संघ मुक्त भारत का आह्वान यानि चुनावी तैयारी का शंखनाद
डॉ. अरूण जैन
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का संघ मुक्त भारत का आह्वान दरअसल 2019 के लोकसभा चुनावों की तैयारी का शंखनाद है। नीतीश की इच्छा वैसे तो 2014 में भी प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने की थी लेकिन तब वह कामयाब नहीं हो पाये या राजनीतिक परिस्थितियों ने उनको इसकी इजाजत नहीं दी थी। नीतीश अब ज्यादा अनुभव और तैयारी के साथ मैदान में हैं। उन्होंने बिहार में पूर्ण शराबबंदी लागू कर ना सिर्फ राज्य में अपना एक अहम चुनावी वादा पूरा किया बल्कि देश में अपनी साफ सुथरी नेता की छवि और मजबूत की। अब इस मुद्दे पर वह जनमत बनाने के लिए देश के दूसरे राज्यों का दौरा शुरू करेंगे। देश का दौरा एक मुख्यमंत्री के रूप में करने से ज्यादा तवज्जो शायद नहीं मिलती इसलिए वह जनता दल युनाइटेड के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी चुन लिये गये। माना यही जाता रहा है कि भले शरद यादव या उनसे पहले जॉर्ज फर्नांडिस पार्टी अध्यक्ष थे लेकिन सभी अहम फैसले नीतीश की मर्जी से ही होते थे। अब नीतीश ने औपचारिक रूप से पार्टी की कमान संभाल ली है। वह चाहते तो एक व्यक्ति एक पद के सिद्धांत का पालन करते हुए यह पद पार्टी में किसी अन्य को भी दिलवा सकते थे। लेकिन ऐसा इसलिए नहीं हुआ क्योंकि नीतीश और नरेंद्र मोदी के चुनावी रणनीतिकार एक ही हैं। वह प्रशांत किशोर जो लोकसभा चुनावों से पहले नरेंद्र मोदी के साथ थे, बिहार चुनावों से पहले नीतीश के साथ जुड़ गये थे। लोकसभा चुनावों से पहले जब मोदी को भाजपा चुनाव प्रचार समिति का प्रमुख बना कर राज्यों का दौरा कराया गया था तो उन्हें मीडिया ने खासी तवज्जो दी थी और माना यही गया था कि वह ही प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। अब नीतीश भी जदयू अध्यक्ष और मुख्यमंत्री के रूप में राज्यों का दौरा कर अपने प्रति क्षेत्रीय दलों को आकर्षित करने और राष्ट्रीय स्तर पर अपना जनाधार बढ़ाने का प्रयास करेंगे। नीतीश ने जदयू अध्यक्ष के तौर पर पार्टी की ताकत बढ़ाने के लिए कुछ क्षेत्रीय दलों को विलय करने का सुझाव भी दिया है। माना जा रहा है कि जल्द ही झारखंड विकास पार्टी (प्रजातांत्रिक), राष्ट्रीय लोक दल तथा एक और दल का जदयू में विलय हो सकता है। झारखंड में नीतीश बाबूलाल मरांडी के साथ आगे बढऩा चाहते हैं जबकि उत्तर प्रदेश में वह अजित सिंह को आगे रखना चाहते हैं। प्रयास तो उनका मुलायम सिंह यादव के साथ आगे बढऩे का था लेकिन जनता परिवार के एकीकरण के प्रयासों को जिस तरह मुलायम सिंह ने धक्का पहुँचाया और बिहार में महागठबंधन के प्रयोग से अलग होकर चुनाव लड़ा उससे अब उनकी राहें जुदा हो चुकी हैं। अजीत सिंह को मनाना भी नीतीश के लिए आसान नहीं होगा क्योंकि उन्होंने अपने लिए पार्टी में अहम पद, राज्यसभा की सीट और अपने बेटे को उत्तर प्रदेश में पार्टी का चेहरा बनाने की शर्त रखी है। नीतीश ने संघ मुक्त भारत का जो आह्वान किया उसकी सराहना कांग्रेस, राजद सहित कुछ अन्य क्षेत्रीय दलों ने की जरूर लेकिन नीतीश के साथ खड़े नहीं हुए। बहुत से क्षेत्रीय दलों ने तो नीतीश के आह्वान पर प्रतिक्रिया तक नहीं दी क्योंकि उनका अपने राज्यों में मुख्य मुकाबला कांग्रेस के साथ है और वह जानते हैं कि नीतीश फिलहाल कांग्रेस के साथ खड़े हैं। लेकिन नीतीश को यह जान लेना चाहिए कि वह जिस कांग्रेस के सहारे बड़ा सपना देख रहे हैं वह कभी भी क्षेत्रीय दल के नेता का नेतृत्व स्वीकार नहीं करेगी। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने जब आम चुनावों में नीतीश के साथ चुनाव लडऩे की बात कही तो पार्टी की ओर से साफ कर दिया गया कि यह समय से पहले का सवाल है। संप्रग-1 और संप्रग-2 का प्रयोग यह बताता है कि कांग्रेस क्षेत्रीय दलों को उनकी भागीदारी दे सकती है पर नेतृत्व वही करेगी। नीतीश के रणनीतिकार प्रशांत किशोर कांग्रेस के भी साथ जुड़ गये हैं इसलिए कांग्रेस के लिए नीतीश के अगले कदम को भांपना आसान होगा। नीतीश भी चूँकि राजनीति के पुराने और सफल खिलाड़ी हैं इसलिए उनका यह प्रयास है कि राष्ट्रीय स्तर पर एक मोर्चा खड़ा किया जाये जो वक्त पडऩे पर वैकल्पिक नेतृत्व प्रदान कर सके। नीतीश को हालाँकि अपने मोर्चे में दलों को शामिल कराने के लिए कड़ी मशक्कत करनी होगी। जम्मू-कश्मीर से शुरुआत करें तो वहाँ पीडीपी भाजपा के साथ है जबकि नेशनल कांफ्रेंस जरूरत पडऩे पर कांग्रेस के साथ जाना पसंद करेगी। पंजाब में अकाली दल भाजपा का पुराना साथी है। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की पार्टी नीतीश के साथ तो है लेकिन केजरीवाल भी खुद को भविष्य में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार देखते हैं इसलिए वह इस मुद्दे पर नीतीश के साथ होंगे या नहीं यह तो वक्त ही बताएगा। हरियाणा में इंडियन नेशनल लोकदल का साथ नीतीश को मिल सकता है लेकिन यह पार्टी इस छोटे से राज्य में दूसरे या तीसरे नंबर पर ही रहती है। उत्तर प्रदेश में रालोद का विलय कराकर और कुछ अन्य छोटे दलों मसलन अपना दल आदि से गठबंधन संभव है। बिहार में पहले ही महागठबंधन बना हुआ है। झारखंड में बाबूलाल मरांडी साथ आ ही रहे हैं। वहाँ जदयू और राजद साथ हैं। झामुमो भी इनके साथ आ सकता है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने यदि समर्थन दिया तो बहुत सख्त शर्तें भी रखेगी। ओडिशा में नवीन पटनायक नीतीश के पहले से ही मित्र हैं। महाराष्ट्र में कुछ छोटे दलों का साथ संभव है तो कर्नाटक में जद-सेक्युलर साथ आ सकता है। आंध्र प्रदेश से चंद्रबाबू नायडू का साथ मुश्किल ही मिले लेकिन तेलंगाना से के. चंद्रशेखर राव साथ आ सकते हैं। तमिलनाडु से जिसका भी साथ मिलेगा वही बदले में ज्यादा की चाहत रखेगा। केरल, त्रिपुरा और पूर्वोत्तर राज्यों में जो भी दल साथ आएगा उसका ज्यादा लाभ नीतीश को संभव नहीं है क्योंकि निर्णायक संख्या में सीटें यहाँ नहीं हैं। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, उत्तराखंड, हिमाचल, गुजरात आदि में कोई तीसरी बड़ी शक्ति है नहीं जो नीतीश को कुछ लाभ या साथ मिल सके। नीतीश ने संघ मुक्त भारत की बात तो कह दी है लेकिन वह शायद यह भूल गये कि यह संघ की ही ताकत का कमाल था जो पूरे देश में भाजपा और खासकर नरेंद्र मोदी के पक्ष में लहर पैदा की गयी और प्रत्येक मतदान स्थलों के लिए कार्यकर्ताओं की टोली बनाकर सभी के लिए जिम्मेदारी तय की गई।
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