Monday 9 July 2018

पद्मावत से फिर दिखा कैसे क्षुद्र स्वार्थों के आगे घुटने टेक देते हैं राजनीतिक दल

डाॅ. अरूण जैन
वोटों की राजनीति किस तरह से देश और समाज को बांट कर कानून के शासन का मखौल उड़ा रही है, सुप्रीम कोर्ट द्वारा फिल्म पद्मावत पर चार राज्यों की सरकार के प्रतिबंध लगाने पर लगाई रोक हटाने से यह साबित हो गया है। सिद्धान्त और नैतिकता की दुहाई देने वाले राजनीतिक दल क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति करने के लिए घुटने टेकने को तैयार रहते हैं। यह फिल्म पद्मावत को लेकर ही नहीं बल्कि इससे पहले भी सरकारों ने जातीय पंचायतों, धर्म समूह या अन्य गुटों के दबाव में आकर कानून को आईना दिखाने वाले निर्णय लिए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इससे पहले खाप पंचायतों के तुगलकी फैसलों पर भी रोक लगाई है। इस तरह के आदिम और बर्बर फरमानों−फतवों को जारी करने से रोकने में भी सरकारें नाकाम रही हैं। जिनमें सरेआम मानवाधिकारों का उल्लंघन होता रहा है और सरकारें तमाशबीन बने हुए देखती रही हैं। यह सरकारों के निकम्मेपन का सबूत है कि कुछ सिरफिरे सरेआम कानून को हाथ में लेकर धमकाने की कोशिश करते हैं। सरकारों की ऐसी निष्क्रियता और मिलीभगत पर अदालतों को ही समय−समय पर हस्तक्षेप करना पड़ता है। ऐसा नहीं है कि सत्ताधारी दल ही क्षुद्र राजनीतिक फायदे के लिए देश में कानून की धज्जियां उड़ते हुए देखने को जिम्मेदार हैं, विपक्षी दल भी इसमें पीछे नहीं हैं। सत्ताधारी दलों को हमेशा यह डर सताता रहता है कि विपक्षी दल उसके खिलाफ ऐसे मुद्दों को राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करेंगे। यही वजह भी है कि सत्तारुढ़ राजनीतिक दल ऐसे संवेदनशील ज्यादातर मामलों में खुद के हाथ बचाते हुए गेंद अदालत के पाले में डालते रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो जानबूझ कर कानून का उल्लंघन होता हुए देख कर अदालत को हस्तक्षेप करने के लिए विवश करते रहे हैं, ताकि यह दलील देते हुए खुद को पाक साफ साबित किया जा सके कि अदालत के आदेश के कारण कठोर निर्णय लेना उनकी मजबूरी है। अलग−अलग राज्यों से उठने वाली आरक्षण की मांग इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। चुनाव के दौरान राजनीतिक दल आरक्षण की मांग को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करते रहे हैं। सत्ता में आते ही ऐसे मुद्दे गले की हड्डी बन जाते हैं। हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश और कर्नाटक इसके भुक्तभोगी हैं। इन राज्यों में विभिन्न जाति−समुदाय के लोगों ने आरक्षण की मांग को लेकर कानून−व्यवस्था को ठेंगा दिखाने में कसर नहीं छोड़ी। सरकारें मूक दर्शक बन कर देखती रहीं। विपक्षी दल भी इस मुद्दे पर अपनी रोटी सेंकने में पीछे नहीं रहे। विपक्ष में चाहे कोई भी दल हो, सभी मानो इसी फिराक में रहते हैं कि कहीं आग लगे और भड़काने के लिए घी कैसे डाला जाए। सत्ता से बाहर आते ही दल ऐसे भड़काऊ मुद्दों की तलाश में रहते हैं कि कैसे इनका इस्तेमाल सत्तारुढ़ दल के खिलाफ किया जाए। इससे राज्य और देश को कानूनी और आर्थिक रूप से कितना नुकसान होगा, इसकी किसी को परवाह नहीं है। उन्हें सिर्फ अपना स्वार्थ नजर आता है, बेशक देश इसकी कोई भी कीमत चुकाए। उनकी बला से देश और समाज की समरसता−सौहार्द्र, एकता−अखंडता को पलीता लगता रहे। इससे राजनीतिक दलों को फर्क नहीं पड़ता। उनका एकमात्र लक्ष्य सत्ता पाना भर रह गया है। राजनीतिक दलों की ऐसी कमजोरियों का फायदा विभिन्न समूह जब−तब उठाते रहे हैं। चुनावों में जब कभी किसी राजनीतिक दल के पक्ष या खिलाफ में वोट देने का फतवा जारी किया जाता है, तब फायदा उठाने वाले दल देश को कमजोर करने वाली ऐसी हरकतों का कभी विरोध नहीं करते। ऐसे मुद्दों पर चुप्पी साधे रहते हैं। यहां तक की चुनावों में टिकटों के वितरण में इस बात का ध्यान रखा जाता है कि किस जाति−धर्म या समुदाय की जनसंख्या के आधार पर टिकट बांटे जाएं। यह नौबत तब आती है जब सत्तारुढ़ दलों को अपने कामकाज पर भरोसा नहीं होता। राजनीतिक दल सत्ता में स्वार्थों की पूर्ति का औजार बन जाते हैं। आम लोगों के विकास और भ्रष्टाचार से मुंह फेरे रहते हैं। दबाव की राजनीति करने वाले चुनिंदा लोगों के सामने दृढ़ता दिखाने का साहस नहीं जुटा पाते। सत्ता में गलत हथकंडे अपना कर घर भरने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने से कतराते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो राजनीतिक दलों के लिए विकास और भ्रष्टाचार के मुद्दे सिर्फ चुनावी जुमलों तक सीमित रह गए हैं। सत्ता में आते ही दल गिरगिट की तरह रंग बदलने लगते हैं। धार्मिक, जातीय या अन्य संवेदनशील मुद्दों पर सख्ती से पेश नहीं आते। सख्ती दिखाने पर वोट बैंक खिसकने का खतरा सताता रहता है। इस ढुलमुल रवैये से ही आत्मविश्वास कमजोर होता है। सत्तारुढ़ दल यह भूल जाते हैं कि यह देश चुनिंदा लोगों, जातीय या धार्मिक समूह से नहीं चल रहा है। देश कानून के शासन से संचालित हो रहा है। इसके अलावा भी यदि कोई जाति या समूह आंदोलन−धरने−प्रदर्शन के जरिए अपनी गैर कानूनी या गैरवाजिब मांगों को मंगवाने के लिए अनुचित दबाव डालने की कोशिश करता है तो देश की बाकी आबादी को ऐसा करना बिल्कुल पसंद नहीं है। यही वजह भी है कि मतदाताओं ने जातिवाद या ऐसे ही गैरलोकतांत्रिक तरीके से राजनीति के भरोसे सत्ता की ऊंचाई तय करने वाले नेताओं की गलतफहमी चुनावों में दूर की है। इनमें से कई तो जेल की सलाखों के पीछे हैं। मतदाताओं ने परिवार और जातिवाद के आधार पर राजनीति करने वाले नेताओं का राजनीति से सफाया कर दिया।  देष के आम लोगों को सिर्फ विकास और लोकतांत्रिक तौर−तरीके पसंद हैं। यदि देश का आम मतदाता इसमें भरोसा नहीं रखता तो केंद्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार नहीं बना पाती। मतदाताओं ने मोदी के विकास करने और भ्रष्टाचार को दूर करने के वायदों पर भरोसा किया। लोकसभा के बाद हुए राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी मतदाताओं ने मोदी सरकार के कामकाज और बेबाकी के अंदाज पर अपनी मुहर लगाई।  यह निश्चित है कि राज्य हों या केंद्र सरकार जब तक नाजायज और गैर कानूनी मांगों के सामने सख्ती से पेश नहीं आएंगी तब तक कानून के शासन को चुनौतियां मिलती रहेंगी। राजनीतिक दलों को यह भ्रम दूर करना होगा कि कोई जाति या समूह अपनी गलत मांगों से उन्हें सत्ता से बाहर कर सकता है। देश के दूसरे मतदाता ऐसा कभी नहीं होने देंगे। देश का चुनावी इतिहास इसका गवाह रहा है।

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