Saturday, 14 July 2018

संजू का तीसरा गाना रुबी-रुबी रिलीज, कुछ इस अंदाज में दिखे रणबीर कपूर

डाॅ. अरूण जैन
     डायरेक्टर राजकुमार हिरानी की फिल्म संजू को आज से रिलीज होने के लिए सिर्फ एक हफ्ता बचा है।  इस फिल्म के पहले भी कई पोस्टर्स के साथ धमाकेदार ट्रेलर रिलीज हो चुका है। आए दिन संजू का डायलॉग इंटरनेट पर खूब वायरल हो रहा है। वहीं इस फिल्म के पोस्टर्स भी खूब धमाम मचा रहे हैं। रणबीर कपूर को देखने के बाद से हर शख्स हैरान है वह रणबीर को देख रहे हैं या संयज दत्त को। इसी बीच संजू एक और गाना रुबी-रुबी का लिरिकल वीडियो टी-सीरीज ने अपने ऑफिशियल अकाउंट पर शेयर किया हैं। बता दें कि इससे पहले राजकुमार हिरानी ने टीजर शेयर किया था, जिसमें संजू कह रहे है,अगर कोई हॉस्पिटल के बाहर बहुत ही गंभीर हालत में पड़ा है तो भी उसे फार्म भरना जरुरी है। बता दें कि ये फिल्म मुन्ना भाई एमबीबीएस का फेसम डायलॉग था। संजू के गाने रुबी-रुबी सोशल मीडिया पर काफी वायरल हो रहा है। इस गाने का म्यूजिक पहले ही फिल्म डायरेक्टर राजकुमार हिरानी अपने ट्विटर अकाउंट पर शेयर कर चुके हैं और अब इसका लिरीकल वीडियो शेयर हुआ है। इस वीडियो में फिल्म संजू के ट्रेलर में आए सभी सीन्स को कुछ हिस्सा दिखाया गया है। इस गानें को अब तक 20 लाक व्यूज मिल चुकें हैं। गाने के बोल है तू रुबी-रुबी, हो जा रुबरु और इसको बॉलीवुड सिंगर ए.आर रहमान ने कम्पोज किया है। इस गाने में फिल्म के सभी किरदारों के साथ एक्ट्रेस तब्बू रणबीर को अवॉर्ड देते नजर आ रही हैं। फिल्म में रणबीर कपूर के अलावा कई किरदार निभाते हुए अनुष्का शर्मा, दीया मिजऱ्ा , सोनम कपूर , परेश रावल, बोमन ईरानी और विक्की कौशल भी नजर आएंगे। यह फिल्म 29 जून को रिलीज होगी।

भारत में मीडिया स्वतंत्र तो है लेकिन गुलाम बनकर रहता है

डाॅ. अरूण जैन

भारत में पत्रकारिता संकट के दौर से गुजर रही है। सच की आवाज को बुलंद करने वाले पत्रकारों पर दिनों-दिन हमले तेज होते जा रहे हैं। जम्मू-कश्मीर की राजधानी श्रीनगर में राइजिंग कश्मीर के संपादक व वरिष्ठ पत्रकार शुजात बुखारी की गोली मारकर अज्ञात हमलावरों ने हत्या कर दी। यह हमला उस समय हुआ जब वे अपने दफ्तर से इफ्तार पार्टी के लिए निकल रहे थे। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में निरंतर हो रही पत्रकारों की हत्या, मीडिया चैनलों के प्रसारण पर लगायी जा रही बंदिशें व कलमकारों के मुंह पर आए दिन स्याही पोतने जैसी घटनाओं ने प्रेस की आजादी को संकट के घेरे में ला दिया है। आज ऐसा कोई सच्चा पत्रकार नहीं होगा, जिसे रोज-ब-रोज मारने व डराने की धमकी नहीं मिलती होगी। इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट यानी आई.एफ.जे. के सर्व के अनुसार, वर्ष 2016 में पूरी दुनिया में 122 पत्रकार और मीडियाकर्मी मारे गये। जिसमें भारत में भी छह पत्रकारों की हत्या हुई। वहीं पिछले एक दशक के अंतराल में 2017 को पत्रकारों की सुरक्षा के मामले में सबसे खराब माना गया है। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की मानें तो दुनिया भर में पत्रकारों और स्वतंत्र मीडिया पर दबाव बढ़ रहा है। प्रेस की आजादी पर संस्था ने जो अंतरराष्ट्रीय सूची जारी की है उसमें भारत 136वें स्थान पर है। पत्रकारों की सुरक्षा पर निगरानी रखने वाली प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय संस्था कमेटी टू प्रोटेक्स जर्नलिस्ट (सीपीजे) की मानें तो भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले पत्रकारों की जान को खतरा है। 2015 में जारी इस संस्था की एक विशेष रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में रिपोर्टरों को काम के दौरान पूरी सुरक्षा अभी भी नहीं मिल पा रही है। इसी कारण उन्हें अपनी जान से हाथ धोना पड़ रहा है। प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के एक अध्ययन में भी यह बात प्रकाश में आयी थी कि पत्रकारों की हत्याओं के पीछे जो तत्त्व होते हैं, वे सजा पाने के बजाय बचकर निकल जाते हैं। आश्चर्य तो इस बात पर है कि इन रिपोर्ट्स के आने के लगभग तीन वर्ष बीत जाने के बाद भी पत्रकारों को सुरक्षित करने की दिशा में अब तक कारगर कदम नहीं उठे हैं।  दरअसल, भारत के संदर्भ में पत्रकारिता कोई एक-आध दिन की बात नहीं है, बल्कि इसका एक दीर्घकालिक इतिहास रहा है। जहां यूरोप में प्रेस के अविष्कार को पुर्नजागरण एवं नवजागरण के लिए एक सशक्त हथियार के रुप में प्रयुक्त किया गया था। उसी तरह भारत में प्रेस ने आजादी की लड़ाई में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर गुलामी के दिन दूर करने का भरसक प्रयत्न किया था। लेकिन, प्रेस की आजादी को लेकर आज कई सवाल उठ रहे हैं। पत्रकार और पत्रकारिता के बारे में आज आमजन की राय क्या है? क्या भारत में पत्रकारिता एक नया मोड़ ले रही है? क्या सरकार प्रेस की आजादी पर पहरा लगाने का प्रयास कर रही है? क्या बेखौफ होकर सच की आवाज को उठाना लोकतंत्र में आ बैल मुझे मार अर्थात् खुद की मौत को सामने से आमंत्रित करना है? ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जो आज हर किसी के जेहन में उठ रहे हैं। माना जाता है कि हाल के दिनों में सरकार की नीतियों पर सवाल उठाने वाले लोगों पर हमले तेज हुए हैं। इसके सबसे ज्यादा शिकार ईमानदार पत्रकार व सच्चे समाजसेवी रहे हैं।  इस तरह मूल सवाल यही है कि वर्तमान में मीडिया का चाल, चरित्र और आचरण क्या और क्यूं है? तथा उस पर सरकार के नियंत्रण की कोशिश कितनी उचित है? वही मिशन से प्रोफेशन की ओर बढ़ते मीडिया की कल्पना बाजारवाद की ओर इंगित करती है। इस बात को दरकिनार नहीं किया जा सकता कि आधुनिक समय में मीडिया पर प्रलोभन और धन कमाने की चाहत सवार है। खबरों व डिबेट्स के नाम पर फेक न्यूज का चलन इस बात को पुख्ता करता है। आज के मीडिया के संदर्भ में यह विचारणीय है कि विदर्भ में किसानों का हाल जानने के लिए केवल छह पत्रकार ही जाते हैं और मुंबई के फोटो शो में छह सौ पत्रकारों की भीड़ उमड़ पड़ती है? मीडिया में आम आदमी की समस्याओं से इत्तर होकर अनुपयोगी रियल्टी शो संचालित होने लग गये है। वस्तुत: पत्रकारिता की जनहितकारी भावनाओं को आहत किया जा रहा है।  यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि मीडिया की स्वतंत्रता का मतलब किसी भी परिस्थिति में स्वच्छंदता नहीं है। खबरों के माध्यम से कुछ भी परोसकर देश की जनता का ध्यान गलत दिशा की ओर ले जाना स्वीकार्य नहीं किया जा सकता है। मीडिया की अति-सक्रियता लोकतंत्र के लिए घातक सिद्ध हो रही है। निष्पक्ष पत्रकार पार्टी के एजेंट बन रहे हैं। एक बड़ा पत्रकार तबका सत्ता की गोद में खेल रहा है। आदर्श और ध्येयवादी पत्रकारिता धूमिल होती जा रही है व पीत पत्रकार का पीला रंग तथाकथित पत्रकारों पर चढऩे लग गया है। हाल की सरकारें दक्षिणपंथी विचारधारा की कट्टरता में सबसे पहले मीडिया की स्वतंत्रता को बाधित करती हैं और विपक्ष को मृतप्राय बनाकर छोड़ देती है। जिससे जनहितकारी नीतियों की उपेक्षा कर देश में लूटतंत्रकारी नीतियों को आसानी से लागू किया जा सके।  आज मीडिया की दिशा व दशा को लेकर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है। सत्ता, प्रशासन और समाज को बिना किसी भय के सच बताना एक पत्रकार का दायित्व होता है। यदि इसमें उसकी जान को ही खतरा हो जाये, तो फिर यह सरकार और पुलिस की व्यवस्था पर सवाल है। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी को बचाये रखने की दिशा में सरकार को जल्द से जल्द कदम उठाने चाहिए। सरकार और विपक्ष के नेता मीडिया की आजादी के नाम पर बातें तो बड़ी-बड़ी करते हैं, लेकिन उस अनुरूप धरातल पर कहीं कुछ दिखलाई नहीं दे रहा। केन्द्र व राज्य की सरकारें यदि सचमुच लोकतंत्र को स्वस्थ रखना चाहती हैं, तो उन्हें इसके चौथे स्तम्भ को मजबूती प्रदान करनी ही होगी। भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारियों, माफिया, नेताओं और आपराधिक तत्वों को उजागर करने वाले पत्रकारों के लिए सुरक्षा आवश्यक है। यह सुरक्षा पत्रकार सुरक्षा कानून लागू होने से सुनिश्चित की जा सकेगी। 

रजनी का राजनैतिक रूप तो नहीं है काला

डाॅ. अरूण जैन

एक छाता... जो कर दे आपके सारे दुश्मनों का सफाया.. आप कहेंगे, जरूर वो फिल्म 'राजीÓ में दिखाया गया जहर लगा छाता होगा। पर नहीं, हम सामान्य छाते की बात कर हैं। सामान्य छाते से भी ऐसा संभव है। बशर्ते, वह रजनीकांत के हाथ में हो! और फिर सिर्फ छाते से कत्ल करना ही नहीं, और भी बहुत कुछ संभव हो जाएगा। पेट में घूंसा मारने पर मुंह से आधा लीटर पानी पिचकारी के रूप में बाहर आएगा। सिलेंडर के धमाके और सिर में लोहे की भारी रॉड से वार के बावजूद बाल बांका तक नहीं होगा। और आपकी आंखों के सामने सरे-आम हर दस मिनट पर तर्क को बेइज्जत किया जाएगा। लेकिन एक मिनट, स्वैग और बैकग्राउंड म्यूजिक तो दमदार है न... बस...  हम बात कर रहे हैं रजनीकांत की नई फिल्म  काला की। आप कहेंगे,'कैसा नाम है ये?Ó तो फिल्म के विलेन ने भी ठीक यही सवाल पूछा। पर ऐसे नहीं, किरदार के मिजाज में बात करते हैं,'कइसा नाम है रे तेरा? काला... लेते ही मुंह खट्टा हो जाता है!Ó क्या हुआ, मन में कोई सवाल उठा? खबरदार। इसकी इजाजत नहीं है। तो महरबान, कद्रदान, दिल थाम कर बैठिये। थलाइवा की नई फिल्म का शो शुरू होने वाला है। यह कहानी है मुंबई के धारावी की बस्ती में रहने वाले करिकालन यानी काला की, जो वैसे तो एक डॉन है, पर वहां के लोगों का मसीहा है। लोग उसे बहुत मानते हैं। काला का परिवार बहुत साल पहले तमिलनाडु से मुंबई शिफ्ट हो गया था। काला के परिवार में उसकी पत्नी सेल्वी (ईश्वरी राव), तीन बेटे, बहुएं और पोते-पोतियां हैं। काला की उम्र जरूर ढल रही है, पर इरादे अब भी बुलंदी पर हैं। वह बस्ती के बच्चों के साथ क्रिकेट भी खेलता है और पत्नी सेल्वी के साथ रोमांस भी करता है। यहां तक कि अफ्रीका में रह कर आईं जरीना (हुमा कुरैशी) जो उसकी पूर्व मंगेतर रह चुकी हैं, को देखकर भी उनके दिल में पुराने जज्बात जिंदा हो जाते हैं। फिल्म का विलेन यानी हरि अभ्यंकर (नाना पाटेकर) धारावी की जमीन पर कब्जा करना चाहता है। उसके रास्ते का सबसे बड़ा कांटा है काला। पूरी फिल्म में इन्हीं दोनों के बीच रस्साकशी चलती रहती है और आखिर में क्या होता है, उसका अंदाजा आप खुद ही लगा लेंगे, इसका हमें पूरा भरोसा है। फिल्म में कुछ चीजें काबिल-ए-तारीफ भी हैं, जैसे अलग-अलग प्रतीकों के जरिये हीरो-विलेन के बीच का विरोधाभास दिखाना। फिल्म में एक जगह रजनी का पोता उससे पूछता है,'दादाजी, क्या आपका नाम काला इसलिए रखा गया है क्योंकि आपका रंग काला है?Ó इस पर रजनी की पत्नी यानी ईश्वरी उसे बताती हैं कि काला दरअसल एक देवता का नाम है। काला को फिल्म में कई जगह रावण का प्रतीक भी बताया गया है। यानी काला, गरीबी, बदहाली, गंदगी में पनप रही जिंदगी का प्रतीक है। यह किरदार कहीं न कहीं अल्पसंख्यकों का प्रतीक है। दूसरी तरफ फिल्म का विलेन हरि है, जो बहुसंख्यकों का प्रतीक है। जो धारावी की मलिन बस्तियों को ही साफ कर देना चाहता है। धार्मिक प्रवृत्ति का यह विलेन काले रंग से नफरत करता है। हमेशा सफेद कुर्ता-पायजामा पहनता है। इन दोनों के पालतू कुत्ते भी एकदम अलग हैं। काला के पास एक सड़क का मामूली कुत्ता है तो हरि के पास  विदेशी नस्ल वाला कुत्ता। फिल्म में काला 'जमीन हमारा अधिकार हैÓ, 'हम माचिस जैसे घरों और गोल्फ कोर्स जैसी गैर-जरूरी चीजों के बदले आपको अपनी जमीन नहीं दे सकतेÓ और 'मैं आखिरी सांस तक गरीबों के लिए लडूंगाÓ, 'अमीर कबसे गरीबों के फायदे की बात सोचने लगे?Ó जैसे अपने कहे-अनकहे संवादों के जरिये कहीं न कहीं दर्शक को यह सोचने पर भी मजबूर करते हैं कि कहीं ये सब उनके आगामी राजनैतिक पदार्पण को लेकर उनकी सोच की तरफ इशारा तो नहीं है! अब बात रजनी के लुक की। लुंगी, कुर्ते और एविटर चश्मे के साथ वह अपने पूरे स्वैग में नजर आए हैं। इन चीजों के बाद भी उनके पूरे व्यक्तित्व में एक सादगी है और शायद इसी सादगी का आकर्षण है जो लोगों को खींचता है। फिल्म के कुछ हिस्सों में रजनी, हुमा आदि कलाकारों का अतीत दिखाने के लिए एनिमेशन का सहारा लिया गया है, जो फिल्म की गंभीरता को कम करता है। ठीक यही काम इसके कई गाने भी करते हैं। एक किरदार की मौत पर बस्ती के कुछ युवाओं का गमगीन रैप गीत गाना कुछ अखरता है। हुमा की उम्र उनके किरदार के लिहाज से कम लगी है। बेहतर होता कि या तो मेकअप के जरिये उनकी उम्र को ज्यादा दिखाया जाता या उनकी जगह किसी अन्य अदाकारा को लिया जाता । रजनी की केमिस्ट्री हुमा के बजाए ईश्वरी के साथ ज्यादा बेहतर नजर आई है। फिल्म में हुमा कुरैशी के अलावा अंजलि पाटिल, पंकज त्रिपाठी जैसे उत्तर भारतीय फिल्मों के कलाकार भी हैं जिन्होंने छोटी पर प्रभावी भूमिकाएं निभाई हैं। फिल्म की सिनेमैटोग्राफी अच्छी है। अंत में रंगों का अच्छा इस्तेमाल किया गया है। बैकग्राउंड स्कोर भी फिल्म की गति के अनुरूप है।

Friday, 13 July 2018

शिवराज सिंह को दिल्ली ले जाएगी बीजेपी!


डाॅ. अरूण जैन
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को लेकर कई तरह की चर्चाएं शुरू होती रही हैं। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पीएम पद का उम्मीदवार बनाया गया था तो उस वक्त भी यह सवाल उठा था कि शिवराज सिंह ने भी अपने प्रदेश में जीत की हैट्रिक लगाई है। लेकिन बदले परिस्थितियों में यह लगता है कि बीजेपी आलाकमान शिवराज सिंह को प्रदेश में मौका देने के विचार में है। क्योंकि पहले ये चर्चा कई बार हो चुकी है कि बीजेपी शिवराज को अब राष्ट्रीय राजनीति में लाना चाहती है। वहीं, मध्यप्रदेश में अब किसी नए चेहरे को मौका देना चाहती है। दरअसल, शिवराज सिंह की पहचान एक सुलझे हुए राजनेता के रूप में है। ऐसे में मोदी कैबिनेट में सुलझे हुए नेताओं की कमी है। कई महत्वपूर्ण मंत्रालाय प्रभार के सहारे चल रहा है। बीजेपी उन्हें दिल्ली लाकर महत्वपूर्ण मंत्रालय दे सकती है। शायद इसे लेकर शिवराज सिंह को हिंट भी कर दिया गया है। इसी लिए उन्होंने एक कार्यक्रम के दौरान कहा था कि यह कुर्सी अब मेरी नहीं है, इस पर कोई भी बैठ सकता है। शिवराज ने भले ही यह बात मजकिया लहजे में कहा हो लेकिन सियासत में इसके मायने कई निकाले जा रहे थे। वहीं, पिछले दिनों मध्यप्रदेश के दौरे पर आए बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने भी सीएम उम्मीदवार के बारे में पूछने पर कहा था कि पार्टी इस बार चेहरे नहीं बीजेपी के नाम पर चुनाव लड़ेगी। यानी संदेश साफ था कि इस बार शिवराज नहीं कोई और होगा। क्योंकि अब तक जो एमपी चुनाव हुए हैं, बीजेपी उनमें शिवराज सिंह को प्रोजेक्ट कर ही चुनाव लड़ी है। अगर शिवराज दिल्ली जाने को तैयार हो जाते हैं तो मोदी व शाह मध्यप्रदेश के लिए यश मैन की तलाश करेंगे। जो उनलोगों के हां में हां मिलाए। वो भले ही बैठा भोपाल में हो लेकिन कमान दिल्ली में रहे।

12 बच्चे चाहती थीं रेखा, कहा था- मैं 100 साल आगे की सोचती हूं

डाॅ. अरूण जैन

बॉलीवुड की स्टाइल आइकन रेखा आज जिंदगी में भले ही अकेले हों, लेकिन एक समय था जब वो बहुत से बच्चे चाहती थीं. उन्होंने 1984 में दिए एक इंटरव्यू में अपने दिल की बात शेयर की थी. फिल्मफेयर को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा था- मेरी फैंटसी है कि मेरे बहुत से बच्चे हों, लेकिन मैं आशा करती हूं कि ये सिर्फ फैंटसी बन कर ही न रह जाए. मेरी मम्मी हमेशा कहती हैं कि 30 साल की उम्र तक बच्चे हो जाने चाहिए. मुझे लगता है कि यह सही है. मैं चाहती हूं कि मेरा बच्चा शारीरिक रूप से मेरे साथ बड़ा हो. मुझे नहीं लगता कि हमारे बीच कोई कम्यूनिकेशन गैप होगा क्योंकि मैं बहुत फॉर्वर्ड हूं. मैं 100 साल एडवांस में सोचती हूं. उन्होंने आगे कहा था- मुझे मेरे घर की प्राइवेसी बहुत पसंद है, लेकिन मैं चाहती हूं कि मेरे घर का खालीपन बच्चों से भर जाए. सोचिए, बच्चे सीढिय़ों पर दौड़ रहे हैं. लेकिन मुझे सिर्फ 2 बच्चे नहीं चाहिए. कम से कम 12. उन्होंने कहा- मुझे पछतावा है कि मेरी शादी नहीं हुई, बच्चे नहीं हुए. मैं अपने से छोटी उम्र की अपने दोस्तों को देखती हूं, जिनकी शादी हो गई है और बच्चे हो गए हैं. उन्हें देख कर अच्छा लगता है. हालांकि रेखा ने यह भी साफ किया था कि वो कभी बिना शादी के बच्चे पैदा नहीं करना चाहतीं. उन्होंने कहा था- नहीं, मैं बिना शादी के कभी बच्चे पैदा नहीं करूंगी. हां, इसके निजी कारण हैं क्योंकि मैंने अपनी मम्मी को भुगतते हुए देखा है. मैंने उन्हें बिना पापा के बच्चे को पालते हुए देखा है. उन्होंने आगे कहा था-आज के समय में बच्चे बहुत स्वार्थी और डिमांडिंग हैं. डेढ़ महीने में उन्हें पता होता है कि उनके आस-पास कौन है. वो जागरुक होते हैं. मैं 16 साल की उम्र तक जागरुक नहीं थी. आप उन्हें बेवकूफ नहीं बना सकते. मुझे नहीं पता मेरा बच्चा कब होगा. हो सकता है कभी ना हो. हो सकता है बच्चा मुझे घरेलू कामों तक सीमित कर दे, लेकिन मेरे अलग सपने है.

ICICI की चंदा कोचर 2019 चुनाव के बाद भाग सकती हैं!

डाॅ. अरूण जैन
      वीडियोकॉन लोन मामले में घिरी आईसीआईसीआई बैंक की सीईओ चंदा कोचर के खिलाफ आईसीआईसीआई बैंक स्वतंत्र रूप से आंतरिक जांच करने जा रहा है। इस आंतरिक जांच को लेकर सवाल उठने लगे हैं। आशंका है कि बैंक की ओर से बनाई गई आडिट कमेटी की जांच दरअसल सीबीआई जांच को हल्का कर कोचर केस की लीपापोती करने की साजिश है। गौरतलब है कि आई सी आई सीआई बैंक ने जानकारी दी है कि बैंक की सीईओ चंदा कोचर के खिलाफ लगे आरोपों की स्वतंत्र जांच कराने का फैसला किया गया है। बैंक बोर्ड ने इस सिलसिले में जांच कमेटी का गठन करने का फैसला किया है, जिसकी अध्यक्षता एक स्वतंत्र शख्स करेगा। बैंक बोर्ड का कहना है कि उसकी आडिट समिति कार्रवाई को लेकर आगे फैसला करेगी। सवाल यह उठता है कि जब पहले आईसीआईसीआई बैंक बोर्ड ने चंदा कोचर को निर्दोष मानते हुए उसे क्लीन चिट दी थी, तब अब वही बैंक सख्ती क्यों बरत रहा है? माना जा रहा है कि जब सीबीआई ने इसे बुलाया है, तब इसको जांच सूझी है, ताकि सीबीआई के केस को कमजोर किया जा सके। वीडियोकॉन लोन मामला क्या है?सीबीआई ने पहले से ही वीडियोकॉन लोन मामले की आरंभिक जांच शुरू कर दी है, जिसमें वीडियोकॉन को साल 2012 में दिए गए 3250 करोड़ रुपए के लोन की जांच की जा रही है। इसमें चंदा कोचर के पति दीपक कोचर का भी नाम शामिल है। आरोप हैं कि वीडियोकॉन ग्रुप के चेयरमैन वेणुगोपाल धूत ने चंदा कोचर के पति दीपक कोचर की कंपनी न्यूपावर रिन्यूएबल्स में 64 करोड़ रुपए लगाए थे। इसी के बाद बैंकों के कंसोर्शियम ने वीडियोकॉन को 3250 करोड़ रुपए का और लोन दिया। इस बैंकों के कंसोर्शियम में आईसीआईसीआई बैंक भी था। सीबीआई के सामने तथ्य नहीं आने देने की चाल बैंक बोर्ड की ओर से इस सिलसिले में ऑडिट कमेटी की होनेवाली जांच को लेकर संदेह गहरा गया है। माना जा रहा है कि सीबीआई के सामने चंदा कोचर से जुड़े सारे तथ्य नहीं आए, इसको लेकर बैंक की ओर से साजिश रची गई है। जब बैंक के पास आडिट कार्य होता ही है, तो अब भला अलग से ऑडिट कमेटी की ओर से जांच का क्या मतलब? इस तरह बैंक की ओर से होने वाली जांच कोचर का बचाव ही करेगी। चंदा कोचर और उनके पति दीपक कोचर के खिलाफ सीबीआई इंडियन पीनल कोड के तहत जांच करेगी, लेकिन दूसरी ओर बैंक की ही आडिट कमेटी जांच को ढीला छोड़ देगी। भला बैंक की ही आडिट कमेटी बैंक की ही सीईओ चंदा कोचर के खिलाफ गंभीरता से जांच क्यों करेगी? पद का कर सकती हैं दुरुपयोग आईसीआईसीआई बैंक में सीईओ के पद पर बैठी चंदा कोचर अपने पद का दुरुपयोग कर अपने ही बैंक के आडिट जांच को प्रभावित कर सकती हैं। यदि जांच ईमानदार तरीके से होनी है, तो पहले चंदा कोचर को उनके पद से हटाना चाहिए था। पद पर रहकर चंदा कोचर अपने खिलाफ मिले सबूतों को नष्ट भी कर सकती हैं। गिरफ्तारी क्यों नहीं?बैंक कमेटी यह जांच करेगी की कर्ज देने के मामले में नियमों का उल्लंघन किया गया है या नहीं, लेकिन इससे पहले चंदा कोचर की गिरफ्तारी क्यों नहीं हो रही? बैंक की सीईओ चंदा कोचर जब तक गिरफ्तार नहीं होंगी, तब तक बैक की कमेटी इस मामले की प्रामाणिक जांच कैसे करेगी?चंदा कोचर को पद से हटाने की मांग खबर है कि बैंक के ही कुछ डायरेक्टर्स चंदा कोचर के पद पर बने रहने का विरोध कर रहे हैं। बता दें कि सीबीआई ने 2012 में वीडियोकॉन समूह को आईसीआईसीआई बैंक द्वारा 3250 करोड़ रुपए के लोन के संबंध में बैंक की एमडी और सीईओ चंदा कोचर के पति दीपक कोचर स्थापित 'नूपॉवर रिन्यूएबल्सÓ के निदेशक उमानाथ वैकुंठ नायक से पूछताछ की थी। वहीं इस मामले में सरकार भी कोचर को पनाह दे रही है।

मध्यप्रदेश में कांग्रेस को 49 फीसदी मतों के साथ मिल सकती हैं सत्ता- सर्वे

डाॅ. अरूण जैन
मोदी सरकार के 26 मई को चार साल पूरे हो रहे हैं। पीएम नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के पास अब सिर्फ एक साल बचा है। एक ओर बीजेपी अपना चुनावी चक्रव्यूह रच रही है तो दूसरी ओर सबसे बड़ी पार्टी बनने के बाद भी बीजेपी को सत्ता से बाहर कर विपक्षी दल मिले सुर मेरा तुम्हारा गा रहा है। कांग्रेस-बीजेपी के बीच चल रहे चुनावी महासमर के बीच एक सर्वे सामने आया है। एबीपी न्‍यूज के सर्वे में मध्य प्रदेश और राजस्थान के परिणाम बताए हैं। सर्वे के मुताबिक, अगर राजस्थान में आज चुनाव हों तो कांग्रेस को 44 फीसदी वोट मिलेंगे, जबकि बीजेपी 39 फीसदी के साथ पिछड़ सकती है। वहीं, आज चुनाव हों तो बीजेपी को मध्य प्रदेश में 34 फीसदी और कांग्रेस को 49 फीसदी वोट मिल सकते हैं। ऐसा नहीं है कि सर्वे में जो बातें सामने आई हैं, उससे बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह वाकिफ नहीं हैं। उन्हें आभास है कि एमपी में इस बार शिवराज के नाम सिक्का चलने की उम्मीद कम है और राजस्‍थान में हर 5 साल बाद सत्‍ता बदलने का ट्रेंड है। ऐसे में बीजेपी के पास एक ही आखिरी रास्‍ता बचा है और गुरुवार को सर्वे के नतीजे आने से ठीक पहले चुनाव आयोग ने बीजेपी को एक अच्‍छी खबर दी है। खबर है वन नेशन, वन इलेक्‍शन से जुड़ी। चुनाव आयोग ने मोदी सरकार को प्लान बी भेजा है। मतलब वन नेशन वन इलेक्शन के लिए बीच का एक रास्‍ता। सर्वे में पिछड़ती बीजेपी चुनाव आयोग के इस प्‍लान बी को अपने प्लान ए के तौर पर इस्तेमाल कर सकती है। सर्वे में मध्य प्रदेश और राजस्थान में पिछड़ती दिख रही बीजेपी के हाथ में विधानसभा चुनाव जल्‍दी कराना तो संभव नहीं है। हां, वह लोकसभा चुनाव जल्द जरूर करा सकती है। 2018 के अंत में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में चुनाव होने हैं। ऐसे में अगर लोकसभा चुनाव इनके साथ कराए दिए जाते हैं तो बीजेपी को इन राज्यों में पनप रही एंटी इनकमबैंसी की काट मिल सकती है। ऐसे में एमपी में शिवराज सिंह चौहान या राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया के चेहरे अकेले नहीं रह जाएंगे। लोकसभा चुनाव साथ कराने से मोदी का चेहरा बीजेपी लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनावों में आगे कर सकती है। मध्य प्रदेश की बात करें तो यहां 15 साल से बीजेपी की सरकार है। इसी प्रकार से छत्तीसगढ़ में रमन सरकार को भी लंबा अरसा हो गया। राजस्थान के वोटर का ट्रेंड है- हर पांच साल में सरकार बदलना। अगर एमपी, राजस्‍थान और छत्तीसगढ़ चुनाव के साथ लोकसभा चुनाव नहीं होते हैं, तो विधानसभा की हार को लेकर लोकसभा चुनाव में जाना उसके लिए अच्छा संकेत नहीं होगा। इधर, राज्य मंत्री विश्‍वास सारंग ने इस सर्वे से असहमति जाहिर की है। उन्होंने कहा कि हमारी सरकार हर एक वर्ग के लिए काम किया है। उन्होंने कमलनाथ के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

मध्य प्रदेश में सरकार बदले न बदले, लेकिन मुख्यमंत्री बदले जाने की संभावना क्यों है?

डाॅ. अरूण जैन
इसी साल होने वाले चुनाव में कांग्रेस सरकार बदलने में सफल हो न हो, पर भाजपा से ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि वह मुख्यमंत्री बदल सकती है। मध्य प्रदेश में बदलाव की आहट सुनाई दे रही है. कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों की तरफ़ से. कांग्रेस यह जोर लगा रही है कि वह सरकार बदल डाले और 15 साल का अपना सियासी सूखा ख़त्म करे. वहीं सत्ताधारी भाजपा स्वाभाविक तौर पर अपनी सरकार बनाए रखने की जुगत में है. लेकिन इस सबसे ज़्यादा दिलचस्प यह है कि बीते कुछ दिनों से भाजपा भी बदलाव के संकेत देने लगी है. संकेत 'सरकार का चेहराÓ यानी मुख्यमंत्री बदले जाने के हैं. और ये संकेत जिस स्तर पर मिल रहे हैं कि उन्हें देखकर सियासी समझ रखने वाले तो ये भी कहने लगे हैं कि छह महीने में होने वाले चुनाव के बाद सरकार बदलने में कांग्रेस क़ामयाब हो न हो पर भाजपा ज़रूर 'सरकारÓ बदल देगी.  
सूत्र बताते हैं कि प्रदेश की राजनीति में पहली बार सक्रिय कमलनाथ धीरे-धीरे पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह पर निर्भर हो रहे हैं. बताया जाता है कि पर्दे के पीछे उनके लिए रणनीति तय करने का काम दिग्विजय ही कर रहे हैं. ख़बर तो यहां तक है कि दिग्विजय के पुत्र जयवर्धन को युवक कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष भी बनाया जा सकता है. अभी हाल में ही कमलनाथ ने तमाम प्रवक्ताओं वग़ैरह की जो नियुक्तियां की हैं उनमें भी उन्होंने दिग्विजय और अपने समर्थकों को ही तवज्ज़ो दी है. यानी कमलनाथ की आड़ में प्रदेश इकाई पर दिग्विजय सिंह के हावी होने के आसार बन रहे हैं. जानकारों के मुताबिक इस घालमेल के चलते कोई भी दावे के साथ नहीं कह सकता कि इन स्थितियों में कांग्रेस मध्य प्रदेश में सरकार बदलने में सफल हो ही जाएगी. सो अब बात भाजपा की जो अपने ही स्तर पर 'सरकारÓ बदलने के संकेत दे रही है. भाजपा की 'सरकारÓ बदलने की संभावना क्यों लगती है अभी तीन मई की ही बात है. झाबुआ जिले में आनंद विभाग के कार्यक्रम के दौरान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सबको चौंका दिया. कार्यक्रम खत्म होने से पहले ही यहां से निकलते हुए उन्होंने अपनी खाली कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए कहा, 'मेरे कुछ और कार्यक्रम हैं तो जल्दी जाना पड़ेगा. इससे एक मौका और मिलेगा. यह कुर्सी जिस पर लिखा है- माननीय मुख्यमंत्री- उस पर भी कोई बैठ सकता है.Ó इससे तरह-तरह के कय़ासों का दौर शुरू हो गया.  इस कय़ासबाजिय़ों की वज़ह भी थी. पहली- एक दिन पहले ही मुख्यमंत्री दिल्ली से लौटे थे और दूसरी- अगले दिन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह प्रदेश इकाई के प्रमुख राकेश सिंह के ख़ास बुलावे पर कर्नाटक का चुनाव प्रचार छोड़कर भोपाल आ रहे थे. सूत्रों की मानें तो अमित शाह ने भोपाल आकर प्रदेश अध्यक्ष से यह कहा भी कि वे ख़ास तौर पर उनके आग्रह की वज़ह से आए हैं. यही नहीं, मंच से शाह ने इससे भी आगे की बात कह दी. उनका कहना था, 'इस बार मध्य प्रदेश के चुनाव में कोई चेहरा नहीं होगा. मुख्यमंत्री बदले जाने की संभावना क्यों? मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री बदले जाने की संभावनाएं कई कारणों से हैं. पहला तो यही कि शिवराज को प्रदेश में राज करते हुए 13 साल से ज़्यादा हो चुके हैं. लेकिन इतना वक़्त बीतने के बाद भी हालात ये हैं कि नीति आयोग के मुताबिक बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्य देश को विकास के मोर्चे पर पीछे धकेल रहे हैं. कहा यह भी जा रहा है कि जबलपुर में प्रधानमंत्री की कलेक्टरों को दी गई चेतावनी अप्रत्यक्ष रूप से शिवराज के लिए भी थी जिनके बारे में माना जाता है कि वे घोषणाएं खूब करते हैं पर उनमें से आधी भी अमल में नहीं आतीं. एक स्थानीय अख़बार ने अभी हाल में ही अपनी पड़ताल के आधार पर यह तथ्य उजागर किया है. माना यह भी जाता है कि राज्य के मंत्रियों और अफसरों पर भी शिवराज का बहुत नियंत्रण नहीं है. यहां तक कि वे पिछले कई मौकों पर अपने कई दागी मंत्रियों को हटाने तक का जोखिम नहीं ले पाए. फिर इसी साल हुए कुछ उपचुनाव के नतीजे भी हैं जिनमें पूरा जोर लगाने के बाद भी शिवराज भाजपा के प्रत्याशियों को जिता नहीं पाए.  कर्मचारियों की नाराजग़ी, प्रदेश के गड़बड़ाते वित्तीय हालात (इन्हीं वज़हों से राज्य के सभी कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति की आयु सीमा 60 से बढ़कर 62 की गई) और सरकारी खज़़ाने पर बढ़ता कजऱ् (लगभग 1.17 लाख करोड़ रुपए) जैसे कुछ और भी कारण हैं जिनके चलते यह माना जा रहा है कि इस बार मध्य प्रदेश में सत्ताविरोधी रुझान व्यापक है. कहा तो यह भी जा रहा है कि भाजपा के 120 विधायकों के टिकट इस बार इसी वज़ह से मुश्किल में पड़ सकते हैं. परिवर्तन हुआ तो अगला चेहरा कौन? प्रदेश भाजपा की सरकार में परिवर्तन के तमाम आसार के बीच यह स्वाभाविक सवाल है और इसका ज़वाब बस अटकलों में ही छिपा है. इसमें पहली यह है कि शिवराज को केंद्र में ले जाकर नरेंद्र सिंह तोमर को प्रदेश सरकार की कमान सौंपी जा सकती है.  कैलाश विजयवर्गीय दूसरे दावेदार हैं. वे अमित शाह की टीम के मुख्य सदस्य और उनके विश्वस्त हैं.  फिर अन्य नामों में राज्य के मंत्री नरोत्तम मिश्रा, सांसद प्रह्लाद पटेल, फिर उन्हीं की तरह कोई और छिपा रुस्तम सामने आ जाए तो भी किसी को अचरज नहीं होना चाहिए.

जन्म देने वाली मां के बाद सिनेमा है मेरी दूसरी मां ; राजपाल यादव

डाॅ. अरूण जैन
अपनी कॉमेडी और शानदार अभिनय से सबके दिलों पर राज करने वाले राजपाल यादव  की फिल्म हाल ही में तिश्नगी रिलीज हुई है और इस मौके पर उनसे हमारी खास बातचीत हुई। इस दौरान उन्होंने अपनी फिल्म तिश्नगी से लेकर अपनी पर्सनल लाइफ तक कई दिलचस्प बातें बताईं। आइए जानते हैं क्या बोले राजपाल यादव। राजपाल जी अपनी फिल्म तिश्नगी के बारे में बताइए, इस फिल्म में आपका कैसा किरदार है और अब तक के निभाए गए किरदारों से कितना अलग होगा?अब तक आपने देखा होगा कि फिल्म में कुछ कॉमन मैन किरदार होते हैं। हां, ये अलग बात होती है कि कभी वो गेस्ट अपीयरेंस में होते हैं, कभी वो सपोर्टिंग होते हैं, कभी मेन लीड भी होते हैं। तो इस फिल्म में मेरा एक छोटा सा प्यारा सा किरदार है जैसे ऑफिस में कोई कॉमन मैन होता है, बस वैसा किरदार है। जो जब तक फिल्म में रहता है तो फिल्म की कहानी को रोचक बनाने की कोशिश करता है। रील लाइफ में सबको हंसाने वाले राजपाल रियल लाइफ में कैसे है रियल लाइफ में मैं बहुत गंभीर हूं। अपना चुलबुला पन मैं फिल्मों में डाल देता हूं। मैं सारी मस्तियां फिल्म में डाल देता हूं। रील में मैं मस्खरा हूं, लेकिन रियल लाइफ में मैं बहुत अच्छा मश्वरा हूं। फिल्म में आने की प्रेरणा कैसी रही फिल्मों में आने से पहले मैं आपको बताता हूं कि अभिनय में आने की प्रेरणा कहां से मिली। तो अभिनय के स्टेज बदलते रहे। मुझे शुरुआत से अभिनय से प्रेम था। मैं स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रमों में पार्टिसिपेट करता रहता था। मैंने फिर थिएटर ज्वाइन किया। फिर टीवी और फिर फिल्मों में। तो स्टेज बदलते रहे, लेकिन मेरा अभिनय से प्यार और बढ़ता रहा। कभी थिएटर और फिल्मों में से किसी एक को चुनना पड़ा तो आप क्या चुनेंगे?नहीं, मैं किसी एक चीज को बिल्कुल नहीं चुन सकता। जैसे ट्रेन 2 पटरी पर चलती है, वैसे राजपाल यादव के लिए सिनेमा और थिएटर दोनों ही महत्वपूर्ण है। राजपाल की रेल गाड़ी तभी अच्छे से चलेगी जब सिनेमा और थिएटर की पटरी साथ होगी। मैं इन दोनों के बीच कभी कोई चुनाव नहीं कर सकता। राजपाल आप तो कॉमेडी के स्टार हैं, लेकिन आपको कौन बेस्ट कॉमेडियन लगता है?मैं एक एंटरटेनर हूं और जो लोग सबको एंटरटेन करते हैं, मुझे वो सब अच्छे लगते हैं। मुझे किसी एक को चुनना हो तो मैं चार्ली चैप्लिन का नाम लेना चाहूंगा। राजपाल जी उत्तरप्रदेश के शाहजहांपुर से एनएसडी तक पहुंचने का सफर आपका कैसा था। मेरा शाहजहांपुर से एनएसडी तक का सफर नहीं था। शाहजहांपुर से 50 किलोमीटर दूर एक गांव जहां 3-3 किलोमीटर तक 6 महीनों तक पानी भरा रहता था। जब वहां से मैं शाहजहांपुर पढऩे आया, फिर लखनऊ तो मैंने उस सफर को कभी स्पेशल नहीं माना। आपको लगता होगा कि मैंने कुछ पा लिया, लेकिन मैं अभी भी बहुत कुछ पाना चाहता हूं। शाहजहांपुर में एक नाटक हुआ था तो उसमें मुझे बहुत तालियां मिली थी तो मुझे लगा मैं बहुत बड़ा स्टार हूं, लेकिन जब मैं लखनऊ पहुंचा तो मुझे नींद नहीं आई क्योंकि मुझे लगता था कि मैं स्टार हूं, लेकन मैं शाम को साम बोलता था। फिर जब शाम और सुबह कहना सीख पाया, तब तक 2 साल बीत चुके थे। लेकिन जब एनएसडी में आया, तब वहां मैंने सब सीख लिया, फिर मुझमें किसी भी स्टार के साथ काम करने का कॉन्फिडेंस आ गया। अभिनेता बनने का जन्म शाहजहांपुर में हुआ, लखनऊ में पालन पोषण और दिल्ली के रंगमंच में बड़ा हुआ। आज कल की कॉमेडी फिल्मों में एडल्ट कॉमेडी की जाती है, तो इस पर आपको क्या कहना समाज में 2 तरीके के लोग हैं। किसी को कुछ पसंद है और किसी को कुछ लेकिन मैं मानता हूं कि राजपाल यादव अपने जीवन तक ऐसी फिल्में करेगा जिसको सब देख सकें, चाहे बड़े हो या बच्चे हो। क्या अभी किसी को-स्टार ने ऐसा कहा कि आपकी कॉमेडी के आगे हम कैसे काम करेंगे हमारी इंडस्ट्री बहुत हेल्पफुल है। जितने यहां लोग हैं, सब दोस्त हैं। मैं 100 जन्म भी लूं तो भी मैं इस इंडस्ट्री का कर्जा नहीं लौटा सकता। एक है मां जिसने जन्म दिया, दूसरी है सिनेमा जिसने पूरे सातों समंदर में जीवन दिया। तो मैंने जो-जो फिल्में की सबके साथ खूब खाने से लेकर चुटकुले सुनाने से लेकर बहुत प्यार मिला है। किस डायरेक्टर की कॉमेडी फिल्में पसंद है वैसे तो कई डायरेक्टर्स हैं जो बहुत अच्छी फिल्में बनाते हैं, लेकिन अगर एक नाम लेना हो तो मैं डेविड धवन साहब का नाम लेता हूं। आज भी मैं उनको उतनी ही मेहनत करते हुए देखता हूं जितना 2001 में देखा था। वो अपने काम के प्रति बहुत ईमानदार रहते हैं। 

पीएम मोदी ने मप्र के 8 जिलों का नियंत्रण अपने हाथ में लिया, हर जिले में 2-2 प्रभारी मंत्री

डाॅ. अरूण जैन

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मध्यप्रदेश के 8 जिलों का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया है। अब यहां के कलेक्टर सीएम के साथ साथ पीएम को भी रिपोर्ट करेंगे। केंद्र में बैठे आईएएस अफसर प्रतिदिन जिले के वरिष्ठ अधिकारियों से बात करेंगे एवं जिलों में चल रहे कामकाज की समीक्षा के साथ साथ उचित निर्देश भी देंगे। अफसरों के काम में स्थानीय नेता टांग ना अड़ा पाएं इसलिए 6 केंद्रीय मंत्रियों को काम पर लगाया गया है। वो स्थानीय नेताओं के संपर्क में रहेंगे। जनता की मांगों का अध्ययन करेंगे एवं सुनिश्चित करेंगे कि इन जिलों में वो सबकुछ हो जो नरेंद्र मोदी चाहते हैं। मप्र के 8 जिलों में 2-2 प्रभारी मंत्री नीति आयोग ने तय किया है कि पिछड़े जिलों की रैकिंग हर माह की जाएगी। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज पिछले माह अपने प्रभार के जिले की बैठक भी कर चुकी हैं। नीति आयोग ने मध्यप्रदेश के उन सांसदों को जिले आवंटित किए हैं जो केन्द्र में मंत्री है। इनमें सुषमा स्वराज को विदिशा, नरेंद्र सिंह तोमर को गुना, थावरचंद गहलोत को राजगढ़, प्रकाश जावड़ेकर को बड़वानी एवं खंडवा, एमजे अकबर को सिंगरौली डॉ.वीरेन्द्र कुमार दमोह और छतरपुर जिले का प्रभारी बनाया है। 8 जिलों में कलेक्टर के ऊपर एक और ढ्ढ्रस् उधर, एमपी कॉडर के भारत सरकार में पदस्थ आईएएस अफसरों में अनिल जैन को सिंगरोली, प्रवीण कृष्ण को बड़वानी, एसपीएस परिहार को खंडवा, अजय तिर्की को दमोह, शैलेन्द्र सिंह को छतरपुर, संजय सिंह को विदिशा, प्रमोद दास को गुना राजेश चतुर्वेदी को राजगढ़ जिला दिया है। उमा ने मना कर दिया, प्रधान के पास वक्त ही नहीं था केंद्रीय मंत्री उमा भारती और धर्मेंद्र प्रधान को भी प्रधानमंत्री मोदी मध्यप्रदेश के एक-एक जिले की जिम्मेदारी देना चाहते थे लेकिन उमा भारती मध्यप्रदेश नहीं आना चाहतीं। वहीं धर्मेंद्र प्रधान अतिव्यस्तताओं के चलते यह जिम्मेदारी लेने की स्थिति में नहीं थे। अब पिछड़े ब्लॉक की तलाश मध्यप्रदेश दौरे पर आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि आठ पिछड़े जिलों की तरह प्रदेश के पचास पिछड़े ब्लाक भी चिन्हित किए जाएं। इनके लिए वही मापदंड अपनाए जाएं जो नीति आयोग ने तय किए हैं। इसके बाद से ब्लॉकों की परीक्षा प्रक्रिया शुरू हो गई है। आर्थिक एवं सांख्यकीय विभाग को इसकी जिम्मेदारी दी गई है। एसीएस दीपक खांडेकर ने बैठकें शुरू कर दी हैं।

Wednesday, 11 July 2018

अमिताभ की फिल्म देखने सुहाग चिन्ह के साथ आईं रेखा

डाॅ. अरूण जैन
अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर की अपकमिंग फिल्म 102 नॉट आउट 4 मई को रिलीज होने वाली है। इससे पहले फिल्म के मेकर्स ने अपनी फिल्म की स्पेशल स्क्रीनिंग रखी। स्क्रीनिंग में बॉलीवुड के सभी दिग्गज कलाकार पहुंचे थे। फिल्म में अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर 27 साल बाद साथ नजर आएंगे। स्क्रीनिंग के दौरान उस समय सभी हैरान रह गए जब रेखा पहुंचीं। जी हां, अमिताभ बच्चन की फिल्म देखने के लिए रेखा मांग में सिंदूर, बिंदी, हाथ में लाल चूडिय़ां और गॉगल लगाकर स्क्रीनिंग में पहुंची थीं। पहली बार ऐसा हुआ जब अमिताभ बच्चन की फिल्म की स्क्रीनिंग में रेखा पहुंची हों। रेखा के अलावा नीतू सिंह, कृष्णा राज कपूर और प्रेम चोपड़ा भी नजर आए। स्क्रीनिंग में ऋषि कपूर के परिवार से काफी लोग पहुंचे थे। वहीं अमिताभ बच्चन के परिवार से कोई नजर नहीं आया। सिर्फ रेखा को यहां देखा गया। ऐश्वर्या और अभिषेक बच्चन अपनी-अपनी फिल्म की शूटिंग में बिजी हैं। शायद इसलिए वे नहीं पहुंच पाए होंगे। बता दें कि फिल्म में अमिताभ 102 साल के पिता और ऋषि 75 साल के बेटे का किरदार निभा रहे हैं। फिल्म का मजेदार ट्रेलर जारी हो चुका है। जिसे दर्शकों ने खूब पसंद भी किया है। रेखा, नीतू सिंह और प्रेम चोपड़ा ने इस फिल्म को सबसे पहले देखा है। अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर की मजेदार केमिस्ट्री का लोगों को बेसब्री से इंतजार है।  

कमलनाथ-शिवराज की दोस्ती के कारण जनता के लुट गए 585 करोड़

डाॅ. अरूण जैन
कमलनाथ अक्सर कहते हैं कि वो सबसे संबंध बनाकर चलने वाले व्यक्ति हैं। उन पर आरोप लगते हैं कि वो मूलत: उद्योग​पति हैं। राजनीति जनसेवा के लिए नहीं बल्कि अपने परिवार से जुड़े उद्योगों को लाभ पहुंचाने के लिए करते हैं। सब जानते हैं कि कमलनाथ का परिवार 23 प्रतिष्ठित कंपनियों का मालिक है। अब एक नया खुलासा हुआ है। आम आदमी पार्टी ने आरोप लगाया है कि कमलनाथ के कारण शिवराज सिंह सरकार ने रूक्च क्कह्रङ्खश्वक्र (रू्रष्ठ॥ङ्घ्र क्कक्र्रष्ठश्वस्॥) रुढ्ढरूढ्ढञ्जश्वष्ठ के साथ नियम विरुद्ध समझौता किया। बाजार में सस्ती मिल रही बिजली महंगे दामों पर खरीदी जिससे जनता को 585 करोड़ का नुक्सान हुआ। आम आदमी पार्टी के प्रदेश संयोजक और राष्ट्रीय प्रवक्ता श्री आलोक अग्रवाल ने प्रेस वार्ता को संबोधित करते हुए कहा कि अनूपपुर में बन रहे रूक्च क्कह्रङ्खश्वक्र (रू्रष्ठ॥ङ्घ्र क्कक्र्रष्ठश्वस्॥) रुढ्ढरूढ्ढञ्जश्वष्ठ की परियोजना के संबंध में सामने आए तथ्यों से साफ है कि इस परियोजना के संबंध में शिवराज सरकार द्वारा गैरकानूनी समझौता किया गया, जिसके कारण गत तीन वर्षों में मध्य प्रदेश की जनता को 585 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। रूक्च क्कह्रङ्खश्वक्र से कमलनाथ के परिवार का संबंध उन्होंने कहा कि चौंकाने वाला तथ्य यह है कि इस कंपनी का संबंध कांग्रेस के नवनियुक्त प्रदेश अध्यक्ष श्री कमलनाथ जी के परिवार से है और शायद यही कारण है कि श्री कमलनाथ ने सन 2011 में कंपनी बनने के बाद पिछले 7 साल में कभी भी इस गैरकानूनी समझौते के बारे में आवाज नहीं उठाई है। इससे साफ होता है कि प्रदेश में बिजली की हो रही लूट में भाजपा और कांग्रेस साझीदार हैं। रूक्च क्कह्रङ्खश्वक्र में शेयर होल्डर हैं कमलनाथ, भांजा है डायरेक्टर एमबी पॉवर कंपनी, मोजरबियर कंपनी द्वारा विशेष रूप से बनाई गई कंपनी है। मोजरबियर कंपनी में श्री कमलनाथ के जीजा दीपक पुरी चैयरमैन हैं और उनकी बहन नीता पुरी और उनके भांजे रातुल पुरी भी कंपनी में शामिल हैं। साथ ही कमलनाथ जी के भांजे रातुल पुरी एमबी पॉवर के डॉयरेक्टर हैं। मोजरवियर कंपनी में कमलनाथ जी खुद भी शेयरधारक हैं। कमलनाथ जी के चुनाव आयोग में सन 2014 दिए गए शपथ पत्र के अनुसार कंपनी में उनके 6450 शेयर हैं। अत: स्पष्ट रूप है कि कमलनाथ जी के परिवार का एमबी पॉवर से सीधा संबंध है और शायद यही कारण है कि श्री कमलनाथ ने पिछले 7 साल में कभी इस गैरकानूनी और प्रदेश की जनता को लूटने वाले समझौते का विरोध नहीं किया। नियम विरुद्ध क्या हुआ एमबी पॉवर लिमिटेड कंपनी से राज्य सरकार का 5 जनवरी 2011 में समझौता हुआ। केंद्र सरकार की 6 जनवरी 2006 की टैरिफ पॉलिसी के अनुसार कोई भी समझौता केवल प्रतिस्पर्धात्मक निविदा के माध्यम से ही हो सकता था परंतु राज्य सरकार ने इस नियम का खुला उल्लंघन करते हुए एमबी पॉवर लिमिटेड के साथ सीधा समझौता किया। समझौता पर साइन करने वाला अधिकारी पद पर ही नहीं था दूसरा गंभीर मुद्दा यह है कि 5 जनवरी 2011 को समझौता करने वाले मुख्य अभियंता श्री गजरा मेहता उक्त तिथि को उस पद पर पदस्थ ही नहीं थे। दस्तावेजों से साफ है कि उनकी उक्त पद पर पदस्थापना 31 जनवरी 2011 को हुई है। अत: निश्चित रूप से यह समझौता गैरकानूनी था और इसके कारण 2015 से 2018 के बीच इस परियोजना की बिजली महंगी होने के कारण मध्य प्रदेश की जनता को 584 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। आम आदमी पार्टी के सवाल- 1- क्या शिवराज सिंह जवाब देंगे कि क्यों 6 जनवरी 2006 के केंद्र सरकार के प्रतिस्पर्धात्मक निविदा के नियमों का उल्लंघन करते हुए 5 जनवरी 2011 को एमबी पॉवर के साथ सीधा समझौता किया गया? 2- क्या शिवराज सिंह जवाब देंगे कि यह कैसे हो गया कि अधिकारी श्री गजरा मेहता संबंधित पद पर थे ही नहीं, फिर कैसे उन्होंने कानूनी समझौते पर हस्ताक्षर किए?3- क्या कमलनाथ जी जवाब देंगे कि उन्होंने पिछले 7 सालों में इस गैरकानूनी और जनविरोधी समझौते का विरोध क्यों नहीं किया? 4- क्या कमलनाथ जी यह बताएंगे कि उनके और उनके परिवार के महंगी बिजली द्वारा जनता का पैसा लूटने वाली इस कंपनी के क्या संबंध हैं? 5- क्या इस कंपनी के बारे में इतना खुलासा होने के बाद कमलनाथ जी इस कंपनी के साथ हुए समझौते को रद्द करने की मांग करेंगे?

एक्शन से भरपूर है बागी-2

डाॅ. अरूण जैन

विस्तार में कुछ भी लिखने से पहले एक बात साफ कर देना जरूरी है। एक अभिनेता के तौर पर टाइगर श्रॉफ से आप क्या उम्मीद रखते हैं? अगर आप उनको उनके एक्शन और डांस के लिए पसंद करते हैं तो 'बागी 2Ó आपके लिए है। अगर आप उनसे अच्छे अभिनय की उम्मीद रखते हैं तो फिल्म देख कर नाउम्मीद होंगे। 'बागी 2Ó के नाम में बागी शब्द क्यों है, यह समझना थोड़ा मुश्किल है! अगर स्टंट को बगावत कहा जाता हो, तब तो ठीक है, वरना नाम से फिल्म का संबंध नहीं है। एक और बात, यह फिल्म 'बागीÓ का सीक्वल नहीं है। हां, यह जरूर है कि दोनों फिल्मों में प्रेम कहानी, अपहरण और एक्शन का प्लॉट कमोबेश एक जैसा है, लेकिन दोनों की कहानी एक-दूसरे से जुड़ी नहीं है। लिहाजा इसे फ्रेंचाइजी कहना ज्यादा ठीक होगा। रणवीर प्रताप सिंह उर्फ रॉनी (टाइगर श्रॉफ) फौजी है, जो कश्मीर में तैनात है। वह आतंकवादियों को बख्शता नहीं और इस चक्कर में कई बार मुश्किल में भी फंस जाता है। लेकिन उसका सीनियर अफसर उसे बचा लेता है। एक दिन उसके पास उसकी पूर्व प्रेमिका नेहा (दिशा पटानी) का फोन आता है। वह छुट्टी लेकर गोवा चल देता है नेहा से मिलने। नेहा बताती है कि उसकी बेटी का अपहरण हो गया है और कोई उसकी मदद नहीं कर रहा। न पुलिस, न उसका पति और न पड़ोसी। रॉनी उसकी मदद में जुट जाता है। इस दौरान उसका पाला गोवा पुलिस, एसीपी लोहा सिंह धूल उर्फ एलएसडी (रणदीप हुड्डा), डीआईजी (मनोज वाजपेयी), नेहा के पति शेखर (दर्शन कुमार), नेहा के देवर शनि (प्रतीक बब्बर), उस्मान (दीपक डोबरियाल) आदि से पड़ता है और फिर कहानी में बहुत सारे ट्विस्ट आते हैं। कई राज खुलते हैं। इस फिल्म में टाइगर श्रॉफ हैं, उनका एक्शन है और थोड़ी सी दिशा पटानी की खूबसूरती है। वैसे होने को तो एक उलझी सी कहानी भी है और मनोज वाजपेयी, रणदीप हुड्डा, दीपक डोबरियाल जैसे अच्छे अभिनेता भी हैं। लेकिन निर्देशक अहमद खान उनसे ज्यादा अभिनय कराने के मूड में नहीं थे, क्योंकि उनका एजेंडा साफ था कि उन्हें टाइगर की जबर्दस्त एक्शन क्षमता को भुनाना है। इसमें वे सफल भी रहे हैं। पहले सीन से ही दर्शकों को समझा दिया जाता है कि आगे किस तरह की फिल्म उन्हें देखने को मिलेगी। निर्देशक और लेखक ने इसमें थोड़ा-सा देशभक्ति का तड़का भी लगाया है। कश्मीर में एक पत्थरबाज को जीप से बांध कर घुमाने और पत्थरबाजी के खिलाफ एक सैनिक की पीड़ा को भी थोड़ा दिखाया गया है। माधुरी दीक्षित के करियर को दिशा देने वाले डांस नंबर 'एक दो तीन चारÓको भी रिक्रिएट किया गया है, लेकिन जैक्लीन फर्नांडीज डांस, एक्सप्रेशन के मामले में माधुरी के आसपास भी नहीं दिखी हैं। वो माधुरी वाला फील नहीं ला पाई हैं। अभिनय की बात करें तो टाइगर भावनात्मक दृश्यों में असर नहीं छोड़ पाते। दिशा पाटनी का हाल उनसे भी बुरा है, जबकि उनके पास कुछ करने का स्कोप था। रणदीप के सीन कम हैं। हालांकि उनके किरदार को दिलचस्प तरीके से गढ़ा गया है, लेकिन गेटअप अटपटा लगता है। मनोज वाजपेयी को भी ज्यादा सीन नहीं मिले हैं। पटकथा की कमजोरी की वजह से उन जैसा अभिनेता भी प्रभावित नहीं कर पाता। प्रतीक भी बदले अंदाज में हैं, लेकिन उनके पास बहुत कुछ करने को था नहीं। यही बात कमाबेश दीपक डोबरियाल पर भी लागू होती है।
डाॅ. अरूण जैन
भाजपा के सहसंगठन मंत्री सौदान सिंह दिल्ली पहुंच गए हैं। उनकी राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से मुलाकात भी हो चुकी है। उन्होंने सीएम शिवराज सिंह एवं संघ के नेताओं से बातचीत के बाद जो फीडबैक तैयार किया था, वो शाह को सौंप दिया है। बताया जा रहा है कि इसमें 8 सांसदों को विधानसभा चुनाव लड़ाने का सुझाव दिया गया है जबकि 50 ऐसे विधायकों का पत्ता कट कर दिया गया है जिनके नाम शिवराज और संघ दोनों की रिपोर्ट में कॉमन थे। बता दें कि सीएम शिवराज सिंह ने 70 विधायक कमजोर बताएं हैं जबकि संघ ने करीब 80 विधायकों की स्थिति कमजोर बताई है। इनमें से 50 नाम ऐसे हैं जो दोनों रिपोर्ट में दर्ज हैं। ये सभी अब संगठन का काम करेंगे। अमित शाह को सौंपी रिपोर्ट प्रदेश का तीन दिवसीय दौरा करने के बाद सौदान सिंह सिक्किम के दौरे पर रवाना हो गए थे। सिक्किम से कल शाम लौटने के बाद उन्होंने अमित शाह से मुलाकात कर उन्हें प्रदेश संगठन के हालातों से अवगत कराया। सूत्रों की माने तो सौदान सिंह ने शाह को सीएम और आरएसएस के नेताओं द्वारा उन्हें विधायकों के बारे में दिए गए फीडबैक के बारे में बताया। शिवराज के सर्वे में 70 विधायक बेकार सीएम ने सौदान सिंह से चर्चा के दौरान उन्हें बताया था कि उन्होंने विधायकों का जो सर्वे कराया है, उसमें 70 से अधिक विधायकों हालत बेहद खराब है। संघ के सर्वे में भी इसी तरह के हालात सामने आए हैं। दोनों नेताओं के बीच पिछले छह महीनों में केन्द्र द्वारा तय किए गए कार्यक्रमों के प्रदेश में क्रियान्वयन पर भी चर्चा की गई। मंडल की बैठकों में नहीं आते बड़े नेता, संगठन नाखुश तीन दिनी बैठक में सौदान सिंह को इस बात की शिकायत मिली है कि मंडल की बैठकों में विधायक समेत कई बड़े नेता गैरहाजिर रहते हैं। मंडल की बैठक में 50 से 55 कार्यकर्ताओं की उपस्थिति होना चाहिए पर विंध्य, चंबल समेत कई क्षेत्रों के नेताओं ने शिकायत की है कि उनके यहां की बैठकों में दो दर्जन ही नेता ही आते हैं। संगठन ने इस बात पर नाराजगी जताई है। जल्द ही इस संबंध में राष्ट्रीय नेतृत्व नए निर्देश जारी कर सकता है। अम्मा महाराज का सम्मान नहीं हुआ तो ग्वालियर-चंबल में जीत मुश्किल शाह से मुलाकात के दौरान सौदान सिंह ने यशोधरा राजे सिंधिया द्वारा उनसे मिलकर की गई शिकायत के बारे में भी बताया। गौरतलब है कि सौदान सिंह से हुई मुलाकात में यशोधरा ने कहा था कि अम्मा महाराज, विजयाराजे सिंधिया ने पार्टी को खड़ा किया पर उनका ही अब पार्टी में सम्मान नहीं हो रहा है। उन्होंने कहा था कि ग्वालियर-चंबल की जनता उन्हें देवी की तरह पूजती है, अगर उनका सम्मान बरकरार न रहा तो ग्वालियर-चंबल में पार्टी को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है।

संजय शुक्ला ने 'नई दुनिया में की अपने करीबियों की भर्ती, बड़े पैमाने पर आंतरिक उथल-पुथल जारी

डाॅ. अरूण जैन
नईदुनिया में बिजनेस हेड के रूप में दो वर्ष पहले नियुक्त किए गए संजय शुक्ला ने उत्तराखंड के अपने परिचितों और हिंदुस्तान में साथ काम करने वालों को बड़ी संख्या में भर्ती कर लिया। सबको मुंहमांगा पैसा देकर लाया गया है। प्रमाणों के साथ हुई शिकायतों के बाद अब दिल्ली और कानपुर की दो अलग-अलग टीमों ने जांच शुरू कर दी है। इसी सिलसिले में जागरण समूह की एचआर हेड नीतू झा ने पिछले दिनों नईदुनिया के मुख्यालय इंदौर में चार दिन का पड़ाव डाला था। एचआर की रिपोर्ट के बाद शुक्ला को पिछले दिनों कानपुर बुलाया गया था। पिछले दो वर्षों में नईदुनिया में मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में लगभग सभी यूनिट हेड बदल दिए गए। इसके पीछे कारण बताया गया कि वे सभी सक्षम नहीं थे। ठीक इसी प्रकार सर्कुलेशन प्रभारियों को भी बदला गया। वजह बताई गई वे भी काम के नहीं थे। इसके बाद प्रबंधन को भरोसे में लिए बगैर संजय शुक्ला ने अपने करीबियों को उपकृत करना शुरू किया। बताया जा रहा है कि उत्तराखंड से एक आदमी ने आते ही दूसरे के लिए जगह बनाना शुरू कर दी। इसके लिए झूठी शिकायतों का खूब इस्तेमाल किया गया। जब प्रबंधन को अपेक्षा के अनुसार परिणाम नहीं मिला तो उसने जांच शुरू की, इसी के बाद ये सारे खुलासे होना शुरू हुए। प्रसार विभाग में सामने आई सबसे ज्यादा गड़बड़ी नईदुनिया में प्रसार हेड के तौर पर राजेश तोमर काम कर रहे थे। तोमर मप्र के रहने वाले थे और छत्तीसगढ़ को भी अच्छे से समझते थे, इसी का फायदा नईदुनिया को मिला और अखबार ने शुरू के तीन साल में काफी अच्छी तरक्की कर ली थी। दैनिक जागरण में संजय शुक्ला को नईदुनिया में लाने के लिए लॉबिंग की गई। अपने करीबियों को लाने की जुगाड़ के कारण शुक्ला ने एक-एक कर सभी यूनिट में काम करने वालों को बिना किसी कारण निशाना बनाना शुरू किया और धीरे-धीरे हटाकर अपने लोगों को भरना शुरू कर दिया। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के मार्केट को नहीं समझने वाले इन लोगों ने आते ही अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया और सालों से काम कर रहे नईदुनिया के कर्मचारियों और एजेंटों को परेशान करना शुरू कर दिया। आज स्थिति यह है कि अधिकतर सेंटर्स पर नईदुनिया प्रबंधन कानूनी केस लड़ रहा है। इसमें कई बड़े सेंटर्स शामिल हैं। अब एचआर डिपार्टमेंट ने जांच शुरू कर दी है। नहीं टिक रहा एक भी यूनिट मैनेजर जबलपुर, ग्वालियर, बिलासपुर जैसे छोटी यूनिट छोड़ भी दें तो रायपुर जैसी यूनिट में ही पिछले दो साल में तीन यूनिट हेड बदल दिए गए। इसी तरह नईदुनिया के मुख्यालय इंदौर में भी चार यूनिट मैनेजर संस्थान छोड़कर जा चुके हैं। लोगों का कहना है शुक्ला और उसकी लाई हुई टीम एसी कमरों में बैठकर केवल ईमेल कर पसीना बहा रही है। एक काम के लिए पांच बेकार बैठे लोगों को पीछे लगा दिया जाता है और ये लोग केवल फोनकर फालोअप लेते रहते हैं। यूनिट की बिलिंग जमीन पर आ गई है। विवाद की जड़ में ऑपरेशन हेड का पद दैनिक जागरण या नईदुनिया में अब तक बिजनेस हेड सीधे यूनिट को नियंत्रित करता था। इसके अलावा जरूरत होने पर पूरे ग्रुप के लिए एक मार्केटिंग हेड का पद होता था। संजय शुक्ला ने नईदुनिया आने के बाद मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में ऑपरेशन हेड नाम से दो नए पद बनाए और दोनों ही पदों को बराबर यूनिट में बाट दिया। नईदुनिया से हाल ही में यूनिट हेड स्तर की जिम्मेदारी छोड़कर बाहर गए साथी सबूत के साथ यह खुलासे कर रहे हैं और खुलकर बता रहे हैं कि नईदुनिया में एक ही काम को करने वाला केवल एक व्यक्ति है लेकिन उसका हिसाब लेने वाले चार ठेकेदार खड़े हो गए हैं। ये काम तो कुछ भी नहीं करते लेकिन काम करने वालों के रास्ते में रुकावट इतनी डाल देते हैं कि काम और काम का माहौल दोनों ही खत्म हो जाता है। दिल्ली और कानपुर पहुंची शिकायतों के बाद एचआर की टीम ने नईदुनिया छोड़ चुके कई यूनिट हेड से बात की और परेशानी समझने की कोशिश की है। इस टीम में वे लोग भी शामिल थे जो वर्षों से दैनिक जागरण समूह की सेवा कर रहे थे। बताया जा रहा है कि पूरी रिपोर्ट जानकर जागरण प्रबंधन गंभीर रूप से चिंतित हो गया है। अब चर्चा है कि नए वित्त वर्ष में ऑपरेशन हेड के पद को समाप्त किया जा सकता है। शुक्ला ने झूठे सपने दिखाए बिजनेस हेड का पद हथियाने के बाद संजय शुक्ला ने प्रबंधन को बड़े-बड़े सपने दिखाए थे। जैसा कि मैनेजमेंट के लोग आमतौर पर करते हैं। संजय शुक्ला ने भी उसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए आने के बाद सबसे पहले पुरानी परेशानियां बताना शुरू कर दिया। पूरी योजना बनाकर मैनेजमेंट के सामने एक-एक छोटी से छोटी समस्या को बड़ा बताया और अपनी उपयोगिता साबित करने की कोशिश शुरू कर दी। इस खेल में एक साल निकल गया। फिर यह फंडा लाया गया कि लोकल टीम काम नहीं कर रही है और ना ही सहयोग कर रही है। इसके बाद शुरू हुई अपने लोगों और रिश्तेदारों की भर्ती। ऑपरेशन हेड नरेश पांडे के सगे भाई कमलेश पांडे को बिना किसी अनुभव के ही रिकवरी हेड बना दिया गया। ऑपरेशन हेड यशपाल कपूर के रिश्तेदार गुरुदयाल को उज्जैन यूनिट हेड बनाया गया। खुद संजय शुक्ला के करीबी रिश्तेदार अनुराग जोशी को एक नया पद बनाकर क्लासिफाइड हेड बनाया। संजय शुक्ला, नरेश पांडे और अनुराग जोशी की जोड़ी इसके पहले जागरण और हिंदुस्तान में चर्चा का विषय रह चुकी है। इसी तरह हेमंत आहूजा और निश्चल दीक्षित को भी बड़े पद देकर नियुक्त कर दिया गया। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में अब यह चर्चा खुले रूप से हो रही है कि प्रमुख पदों के अलावा अब जिला स्तर पर भी उत्तराखंड के लोगों को बुला बुलाकर मोटी सैलरी के साथ जिम्मेदारी दी जा रही है। बताया जा रहा है कि इन सभी नियुक्तियों में बड़े पैमाने पर हुई गड़बडिय़ों के बाद ही जागरण प्रबंधन सतर्क हुआ और उसने जांच शुरू करवाई है। परेशान लोगों ने धड़ल्ले से ठोंका मजीठिया का केस नईदुनिया में दैनिक जागरण प्रबंधन की रूचि नहीं होने का पूरा लाभ उठाते हुए संजय शुक्ला ने जब लोगों को जानबूझकर परेशान करना शुरू किया तो कुछ लोगों ने बगावती तेवर दिखाते हुए कंपनी के खिलाफ केस कर दिया। मजीठिया केस करने वाले कई लोगों में वे लोग भी शामिल थे जो वर्षों से नईदुनिया प्रबंधन की सेवा कर रहे थे। भोपाल, ग्वालियर, रायपुर और इंदौर के मजीठियाकर्मियों ने पिछले दिनों भोपाल में एक मीटिंग की और संजय शुक्ला की कार्यप्रणाली का कच्चा चि_ा तैयार किया। बताया जा रहा है कि अब ये जानकारी लेबर कोर्ट, मजीठिया कोर्ट, हाईकोर्ट और जागरण प्रबंधन को भेजी जाएगी। भोपाल मीटिंग में मजीठिया संघर्ष समिति के वरिष्ठ पत्रकारों के अलावा हाल ही में नईदुनिया से बिना कारण निकाले गए कई कर्मचारियों के अलावा मौजूदा कर्मचारी भी बड़ी संख्या में उपस्थित थे। मीटिंग में इस बात पर भी एक राय बनी कि जल्द ही भोपाल ऑफिस के सामने एक बड़ा प्रदर्शन किया जाएगा और अनिश्‍चतकालीन धरना देकर अपनी मांगें मनवाई जाएंगी। इस धरने में जागरण दिल्ली से निकाले गए कर्मचारी भी शामिल होंगे। 

देखने नहीं महसूस करने वाली फिल्म है ; अक्टूबर

डाॅ. अरूण जैन
कुछ फिल्में ऐसी होती हैं, जो मनोरंजन नहीं करतीं, मन को छू जाती हैं, मन में बैठ जाती हैं। शूजित सरकार निर्देशित 'अक्टूबरÓ भी ऐसी ही फिल्म है। प्रख्यात साहित्यकार निर्मल वर्मा की प्रसिद्ध पंक्ति है- 'दुख आदमी को मांजता हैÓ। और जाहिर है, मंजने के बाद कोई भी चीज साफ हो जाती है, निर्मल हो जाती है। कई त्रासदियां हमें एक ज्यादा संवेदनशील मनुष्य बनाती हैं। फिल्म के नायक दानिश को भी त्रासदी ऐसे ही मांजती है और एक दर्शक के रूप में हम भी उस प्रक्रिया से अछूते नहीं रहते। इस दौरान एक उम्मीद के टूट जाने के डर और फिर से जिंदा हो जाने की खुशी के बीच बार-बार आंखों में नमी महसूस करते हैं और कभी-कभी होठों पर निश्छल मुस्कराहट के कतरे भी। दानिश वालिया उर्फ डैन (वरुण धवन) दिल्ली के एक फाइव स्टार होटल में होटल मैनेजमेंट का ट्रेनी है। उसके साथ शिवली अय्यर (बनिता संधू), मंजीत (साहिल वेडोलिया) और कई दूसरे लड़के-लड़कियां भी ट्रेनिंग ले रहे हैं। डैन को अक्सर अपनी कारस्तानियों की वजह से अपने मैनेजर अस्थाना का कोपभाजन बनना पड़ता है। एक दिन रात में एक पार्टी के दौरान शिवली होटल के तीसरे माले से गिर जाती है। उसे बहुत गंभीर चोटें आती हैं और वह कोमा में चली जाती है। डैन उसे देखने हॉस्पिटल जाता है और उसकी हालत देख कर सिहर जाता है। बातचीत के दौरान एक दिन डैन की एक ट्रेनी दोस्त उसे बताती है कि शिवली ने उस रात पूछा था- वेयर इज डॉन (डैन कहां है)। डैन के दिमाग में यह बात घर कर जाती है कि शिवली ने आखिर ऐसा क्यों पूछा था। वह अपना सारा कामधाम छोड़ कर अपना ज्यादातर वक्त हॉस्पिटल में गुजारने लगता है। परिस्थितियां कुछ ऐसी बनती हैं कि वह दिल्ली छोड़ कर चला जाता है, लेकिन कुछ दिनों बाद ही वापस भी लौट आता है। कुछ महीनों बाद शिवली भी हॉस्पिटल से घर आ जाती है। फिर एक दिन... दो घंटे की इस फिल्म के पहले 15-20 मिनट में तो समझ में नहीं आता कि फिल्म बताना क्या चाहती है! लेकिन धीरे-धीरे तस्वीर उभरने लगती है और एक खूबसूरत पेंटिंग बन जाती है। ठीक वैसे ही, जैसे कोई आर्टिस्ट स्केच बनाता है तो शुरू में बस कुछ रेखाएं नजर आती हैं, लेकिन जब वह अपना काम खत्म करता है तो एक खूबसूरत आकृति हमारे सामने होती है। यह फिल्म एक ऐसी प्रेम कहानी कहती है, जो पारम्परिक प्रेम कहानियों से अलहदा है। इस प्रेम कहानी में प्रेम स्पष्ट रूप से दिखता तो नहीं, लेकिन हर दृश्य में महसूस होता है। उस प्रेम में एक अजीब-सा अधूरापन दिखता है, लेकिन वास्तव में वह मुकम्मल है। यह फिल्म बहुत घटनापूर्ण नहीं हैं, लेकिन शुरू से अंत तक जिस तरह घटती है, वह हमारे अंदर एक बैचेनी पैदा करती है। एक ऐसी बेचैनी, जो सुकून से भरी है। यह फिल्म हर बात में 'प्रैक्टिकलÓ होने की भी जोरदार मुखालफत करती है। सफलता को ध्यान में रख कर ही कुछ करना, जीवन का उद्देश्य नहीं होता। 'अक्टूबरÓ एक धीमी फिल्म है, एक-एक चीज को बहुत इत्मीनान और आहिस्ता-आहिस्ता दिखाया गया है। इसके बावजूद यह फिल्म कभी बोर नहीं करती। एक-एक चीज को डिटेल के साथ बताया गया है। और खूबसूरत बात यह है कि इसके लिए संवादों का ज्यादा सहारा नहीं लिया गया है। यह कहने में रत्ती भर भी संकोच नहीं है कि पिछले करीब डेढ़ दशक में शूजित सरकार ने जो निरंतरता दिखाई है, वह किसी और निर्देशक के काम में देखने को नहीं मिलती। 'यहांÓ, 'विक्की डोनरÓ से लेकर 'अक्टूबरÓ तक उन्होंने मानवीय संवेदनाओं के जो विविध रंग पेश किए हैं, वह अतुलनीय है। एक निर्देशक के रूप में वह फिल्म दर फिल्म नए प्रतिमान गढ़ रहे हैं। शूजित सरकार के साथ उनकी पटकथा लेखक जूही चतुर्वेदी भी उतनी ही प्रशंसा की पात्र हैं। वह बेहतरीन पटकथा और संवादों से शूजित का काम आसान कर देती हैं। एक बेहद संजीदा फिल्म में भी वह हास्य के कुछ पल निकाल लेती हैं, जो जबर्दस्ती गढ़े हुए और बनावटी नहीं लगते, पूरी तरह सहज लगते हैं। फिल्म में जिस तरह किरदारों को गढ़ा गया है, वह चकित करने वाला है। डैन जैसे किरदार बहुत कम देखने को मिलते हैं। किरदारों के चित्रण के मामले में कई शूजित कई बार हृषि दा (हृषिकेश मुखर्जी) की याद दिलाते हैं। अब मैनेजर अस्थाना के किरदार को ही ले लीजिए। पहले सीन में ही वह एक ऐसे मैनेजर के रूप में नजर आता है, जिसके लिए सिर्फ काम ही मायने रखता है, मानवीय संवेदनाएं नहीं। लेकिन जब फिल्म आगे बढ़ती हैं तो उसका मानवीय पहलू पूरी चमक के साथ नजर आता है, जो पेशेवर दबावों के बीच कहीं दबा हुआ होता है। फिल्म के सारे किरदार इस तरह गढ़े गए हैं कि वे सिनेमाई नहीं, जीवन के किरदार लगते हैं। अभिनय के लिहाज से बात करें तो यह वरुण धवन के करियर की सर्वश्रेष्ठ फिल्म है। वह इस फिल्म में हैरान कर देते हैं। उन्होंने डैन के किरदार की मासूमियत, संजीदगी, पीड़ा को बेहतरीन तरीके से अभिव्यक्त किया है। उन्होंने व्यावसायिक जोखिम लेकर यह सिद्ध किया है कि वह सिर्फ 'बद्रीनाथ की दुल्हनियांÓ और 'जुड़वां 2Ó जैसी फिल्मों के लिए नहीं बने हैं। उनमें 'अक्टूबरÓ के डैन को भी जिंदा करने का माद्दा है। वरुण कुछ सालों बाद जब अपने करियर पर निगाह डालेंगे तो गर्व महसूस करेंगे कि वह 'अक्टूबरÓ का हिस्सा थे। अपनी पहली फिल्म में ही बनिता संधू बेहद प्रभावित करती हैं। उनका काम बहुत मुश्किल था, लेकिन उन्होंने बहुत बेहतरीन तरीके से किया है। शिवली की मां के रूप में गीतांजलि राव का अभिनय अद्भुत है। उनके एक्सप्रेशन इतने सजीव लगते हैं, जैसे वह वास्तव में उस दुख से गुजर रही हैं, जो वह सिनेमा के पर्दे पर झेल रही हैं। बाकी कलाकारों का अभिनय भी अच्छा है। 

एमपी में RSS की गोपनीय सर्वे के बाद बढ़ी शिवराज की चिंता..!

डाॅ. अरूण जैन

मध्य प्रदेश के चुनावी साल में बीजेपी और आरएसएस के गोपनीय सर्वे ने शिवराज सिंह चौहान को चिंता में डाल दिया है. सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक, मौजूदा विधायकों में से करीब 70 फीसदी की अगले चुनाव में जीत पर संशय है. दरअसल, राजधानी भोपाल में संघ और बीजेपी के बीच हुई समन्वय बैठक के दौरान भी विधायकों की परफॉर्मेंस को लेकर मंथन हुआ है. बताया जा रहा है कि चुनाव से पहले होने वाले टिकट बंटवारे में नॉन-परफॉर्मर विधायकों के टिकट कट सकते हैं. चौथी बार सत्ता में वापसी का ख्वाब देख रही बीजेपी के लिए अपने ही सर्वे ने मुश्किल बढ़ा दी है. विधायकों की परफॉर्मेंस को लेकर हुए बीजेपी-आरएसएस के सर्वे में इस बात का खुलासा हुआ है कि पार्टी के करीब 70 फीसदी मौजूदा विधायकों की परफॉर्मेंस अप टू द मार्क नहीं है. ऐसे में ये विधायक चुनाव हार सकते हैं. इस सर्वे के बाद अब अंदर ही अंदर विधायकों में खलबली मच गई है. सर्वे में विधायकों को तीन कैटेगरी पर परखा गया, इनमें सबसे कमजोर विधायक, औसत और बेहतर की कैटेगरी शामिल है, सर्वे के मुताबिक 70 फीसदी विधायकों की परफॉर्मेंस ठीक नहीं है, 50 से ज्यादा विधायकों के टिकट कट सकते हैं, 56 विधायक ऐसे हैं जिन्हें अगर पार्टी टिकट देती है तो उनका जीतना मुश्किल है बताया जा रहा है कि अगर सर्वे रिपोर्ट पर अमल हुआ तो कई विधायकों के टिकट कट सकते हैं. हालांकि सूत्रों के मुताबिक पार्टी की ओर से विधायकों को परफॉर्मेंस सुधारने का एक मौका दिया गया है. टिकट बंटवारे से पहले एक और सर्वे होने की उम्मीद है जिसके बाद ही पार्टी ये तय करेगी कि आखिर किसे टिकट दिया जाए या किसे नहीं जाए. भाजपा की आंतरिक सर्वे रिपोर्ट ने बढ़ाई पार्टीकी मुश्किल, 70 फ़ीसदी विधायकों की हालत खऱाब, एक तिहाई मंत्रियों के जीतने की संभावना भी कम, सर्वे के मुताबिक 54 विधायकों के टिकट कटने के संकेत, जबकि 56 विधायकों को टिकट मिलता है तो उन्हें अपनी सीट बचाने के लिए करना पड़ेगा संघर्ष. चार मंत्रियों के टिकट कटने के संकेत, ग्वालियर पूर्व-माया सिंह, पन्ना -कुसुम महदेले, भोजपुर-सुरेंद्र पटवा, शमशाबाद-सूर्यप्रकाश मीणा नौ मंत्रियों की जीत पर संशय, मुरैना-रुस्तम सिंह, ग्वालियर-जयभान सिंह पवैया, ग्वालियर दक्षिण-नारायण सिंह कुशवाहा, छतरपुर-ललिता यादव, रामपुर बघेलान- हर्ष सिंह, बालाघाट -गौरीशंकर बिसेन, नरसिंहपुर- जालम सिंह पटेल, सिलवानी- रामपाल सिंह, हाटपिपल्या- दीपक जोशी विधानसभा अध्यक्ष की जीत भी मुश्किल, होशंगाबाद-डॉ सीतासरन शर्मा मुख्यमंत्री समेत 18 मंत्री मज़बूत की स्थिति में, गोहद-लाल सिंह आर्य, दतिया-नरोत्तम मिश्रा, शिवपुरी-यशोधरा राजे सिंधिया, खुरई-भूपेंद्र सिंह, रहली-गोपाल भार्गव, दमोह- जयंत मलैया, रीवा- राजेंद्र शुक्ल, विजयराघवगढ़-संजय पाठक जबलपुर उत्तर-शरद जैन, शाहपुरा-ओम प्रकाश धुर्वे, सांची- गौरीशंकर शेजवार,नरेला-विश्वास सारंग, भोपाल दक्षिण-पश्चिम उमाशंकर गुप्ता, बुधनी-शिवराज सिंह चौहान, हरसूद-विजय शाह, बुरहानपुर-अर्चना चिटनीस, सेंधवा-अंतर सिंह आर्य

आंतरिक सर्वे से भयभीत भाजपा हाईकमान,अमित शाह ने आनन – फानन में बनाया मप्र आने का प्रोग्राम

डाॅ. अरूण जैन
मप्र विधानसभा के इस साल के अंत मे प्रस्तावित चुनावों की सर्वे रिपोर्ट्स से सत्तानशीन भाजपा की नींद उड़ी हुई है । मंगलवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मंडला में दौरा कर आदिवासी और दलितों को साधने की कोशिश कर चुके है । अब पार्टी हाईकमान अपने इस गढ़ को बचाने के लिए पूरी ताकत झोंकना चाहता है । इसके चलते अब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह खुद कमान संभालने जा रहे है  । आनन फानन में उन्होंने मप्र का दौरा तय किया है । वे 400 मंडल अध्यक्षो के साथ बैठक करके फीडबैक लेना चाहते है । इस दौरान वे मंत्रियों से भी मिलेंगे और मंत्रिमंडल के अंतिम विस्तार पर भी चर्चा करेंगे । वे 4 मई को भोपाल पहुंचेंगे । अमित शाह के दौरे को चुनावी श्रीगणेश के तौर पर देखा जा रहा है। अमित शाह यहां पर पार्टी के सभी 400 मंडलों की बैठक लेंगे। इस मैराथन बैठक में पूरे चुनाव की रणनीति तय करने का काम शुरू होगा। श्री  शाह यहां पर प्रदेश भाजपा की चुनावी तैयारियों की भी समीक्षा करेंगे। सूत्रों की माने तो  वह उप चुनावों में मिली हार के कारणों और आगे चुनाव में कैसे उतरना है, दोनों पर बात करेंगे। ऐसे में अमित शाह के दौरे को बहुत ही महत्वपूर्ण माना जा रहा है। दरअसल, इस साल के आखिर में मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव हैं। प्रदेश में भाजपा का ग्राफ पिछले कुछ महीनों में गिरा है। लगातार उपचुनाव में हार और नगरीय चुनावों में भी पार्टी ने हार का सामना किया है। पार्टी और संघ द्वारा कराए गए आंतरिक सर्वे में भी भाजपा की हालत पतली नजर आ रही है ।ऐसे में पार्टी के भीतर एक डर बना हुआ है। दूसरी ओर कांग्रेस भी चुनावी तैयारी में जुटी है। पार्टी की चुनावी तैयारी क्या हैं और उस पर किस तरह से प्रदेश में काम हो रहा है, इसको जांचने के लिए खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह 4 मई को मध्यप्रदेश आ रहे हैं। बैठक संभावित तौर पर भोपाल में ही होगी, जिस में सभी मंडल प्रभारियों से अमित शाह सीधे संवाद करेंगे।

मोदी और शाह इस तरह कांग्रेस मुक्त भारत की राह पर आगे बढ़ रहे हैं

डाॅ. अरूण जैन

कर्नाटक विधानसभा चुनाव परिणाम से यह स्पष्ट हो गया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कीर्ति चारों दिशाओं में फैल चुकी है। दक्षिण के प्रवेश द्वार माने जाने वाले कर्नाटक चुनाव परिणामों के बाद पर देश की रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने एक टीवी साक्षात्कार में मोदी को एक ऐसा राजनेता बताया जिनकी साख व स्वीकार्यता पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक एक समान है। मोदी की लोकप्रियता का परिणाम है कि हिंदी भाषी पार्टी की पहचान रखने वाली भाजपा ने आज देश के हर क्षेत्र में अपनी पकड़ बनाई है। कर्नाटक चुनाव के नतीजों ने प्रधानमंत्री मोदी को अपने समकालीन राजनीतिज्ञों में एक अजेय योद्धा के रूप में स्थापित कर दिया है। किसी समय देश में पंचायतों से लेकर पार्लियामेंट तक में एक छत्र राज करने वाली अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को मात्र पंजाब, मिजोरम व पुडुचेरी तक सीमित कर देना एक चमत्कार से कम नहीं है। यह चमत्कार प्रधानमंत्री मोदी की करिश्माई छवि के बलबूते ही संभव हुआ है।  देश को कांग्रेस मुक्त करने और भाजपा के विजय रथ को निर्विघ्न आगे बढ़ाने में प्रधानमंत्री मोदी के जादुई व्यक्तित्व के साथ पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की कुशल संगठनकर्ता और प्रबंधकीय क्षमता का कम योगदान नहीं है। मोदी व शाह दो ऐसे योद्धा हैं जो सरकार और संगठन के अलग-अलग मोर्चों पर तैनात हैं। अलग-अलग मोर्चों पर होने के बावजूद दोनों एक रथ पर कुशल संतुलन व तालमेल के साथ सवार होकर कठोर मेहनत, थका देने वाली यात्रा एवं व्यापक जनसंवाद के बल पर विजयश्री को वरण करने की हद तक पहुंचते हैं। वृद्धावस्था की दहलीज पार कर जीर्ण-शीर्ण स्थिति में पहुंच चुकी कांग्रेस के साम्राज्य को 38 वर्षीय भाजपा ने छिन्न-भिन्न किया तो इसके लिए कांग्रेस पार्टी खुद पूरी तरह से जिम्मेदार है। इतने वर्षों तक देश में राज करने वाली कांग्रेस ने सत्ता को केवल भोगने, ऐशो-आराम और राज करने का साधन माना। स्वतंत्रता के बाद लोकतंत्र स्थापित होने पर भी कांग्रेस देश को राजशाही की तरह चलाती रही है। राजनीति को परिवारवाद तक सीमित कर दिया। अशिक्षा, गरीबी व पिछड़ापन केवल लोक लुभावन नारों में जिंदा रखा। मुस्लिम तुष्टिकरण और दलित वर्ग को गुमराह कर उन्हें अपने वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया। अपने स्वार्थों के खातिर कांग्रेस विभिन्न वर्गों को आपस में लड़ाती रही। कांग्रेस ने आमजन की समस्याओं से मुंह मोड़े रखा। स्थिति यहाँ तक पहुंची कि कांग्रेस व भ्रष्टाचार एक दूसरे के पर्याय बन गए। आखिर एक समय कांग्रेस के पाप का घड़ा पूरी तरह से फूटना ही था। वर्ष 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में यह समय आया। भाजपा ने कांग्रेस को नेस्तनाबूत करते हुए मात्र 44 सांसदों वाली पार्टी बनाकर रख दिया। केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार का गठन होने पर देश की राजनीति की तस्वीर बदल गई। प्रधानमंत्री मोदी ने सरकार और राजनीति के नए अर्थ गढ़े। सरकार का अर्थ केवल सत्ता अर्जित करने तक नहीं रहा। मोदी ने सबका साथ-सबका विकास को ध्येय वाक्य बनाते हुए कार्य किया।  समाज के सभी वर्गों, दलितों, पिछड़ों, महिलाओं व गरीबों को केंद्र में रखकर कल्याणकारी योजनाएं संचालित कीं। जीएसटी, नोटबंदी, तीन तलाक जैसे मुद्दों पर ऐतिहासिक फैसला लिया। घरेलू मोर्चे के साथ विदेश नीति में दमखम दिखाया और भारत को विश्व मंच पर एक अलग पहचान दिलाई।  यही कारण रहा कि देश की जनता ने भाजपा को हाथों-हाथ लिया। भाजपा के नाम विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बनने का रिकॉर्ड दजऱ् हुआ। वर्ष 2014 में जब भाजपा ने लोकसभा में विजय प्राप्त कर केंद्र में सरकार बनाई थी, तब पांच राज्यों गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व नागालैंड में भाजपा सरकारें थीं। आज देश के 21 राज्यों में भाजपा और उसके गठबंधन की सरकारें हैं। पूर्वोत्तर भारत में मिजोरम छोड़कर बाकी सभी राज्यों में भाजपा सत्ता में काबिज है। त्रिपुरा में 25 साल पुराने वामपंथी शासन को ध्वस्त करना और कांग्रेस को शून्य पर पहुंचाना एक अभूतपूर्व घटना है। भाजपा ने असम में एक दशक पुराने कांग्रेस राज का खात्मा किया। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में 403 विधानसभा सीटों में से 325 सीटों पर कब्जा कर भाजपा ने एक नया इतिहास लिखा। वहीं उत्तराखंड में 70 में से 57 सीटों पर विजय प्राप्त कर रिकॉर्ड कायम किया। यह घोर आश्चर्यजनक व दुर्भाग्यपूर्ण है कि इतनी बुरी गति को प्राप्त करने के बावजूद कांग्रेस पार्टी कोई सबक लेने को तैयार नहीं दिखती है। कांग्रेस अपनी विघटनकारी और समाज को बांटने की नीति को नहीं छोड़ पा रही है। गुजरात विधानसभा चुनाव में दलित वर्ग व गैर दलितों के बीच कांग्रेस ने जमकर वैमनस्यता फैलाने का दुष्प्रयास किया। मगर जनता ने गुजरात विधानसभा चुनाव में उसे मुंहतोड़ जवाब दे दिया। इसी तरह कर्नाटक विधानसभा चुनाव से पूर्व वहां के लिंगायत समुदाय को अल्पसंख्यक दर्जे की पैरवी कर कांग्रेस ने एक नापाक चाल चली। मगर इसमें भी कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी। यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय है कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव में मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में कई भाजपा प्रत्याशी जीत हासिल करने में सफल रहे हैं। इसका सीधा अर्थ है कि मुस्लिमों का भी भाजपा व नरेंद्र मोदी पर विश्वास बढ़ा है। तीन तलाक के मुद्दे पर भाजपा को घेरने वालों के लिए यह एक करारा जवाब है। बहरहाल कांग्रेस की पराजय का यह सिलसिला मात्र कांग्रेस या राहुल गांधी की हार तक सीमित नहीं है। यह बुद्धिजीवियों की खाल ओढ़े उन तमाम वामपंथियों, छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों और मीडिया के उस वर्ग के मुंह पर करारा तमाचा है, जो बात-बेबात पर प्रधानमंत्री मोदी व उनकी सरकार की आलोचना करना अपना धर्म समझते हैं।

Tuesday, 10 July 2018

नरेंद्र मोदी के लिए दोबारा सत्ता में आना आसान नहीं होगा

डाॅ. अरूण जैन

पूर्वोत्तर में जीत पर देशभर में जश्न मनाने वाली बीजेपी को 10 दिन बाद तगड़ा झटका लगेगा इसका अंदाजा पार्टी के दिग्गजों को भी नहीं होगा। यूपी और बिहार में हुए उपचुनाव में मिली करारी हार ने बीजेपी में खलबली मचा दी है। 25 साल बाद त्रिपुरा में लेफ्ट का किला ढहाने के बाद जो बीजेपी अपनी जीत पर इतरा रही थी उपचुनाव के नतीजे के बाद उसी बीजेपी के दफ्तर में सन्नाटा पसरा था। बिहार में मिली हार को बीजेपी पचा भी ले लेकिन यूपी के गोरखपुर और फूलपुर में उसका हारना बड़े खतरे का इशारा कर रहा है। यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ के शहर गोरखपुर में बीजेपी 28 साल से जीत रही थी...मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी ने जब गोरखपुर सीट छोड़ी थी तो बीजेपी को कहीं से इसका अंदाजा नहीं था कि ये सीट उसके हाथ से निकल जाएगी...लेकिन जब उपचुनाव के नतीजे आए तो योगी से लेकर पार्टी का हर बड़ा नेता हैरान रह गया। वैसे योगी ने इसे जनता का जनादेश बताकर हार तो मान ली...लेकिन साथ में ये भी माना कि उनकी पार्टी अति आत्मविश्वास के कारण हारी। बीजेपी को झटका सिर्फ गोरखपुर में ही नहीं लगा...फूलपुर सीट जहां पिछले चुनाव में डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य ने भारी बहुमत से जीत हासिल की थी वहां भी पार्टी को हार का सामना करना पड़ा। फूलपुर में एसपी उम्मीदवार ने बीजेपी उम्मीदवार को 59000 से ज्यादा मतों से हराया। गोरखपुर और फूलपुर में बीजेपी को मिली हार के पीछे ज्यादातर लोगों की यही राय है कि ऐसा इसलिए मुमकिन हुआ क्योंकि अखिलेश और मायावती साथ आ गए। मायावती ने दोनों सीटों पर अपने उम्मीदवार नहीं उतारे और उन्होंने समाजवादी पार्टी को समर्थन देने का एलान कर दिया। ये बात सही है कि अगर इन दोनों सीटों पर बीएसपी अपना उम्मीदवार उतारती तो उसका फायदा बीजेपी को मिलता...लेकिन हार तो हार होती है।  अब बिहार की बात करते हैं...अररिया लोकसभा सीट पर आरजेडी उम्मीदवार का बड़े अंतर से जीतना न सिर्फ बीजेपी के लिए बल्कि नीतीश कुमार के लिए भी बड़ा झटका है। लालू के जेल में रहते अररिया लोकसभा और जहानाबाद विधानसभा सीट पर आरजेडी उम्मीदवार की बड़ी जीत ने तेजस्वी को एक बड़े नेता के तौर पर पेश किया है। बीजेपी ने भभुआ विधानसभा उपुचनाव में जीत हासिल कर अपनी लाज तो बचा ली...लेकिन यूपी और बिहार में मिली हार ये बता रही है कि बीजेपी के लिए 2019 का लोकसभा चुनाव आसान नहीं होगा। वैसे 2019 को लेकर अखिलेश की पार्टी से मायावती ने अभी गठबंधन का एलान नहीं किया है...लेकिन उपचुनाव नतीजे के बाद अखिलेश का मायावती की तारीफ करना और फिर लखनऊ में उनके घर जाकर उनसे एक घंटे तक मुलाकात करना बताता है कि बीजेपी को हराने के लिए दोनों साथ आ सकते हैं। दो दिन पहले दिल्ली में सोनिया गांधी के घर 10 जनपथ पर हुई डिनर पार्टी में 20 विपक्षी दलों के नेताओं का पहुंचना साफ-साफ बताता है कि विपक्ष ने 2019 में मोदी को हराने के लिए रणनीति तैयार कर ली है। अगर 2019 में यूपी में बीएसपी-एसपी साथ-साथ चुनाव लड़ती हैं तो बीजेपी की राह काफी मुश्किल हो जाएगी। महाराष्ट्र में पिछली बार कांग्रेस-एनसीपी अलग-अलग चुनाव लड़ी थीं...लेकिन सोनिया के घर डिनर पार्टी में पहुंचकर शरद पवार ने संकेत दे दिया है कि अब आगे ये गलती नहीं दोहराएंगे। बीजेपी से नाराज शिवसेना अगर लोकसभा चुनाव से पहले गठबंधन तोडऩे का एलान कर डाले तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।  आंध्र प्रदेश में जो हो रहा है वो सभी को मालूम है....राज्य को विशेष दर्जे की मांग को लेकर टीडीपी सांसदों ने संसद नहीं चलने दी...और तो और उसके दो मंत्रियों ने इस्तीफा भी सौंप दिया। बंगाल में बीजेपी को हराने के लिए ममता और कांग्रेस साथ आ सकती है। मोदी के विजय रथ को रोकने के लिए विपक्ष आपसी मतभेद भुलाकर साथ आने को तैयार है। अगर कांग्रेस बीजेपी के विरोधियों को एकजुट करने में कामयाब हो जाती है तो फिर मोदी के लिए दोबारा सत्ता में आना आसान नहीं होगा। आज अगर राजस्थान और मध्य प्रदेश में चुनाव हुए तो वहां बीजेपी के लिए वापसी करना आसान नहीं होगा। राजस्थान में हुए उपचुनाव में हार के बाद वसुंधरा के खिलाफ बगावत के सुर तो नरम पड़ गए हैं लेकिन वहां कांग्रेस का पलड़ा भारी दिख रहा है। यही हाल मध्य प्रदेश का है। तो क्या देश में मोदी का जादू खत्म हो रहा है...क्या मोदी के खिलाफ विपक्ष का एकजुट होना ही बीजेपी के लिए खतरा है..अब बीजेपी को भले ही इसका अहसास नहीं हो लेकिन यूपी और बिहार में हुए उपचुनाव के नतीजे इस बात के संकेत दे रहे हैं कि जो जनता कल तक बीजेपी के साथ थी अब वो धीरे-धीरे उसके खिलाफ हो रही है। गोरखपुर जैसी सीट पर बीजेपी का हारना ये बताता है कि लोग गुस्से में हैं...कई लोगों का ये भी मानना है कि शाइनिंग इंडिया की तरह उनका अच्छे दिन वाला जुमला ही बीजेपी को ले डूबेगा।

मोदी तूफान से बचने को एक दूसरे का सहारा लेने में जुटे विपक्षी दल




डाॅ. अरूण जैन
देश के वर्तमान राजनैतिक पटल पर लगातार तेजी से बदलते घटनाक्रमों के अंतर्गत ताजा घटना आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने के मुद्दे पर वित्त मंत्री अरुण जेटली के बयान को आधार बनाकर तेलुगु देशम पार्टी के दो केंद्रीय मंत्रियों का एनडीए सरकार से इस्तीफा है। एक आर्थिक मामले को किस प्रकार राजनैतिक रंग देकर फायदा उठाया जा सकता है इसका चन्द्रबाबू नायडू ने अपने कदम से एक बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत किया है। क्योंकि जब केन्द्र सरकार आन्ध्र प्रदेश को विशेष पैकेज के तहत हर संभव मदद और धनराशि दे रही थी तो "विशेष राज्य" के दर्जे की जिद राजनैतिक स्वार्थ के अतिरिक्त कुछ और क्या हो सकती है। कहना गलत नहीं होगा कि पूर्वोत्तर की जीत के साथ देश के 21 राज्यों में फैलते जा रहे भगवा रंग की चकाचौंध के आगे बाकी सभी रंगों की फीकी पड़ती चमक से देश के लगभग सभी राजनैतिक दलों को अपने वजूद पर संकट के बादल मंडराते नजर आने लगे हैं। मोदी नाम की तूफानी बारिश ने जहाँ एक तरफ पतझड़ में भी केसरिया की बहार खिला दी वहीं दूसरी तरफ काँग्रेस जैसे बरगद की जड़ें भी हिला दीं। आज की स्थिति यह है कि जहाँ तमाम क्षेत्रीय पार्टियां अपने आस्तित्व को बनाए रखने के लिए एक दूसरे में सहारा ढूंढ रही हैं तो कांग्रेस जैसा राष्ट्रीय राजनैतिक दल भी इसी का जवाब ढूंढने की जद्दोजहद में लगा है। जो उम्मीद की किरण उसे और समूचे विपक्ष को मध्य प्रदेश और राजस्थान के उपचुनावों के परिणामों में दिखाई दी थी वो पूर्वोत्तर के नतीजों की आँधी में कब की बुझ गई। यही कारण है कि तेलंगाना के मुख्यमंत्री चन्द्रशेखर राव ने हाल ही में कहा कि देश में एक गैर भाजपा और गैर कांग्रेस मोर्चे की जरूरत है और उनके इस बयान को तुरंत ही पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी, झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और ओवैसी जैसे नेताओं का समर्थन मिला गया। शिवसेना पहले ही भाजपा से अलग होने का एलान कर चुकी है। इससे पहले, इसी साल के आरंभ में शरद पवार भी तीसरे मोर्चे के गठन की ऐसी ही एक नाकाम कोशिश कर चुके हैं। उधर मायावती ने भी उत्तर प्रदेश के दोनों उपचुनावों में समाजवादी पार्टी को समर्थन देने की घोषणा करके अपनी राजनैतिक असुरक्षा की भावना से उपजी बेचैनी जाहिर कर दी है। राज्य दर राज्य भाजपा की जीत से हताश विपक्ष साम दाम दंड भेद से उसके विजय रथ को रोकने की रणनीति पर कार्य करने के लिए विवश है।  लेकिन कटु सत्य यह है कि दुर्भाग्य से भाजपा का मुकाबला करने के लिए इन सभी गैर भाजपा राजनैतिक दलों की एकमात्र ताकत इनका वो वोटबैंक है जो इनकी उन नीतियों के कारण बना जो आज तक इनके द्वारा केवल अपने राजनैतिक हितों को ध्यान में रखकर बनाई जाती रही हैं न कि राष्ट्र हित को। हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं है कि पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक वोट बैंक वाली ये सभी पार्टियां यदि मिल जाएं तो भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी कर सकती हैं। लेकिन एक सत्य यह भी कि जाति आधारित राजनैतिक जमीन पर खड़े होकर अपने वोट बैंक को राजनैतिक सत्ता में परिवर्तित करने के लिए, जनता को अपनी ओर आकर्षित करना पड़ता है जिसके लिए इनके पास देश के विकास का कोई ठोस प्रोपोजल या आकर्षण नहीं है। आज की जनता भी इस बात को समझ रही है कि अपने अपने इसी वोट बैंक और संकीर्ण राजनैतिक जमीन के बल पर इन सभी दलों के एकजुट होने का एकमात्र लक्ष्य अपनी राजनैतिक सत्ता बचाना है। इनके संयुक्त होने के एजेन्डे का मूल देश का विकास करना नहीं अपने राजनैतिक स्वार्थों के चलते बीजेपी को हराना है। एक ओर भाजपा अपने राष्ट्र व्यापी लक्ष्यों का विस्तार करती जा रही है तो दूसरी ओर तमाम विरोधी दल अभी तक मोदी विरोध के अलावा अपना कोई साझा लक्ष्य न तो ढूंढ पा रहे हैं और न ही देश के सामने स्वयं को भाजपा के एक बेहतर विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर पा रहे हैं। विपक्ष की मानसिक स्थिति की दयनीयता इसी बात से जाहिर हो रही है कि वो यह नहीं समझ पा रहा कि भाजपा को हराने के लिए आवश्यक है कि जब इस तथाकथित तीसरे मोर्चे की योजनाओं और विचारधारा के मूल में देश के आम आदमी को अपना भविष्य दिखाई देगा तभी वो इसे चुनेगा। लेकिन आज की हकीकत यह है कि इनकी एकता की योजनाओं में देश का बच्चा भी इनका खुद का स्वार्थ देख पा रहा है। एक तरफ इन कथित सेक्युलर पार्टियों के लिए आज अपने ही वोट बैंक में अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने का संकट है तो दूसरी तरफ भाजपा अपने हिन्दू एजेन्डे के साथ आगे बढ़ते हुए पूर्वोत्तर के ईसाई बहुल राज्य के लोगों के दिलों को जीतने में भी कामयाब रही। वो इन राज्यों में यह संदेश देने में सफल रही कि गोरक्षा और बीफ दो अलग अलग मुद्दे हैं जिन्हें एक दूसरे के बीच नहीं आने दिया जाएगा। विपक्ष समझ ही नहीं पाया कि कब मोदी की सबका साथ सबका विकास के नारे की वजह से उनका वोट बैंक उनका नहीं रहा। इससे पहले जब ट्रिपल तलाक के मुद्दे पर काँग्रेस समेत सभी विपक्षी दल अपने अपने वोट बैंक के मद्देनजर इस मसले पर फूंक फूंक कर कदम रख रहे थे, बीजेपी खुलकर इसके खिलाफ खड़ी थी जिसका परिणाम यूपी विधानसभा चुनाव के नतीजों में पूरे देश ने सभी विपक्षी दलों के अल्पसंख्यक वोट बैंक के गणित की धज्जियां उड़ती देखी।

ताजा चुनावी नतीजों का एक अर्थ यह भी

डाॅ. अरूण जैन

त्रिपुरा और अन्य दो राज्यों के नतीजों ने भाजपा को पूर्वोत्तर में उस मुकाम पर पहुंचा दिया जिसके लिए वो वर्षों से जद्दोजेहद कर रही थी। एक बार फिर भारतीय लोकतंत्र में जो यह नया घटा है उसके दूरगामी परिणामों पर चिन्तन शुरू हो गया है। क्या वाम पन्थ शून्य की और जा रहा है ? क्यों कांग्रेस बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पा रही है ? जैसे सवाल उठने लगे हैं,इनका उठाना लाजिमी भी है। इस सारे घटनाक्रम का विश्लेष्ण करें, तो अभी एक बात साफ़ दिखती है, भाजपा में लोगों का भरोसा कायम है साथ ही यह भी, कि क्या यह भरोसा राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और कर्नाटक में दोहराया जायेगा ? चार साल पहले केंद्र में काबिज होते समय विपक्षियों को अनुमान था कि लंबे-चौड़े चुनावी वायदों और मतदाताओं की अपार उम्मीदों का बोझ उनकी छवि पर बहुत जल्द प्रतिकूल असर डालेगा,ऐसा पंजाब में हुआ भी। अब के नतीजे कहते हैं भाजपा संभल गई। भारत में ऐसे वाकये पहले भी हुए हैं। 1984 में 404 सीटें जीतने और 1971 में 352 सीटें पर कांग्रेस में जैसा माहौल था उससे कुछ कम पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के चुनावों ने बनाया है। कांग्रेस ने तत्समय जो गलतियाँ की थी उस गलती से भाजपा को उससे बचना चाहिए। अब यह साफ़ लगने लगा है कि नरेंद्र मोदी ठहराव के खिलाफ हैं। अब वे अपनी छवि को नया रूप देने में जुटे हैं। इसकी बानगी कल फिर देखने को मिली। भाजपा मुख्यालय में जीत के उपलक्ष्य में आयोजित समारोह को उन्होंने संबोधित करना शुरू ही किया था कि पास की मस्जिद में अजान शुरू हो गई। उन्होंने कहा कि अजान खत्म होने तक दो मिनट के लिए मौन रहते हैं। उस समय वे टी.वी. पर 'लाइवÓ थे। मोदी जानते हैं कि उनके मुंह से निकली यह बात यकीनन दूर तलक जाएगी। यह एक त्वरित प्रतिक्रिया थी। ऐसे कई छोटे-बड़े कारक इस जीत में छिपे हैं प्रमुख दो है। पहला संघ के कार्यकर्ताओं का जमीनी काम दूसरा भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की अगुआई में पेशेवरों के एक दल का समर्पण। इस दल का काम साल के 365 दिन जनरुचि के मुद्दों को तलाशना और उनकी बारीकी से समीक्षा करते रहना है। इन्ही आधारों पर चुनावी रणनीति तय हुई थी। अमित शाह प्रत्याशियों के चयन में भी बेमुरव्वत हैं। वे समझ गये हैं कि अगर हार का ठीकरा उनके सिर फूटना है, तो फिर जीत के लिए उन्हें स्वतंत्रतापूर्वक निर्णय करने का हक है। जिसका अमित शाह ने खुल कर इस्तेमाल किया। अब सवाल ऐसा क्या था जो कांग्रेस में नहीं था ? बूथ कार्यकर्ताओं की कमी। भाजपा ने इस पर भी जबरदस्त काम किया, संघ ने उसे सहयोगी तैयार करके दिए कांग्रेस तो राहुल गाँधी को अध्यक्ष बनाने में और यह जताने में लगी रही कि दुनिया का सर्व श्रेष्ठ नेतृत्व उसके पास है। इसके विपरीत भाजपा ने  एक वोटर लिस्ट में जितने पन्ने होते हैं, उनमें से हरेक में दर्ज मतदाताओं को साधने के लिए एक 'पन्ना प्रमुखÓ बनाया। जो लोग त्रिपुरा के चुनावी फैसलों से अचंभित हैं, वहां हर साठ वोटर पर एक 'पन्ना प्रमुखÓ था। इसके अलावा विपक्ष की संभावित रणनीति, हर नई चाल की काट और किसी भी अप्रत्याशित हमले से निपटने के लिए अलग टीमें थी। अभी मोदी और शाह संघ में खासा सामंजस्य बना हुआ  है। पूर्वोत्तर की सफलता में संघ की बरसों की मेहनत का खासा योगदान है। कर्नाटक में भी संघ ने महीनों पहले से अपने कार्यकर्ता झोंक रखे हैं। यह मोदी-शाह की जोड़ी को मिलने वाला ऐसा लाभ है, जिसकी काट विपक्ष के पास नहीं। इसीलिए आज देश में 29 पूर्ण राज्यों में से 20 राज्यों में भाजपा की अगुआई वाले एनडीए की हुकूमत है। कांग्रेस की अगुआई वाला यूपीए सिर्फ तीन राज्यों में सत्ता में है। इससे भाजपा आत्म मुग्ध होकर ऊँघने नहीं लगना चाहिए। उसे यह भी याद रखना चाहिए कि तमाम राज्यों में भाजपा और उसके गठबंधन की सरकारें कैडर पर नहीं बल्कि दल-बदलुओं पर टिकी हैं। पूर्वोत्तर भी इसका अपवाद नहीं है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी इस बार 'स्टारÓ हो गये। उनकी सभाओं में जिस तरह से भीड़ जुटी, वह आश्चर्यजनक है। यह ठीक है कि सीमावर्ती राज्य में नाथ संप्रदाय के लोग बहुत बड़ी तादाद में हैं पर योगी अन्य राज्यों में भी हिंदुत्व के पोस्टर ब्वॉय के तौर पर उभर रहे हैं, इसके बावजूद  राजस्थान और मध्यप्रदेश के लिए भाजपा को किसी और को  तलाशना, तराशना होगा, कांग्रेस में तो राहुल गाँधी हैं ही न।

खूबसूरत तीर्थस्थल है गंगोत्री मंत्रमुग्ध कर देता है प्राकृतिक नजारा

डाॅ. अरूण जैन
गंगोत्री हिमालय की गोद में स्थित है। हिंदू धर्मग्रंथों में मां गंगा के रूप में जिस नदी का जिक्र आता है, यह उसका उद्गम स्थल है इसलिए इसका धार्मिक महत्व भी खूब है। यहां के दर्शनीय स्थलों में 18वीं शताब्दी के दौरान गोरखा कमांडर अमर सिंह द्वारा बनवाया गया गंगोत्री मंदिर प्रमुख है। गंगोत्री के प्राकृतिक सौंदर्य की जितनी तारीफ की जाए उतनी कम है। यह स्थान अपने अनुपम प्राकृतिक सौंदर्य के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। गंगोत्री की यात्रा पर आए सैलानियों को यहां का अलौकिक सौंदर्य मंत्रमुग्ध सा कर देता है। गंगोत्री चूंकि एक खूबसूरत तीर्थस्थल है सो इसके आसपास का वातावरण बहुत ही शांतिमय है। गंगोत्री के आसपास में स्थित तपोवन, नंदनवन तथा गोमुख स्थलों का जब आप पैदल भ्रमण करेंगे तो आपको अविस्मरणीय अनुभव प्राप्त होगा। लंबे-लंबे देवदार वृक्ष और उनके मध्य से बहती हुई ठंडी हवा सैलानियों का मन बरबस ही मोह लेती है और उन्हें एक सुखद अहसास भी कराती है। यदि आप पर्वतारोही हैं तो आपके लिए यह स्थल और भी बढिय़ा है। यहां आप न सिर्फ अपनी पर्वतारोहण की इच्छा पूरी कर सकते हैं अपितु प्रकृति के अलौकिक सौंदर्य का दर्शन भी कर सकते हैं।  वैसे तो सर्दियों के मौसम में यह स्थल बर्फ से ढंका रहता है इसलिए यहां सैलानियों की संख्या कम ही रहती है। लेकिन यदि आप अभी युवा हैं और अपने मित्रों के साथ कहीं घूमने की योजना बना रहे हैं, तो आप सर्दियों में गंगोत्री जरूर जाइए। यहां के लोगों का भी कहना है कि सर्दियों में यहां युवा सैलानियों की संख्या अधिक रहती है तो अन्य मौसम में सामान्य तीर्थयात्रियों की। यहां के दर्शनीय स्थलों में गंगोत्री मंदिर, नंदनवन, तपोवन, मनेरी, गंगनानी और गोमुख के साथ ही केदारताल आदि प्रमुख हैं। वैसे इन सबकी यात्रा करने से पहले आइए आपको लिए चलते हैं हरसिल। यह स्थल स्वादिष्ट सेबों और अपनी प्राकृतिक सुन्दरता के लिए प्रसिद्ध है। यहां पर पर्यटन विश्रामगृह के साथ ही लोक निर्माण विभाग का विश्रामगृह एवं विल्सन काटेज भी मौजूद है जिसमें सैलानी आराम फरमा सकते हैं। आइए अब चलते हैं सात ताल। यहां पर बहुत ही खूबसूरत सी सात झीलें हैं। इन झीलों के आसपास का नजारा भी बहुत सुंदर है आप चाहें तो यहां पर बच्चों के साथ फोटो इत्यादि भी खिंचवा सकते हैं। झील के शीतल जल का एक-दूसरे पर छीटाकंशी करना भी सैलानियों को खूब भाता है। डोडी ताल भी अच्छी जगह है। इस ताल की दो खास बातें हैं पहली तो यह कि यह एक स्वच्छ जल वाली झील है और दूसरी यह कि यह झील चारों ओर से जंगलों से घिरी हुई है। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि इस झील में हिमालय की प्रसिद्ध मछली ट्राउट भी पाई जाती है। दयार बुग्याल भी अवश्य जाना चाहिए। यहां विस्तृत घास के मैदान का प्राकृतिक सौंदर्य देखते ही बनता है। इस स्थान का नाम बुग्याल इसलिए पड़ा क्योंकि स्थानीय भाषा में ज्यादा ऊंचाई पर स्थित घास के मैदान को बुग्याल ही कहा जाता है। ऋषिकेश यहां का सबसे निकटतम रेलवे स्टेशन है। आप चाहें तो गंगोत्री तक आने के लिए सड़क मार्ग का भी उपयोग कर सकते हैं जोकि बहुत ही सुविधाजनक है। आप यदि दिल्ली, चंडीगढ़, हरिद्वार, देहरादून आदि स्थानों के रहने वाले हैं तो आप यहां तक आने के लिए अपने वाहनों का भी प्रयोग कर सकते हैं।

नरेंद्र मोदी के लिए दोबारा सत्ता में आना आसान नहीं होगा

डाॅ. अरूण जैन
पूर्वोत्तर में जीत पर देशभर में जश्न मनाने वाली बीजेपी को 10 दिन बाद तगड़ा झटका लगेगा इसका अंदाजा पार्टी के दिग्गजों को भी नहीं होगा। यूपी और बिहार में हुए उपचुनाव में मिली करारी हार ने बीजेपी में खलबली मचा दी है। 25 साल बाद त्रिपुरा में लेफ्ट का किला ढहाने के बाद जो बीजेपी अपनी जीत पर इतरा रही थी उपचुनाव के नतीजे के बाद उसी बीजेपी के दफ्तर में सन्नाटा पसरा था। बिहार में मिली हार को बीजेपी पचा भी ले लेकिन यूपी के गोरखपुर और फूलपुर में उसका हारना बड़े खतरे का इशारा कर रहा है। यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ के शहर गोरखपुर में बीजेपी 28 साल से जीत रही थी...मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी ने जब गोरखपुर सीट छोड़ी थी तो बीजेपी को कहीं से इसका अंदाजा नहीं था कि ये सीट उसके हाथ से निकल जाएगी...लेकिन जब उपचुनाव के नतीजे आए तो योगी से लेकर पार्टी का हर बड़ा नेता हैरान रह गया। वैसे योगी ने इसे जनता का जनादेश बताकर हार तो मान ली...लेकिन साथ में ये भी माना कि उनकी पार्टी अति आत्मविश्वास के कारण हारी। बीजेपी को झटका सिर्फ गोरखपुर में ही नहीं लगा...फूलपुर सीट जहां पिछले चुनाव में डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य ने भारी बहुमत से जीत हासिल की थी वहां भी पार्टी को हार का सामना करना पड़ा। फूलपुर में एसपी उम्मीदवार ने बीजेपी उम्मीदवार को 59000 से ज्यादा मतों से हराया। गोरखपुर और फूलपुर में बीजेपी को मिली हार के पीछे ज्यादातर लोगों की यही राय है कि ऐसा इसलिए मुमकिन हुआ क्योंकि अखिलेश और मायावती साथ आ गए। मायावती ने दोनों सीटों पर अपने उम्मीदवार नहीं उतारे और उन्होंने समाजवादी पार्टी को समर्थन देने का एलान कर दिया। ये बात सही है कि अगर इन दोनों सीटों पर बीएसपी अपना उम्मीदवार उतारती तो उसका फायदा बीजेपी को मिलता...लेकिन हार तो हार होती है।  अब बिहार की बात करते हैं...अररिया लोकसभा सीट पर आरजेडी उम्मीदवार का बड़े अंतर से जीतना न सिर्फ बीजेपी के लिए बल्कि नीतीश कुमार के लिए भी बड़ा झटका है। लालू के जेल में रहते अररिया लोकसभा और जहानाबाद विधानसभा सीट पर आरजेडी उम्मीदवार की बड़ी जीत ने तेजस्वी को एक बड़े नेता के तौर पर पेश किया है। बीजेपी ने भभुआ विधानसभा उपुचनाव में जीत हासिल कर अपनी लाज तो बचा ली...लेकिन यूपी और बिहार में मिली हार ये बता रही है कि बीजेपी के लिए 2019 का लोकसभा चुनाव आसान नहीं होगा। वैसे 2019 को लेकर अखिलेश की पार्टी से मायावती ने अभी गठबंधन का एलान नहीं किया है...लेकिन उपचुनाव नतीजे के बाद अखिलेश का मायावती की तारीफ करना और फिर लखनऊ में उनके घर जाकर उनसे एक घंटे तक मुलाकात करना बताता है कि बीजेपी को हराने के लिए दोनों साथ आ सकते हैं। दो दिन पहले दिल्ली में सोनिया गांधी के घर 10 जनपथ पर हुई डिनर पार्टी में 20 विपक्षी दलों के नेताओं का पहुंचना साफ-साफ बताता है कि विपक्ष ने 2019 में मोदी को हराने के लिए रणनीति तैयार कर ली है। अगर 2019 में यूपी में बीएसपी-एसपी साथ-साथ चुनाव लड़ती हैं तो बीजेपी की राह काफी मुश्किल हो जाएगी। महाराष्ट्र में पिछली बार कांग्रेस-एनसीपी अलग-अलग चुनाव लड़ी थीं...लेकिन सोनिया के घर डिनर पार्टी में पहुंचकर शरद पवार ने संकेत दे दिया है कि अब आगे ये गलती नहीं दोहराएंगे। बीजेपी से नाराज शिवसेना अगर लोकसभा चुनाव से पहले गठबंधन तोडऩे का एलान कर डाले तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।  आंध्र प्रदेश में जो हो रहा है वो सभी को मालूम है....राज्य को विशेष दर्जे की मांग को लेकर टीडीपी सांसदों ने संसद नहीं चलने दी...और तो और उसके दो मंत्रियों ने इस्तीफा भी सौंप दिया। बंगाल में बीजेपी को हराने के लिए ममता और कांग्रेस साथ आ सकती है। मोदी के विजय रथ को रोकने के लिए विपक्ष आपसी मतभेद भुलाकर साथ आने को तैयार है। अगर कांग्रेस बीजेपी के विरोधियों को एकजुट करने में कामयाब हो जाती है तो फिर मोदी के लिए दोबारा सत्ता में आना आसान नहीं होगा। आज अगर राजस्थान और मध्य प्रदेश में चुनाव हुए तो वहां बीजेपी के लिए वापसी करना आसान नहीं होगा। राजस्थान में हुए उपचुनाव में हार के बाद वसुंधरा के खिलाफ बगावत के सुर तो नरम पड़ गए हैं लेकिन वहां कांग्रेस का पलड़ा भारी दिख रहा है। यही हाल मध्य प्रदेश का है। तो क्या देश में मोदी का जादू खत्म हो रहा है...क्या मोदी के खिलाफ विपक्ष का एकजुट होना ही बीजेपी के लिए खतरा है..अब बीजेपी को भले ही इसका अहसास नहीं हो लेकिन यूपी और बिहार में हुए उपचुनाव के नतीजे इस बात के संकेत दे रहे हैं कि जो जनता कल तक बीजेपी के साथ थी अब वो धीरे-धीरे उसके खिलाफ हो रही है। गोरखपुर जैसी सीट पर बीजेपी का हारना ये बताता है कि लोग गुस्से में हैं...कई लोगों का ये भी मानना है कि शाइनिंग इंडिया की तरह उनका अच्छे दिन वाला जुमला ही बीजेपी को ले डूबेगा।

महेश भट्ट को चैन से सोने नहीं दे रही इस बात की चिंता

डाॅ. अरूण जैन
बॉलीवुड डायरेक्टर-प्रोड्यूसर महेश भट्ट ने हाल ही में लाइव हिन्दुस्तान से बात करते हुए अपनी जिंदगी के कई बड़े खुलासे किए। इसके साथ ही उन्होंने ये भी बताया कि वो आलिया का सपोर्ट देकर उन्हें कमजोर नहीं बनाना चाहते। वो पहले से चाहते थे कि आलिया स्ट्रगल करे। आईए जानते हैं कि उन्होंने क्या कहा। महेश भट्ट ने कहा, आलिया हमेशा से मेरी बनाई फिल्म का हिस्सा बनना चाहती है। पर मैं नहीं चाहता था कि मैं उसका वह सहारा बनूं जो उसे कमजोर कर दे।। मैं चाहता था कि वह अपने हिस्से का संघर्ष करे और उसका अनुभव ले। आपने बॉलीवुड को कई सफल फिल्में दी हैं। खुद अपनी कोई फिल्म, जो आपकी मनपसंद रही हो?एक मां से आप पूछ रहे हैं कि उसे अपने बच्चों में से कौन सा बच्च प्यारा है। मेरे लिए, मेरी हर फिल्म शानदार है, फिर चाहे वह सुपरहिट हो या फ्लॉप। मैंने तो सभी को अपना खून-पसीना दिया था और अभी भी जब कोई फिल्म बनाते हैं तो उसे भी देते हैं। एक वक्त ऐसा भी था, जब आप डिप्रेशन के शिकार हो गए थे। उससे आपने खुद को कैसे बाहर निकाला?हां, उस वक्त मेरा हाल ऐसा था कि लोग मुझे पकड़-पकड़ के घर लाते थे। उस वक्त मैं खुद से खफा था। मुझे लग रहा था कि जिस सफर तक पहुंचने के लिए मैंने बॉलीवुड को चुना है, मैं वहां तक पहुंच नहीं पा रहा हूं। लेकिन जब मेरी बेटी शाहिन पैदा हुई तो मैं वहां पर नहीं था। उन दिनों मैं ज्यादा पीने लगा था। जब उसके जन्म के दो दिन बाद मुझे होश आया और मैं घर गया तो मैंने उसे देखा। मैंने उसे प्यार से गोद में उठाया तो उसने मेरी तरफ देखा ही नहीं। उस दिन मैंने खुद से कसम खाई कि बस अब नहीं। अब और मैं शराब को खुद पर हावी नहीं होने दूंगा। आप कहते हैं कि आपने जो भी गलतियां की हैं, उन्हें बताने से ज्यादा आपको उन्हें छुपाने में डर लगता है। ऐसा क्यों? जिंदगी में मैंने कुछ ऐसे काम किए, जो शायद नहीं करने चाहिए थे। मेरी फिल्मों में भी आप मेरी जिंदगी की कुछ झलकियां देख सकते हैं। मुझे चीजों को छुपाने से डर लगने लगा है। मुझे यह चिंता सोने नहीं देती कि यदि मेरा कोई राज किसी और ने मेरे करीबियों को बता दिया तो शायद वे मुझसे मुंह मोड़ लेंगे। इसलिए मैं खुद ही सब कुछ बोल देता हूं। अब इस उम्र में हताशा शायद बर्दाश्त न हो। बेटी आलिया को पर्दे पर चमकते देख कर कैसा लगता है? क्या एक पिता के तौर पर उन्हें लेकर कोई चिंता होती है?आलिया ने एक बेटी और एक अभिनेत्री के तौर पर मुझे हमेशा चौंकाया है। मैंने कभी नहीं सोचा था कि उसे इतनी जल्दी इतना कुछ मिलेगा। वह हम सबके लिए और खुद अपने लिए एक खोज रही है। मैं खुश हूं कि जो अच्छे अभिनेता हमारे पास इस दौर में हैं, उनमें से वह सबसे उम्दा अभिनेत्रियों में से एक है। जब उसने 'स्टूडेंट ऑफ द ईयर' से अपना करियर शुरू किया था तो मैंने नहीं सोचा था कि वह 'हाइवे' के साथ इतनी बड़ी छलांग लगाएगी। उसके बाद वह अब तक नहीं रुकी है। लेकिन आलिया ने अभी अपना करियर शुरू किया है और उसे बहुत आगे तक जाना है। इन दिनों बॉलीवुड में 'सड़क 2Ó पर चर्चा हो रही है। क्या इस फिल्म में आप आलिया को लेन जा रहे हैं?फिलहाल अभी मेरा ध्यान इंडियाज नेक्स्ट सुपरस्टार पर है, इसलिए दूसरी बातों पर बात करने का कोई फायदा नहीं है। रही बात 'सड़क 2Ó में आलिया को लेने की, तो जब फिल्म का काम शुरू होगा तो पता चल ही जाएगा। आलिया हमेशा से मेरी बनाई फिल्म का हिस्सा बनना चाहती है। पर मैं नहीं चाहता था कि मैं उसका वह सहारा बनूं, जो उसे बर्बाद कर दे। मैं चाहता था कि वह अपने हिस्से का संघर्ष करे और उसका अनुभव ले। कुछ सालों में पूजा और आलिया के रिश्तों में काफी बदलाव देखने को मिला है। क्या आप इससे खुश हैं?मुझे कुछ बदलाव नहीं लगा। दोनों ही एक दूसरे से प्यार करती हैं और उन्हें पता है कि वे एक ही परिवार की बच्चियां हैं। पूजा, आलिया से बड़ी है, इसलिए थोड़ा सा फर्क हो जाता है। लेकिन परिवार में जब आप उन दोनों को बैठे हुए देखेंगे तो समझ जाएंगे कि उनके बीच कितना प्यार है।