कुछ भी हो काला धन तो अपना रास्ता तलाश ही लेता है
डॉ. अरूण जैन
भारतीयों ने अपना धन विदेश में जमा कर रखा है, यह बात उस समय भी लोगों को मालूम थी जब साठ साल पहले मैंने पत्रकारिता शुरू की थी। पश्चिम जर्मनी ने एक बार हमें धन जमा करने वालों की सूची दी थी। लेकिन इसमें कुछ निकला नहीं क्योंकि इससे जुड़े लोगों को राजनीतिक संरक्षण मिला हुआ था। जब आधिकारिक तौर पर आग्रह किया गया तो काफी गोपनीय स्विस खाते भी सरकार को दिए गए थे। लेकिन इस पर कार्रवाई नहीं हुई क्योंकि एक बार फिर दिखाई दिया कि पैसा जमा करने वाले प्रभावशाली हैं। मुझे याद है कि संसद में हंगामे के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने एक बार राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले धन की जांच कराई थी। इसकी रिपोर्ट कभी सार्वजनिक नहीं की गई। लेकिन गैर सरकारी तौर पर बताया गया कि वामपंथी दल समेत सभी राजनीतिक पार्टियों के खाते पश्चिम जर्मनी या स्विट्जरलैंड में हैं। विदेशों में भारतीय व्यापारियों और उद्योगपतियों के निवेश के बारे में अभी आया हुआ खुलासा भी इसी श्रेणी में आता है। इसके लिए निडर पत्रकारों को बधाई देनी चाहिए। इन पत्रकारों से बातचीत में मुझे पता चला कि जानकारी इक_ा करने और कई स्थानों पर जमा पैसों का मिलान करने में छह महीने का समय लगा है। जाहिर है मामले की जांच और जिम्मेदारी तय करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आयकर विभाग, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया और प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारियों का एक दल बनाया है। फिर भी इससे कुछ ठोस निकल कर नहीं आएगा क्योंकि इस लेन−देन से जुड़े लोगों का राजनीतिक प्रभाव है। संसद इस मामले को हाथ में ले सकता है क्योंकि खुलासे से पूरा राष्ट्र डरा हुआ है। एक बार फिर मामला आरोप−प्रत्यारोप से आगे जाने वाला नहीं है क्योंकि सभी पार्टियां किसी न किसी तरह इससे जुड़ी हैं। पार्टियों को अपनी व्यवस्था ठीक करनी पड़ेगी और यह करने के लिए उन्हें कुछ स्त्रोत रखना होगा। इस समस्या की तकलीफ यह है कि चुनावों के लिए धन की जरूरत है। विधानसभा के चुनावों में दस हजार करोड़ रुपए का खर्च होता है। स्वाभाविक है कि लोकसभा चुनावों के लिए कई और करोड़ रुपयों की जरूरत होगी। यहां तक कि मतदाता को फुसलाने के लिए उसे राजनीतिक पार्टियों को ओर से नगद या सामान दिया जाता है। उदाहरण के लिए, अगले महीने चुनाव में जा रहे तमिलनाडु में अब तक सबसे ज्यादा संख्या में ऐसी गिरफ्तारियां हुई हैं जो चुनाव से पहले के बिना हिसाब−किताब वाले पैसों से संबंधित हैं। राजनीतिक पार्टियों के कोष के बारे में कई संसदीय समितियों ने विचार किया है ताकि खर्च में कमी आए। चुनाव आयोग ने चुनाव प्रचार के दौरान पब्लिसिटी और नजर में आने वाली दूसरी बुराइयों पर पाबंदी लगा दी है। लेकिन कुल मिला कर हालत सुधरने के बदले और भी खराब हुई है। वास्तव में सभी राजनीतिक दल, खासकर सत्ताधारी पार्टी, चुनाव जीतने के लिए हर तरह का तरीका अपनाती हैं। कार्यकर्ताओं के लिए सत्ता का मतलब सिर्फ अधिकार नहीं, पैसा भी हो गया है। इसलिए चुनाव जीतने के लिए कोई भी तरीका बुरा नहीं माना जाता है। जाति का जिस तरह इस्तेमाल होता है वह स्वतंत्र मतदान की हंसी उड़ाने के समान है। संविधान ने इन सारी गड़बडियों पर पाबंदी लगा रखी है, लेकिन फिर भी पार्टियां जातियों और उपजातियों का इस्तेमाल करती हैं क्योंकि पैसों के अलावा मतदाताओं पर सबसे ज्यादा असर इसी का होता है। वित्त मंत्री अरुण जेटली का यह बयान है कि किसी को भी नहीं बख्शा जाएगा। लेकिन उन्हें पता है कि राजनीतिक पार्टियों को चंदा देने वालों के खिलाफ कुछ नहीं किया जा सकता है क्योंकि उन्होंने ही पार्टियों को जीवित रखा हुआ है। कोई राजनीतिक पार्टी उसी हाथ को कैसे काट सकती है जो उन्हें खाना खिलाता है? चुनाव आयोग ने अपनी विभिन्न रिपोर्टों में यह शिकायत की है कि उम्मीदवार तय सीमा से ज्यादा खर्च करते हैं। तय की गई सीमा के अनुसार विधानसभा सीट का एक उम्मीदवार 28 लाख रुपये और लोकसभा सीट का उम्मीदवार 70 लाख रुपए खर्च कर सकता है। लेकिन, उम्मीदवार इससे कई गुणा ज्यादा खर्च करते हैं। राजनीतिक पार्टियों के खर्च पर कोई सीमा नहीं होने के कारण, विधानसभा या लोकसभा के उम्मीदवार को सीमा के भीतर खर्च नहीं करता हुआ पाने पर भी चुनाव आयोग कार्रवाई करने में असमर्थ है। संसद या विधानमंडल के सदस्य चुनाव आयोग को झूठा हिसाब−किताब देते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि नियमों का पालन कर वे पूरे चुनाव−क्षेत्र में प्रचार−कार्य पूरा नहीं कर सकते। क्षेत्र के हर हिस्से में पहुँचने के लिए बहुत सी गाडिय़ों और स्वयंसेवकों की जरूरत होती है, फिर भी सभी जगह पहुंचना उन्हें कठिन मालूम होता है। टेलीविजन माध्यम ने चीजें आसान कर दी हैं। लेकिन कोई उम्मीदवार नहीं चाहता कि उसका संदेश विज्ञापन के रूप में जाए। एक तो यह खर्चीला होता है, दूसरा, दर्शक विज्ञापनों के जरिए चुनाव प्रचार पसंद नहीं करता है। अगर प्रधानमंत्री फर्जी चुनाव खर्च को स्वीकार कर सकते हैं तो वह विदेशों में निवेश, जो अनैतिक है, लेकिन गैर−कानूनी नहीं, को अच्छी तरह स्वीकार कर सकते हैं। आखिरकार भारत के ऊंचे कर से बचने का उनका यही तरीका है। देश में ज्यादा टैक्स के कारण व्यापारी और दूसरे लोग अपना पैसा विदेशों में रखना पसंद करते हैं। सरकार ने कई बार माफी की घोषणा की है और इसे व्यापारियों और उद्योगपतियों के लिए आकर्षक बनाया ताकि वह विदेशों में जमा अपनी संपत्ति की घोषणा कर सकें। लेकिन समस्या यह है कि किस तरह उनसे देश में पैसा रखवाया जाए और टैक्स दिलाया जाए। मुझे याद है कि मैं जब 1990 में लंदन में हाई कमिश्नर था तो देश विदेशी मुद्रा के भारी संकट का सामना कर रहा था। मैंने वहां रहने वाले भारतीय मूल के लोगों से व्यक्तिगत अपील की कि देश, जिसे आप भारत माता कहते हैं, को उनकी तत्काल मदद की जरूरत है। लेकिन अपील का कुछ असर नहीं हुआ। वे अच्छा फायदा चाहते थे। जब उन्हें बान्ड आफर किया गया, जो विदेशी मुद्रा में अच्छा फायदा सुनिश्चित करने वाला था, तो वे निवेश के लिए बहुत इच्छुक हो गए। वे चाहते थे कि देश के प्रति प्यार धन में तब्दील किया जाए।
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