Tuesday 10 July 2018

चीनी दादागिरी से परेशान देश भारत की छतरी तले आ रहे

डाॅ. अरूण जैन
अबकी बार लीक से हट कर गणतंत्र दिवस पर दस देशों के राष्ट्राध्यक्षों को बुलाना वह भी सभी दक्षिण एशियाई देश और सभी राष्ट्राध्यक्षों का आना क्या इसका इशारा नहीं है कि चीन की दादागिरी के खिलाफ भारत एशिया में सुरक्षा छतरी बन कर उभर रहा है? यूं तो चीन के व्यवहार से अमेरिका सहित दुनिया के बहुत से लोग किसी न किसी रूप में पीडि़त हैं, परंतु खुद चीन के एक एशियाई महाशक्ति होने के चलते इस महाद्वीप व विशेषकर उसके पड़ोसी देश अधिक परेशान हैं। इनमें अभी तक भारत भी शामिल रहा है। जिस तरह के संकेत मिल रहे हैं उससे लगता है कि इन पीडि़त देशों को एक सुरक्षा छतरी की आवश्यकता है जिसकी आपूर्ति भारत अपनी बदली हुई छवि व नीति से करने के प्रयास में है। हरियाणवी कहावत है कि सिर पर छत्र को बनाए रखने के लिए पैर के छित्तर को मजबूत करना पड़ता है। डोकलाम विवाद के बाद दुनिया को लगने लगा है कि भारत के पैर का छित्तर अब मजबूत है। भारत ने इस मोर्चे पर जिस तरीके से शौर्य, संयम और कूटनयन गुणों का प्रदर्शन किया उससे हिमालय पर तूफान की तरह चढ़ कर आए चीन को आंधी बन कर वापिस लौटना पड़ा। चीन की वापसी ने उसकी भारत पर 1962 की चली आ रही मनोवैज्ञानिक हैंकड़बाजी को भी लगभग समाप्त कर दिया। दुनिया में भी इसका सकारात्मक संदेश गया और चीन पीडि़तों को लगने लगा कि भारत उन्हें सुरक्षा छतरी उपलब्ध करवा सकता है। नई दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आसियान देशों के साथ जो द्विपक्षीय वार्ताएं कीं उनमें यों तो ऊर्जा, शिक्षा, स्वास्थ्य, आपदा-राहत जैसे मुद्दे उठे, पर जो मुद्दा सबसे ज्यादा छाया रहा वह था समुद्री सुरक्षा सहयोग का। चाहे किसी ने भी चीन का नाम नहीं लिया, पर दक्षिण चीन सागर विवाद की पृष्ठभूमि में समुद्री सुरक्षा सहयोग पर जोर देने से यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इन देशों के भारत के नजदीक आने का असली कारण चीन की दादागिरी ही है। चीन की दक्षिण चीन सागर में दिखाई जाने वाली अकड़ से उक्त आसियान देश, भारत और जापान के अलावा आस्ट्रेलिया, अमेरिका समेत पश्चिमी देश भी अंतरराष्ट्रीय नियमों के उल्लंघन का मामला उठाते रहते हैं। आसियान देशों व भारत के दिल्ली घोषणापत्र में 1982 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा मंजूर किए गए समुद्र संबंधी कानूनों, अंतरराष्ट्रीय नागरिक उड्डयन संगठन और अंतरराष्ट्रीय समुद्री संगठन द्वारा संस्तुत मानकों और व्यवहारों के मुताबिक मतभेदों तथा विवादों के निपटारे की वकालत की गई है। यह सभी बातें इशारा करती हैं कि एशिया के छोटे-छोटे विकसित व विकासशील देश चीन के खिलाफ भारत को एक शक्ति मानते हुए एक सुरक्षा छतरी के रूप में स्वीकार कर रहे हैं। चीन की स्थिति आज ही ऐसी नहीं, हिंसक वामपंथी विचारधारा और माओ जैसे नेताओं से दुखी एशिया के देशों के साथ-साथ विश्व के कई देशों ने भारत की स्वतंत्रता का स्वागत भी इसीलिए किया था कि भारत उन्हें सुरक्षा छतरी प्रदान करेगा। भारत दमनकारी चीन पर अंकुश रखेगा। इसके लिए भारत को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् में सदस्यता थाली में परोस कर दी गई परंतु हमारे अति आदर्शवादी नेतृत्व ने चीन का समर्थन कर दिया। केवल इतना ही नहीं परमाणु ऊजा आपूर्ति समूह (एनएसजी) की सदस्यता भी भारत को देने का प्रस्ताव किया गया परंतु स्वप्नलोक में विचरन कर रहे हमारे राजनेताओं ने इससे भी इंकार कर दिया। आज हम इसी दूरदर्शिता विहीन नीतियों का खमियाजा भुगतने को विवश हैं और संयुक्त राष्ट्र की स्थाई सीट के साथ-साथ एनएसजी की सदस्यता के लिए अपना समय, धन व ऊर्जा खर्च कर रहे हैं। दूसरी ओर चीन के तिब्बत पर साम्राज्यवादी हमले के समय दुनिया को उम्मीद थी कि भारत इसका प्रतिरोध करेगा। इस निर्णायक घड़ी में हमने तिब्बत से निर्वासित धर्मगुरु दलाई लामा को शरण देने का पराक्रम तो अवश्य किया परंतु साथ में ही दुनिया में अध्यात्म की महाशक्ति के रूप में विख्यात तिब्बत पर चीन का आधिपत्य स्वीकार कर लिया। इन सभी गलतियों से उन देशों के विश्वास को आघात लगा जो भारत को चीन की दादागिरी के खिलाफ मजबूत सुरक्षा कवच के रूप में देख रहे थे। रही सही कसर 1962 के चीनी हमले ने पूरी कर दी जिसमें चीन ने न केवल हमारे जवानों के खून से होली खेली बल्कि हजारों वर्ग किलोमीटर भू-भाग पर भी कब्जा कर लिया। इस पराजय से कई दशकों तक भारतीय मन भी पराजित रहा और दुनिया को भी यह संदेश गया कि भारत जब अपनी रक्षा नहीं कर सकता तो उनकी क्या करेगा। तिब्बत जो भारत-चीन के बीच सुरक्षा दीवार थी वह खुद ही हमने अपने हाथों से गिरा ली। यही उक्त कारण रहे कि हमारी वह धाक खत्म हो गई जिसकी कि दुनिया को अपेक्षा थी, लेकिन अब डोकलाम विवाद और इरान में बनी चाबाहार बंदरगाह से इन देशों का विश्वास एक बार फिर भारत पर बनता दिख रहा है। एशिया में चीन के पास पाकिस्तान को छोड़ कर कोई विश्वसनीय मित्र नहीं बचा। तो दूसरी ओर भारत एशिया के नेतृत्व के रूप में उभरा है। इसके पीछे बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियां व अमेरिका और भारत की बढ़ी नजदीकियां भी बहुत बड़ा कारण हैं। डोकलाम में अपनी असफलता पर चीन इतना बौखलाया हुआ है कि बार-बार फिर डोकलाम दोहराने की चेतावनी देता है और मीडिया में खबरें भी उछालता है। लेकिन इस मोर्चे पर सफलता ने भारत के कद को बढ़ाया है और चीन को मनोवैज्ञानिक पराजय मिली है। भविष्य में हमें न केवल सतत् जागरुक रहना होगा बल्कि हमारे प्रति दुनिया की पैदा हो रही अपेक्षाओं पर खरे उतरने के भी प्रयास करने होंगे। भारत अगर सज्जन शक्ति के रूप में स्थापित होता है तो यह पूरी मानवता के लिए शुभ होगा। हाल ही में दावोस में आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन और आत्मकेंद्रीकरण जैसे जिन वैश्विक खतरों का नरेंद्र मोदी ने जिक्र किया, उनसे निपटने का मार्ग भी भारतीय चिंतन व नेतृत्व दुनिया को दिखाएगा यह विश्वास दुनिया में पैदा होगा। 

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