डाॅ. अरूण जैन
अभी कुछ देर पहले एक उत्साही युवा पत्रकार का पोस्ट पढ़ा। पोस्ट में बीते किसी संस्थान में काम करने के बाद तनख्वाह नहीं देने की पीड़ा थी और उस युवा पत्रकार की ये पीड़ा अमूमन ज़्यादातर पत्रकारों के मन में पल ही रही होगी, भले ही अधिकतर लोग अपना दर्द मन में छिपा लेते हैं, लिखते नहीं, कहते नहीं। पर आज मीडिया संस्थानों द्वारा पत्रकारों को मज़दूर समझकर काम कराने और फिऱ मेहनताना नहीं देने की घटना आम है। इस नये साल में चुनावी साल होने के लिहाज से ये साल ऐसे युवा, उत्साही, कर्मठ पत्रकारों के लिए कई मीडिया संस्थानों के आ जाने से जितना मौक़ा देने वाला होगा, उससे ज़्यादा रिस्क लेने वाला भी रहेगा। मुझे याद आता है जब मैंने भी कई युवाओं की तरह आँख़ों में एक अच्छा पत्रकार बनने का सपना पाला था। तबसे काम करने का ये कीड़ा, पीड़ाओं को दरकिनार करता बढ़ता चला गया। कई मीडिया संस्थानों में काम करने, मीडिया की नियमित पढाई में बीजेएमसी में तीन बरस, एमजे में दो बरस, एम फिल में एक बरस देने के बाद इतना समझ आ गया कि आपको उपयोग करने वालों की फ़ौज पैसा लिए, और पैसे के दम पर किसी मीडिया संस्थान को जेब में लिए, पैदा किये खड़ी है। वो बेरोजगारों, केटीयू से निकलते अनगिनत प्रतिभावान प्रोडक्ट को अपने प्रोडक्शन का हिस्सा बनने जीभ लपलपाये, आपको इमोशनल मोड, लालच मोड, स्वप्न सुनहरे मोड में लाने आतुर खड़ी हुई है, इस उम्मीद से कि आपकी छाती में छपे मीडिया स्टूडेंट, मीडिया का कीड़ा कटवाने वाले बंदे का पूरा फ़ायदा उठाने का मौक़ा उन्हें मिल जाये! ऐसा नहीं है कि मीडिया संस्थानों में सिफऱ् शोषण करने, ठगने वाले, मीडियेटर की भूमिका में कमीशनखोरी करने वाले ही हैं, बल्कि आपकी प्रतिभा को निखारने, आपको मंच देने, आपको बेहतरीन बनाने वालों की संख्या भी तगड़ी है। बस ये हमारा विवेक है कि हम आयाराम-गयाराम बनकर ही न रह जाएं, आज भी जब हम मीडियाकर्मी एक दूसरे से मिलते हैं तो ज़्यादातर हाल चाल पूछने के बाद ये पूछते ही हैं कि अभी कहाँ काम चल रहा है? अरे फ़लाना चैनल, या फ़लाना अखबार छोड़ दिये क्या? ओह, तो ये कब जॉइन किये? और न जाने कितने सवाल आपको एहसास बड़ी मज़बूती से दिलाते हैं, और आपको बताते हैं कि मीडिया की नौकरी, स्थायी नहीं है। आज इसका माईक थामे घूमो, कल किसी और कि आईडी थामे निकल पड़ो, ख़ुदको ये झूठा भरोसा दिलाते कि चल भाई, मंत्री भाव दे देगा, टीआई से परिचय हो जाएगा, कोई काम निकल जायेगा, क्योंकि पत्रकार होने का तमगा जो है! आज इस साल का आखिऱी दिन है, और कल से फिऱ एक नई सुबह के साथ हम एक नये साल में नई उम्मीदों, नई आशाओं के साथ अपना जीवन गुज़ारेंगे, 2018 के आखिऱ में छत्तीसगढ़ में विधानसभा के चुनाव हैं, तो ये तय है कि कई नए मीडिया संस्थानों का उदय होगा, इस उदयमान होते नये अध्यायों के साथ फिऱ ढूंढे जाएंगे, कुशाभाऊ ठाकरे से मार्कशीट थामे निकले पत्रकारिता के छात्र, जिन्हें चंद पैसे देकर दौड़ाया जाएगा, न उन्हें एंकरिंग, स्क्रिप्टिंग, एडिटिंग, रिपोर्टिंग की ट्रेनिंग मिलेगी, न उन्हें बतलाया जाएगा कि ये सब सीखना क्यों जरूरी है, बस कोल्हू का बैल बना ढील दिए जाएंगे, फ़ील्ड में, कि संस्थान की पहचान बन जाये, फिऱ लिस्ट में नाम पक्का, और जब वही मेहनतकश पैसे के लिए आये, तो भगा दीजिये, उन्हें बिना कुछ सिखाये, बिना कोई बड़ा मौका दिए, कोल्हू के बैलों की कमी थोड़ी ही न है! अब ये पत्रकारिता के छात्रों को समझना होगा कि चुनावी मौसम में वो ठगाई जनता की तरह अपनों से छले गए पत्रकार न बन जाएं, वो अपने मौक़े का भरपूर फ़ायदा उठाएं, खुदकी अलग पहचान बनायें, जितना हो सकता है इस युवा उम्र में ज़्यादा से ज़्यादा चीजें सीखें, कैमरा हैंडलिंग से एडिटिंग तक, वीओ से ग्राफिक्स तक, रिपोर्टिंग से स्क्रिप्टिंग और पीटीसी से इंटरव्यू तक, ताकि़ ये नया साल आने वाले साल में कुछ बेहतर प्रतिभा, कुछ बेहतर ज्ञान, बेहतर कौशल उन्नयन की चीज़ें सीखाकर जाए, एक बेहतर सुबह के भरोसे आपको छोड़कर जाए, एक सुकून भरी रात देकर जाए।
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