे ज्यादा हताशा के दौर से गुजर रही है। उसी हताशा के वक्त, सोशल मीडीया पर कांग्रेस मुक्त भारत के हल्ला बोल ने उसे अंदर तक हिला रखा है। ऐसे में खुद को किसी विचारधारा में न बांधकर नए नए चंद्रगुप्त पैदा करने का दांव खेल रहे पीके यह साबित करना चाहते हैं कि वो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को जिंदा कर फिर से उसका पुराना अतीत लौटा सकते हैं। कांग्रेस पीके के दो सुझाव, राहुल या प्रियंका की अगुआई में उत्तर प्रदेश का चुनाव लडऩे की बात तो सिरे से खारिज कर चुकी है। लेकिन मुलसमानों की राजनीति फिलहाल ठंढे बस्ते में डाल, ब्राह्मणवाद की राजनीति पर लोटने के पीके के सुझाव पर पार्टी में गहन चर्चा हो रही है। 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान जब मोदी का कद बढऩे लगा तो राजनेताओं के सिर से स्कल टोपी और इफ्तार पार्टी नदारद हो गए। पिछले दो साल में किसी नेता की ऐसी तस्वीर या इफ्तार पार्टी आपको नहीं दिखी होगी। मोदी के बाद, संघ मुक्त भारत की बात करने वाले नीतीश भी बनारस घाट पर तृपुंड के साथ फोटो सेशन करते देखे गए। यह सब भारतीय राजनीति में पहली बार हुआ। न कभी कोई प्रधानमंत्री इस रूप में दिखा न किसी राज्य का मुखिया या बड़ा नेता। भारतीय राजनीति में यह एक बड़ा बदलाव है। जो राजनीतिक दल खुलकर मुसलिम परस्त राजनीति कर रहे हैं मुसलमान लगातार चुनाव के समय उससे दूर भाग रहे हैं। दरअसल वो भाजपा को उम्मीद भरी नजर से देख रहे हैं। दूसरी ओर लोकसभा चुनाव से कुछ ही माह पहले प्राकृतिक संसाधनों पर मुसलमानों का पहला हक कहने वाली देश की सबसे पुरानी पार्टी किसी भी हालत में मुसलिम परस्त दिखना नहीं चाहती है।
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